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सोमवार, 14 मार्च 2016

फ़क़त एक लाल मिर्ची ने कैसे ले ली एक बच्ची की जान !






पहले तो इस बात का यकीं ही नहीं हुआ..ऐसे लगा जैसे मुझे पढ़ने में कुछ गलती लगी हो..लेिकन फिर से पढ़ा आज की टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले पन्ने पर छपी इस पहली खबर को ..दो साल की बच्ची ने एक लाल मिर्ची को खा लिया और इसी चक्कर में उस की जान चली गई....बहुत दुःखद, बहुत दुर्भाग्यपूर्ण।


छोटे बच्चों के लिए हम लोग अपने स्विच बोर्ड चाइल्ड-प्रूफ कर लेते हैं.. मैंने कुछ रिपोर्टज़ देखीं कि छोटे बच्चों ने गेम्स में डलने वाले छोटे गोलाकार सेलों को निगल लिया...पेरेन्ट्स को आगाह तो करते ही हैं कि जिन रिमोट्स में भी छोटे गोलाकार सेल पड़ते हैं, उन्हें बच्चों की पहुंच से दूर रखा जाए, दवाईयों के बारे में तो कहते ही हैं...हां, दवाईयों से एक बात याद आई, कल से नईं बात पता चली पेपर से कि जिन दवाईयों की स्ट्रिप्स पर लाल लाइन लगी हो, उन्हें आप को बिना डाक्टर की सलाह के लेना ही नहीं है... उत्सुकता हुई, घर मे कुछ दवाईयां थीं, देखा उन पर लाल लाइन लगी हुई थी, इस बात का हमें आगे प्रचार करना चाहिए।


आगे से लाल लकीर का आप भी ध्यान रखिएगा.. इस संदेश को आगे भी पहुंचाइएगा
हां, मैं कह रहा था कि छोटी छोटी बातों के लिए छोटे बच्चों के पेरेन्ट्स को सावधान तो करते ही हैं लेिकन अब तो पेरेन्ट्स अपने आप बच्चों को इस लाल मिर्ची से भी दूर रखना होगा..

हां, तो दिल्ली में रहने वाली इस दो वर्ष की बच्ची के साथ यह हुआ कि इसने गलती से एक लाल मिर्ची को काट लिया....ज्यादा से ज्यादा होता, मुंह जलता या आंखों से पानी आता. थोड़ी शक्कर खाने से ठीक हो जाता, लेकिन नहीं, इस बच्ची की तो सांस लेने की प्रक्रिया ही फेल हो गई ...चिकित्सीय मदद के बावजूद वह चल बसी।

आल इंडिया मैडीकल इंस्टीच्यूट दिल्ली में इस बच्ची के शव की जांच (आटोप्सी) से पाया गया कि उस की सांस की नली में पेट के द्रव्य ( gastric juices) चले गये... जिस की वजह से उस की सांस लेने की प्रक्रिया बंद हो गई। दरअसल इस बच्ची को मिर्ची खाने के बाद उल्टीयां आने लगीं और बस, उसी दौरान उल्टी का कुछ हिस्सा सांस की नली में पहुंच गया...डाक्टरों की कोशिश के बावजूद बच्ची २४ घंटों में ही चल बसी।

यह वाकया तो कुछ महीने पहले का है, लेकिन यह मैडीको-लीगल जर्नल में अभी छपा है ..

ध्यान रखिए भई आप जिन के छोटे बच्चे हैं, मेरे जैसे बड़ों को भी यह समझना बहुत ज़रूरी है कि खाने के वक्त बातें नहीं करनी होतीं, चुपचाप खाना खाइए...वरना यह खतरा उस दौरान भी बना ही रहता है...कितनी बार तो हमारे साथ ही होता रहता है...कुछ बात बार बार दोहराने लायक होती हैं, शायद हमारे मन में बस जाएं....जैसे जहां शोच, वहां शोचालय के बारे में  विद्या बालन की डांट-डपट हम सुन सुन कर कुछ सुधरने लगे हैं..काकी, क्या करूं अब लोग तो सुनते नहीं, मक्खियां को ही कहना पड़ेगा कि इन के खाने पे मत बैठो।



 दूसरी खबर जो पहले ही पन्ने पर छपी है और परसों से टीवी पर बीसियों बार देख-सुन-समझ चुके हैं कि संघ वाले अब खाकी निक्कर की जगह भूरे रंग की पतलून पहना करेंगे....बहुत अच्छा ...मुझे समझ यह नहीं आया कि इस में ऐसी क्या बात है कि जो कि पेपर के पहले पन्ने पर इसे छापा गया और वह भी तस्वीर के साथ... तस्वीरों के बारे में भी पेपर वालों की दाद देनी पड़ेगी, पता नहीं क्या क्या इन्होंने अपने आर्काइव्ज़ ने सहेज रखा है, बच के रहना चाहिए..

पहले पन्ने पर एक खबर यह भी िदखी कि रेलवे अब कंबल को प्रत्येक इस्तेमाल के बाद साफ़ किया करेगी....लिखा है उस में किस तरह से नये डिजाईन के कंबल आएंगे...अभी कुछ गाड़ियों में ही इसे शुरू किया जायेगा... इसी चक्कर में मुझे आज सुबह आठ-दस साल पहली लिखी एक ब्लॉग-पोस्ट का ध्यान आ गया.. उसे आप के लिए ढूंढ ही लिया..

अब इस कंबल के बारे में भी सोचना पड़ेगा क्या! (इस पर क्लिक कर के इसे देख सकते हैं, अगर चाहें तो)..

मेरे विचार में अभी के लिए इतना ही काफ़ी है, मैं भी उठूं ...कुछ काम धंधे की फिक्र करूं....ये बातें तो चलती ही रहेंगी,..बिना सिर-पैर की, आगे से आगे... फिर मिलते हैं ...शाम में कुछ गप्पबाजी करेंगे...   till then, take care... may you stay away from Monday Blues!



गुरुवार, 19 नवंबर 2015

डाक्टर, आप की बात टेप ही कर लेता हूं!

इस से पहले की मैं आप को एक वाकया सुनाऊं, मैं आप को उस परिवेश से रू-ब-रू करवाना चाहूंगा जिस में हम पले-बढ़े और जिस में डाक्टर और मरीज कैसे हुआ करते थे!

स्कूल कालेज के दिनों तक हमारा वास्ता इस तरह के सरकारी डाक्टरों से पड़ा जो अपने मरीज़ों की तरफ़ देखे बिना कुछ न कुछ लिख दिया करते थे...बात करना और चेक करना तो दूर, वे पूरी तकलीफ़ सुने बिना अस्पताल में मौजूद दो चार तरह की दवाईयों में से दो का नुस्खा लिख कर थमा देते थे, वे हमें वहीं से मिल जाती थीं...हम घर आकर एक दो खुराक खा लेते थे... बाकी दवाईयां फैंक दिया करते थे, डाक्टरी की बेरूखी की वजह से दवाई खाने की इच्छा ही कहां हुआ करती थी! 

एक दो दिन में तकलीफ़ ठीक हो गई तो ठीक, वरना हमारे पिता जी किसी कैमिस्ट से दो चार खुराकें लाते और वे हमें लग भी जाया करती थी, नहीं तो माता जी के साथ अमृतसर के एक नामचीन डाक्टर कपूर के पास जाना होता था...वह भी बातें कम करते थे लेकिन काम में एक्सपर्ट थे... मुझे अच्छे से याद है मरीज़ सभी डरे-सहमे-सिमटे उन की क्लिनिक की बेंचों पर बैठे रहते थे. बातें ज़्यादा नहीं करते थे, अपना काम जानते थे, लेकिन बंदा चिड़चिड़ा सा था थोड़ा, एक से दूसरी बात पूछने पर भड़क जाता था, आज से चालीस साल पहले वाला ज़माना सीधे साधे लोगों का था, कहने का मतलब यही कि सब तरह के डाक्टर बस जैसे तैसे चल जाया करते थे। 

और जहां तक डाक्टर के पास जाकर ज़्यादा बात करने की बात है, तौबा भई तौबा ...यह हम ने कभी बचपन में देखा ही नहीं, हमारे मां-बाप से ही एक से दूसरी बात डाक्टरों के साथ नहीं होती थी तो हम ने ही क्या करनी थी! बस, दब्बू गूंगे से बन कर बैठे रहते थे।

आज के दौर में जिस तरह से छोटे बच्चे भी आत्मविश्वास से बात करते हैं ...अधिकतर ...उस समय लगता है कि हां, ज़माना बदल चुका है बहुत.... लेकिन कईं बार जब हद पार हो जाती है तो थोड़ा अजीब सा लगता है, मैंने यह नहीं कहा गलत लगता है, यही कहा कि कुछ अलग सा लगता है जैसा कि मैं आप को एक असल वाकया सुनाने लगा हूं।

उस दिन वह अधिकारी मेरे पास आया था... सेकेंड ओपिनियन के लिए...उस की पत्नी का कहीं से इलाज चल रहा था, उसे सेकेंड ओपिनियन चाहिए था। बता रहा था कि घर दूर है, इसलिए बीवी को साथ नहीं ला सकता था। 

जब मुझे उस से बात करते पांच मिनट हो गये तो...उसने कहा कि डाक्टर, अच्छा होगा अगर मैं आप की बात टेप कर लूं..(उसने यही शब्द टेप ही बोला था).....मुझे अजीब नहीं, बहुत ही अजीब लगा था, शायद अटपटा भी ...क्योंकि इस तरह की बातें सुनने की शायद आदत नहीं है ...यह मेरे साथ पहली बात हुआ।

मैंने तुरंत उसे हल्के अंदाज़ में कहा ...नहीं, नहीं, उस की कोई ज़रूरत नहीं है, आप की पत्नी जब आएंगी तो मैं ये सब बातें दोबारा फिर से बता दूंगा.... लेकिन उसने मेरी बात सुनी-अनसुनी कर दी ... और तब तक वह स्मार्ट अधिकारी अपने से भी स्मार्ट फोन पर उंगली चलाने लगा और रिकार्ड का बटन दबा कर फोनवा जेब में रख कर मेरे सामने बैठ गया.......मैंने अगले १५-२० मिनट उस से बात की....लेिकन मुझे बीच बीच में थोड़ा सा अजीब ज़रूर लगता रहा।

अब आप सोच रहेंगे कि मैंने उसे इजाजत ही क्यों दी कि वह मेरा इतना लंबा वार्तालाप रिकार्ड कर ले, उस का जवाब एक तो यह है कि मैं तो इजाजत तभी देता अगर वह मांगता, लेिकन यह तो एक तरह की जबरजस्ती ही समझें......और दूसरी बात जो मेरे ज़हन में उस समय कौंध रही थी वह यही थी कि इसने तो पूछ कर बात रिकार्ड की है, अगर मेरे चेंबर के बाहर ही से यह मोबाइल फोन ऑन कर के अंदर आ जाता तो मैं क्या कर लेता, मुझे क्या पता चल पाता!

और एक ध्यान यह भी आया कि वैसे भी दिन में पता नहीं कितने लोग क्या क्या रिकार्ड कर ले जाते होंगे, हर हाथ में एक स्मार्ट फोन होता है, रिश्तेदार इलाज करवा रहे होते हैं और साथ आने वाला हमारे सामने वाली कुर्सी पर बैठ कर स्मार्ट फोन के साथ लगा रहता है...यही सब सोच कर लगा कि इस अधिकारी को सख्ती से मना ना ही करना मुनासिब है।

वैसे भी आज कल रिकार्डिंग डिवाइस कुछ ज़्यादा ही दिखने लगे हैं....स्टिंग आप्रेशन स्टाईल के ...दो दिन पहले मैं लेपटाप के लिए एक केबल खरीदने गया  था, वहां पर सब तरह के खुफिया कैमरे जो हम लोग टीवी के विज्ञापनों में ही देखते हैं, वे सब बिक रहे थे...खुफिया कैमरे से लैस पेन भी...लेिकन मैंने उन्हें देखने का भी कष्ट नहीं किया......जब ये सब घटिया हरकतें करनी ही नहीं कभी तो इन के चक्कर में पड़ना ही क्यों!

मैंने कभी भी किसी की फोन की बातचीत भी रिकार्ड नहीं की है......मैंने अपने किसी भी फोन में यह फीचर ढूंढने तक की ज़हमत नहीं उठाई...क्योंकि किसी के साथ इस से बड़ा विश्वासघात क्या होगा कि आप बिना उस की जानकारी के उस की बातचीत रिकार्ड कर लें, फिर उसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करें.....मैं जिस परिवेश में पला-बढ़ा हूं और जो हमें घर-बाहर से सिखलाई मिली है ,उस के मुताबिक इसे पीठ में छुरा (back stabbing)घोंपना कहते हैं... इसे बहुत गलत समझा जाता है....जब किसी ऐसे आदमी के बारे में पता चल जाता है तो उस की साख ज़ीरो हो जाती है....कोई उस से सलाम-दुआ तक नहीं करना चाहता। आदमी की करेडिबिलिटी बहुत बड़ी पूंजी है, मैं ऐसा समझता हूं....इसलिए किसी के साथ भी विश्वासघात बहुत महंगा पड़ता है। 

कईं साल पहले की बात है ...आठ दस साल पहले की...हमें एक बंदे का पता चला जो सब की बातें रिकार्ड कर लिया करता था ..फिर उसे अपने स्वार्थ के लिए यूज़ भी किया करता था....मुझे याद है कि जिस दिन मुझे यह पता चला... उस दिन से ही मैं उस के साथ फोन पर बात करने से ही कतराने लगा... यहां तक कि वह जब कहीं मिल भी जाता तो यही लगता कि जेब में रखे अपने फोन से ये सारी बातें रिकार्ड कर रहा होगा......और ज़ाहिर सी बात है कि कुछ समय बाद उस के साथ वार्तालाप का स्टाईल कुछ इस तरह का हो गया कि जैसे वह हर बात रिकार्ड कर रहा है... यह कहूं कि उस के बाद उस के साथ बात करने में मज़ा ही नहीं आया...लेिकन अब समय इस तरह से बदला है कि अब यह टेंशन बिल्कुल भी नहीं रही, अब तो ये सब बातें इतनी आम हो गई हैं कि यह इश्यू ही नहीं रहा.....करो, यार, करो रिकार्ड ...और कर लो जहां चाहते हो इसे इस्तेमाल ...लेिकन फिर भी उस दिन जब उस अधिकारी ने मुझे कह कर मेरी बात रिकार्ड की तो मुझे अटपटा सा लगा.......सोचने की बात है कि आखिर मुझे ऐसा लगा क्यों ? कभी फुर्सत में अपने आप से फिर पूछूंगा। मेरे पास भी छिपाने के िलए कुछ भी तो नहीं था!

