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शुक्रवार, 30 मई 2008

आज तो ठंडी आइसक्रीम हो ही जाये !


आज के लेख के इस शीर्षक का राज़ यह है कि अगर हम ठंडी आइसक्रीम की बात छेड़ते हैं तो बहुत से बंधु अपने दांतों में इस आइसक्रीम की वजह से उठी सिहरन का दुःखडा लेकर बैठ जायेंगे और मेरे को दांतों में ठंडे-गर्म वाले टॉपिक को छेड़ने का बहाना मिल जायेगा।

कल मैंने दांतों के स्वास्थ्य के बारे में एक पोस्ट लिखी थी जिस पर मुझे तो तीन-चार ऐसी टिप्पणी प्राप्त हुईं हैं, जिन पर मैं अलग से एक-एक पोस्ट लिखूंगा। एक टिप्पणी में यह चिंता जताई गई है कि क्वालीफाईड डैंटिस्ट भी असकर ग्लवज़ नहीं पहनते, मास्क नहीं लगाते इत्यादि.......इस के बारे में मैं जो पोस्ट लिखूंगा वह मेरी अपनी ही आपबीती पर आधारित होगी और रोंगटे खड़े करने वाली होगी.....शास्त्री जी से मेरा अनुरोध है कि जहां कहीं भी क्वालीफाईड डैंटिस्ट को बिना ग्लवज़ के देखें तो उन्हें मेरी उस पोस्ट की एक कापी थमा दें, वे ग्लवज़ पहनना शुरू कर देंगे। दूसरी टिप्पणी थी कि टुथपेस्ट कौन सी करें..कौन सी ना करें...बड़ी दुविधा सी रहती है, सो मैं इस का भी समाधान एक पोस्ट में करूंगा। एक टिप्पणी में यह चिंता जताई गई है कि यह जो सिल्वर दांतों में भरी जाती है उस से पारा निकलता रहता है जो हमारे शरीर के लिये क्या खतरनाक है....यह विषय भी इतना अहम् है कि इस पर एक पोस्ट लिखने के बगैर बात बनेगी नहीं।

आज तो मैंने दांतो पर ठंडा-गर्म लगने के बारे में बात करने का विचार किया है। शायद मैंने पहले भी बताया था कि एनसीईआरटी के पास मेरी एक किताब की पांडुलिपि पड़ी हुई है.....सो, पहले तो ध्यान आया कि उस में से ही दांतों के ठंडे-गर्म वाला अध्याय यहां इस पोस्ट में चेप देता हूं....लेकिन मन माना नहीं। यही सोचा कि यार वो पांडुलिपि को तो लिखे दो साल से भी ज़्यादा का समय हो गया है...और वैसे भी इधर ब्लागिंग पर तो बेहद खुलेपन से लिखना होता , लिखना क्या.....अपने बंधुओं से बातें ही करनी होती हैं, तो यहां तो सब कुछ ताज़ा तरीन ही चलता है।

तो चलिये दांतों में लगने वाले ठंडे-गर्म की बात करते हैं। यकीन मानियेगा कि यह दांतों की एक इतनी आम समस्या है कि इस की वजह से दवाईयों से युक्त टुथपेस्टों के कईं विक्रेताओं की जीविका जुड़ी हुई है।

वैसे मुझे याद आ रहा है कि बचपन में जब हम लोग इमली खाते थे ( जी हां, नमक के साथ!)…तो दांत बहुत किटकिटाने से लग जाते थे। और हां, स्कूल में जो कागज़ के टुकड़े पर पांच-दस पैसे का बेहद खट्टा चूर्ण बिकता था, उसे खाने के बाद भी तो दांतों का कुछ ऐसा ही हाल हुया करता था। लेकिन तब हमें इन सब बातों की परवाह कहां थी.....दोपहर तक घर आते आते दांत तो ठीक लगने लगते थे लेकिन गला बैठने लगता था ......लेकिन गले बैठने का भी इतना दुःख नहीं होता था जितना इस बात का डर लगता था कि एक बार फिर पापा ने हमारे चूर्ण खाने वाली चोरी पकड़ लेनी है....क्योंकि अगली सुबह तक गला बंद हो जाया करता था , बुखार हो जाया करता था और थूक निगलने में बेहद तकलीफ। पता नहीं उस चूर्ण में क्या डाला गया होता था।

लेकिन वापिस अपने टॉपिक पर ही आते हैं.....तो क्या आप को भी कईं बार आइसक्रीम खाते खाते अचानक दांतों पर बहुत ठंड़ी सी लगी है........क्या कहा....हां..............कोई बात नहीं, इस में कोई बड़ी बात नहीं है, यह तकलीफ़ अकसर सभी को कभी-कभार होती ही है ।

मुझे लग रहा है कि सब से पहले मुझे इस ठंडा-गर्म लगने के कारण की तरफ बात को लेकर जाना होगा। तो, सुनिये होता यह है कि दांतों के क्राउन ( दांत का वह भाग जो हमें मुंह में नज़र आता है ) की तीन परतें होती हैं.....( वैसे होती तो दांत की जड़ की भी तीन परते ही हैं...लेकिन यहां हम खास बात दांत के ऊपरी हिस्से की ही कर रहे हैं ).....हां, तो क्राउन का बाहर वाला हिस्सा होता है इनेमल....उस के अंदर का भाग जो संवेदनशील होता है उसे डैंटीन कहते हैं और उस के अंदर दांत की नस व रक्त की नाड़ियां होती हैं.....तो होता यूं है कि अगर किसी भी कारण वश क्राउन की बाहरी परत इनैमल क्षतिग्रस्त हो जाती है ...घिस जाती है (उसके क्या कारण हो सकते हैं, इन्हें हम अभी देखते हैं).....तो जो कुछ हम खाते हैं....ठंडा, मीठा, खट्टा आदि ......ये पदार्थ दांत की दूसरी परत के संपर्क में आने की वजह से एक सिहरन सी पैदा करते हैं....यह तो हुई बेसिक सी बात।

अब देखते हैं कि वे कारण कौन से हैं जिस की वजह से दांतों के बाहर की इतनी मजबूत परत इनैमल घिस जाती है.....कट जाती है....क्षतिग्रस्त हो जाती है.......

दांतों को ब्रुश करने में और बूट-पालिश करने में कुछ तो अंतर होगा !..........

दांतों की बाहरी परत इनैमल के क्षतिग्रस्त होने का सब से महत्वपूर्ण कारण यही है कि अकसर लोग ब्रुश एवं दातुन को गलत ढंग से दांतों पर रगड़ते हैं जिस की वजह से यह इनैमल की परत नष्ट हो जाती है और एक बार यह कट जाये और ऊपर से टुथ-ब्रशिंग की शू-शाईन वाली गलत टैक्नीक लगातार चलती रहे ..तो फिर यह इनैमल का कटाव चलता ही रहता है जब तक कि यह कटाव इतना ही न हो जाये कि अंदर से दांत की नस ही एक्सपोज़ हो जाये.....यह बहुत दर्दनाक स्थिति होती है।

तो, इस तरह की स्थिति का इलाज यही है कि अगर दांतों में ठंडा गर्म लग रहा है तो तुरंत दंत-चिकित्सक को मिलिये.......ताकि आप को सही ढँग से ब्रुश करने की बातें भी पता चलें और जो दांतों पर इनैमल का कटाव हो चुका है उस का भी उचित फिलिंग के द्वारा इलाज किया जा सके।

यहां यह बात समझनी बहुत ज़रूरी है कि केवल फिलिंग ही इस का समाधान नहीं है क्योंकि अगर ब्रुश इस्तेमाल करने का अपना ढंग न ठीक किया गया तो यह कटाव वापिस हो जाता है...फिलिंग कोई इनैमल से ज़्यादा मजबूत थोड़े ही होती है।

खुरदरे मंजन भी इनैमल को घिसा देते हैं.........

बहुत से मंजन लोग बाज़ार से लेकर दांतों पर घिसने चालू कर देते हैं जिस की वजह से इनैमल घिस जाता है क्योंकि इस में खुरदरे तत्व मिले रहते हैं और कईं पावडरों में तो गेरू-मिट्टी मिली रहती है जिस की वजह से दांतों का घिसना तय ही है।

तो अगर दांतों में ठंडा-गर्म इस खुरदरे मंजन की वजह से है तो मरीज को तुरंत उस मंजन का इस्तेमाल करने की सलाह दी जाती है और साथ में यह भी ज़रूर याद दिलाया जाता है कि आप ने तो उस मंजन को इस्तेमाल करना नहीं , घर के किसी परिवार को भी इस से दांत घिसने से रोकें...............इस से पहले की मेरे मरीज़ अपनी अकल के घोड़े दौड़ाने लगें कि खुद करना नहीं...घर के दूसरे सदस्यों को छूने देना नहीं....तो फिर परसों ही बस-अड्ड़े के बाहर बैठे बाबा भूतनाथ से जो पच्चीस रूपये की 250ग्राम की डिब्बी खरीद कर लाये हैं...उस का क्या करें.............मैं उन्हें तुरंत कह देता हूं कि उसे आप उस के ठीक ठिकाने पर पहुंचा दें........कहां ?.............नाली में, और कहां !!

पायरिया रोग में भी यह ठंडा-गर्म तंग करता है ......

जिन लोगों को पायरिया की वजह से यह दांतों में ठंडा-गर्म लगने की शिकायत होती है, ये लोग अकसर किसी डैंटिस्ट के पास जाने की बजाये बाज़ार से महंगी महंगी पेस्टें खरीद कर दांतों पर लगानी शुरू कर देते हैं.....लेकिन उस का रिजल्ट ज़ीरो ही निकलता है......ज़ीरो से भी आगे माइनस में ही निकलता है क्योंकि ये पेस्टें इन के इन लक्षणों को बहुत टैंपरेरी तौर पर दबा देती हैं ....और नीचे ही नीचे पायरिया की बीमारी बढ़ती ही जाती है । लेकिन अगर कोई डैंटिस्ट आप को इस तरह की दवाई-युक्त पेस्ट कुछ समय के लिये इस्तेमाल करने की सलाह देता है तो उसे आप अवश्य इस्तेमाल करें।

तो, पायरिया के रोग के लिये तो डैंटिस्ट से मिल कर इस का समाधान ढूंढना ही होगा, वरना इन महंगी ठंडे-गर्म वाली पेस्टों के चक्कर में पड़ कर अपना टाईम खराब करने वाली बात तो है ही....साथ में रोग को बढ़ावा भी मिलता है।

इस लेख में बातें तो बहुत ही विस्तार में की जा सकती हैं लेकिन इस की भी अपनी लिमिटेशन्ज़ हैं.....तो सारांश में इतना ही कहता हूं कि दांतों में ठंडे-गर्म को लगने को कभी भी इतना लाइटली न लें क्योंकि इस के परिणाम गंभीर हो सकते हैं जैसा कि हम ने अभी अभी देखा है। क्योंकि इस के बीसियों कारण हैं...जब कोई क्वालीफाईड डैंटिस्ट आप की हिस्ट्री ले रहा होता है तो वह ये सब बातें नोट करता रहता है कि यह समस्या किसी एक विशेष दांत में है या मुंह के एक तरफ ही है या मुंह के दोनों तरफ ही है या सभी दांतों में एक साथ ही होती है................और फिर वह दांतों का क्लीनिकल परीक्षण कर के और कभी कभी एक्स-रे करने के बाद ही सही डायग्नोसिस कर पाता है और उस के अनुसार ही समाधान बताता है। तो, इस तरह की समस्या अगर हो तो, अपने आप महंगी पेस्टें जो ठंडा-गर्म ठीक करने का दावा करती नहीं थकतीं.....इस्तेमाल मत करिये ....इस से कुछ नहीं होगा......केवल आप को एक सुरक्षा का गल्त सा अहसास होने के कारण आप का दुःख बढ़ जायेगा.....आप तो बस केवल डैंटिस्ट से तुरंत मिल लीजिये। वैसे उस से भी पहले अगर आप मेरे को ई-मेल करके अपनी किसी भी शंका का समाधान करना चाहें तो आप का स्वागत है।

