गुरुवार, 13 दिसंबर 2007

जो बच्चे मोटर साइकिल-मोटर कारें चलाते हैं...

मुझे जो बच्चे मोटर साईकिल एवं कारें चलाते हैं...शायद मुझे उन के ऊपर जितना गुस्सा आता है, उस से भी कहीं ज्यादा गुस्सा उन के मां बाप के ऊपर आता है जिन की वजह से यह बच्चा बेलगाम हो गया है. लेखक हूं ..अखबारों के लिए भी लेख लिखता रहता हूं लेकिन पता नहीं यह बलाग लिखते हुए मैं बेहद आजादी सी अनुभव कर रहा हूं ..शायद इसीलिए अपने मन की बात आप से सांझी करने की तीव्र इच्छा सी हो रही है। वह यह है कि जब भी मैं इन छोटे-छोटे बच्चों को इस तरह के वाहन उड़ा कर डरावने से हार्न बजा कर जाते देखता हूं तो मेरी इतनी ज्यादा इच्छा होती है कि मैं पहले तो इसे रोक कर एक करारा सा तमाचा जड़ूं और फिर उन के मां-बाप से बात करूं..
दोस्तो, कृपया यह मत सोचिए कि यह मैं यह इस लिए करने की चाह रखता हूं कि मैं अपने किशोर बेटे के लिए ऐसी गाड़ी की व्यवस्था करने के काबिल नहीं हूं या मैंने सारी पढ़ाई एक साईकिल पर चढ़ कर ही पूरी की है, इसलिए मैं कहीं फ्रस्टरेटिड हूं ..बिल्कुल नहीं मेरी इस नफरत के पीछे केवल एक ही कारण है कि ये बच्चे सड़क पर सीधे-सादे लोगों को आतंकित कर के रखते हैं। दोस्तो, आप जानते हैं कि इस देश में तो वैसे ही फुटपाथ गधे के सींग की तरह गायब हैं, जिस की वजह से बुजर्ग लोगों , पैदल जाने वाले छोटे स्कूली बच्चों को एवं बीमार लोगों को सड़क के बीच चलने का जोखिम तो उठाना ही पड़ता है, इस सब से ऊपर इन बच्चों का आतंक सहने की ज़हमत भी इन्हें उठानी पड़े ,यह मेरे से देखा नहीं जाता।
वैसे भी जब इन बच्चों के मां-बाप इन को मोटर-साइकिल एवं कारें थमाते हैं, उन्हें यह तो समझ लेना चाहिए कि वे अपने बच्चे की जान तो खुशी खुशी जोखिम में डाल सकते हैं, लेकिन एक आम बंदे की जिंदगी से खिलवाड़ करने का लाइसैंस आखिर उन के लाडले को किस ने दे दिया है। बात सोचने की है,,,,,,अगर हम इन की लगाम अपने हाथ में नहीं रखेंगे तो फिर गुड़गांव स्कूल जैसे किस्से ही हमें नियमति देखने सुनने को मिला करेंगे।
बस दीनता से यह कह देना कि बच्चे मानते नहीं हैं , यह बिल्कुल गलत है। मेरा किशोर बेटा मुझे हज़ारों बार मोटर-साइकिल दिलाने को कह चुका है और मैं भी उसे 18 साल न खरीदने के लिए हज़ारों बार ही मना कर चुका हूं।

बुधवार, 12 दिसंबर 2007

ये सभी लेबल अंग्रेज़ी में ही क्यों हैं....

मुझे एक बडी शिकायत उन सब उत्पादकों से है जो कि इस देश में सब वस्तुओं पर सारी लेबलिंग अंग्रेजी में ही करते हैं.उन्हॆ यह अच्छी तरह से पता है कि हिंदी ही हमारी आम बोलचाल की भाषा है और बहुत ही कम लोग इस देश में अंग्रेज़ी पढ़ना जानते हैं। तो फिर क्यों वे अंग्रेज़ी को इतना बढ़ावा देते हैं। मुझे तो लगता है कि यह सब आम बंदे को उल्लू बनाने के लिए ही किया जाता है...न वह पढ़ सके कि वह वस्तु कब बनी, कब उस की एक्सपायरी है, उस में क्य़ा है क्या नहीं है,,,उसे तो अंधकार में ही रखा जाए। हम लोग वैसे तो ढिंढोरा पीटते रहते हैं कि यह काम हिंदी में होना चाहिए , वो काम हिंदी में होना चाहिए , लेकिन इस बारे में मीडिया में क्यों कुछ नहीं कहा जाता। यहां तक कि आम बंदा जो दवाईयां ले कर खाता है,उस के नाम और उस की सारी जानकारी भी अंग्रेज़ी में ही दी जाती है। लेकिन. जहां इन कंपनियों का अपना हित होता है वहां ये देश की सभी भाषाओं में भी सूचना उपलब्ध करवाने से भी कोई दिक्कत महसूस नहीं करती। अगर आप को विश्वास नहीं हो रहा हो तो किसी मच्छर भगाने वाली दवाई के डिब्बे को खोल के देख लीजिए।।।।

ये काहे के स्वास्थ्य परिशिष्ट.......आप भी ज़रा सोचिए

हिंदी के कुछ एवं कुछ अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के समाचार-पत्रों में मैंने यह देखा है कि स्वास्थ्य परिशिष्ट तो हर सप्ताह वे निकाल देते हैं लेकिन उन में स्वास्थ्य संबंधी जानकारी बेहद अधकचरी होती है। मुझे इन परिशिष्टों से सब से ज्यादा आपत्ति यह है कि काफी बार तो ये किसी डाक्टर के द्वारा लिखे ही नहीं होते हैं। दूसरी बात यह है कि कई बार किसी स्वास्थ्य संबंधी लेख के नीचे केवल यही लिखा होता है कि फीचर डैस्क के सौजन्य से। एक बात और जो खलती अहै कि कई बार तो उस लेख के लेखक का नाम ही नहीं लिखा होता। और सब से अहम बात मैं जो रेखांकित करना चाह रहा हूं वह यह है कि कई बार तो किसी डाक्टर को उस पृष्ठ को अपने विज्ञापन के लिए ही इस्तेमाल किए दिया जाता है और इस के पीछे के कारण मुझे आप जैसे प्रबुद्ध पाठकों के समक्ष रखने की कोई ज़रूरत नही है। एक बात और भी है कि कई बार तो इन समाचार-पत्रों में विज्ञापनों को भी लेखों का ही रूप दे कर छाप दिया जाता है। अंग्रेज़ी के समाचार-पत्रों में ये सब धांधलिय़ां बहुत कम दिखती हैं क्योंकि उन का पाठक अगले ही दिन अपनी आवाज़ उठानी शुरू कर देता है। वैसे आप को नहीं लगता कि ये अखबारों वाले अच्छे लेखक आखिर कहां से लाएं.....मै अपने अनुभव से कह सकता हूं कि ये अखबार वाले चाहे विज्ञापनों से अरबों खरबों कमा लें, लेकिन किसी लेखक को उस का पारिश्रमिक देते वक्त ये अपनी दीनता दिखाने लगते हैं। ऐसे में तो ये अजीबों गरीब स्वास्थ्य लेख छाप कर एक आम पाठक की लाइफ से खिलवा़ड़ नहीं तो और क्या कर रहे हैं।....इन अखबारों का आम पाठक अखबार में लिखी हर बात को गहन गंभीरता से लेता है।
काश उसे भी समझ आ जाए कि .....These are best taken with a pinch of salt!!!!

The most beautiful things in the universe can not be seen or touched....these must be felt with heart..!!