उस अधिकारी के पास अपनी पत्नी के एक्स-रे की सी.डी थी...जिसे उसने अपने लैपटाप में लगा लिया ...और फिर मेरे से वार्तालाप शुरू किया....सेकेंड ओपिनियन तो क्या, बीच बीच में मुझे उस के प्रश्नों से लग रहा था जैसे वह मेरा वाईवा (viva voce) ले रहा हो.. a sort of structured interview...और मेरे चेंबर से बाहर निकलने से पहले उसने मेरे को दूसरे विशेषज्ञ की प्रिसक्रिप्शन भी दिखाई और पूरी तरह से आश्वस्त हो गया कि जो इलाज चल रहा है वह बिल्कुल दुरूस्त है। 

डाक्टर मरीज के संबंध भी बड़े नाज़ुक और अजीब होते हैं, there are many layers to it...जहां तक हो सके इसे जटिल न बनाया जाए, ऐसा मैं सोचता हूं....सोचता ही नहीं हूं...इसे व्यवहार में भी लाता हूं.....मैं कभी कल्पना भी नहीं कर सकता कि मैं किसी विशेषज्ञ को यह पाऊं कि मैं उस की बात को रिकार्ड करना चाहता हूं। 


यह वाकया मेरे साथ उस दिन पहली बार हुआ... लेिकन इस ने मुझे एक सबक सिखा दिया....मैं खुलेपन की बात तो बहुत करता हूं लेिकन मैं इतना भी नहीं खुल पाया हूं कि इस तरह के कोई पहले बता के सारा वार्तालाप रिकार्ड कर के ले जाए.... (बिना बताए चाहे वीडियो बना ले जाए.......हा हा हा हा हा हा हा ....है ना विडंबना...लेिकन जो है, सो है , मैं महानता का ढोंग भी करने से नफ़रत करता हूं!) .... यही सोचा है कि अगली बात जब कोई इस तरह से किसी वार्तालाप को रिकार्ड करने की बात करेगा तो उसे साफ़ साफ़ मना ही कर दूंगा.....मुझे यही ठीक लगता है....विशेषकर जब मरीज साथ आया नहीं है , उस का रिकार्ड दिखा नहीं रहे हो ...बस एक्स-रे दिखा कर ही मुकम्मल रिकार्डिंग कर लेना चाहते हो।

कोई बात नहीं, रिकार्डिंग तो हो गई , लेकिन ना चाहते हुए भी मैंने अपने मन में उस बंदे के बारे में एक ओपिनियन कायम कर लिया(इस काम में तो हम सब एक्सपर्ट हैं ही!!) ...अब जो है सो है! ...I can't help it!

अच्छा, अब चित्रहार की बारी है.....कोई गीत समझ में ही नहीं आ रहा.....चलिए, बचपन के िदनों का एक सुपरहिट गीत ही लगा देते हैं...अभी याद आ रहा है... बड़े दिनों बाद ध्यान में आया है.. अच्छा लगता है!

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

श्रम करने वाले का व्यायाम भी यही...

मैं अकसर आप का तारुफ़ कुछ ऐसे सेहतमंद लोगों से करवाता रहता हूं जिन की जीवनशैली से हम सब को ..विशेषकर मुझे .. बहुत कुछ सीखने को मिलता है.


तो आज आप की मुलाकात करवाते हैं श्री पी पी सिंह जी से ...इन की आयु ६३-६४ वर्ष है...रिटायर हुए चार साल हो चुके हैं। मेरा ध्यान इन के चमकते-दमकते चेहरे की तरफ़ गया तो मैं इन से इन की जीवनशैली के बारे में पूछने से अपने आप को रोक नहीं पाया...खान पान कैसा है, व्यायाम कितना करते हैं?

इन्होंने बताया कि हमेशा से शुद्ध शाकाहारी हूं ..और जहां तक व्यायाम की बात है, श्रम ही इतना कर लेते हैं, डाक्टर साहब, कि व्यायाम की हमें ज़रूरत ही नहीं पड़ती। चाय हम कभी पीते नहीं। 

पी पी सिंह का गांव लखनऊ से ४० किलोमीटर की दूरी पर है...वहां ये अपनी पत्नी के साथ रहते हैं...लखनऊ में छोटा भाई है ..मां भी वहीं रहती हैं जिन की उम्र १०० के पार है...१५ दिन बीत जाने पर हमें देखने के लिए व्याकुल हो जाती हैं, फोन कर देती हैं कि आओ, आ कर मिल जाओ। मैंने पूछा कि वह गांव में नहीं रहतीं?....बताने लगे कि गांव में चिकित्सा सुविधा नहीं, एमबीबीएस डाक्टर है नहीं, यहां मां को कुछ भी चिकित्सीय मदद चाहिए होती है तो तुरंत मिल जाती है। 

इन्होंने अगले दो तीन मिनट में झट से अपनी जीवनशैली के बारे में बता दिया....गांव के जिस घर में रहते हैं वह एक बीघा में है....खूब खुला है...सब्जी-फल-फूल खूब लगा रखे हैं...

डाक्टर साहब, मुझे यही शौक है, मेरे समय इन फूलों के साथ ही बीत जाता है....इन के साथ ही बतियाते हैं...साग-सब्जी इतनी लग जाती है कि कभी बाहर से खरीदनी ही नहीं पड़ी। 

आगे कहने लगे - "दो बेटे दो बेटियां पढ़े लिखे हैं...काम धंधे पर लगे हुए हैं...सुखी हैं...अब इंटरनेट से हमें पानी तो दे नहीं सकते ..इसलिए हम अपने आप में मस्त रहते हैं।"

" सुनने वाले को अजीब लगता होगा लेकिन सच यह है कि गर्मी हो या सर्दी मैं सुबह चार बजे उठ जाता हूं...दो िगलास पानी पीता हूं ..घर की साफ़-सफाई में लग जाता हूं...पेड़-पौधों की सेवा में लग जाता हूं... इस सब से फ़ारिग हो कर दलिया -मीठा या नमकीन लेता हूं....ग्यारह बजे खाना खा लेता हूं...उस के बाद एक घंटे के लिए खाट पर लेट जाता हूं ..बीस मिनट के लिए झपकी लग जाती है, फिर तरोताज़ा हो कर ऐसे ही टीवी पर खबरें देख लेता हूं...रेडियो सुन लेता हूं."

मैंने पूछा--"केबल लगवाया हुआ है और रेडियो भी सुनते हैं?"

पी पी सिंह कहने लगे..."टी वी पर खबरें ही देखता हूं...और रेडियो पर गाने और भजन आदि सुनना बहुत अच्छा लगता है...और संगीत का तो ऐसा जादू है, डाक्टर साहब, कि मरते हुए को भी ज़िंदा कर दे"

गांव में अखबार चौपाल पर आता है ...किसी की दुकान पर अकसर पेपर पड़ा रहता है ...जो कि इन के घर से लगभग ५०० मीटर की दूरी पर है...उधर से आते जाते या तो कोई घर में इन्हें पकड़ा जाता है ...नहीं तो शाम के समय ये स्वयं जा कर अखबार ले आते हैं....

"लेिकन डाक्टर साहब, अखबार का मैं एक एक शब्द पढ़ता हूं...दैनिक जागरण अखबार लेता हूं...चूंकि मैं कबड्डी का खिलाड़ी रहा हूं, इसलिए सब से पहले खेलों वाला पन्ना पढ़ता हूं...और उस के बाद मुख्य पृष्ठ की तरफ़ लौटता हूं...बस, उस के बाद मैं सारा पेपर खंगाल लेता हूं और शाम होने तक कोई कल्याण या अन्य कोई धार्मिक ग्रंथ का पठन-पाठन कर लेता हूं।" 

मुझे इन की यह बात अच्छी लगी पेपर को इतने गंभीरता से पढ़ने की ...शहरों में कितने लोग इस तरह से पेपर को पढ़ पाते हैं, यह बात विचारणीय है। 

इन की पत्नी के जोड़ों में दिक्कत है इसलिये वह इतनी ज़्यादा सक्रिय नहीं हैं...

शाम के समय कहीं किसी से यहां आस पास निकल जाते हैं या कोई हमजोली आ जाता है....इक्ट्ठे बैठ कर बतिया लेते हैं। 

और एक बात उन्होंने बड़े चाव से बताई...आंगन में आम और अमरूद के पेड़ हैं...इसलिए इन पेड़ों पर फल रहने तक गांव के बच्चों के बाबा-चाचा बने रहते हैं...अकसर आते जाते ...बुलाते रहते हैं....बाबा प्रणाम....चाचा प्रणाम (यह कहते हुए वे खिलखिला कर हंस रहे थे)

बीमारी वीमारी हमेशा दूर रही है...होम्योपैथिक दवाईयों पर ज़्यादा भरोसा है....और रात को साढ़े आठ बजे के करीब खाना खा कर रात नौ बजे तक सो जाना बहुत ज़रूरी है...खटिया पर पड़ते ही पांच मिनट में ही गहरी निद्रा आ जाती है। 

कैसी लगी पी पी सिंह की जीवन शैली?

आप सब पाठक सुधिजन हैं.....आप से कुछ भी कहना सूर्य को दीया दिखाने जैसा है! जहां तक मेरी बात है मुझे तो ऐसे सभी लोगों से बहुत प्रेरणा मिलती है। सीधा-साधा उच्च जीवन ...और काफ़ी हद तक मासूमियत कायम अभी भी .. 
आप को पी पी सिंह जी से मिलना कैसा लगा?.....मुझे पता है आप बिल्कुल नहीं बताएंगे......लेकिन क्या फ़र्क पड़ता है! 

अब आप को सुनाएं क्या!...राजश्री प्रोड्क्शनज़ का ही कुछ लगा देते हैं.....ये प्रेम रतन धन पायो.. रतन धन पायो...प्रेम रतन धन पायो.. रतन धन पायो...अजी प्रेम रतन धन पायो ...सुन कर कर के अभी से कान पक गये हैं....फिल्म तो अभी बाकी है....अब तो वह जब बजता है लगता है मानो कोई सिर पर प्रहार कर रहा हो........और यह जो गीत अभी आप सुनेंगे ....यह के बोल और संगीत तो काफ़ी सुकून देने वाला ही है, आप का क्या ख्याल है?...यह भी राजश्री की ही फिल्म थी...


मंगलवार, 3 नवंबर 2015

एसिडिटी की दवाईयां और गुर्दों की सेहत

 टाइ्स ऑफ इंडिया ३ नवंबर २०१५
आज सुबह अखबार में यह खबर देख कर चिंता हुई कि एसिडिटी खत्म करने वाले जिन दवाईयों को लोगबाग बिना कुछ ज़्यादा विचार किए ..नियमित खाने लगे हैं...इस के इस्तेमाल से गुर्दे भी खराब हो सकते हैं।

यह तो हम सब जानते हैं कि एसिडिटी कम करने के लिए इन दवाईयों का किस तरह से अंधाधुंध उपयोग हो रहा है...डाक्टर लोग इसे कुछ दिनों के लिए किसे लेने का मशविरा देते हैं, वह बिल्कुल दुरूस्त है..लेिकन यह जो अपने आप ही बाज़ार से खरीद कर  किसी डाक्टर से परामर्श किए बिना ही इन दवाईयों को रोज़ाना उठते ही गटक लेना, यह बिल्कुल ठीक नहीं है, इससे गुर्दे खराब होने का खतरा मंडराता रहता है।

आज जब मैंने यह खबर देखी तो मुझे लगभग आठ साल पहले अपने इसी ब्लॉग पर लिखा एक लेख याद आ गया....अभी ढूंढा तो मिल गया...उस का लिंक यह लगाए दे रहा हूं...देखिएगा.. छाती में जलन- आधुनिकता की अंधी दौड़ की देन।

मेरे पास भी बहुत से मरीज़ आते हैं...मैं बहुत बार जो बात उन से कहता हूं ...विशेषकर जो लोग मुझे कहते हैं कि इस तरह की गोली तो सुबह उठते ही खानी पड़ती है, उस के बिना तो गुज़ारा ही नहीं है...मैं उन से भी वही बात कहता है कि यह जो एसिडिटी वाली आग है, ठीक है एक बार आपने इस तरह की गोली, कैप्सूल खा कर बुझा ली...लेकिन क्या ध्यान नहीं किया कि इस आग के लगने के कारणों के बारे में भी विचार किया जाए।

इस बात से कोई इंकार नहीं है कि इस तरह की शारीरिक तकलीफ़ों में हमारी जीवनशैली की ही अहम् भूमिका रहती है। फिर भी अगर प्रशिक्षित चिकित्सक इस तरह की दवाईयां किसी को लिख रहे हैं, तो आप इन का सेवन कर सकते हैं बेझिझक कुछ दिन डाक्टरी सलाह के मुताबिक।

मैंने भी अभी अपने उस पुराने लेख को पढ़ा तो मुझे भी हैरानगी हुई कि मैंने उस में दर्ज किया हुआ है कि २००७ तक मैंने शायद इस तकलीफ़ के लिए २० गोली-कैप्सूल खाए होंगे.....लेिकन ऐसा क्यों कि अब मुझे एक-दो महीने में इस तरह के एक कैप्सूल की ज़रूरत पड़ ही जाती है...और मुझे पता रहता है कि आज इस की ज़रूरत पड़ेगी.......वैसे तो हम लोग बाहर होटल-रेस्टरां में खाते ही नहीं, लेिकन फिर भी कभी किसी शादी-ब्याह में या किसी अन्य सार्वजनिक जगह पर अगर थोड़ी भी ओव्हर-ईटिंग हो जाए तो पता रहता है ....कि अब तो रात में २ बजे अजीब अजीब सी खट्टी डकारें आएंगी ...और बड़ी परेशानी होगी.....लेकिन अगर मैं उसी समय फ्रिज में रखा ठंडा दूध दो-चार घूंट ले लूं तो बड़ी राहत महसूस हो जाती है ..लेकिन कईं बार अगला सारा दिन ...खराब हो जाता है...एसिडिटी की तकलीफ़ से मेरे सिर में भयंकर दर्द होने लगता है....तबीयत बहुत खराब हो जाती है ...इसलिए मैं बदपरहेज़ी से बहुत डरता हूं....कईं बार तो इस एसिडिटी की वजह से उल्टियां होने लगती हैं।

बहरहाल, बात चल रही थी कि इस तरह की दवाईयों के अंधाधुंध उपयोग से गुर्दे खराब हो जाते हैं....और यह रिसर्च भी की है ...अमेरिकी गुर्दा रोग विशेषज्ञों ने....लेकिन अगर आप खबर पूरी देखेंगे तो कहीं यह भी लिखा पाएंगे कि ठीक है, अध्ययन कहीं पर हुआ है ...लेकिन इस का पुख्ता सबूत नहीं मिला है।

सेहत हमारी है....हम क्यों न विशेषज्ञ चिकित्सकों की बात को अभी से गांठ बांध लें.....प्रूफ जुटाने के चक्कर में पता नहीं कितने साल और लग जाएंगे.....फिर भी प्रूफ मिलेगा या नहीं मिलेगा.....इस तरह की दवाईयों को बनाने वाली कंपनियां बड़ी अमीर कंपनियां हैं......अगर पक्का प्रूफ़ मिल गया तो भी ...फिर शुरू होगा मुकदमेबाज़ी का लंबा दौर.....आरोप-प्रत्यारोप....जो भी फैसला आएगा ...कंपनियों के हक में आया तो ठीक, वरना फिर अपील पर अपील....सीधी सीधी बात यह कि जब तक........(आप समझते ही हैं सब, हर बात लिखना कहां ज़रूरी होता है) ....लिखने से ध्यान आया कि आपने नोटिस किया कि अखबार में भी इन दवाईयों में से किसी का भी ट्रेड-नेम नहीं लिखा गया, इसीलिए मैंने भी नहीं लिखा......आप जानते ही हैं जो दवाईयां हम इस काम के लिए इस्तेमाल किया करते हैं....सुबह, शाम....खाली पेट भी!