एक बात और भी कहनी बहुत ज़रूरी है कि अकसर लोग अपने दांतों की स्केलिंग इसी डर की वजह से नहीं करवाते कि इस के बाद उन्हें दांतों पर ठंडा-गर्म लगना शुरू हो जायेगा....लेकिन यह एक गलत धारणा है ....हो सकता है कि कुछ दिनों तक बिलकुल टैंपरेरी तौर पर आप को थोड़ी असुविधा हो, लेकिन उस का भी समाधान डैंटिस्ट आप को बता ही देते हैं।

मुझे लगता है कि मैंने इतनी लंबी पोस्ट लिख कर भी इस ठंडे-गर्म की समस्या के मुख्य बिंदुओं को ही छुया है , लेकिन अगर आप किसी बिंदु पर विस्तृत बातें सुनना चाहें तो मुझे टिप्पणी में ज़रूर कहिये।

जाते जाते सोच रहा हूं कि अपनी पोस्टों में मुझे क्लीनिकल फोटो भी डालनी चाहिये....सो, फिलहाल इस का कारण यही है कि मैं फोटोग्राफी में टैक्नीकली इतना साउंड नहीं हूं......आज सुबह भी हास्पीटल में अपना डिजीटल कैमरा साथ ही ले गया ....एक मरीज़ को बिलकुल क्षतिग्रस्त दांत उखाड़ने से पहले फोटो लेने की कोशिश की ...क्लिक भी किया....लेकिन स्क्रीन पर आ गया....मैमरी फुल.....सो, चुपचाप कैमरे को कवर में यह सोच कर डाल लिया कि अब इस के बारे में जानकारी बेटे से हासिल करनी ही होगी.............लेकिन कब?..................जब उसे इस IPL के मैचों से फुर्सत मिलेगी, तब !!

गुरुवार, 29 मई 2008

दांतों का इलाज करवाते करवाते कहीं लेने के देने ही न पड़ जायें !!


इस लेख की शुरूआत तो यहीं से करना चाहूंगा कि अगर आप अपने और अपनों के दांतों की सलामती चाहते हैं ना तो कृपया आप कभी भी ये नीम-हकीम टाइप के दंत-चिकित्सकों के ज़ाल में भूल कर भी न पड़ियेगा। नीम-हकीम टाइप के दंत-चिकित्सकों का नाम सुन कर आप नाक-भौंह इसलिये तो नहीं सिकोड़ रहे कि अब हमें यह भी किसी से सीखना होगा कि नीम-हकीम टाइप के दंत-चिकित्सकों के पास नहीं जाना है....इन झोला-छाप दंत-चिकित्सकों का क्या है, इन का तो बहुत दूर से ही पता चल जाता है....क्योंकि ये अकसर बस-अड्डों एवं पुलों आदि पर ज़मीन पर अपनी दुकान लगाये हुये मिल जाते हैं या तो अजीब से खोखे से अपने हुनर की करामात दिखाते रहते हैं।

हमारे देश में समस्या यही है कि इतने सारे कानून होने के बावजूद भी बहुत से जैसे नीम-हकीम डाक्टर फल-फूल रहे हैं। नहीं, नहीं, मुझे कोई ईर्ष्या वगैरह इन से नहीं है.....और इस का कोई कारण भी तो नहीं है। अकसर आप में से कईं लोग ऐसे होंगे जो दंत-चिकित्सक की डिग्री की तरफ़ ज़्यादा गौर नहीं फरमाते.....बस, बोर्ड पर दंत-चिकित्सक लिखा होना ही काफी समझ लेते हैं। और हां, बस अपने परिवार के किसी बड़े-बुजुर्ग द्वारा की गई उस दंत-चिकित्सक की तारीफ़ उन के लिये काफी है- इन डिग्रीयों-विग्रियों की बिल्कुल भी परवाह न करने के लिये।

शायद आप में से भी कईं लोग अभी भी ऐसे होंगे जो ये सोच रहे होंगे कि देखो, डाक्टर, हम ज़्यादा बातें तो जानते नहीं ....हमें तो देख भाई इतना पता है कि अपने वाला खानदानी दंत-चिकित्सक दांत इतना बढ़िया निकालता है कि क्या कहें.....ऊपर से जुबान का इतना मीठा है कि हम तो भई उस को छोड़ कर किसी दूसरे के पास जाने की सोच भी नहीं सकते। और इस के साथ साथ महंगी महंगा दवाईयां बाज़ार से भी खरीदने का कोई झंझट ही नहीं, सब कुछ अपने पास से ही दे देता है......और इतना सब कुछ करने का लेता भी कितना है......डाक्टर चोपड़ा, तुम सुनोगे तो हंसोगे..... केवल तीस रूपये !!

आप की इतनी बात सुन कर भी मेरे को बस इतना ही कहना है कि जो भी हो, आप किसी भी डाक्टर के पास जायें तो यह ज़रूर ध्यान रखा करें कि वह क्वालीफाइड हो....उस की डिग्री-विग्री की तरफ़ ध्यान अवश्य दे दिया करें....और यह भी ज़रा उस के पैड इत्यादि पर देख लिया करें कि क्या वह भारतीय दंत परिषद के साथ अथवा किसी राज्य की दंत-परिषद के साथ रजिस्टर्ड भी है अथवा नहीं।

मेरा इतन लंबी रामायण पढ़ने के पीछे एक ही मकसद है कि मैं रोज़ाना बहुत से मरीज़ देखता हूं जिन के दांतों की दुर्गति के लिये ये नीम-हकीम दंत-चिकित्सक ही जिम्मेदार होते हैं। पता नहीं पिछले दो-तीन से इच्छा हो रही थी कि आप से इस के बारे में थोड़ी चर्चा करूं कि आखिर ये नीम-हकीम दंत-चिकित्सक कैसे आप की सेहत के साथ खिलवाड़ कर सकते हैं......

साफ़-सफाई को तो भूल ही जायें...........

इन के यहां किसी भी तरह की औज़ारों इत्यादि की सफाई का ध्यान नहीं रखा जाता। मुझे पता नहीं यह सब इतने सालों से कैसे चला आ रहा है। कम से कम आज की तारीख में तो एचआईव्ही एवं हैपेटाइटिस बी जैसी खतरनाक बीमारियों की वजह से तो इन के पास जा कर दांतों का इलाज करवाना अपने पैर पर कुल्हाडी ही नहीं, कईं कईं कुल्हाडे इक्ट्ठे मारने के समान है। पहले लोगों में इतनी अवेयरनैस थी नहीं ....बीमारियों तो तब भी इन के पास जाने से इन के दूषित औज़ारों से फैलती ही होंगी....लेकिन लोग समझते नहीं थे कि इन बीमारियों का स्रोत इन नीम-हकीम डाक्टरों की दुकाने( दुकानें ही करते हैं ये !)….ही हैं।

पता नहीं किस तरह की सूईंयों का, टीकों का , दवाईयों का इस्तेमाल ये भलेमानुष करते हैं ...कोई पता नहीं।

लिखते लिखते मुझे यह बात याद आ रही है कि कहीं आप यह तो नहीं समझ रहे कि ये झोला-छाप दंत-चिकित्सकों की समस्या कहीं और की ही होगी.....अपने शहर में तो ऐसी कोई बात नहीं है। यकीन मानिये , यह आप की खुशफहमी हो सकती है......देखिये मुझे भी यह बात हज़म सी नहीं हुई ....खट्टी डकारें आने लगी हैं।

मुझे याद है जब हम लोग अपने ननिहाल जाया करते थे तो अकसर मेरी नानी जी ऐसे ही नीम-हकीम डाक्टर बनारसी की बहुत तारीफ़ किया करती थी.....बनारसी आरएमपी भी था और दांत-वांत भी उखाड़ दिया करता था। नानी सुनाया करती थीं कि पता नहीं दांत पर क्या छिड़कता है कि दांत अपने आप तुरंत बाहर आने को हो जाता है। बाद में जब हम लोग नीम-हकीमों के इन पैंतरों को जान रहे थे तो यह जाना कि यह पावडर आरसैनिक जैसा हुया करता होगा.....जिस के परिणाम-स्वरूप मुंह में कैंसर के भी बहुत केस होते थे।

दांत को गलत तरीके से भरना---

एक करामात ये झोला-छाप डैंटिस्ट यह भी करते हैं कि जिन दांतों को नहीं भी भरना होता, उन को भी ये भर देते हैं.....इन्हें केवल अपने पचास-साठ रूपये से मतलब होता है....भाड़ में जाये मरीज़ और भाड़ में जायें उन के दांत...। वैसे इस के लिये मरीज़ स्वयं जिम्मेदार है...क्योंकि जब कोई क्वालीफाइड दंत-चिकित्सक इन को पूरी ट्रीटमैंट-प्लानिंग समझाता है तो ये कईं कारणों की वजह से दोबारा उस के क्लीनिक का मुंह नहीं करते ( वैसे इन कारणों के बारे में भी कईं पोस्टों लिखी जा सकती हैं। ).....और फंस जाते हैं इन नीम-हकीम के चक्करों में।

और दूसरी बात यह भी देखिये कि ये नीम-हकीम लांग-टर्म इलाज के बारे में तो सोचते नहीं हैं.....वैसे मरीज़ों की भी तो यादाश्त कुछ ज़्यादा बढ़िया होती नहीं....अगर इस तरह के गलत तरीके से भरे हुये दांत दो-तीन महीने भी चल जायें...तो अकसर मैंने लोगों को कहते सुना है कि क्या फर्क पड़ता है...पचास रूपये में तीन महीने निकल गये.....डाक्टर ने तो भई पूरी कोशिश की...इस के आगे वह करे भी तो क्या........। इस तरह की सोच रखने वाले मरीज़ों के लिये मेरे पास कहने को कुछ नहीं है। लेकिन इतना ज़रूर कहना चाहूंगा कि दो-तीन महीने तो निकल गये...लेकिन इस गलत फिलिंग ने आस-पास के स्वस्थ दांतों की सेहत पर क्या कहर बरपाया...........यह मरीज़ों को कभी पता लग ही नहीं सकता ।

मेरी मानें तो किसी झोला-छाप दंत-चिकित्सक के पास जाने से तो यही बेहतर होगा कि कोई बंदा अपना इलाज करवाये ही न....यह मैं बहुत सोच समझ कर लिख रहा हूं...क्योंकि देश में बहुत से लोग हैं जो ये कहते हैं कि इन के पास ना जायें तो करें क्या, क्वालीफाईड डाक्टरों के क्लीनिकों पर चढ़ने की हम लोगों में तो भई हिम्मत है नहीं...कहां से लायें ढेरों पैसे.............बात है तो सोचने वाली ....लेकिन फिर भी अगर क्वालीफाइड के पास जाने में किसी भी तरह से असमर्थ हैं तो कम से कम इन नीम-हकीम दांत के डाक्टरों के चक्कर में तो मत फंसिये।

ये कैसे फिक्स दांत हैं भाई...................