मेरा मशविरा तो यही है कि दोस्तो, अगर आप भी अपने आप अपनी इच्छा से कैमिस्ट से इस तरह की दवाईयां मंगवा कर रोज़ खाने लगते हैं तो इस पर फुल-स्टाप लगा दीजिए....गुर्दों की सेहत बेशकीमती है....लाखों-करोड़ों रूपयों की ढेरी लगाने से भी इन की सेहत वापिस नहीं आ सकती। और वैसे भी अमेरिकी विशेषज्ञों ने जब इस तरह के परिणाम निकाल ही दिए हैं...तो उस के आगे हमने क्या करना है प्रूफ़-व्रूफ़ को.....इस तरह की बात मान लेने में ही समझदारी है। दोस्तो, अपना खान-पान बदल दीजिए....जीवनशैली ठीक कीजिए.....और यह गीत सुन लीजिए....अफसोस, दाल अाम देशवासी की थाली से गायब होती जा रही है लेकिन धर्मेन्द्र भाजी तो अपनी बात पर अभी भी कायम हैं..





सोमवार, 15 जून 2015

मरीज़ों की समस्याएं बड़ी जटिल हैं यहां

दवाईयों को लेकर मरीज़ों की समस्याएं यहां सच में बड़ी जटिल है। इस के बहुत से कारण हैं, एक कारण डाक्टर लोगों की बुरी लिखावट (handwriting) भी है...दो दिन पहले मैंने जब अखबार में पीएमटी रिजल्ट में मेरिट हासिल करने वाले  एक छात्र की लिखावट देखी तो मुझे बहुत निराशा हुई...कारण यही था कि अब इस तरह की लिखावट की वजह से मरीज़ परेशान भी हुआ करेंगे...ठीक है, डाक्टर तुम बहुत अच्छे बन सकते हो, लेकिन अगर लिखावट पर भी थोड़ा ध्यान दिया होता तो...

मैं जानता हूं बुरी लिखावट के पीछे कुछ दूसरी तकलीफ़ें भी हो सकती हैं. ..तारे ज़मीं पर फिल्म ने अच्छे से हमें बता दिया था। आप को भी तो याद होगा उस के माध्यम से पढ़ाया गया पाठ!

लेकिन मुझे शिकायत यही है कि लिखावट के ऊपर इतना ध्यान दिया नहीं जाता...इसी वजह से लिखावट की सुंदरता दिन प्रतिदिन गिरती ही जा रही है। बच्चे लिखना पसंद ही नहीं करते, सब कुछ ऑनलाइन...सब कुछ स्क्रीन पर ही लिख-पढ़ लिया जाता है अधिकतर। बस, अगर बचपन में हैंडराइटिंग की तरफ़ ध्यान न दिया जाए तो फिर बाद में शायद ही आप इसे सुधार पाते हैं। 

मैं यह पोस्ट अपनी प्रशंसा करने के लिए नहीं लिख रहा हूं.....न ही अब इस की मुझे कोई ज़रूरत महसूस होती है, लेिकन फिर भी अपने अनुभव बांटने तो होते ही हैं। मेरे बहुत से मरीज़ मेरी हैंडराइटिंग की तारीफ़ कर के देते हैं...बहुत से...मैं बस यही कहना चाहता हूं यह अपने आप ही नहीं हो गया, हमें पता है हम लोगों ने आठवीं-दसवीं कक्षा तक इस के लिए कितनी तपस्या की है......इतना लिखा है जिस की शायद आज के युवा कल्पना भी नहीं कर सकते। 

मेरा कहने का यही आशय है कि हमें बच्चों की हैंडराइटिंग की तरफ़ भी शुरू से ही ध्यान देना चाहिए....यह भी हमारी शख्शियत का एक हिस्सा है बेशक...खुशखत लिखने से हम दूसरों के चेहरों पर भी मुस्कुराहट ले आते हैं, वरना सिरदर्दी। 

डाक्टरों का लिखा कैमिस्ट तो पढ़ ही लेता है....और बहुत बार बुरी लिखावट की वजह से गल्तियां भी हो जाती हैं....ऐसा भी हमने बहुत बार सुना है। 

आप देखिए ...एक तो हैंडराइटिंग खराब, ऊपर से डाक्टर अकसर लिखता है इंगलिश में, दवाई की स्ट्रिप्स पर भी नाम अधिकतर इंगलिश में ही गढ़े होते हैं...नियम कुछ भी हों...दबंग कंपनियां परवाह करती नहीं, सरकारी फार्मासिस्टों को भीड़-भड्क्के की वजह से शायद इतना टाइम नहीं कि विभिन्न दवाईयों के बारे में बता सकें...दावे जो भी होते हों, डाक्टर के पास वापिस जाने की अधिकतर मरीज़ हिम्मत नहीं जुटा पाते कि दवाई कैसे खाएं, बाहर से खरीदी जाने वाली दवाई और डाक्टर की लिखी दवाई का मरीज़ मिलान नहीं कर सकते क्योंकि इंगलिश आती नहीं.....ये तो चंद मिसालें हैं, मरीज़ की परेशानियों की लिस्ट बहुत लंबी है, बस आप कल्पना कर सकते हैं! 

इस लिस्ट में मरीज़ या अभिभावकों की अनपढ़ता या कम पढ़ा लिखा होना भी जोड़ दीजिएगा। 

अच्छा एक बात और भी है, डाक्टरों को सरकारी निर्देश भी आते हैं कि आप जैनरिक दवाईयों के नाम ही लिखा करिए...लेकिन जब सरकारी डाक्टर ही इन निर्देशों की परवाह नहीं करते तो निजी चिकित्सालयों को कोई क्या कहे! 
मुझे ऐसा लगने लगा है कि अगर किसी चिकित्सक को अपनी हैंडराइटिंग के बारे में अहसास है कि वह इतनी खराब है कि कोई उसे पढ़ नहीं सकता, तो कम से कम उसे मरीज़ की सुविधा के लिए बड़े अक्षरों में तो लिख ही देना चाहिए...in capital letters. 

मेरी ओपीडी में दूसरी ओपीडी के कईं बार मरीज़ आकर मरीज़ पर सारी दवाईयां पलट कर पूछते हैं कि ये कैसे खानी हैं!...इतनी सारी दवाईयां, रंग बिरंगी, तरह तरह की पैकिंग...मुझे हमेशा यही बात अचंभित करती है कि ये लोग कैसे इस बात का ध्यान रख पाते होंगे कि कौन सी दवा कितनी बार, खाने से पहले या बाद में या दूध-पानी के साथ कैसे लेनी है.....बहुत ही मुश्किल काम है। हर बार दवाईयों का ब्रेैंड बदला होता है, इसलिए पैकिंग भी बदली होती है, मरीज़ों की तकलीफ़ें जैसे पहले से कम हों !

आज सुबह सुबह पता नहीं इस तरह का ज्ञान झाड़ने का कहां से ध्यान आ गया....परेशानियां तो मैंने गिना दीं...लेकिन ईमानदारी से कहूं तो इस समस्याओं का समाधान मुझे भी कहीं आस पास दिख नहीं रहा। यही दुआ करते हैं कि लोग इतने सेहतमंद हो जाएं कि दवाईयां उन की पीछा ही छोड़ दें.......आमीन।।


मैं तो फ्री ज्ञान बांटता रहता हूं....यहां तक की गूगल ने एड्सेंस भी अभी तक एप्रूव नहीं किया......कारण वे जानें, लेकिन यहां कोई चीज़ फ्री बिकती नहीं.....हमारे यहां टाटा स्काई लगा हुआ है...एक चैनल है ..एक्टिव जावेद अख्तर ...उस पर वह रहीम कबीर के दोहों की व्याख्या करते हैं...अच्छा लगता है.....लेकिन दुःखद बात यह है कि जैसे ही दो तीन मिनट के बाद आप को कुछ समझ आने लगता है कि KLPD हो जाता है....झटके से जावेद अख्तर की आवाज़ और तस्वीर बंद हो जाती है ...और स्क्रीन पर मैसेज आ जाता है कि अगर तन्ने यह ज्ञान चाहिए तो निकाल रोज़ के पांच रूपये....मुझे बहुत दुःख होता है इस तरह की बातों से.......कबीर, रहीम ...और जिन भी संतों, पीरों, पैगंबरों की बातें आप साझी कर रहे हैं, अगर उन्हें पता चला कि आज उन के बोलों का भी व्यापार हो रहा है तो यकीनन वे भी फफक फफक कर रो पड़ें........मुझे नहीं पता कि जावेद इस कार्यक्रम में आने का कुछ पैसा लेता होगा कि नहीं, लेकिन मुझे ऐसे लगता है कि इस तरह के कार्यक्रम उन्हें बिल्कुल फ्री करने चाहिएं....और अगर वे टाटास्काई से इस के लिए कुछ नहीं लेते ...और सब्सक्राईबर्ज़ को रोज़ाना पांच रूपये भेंट करने को कहा जा रहा है तो उन्हें ऐसे प्रोग्रामों से नाता तोड़ लेना चाहिए.....किसी बात की कमी थोड़े ही ना है उन्हें। बिना वजह.....!!


लेिकन कोई बात नहीं, अगर आप को कबीर, रहीम जैसे संतों, पीर, पैगंबरों के नाम पर दैनिक पांच रूपये खर्च करने में आपत्ति है तो मेरे पास ज्ञान हासिल का एक और जुगाड़ भी है......ले आइए एक रेडियो, ट्रांजिस्टर ....इस में दिन भर विविध भारती, आल इंडिया रेडियो और देश के प्रधानमंत्री की दिल की बातें सुनिए....बिल्कुल फोकट में! 

मैं रेडियो सुनने का आदि हूं.....और इसलिए गारंटी लेता हूं कि दिन भर आप के हर खुशी, गमी, रूमािनयत, रूहानियत मूड के लिए यहां कुछ न कुछ बजता रहता है......और वह भी अथाह ज्ञान का भंडार लिए....और साथ साथ आपको गुदगुदाये भी..... परसों की बात है सुबह एफ एम रेनबो पर एक गीत बज रहा था.....मुझे ऐसे लगा मैंने उसे पहले नहीं सुना .....सुन कर बहुत अच्छा लगा......क्या थे बोल?...जीने वाले झूम के मस्ताना हो के जी..

आज यू-टयूब का यह तो फायदा है कि कुछ भी ढूंढा जा सकता है......मैं भी उस गीत तक अभी पहुंच ही गया......तो मेरी तरह आज के दिन की शुरूआत इस भजन जैसे गीत से कर लें?........मैं तो इन गीतों के बोल सुन कर अचंभित होता हूं .....बार बार कवि की कल्पना की उड़ान की दाद देता हूं......कैसे उन के चंद बोल रेडियो पर बजते हैं तो सैंकड़ों-हज़ारों लोगों में जीने की उमंग भर देते हैं..........जो कोई मल्टीविटामिन की गोली, या महंगे से महंगा टॉनिक भी नहीं कर सकता........आप के लिए यह गीत यहीं एम्बेड कर रहा हूं, सुनिएगा..

सोमवार, 13 अप्रैल 2015

शरीर ठीक होना ही तंदरूस्ती नहीं है!

जी हां, यह बिल्कुल सही है कि शरीर ठीक होना ही तंदरूस्ती नहीं है....शरीर ठीक रहना किसी बंदे की तंदरूस्ती का एक बड़ा भाग तो है लेकिन एक मात्र मापदंड नहीं है..

जब हम लोग कालेज में पढ़ रहे होते हैं हम यही समझते हैं कि अगर किसी बंदे के सभी टेस्ट ठीक हैं, उसे यूरिन-स्टूल की कोई दिक्कत नहीं है, चल फिर रहा है ...तो वह ठीक है..

लेिकन नहीं, यह सब सही होते हुए भी क्यों हमें कुछ लोग बीमार दिखते हैं..

फिर जब आगे की पढ़ाई करने लगते हैं तो थोड़ा थोड़ा पता लगने लगता है कि सेहत की परिभाषा है ..विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे पारिभाषित ही इसी तरह से किया है कि सेहत एक ऐसी अवस्था है जिस में आदमी का शरीर, मन तो ठीक हो ही साथ ही साथ उस की सामाजिक, आध्यात्मिक, और भावनात्मक सेहत भी ठीक हो ...तभी उसे सेहतमंद लेबल कर सकते हैं।

रटने के लिए उस दौरान ठीक है यह परिभाषा....ऐसा नहीं है कि इस परिभाषा में कोई खोट है, बिल्कुल खरी है, लेकिन हम लोग अपनी ही अपरिपक्वता की वजह से इस की रूह तक पहुंच नहीं पाते। मुझे याद है जब मैं एमडीएस कर रहा था ..२५ वर्ष की उम्र थी ...मैंने पहली बार होलिस्टिक हेल्थ शब्द का नाम सुना था...एक सेमीनार रखा था हमारे एचओडी ने। होलिस्टिक हैल्थ भी वही बात है ...यह सेहत को टोटेलेटी में देखती है।

आप को भी लग रहा होगा कि तू तो इतना ज्ञान कभी झाड़ता ही नहीं है तो आज फिर यह किस चक्कर में!

आज मेरी अोपीडी में जो आखिरी मरीज़ थी वह ८० वर्ष की थी...ब्लड-प्रेशर और मधुमेह से परेशान....मैंने तकलीफ पूछी तो एक दांत में दर्द का नाम लेकर ज़ोर ज़ोर से बच्चों की तरह रोने लग गई...जिस तरह से वह रोने लगी उसे देख कर मेरा भी मन दुःखी हुआ...यह तो अब समझ आने लगी है कि कौन सा रोना शरीर में किसी दर्द की वजह से है और कौन सा दुःखी मन की वजह से है।

इस महिला का रोना दांत के दर्द से कहीं ज़्यादा मन के दुःखी होने की वजह से था...दांत इस महिला का उखाड़ने वाला था, लेकिन बी.पी २०० के भी ऊपर थी, इसलिए आज नहीं निकाला जा सकता था....कहने लगीं कि मेरा ब्लड-प्रेशर तो ठीक ही नहीं होगा, क्या मैं ऐसे ही मर जाऊंगी....मैंने इन्हें ढाढस बंधाया कि ऐसा कुछ नहीं है.....मैंने सिर पर हाथ रख कर कहा ...आप का बी.पी एक दो दिन में कंट्रोल हो जाएगा और सब ठीक होगा, चिंता मत करिए...डाक्टर के कहे अनुसार आप दवाई लिया करें और सब से ज़्यादा ज़रूरी है कि खुश रहा करिए। बस इतनी सी  बात सुन कर ही मुझे लगा उन्हें बड़ा इत्मीनान हुआ...राहत महसूस हुई।

मैंने उस बेचारी को नसीहत की घुट्टी तो पिला दी खुश रहने की .......वैसे भी देखा जाए तो खुश कौन नहीं रहना चाहता लेकिन अकसर बहुत से लोग अपनी आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक परिस्थितियों की वजह से खुश रह नहीं पाते....खुश क्या रहना है, डिप्रेशन में ही चले जाते हैं..इस उम्र में ये सब परिस्थितियां बहुत से बुज़ुर्गों को घेर ही लेती हैं......आर्थिक निर्भरता किसी के ऊपर बहुत कष्टदायक है...जैसा आज का समाज है.....हर किसी ने कईं कईं मुखौटे पहन रखे हैं....सामाजिक स्तर पर देखें तो बुज़ुर्गों की बेहद अवहेलना और तिरस्कार हो रहा है और पारिवारिक वातावरण की तो बात ही क्या करें!

मुझे अच्छे से याद है लगभग पांच वर्ष पहले मेरे पास एक बुज़ुर्ग दंपति आए थे...बुजुर्ग को  को अच्छी खासी पेन्शन मिलती थी...बड़े ही हंसमुख और मेहनती किस्म के दोनों लोग थे....लड़का भी सरकारी नौकरी में था...लेिकन उसे नशे का लत थी ...और पेन्शन मिलते ही इन से पेन्शन छीन लिया करता था...मना करने पर अपने बाप की पिटाई कर दिया करता था...जब वह दंपति मेरे से यह बात कर रहे थे तो उन के आंसू थम नहीं रहे थे....चार पांच साल का पौता भी उन के साथ था...कह रहे थे कि जब यह हमारे कमरे में आता है तो उसे भी पीट देता है उस का बाप। बहुत मन खराब हुआ था।

इस बात का यहां जिक्र इसलिए किया कि ऐसे बुज़ुर्गों में दवाईयां क्या कर लेंगी.......क्या इन का ब्लड-प्रेशर दवाईयों से काबू हो जाएगा?......लेकिन कुछ लोगों का अपना कुछ भी कह लें support system होता है ...जैसा कि यह दंपति बड़े आध्यात्मिक किस्म के थे ...रोज़ाना नित-नेम करना और गुरूद्वारे जाना उन की दिनचर्या थी....इसलिए वे उस दिन मन से दुःखी होते हुए भी शारीरिक स्तर पर ठीक ही थे। जाते जाते कह गये...मैं उम्र से नहीं हारा, डाक्टर साब, अपनी औलाद के हाथों हार गया।

आज एक दूसरे ७९ वर्ष के बुज़ुर्ग मिले ..यह रोज़ाना योगाभ्यास करते हैं और लोगों को भी सिखाते हैं...खूब साईकिल चलाते हैं...सभी आसन वासन कर लेते हैं बिना किसी परेशानी के ...लेकिन इन की बस समस्या यही है कि इन्हें पैदल चलने में दिक्कत होती है ...एक आधा किलोमीटर चलने पर घुटने में दर्द उठ जाता है। जब तक मेरे से ये लोग दो मिनट अपने मन की बात न कह जाएं ...इन्हें तसल्ली नहीं होती....अब मैं हड्डियों के बारे में क्या जानता हूं!..कहने लगे कि मैं दिल्ली हो आया हूं ..वहां पर मुझे घुटनों के प्रत्यारोपण  (total knee replacement) के लिए कहा गया है लेकिन अगर मैंने वह आप्रेशन करवा लिया तो मैं तो योगाभ्यास से भी महरूम हो जाऊंगा.......क्योंकि उन नकली घुटनों की वजह से मुझे पालथी तक मारने की भी मनाही रहेगी। आगे कहने लगे कि इतना मुझे पता है कि अगर मैंने यह आप्रेशन करवा  लिया तो मैं ठीक से चल तो पाऊं ...शायद....लेिकन नियमित योगाभ्यास से दूर रहने की वजह से मैं दूसरी कईं बीमारियों की चपेट में आ जाऊंगा।

इन बुज़ुर्ग की मैंने बात इसलिए शेयर की ताकि इन का जीवन के प्रति सकारात्मक रवैया आप से शेयर कर सकूं.....छोटी मोटी तकलीफ़ की कोई परवाह नहीं ...चल रहा है ना काम....कोई शिकायत नहीं ....गाड़ी चल रही है...योगाभ्यास नियमित चल रहा है.....अब सोचने वाली बात यही है कि छोटी मोटी शारीरिक, मानसिक एवं पारिवारिक परेशानियां इन को बिना छुए इन के पास से हो कर निकल जाएंगी.......यह मेरा विश्वास है। ऐसे लोगों के पॉज़िटिव रवैये के आगे मैं नतमस्तक हो जाता हूं।

वही बात है कौन नहीं चाहता वह ज़िंदगी में पाज़िटिव नज़िरया अपनाए लेकिन यह एक दिन...एक साल, एक दशक की बात नहीं होती.....शुरू से लेकर आदमी जिस परिवेश में रहा है ...उस का असर तो उस के शख्शियत पर होना तय ही है .....कुछ लोग हैं जो कमल की तरह रह पाते हैं ...कुछ होते हैं जो उसी रंग में रंग जाते हैं।

मेरा अनुभव यही बताता है कि हर बुज़ुर्ग बात करने के लिए किसी को तलाश रहा है......बहुत सी शारीरिक तकलीफ़ों का उन्हें पता है अंजाम क्या है, लेिकन फिर भी वे बस एक तसल्ली की तलाश में मारे मारे फिरते हैं....सर्विस के दौरान कुछ जगहों पर ऐसे भी लोग मिल गये जो अकसर कुछ बुज़ुर्गों के बारे में यह टिप्पणी करते भी गुरेज नहीं किया करते थे ......क्या यार, वह तो साइकिक है! (किसी पागल सिरफिरे को साइकिक कहना एक संभ्रांत तरीका है) ...लेकिन इसी चक्कर में वे साथी अपनी ही असलियत ब्यां कर जाते। क्या पता यार हम लोगों के साथ क्या होना है, बात बिल्कुल थोड़ी सी संवेदना की है, पांच मिनट ध्यान से किसी को सुनने से ...उस के सिर पर, कंधे पर थोड़ा हाथ रखने से हमारी कौन सी जान निकल रही है!...अगर इस से उस के चेहरे पर एक छोटी सी मुस्कान भी बिखर जाती है तो हमें कितनी बड़ी कीमत मिल गई।

वह गीत ही तो न बस सुनते जाएं.......प्यार बांटते चलो....प्यार बांटते चलो.......कभी प्रेक्टीकल भी करें तो पता चलेगा कि इस में कितना आनंद है। ओ हो....अब प्रवचनबाजी को पूर्ण विराम लगा रहा हूं..

बहरहाल, बातें कुछ ज़्यादा ही पकाऊ हो गईं आज.....विषय से मेल खाता एक गीत ज़रूर बजा रहा हूं...

शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

बुज़ुर्गों का असली रोग है अकेलापन

ऐसा नहीं है कि सभी बुज़ुर्गों का ऐसा हाल है ..लेकिन अधिकतर के बारे में यह बात कही जा सकती है।

मैं तो जितना जितना अपने प्रोफैशन में घिस रहा हूं, मुझे यही लगने लगा है कि बहुत बार तो किसी बुज़ुर्ग की सभी बातें अच्छे से सुनना ही उन का इलाज होता है...क्योंकि वे भी जानते हैं कि सभी अंग बदले नहीं जा सकते, सभी अंग अब जवान आदमी की तरह काम नहीं कर सकते, वे सब कुछ अच्छे से समझते हैं...लेकिन उन्हें बस डाक्टर से एक आश्वासन चाहिए होता है कि सब कुछ ठीक ठाक है।

मैं अपनी ओपीडी में जितना भी व्यस्त रहूं लेकिन मैं किसी भी बुज़ुर्ग की बात कभी नहीं काटता, मैंने कभी किसी को नहीं कहा कि अच्छा, अब आप चलिए...मुझे यही लगता है कि ये जितनी बातें करते हैं, कर लेने दें इन्हें...इन की घर पर अकसर कोई सुनता नहीं, बाहर कोई विशेष सर्कल अधिकतर लोगों का होता नहीं, ऐसे में अपने दिल का गुब्बार कहां जाकर ये लोग बाहर निकालें।

मसला सारा पांच सात दस मिनट का होता है...बस इतनी सी बातें होती हैं, वे अपने दिल को खोल कर हल्का महसूस करते हैं, उन के चेहरे से झलकता है।

जब ढंग से की दो बातें ही इलाज होता है.. (इस लेख को पढ़ने के लिए क्लिक करिए)

आज से तीस साल पहले जब हम लोगों ने नईं नईं डाक्टरी सीखी तो क्या देखते हैं कि हमारे कुछ साथी बुज़ुर्गों से उतने सम्मान से पेश नहीं आते थे जितना किसी चिकित्सक से अपेक्षित होता है...कईं बार यह भी देखा कि जैसे ही किसी बुज़ुर्ग ने अपनी एक ही बात दो तीन बार कही तो हमारे साथ पढ़ने वाली कन्याएं अकसर कह दिया करती थीं कि ....ये तो साईकिक लगता है...(इंगलिश में शायद इतना बुरा नहीं लगता ..लेकिन हिंदी में इस का मतलब बहुत खराब है...यह थोड़ा सटका हुआ लगता या लगती है). ..

लेिकन इतने बरस घिसते घिसते सारा कुछ समझ में आने लगता है ...जब वह कोई छोटा सा घाव भी हमें दिखाने आता है तो उस के दिमाग में भयंकर से भयंकर बीमारी का नाम घूम रहा होता है, हम जैसे ही नज़र मार के उसे आश्वासन देते हैं कि कुछ नहीं है, चिंता न करिए, दो चार दिन में एक दम ठीक हो जाएगा......यह सुनते ही उस के चेहरे पर चमक लौट आती है। सच कह रहा हूं दोस्तो रोज़ चेहरों पर दो मिनट में ही चमक आते देखता हूं।

जैसे जैसे हम अपने काम में घिसते चले जाते हैं यह बात हमारे मन में अच्छे से घर कर जाती है कि मरीज़ की परिस्थिति बदलने के लिए हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है, उस की सारी की सारी परिस्थितियां हमारी पहुंच से बहुत दूर हैं...हम चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते लेकिन एक बहुत अहम् बात तो फिर भी है कि हम उस से अच्छे से बात तो कर सकते हैं.... यह भी उस की सेहत के लिए इलाज जितना ही ज़रूरी है..क्योंकि मरीज़ किसी किसी डाक्टर के पास जा कर बोलते हैं कि उस से तो बात कर के ही आधा दुःख छू-मंतर हो जाता है, कुछ तो जादू होगा ऐसी रूहों में....कुछ तो करिश्मा होगा....कुछ तो शफा होगा उन नेक आत्माओं में।

इसी बात से संबंधित यह पोस्ट भी देखिएगा..... मरीज से ढंग से बात करने की बात (क्लिक करिए)

मेरा भुलक्कड़पन देखिए....लिख मैं बुज़ुर्गों पर रहा हूं लेकिन पता नहीं कहां से कहां निकल गया....हां, एक बुज़ुर्ग की बात करता हूं ...दोस्तो, एक ७०-७५ साल का बुज़ुर्ग मुझे कहीं मिला.

अपनी सेहत की बात कर के वह दो चार मिनट के लिए अपनी व्यक्तिगत बातें करने लगा कि किस तरह से घर के सभी लोग उसे कहते हैं कि मकान को बांट दो, पैसा भी बांट दो.....मुझे कहने लगा कि मेरे पास पैसा इतना है कि अगर सोना खाया जा सकता तो मैं सोना ही खाता... मकान ८० लाख का है, लेकिन सोच रहा हूं बेच दूंगा लेकिन किसी को एक टका नहीं दूंगा... कह रहा था कि मेरा कोई ध्यान ही नहीं करता...सब को मेरे पैसे की पड़ी है। मेरे खाने-पीने का कोई टाइम नहीं है...बताने लगा कि वह तीन चार महीने के लिए हरिद्वार में स्थित एक आश्रम में रहने चला गया था...सात दिन बाद इन लोगों का फोन आया, पहले तो मैंने उठाया नहीं, फिर उस के बाद कभी कभी इन का फोन आता तो बात कर लिया करता।

हरिद्वार वाले आश्रम की बात याद कर के बहुत खुश था...हर महीने का चार हज़ार रूपया लेते हैं...सब कुछ सुविधाएं...चालीस लोगों के लिए मैस की सुविधा...सुबह साढ़े छः बजे चाय, फिर आप नाश्ता स्वयं अपना करिए, दोपहर में साग-सब्जी, दाल, चावल ...और उस ने ज़ोर देकर कहा कि गाढ़ी दाल......और फिर रात में भी बढ़िया खाना..लेकिन मेन्यू बदल कर........सब चीज़ की सुविधा है... मैंने इतना कहा कि वहां जिन लोगों के साथ इतना समय रहे उन से बात करते हैं ?...बताने लगा कि हां, उन के नंबर हैं, कल ही बात हो रही थी मुरादाबाद........कहने लगा कि वहां पर ८०-८५ और ९० साल तक के बुज़ुर्ग रहते हैं....मस्ती से रहते हैं, अगर कोई बुज़ुर्ग बाहर के देश से आता है तो अपनी मरजी से चार हज़ार की बजाए ११ हज़ार रूपये एक महीने के दे देता है.....वहां पर एक डाक्टर भी रोज़ आता है... बात का सार यह कि वह खुश था वहां.......अब भी कह रहा था कि वहां कुछ महीने के लिए चला जाऊंगा।

मुझे आज इस बुज़ुर्ग की याद इसलिए आ गई कि आज की अखबार में पढ़ा है कि सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दर्ज हुई जिस में कहा गया है कि हर शहर में एक वृद्ध आश्रम खोला जाना चाहिए.......ठीक है, वृद्ध आश्रम खुल जाएंगे या खुले भी हुए हैं, लेकिन फिर भी वहां ये लोग खुशी से नहीं, मजबूरी में ही रहते हैं.....हर कोई अपने घर ही में रहना चाहता है।

सरकारें क्या करें, कर रही है सरकार अपना काम...कितनी कितनी स्कीम बनाती हैं. पीछे एक स्कीम बनी थी रिवर्स-मॉटगेज की ...कि कोई बुज़ुर्ग अपने जीते जी अपने घर को बैंक के पास गिरवी रख दे और उसे उस के जीते जी ब्याज मिलता रहे ....मुझे पूरी स्कीम का तो पता नहीं लेकिन था कुछ ऐसा ही.......मैं गणित में थोड़ा कमजोर ही हूं। फिर वह भी एक स्कीम आई जिस में कानून था कि बुज़ुर्गों के ऊपर अत्याचार होने पर फलां फलां धारा लागू हो जाएगी।

कौन सा बुज़ुर्ग अपने बच्चों के साथ पंगा लेना चाहता हैं ...उस समय में किस के पास इतनी ताकत होती है, और वैसे भी ये लोग कहां बच्चों पर केस दर्ज करवाने जाते हैं.......सब कुछ चुपचाप सहते रहते हैं, खामोशी की चादर ओढ़ कर चुपचाप अकेले में आंसू पीते रहते हैं......लेकिन बुज़ुर्गों का शोषण जितना हमें सामने दिखता है, उस से कहीं बहुत ज़्यादा व्यापक स्तर पर होता है.........लेकिन बाहर उजागर नहीं होता.......और कभी हो भी नहीं सकता.........There are so many subtle ways to exploit and torture the senior citizens..........इन का हर तरह का शोषण किया जाता है ...आर्थिक शोषण भी जितना हो सके.....समय पर खाना न देना, ढंग से बात तो करना तो दूर बात ही न करना, उन की हर बात या ज़रूरत तो नज़रअंदाज़ करना......यह सब घोर शोषण का ही हिस्सा है........लेकिन वे सब चुपचाप सहते रहते हैं..