अकसर नीम हकीमों के लगाये हुये फिक्स दांत देखता रहता हूं.....बस, बेचारे मरीज़ों की किस्मत ही अच्छी होती होगी......कि मुंह के कैंसर से बाल-बाल बच जाते हैं । कईं बार तो मैं भी जब इन अजीबो-गरीब फिक्स दांतों को मरीज के हित में निकालता हूं तो मुझे भी नहीं पता होता कि यह आस-पास का मास इतना अजीब सा क्यों बढ़ा हुया है......इसलिये मैं इन मरीजों को एक-दो सप्ताह बाद वापिस चैक अप करवाने के लिये ज़रूर बुलाता हूं।

होता यूं है कि ये नीम-हकीम जब कोई नकली दांत फिक्स करते हैं तो इन नकली दांतों की तारों को असली दांतों से बांध कर कुछ अजीब सा मसाला इस तार के ऊपर इस तरह से लगा देते हैं कि मरीज को लगता है कि इस ने तो 200रूपये में मेरे आगे के तीन दांत फिक्स ही लगा दिये ....कहां वह दूसरा डाक्टर 1500 रूपये का खर्च बता रहा था। लेकिन जो वह क्वालीफाईड डाक्टर फिक्स दांत लगाता है और जो यह नीम-हकीम फिक्स दांत लगाता है.....इन दोनों फिक्स दांतों में कम से कम ज़मीन आसमान का तो फर्क होता ही है, इतना फर्क तो कम से कम है....इस से ज्यादा ही होता होगा। ऐसा इसलिये होता है कि क्वालीफाईड डाक्टर ने पूरे पांच साल जो ट्रेनिंग की तपस्या की होती है..उस के ज्यादातर हिस्से में उसे मरीज़ के टिशूज़ की इज़्जत करनी ही सिखाई जाती है.......उसे सिखाया जाता है कि कैसे अपने पास आये हुये मरीज़ को कोई बीमारी साथ में बिना वजह पार्सल कर के नहीं देनी है, उसे उस की सीमायों से रू-ब-रू करवाया जाता है कि इन सीमायों को लांघने पर कौन सी खतरे की घंटियां बजती हैं........वगैरह..वगैरह...वगैरह।

नीम-हकीमों के द्वारा लगाये गये फिक्स दांतो के बारे में तो इतना ही कहूंगा कि ये तो आस पास के असली स्वच्छ दांतों को भी हिला कर ही दम लेते हैं। और तरह तरह के घाव जो मुंह में उत्पन्न करते हैं , वह अलग।

लिखने को तो इतना कुछ है कि क्या कहूं...।लेकिन अब यहीं पर विराम लेता हूं.........मुंह एवं दांतों की बीमारियों के बारे में कुछ 101प्रतिशत सच सुनना चाहते हों....तो मुझे लिखिये............चाहे टिप्पणी में अथवा ई-मेल करें।

सोमवार, 31 मार्च 2008

यह रहा टुथपेस्ट/टुथपावडर का कोरा सच......भाग II ( कंक्लूयडिंग पार्ट)

Monday, March 31, 2008


इस पोस्ट में हम ने आज हम यह फैसला करना है कि दांतों की सफाई टुथपेस्ट से हो, किसी आयुर्वैदिक टुथपावडर से हो, या फिर किसी और ढंग से हो। इस पोस्ट को लिखना तो शुरू कर दिया है लेकिन समझ में नहीं आ रहा है कि किस क्रम से शुरू करूं !.............मेरे ख्याल में दांतों की सफाई के लिये लोगों द्वारा इस्तेमाल किये जा रहे विभिन्न तरीकों की चर्चा से शुरू करते हैं......

मैडीकेटिड टुथपेस्टें .....इन दवाई-युक्त पेस्टों को बहुत लोगों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है ...होता यूं है कि जब किसी के दांतों में दर्द होता है, तो कोई मित्र-रिश्तेदार कोई ऐसी मैडीकेटिड टुथपेस्ट के नाम की सिफारिश कर देता है। बस, फिर क्या है ...अगले दिन से सारे परिवार द्वारा वही पेस्ट इस्तेमाल करनी शुरू कर दी जाती है। अकसर जिन लोगों के दांतों में ठंडा लगता है या मसूड़ों से खून आता है तो वे किसी दंत-चिकित्सक के पास जाने की बजाये अपने आप ही इस तरह की पेस्टें खरीद कर रगड़ने को मुनाफे का सौदा मानते हैं। कभी कभी कोई दंत-चिकित्सक भी इलाज के दौरान इस प्रकार की पेस्ट को कुछ दिनों के इस्तेमाल की सलाह देते हैं............लेकिन ,कुछ लोगों का तो बस यही एटीट्यूड हो जाता है हम क्यों इसे करना बंद करें, हमें तो बस एक बार नाम पता चलना चाहिये और वैसे भी जब हमें इस प्रकार की पेस्टों से आराम सा लग रहा है तो हम क्यों इसे इस्तेमाल करना बंद करें।

आज कल तो अखबारों में कुछ पेस्टें इस तरह के दावे करती भी दिखती हैं कि इन के इस्तेमाल से पायरिया रोग ठीक हो जाता है। आज तक तो मैंने ऐसी कोई करिश्माई टुथपेस्ट ना ही देखी ना ही सुनी कि जो इस पायरिया को ही ठीक कर दे। अगर पायरिया है तो इस का इलाज प्रशिक्षित दंत-चिकित्सक से करवाना ही होगा, और कोई विकल्प तो है ही नहीं, अगर दांतों में ठंडा-गर्म लगता है...तो भी दंत-चिकित्सक के पास जाकर इस का कारण पता करने के उपरांत इस का निवारण करना ही होगा। इस तरह की मैडीकेटिड टुथपेस्टें और कुछ करें ना करें....शायद लंबें समय तक दांत एवं मसूड़ों की बीमारियों के लक्षणों को दबा ज़रूर देती हैं और लोग एक अजीब तरह की फाल्स सैंस ऑफ सैक्यूरिटि में उलझे रहते हैं कि सब कुछ ठीक हो गया है जब कि इन पेस्टों की असलियत तो यह है कि इन के इस्तेमाल के बावजूद दांतों एवं मसूड़ों के रोग अपनी ही मस्ती में अंदर ही अंदर बढ़ते रहते हैं।

इस प्रकार की मैडीकेटिड टुथपेस्टों का नाम कुछ कारणों से मैं यहां लिख नहीं रहा हूं....लेकिन आप में से अधिकांश इन के बारे में पहले ही से जानते हैं और शायद कभी न कभी इन्हें किसी की रिक्मैंडेशन पर इस्तेमाल कर भी चुके होंगे।

आयुर्वैदिक टुथपावडर ....चूंकि मैं आयुर्वैदिक का प्रैक्टीशनर नहीं हूं...इसलिये इस संबंध में मेरे विचार बिल्कुल मेरी आबजर्वेशन पर ही आधारित हैं.....मैं वर्षों से इंतज़ार कर रहा हूं कि कोई आयुर्वैदिक विशेषज्ञ इन आयुर्वैदिक पावडरों के ऊपर भी तो प्रकाश डालें।

आप किसी आयुर्वैदिक पावडर की थोड़ी निंदा कर के तो देखिये...लोग शायद मरने-मारने पर उतारू हो जायेंगे। लेकिन भला क्यों करे निंदा, हम तो बस विज्ञान की बात करेंगे। मैं अकसर सोचता हूं कि हमारे लोगों की आयुर्वैदिक पर इतनी ज़्यादा आस्था होने का सब से फायदा इस तरह के आयुर्वैदिक पावडर एवं पेस्ट करने वाली कंपनियों ने ही उठाया है। फायदा ही नहीं उठाया, चांदी ही कूटी है। क्योंकि कितना आसान है कि किसी पेस्ट का अच्छा सा देसी नाम रख कर के लोगों की इस आस्था के साथ खिलवाड़ करना......ज़्यादातर लोगों को तो बस वैसे ही नाम ही से मतलब है....बस हो गया इन कंपनियों का काम....इन आयुर्वैदिक पेस्टों एवं पावडरों के अंदर क्या है, उधर झांकने की किसी पड़ी है....बस, नाम तो देसी है ना, सब ठीक ही होगा, और क्या ! अकसर लोग यही सोच लेते हैं।

अब इसे पढ़ते हुये आप में से कईं लोग यही सोच रहे हैं ना कि यह डाक्टर क्या कह रहा है, हज़ारों साल पुरानी आयुर्वैदिक चिकित्सा प्रणाली को ही बुरा भला कह रहा है। नहीं, मैं ऐसा बिल्कुल नहीं कह रहा हूं क्योंकि आप की तरह मेरे मन में इस आयुर्वैदिक चिकित्सा प्रणाली का बहुत आदर है, सम्मान है !

अब आप सोच रहे होंगे कि फिर तकलीफ़ कहां है...तो मेरी सुनिये तकलीफ़ केवल यही है कि मेरे विचार में लोगों के आयुर्वैदिक शब्द के प्रति जो सैंटीमेंट्स हैं, उन को एक्सप्लायट किया जा रहा है।

एक विचार मेरे मन में अकसर आता है कि इन आयुर्वैदिक पावडरों की पैकिंग के बाहर इतने ज़्यादा घटक( ingredients) लिखे होते हैं कि एक बार तो खुशफहमी होनी लाज़मी सी ही लगती है कि यह पावडर तो डायरैक्ट अपनी दादी के दवाखाने से ही आ रहा है। लेकिन मेरा एक प्रयोग करने की इच्छा होती है कि जितने पैसों में ये पावडर बाज़ार में मिलते हैं, अगर उतने पैसे में ही इन घटकों को बाज़ार से खरीद कर पीस लिया जाये, तो क्या इतना बड़ा डिब्बा तैयार हो पायेगा। अब इस का जवाब आप सोचें !! वैसे पर्सनली मुझे तो कभी नहीं लगता कि इतने पैसे खर्च कर हम इतना बड़ा डिब्बा तैयार कर सकते हैं।


आज से बीस साल पहले मैंने इन आयुर्वैदिक पावडरों पर एक सर्वे किया था....इस के अंतर्गत मैंने यही पाया था कि कुछ डिब्बों पर विभिन्न घटकों की बात की जाती है कि ये इतने ग्राम , वे इतने ग्राम....और बाद में लिखा होता था कि इसे 100 ग्राम बनाने के लिये बाकी गेरू मिट्टी मिलाई गई है। इस तरह का सर्वेक्षण करने का कारण यही था कि उन दिनों कुछ इस तरह के पावडर बाज़ार में उपलब्ध थे जिन में तंबाखू भी मिला हुया था. लेकिन क्या आज कल ऐसे पावडर नहीं मिलते.....खूब मिलते हैं. इस देश में क्या नहीं बिकता !

हां, तो मैं बात कर रहा था कि मिट्टी की.....वास्तविकता यह है कि ऐसे किसी भी पावडर को दांतों पर घिसने से दांतों की बाहरी परत क्षति-ग्रस्त हो जाती है और दांतों में ठंडा-गर्म लगना शुरू हो जाता है। मेरे पास इतने मरीज़ आते हैं जिन के दांतों की पतली हालत देखते ही मैं एक मंजन का नाम लेकर पूछता हूं कि आप वह वाला मंजन तो नहीं घिस रहे.......बहुत बार मुझे इस का जवाब हां में ही मिलता है।

अब तो लगता है कि मेरी ये बातें सुन कर आप की पेशेन्स जवाब दे रही होगी कि डाक्टर बातों को ज़्यादा घोल-घोल मत घुमा.....हमें तो बस इतना बता कि क्या इन आयुर्वैदिक टुथ-पावडरों का इस्तेमाल जारी रखें। लेकिन मैं भी तो उसी बात ही आ रहा हूं।

मेरा दृढ़ विश्वास तो यही है कि किसी दातुन ( नीम, बबूल आदि) के इलावा अगर आप किसी आयुर्वैदिक मंजन का इस्तेमाल करना चाहते हैं तो उसे आप स्वयं ही क्यों नहीं तैयार करवा लेते......well, that is just my opinion simply based upon my so many years of keen observation !

सीधी सी बात है कि आप कोई भी आयुर्वैदिक मंजन इस्तेमाल करें ..बस इस बात का ध्यान रखें कि उस में कुछ भी हानिकारक घटक न मिलाया गया हो, और ना ही इस तरह का मंजन खुरदरा ही हो..............लेकिन मेरी दंत-चिकित्सक को बिना किसी दांतों की तकलीफ़ के भी साल में एक बार मिलने की बात अपनी जगह पर अटल है क्योंकि वाहिद एक वह ही शख्स है जो कि यह कह सकता है कि आप के दांत एवं मसूड़ों रोग-मुक्त हैं। वैसे बार बार मुझे यहां जो यह शब्द आयुर्वैदिक मंजन लिखना पड़ रहा है ...मुझे इस के लिये एक अपराधबोध हो रहा है...अब आयुर्वैदिक तो एक निहायत ही कारगुज़ार चिकित्सा पद्धति है और मैं जब यह बार बार लिख रहा हूं कि आयुर्वैदिक मंजन तो यही लगता है कि इस में आयुर्वेद का ही कुछ चक्कर है। ऐसा कुछ नहीं है.....केवल लोगों को एक्सप्लायट करने का एक धंधा है। इसलिये सोच रहा हूं कि इन जगह जगह बिकने वाले पावडरों को देसी पावडर ही क्यों ना कह दिया करूं !!

तो, मैसेज क्लियर है कि आप कुछ भी इस्तेमाल करिये लेकिन वह आप के दांतो एवं मसूड़ों के लिये नुकसानदायक नहीं होना चाहिये और आप के दंत-चिकित्सक के पास नियमित जा कर अपना चैक-अप करवाते रहिये।

वैसे चाहे यह पोस्ट तो मैं आज समाप्त कर रहा हूं लेकिन दातुन के सही इस्तेमाल पर एक पोस्ट शीघ्र ही लिखूंगा।

नमक-तेल, मेशरी, देसी साबुन, राख.... लोग तरह तरह के अन-स्पैसीफाइड तरीकों से भी दांत मांजते रहते हैं। मेरा इन के बारे में यही विचार है कि something is better than nothing……..as long as it does not pose any health hazard !......नमक तेल का इस्तेमाल तो अकसर होता ही है....अब फर्क तो यही है कि कोई तो इसे शौकिया तौर पर कभी कभी कर रहा है लेकिन कोई इसे मजबूरी वश करता है कि उस के पास महंगी पेस्ट-ब्रुश खरीदने का जुगाड़ नहीं है...........लेकिन फर्क क्या पड़ता है, अगर दंत-चिकित्सक द्वारा नियमित किया गया परीक्षण यही कह रहा है कि सब कुछ ठीक ठाक है तो आखिर हर्ज क्या है। इस में कोई शक नहीं है कि इस नमक-तेल को दांतों की सफाई करने का विधान भी तो सैंकड़ों वर्ष पुराना है। लेकिन तंबाकू को जला कर उसे दांतों एवं मसूड़ों पर घिसने का विधान तो कहीं नहीं था...यह तो हमारी ही खुराफात है....ये बंबई में लोगों द्वारा बहुत इस्तेमाल होता है और इस जले हुये तंबाकू को मेशरी कहा जाता है। दांत तो इस से खाक साफ होते होंगे लेकिन मुंह के कैंसर को इस के बढ़िया खुला आमंत्रण तो कोई हो ही नहीं सकता......एक तरह से मुंह का कैंसर मोल लेने का सुपरहिट फार्मूला। अब, कईं लोग देसी साबुन से दांत मांज लेते हैं ....यह भी गलत है क्योंकि इस में मौजूद कैमिकल्स की वजह से मुंह में घाव हो जाते हैं। कुछ लोगों को घर ही में आंच पर बादाम के छिलकों को जला कर मंजन तैयार करते देखा है। भारत के इस भाग में लोगों विशेषकर महिलाओं द्वारा दंदासा बहुत इस्तेमाल होता है.....यह अखरोट की छाल है जिसे दातुन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। मुस्लिम भाईयों में दांतों की सफाई के लिये मिस्वॉक का इस्तेमाल होता है ...जिस में बहुत से लाभदायक तत्व होने की बात सिद्ध हो चुकी है।

यह वाली बात यहीं पर यह कह कर समाप्त करता हूं कि आप जो भी वस्तु नित-प्रतिदिन अपने दांतों एवं मसूड़ों पर इस्तेमाल कर रहे हैं , वह हर तरह के नुकसानदायक गुणों से रहित होनी चाहिये और बेहतर होगा कि दंत-चिकित्सक से थोड़ी बात ही कर ली जाये।

सामान्य टुथपेस्ट ----टुथपेस्टों की आज बाज़ार में भरमार है। लेकिन जब मेरे से लोग पूछते हैं कि कौन सा पेस्ट इस्तेमाल करें तो मैं हमारे यहां उपलब्ध बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दो-तीन पेस्टों के नाम गिना देता हूं कि इन में से कोई भी कर लिया करो। इस के बारे में मैं स्वदेशी, देशी या परदेसी के चक्कर में कभी नहीं पड़ना चाहता हूं ....मेरा तर्क है कि अगर किसी टाप कंपनी की पेस्ट मेरे किसी मरीज़ को किसी भी दूसरी पेस्ट के दाम में मिल रही है तो क्यों इस दूसरी (पेस्ट ही !....और कुछ न समझ लीजियेगा!) के चक्कर में पड़ना !

अमीर से अमीर देशों ने इन दांतों की बीमारियों को इलाज के द्वारा दुरूस्त करने की नाकामयाब कोशिशें की हैं, लेकिन अमेरिका जैसे अमीर देशों ने भी अपने हाथ खड़े कर दिये। तो, वैज्ञानिकों ने यह तय कर लिया कि अगर हम मुंह की बीमारियों पर विजय हासिल करना चाहते हैं तो हमें इन से बचाव का ही माडल अपनाना होगा। इसलिये दांतों की बीमारियों से बचने का सब से सुपरहिट साधन आखिर ढूंढ ही निकाल लिया गया जिस की सिफारिश विश्व-स्वास्थ्य संगठन भी करता है.....वह यही है कि हमें दिन में दो बार...सुबह और रात को सोने से पहले किसी भी फ्लोराइड-युक्त टुथपेस्ट से ही दांत साफ करने चाहिये। इसलिये आप भी टुथपेस्ट खरीदते समय यह ज़रूर चैक कर लिया करें कि उस में फ्लोराइड मिला हुया है। यह दांत की बीमारियों से बचने का बहुत बड़ा हथियार है। आज से बीस साल पहले इस फ्लोराइड के उपयोग के बारे में भी देश में दो खेमे बने हुये थे। इस के बारे में अगर कोई प्रश्न हो तो बतलाइएगा, किसी अगली पोस्ट में डिटेल में कवर कर लूंगा। ये फ्लोराइड युक्त पेस्ट को सात साल की उम्र से तो शुरू कर ही लेना चाहिये...लेकिन जैसे ही बच्चा चार साल का हो तो उस के ब्रुश पर इस पेस्ट की बिल्कुल थोड़ी सी पेस्ट लगा कर शुरू किया जा सकता है लेकिन यह ध्यान रहे कि बच्चा पेस्ट खाता न हो।

फिर कभी इस फ्लोराइड के बारे में , इस पेस्ट के एवं इस ब्रुश के बारे में विस्तृत चर्चा करेंगे।

जाते जाते एक बात कहना यह भी चाह रहा हूं कि आज कल हम लोगों का खान-पान भी तो बहुत ज़्यादा बदल गया है, हम ज़्यादा से ज़्यादा रिफाइन्ड चीज़ें खाने लगे हैं, ज़्यादा हार्ड-चीजें हम अपने खाने में शामिल करने से अकसर गुरेज़ ही करते हैं , कच्चे-खाने( सलाद, अंकुरित अनाज एवं दालों आदि) से दूर होते जा रहे हैं क्योंकि फॉस्ट-फूड को पास लाने की जल्दी में हैं तो फिर इस टुथपेस्ट और ब्रुश को भी तो अपनाना ही होगा।

वैसे अब जब इस पोस्ट को पब्लिश करने का वक्त आया है तो यही सोच रहा हूं कि इस विषय का स्कोप भी इतना विशाल है कि कैसे एक-दो पोस्टों में इस के न्याय करूं....खैर, सब कुछ आप की टिप्पणीयों पर , फीडबैक पर निर्भर है ....आप अगर इस विषय के बारे में और कुछ जानना चाहेंगे तो इस के बारे में लिखते जायेंगे। लेकिन जाते जाते एक काम की बात जो किताबों में लिखी है वह ज़रूर बतानी चाहूंगा कि ब्रुश को पेस्ट के साथ करना शायद इतना लाज़मी भी नहीं है....यह तो केवल ब्रुश की अक्सैप्टेबिलिटी बढ़ाती है। ऐसा कहा जाता है कि अगर किसी को बिना पेस्ट के दांत साफ करने को कहें तो कितने लोग करेंगे..................औरों की तो मैं नहीं जानता, मैं खुद तो नहीं कर पाऊंगा क्योंकि मैं पिछले 18 सालों से इस फ्लोराइड-युक्त पेस्ट से ही दांत ब्रुश कर रहा हूं............संतुष्ट हूं और ब्रांड-लॉयल भी हूं।

2 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

डॉ. साहब, आप की पोस्ट से पूरी सहमति है। मैं पेशे से वकील हूँ। मगर परिवार में आयुर्वेदिक चिकित्सक होने के कारण मुझे आयुर्वेदिक चिकित्सक बनाने की कवायद हुई थी। उसी दौर में अध्ययन हुआ जो शौकिया तौर पर आज तक जारी है। बाद में परिवार को होमियोपैथी रास आयी, और आयुर्वेद के मेरे गुरूजी ने उसे बढ़ावा भी दिया,यहाँ तक कि खुद को कोई रोग होने की स्थिति में मुझ से दवा सुझाने और ला कर देने को कहते। उसे लेते और फिर उस का असर भी बताते।
आप का यह सुझाव बहुत सही है कि आयुर्वेदिक मंजन या पेस्ट के नाम पर बहुत धोखाधड़ी हो रही है। इस कारण से किसी विश्वसनीय निर्माता द्वारा निर्मित ही काम में लिया जाए या स्वयं का बना हुआ ही, इस से भी सहमत हैं। एक बात और, लोगों की जीवन चर्या ऐसी हो गयी है कि वे तुरत फुरत सब काम निपटा लेना चाहते हैं खाने से लेकर दाँत साफ करने तक के। एक औषध युक्त मंजन/पेस्ट भी यदि मुंह में केवल एक-दो मिनट ही रहा तो उस का कोई अर्थ नहीं। यदि इसे हल्के से एक मिनट रगड़ा जा कर कम से कम दो मिनट और मुंह में रखा जाय और पुनः रगड़ कर मुँह साफ कर लिया जाए तो अच्छे परिणाम देता है। इस के अलावा नित्य एक बार शीशे में मुंह देखते हुए यह तसल्ली कर लेना भी आवश्यक है कि कोई असामान्यता तो वहाँ नजर नहीं आ रही है। यदि है और दो-चार दिन बनी रहती है तो तुरंत चिकित्सक को दिखाना ही चाहिए।
तम्बाकूयुक्त मंजनों का तो बुरा हाल है। इधर एक-दो निर्माता करोड़ पति हो गए हैं अरबपति की ओर बढ़ रहे है। उन के मंजन से एडिक्शन उत्पन्न होता है। और कस्बों में छतें मंजन से लाल हो गयी हैं। लोग पाँच-पाँच बार मंजन करने लगे हैं उसके बिना चैन कहाँ।

आनंद said...