और ऊपर से मैडीकल विज्ञान की बड़ी भूतियापंथी यह कि वह इन के बुझे हुए मन के रोगों को भी उन के शरीरों में तलाशता ही नहीं फिरता, अंग्रेज़ी दवाईयों से उन्हें दुरूस्त करने का दावा भी ठोंकने से नहीं हिचकता।

सच में क्या हम लोग चांद पर जाने के लिए तैयार हो चुके हैं?........मुझे तो कभी नहीं लगा, पहले ज़मीन पर तो हम सब मानस बन कर रहना सीख लें। क्या ख्याल है?

एक लेख यह भी ठीक ठाक लगता है... सफल डाक्टर का फंडा (क्लिक करिए)




मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा से कैसे करें बचाव?

जैसा कि अब हम जानते हैं कि यह एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा भी एक मौसमी एन्फ्लुऐंजा ही है, इस से डरने की कोई विशेष वजह नहीं है। यह स्वाईन-फ्लू नहीं है।

क्या एहतियात के तौर पर पहले ही से दवा ले लें?

अब प्रश्न जो मन में उभरना स्वभाविक है कि क्या कोई ऐसा जुगाड़ या दवाई है कि हम लोग इस से बचे रह सकें ?
इस का जवाब यही है कि क्या हम लोग अन्य बीमारियों से बचने के लिए पहले ही से दवाई ले लेते हैं?....नहीं ना, तो फिर इस एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा के लिए भी ऐसा कुछ दवा नहीं है कि जिसे हम लो खा लें और निश्चिंत हो जाएं कि यह इंफेक्शन हमें नहीं होगा।

क्या इस से बचाव का टीका ही न लगा लें?

जी हां, इस एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा से बचाव का टीका तो है लेकिन इस से भी ८०-९० प्रतिशत बचाव ही मिलता है। सामान्यतयः इस टीके को स्वास्थ्य-कर्मियों को लेने की सलाह दी जाती है और जो लोग हाई-रिस्क केटेगरी में आते  हैं..जैसे कि बहुत बुज़ुर्ग, गर्भवती महिलाएं या ऐसे लोग जिन की इम्यूनिटि कुछ दवाईयों (जैसे कि स्टीरॉयड आदि) की वजह से दबी हुई है।

कल मेरे पास एक महिला अपने इलाज के लिए आई थी, पूछने लगी कि उस की बेटी नर्सिंग का कोर्स कर रही है ..कालेज वालों ने एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा का टीका लगवाने के लिए कहा है। मैंने उसे बताया कि यह टीका जब भी अस्पताल में आएगा पहले डाक्टरों एवं स्वास्थ्यकर्मियों को ही लगेगा जिन का मरीज से सीधा और नजदीकी संपर्क रहता है। पूछने लगी का बाज़ार में इस की कितनी कीमत है, मैंने नेट पर चेक किया तो पता चला कि इस टीके का दाम  बाज़ार में २५०रूपये है।

लेकिन इस समय परेशानी यह है कि ये टीके सरकारी अस्पतालों और मैडीकल कालेजों में भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं, ये बाहर से निर्यात होते हैं... आज पेपर में पढ़ा है कि सरकारी अस्पतालों द्वारा भी इस तरह के टीकों का आयात करना एक लंबी प्रक्रिया है क्योंकि इस में लगभग दो महीने का समय भी लग सकता है।

छोटी छोटी बातें---बड़े बड़े लाभ

बड़ी सीधी सी बात है कि इस इंफेक्शन से भी बचे रहने के लिए हमें बड़ी बेसिक सी बातों की तरफ़ ध्यान देना होगा।
सब से पहले तो विशेषज्ञ कहते हैं कि अगर हम लोग सलीके से खांसने और छींकने की तहजीब सीख पाएं तो हम इस तरह की बीमारियों से ही नहीं, टीबी, कुष्ठरोग जैसी अन्य बीमारियों से भी बचे रह सकते हैं।


खांसने की तहजीब (Cough Etiquettes) 

अधिकतर हमें खांसने की तहजीब नहीं है, कईं बार तो किसी पब्लिक जगह पर ऐसे लगता है कि खांसने वाले आप के मुंह में खांस रहा है। बार बार हमें याद दिलाया जाता है कि हमें अपने रूमाल में खांसना चाहिए... पता हमें सब कुछ है, लेकिन हम सुधरने वाले नहीं है।

दरअसल हमारी खांसी में जो कीटाणु निकलते हैं उनके ज़रिये बहुत सी बीमारियां एक से दूसरे बंदे में फैल जाती हैं।
अब आप सोचते होंगे कि हम सब इस तरह से आसपास के लोगों की खांसी की बदतमीजी (जी हां, यह एक बदतमीजी ही है, इतना सीखने के लिए किसी डिग्री की ज़रूरत नहीं.....अगर कोई बहुत गंभीर व्यक्ति खांस रहा है, उसे कोई सुध नहीं है, उसे तो बिल्कुल क्षमा किया जा सकता है)....लेकिन जो हट्टे-कट्टे पढ़े लिखे लोग बिना अपने मुंह ढंके खांसते रहते हैं, उन्हें यह तहज़ीब सीखने की बहुत ज़रूरत है...हम अकसर देखते हैं कि हमें यह सब बुरा लगता है, लेकिन हम लोग शिष्टाचार वश किसी से कुछ कहते वहते नहीं हैं।


अब आते हैं छींकने वालों पर

वही बात, बिना रूमाल, या हाथ या बाजू आगे किए हुए छींकने से भी बहुत सी बीमारियां फैल जाती हैं। खांसने और छींकने से जो ड्राप्सलेट्स हमारे नाक और मुंह से निकलते हैं वे कुछ मीटर तक बैठे व्यक्ति को भी अपनी चपेट में लेते हैं।

खांसने और छींकने की बदतमीजी का शिकार हो कर भी अगर कोई व्यक्ति इन बीमारियों से बच जाता है तो इस के लिए उस की इम्यूनिटि (रोग प्रतिरोधक क्षमता) को इस का क्रेडिट मिलना चाहिए।

एक बार मैं इसी एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा के संबंध में एक प्रश्न टीवी पर सुन रहा था कि हम ऐसा क्या करें कि हमारी इम्यूनिटि ठीक रहे। इस का जवाब विशेषज्ञों ने बिल्कुल सही दिया कि आप नशों, तंबाकू-गुटखा, दारू से दूर रहें, संतुलित आहार लें, रोजाना व्यायाम करें, टहला करें......इस से आप की रोग प्रतिरोधक क्षमता अच्छी रहेगी, अधिकतर बीमारियां आप के पास नहीं फटकेंगी। लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह सब कुछ एक दो महीने ही एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा से बचने के लिए अगर मान रहे हैं, फिर से पुरानी दिनचर्या और वही जंक-फूड आदि खाना-पीना शुरू हो जायेगा तो यह इम्यूनिटि टिक नहीं पाती.........यह तो दोस्तो निरंतर जीवनपर्यंत मानने वाली बातें हैं।


बार बार अच्छे से हाथ धोने की आदत

अगर हमें बार बार अच्छे से हाथ धोने की आदत है तो भी हम इस एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा से ही नहीं अन्य बीमारियों से भी बचाव कर सकते हैं। हम देखते हैं कि हम लोग कितने दिन मनाने लगे हैं...वेलेंटाइन डे, चॉकलेट डे, फ्रेंडशिप डे........सब से ज़्यादा अहम् है हैंडवॉशिंग दिवस.....जी हां, पिछले कुछ सालों से मैंने देखा है कि विदेशी स्कूलों में हैंडवॉशिंग दिवस भी मनाया जाता है... यह बहुत बहुत बहुत ज़रूरी है कि हम बच्चों को तो सिखाएं ही और हम जो पहले से सब कुछ सीखे हुए हैं, उसे नज़रअंदाज़ न करें।

दूर ही से नमस्कार ठीक है

मिलने जुलने का सीधा सादा हिंदोस्तानी तरीका --दोनों हाथ जोड़ कर नमस्कार करने वाला-- सब से उत्तम है। हाथ मिलाने से हम लोग एक दूसरे तक बीमारियों के जीवाणु भी परोस सकते हैं...इसलिए हमेशा आदत रहनी चाहिए कि कुछ भी खाने से पहले हाथ हम लोग अच्छी तरह से धो लें, बिना धोए हाथों को मुंह, आंख, नाक में कभी न डालते फिरें, इस से बीमारियां फैलती हैं।

खांसी-जुकाम होने पर बच्चों को स्कूल न भेजें

बच्चों में खांसी जुकाम होने पर अगर बच्चे स्कूल नहीं जाएं तो यह भी एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा से रोकथाम का एक बड़ा कदम है। दो दिन पहले मैं एक शिशु रोग विशेषज्ञ को टीवी पर सुन रहा था ..उस ने कितना सही कहा कि बच्चे एक दिन स्कूल जा कर अगर काले और गुलाबी रंग का भेद दो दिन बाद सीख लेंगे तो कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन अगर वे खांसी-जुकाम के दौरान स्कूल जाएंगे तो उन के बहते नाक से, खांसी से तरह तरह की इंफेक्शन दूसरे बच्चों में फैल जाती है ...और फिर उन दूसरे बच्चों के रास्ते उन के घर के अन्य सदस्य भी इस तरह के संक्रमण की चपेट में आ जाते हैं।

दोस्तो, यह बात नहीं है कि आज कल एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा की चर्चा ज़ोरों पर है, इसलिए ही हमें यह बच्चों को स्कूल न भेजने वाली एहतियात बरतनी है, यह तो भाई एक सामान्य बचाव है जो हमें हमेशा ही करना होगा ताकि बाकी बच्चे इस तरह की बीमारियों से बचे रहें......और वैसे भी बच्चे के नाक से जो पानी बहता है, और मुंह से वे जो खांसते हैं, उन के खांसने में और छींक में वॉयरस बहुत अधिक मात्रा में होते हैं और लंबे समय तक ये वॉयरस के जीवाणु उन में मौजूद रहते हैं।

मुझे एक बाल रोग विशेषज्ञ की यह बात बहुत बढ़िया लगी कि स्कूलों में यह जो नया फैशन सा है .. १०० प्रतिशत अटेंडेंस के लिए अवार्ड---इसे तो बिल्कुल खत्म कर देना चाहिए...इसी अवार्ड के चक्कर में खांसी-जुकाम से ग्रस्त छोटे बच्चे भी स्कूल रवाना कर दिये जाते हैं....जिससे दूसरे बच्चे इस की चपेट में आ जाते हैं।

बचाव की बातें काफी हो गई हैं, लगता है अब इस पर विराम लगाएं.......इस से डरने की ज़रूरत नहीं है, हर साल सर्दियों और बरसात के मौसम में होता है, किसी साल कम किसी साल ज़्यादा होता है...डेंगू का भी तो यही हाल है, कभी ज़्यादा, कभी कम। लेकिन वही पुरानी कहावत यहां भी फिट बैठती है........परहेज से इलाज भला......परहेज का मतलब कि हम लोग कैसे बचाव कर पाएं........पूरी रामकथा ऊपर लिख दी है, इन्हें मान लेने में ही भलाई है।

खुशखबरी यह है कि आज अखबार में भी आया कि बस होली तक ही ये एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा के केस मिलेंगे...जैसे जैसे तापमान बढ़ता है इस वॉयरस की बीमारी पैदा करने की क्षमता भी घटने लगती है...इसलिए इस के केसों में भी कमी आने लगती है। फिर बरसात में मौसम में, ह्यूमिडिटी की वजह से वॉयरस जल्दी जल्दी बढ़ती है और फिर से एच1एन1 (H1N1) एन्फ्लुऐंजा के केस बढ़ने लगते हैं।

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दोस्तो, आज शिवरात्रि है, न मैंने कहीं जाकर शिव जी का विवाह सुना ..न कुछ और ... सुबह से इस इंफ्लूऐंजा के बारे में ऐसा लिखने बैठा हूं कि शाम होने को है.....अब इस के बारे में बची खुची बातें कल कर लेंगे.......जाते जाते आप बम बम भोले को याद कर लें!

शनिवार, 24 जनवरी 2015

दवाईयों पर नाम तो कम से कम हिंदी में लिखा होना ही चाहिए....