डॉक्‍टर साहब, मैंने तो सुना था कि फ़्लोराइड युक्‍त पेस्‍ट खतरनाक होते हैं, और उन्‍हें तभी प्रयोग करना चाहिए जब कोई डॉक्‍टर बताए, वह भी केवल सीमित समय के लिए। इस बात में कहाँ तक सचाई है? कृपया बताएँ। एक बात और, कि दातुन करने से चबाने की क्रिया के द्वारा दाँतों का व्‍यायाम हो जाता है, शहरों में दातुन दुर्लभ होता है। क्‍या यह व्‍यायाम ज़रूरी है ? यदि हाँ तो दातुन की अनुपस्थिति में दूसरा क्‍या जरिया हो सकता है। तीसरी बात, कि डॉक्‍टर को दिखाने पर वह पूरे दाँत की सफ़ाई करवाने की सलाह देता है। मैंने कहीं पढ़ रखा है कि सफ़ाई कराने से दाँतों की ऊपरी रक्षात्‍मक परत कमज़ोर हो जाती है जिससे बीमारियों की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए डर भी लगता है कि कहीं डॉक्‍टर अपनी कमाई के जुगाड़ में हमारा नुकसान न कर दे। बुरा न मानें लेकिन डॉक्‍टरों की इमेज इन दिनों वकीलों जैसी बन गई है जो मुकदमा जानबूझकर लटकाते जाते हैं। ऐसा अच्‍छा और विश्‍वसनीय डॉक्‍टर जिसकी प्राथमिकता मरीज़ को कम से कम चूना लगाए ठीक करने की हो, वह कहाँ मिलेगा?

खैर, शरीर की बीमारियों के मामले में हम सभी के मन में कई बुनियादी सवाल हैं जिनका जवाब हमें नहीं मिलता है। बीमारी शुरू होने के क्‍या लक्षण हैं?उन्‍हें बढ़ने से पहले अपने स्‍तर पर कैसे रोका जा सकता है? सिर दर्द, कंधा दर्द, खाँसी से लेकर पथरी से लेकर एपेंडिक्‍स ऑपरेशन, दिल की बीमारी, घुटना फेल होने से लेकर बवासीर तक बहुत सारी रोग हैं, उनके संभावित कारण क्‍या हैं ? सरल भाषा में बताने वाला कोई नहीं है। आपसे बड़ी उम्‍मीदें हैं, आपने जो श्रृंखला प्रारंभ की है उसे जारी रखें। धन्‍यवाद

रविवार, 30 मार्च 2008

यह रहा टुथपेस्ट का कोरा सच......भाग I



अकसर ऐसे मरीज़ों से मुलाकात होती रहती है जिन्हें जब टुथपेस्ट और ब्रुश इस्तेमाल करने की सलाह दी जाती है तो वे झट से कह देते हैं ......“ हमें तो भई पेस्ट करना कभी पसंद नहीं आया। एक आयुर्वैदिक पाउडर से ब्रुश के साथ ब्रुश करते हैं ! दांतों की कोई तकलीफ़ नहीं !!”….

अब यह स्टेटमैंट किसी व्यक्ति द्वारा दी गई एक बेहद महत्त्वपूर्ण स्टेटमैंट है जिस का जवाब तुरंत ही एक लाइन में नहीं दिया जा सकता । इसलिये मुझे इस स्टेटमैंट के ऊपर एक पोस्ट लिखने का विचार आया है। .वैसे उस बंदे की बात अपनी जगह कितनी सही लगती है कि डाक्टर, तुम तो कहते हो टुथपेस्ट और ब्रुश....लेकिन अपने दांतो की तो भई आयुर्वैदिक पावडर और ब्रुश के ज़रिये अच्छी खासी निभ रही है, ऐसे में भला हमें क्या पड़ी है कि हम टुथपेस्ट और ब्रुश के चक्कर में पड़ें !

लेकिन इस बात की तह तक पहुंचने के लिये हमें पहले कुछ इधर-उधर की हांकनी पड़ेंगी। एक बात तो यह भी बताना चाहूंगा कि अकसर ऐसे लोगों से भी मिलना होता है जिन के मुंह का निरीक्षण करने के बाद जब हम लोग कैज़ुएली ही पूछ लेते हैं कि आप पेस्ट कौन सी इस्तेमाल करते हैं तो झट से जवाब मिलता है .....“ मैंने तो आजतक न तो ब्रुश किया है और ना ही पेस्ट का ही इस्तेमाल किया है, बस घर का बनाया मंजन ही किया होता है !”....अब हम जब आगे बढ़ेंगे तो इस बात का भी जवाब भी तो ढूंढेंगे.....केवल मरीज की कही बात को झुठलाने के लिये ही नहीं ,लेकिन केवल सच की तलाश करने के लिये।

अच्छा चलिये, कुछ बातें करें। इतने करोड़ों लोग तंबाकू का विभिन्न रूपों में सेवने करते हैं....तो क्या सब को मुंह का कैंसर, फेफड़ों का कैंसर या शरीर के किसी अन्य अंग का कैंसर हो जाता है ! या हर कोई तंबाकू से पैदा होने वाली बीमारियों की चपेट में आ जाता है। अब इस का जवाब तो एक डाक्टर को देना ही होगा ना, अब इस के जवाब से कोई भाग कर बताये। बात यही है कि सारी कायनात मानती है कि तंबाकू का किसी भी रूप में सेवन घातक है, लेकिन फिर भी हम अपने आस-पास भी तो देखते हैं कि कुछ हमारे ही सगे-संबंधी-मित्र बरसों से सिगरेट पिये जा रहे हैं और साथ में ठोक कर कहते हैं कि देखो, भई, हम तो पूरी ऐश करते हैं लेकिन हमें तो कोई तकलीफ़ नहीं है। ऐसे ही लोगों की इस तरह की बातें उन के आस-पास रहने वाले वालों को भी इस ज़हर को ट्राई करने के लिये उकसाती हैं। लेकिन फिर भी अन्य लोग इन जहरीली चीज़ों का इस्तेमाल करने से नहीं ना चूकते ! ….अगले बिंदु पर जाने से पहले इतना ज़रूर कहना चाहूंगा कि बरसों से इस्तेमाल करने वाला बंद अपने आप ही यह घोषणा कर के खुश हो रहा है ना कि वह फिट है......क्या सेहत की यही परिभाषा है, क्या इतना कह कर खुश हो लेने से चल जायेगा ?....मुझे तो ऐसा नहीं लगता। हां, अगर कोई फिजिशियन उसे चैक करने के उपरांत यह डिक्लेयर कर दे कि हां, भई, हां, तुम एकदम फिट हो, तो बात दूसरी है !....लेकिन ऐसा हो ही नहीं सकता.....क्योंकि तंबाकू अंदर ही अंदर विभिन्न अंगों पर मार तो करता ही रहता है, हां, यह ठीक है कि उन का ऐसा विकराल रूप अभी न दिखा हो जिस की वजह से तंबाकू का सेवन करने वाले की नींद ही उड़ जाये।

अब, मुंह की ही बात लीजिये.....मेरे पास मुंह के इतने ज़्यादा मरीज़ आते हैं जिन के मुंह के अंदर तंबाकू के तरह-तरह के सेवन के परिणाम-स्वरूप अजीब तरह के छोटे-छोटे घाव नज़र आते हैं। अब हम जैसे डाक्टरों के लिये चिंताजनक बात तो यही है कि अकसर इस तरह की अवस्थाओं की मरीज़ को कोई तकलीफ़ होती नहीं है, लेकिन हमें यह भी पूरा पता है कि अगर तंबाकू का सेवन तुरंत बंद कर के इन का इलाज न किया गया तो इन में से कुछ अवस्थायें जो अभी बहुत इनोसेंट सी दिख रही हैं, वे कभी भी पल्टी मार के मुंह के कैंसर का विकराल रूप धारण कर लेंगी। इसलिये हम लोगों को तंबाकू के सेवन का जम कर विरोध करना ही पड़ता है.....यहां यह तर्क तो बिल्कुल चलता ही नहीं ना कि हर एक तंबाकू का सेवन करने वाले को ही थोड़ा मुंह का कैंसर हो जायेगा..........लेकिन समस्या यही तो है कि हमें भी नहीं पता कि कौन आगे चल कर इस की चपेट में आ जायेगा, इसलिये ऐसी वस्तु के इस्तेमाल को सिरे से ही क्यों न नकार दिया जाये। आशा है कि आप को इन बातों का औचित्य समझ में आ गया होगा।

ऊपर जो बातें की गई हैं उन से एक बात यह भी निकलती है कि किसी व्यक्ति के किसी बीमारी से ग्रस्त होने का मतलब यह भी है कि उस के शरीर में, कुछ विभिन्न कारणों की वजह से, उस बीमारी के पैदा होने की संभावना दूसरों से ज़्यादा है। अब इस बात को इस से ज़्यादा एक्सप्लेन करना इस पोस्ट के स्कोप से बाहर है.....लेकिन यह तो तय ही है ना कि दो बंदे बचपन से मुंह में तंबाकू-चूना दबा रहे हैं, लेकिन एक को मुंह का कैंसर 45 की उम्र में ही काबू कर लेता है लेकिन दूसरा 85 की उम्र में भी मेरे जैसे डाक्टरों को देखते ही झट से तंबाकू की एक और चुटकी होठों के अंदर कुछ इस अंदाज़ में दबाता है कि मानो हम लोगों की खिल्ली उड़ा रहा हो। अच्छा तो आप बतलाईए कि ऐसे में क्या हम इस 85 वर्षीय हवा में उड़ रहे नटखट बुजुर्ग का केस देख कर तंबाकू चूसने का खुला लाइसैंस दे दें ?....नहीं ना, ऐसा तो कभी हो ही नहीं सकता। लेकिन यह डिस्कशन तो कुछ ज़्यादा ही लंबी होती जा रही है, इसलिये अपने मूल प्रश्न पर ही वापिस आता हूं।

अच्छा तो अपनी बात हो रही थी पेस्ट इस्तेमाल करने की या ना इस्तेमाल करने की। अब ऐसे बहुत से लोग मिलते हैं जिन्होंने से कभी पेस्ट नहीं की, कोई मंजन नहीं किया, कोई दातुन नहीं की, केवल हर खाने के बाद कुल्ला ही करते हैं और वे बड़े गर्व से कहते हैं कि यही उन की बतीसी कायम रहने का राज़ है। लेकिन अकसर जब उन के मुंह का निरीक्षण किया जाता है कि तो पाया जाता है कि उन के मुंह से भयानक दुर्गंध तो आ ही रही है, इस के साथ ही वे पायरिया रोग के एडवांस स्टेज से ग्रस्त भी हैं। मैं यहां पर यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि अपनी बात को सिद्ध करने के लिये यह मेरा कोई एक्सट्रिमिस्ट ओपिनियन नहीं है.....यह हमारा दिन-प्रतिदिन का अनुभव है....और इस तरह की पोस्टों पर लिखा एक-एक शब्द पिछले पच्चीस सालों के अनुभव की कसौटी पर खरा उतरने के बाद ही आप तक पहुंच रहा है।

लेकिन हां, कभी कभार, बहुत रियली ऐसा भी होता है कि ऐसे कुछ बंदों में इतना ज़्यादा रोग नहीं भी दिखाई देता। और दूसरी तरफ़ एक सिचुऐशन देखिये कि कोई आदमी रोज़ाना दो बार टुथ-पेस्ट और ब्रुश से दांत भी साफ कर रहा है, जुबान भी नियमित रूप से रोज़ाना सुबह साफ करता है, लेकिन दांतों की सड़न फिर भी उस का पीछा नहीं छोड़ती......कईं बार तो ऐसे लोग फ्रस्ट्रेट हुये होते हैं। तो, यहां पर यही समझने की बात है कि मुंह की बीमारियां केवल टुथपेस्ट या ब्रुश करने या ना करने से ही नहीं होतीं...........लेकिन उन के होने अथवा ना होने में हमारी जीन्स (genes) का रोल है, हमारे मुंह के अंदर पाये जाने वाले जीवाणुओं की किस्मों का रोल है, हमारे थूक की कंपोज़ीशन का रोल है, हमारे खान-पान का, हमारी अन्य आदतों का बहुत अहम् रोल है। वैसे यह लिस्ट बहुत लंबी है, लेकिन फिर कभी इस के बारे में चर्चा करेंगे।

तो, अब मैं जिस बात पर आना चाहता हूं वह यही है कि जो लोग मंजन और ब्रुश से दांत साफ कर रहे हैं....यह उन की पर्सनल च्वाइस है। लेकिन हां, पहले किसी दंत-चिकित्सक को अपना निरीक्षण करवा कर यह ज़रूर सुनिश्चित कर लें कि सब कुछ ठीक ठाक है। और जहां तक इन तरह तरह के मंजनों का प्रश्न है, कुछ में तो बहुत ही खुरदरे तत्व मिले होते हैं। अकसर लोग हमारे पास भी तरह तरह की शीशियां लेकर आते हैं कि यह शीशी बस-अड्डे के सामने सहारनपुर से रोज़ाना आने वाले बाबे से ली थी, क्या कमाल का पावडर है...मेरे सारे परिवार का पायरिया छू-मंतर ही हो गया है। लेकिन अकसर जब इन लोगों के मुंह का चैक-अप किया जाता है तो बात कुछ और ही होती है।

ठीक है, आप तो कैमिस्ट की दुकान से सीलबंद आयुर्वैदिक पावडर का इस्तेमाल करते हैं......और अगर आप का दंत-चिकित्सक भी आप के दांतों का निरीक्षण करने के उपरांत यही कहता है कि सब कुछ एक दम फिट है तो आप भी अपनी जगह बिल्कुल ठीक हैं कि आखिर आप क्यों करें टुथपेस्ट पर स्विच-ओवर !