इस देश में हिंदी के बिना गुज़ारा नहीं हो सकता...
जब मैंने हिंदी में ब्लॉग लिखना शुरू किया तो मुझे पहले दो तीन साल तो लोगों से ये सब बातें सुननी पड़ीं कि क्या करोगे हिंदी में लिख कर, कौन पढ़ेगा...लेिकन मुझे यही लगता था कि हिंदी में सेहत संबंधी विषयों पर विश्वसनीय सामग्री नेट पर नहीं है ..जिस तरह से कोई भी इंगलिश भाषा का जानने वाला गूगल कर के तुरंत जानकारी हासिल कर लेता है

लेकिन हिंदी भाषा के जानकार के लिए यह सब आसान नहीं है, आज से सात-आठ साल पहले तो हालात और भी खराब थे...समस्या यही है कि बहुत ही कम चिकित्सक नेट पर अपने अनुभव शेयर करते हैं, और हिंदी की तो बात ही क्या करें!...विश्वस्नीय कुछ खास मिलता ही नहीं है नेट पर।

फिर मैं दो तीन साल बीच में हिंदी के साथ साथ इंगलिश में भी एक हेल्थ ब्लॉग लिखता रहा.....शायद चार सौ के करीब लेख भी हो गये.....लेकिन पता नहीं इंगलिश ब्लॉग में मन बिल्कुल भी नहीं लगा।

दरअसल हमें कईं साल यही पता लगाने में लग जाते हैं कि हम करना क्या चाहते हैं, हमारा वह काम करने का मकसद है क्या, तो मुझे पिछले कुछ सालों से अच्छे से समझ आ गया कि मैं बस हिंदी भाषा का सहारा लेकर मैडीकल साईंस से संबंधित कंटेंट नेट पर क्रिएट करना चाहता हूं......बस.......बहुत साल लग गये इस बात का पता लगने में।

कोई महान् कारण नहीं मेरा हिंदी में लिखने का...कोइ फलफसा नहीं है बिल्कुल....बस, जो कारण था और है वह आपसे मैंने ऊपर शेयर किया है।

इस देश की यह बदकिस्मती है कि यहां पर हिंदी लागू करवाने के लिए कानून बनाने पड़ते हैं और हिंदी में काम करने वालों को अभी भी आज़ादी के ६५ साल बाद भी इनाम देकर पुचकारना पड़ता है।

जैसा पहले भी बहुत बार होता है आज भी मुझे गुस्सा आ गया......जब एक ८० साल के ग्रामीण बुज़ुर्ग ने मेरे सामने एक प्लास्टिक की पन्नी से इन दवाईयों का ढेर लगा दिया कि ज़रा यह बताएं तो कौन कौन सी कितनी बार खानी है। मुझे गुस्सा बुज़ुर्ग पर तो क्या आना था, न ही किसी और पर आया.....लेकिन व्यवस्था पर ही खीझ हुई कि क्या यार, इस आदमी के लिए अंग्रेजी में नाम लिखे इन दवाई के पत्तों का क्या मतलब होगा?....काला अक्षर भैंस बराबर।

अब कोई इन्हें क्या बताए कि कौन सी कब खानी है, कितनी बार खानी है ....आप इन दवा के पत्तों को देखें तो सब कुछ एक जैसा ही नहीं लगता क्या!...... इन की पैकिंग देखिए, इन टेबलेट्स का कलर देखिए.....इन में इन की उच्च रक्त चाप की दवाईयां भी थीं, दर्द और इंफेक्शन की दवाईयां हैं.......ये अलग अलग डाक्टरों ने लिखी हैं।

इस बुजुर्ग को ही यह दिक्कत नहीं है, अधिकतर लोगों को इस तरह की दिक्कत होती है और कुछ हद तक इन सब दवाईयों का नाम केवल इंगलिश में लिखा होना इस का कारण है।

मैं नहीं कहता कि इंगलिश में नाम लिखा होने से वे आधे डाक्टर बन जाएंगे.....नहीं, कुछ नहीं, लेकिन तो कम से कम हो जाएगा कि एक हिंदी पढ़ने वाला जोड़-तोड़ कर यह तो पढ़ने की कोशिश कर लेगा कि वह जिस दवाई को खा रहा है उस का नाम क्या है।

वैसे तो मरीज़ों की समस्याएं इस देश में यहीं पर ही खत्म नहीं होती.....मानते हैं कि अनपढ़ता और सेमी-लिटरेसी भी इस के लिए जिम्मेदार हैं......लेिकन फिर भी जो काम जिस स्तर पर हो सकता है, वह तो होना ही चाहिए...पिछले वर्षों में हम ने कितना सुना कि अब दवाईयों की स्ट्रिप पर दवाई का नाम इंगलिश में भी लिखा होगा........लेकिन असल में क्या हो रहा है, क्या हम लोग जानते नहीं हैं?

चलिए मान भी लें कि किसी बुज़ुर्ग ने कैसे भी कोई जुगाड़ से दवाईयों की पहचान कर ली, और वह ठीक तरह से दवाई ले रहे हैं, लेकिन अगले महीने जब वह किसी सरकारी दवाखाने में जाते हैं तो दवाईयों के रैपर बदले हुए मिलते हैं..दवाई वही लेकिन कंपनी कोई दूसरी......अब इस में तो सरकारी ढंाचा कुछ नहीं कर सकता, लेकिन कम पढ़े लिखे बंदे की इतनी सिरदर्दी हो जाती है ...मैं ये सब बातें अकसर अनुभव की हैं।

दवाईयों का हिसाब किताब रखने के लिए कुछ लोग जुगाड़ भी कर लेते हैं......पहले हमारे पास कईं ऐसे मरीज आती थीं जो बताया करती थीं कि वे एक दिन में ली जाने वाली दवाईयों की सभी खुराकों (doses) को अपने दुपट्टे के तीन-चार कोनों में अलग अलग बांध कर गांठ बांध लेती हैं।

जितनी भी बातें लपेटता रहूं .........जितनी भी लछ्छेदार बातें कोई भी कर ले, लेकिन बदकिस्मती है कि इस दिशा में बहुत कम काम हुआ है.....बहुत काम ध्यान दिया जा रहा है......we are literally taking the things for granted --   कि हम ने इंगलिश में लिख दिया, फार्मासिस्ट ने इंगलिश में नाम लिखे पत्ते थमा दिए..........बाकी तो मरीज़ कर ही लेगा, हमारी छुट्टी और उस की जिम्मेदारी शुरू। नहीं, ऐसा नहीं है बिल्कुल, इस काम में मरीज़ द्वारा खूब गल्तियां होती रही हैं, हो रही हैं और बिल्कुल होती रहेंगी.. लेकिन ये गल्तियां अकसर सामने आती ही नहीं है..

जमा हुई दवाईयों की भूल-भुलैया...(इस लिंक पर क्लिक करिए)

अब आप सोच रहेंगे कि जब ये गल्तियां होती ही रहनी हैं तो मैंने इतना लंबा यह सब क्यों लिख दिया...........सुनिए, मैंने यह सब केवल इसलिए लिखा है ताकि कम से कम पॉलिसी बनाने वालों तक यह बात तो पहुंचे की दवाईयों पर िहंदी में तो नाम लिखा ही होना चाहिए.....इंगलिश में हो और अन्य भारतीय भाषाओं में भी हो, स्वागत है, लेकिन हिंदी को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।





अच्छा, जाते जाते आज बसंत पंचमी की आप को बहुत बहुत बधाईयां......आज के दिन भी दवाईयों की इतनी उबाऊ और पकाऊ बातें तो कर लीं, दाल-रोटी के बारे में भी दो बातें सुन लेते हैं....

शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

बीबीसी न्यूज़ का फेक पेज और करिश्माई दवाओं की जालसाजी

मैंने जब तीन चार साल पहले नेट पर गुप्त रोगों के लिए बिकने वाली दवाईयों का ज़िक्र किया तो मुझे लगा कि इस से आगे लोगों को क्या उखाड़ लेते होंगे इस तरह के लोग, लेकिन ऐसा नहीं है, ये किसी भी हद तक जा सकते हैं।

कल मुझे एक मित्र की ई-मेल आई..हम दोनों ने इंटरनेट लेखन का कोर्स इक्ट्ठा किया था...एक अजीब सी पंक्ति लिखी हुई थी और साथ में लिंक था कि पूरा पढ़ने के लिए इस लिंक कर क्लिक करिए।

ज़ाहिर सी बात है कि जब आप को किसी परिचित से कोई मेल आती है तो आप कुछ सोचते नहीं...मैंने उस लिंक पर क्लिक किया और एक पेज आया जिस पर मुझ से पासवर्ड पूछा गया.....मैंने नहीं दिया......वापिस उस लिंक पर क्लिक किया तो बीबीसी का एक पेज खुल गया....यह पेज बीबीसी हेल्थ का था.....और किसी पतले होने के लिए बिकने वाले प्रोडक्ट के बारे में जानकारी दी गई थी।

उस पेज को देखते ही मुझे लगा कि उस बंदे को पता है कि मैं सेहत संबंधी विषयों पर बक-बक करता रहता हूं तो उसे रिपोर्ट रोचक लगी हो और मेरी जानकारी के लिए इस का लिंक भेज दिया हो...शायद।

मैंने उस पेज को पढ़ने से पहले ही उन्हें शुक्रिया करते हुए एक ई-मेल दाग दी..और एम.जे.अकबर के साथ जो फोटू उन्होंने मेरी खींची थी, उसे भिजवाने के लिए उन्हें कह दिया।


जी हां, अब उस पेज को पढ़ना शुरू किया... तो वह इतना अच्छा लगा कि यकीन नहीं हो रहा था कि यह बात सच हो सकती है। फिर भी अगर बीबीसी न्यूज़ के पन्ने पर यह सब कुछ छपा है तो इस पर शक कौन कर सकता है!

इस लेख में मोटापा कम करने की बात कही गई थी..और उन के प्रोडक्ट के एक महीने के इस्तेमाल से २३ पांड मोटापा कम करने की बात....बार बार शक होता कि यार, अगर ऐसा कोई प्रोडक्ट, इतना विश्वसनीय आ चुका है तो हमारी नज़र से कैसे बचा रहा।

बहरहाल, उस पेज पर बताया गया था कि इस पतले करने वाले प्राकृतिक उत्पाद को बीबीसी की हेल्थ राइटर ने अपने ऊपर आजमाया और हर सप्ताह के अपने अनुभव उस में साझा किए हैं......बहुत ही ज़्यादा अजीब सी बात लगी कि इस तरह के टुच्चे काम बीबीसी न्यूज़ जैसी संस्था कब से करने लगी!

पेज थोड़ा लंबा था, पूरा पढ़ा नहीं, बीच बीच में देखा......लेकिन इमानदारी से शेयर करूं तो एक बार तो लगा कि यार, इसे तो मैं भी एक महीने इस्तेमाल कर ही लूं, एक दम नेचुरल प्रोडक्ट है, मेरी भी तो तोंद निकलने लगी है...(खुशफहमी की इंतहा.... अभी भी सोच रहा हूं ...निकलने लगी है!!....निकली ही हुई है, दोस्तो...) ... आठ-दस किलो मुझे भी तो कम करने की बहुत ज़रूरत है, पैंट टिकती नहीं अपनी जगह! और जैसे कि मैं पहले लिख चुका हूं कि किसी तरह के संदेह की कोई गुंजाईश तो थी नहीं क्योंकि  बीबीसी न्यूज़ का हेल्थ पेज यह सब जानकारी शेयर कर रहा था।

मैंने जस्ट तफरीह के लिए एक लिंक पर क्लिक किया जिस पर लिखा था कि आप को दवाई भेजने के लिए शिपिंग चार्जेज नहीं लिए जाएंगे, लेकिन फिर वहां जा कर पता चला कि वही दो हज़ार दो, तीन हज़ार रूपये दो.....अलग अलग साइज के डिब्बों के लिए.....बात कुछ हज़म हुई नहीं, इसलिए मुझे लगा कि छोड़ो यार, इन के चक्कर में क्या पड़ना, बीबीसी न्यूज़ का पेज कुछ कह रहा है तो क्या अपने दिमाग को ताला लगा दें!



इसी लिए मैंने उस पेज को बंद करने की कोशिश की तो मुझे स्क्रीन पर एक मेसेज आया कि क्या आप सच में यह पेज बंद करना चाहते हैं...देख लिजिए, प्रोडक्ट की बहुत कम मात्रा बची है, अगर आप अभी आर्डर नहीं करेंगे तो बाद में आप हाथ मलते रह सकते हैं।

यह पढ़ कर मेरा माथा ठनका कि यह कुछ तो लफड़ा है, बीबीसी नहीं इस तरह के बिक्री वाले लफड़ों में पड़ने वाली ... अचानक ऊपर एड्रेस बार में साइट का यू-आर-एल देखा तो पाया कि यह बीबीसी की साइट तो है ही नहीं, फिर भी पेज की ले-आउट देख कर अभी भी लगा कि चलिए इस लेख के शीर्षक को बीबीसी न्यूज़ की साइट के सर्च-बॉक्स में डाल कर देखते हैं.....वही किया, लेकिन कोई रिज़ल्ट नहीं आया।

एक तरह से पक्का हो गया कि यह बस फांदेबाजी है, और कुछ नहीं, और जो मुझे मेल मिला वह भी स्पेम मेल था।

आज कर सभी बच्चे अपने मां-बाप के गुरू हैं, मैंने अपने स्कूल जाने वाले बेटे से बात की....उसने बात थोड़ी-सुनी-थोड़ी अनसुनी कर दी। लैपटाप पर ये सब टैब तो खुले ही हुए थे।

रात को सोते समय मुझे अचानक बेटा कहने लगा कि आप जिस साइट की बात कर रहे थे वह फेक है ... स्पेम मेल आई थी आपको। पूछने लगा कि आपने कहीं अपना जी-मेल पासवर्ड तो नहीं भरा ..मैंने नहीं भरा था, फिर भी मैंने हैकिंग के अंदेशे से तुरंत अपना जी-मेल का पासवर्ड चेंज कर दिया।

बेटे ने बताया किस उस ने उस पेज की रिपोर्ट का कैप्शन जब गूगल सर्च किया तो जो सर्च रिजल्ट आए ..उस के पहले ही सर्च रिजल्ट पर जब क्लिक किया तो इस फेक पेज के बारे में ही उस में लिखा हुआ था कि किस तरह के स्पेम भेज कर ..और करिश्माई दवाओं की तारीफों के पुल बांध कर लोगों को जाल में फंसाया जाता है... इस तरह की जालसाजी से बचने के लिए जो साइट थी उस का लिंक यहां लगा रहा हूं ..देख लीजिएगा...



इस को पूरा पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करिए

अब बात यह उठती है कि मेरे दोस्त ने मुझे वह ई-मेल क्यों भेजी, पूरी संभावना है कि वह स्पेम लिंक वाली मेल मुझे उस की जानकारी के बिना आई हो...और इस के पीछे कारण वही हो कि उसने अपने जी-मेल खाते का पासवर्ड कहीं डाल दिया हो।

चाहे मैंने अपना जी-मेल पासवर्ड तो किसी ऐसी वैसी शुशपिसियस जगह पर नहीं डाला था, मुझे भी लगा कि कहीं मेरी तरफ़ से भी यह मेल आगे मेरे मित्रों तक न चला गया हो, इसलिए जी-मेल में जाकर Sent फोल्डर में देखा कि ऐसा कुछ नहीं है तो इत्मीनान हुआ।

लिखते लिखते समय का पता ही नहीं चला......पोस्ट की रोचकता हमारे समय में एक रूपये में बिकने वाले मस्त राम के नावल जैसी ......वह अलग बात है उस का कंटैंट और हुआ करता था......याद आ रहा कि दसवीं कक्षा के दौरान हमारी क्लास का एक लड़का अकसर इस तरह की किताबें लेकर आता था......दूसरों की पढ़ाई में खलल डालने के लिए...अपनी पढ़ाई वह अच्छे से कर लिया करता था.....कुछ छात्र उस से वह छोटी छोटी मस्त राम की किताबें छीन छीन कर आधी छुट्टी के वक्त जल्दी जल्दी पढ़ा करते थे...दो दो तीन तीन लड़के किसी किताब के पन्ने को पढ़ते पहले बार देखे थे.....ज्ञान अर्जित करने की इतनी व्याकुलता..... कौन सा धर्मात्मा था मैं भी , दो तीन पन्ने तो पढ़े ही होंगे, लेकिन मुझे लगा था कि यह ठीक नहीं है, हम लोग तो घर से पढ़ने आते हैं। वह लड़का अपनी पढ़ाई में अच्छा था, चला गया है विदेश.........अब कभी उसे संदेश भेजो तो कभी भी जवाब नहीं देता, मुझे आज भी उस बंदे से चिढ़ है ...क्योंकि उस ने हमारी क्लास के कुछ छात्रों को कभी गलत राह दिखाई थी। उस उम्र में हमारा मन भी कच्ची मिट्टी के समान होता है.... चलिए, उसे माफ़ कर देते हैं और इस बात पर यहीं मिट्टी डालते हैं।

और यह फांदेबाजी की कोशिश देखिए आज कल किस तरह से बीबीसी न्यूज़ का फेक पन्ना तैयार कर के की जा रही है, मुझे कल आभास हुआ कि नेट पर किसी को भी उल्लू बनाना कितना आसान है, क्यों बैंकों वाले नेटबैंकिंग फ्रॉड से बचने के लिए बार बार विज्ञापनों के माध्यम से आगाह करते रहते हैं...यह हम लोग अब जानते हैं, लेकिन फिर भी इस तरह के संदेहस्पद प्रोड्क्ट्स बेचने वाले कितने लोगों को रोज़ाना अपना शिकार तो बना ही लेते होंगे..

तो दोस्तो इस कहानी से हम सब ने (मैंने भी) यही शिक्षा ली कि अगर नेट पर कुछ ज़रूरत से ज़्यादा मीठा या अच्छा दिखे तो अगला कदम रखने से पहले उस की थोड़ी जांच-पड़ताल कर लीजिए.......बनारस का ठग तो एक था, लेकिन नेट पर तो हर कदम पर बहुरूपिए, ठग, जालसाज़ अपने स्टाल सजाए बैठे हैं, बच के निकलिएगा...

नोट

१.        उस फेक पेज के स्क्रीन शॉट तो लगा दिए हैं, लेकिन उस का लिंक मैंने इस लेख में कहीं नहीं लगाया....जान बूझ कर कि कहीं यह कोई वॉयरस आदि ही न लिए हो। वैसे जिस साइट ने उस पेज की पोल खोली है, उस का लिंक तो ऊपर लगा ही दिया है, उस में भी उस फेक पेज के बारे में बहुत कुछ लिखा है।

२.        कहने की भी बात नहीं है कि अगर इस तरह के प्रोडक्टस कहीं से मुफ्त भी मिलें तो नहीं लेने चाहिए, पता ही नहीं क्या है क्या नहीं!!
             अभी कुछ पतला करने वाले हर्बल जुगाड़ों का ध्यान आ गया कि वे भी क्या क्या गुल खिला रहे हैं!

२.        मैने कभी भी पाठकों से नहीं कहा कि मेरी किसी भी बक-बक को शेयर करें, लेकिन इस पोस्ट के लिए विशेष रूप से कह रहा हूं ताकि भूल से भी कोई इस तरह के जालसाज़ों के झांसे में न जाए। इसे जितना शेयर कर सकते हैं, करिएगा। नेट पर शातिर लोग ताक लगाए बैठे हैं।

ओह माई गॉड, इतनी मगजमारी के बाद, सुबह सुबह कोई एक ठीक ठाक गीत सुनना-सुनाना तो बनता है, बेशक......इस समय यह गीत ध्यान में आ गया.....चिट्ठिए नी...दर्द फिराक वालिए ... (हिना फिल्म का यह बेहतरीन गीत)..

गुरुवार, 8 जनवरी 2015

ज्ञान बांटने की होड़ लगी हो जैसे..

अभी मैं अखबार पढ़ रहा था.. रेडियो सिटी चल रहा था।

तभी रेडियो सिटी की आर जे बोलीं कि जिसे देखो आज ब्लड-प्रेशर हो रहा है, जिसे देखो कहता है..मैं चल नहीं सकता... ऐसे में आप को करना क्या है, आप को अपनी दवाई रात में सोने से पहले खानी होगी... इससे इस बीमारी के ऊपर कंट्रोल ज़्यादा बढ़िया होता है और हार्ट-अटैक आदि का खतरा कम हो जाता  है।

रेडियो जॉकी तर्क यह दे रही थीं कि रात में में कोई काम तो करना नहीं होता, बस आराम ही करना होता है, इसलिए एक बार अगर रात में दवाई ले ली तो उच्च रक्त चाप का बेहतर कंट्रोल हो पाएगा।
Photo credits/nlm.nih.gov
यह तर्क बिल्कुल बेबुनियाद सा लगा... वैज्ञानिक तथ्यों से रहित.....मुझे अपना समय याद आ गया...१९९४ के आसपास की बात है, मुझे थोड़ा रक्तचाप रहने लगा था...बंबई में रहते थे तब...उन्हीं दिनों मैंने प्राणायाम् और मेडीटेशन (ध्यान) सीखा....मेरी कोशिश रहती थी कि प्राणायाम् के तुरंत बाद तो कभी कभी रक्त चाप की जांच करवा ही लूं।

उसी दौरान दो चार बार तो मुझे अपनी मिसिज़ के अस्पताल भी बाद दोपहर जाने का अवसर मिला.....कईं बार जब लंच-ब्रेक होता.. तो मैं पहले वहां पर १५-२० मिनट के लिए मेडीटेशन करता और फिर ब्लड-प्रेशर को नपवा लेता....सामान्य आने पर राहत महसूस होती।

फिर मुझे समझ आने लगी कि यह बात अजीब सी है...बी.पी का स्तर तो सारे दिन ही सामान्य रहना चाहिए...ठीक है सुबह और शाम की रीडिंग में थोड़ा अंतर हो सकता है, लेकिन इस तरह से प्राणायाम् अथवा ध्यान के तुरंत बाद बी पी जांच करवा के आश्वस्त हो लेना पूरी तरह से ठीक नहीं है।

फिर जब धीरे धीरे यह बी पी का लफड़ा समझ में आने लगा तो अपना ज्ञान इस तरह से झाड़ दिया...

हाई-ब्लडप्रेशर का हौआ.. भाग १

दोस्तो, माफ़ करना....सच में मुझे पता नहीं कि कुछ साल पहले क्या लिखा था इन पोस्टों में.....लेकिन इतना इत्मीनान है सच के अलावा कुछ न लिखा होगा। हलवाई को अपनी मिठाई का पता रहता है, इसलिए वह नहीं खाता उसे.....बरसों बाद मेरा भी अपने लेखों के साथ व्यवहार कुछ कुछ इसी तरह का ही होता है।

हां, तो उस रेडियोसिटी की आर जे की बातों पर वापिस लौटते हैं...उसने भी आज यही कहा कि आप ज़िंदगी का आखिर उखाड़ क्या लेंगे, क्या कोई अभी तक कुछ उखाड़ पाया है!

हाई-ब्लडप्रेशर का हौआ.. भाग२

व्हाट्सएप पर एक जोक आया था.....कि सतसंग में तो इस मौसम वही जाने की इच्छा होती है जहां ब्रेड-पकोड़े का प्रसाद मिले....वरना ज्ञान तो फ्री में व्हाट्सएप में कुछ बंट रहा है। यहीं नहीं, सारे सोशल मीडिया पर और मॉस-मीडिया (जन संचार) पर भी जैसे होड़ सी लगी हुई है..

इन माध्यमों की पहुंच बहुत ज्यादा है.... लेिकन इस तरह के ज्ञान का इस्तेमाल ज़रा सोच समझ कर के ही करिएगा.....जैसे अगर कोई विशेषज्ञ आप को दवाई लेने के समय के बारे में इस तरह की बात कहे तो उस की बात बिना किसी किंतु-परंतु के मान लीजिए... वरना इस तरह की हल्की-फुल्की बातें को गंभीरता से लेते हुए कहीं मान ने लें!

जहां तक दवाईयों लेने के समय की बात है...यह केवल और केवल आप का डाक्टर जानता है... खाली पेट, खाने के तुरंत बाद, खाने के दो घंटे बाद, रात को सोने से पहल, दिन में कितनी बार लेनी है ... पानी के साथ, दूध के साथ... बहुत तरह की बातें होती हैं, इस के पीछे वैज्ञानिक कारण होते हैं...इन्हें नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता है। एक बात पल्ले बांध लें कि हर दवाई का अलग मिजाज है....हां, बिल्कुल लोगों की तरह.......और इस मिजाज को रेडियो जाकी नहीं, अनुभवी चिकित्सक ही जानते हैं।

लेकिन एक बात ज़रूर है....ये रेडियो जॉकी आप को खुश रखने की कला में निपुण होते हैं......यार, ऐसे में वे भी तो हम सब के हाई ब्लड-प्रेशर को कंट्रोल करने में मदद तो कर ही रहे हैं जिस के लिए ये सब साधुवाद के पात्र हैं। सुबह सुबह अपनी चटपटी बातों से लोगों के चेहरों पर मुस्कान बिखेरने आ जाते हैं.

बस, यही बात करने की आज सुबह सुबह इच्छा हो गई...वैसे आज कल ब्लड-प्रेशर की जांच करने के लिए नये नये डिवाईस आ रहे हैं...कभी फिर इन के बारे में चर्चा करेंगे......बस, आप ज़रूरत से ज़्यादा न सोचा करें..यह एकदम सुपरहिट फार्मूला है।

आज सुबह यह गाना सुन लें?...बर्फी फिल्म का बहुत सुंदर गीत है... इत्ती सी हंसी, इत्ती सी खुशी....प्रियंका चोपड़ा और रणबीर कपूर को इन की बेहतरीन एक्टिंग के लिए १०० में से १०० अंक......याद है फिल्म देखते कितनी बार आंखें नम हो गई थीं (सच कहूं तो बस नम ही नहीं...) ...इतने संवेदनशील विषय को इतनी परपेक्शन के साथ परदे पर उतारने के लिए....



शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

टीचरों के अनुभव ताउम्र मार्गदर्शन करते हैं....

हर स्तर पर टीचर पूजनीय है, यह तो हम सब मानते हैं......वह कक्षा में केवल विषय ही तो पढ़ा नहीं रहा होता, वह अपने उम्र भर के अनुभव आप के सामने रख देता है...है कि नहीं?

कुछ लोग शायद इस गलतफहमी में रहते हैं कि फलां फलां ने क्या पढ़ाना है, सब कुछ तो किताबों में लिखा ही है, पढ़ लेंगे, उस में समझने लायक है ही क्या। लेिकन यह बहुत बड़ी भूल है, जो हर क्लास में ये महारथी पांच मिनट के लिए अपने अनुभव साझा कर रहे होते हैं, वही तो सुनने और समझने वाली बात होती है, जो किसी किताबों में नहीं मिलतीं।

मेरे पास बहुत से मरीज़ ऐसे आते हैं जो आम खांसी जुकाम के लिए ऐंटीबॉयोटिक की फरमाईश करते हैं....मुझे पता है कि इन्हें इन की ज़रूरत नहीं है, फिर भी ...अपने आप किसी डाक्टर को ऐंटीबॉयोटिक लिखने के लिए कहना या अपनी मरजी से ही बाज़ार से खरीद लेना एक बड़ा मुद्दा है। इसी वजह से कारगर से कारगर ऐंटीबॉयोटिक अब अपनी धार खोने लगे हैं....अब वे असर ही नहीं करते।

छोटे छोटे बच्चों की आम खांसी-जुकाम के लिए दी जाने वाली दवाईयों की तो कितनी आलोचना हो रही है, आप देखते ही होंगे।

हां, तो मैं अपनी एक मैडम की बात करना चाहता हूं....यह थीं डा सीता शर्मा, जो अमृतसर के मैडीकल कालेज की फार्माकालोजी विभाग के अस्सी के दशक के दौरान हैड थीं....वह हमें फार्माकालोजी पढ़ाती थीं......बहुत ही ज़हीन प्रोफैसर थीं...अच्छे से समझा देती थीं, मैं उन की एक भी क्लास मिस नहीं करता था।

अगर पांच छः छात्र भी होते थे तो भी वे अपनी क्लास ज़रूर लिया करती थीं।

एक दिन की बात है मुझे अच्छे से याद है कि उन्होंने हम से साझा किया कि ये जो इतनी दवाईयां खाने का ..विशेषकर छोटी मोटी तकलीफ़ों के लिए...ट्रेंड सा चल पड़ा है, यह खतरनाक है। हमें तो उम्र की उस अवस्था में कहां दीन- दुनिया के बारे में इतना कुछ पता होता है... एक दिन उन्होंने बताया कि किस तरह से पंजाब के गांव के आदमी बुखार होने पर एक कप चाय पीने से ही दुरूस्त हो जाते हैं.......सामान्यतयः ये चाय पीते नहीं हैं...शायद यह ३० साल पुरानी बात थी, आज का मैं नहीं कह सकता......और जब ये बुखार में चाय पीते हैं... तो चाय में मौजूद कैफीन इन के लिए एक दवाई का काम करती है, इन्हें पसीना आ जाता है और ये एकदम फिट हो जाते हैं......यही बात वे ऐस्प्रिन की गोली के बारे में बताया करती थीं कि यह सस्ती सी गोली, कितनी असरदार है........यह आप लोग नहीं समझोगे, आप लोग तो बस मैडीकल रिप्रेजेंटेटिव के प्रलोभन में  महंगी महंगी दवाईयां ही लिखा करोगे, इन्हें यह भी अंदेशा था.......अब यह हमारे दिल को पता है कि यह कितना सच साबित हुआ, कितना झूठ।

पंजाब के गांवों में लोग अमूमन दवाईयां कम ही खाते हैं.....इस का इफैक्ट देखना चाहेंगे?..कुछ दिन पहले मेरे एक मित्र ने मुझे व्हाट्सएप पर यह वीडियो भेजी थी.....मैं यहां शेयर कर रहा हूं, देखिएगा...और इन के घुटनों की और इन के उत्साह की तारीफ़ में दो शब्द तारीफ़ के शेयर किए बिना बिल्कुल मत आगे बढ़िएगा.....