लेकिन इन सब बातों का पूरा जवाब भी मैं दूंगा, लेकिन इस समय पिछले डेढ़ घंटे से लगातार लिखते लिखते थक सा गया हूं और आप से इजाजत चाहूंगा......लेकिन इस पोस्ट के दूसरे हिस्से में इन पेस्टों और पावडरों( आयुर्वैदिक पावडरों समेत) की खुल कर बात करूंगा.....पेस्ट अथवा पावडर कैसा हो, कितना इस्तेमाल किया जाये।

जो भी हो, मैं अपनी पिछली पोस्ट पर आई एक टिप्पणी का तहे-दिल से शुक्रगुज़ार हूं जिस की वजह से मुझे यह पोस्ट लिखने पर बाध्य होना पड़ा। इस पोस्ट को मैं बहुत ही महत्त्वपूर्ण मानता हूं ...इसलिये मैंने इसे सुबह-सवेरे फ्रैश रहते हुये लिखने का फैसला किया। इसलिये कहता हूं कि कुछ टिप्पणी हमें झकझोरती हैं कि हां, अब ढूंढ इस बात का जवाब....शायद हम ने भी कभी इतनी गंभीरता से इन महत्त्वपूर्ण बातों के बारे में इतनी गंभीरता से पहले कभी सोचा ही नहीं होता क्योंकि हम अकसर यही सोच कर खुश होते रहते हैं कि एक प्रोफैशनल के नाते हम कह रहे हैं वही पत्थर पर लकीर है.......लेकिन बात तर्क की है, वितर्क की है, विज्ञान की है, तो ऐसे में हमारी एक एक बात इस कसौटी पर खरी तो उतरनी ही चाहिये।

मेरे एक दोस्त ने बिल्कुल सही कहा था कि इस तरह की ब्लोग की दिशा-दशा तो समय ही निर्धारित करता है। अच्छा तो जल्द ही इसी शीर्षक वाली पोस्ट के दूसरे भाग के साथ हाज़िर होता हूं।

अच्छा तो दोस्तो इतनी सीरियस सी और बोरिंग पोस्ट झेलने के बाद मेरी पसंद का एक गीत ही सुन लो !

6 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

डॉ. साहब। आप की इस सिरीज से हमें बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है। आप के सुझाव पसंद आए। लेकिन आयुर्वेदिक दंत पाउडर के संबन्ध में आप की बात अधूरी रही। आयुर्वेद प्राचीन चिकित्सा विज्ञान है। सैंकड़ों वर्षों का अनुभव उस में सुरक्षित है। इस का अर्थ यह भी नहीं कि उसे अद्यतन करने की आवश्यकता नहीं है। वह भी चाहे कम ही हो ही रहा है। दाँतों-मुँह के सम्बन्ध में भी उस में बहुत कुछ है। यहाँ तक कि कुछ भी उपलब्ध न होने पर नमक और सरसों के तेल से मसूड़ों की मालिश और दांतों को साफ कर लेने का विधान भी है। उन का उपयोग करने में मैं कोई बुराई नहीं देखता। दंत चिकित्सक को नियमित वर्ष में एक बार दिखाना तो अच्छी बात है। उस से यह तो पता लग ही जाएगा कि क्षरण कितना हुआ है और उस की गति को कैसे कम किया जा सकता है? आप बताते रहिए। हम भी सीखते रहेंगे।

Dr.Parveen Chopra said...

@ द्विवेदीजी, मैं इन्हीं बातों को डिस्कस करने के लिये ही इस पोस्ट का दूसरा भाग करने की बात कही है। आप का पोस्ट में रूचि लेने के लिये बहुत बहुत शुक्रिया। इस से हमें भी थो़ड़ा गहराई से सोचने के लिये बाध्य होना पड़ता है। धन्यवाद,सर।

anitakumar said...

आप की दूसरी पोस्ट का इंतजार रहेगा। वैसे मुझेयाद आता है कि मेरे एक रिश्तेदार के बारे में जो नियमित सुबह शाम ब्रश करते थे,कम से कम 5 से 10 मिनिट तक और जबान भी साफ़ करते थे, फ़िर भी उनके मुंह से बदबु आती थी, हां उनके दातों में केवेटीस काफ़ी थी जिस वजह से हर खाने के बाद कुल्ला करते थे। मुंह की बदबु पर भी और विस्तार से बताने की कृपा करें।

सागर नाहर said...

हाँ डॉ साहब
यह पोस्ट कुछ अधूरी सी लग रही है.. अगली कड़ी पढ़ने से सही समझ में आयेगा।
वैसे दाँतों की एकाद परेशानी से हम भी परेशान है, नियमित टुथपेस्ट करते हुए भी।
लाइनों को हाईलाईट करने का संयोजन बढ़िया लगा।

राज भाटिय़ा said...

हम भी खडे हे इन्त्जार मे,

masijeevi said...

काम की पोस्‍ट।
पूरा करें हम ध्‍यान से पढ रहे हैं

शनिवार, 29 मार्च 2008

मसूड़ों से खून निकलना.....कुछ महत्त्वपूर्ण बातें...


मसूड़ों से खून निकलना एक बहुत ही आम समस्या है, लेकिन अधिकांश लोग इसे गंभीरता से नहीं लेते। हां, अकसर लोग इतना ज़रूर कर लेते हैं कि अगर ब्रुश करने समय मसूड़ों से खून निकलता है तो ब्रुश का इस्तेमाल करना छोड़ देते हैं और अंगुली से दांत साफ करना शुरू कर देते हैं। यह बिल्कुल गलत है – ऐसा करने से पायरिया रोग बढ़ जाता है। कुछ लोग किसी मित्र-सहयोगी की सलाह को मानते हुये कोई भी खुरदरा मंजन दांतों पर घिसने लगते हैं , कुछ तो तंबाकू वाली पेस्ट को ही दांतों-मसूड़ों पर घिसना शुरू कर देते हैं। यह सब करने से हम मुंह के गंभीर रोगों को बढ़ावा देते हैं।

जब भी किसी को मसूड़ों से रक्त आने की समस्या हो तो उसे प्रशिक्षित दंत-चिकित्सक से मिलना चाहिये। वहीं आप की समस्या के कारणों का पता चल सकता है। बहुत से लोग तो तरह तरह की अटकलों एवं भ्रांतियों की वजह से अपना समय बर्बाद कर देते हैं...इसलिये अगर किसी को भी यह मसूड़ों से खून निकलने की समस्या है तो उसे तुरंत ही अपने दंत-चिकित्सक से मिलना चाहिये।

मसूड़ों से खून निकलने का सबसे आम कारण दांतों की सफाई ठीक तरह से ना होना है जिसकी वजह से दांत पर पत्थर( टारटर) जम जाता है। इस की वजह से मसूड़ों में सूजन आ जाती है और वें बिल्कुल लाल रंग अख्तियार कर लेते हैं। इन सूजे हुये मसूड़ों को ब्रुश करने से अथवा हाथ से छूने मात्र से ही खून आने लगता है। जितनी जल्दी इस अवस्था का उपचार करवाया जाये, मसूड़ों का पूर्ण स्वास्थ्य वापिस लौटने की उतनी ही ज़्यादा संभावना रहती है। इस का मतलब यह भी कदापि नहीं है कि अगर आप को यह समस्या कुछ सालों से परेशान कर रही है तो आप यही सोचने लगें कि अब इलाज करवाने से क्या लाभ, अब तो मसूड़ों का पूरा विनाश हो ही चुका होगा। लेकिन ठीक उस मशहूर कहावत....जब जागें, तभी सवेरा....के मुताबिक आप भी शीघ्र ही अपने दंत-चिकित्सक को से दिखवा के यह पता लगवा सकते हैं कि आप के मसूड़े किस अवस्था में हैं और इन को बद से बदतर होने से आखिर कैसे बचाया जा सकता है।

कुछ लोग तो इस अवस्था के लिये अपने आप ही दवाईयों से युक्त कईं प्रकार की पेस्टें लगाना शुरू कर देते हैं अथवा महंगे-महंगे माउथ-वॉशों का इस्तेमाल करना शुरू कर देते हैं। लेकिन इस तरह के उपायों से आप को स्थायी लाभ तो कभी भी नहीं मिल सकता .....शायद कुछ समय के लिये ये सब आप के लक्षणों को मात्र छिपा दें।


मसूड़ों की बीमारियों से बचने का सुपर-हिट अचूक फार्मूला तो बस यही है कि आप सुबह और रात दोनों समय पेस्ट एवं ब्रुश से दांतों की सफाई करें, जुबान साफ करने वाली पत्ती ( टंग-क्लीनर) से रोज़ाना जुबान साफ करें और हर खाने के बाद कुल्ला अवश्य कीजिये। इस के साथ साथ तंबाकू के सभी रूपों, गुटखों एवं पान-मसालों से कोसों दूर रहें।

अकसर लोग अपनी छाती ठोक कर यह कहते भी दिख जाते हैं हम तो भई केवल दातुन से ही दांत कूचते हैं...यही राज़ है कि ज़िंदगी के अस्सी वसंत देखने के बाद भी बत्तीसी कायम है। यहां पर मैं भी उतनी ही बेबाकी से यह स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि बात केवल मुंह में बत्तीसी कायम रखने तक ही तो सीमित नहीं है, बल्कि उस बत्तीसी का स्वस्थ रहना भी ज़रूरी है।

अकसर मैंने अपनी क्लीनिकल प्रैक्टिस में नोटिस किया है कि जो लोग केवल दातुन का ही इस्तेमाल करते हैं, उन में से भी काफी प्रतिशत ऐसे भी होते हैं जिन के मसूड़ों में सूजन होती है। लेकिन इस का दोष हम दातुन पर कदापि नहीं थोप सकते !....यह क्या ?...आप किस गहरी सोच में पढ़ गये हैं !...सीधी सी बात है कि अगर आप कईं सालों से दातुन का ही इस्तेमाल कर रहे हैं और आप को दांतों से कोई परेशानी नहीं है तो भी आप अपने दंत-चिकित्सक से नियमित चैक-अप करवाइये। अगर वह आप के मुंह का चैक-अप करने के पश्चात् यह कहता है कि आप के दांत एवं मसूड़े बिल्कुल स्वस्थ हैं तो ठीक है ....आप केवल दातुन का ही प्रयोग जारी रखिये। लेकिन अगर उसे कुछ दंत-रोग दिखते हैं तो आप को दातुन के साथ-साथ ब्रुश-पेस्ट का इस्तेमाल करना ही होगा।

एक विशेष बात यह भी है कि अकसर लोग दातुन का सही इस्तेमाल करते भी नहीं—वे दातुन को चबाने के पश्चात् दांतों एवं मसूड़ों पर कुछ इस तरह से रगड़ते हैं कि मानो बूट पालिश किये जा रहे हों...ऐसा करने से दांतों की संरचना को नुकसान पहुंचता है। आप चाहे दातुन ही करते हैं, लेकिन इस को भी दंत-चिकित्सक की सलाह अनुसार ब्रुश की तरह ही इस्तेमाल कीजिये।

11 comments:

फालतू said...

aapka dhanyawaad. main pichle kaafi samay se is samadya se joojh raha hoon.

Dr.Parveen Chopra said...

@ अगर आप चाहें तो मुझे अपनी प्राबल्म इ-मेल कर सकते हैं या अनानिमस कमैंट के ज़रिये लिख सकते हैं। मुझे आप को सही मार्ग-दर्शन देने में बहुत खुशी होगी।

आशीष said...
This post has been removed by the author.
आशीष said...

डॉक्‍टर साहब मैं एक पत्रकार और आपकी ही तरह एक ब्‍लॉगर हूं। आज भास्‍कर में आपके बारें में पढ़ा तो ब्‍लॉग पर आना हूं, आपका ब्‍लॉगर हम जैसे लोगों के लिए बहुत उपयोगी है।

अबरार अहमद said...

डाक्टर साहब, जानकारी के लिए शुक्रिया। मैं भी एक समस्या से जूझ रहा हूं। वह समस्या है अक्ल दाढ का निकलना। कई दिनों से मुझे यह समस्या है और दांत में सूजन रहती है साथ ही खून आता है। यह समस्या सबसे पीछे के दांत में है। मसूडे से दांत के लिकलने में समस्या आ रही है क्योंकि वहां स्पेश नहीं है। कोई सलाह दें।

lovely kumari said...

sir mere dant thode bahr hain.aap kolkata me koi achchha doctor ya hospital bta skte hain jhan yh problem solve ho ske to please mail me.

राज भाटिय़ा said...

बहुत खुब,धन्यवाद

Gyandutt Pandey said...

अच्छी जानकारी।

Udan Tashtari said...

इस उम्दा जानकारीपूर्ण पोस्ट के लिये आभार/

रवीन्द्र प्रभात said...

इस महत्वपूर्ण जानकारी के लिए बधाई !

दिनेशराय द्विवेदी said...

हमें पेस्ट कभी पसंद नहीं आया। एक आयुर्वेदिक पाउड़र से ब्रश के साथ ब्रश करते हैं। दांतों को कोई तकलीफ नहीं।

हमारे स्वास्थ्य का प्रतिबिंब.....हमारा मुंह....I……परिचय


अभी कुछ ही समय पहले मैंने एक सीरिज़ शुरू की है...मुंह के ये घाव/छाले, लेकिन मुझे विचार आया है कि इस के भी अतिरिक्त एक सीरिज़ अलग से शुरू की जाये जिस में हमारे मुंह के बारे में पूरी जानकारी दी जाये क्योंकि मैंने देखा है कि हिंदी में इस जानकारी का बहुत अभाव है।

मुझे यह लिखने की प्रेरणा पता है कैसे मिली.......अकसर घर में फेशियल के बारे में बातें होती रहती हैं( थैंक गॉड, करवाता कोई नहीं है!) और कुछ समय पहले मैंने एक ऐसे ही फेशियल का रेट सुन कर हैरान हो गया...तीन सौ रूपये !.....इस के रेट के बारे में सुन कर मेरे मुंह से अनायास निकला कि तीन सौ रूपये में तो शायद तीन दिन ( ज़्यादा नहीं कह दिया, तीन घंटे ठीक रहेंगे).....चेहरा चमक जाये लेकिन अगर इसी पैसे का महीने तक ताज़ा फलों का रस पी लिया जाये या ताज़े फलों का ही सेवन कर लिया जाये तो शायद परमानैंट फेशियल ही हो जाये। अब दूर-दराड़ के गांव में कहां ये औरतें इन चक्करों में पड़ती हैं लेकिन इन के चेहरे की आभा देखते बनती है। तो मैसेज क्लियर है.............जस्ट बी नैचुरल !!

ताज़ा फलों की बात की है तो मुझे कुछ दिन पहले अपनी एक महिला मरीज़ से की बात याद आ गई। मैंने उस अधेड़ औरत से यूं ही पूछ लिया कि आप की तबीयत ठीक नहीं लग रही। तब, उस ने मुझे बतलाना शुरू किया कि क्या करें, खाते तो सब कुछ हैं.....अपने पति का नाम लेकर कहने लगी कि अब ये कुछ दिन पहले ही मौसंबी की एक बोरी (शायद पांच सौ रूपये के आस-पास की कीमत में, जैसे कि उस ने मुझे बतलाया).. ही मंडी से उठा लाये हैं, कि अब तू इन का रस निकाल निकाल के खूब पिया कर। ......

मुझे उस महिला की बात सुन कर थोड़ा सुकून तो ज़रूर मिला कि चलो इस केस में पैसे के खर्च करने के लिये च्वाइस तो बेहतर की गई है। लेकिन केवल इस मौसंबी की बोरी पर ही अपनी सारी सेहत का जिम्मा डाल कर निश्चिंत हो जाना क्या ठीक है। ऐसा इसलिये कह रहा हूं कि उस महिला का सामान्य स्वास्थ्य भी कुछ ज़्यादा ठीक न था।

अच्छा ऊपर की गई बातों से आप कहीं यह तो अंदाज़ा नहीं लगाने लग गये कि इस सीरिज़ में मैं मुंह अर्थात् चेहरे तक ही अपनी बात सीमित रखूंगा। ठीक है, कभी कभार यह चेहरा-मोहरा भी कवर हो जाया करेगा। लेकिन मेरी यह सीरिज़ बेसिकली होगी.....मुंह के बारे में.....मुंह अर्थात् दांतों के बारे में, होठों, गालों के अंदरूनी हिस्सों, मसूड़ों, जिह्वा, गले का वह हिस्सा जो सामने नज़र आता है, तालू के बारे में ...............इन सब के बारे में जम कर चर्चा होगी कि ये स्वास्थ्य में कैसे दिखेंगे और बीमारियां किस तरह से इन्हें प्रभावित करती हैं। उम्मीद तो पूरी है कि कुछ भी न छूटने पायेगा (बस जो कुछ पिछले पच्चीस सालों में किया है, देखा है, सीखा है, पढ़ा है....सब कुछ बिलकुल फ्रैंक तरीके से आप के सामने रखने की चाह रखता हूं !)…, आज मैंने इस सीरिज़ को शुरू करने का पंगा तो ले लिया है, लेकिन मुझे स्वयं भी नहीं पता कि यह सीरिज़ क्या दिशा लेगी और यह कितनी लंबी खिंचेगी............यह सब आप की टिप्पणीयों, आप के प्रश्नों, आप की उत्सुकता, आप की ई-मेलज़ पर निर्भर करेगा।

जाते जाते इस पहली पोस्ट में एक बात फिर से दोहरा रहा हूं कि मैडीकल विज्ञान में हम अकसर यह कहते रहते हैं कि Oral cavity is the index of whole of the human body….अर्थात् हमारा मुंह हमारे स्वास्थ्य का प्रतिबिंब है। यह बहुत ही, बहुत ही महत्वपूर्ण स्टेटमैंट है...क्योंकि ऐसी कितनी ही बीमारियां हैं जिन के बारे में हम धीरे धारे जानेंगे जिन का शक हमें किसी व्यक्ति के मुंह के अंदर झांकने मात्र से ही हो जाता है और दूसरी तरफ़ यह भी है कि कितनी ही ऐसी मुंह की तकलीफ़ें हैं जिन के बुरे प्रणाम शरीर के दूसरे सिस्ट्म्ज़ पर हम देखते रहते हैं। यह सब हम चलते चलते देखते जायेंगे।

बतलाईयेगा कि आप को यह सीरिज़ शुरू करने का आईडिया कैसा लगा।

3 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप का सही कहना है, सिरीज को समय ही दिशा देता है। फिर हम जैसे पाठक उस में महत्वपूर्ण भूमिका भी अदा करते हैं। फलों और शाकों के उपयोग की आप की राय महत्वपूर्ण है।

राज भाटिय़ा said...

चोपडा जी आप सच मे एक डाक्टर के रुप मे सच्ची समाज सेवा कर रहे हे,वरना तो आज कल डाक्टर लोग बात करने के भी खुब पेसे लेते हे, ओर इस सेवा रुपी काम को धन्धा बना रखा हे,

mamta said...

सीरीज तो अच्छी ही चलेगी।और आपसे नई-नई बातें भी पता चलेंगी।
शुभकामनाएं।

शुक्रवार, 28 मार्च 2008

मुंह के ये घाव/छाले......III.......कैसे होंगे ये ठीक ?


स्वाभाविक प्रश्न है कि जब मुंह में ये छाले हो ही जायें, तो इन का इलाज कैसे किया जाये। इन के इलाज के लिये जो बात समझनी सब से महत्त्वपूर्ण है वह यही है कि इन छालों को ठीक करना किसी डाक्टर के वश की बात तो है नहीं....क्योंकि अन्य बीमारियों की तरह प्रकृति ही इन से निजात दिलाने में हमारी मदद करती है। हम ने तो सिर्फ़ मुंह में एक ऐसा वातावरण मुहैया करवाना है जो कि इन छालों को शीघ्रअतिशीघ्र ठीक होने में (हीलिंग) मदद करे।

सब से महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जब हम लोग मुंह के इन छालों से परेशान हों तो हमें अपना खान-पान बिल्कुल बलैंड सा रखना होगा.....बलैंड से मतलब है बिल्कुल मिर्च-मसालों से रहित। मैं अपने मरीज़ों को ऐसे खान-पान के लिये प्रेरित यह कह कर करता हूं कि अगर हमारे चमड़ी पर कोई घाव है तो उस पर नमक लग जाये तो क्या होता है, ठीक उसी प्रकार ही मुंह में छाले होने पर भी अगर मिर्च-मसाले वाला खाना खाया जायेगा तो कैसे होगी फॉस्ट हीलिंग ?