बड़ा इम्पैक्ट पड़ता है अपने टीचरों का हमारे व्यक्तित्व को तराशने में......शर्त यही है कि हम लोग उन्हें पूरा सम्मानपूर्वक सुनें तो.......एक ऐसे ही टीचर थे हमारे डा कपिला सर...ये हमें ओरल सर्जरी का विषय पढ़ाया करते थे...दिल से पढ़ाते थे......इसलिए उन की सभी बातें सीधा दिल में उतर जाया करती थीं....अमृतसर के दिसंबर-जनवरी के महीने में कोहरे के िदनों में आठ बजे सुबह की क्लास में पांच मिनट पहले पहुंचना उन की आदत थी......कहां गये ऐसे लोग......हर बात को अच्छे से समझाना.....कहा करते थे कि जबड़े की हड्डियां अपने तकिये के नीचे रख के सोया करो.....कहने का भाव यही कि अपने विषय को अच्छे से पढ़ा करो......शत शत नमन......अब वे नहीं रहे।

हां, तो एक बात......मैंने पिछले एक महीने से चाय छोड़ रखी है..........बिल्कुल......कारण यह रहा.........चाय से ऩफरत के मेरे कारण। 

कल से बड़ा जुकाम परेशान कर रहा था, आज सुबह अच्छी सी चाय दवाई के तौर पर पी तो इतना अच्छा लगा कि अपनी मैडम डा सीता शर्मा की जी बातें याद आ गईं और आपसे शेयर करने बैठ गया।

शनिवार, 29 नवंबर 2014

मुंह के अंदर कोई भी दवाई लगाने से पहले

अकसर मेरे बहुत से मरीज़ मेरे पास पहुंचने से पहले टीवी पर ताबड़-तोड़ दिखाए जाने वाले उन दो-तीन फोरन में प्रैक्टिस कर रहे दंत चिकित्सकों के विज्ञापन द्वारा कही बातें मान कर वह पेस्ट कईं महीने इस्तेमाल कर के ही पहुंचते हैं। बड़ा अजीब लगता है कि हमारी बातें तो कोई पिछले ३०सालों से सुन नहीं रहा और उस विज्ञापन में बताई जाने वाली मुश्किल से नाम वाली पेस्ट का नाम अनपढ़ी महिलाएं भी रट लेती हैं......यह तो हुआ विज्ञापन का जादू, बाकी कुछ नहीं।

दरअसल जब हम लोगों ने पढ़ाई की तो इन पेस्टों को medicated toothpastes कहा जाता था ...जिन्हें किसी विशेष कारण से ही दंत चिकित्सक मरीज़ों को इस्तेमाल करने की सलाह दिया करते थे। बिना वजह ऐसे ही कोई भी पेस्ट मंजन इस्तेमाल करने से दांतों की तकलीफ़ का निवारण हो ही नहीं सकता...यह जस की तस तो बनी रहती है, वैसे बहुत से केसों में शायद इस के प्रभाव से लक्षण दब जाते हों और दंत रोग जटिल हो जाते हैं...अकसर। अकसर ये पेस्टें महंगी तो होती ही हैं।

टुथपेस्ट-दंतमंजन का कोरा सच... भाग १
टुथपेस्ट-दंतमंजन का कोरा सच..भाग२

(जैसे एक कहावत है ना कि हलवाई अपनी मिठाई नहीं खाता....मैं अकसर एक बार किसी लेख को लिखने के बाद दो एक दिन के बाद उसे नहीं पढ़ पाता.....कारण?... यही कारण कि लगता है कि ऐसा क्या लिख दिया कि उसे बार बार देखूं......क्योंकि यह इत्मीनान होता है कि जो भी लिखा है सच एवं अपने अनुभव पर आधारित ही लिखा है तो फिर मुझे क्यों इतनी हड़बड़ी बार बार उसे देखने की..)

विषय से और न भटक जाऊं.....वापिस लौट रहा हूं....हां, तो पेस्ट को अपनी इच्छा से (और आज के दौर में विज्ञापन में दिख रहे विलायती डाक्टरों की ताकीद पर)...लेकिन परेशानी की बात है कि मुंह में कुछ भी ज़ख्म, घाव या छाले आदि होने पर भी लोग अपनी मरजी करने से बाज नहीं आ रहे हैं।

यह पोस्ट लिखने का ध्यान मुझे इसलिए आया कि मैंने एक स्टीरायड-युक्त मुंह में लगाई जाने वाली दवाई (ओएंटमैंट) के ऊपर जब लिखा देखा कि इस मुंह के छालों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। नहीं, यह बिल्कुल गलत है, अकसर बिना दंत चिकित्सक की सलाह के इस तरह की दवाई इस्तेमाल की ही नहीं जा सकती है। यह जो स्टीरायड-युक्त मुंह में लगाई जाने वाली दवाई की मैं बात कर रहा हूं, इसे हम लोग ही बड़े सोच समझ कर लगाने की सलाह देते हैं और इस के लगाने की बहुत ही कम केसों में ज़रूरत पड़ती है।

एक बात और, मुंह में ज़ख्म, घाव या छाले किस वजह से...कब से हैं, यह तो केवल दंत चिकित्सक ही बता पाता है.....मुंह में छाले जलने से हो जाते हैं, खाने-पीने में किसी कैमीकल की वजह से होते हैं, किसी इंफैक्शन की वजह से, बिना किसी कारण के (idiopathic), किसी दांत की रगड़ से, तंबाकू-पान-गुटखा से होने वाली किसी बीमारी की वजह से, या फिर किसी दवा के रिएक्शन से ही मुंह में घाव हो गया हो.........बहुत से कारण हैं, चूंकि दंत चिकित्सकों ने इन सब तरह के सैंकड़ों-हज़ारों मरीज़ देख रखे होते हैं, अधिकांश केसों में उन्हें चंद सैकिंडों में पता चल जाता है कि क्या कारण है और उन के ऊपर कुछ लगाने की ज़रूरत है भी या ये अपने आप तीन-चार दिन में ठीक हो जाएंगे।
जुबान के ज़ख्म बहुत जल्द ठीक हो जाते हैं...

अब बुखार के बाद जो अकसर होंठ के किनारे पर जो एक छाला सा बन जाता है ...वह वायरस इंफैक्शन की वजह से होता है, किसी दवाई विशेष की ज़रूरत होती नहीं, दो दिन दिन में वैसे ही दुरूस्त हो जाता है....वैसे यह हरपीज़ सिंपलेक्स इंफैक्शन की वजह से होता है।

मरीज़ तो मुंह की हर तकलीफ़ को पेट की सफ़ाई से ही जोड़ लेते हैं, यह सरासर गलत है......वह अलग बात है कि पेट तो साफ़ रहना ही चाहिए, वह एक अलग मुद्दा है, लेकिन यह भी सदियों पुरानी एक भ्रांति है...कब्ज और मुंहों के छालों से संबंधित.....।

बाज़ार में बहुत से मसूड़ों की मालिश करने के लिए तेल मिलते हैं जिन्हें गम-पेन्ट कहते हैं......इन्हें आप चिकित्सक की सलाह अनुसार मसूडों पर लगा सकते हैं... कोई खराबी नहीं, लेकिन यह मसूडों के रोग को दुरूस्त नहीं कर पायेगा, वह तो इलाज से ही होगा, इस से शायद लक्षणों में ही थोड़ा-बहुत राहत मिल पाती है।

घाव पर लगाने वाली दवाईयों की बात करें तो तंबाकू-पान-गुटखा की वजह से होने पर ज़ख्मों में वे कोई असर नहीं करतीं, थोड़ा बहुत राहत मरीज़ को लगती होगी, लेकिन सच्चाई यह है कि इन का कुछ असर होता नहीं, कईं बार इन के चक्कर में मरीज़ बेशकीमती समय बरबाद कर देते हैं.....तंबाकू-वाकू हमेशा के लिए थूकना ही होगा और ऐसे ज़ख्मों, घावों या छालों को दंत-चिकित्सक को दिखाना ही होगा।

यह तो थी दवाईयों की बात हम लोग तो मरीज़ को लौंग का तेल घर पर अपने आप लगाने के बारे में भी सचेत करते रहते हैं क्योंकि इस का गलत इस्तेमाल भी कईं बार परेशानी पैदा कर देता है...

दांत में लौंग-तेल लगाने का सही तरीका

और मुंह में डिस्प्रीन की गोली को पीस कर लगाने से भी बहुत बार आफत हो जाती है..ऐसे प्रयोग से मुंह में बड़ा ज़ख्म हो जाता है जिसे ठीक होने में कईं दिन लग जाते हैं।

एक बात और .. अकसर मरीज़ मुंह में लगाने वाली कोई भी दवाई में भेद कर नहीं पाते, ऊपर मैंने जिस गम-पेन्ट की बात की है, उसे अगर मुंह के छालों में लगाया जाता है तो अकसर ये बुरी तरह से खराब हो जाते हैं।

लगता है अब यहीं पर विराम लगाऊं......काफ़ी लिख दिया है .......कुछ दिनों से बार बार ध्यान आ रहा था इस विषय पर लिखने के लिए.........बस, अगली बार मुंह में कोई भी दवा लगाने से पहले थोड़ा सोच-विचार कर लें या दंत चिकित्सक से पूछ लें.......या पेस्ट को सिलेक्ट करने से पहले "विलायती दंत चिकित्सकों" द्वारा दिए जा रहे विज्ञापनों के बारे में भी थोड़ा-सा सचेत रहिये ...हो सकता है कि आप को इन की ज़रूरत ही न हो, वैसे भी इन विज्ञापनों को देख कर ऐसा लगता है कि देश में साफ़-सफ़ाई की समस्या एक तरफ, और दांतों में ठंडा-गर्म लगने की समस्या दूसरी ओर.... विज्ञापन तो ऐसे कहते हैं कि जैसे १२५ करोड़ लोग ही दांतों में ठंडा-गर्म लगने से परेशान हैं..आइसक्रीम खा नहीं पा रहे हैं.........बस, वह पेस्ट करने से ही दांतों की तकलीफ़ें एक दम ठीक हो जाएंगी........ऐसा होता है क्या? मैंने तो कभी ऐसा होता देखा नहीं .......दांतों की झनझनाहट है तो उस का कारण खोज कर उसे ठीक कराएं......और याद रखने वाली बात है कि  इस झनझनाहट के भी एक नहीं, बहुत से कारण हैं।

बातें बहुत हो गईं.......एक गाना सुनते हैं.....शायद तीसरी-चौथी कक्षा में यह फिल्म देखी थी...महमूह साब भी मिलावटी चीज़ों का ही रोना रो रहे हैं.....अपने अनूठे अंदाज़ में.....खूब बजा करता था यह गाना भी रेडियो पर....आज सुबह सुबह पता नहीं कैसे इस का ध्यान आ गया....चालीस साल पहले भी बाज़ार के जो हालात थे, उस का साक्षी है यह गीत..



सोमवार, 24 नवंबर 2014

कैसा कैसा पनीर बिक रहा है!


कल हम लोग घर के पास ही एक सब्जी मंडी में थे....मैंने देखा कि किस तरह से वहां बाज़ार में पनीर बिक रहा था....१४० रूपये का एक किलो।
 लखनऊ की सब्जी मंडियों में अब पनीर ऐसे बिकने लगा है
आप के शहर में भी इस तरह से पनीर तो बिकता ही होगा। ऐसा नहीं है कि इस तरह से बिकने वाला पनीर ही खराब है या इस के ही मिलावटी दूध से बने होने की आशंका होती है। 

मेरे को तो एक बात ही हमेशा परेशान करती है कि दूध तो बाज़ार में ढंग का दिखता नहीं....फिर इतना सारा पनीर कहां से तैयार हो कर बिकने लगता है। है ना सोचने वाली बात। मिलावटी पनीर के बारे में हम लोग अकसर मीडिया में पढ़ते, देखते-सुनते रहते हैं। खराब पनीर मिलावटी दूध से तैयार तो होता ही है, इस को तैयार करने के लिए किस किस तरह के हानिकारक कैमीकल इस्तेमाल होते हैं, यह भी अकसर मीडिया में दिखता रहता है। 

दो दिन पहले मेरी पत्नी बता रही थीं कि इधर लखनऊ में एक प्रसिद्ध ब्रॉंड है दूध का ...इस कंपनी का पनीर भी खुले में बिकता है....उन्होंने कंपनी की थैली में तो डाला होता है लेकिन ऊपर से खुला होता है..

यह भी कल की ही तस्वीर है.. 
अब पनीर के बारे में कुछ व्यक्तिगत बातें कर लें......हम लोगों ने लगभग दस वर्ष हो गये कभी बाज़ार से पनीर नहीं खरीदा, हां, कभी लेना ही पड़े तो एक बहुत प्रसिद्ध ब्रॉंड है जिस का ले आते हैं। वरना हमेशा घर में ही पनीर बनाया जाता है। 

बाहर का पनीर खाया ही नहीं जाता....कईं बार तो बिल्कुल रबड़ जैसा लगता था। इसलिए शायद १०-१५ वर्षों से न तो हम बाज़ार का खुला पनीर लाये हैं (चाहे वह बड़ी बड़ी डेयरीयों में बिकता हो) और न ही हम लोगों ने बाहर कभी किसी पार्टी में या कोई रेस्टरां में पनीर की कोई भी आटइम खाई है। इच्छा ही नहीं होती......कौन इन की क्वालिटी चैक करता होगा....जिस देश मेें ऐंटीबॉयोटिक दवाईयों में चूहे मारने की दवा भरी पड़ी हो, वहां पर मिलावटी पनीर की सुध लेने की किसे फुर्सत है!

मैं तो अकसर अपने संपर्क में आने वाले लोगों को भी यही कहता हूं कि अगर बाज़ार में खुले में बिक रहा पनीर ही खाना है तो इस से बेहतर है कि आप इसे इस्तेमाल ही न करिए, हो सके तो घर ही में तैयार किये हुए पनीर की ही सब्जी खाइए। 

अब आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि जिस तरह का पनीर कल मैंने बिकते देखा ...वह किस स्तर का होगा, देखिए वह दाम तो पूरे ले रहा है, लेकिन मुझे यही भय रहता है कि ऐसे खोमचे वाले कहीं पनीर की जगह बीमारियां ही तो नहीं परोस रहे। 

लिखते लिखते अचानक ध्यान आ गया....पता नहीं मैंने कहां देखा था, शायद हरियाणा में वहां यह रवायत है कि लोग कच्चा पनीर बाज़ार में लेकर उस पर नमक-मसाला लगा कर अकसर खाते दिख जाते हैं..बस, यह ऐसे ही याद आया तो लिख दिया। 

होटल, ब्याह शादी में खाए पनीर से अनुभव बड़े कटु रहे हैं......सुबह होते ही पेट पकड़ कर बार बार बाथरूम भागने का दौर........इसलिए अब लगभग १२-१५ वर्षों से इस झंझट में पड़ते ही नहीं......किसी भी पार्टी में बस दाल चावल बहुत सुख देते हैं। आप का क्या ख्याल है? .... सही है बात ..गोलमाल है भाई सब गोलमाल है!!