और , दूसरी बात यह है कि मुंह के इन छालों पर कोई भी दर्द-निवारक ऐंसीसैप्टिक ड्राप्स लगा देने चाहियें......ऐसे ड्राप्स अथवा अब तो इन्हीं नाम से ट्यूब रूप में भी दवायें आने लगी हैं....कुछ के नाम मैं लिख रहा हूं.......Dentogel, Dologel, Zytee, Emergel, Gelora ORAL ANALGESIC / ANTISEPTIC GEL…….ये पांच नाम हैं जिन को कि मैं हज़ारों मरीज़ों के ऊपर इस्तेमाल कर चुका हूं। ( Please note that there is no commercial interest of mine involved in telling you all this…….you may find and use anyone which you feel is more suitable…. as long as it serves your purpose. Just telling you this because I an very much against all such endorsements !) …….नोट करें कि इन का भी काम मुंह के छाले को भरना नहीं है....ये केवल आप को उस छाले से दर्द से कुछ समय के लिये राहत दिला देती हैं। इन पांचों में से आप किसी भी एक दवाई को लेकर दिन में दो-चार बार छालों पर लगा सकते हैं। वैसे विशेष रूप से खाना खाने से पांच मिनट पहले तो इस दवाई का प्रयोग ज़रूर कर लें। और हां, दो-चार मिनट के बाद थूक दें। लेकिन बाई-चांस अगर कभी कभार गलती से एक-आध ड्राप निगल भी ली जाये तो इतना टेंशन लेने की कोई बात नहीं होती।

अब आते हैं इन मुंह के छालों के इलाज के लिये उपयोग होने वाली एंटीबायोटिक दवाईयों पर। वास्तव में ये मुंह के छाले वाला टापिक इतना विशाल है कि स्ट्रेट-फारवर्ड तरीके से सीधा कह देना कि एंटीबायोटिक दवाईयां लेनी हैं कि नहीं ....कुछ कठिन सा ही काम है। जैसे जैसे मैं इस सीरिज़ में आगे बढूंगा तो हम देख कर हैरान रह जायेंगे कि इन मुंह के छालों की भी इतनी श्रेणीयां हैं और इन का इलाज भी इतना अलग अलग किस्म का। अभी तो मैं केवल बात कर रहा हूं उन छालों को जो लोगों को यूं ही कभी कभी परेशान करते रहते हैं....इन में किसी एंटीबायोटिक दवाईयों का कोई स्थान नहीं है। लेकिन अगर इन छालों की वजह से थूक निगलने में दिक्कत होने लगे या जबाड़े के नीचे गोटियां सी आ जायें( Lymphadenitis……lymph nodes का बढ़ जाना और दर्द करना) ...तो एंटीबायोटिक दवाईयां 3-4दिनों के लिये लेनी पड़ सकती हैं।

और आप कोई दर्दनिवारक टीकिया भी अपनी आवश्यकतानुसार ले सकते हैं।

कईं प्रैस्क्रिप्श्नज़ देखता हूं जिन में मैट्रोनिडाज़ोल की गोलियों का कोर्स करने की सलाह दी गई होती है। मेरे विचार में इन गोलियों को इन मुंह के छालों के लिये नहीं लेना चाहिये।

मल्टी-विटामिन टैबलेट लोग अकसर गटकनी शुरू कर देते हैं.....ठीक हैं, अगर किसी को इस से सैटीस्फैक्शन मिलती है तो बहुत अच्छा है। लेकिन मेरा तो दृढ़ विश्वास यही है कि अगर विटामिन सी की जगह कोई मौसंबी, कीनू, संतरे का जूस पी लिया जाये, य़ा तो नींबू-पानी ही पी लिया जाये या आंवले का किसी भी रूप में सेवन कर लिया जाये तो वो शायद सैंकड़ो गुणा बेहतर होगा। एक बात और कहना चाहूंगा कि जब मेरे पास ऐसे मरीज़ आते हैं तो मैं तो इस मौके को उन की खान-पान की आदतें बदलने के लिये खूब इस्तेमाल करता हूं। जैसे कि किसी को अगर आप ने अंकुरित दालें खाने के लिये प्रेरित करना हो तो इस से बेहतर और क्या मौका हो सकता है। शायद जब वे ठीक ठाक हों तो आप की इस सलाह को हंस कर टाल दें....लेकिन जब वे मुंह के छालों से परेशान हैं तो वे कुछ भी करने को तैयार होते हैं। ऐसे में उन को इस तरह की प्राकृतिक खाद्य पदार्थों के इस्तेमाल के लिये प्रेरित करना और संतुलित आहार लेने की बातें वे खुशी खुशी पचा लेते हैं। एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात तो बतानी पिछली पोस्ट में भूल ही गया था कि ये जो अंकुरित दालें हैं ना ये विटामिनों से पूरी तरह से विशेषकर बी-कंप्लैक्स विटामिनों से भरपूर होते हैं। इसलिये इन्हें Power Dynamos भी कहा जाता है।

मुझे ख्याल आ रहा है कि मैंने पिछली पोस्ट में एक होस्टल में रह रहे 20-22 के लड़के की बात की थी......लेकिन बात वही है कि होस्टल में तो कुछ भी हो, हमें मैदे जैसे आटे की ही रोटियां मिलने वाली हैं। तो , ऐसे में उस लड़के को यह भी ज़रूर चाहिये कि वह खुद सलाद बना कर खाया करे,अपने रूम में ही अंकुरित दाल तैयार किया करे ( आज कल तो रिलांयस ग्रीन के स्टोर पर भी ये अंकुरित दालें मिलने लगी हैं) और हां, दो-तीन मौसमी रेशेदार फल ज़रूर ज़रूर खाया करें। इस से कब्ज की भी शिकायत न होगी और संतुलित आहार मिलने से मुंह की चमड़ी भी हृष्ट-पुष्ट हो जायेगी जिस से कि उस में छाले बनने की फ्रिकवैंसी धीरे धीरे कम हो जायेगी। सीधी सी बात है कि यहां भी काम हमारी इम्यूनिटी ही कर रही है....अगर अच्छी है तो हम इन छोटी मोटी परेशानियों से बचे रहते हैं।

अगली बात यह है कि मुंह में चाहे छाले हों, लेकिन धीरे धीरे हमें अपने दांतों को रोज़ाना दो बार ब्रुश तो अवश्य करना ही चाहिये। थोड़ा बच कर कर लें ताकि किसी छाले को न ज्यादा छेड़ दें। लेकिन इस के साथ ही साथ जुबान को रोज़ाना साफ करना निहायत ही ज़रूरी है....क्योंकि हमारी जुबान की कोटिंग पर अरबों-खरबों जीवाणु डेरा जमाये रहते हैं जिन से रोज़ाना निजात पानी बहुत आवश्यक है....नहीं तो ये दुर्गंध तो पैदा करते ही हैं और साथ ही साथ इन छालों को भी जल्दी ठीक नहीं होने देते। इन मुंह के छालों के होते हुये भी मैं जुबान की सफाई की सिफारिश इसलिये भी कर रहा हूं कि अकसर ये घाव/छाले जुबान की ऊपरी सतह पर नहीं होते हैं। लेकिन अगर कभी इस सतह पर भी छाले हैं तो आप दो-तीन दिन इस टंग-क्लीनर को इस्तेमाल न करियेगा।

अब बात आती है......बीटाडीन से कुल्ले करने की। अगर आप छालों की वजह से ज़्यादा ही परेशान हैं तो Betadine ….Mouth gargle से दिन में दो-बार कुल्ले कर लेने बहुत लाभदायक हैं........हमेशा के लिये नहीं............केवल उन एक दो –दिन दिनों के लिये ही जिन दिनों आप इन छालों से परेशान हैं। लेकिन रात के समय सोने से पहले इन छालों वालों दो-चार दिनों में इस बीटाडीन गार्गल से कुल्ला कर लेने बहुत लाभदायक है। यह भी आप की आवश्यकता के ऊपर निर्भर करता है...मेरे बहुत से मरीज़ फिटकरी वाले गुनगुने पानी से ही कुल्ले कर के खुश रहते हैं तो मैं भी उन की खुशी में खुश हो लेता हूं.....।

अब जाते जाते एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात यह है कि बहुत से लोग कुछ कुछ देसी तरह की चीज़े जैसे हल्दी , मलाई, ग्लैसरीन इन छालों के ऊपर लगाते रहते हैं....उन्हें इन से आराम मिलता है ....बहुत बढिया बात है....आयुर्वेद में और भी तो बहुत सी चीज़ें हैं जो हम लोगों को इन छालों के ऊपर लगाने के लिये अपने रसोई-घर से ही मिल जाती हैं , इन का भरपूर इस्तेमाल किया जाना चाहिये। ये दादी के नुस्खे नहीं हैं.....दादी की लक्कड़दादी भी ज़रूर इन्हें ही इस्तेमाल करती थी। लेकिन बस एक चीज़ से हमेशा बचें........कभी भूल कर भी एसप्रिन की गोली पीस कर मुंह में न रख लें.........भयंकर परिणाम हो जायेंगे......छालों से राहत तो दूर, मुंह की सारी चमड़ी जल जायेगी।

So, take care !! पोस्ट लंबी है लेकिन निचोड़ यही है कि इन छालों की इतनी टेंशन न लिया करें। और जितने भी प्रश्न हों, खुल कर टिप्पणी में लिख दें या ई-मेल करें....एक-दो दिन में जवाब आप के पास अगली पोस्ट के रूप में पहुंच जायेगा। बस, अपने खान-पान का ध्यान रखा करें और तंबाकू-गुटखा-पानमसाला के पाऊच बाहर किसी गटर में आज ही फैंक दें।

4 comments:

PD said...

संभाल कर रखने वाली पोस्ट की शुरूवात हो चुकी है..
मैंने तो सेव कर लिया है.. आप लिखते रहें.. :)

Ghost Buster said...

धन्यवाद.

राज भाटिय़ा said...

ध्न्यवाद आप के अगले लेख का इन्तजार हे.

Gyandutt Pandey said...

श्रीमती रीता पाण्डेय बड़े ध्यान से यह पोस्ट पढ़ कर गयी है‍।
धन्यवाद डा. साहब।

मंगलवार, 25 मार्च 2008

मुंह के ये छाले..........भाग..I



मुझे अभी बैठे बैठे ध्यान आ रहा है कि पूरे पच्चीस वर्ष हो गये हैं मुंह के छाले के मरीज़ों को देखते हुये। लगता है कि अब समय आ ही गया है कि मैं इस विषय पर एक सीरिज़ लिख ही डालूं....अपने सारे अनुभव इक्ट्ठे कर के एक ही जगह डाल दूं.....बिल्कुल सीधी सादी भाषा में जिस में कोई इंगलिश में टैक्नीकल शब्दों का प्रयोग ना किया गया हो और अगर किया भी गया हो तो उन्हें पुरी तरह से समझाया जाये।


मेरे इस विचार का कारण यही है कि इस तरह के मुंह के छाले के इतने मरीज़ मेरे पास आते हैं और वे इतने भयभीत होते हैं कि मैं बता नहीं सकता । शायद यहां-वहां सुनते रहते हैं ना कि 15दिन के अंदर अगर मुंह के अंदर कोई घाव है, छाला है तो वह कैंसर हो सकता है। लेकिन अकसर जब उन को पता चलता है कि उन के केस में ऐसी चिंता करने की कोई बात ही नहीं है तो उन्हें बेहद सुकून मिलता है।


एक बात मैं यहां पर रेखांकित करना चाहता हूं कि जैसे हम कहते हैं ना कि चेहरा हमारे मन का आइना है , ठीक उसी प्रकार ही हमारा मुंह ( oral cavity)..हमारे शारीरिक स्वास्थ्य का प्रतिबिंब है ...कहने का भाव यही है कि हमारा स्वास्थ्य हमारे मुंह में प्रतिबिंबित होता है। तो, ठीक है मैं तैयार हूं अपना सारा अनुभव आप के साथ बांटने के लिये..............मैं यही प्रयत्न करूंगा कि इस सीरिज़ के दौरान किसी भी पहलू को अनछूया न रखूं।


इस पोस्ट के माध्यम से तो मैं आप सब से यही पूछना चाह रहा हूं कि आप को मेरा यह ख्याल कैसा लगा है.....बेहतर होगा अगर आप अपने विचारों से मेरे को अवगत करवायेंगे। अगर कुछ भी विशेष इस सीरिज़ में आप चाहते हैं कि कवर किया जाये तो आप मुझे इस विषय पर भविष्य में लिखी जाने वाली मेरी विभिन्न पोस्टों पर कह सकते हैं या मुझे कृपया ई-मेल कर सकते हैं.........मैं बिना आप का नाम लिये हुये आप के द्वारा उठाये गये प्रश्नों का उत्तर देने का पूरा प्रयास करूंगा।


वैसे अगर आप लिखेंगे तो मुझे बहुत खुशी होगी, प्रोत्साहन मिलेगा.....और मुझे इस विषय पर लिखने के लिये एक दिशा मिलेगी। वैसे बात ऐसी भी है कि अगर आप न भी लिखेंगे तो भी मैं अपने अनुभव इस सीरिज़ में शत-प्रतिशत इमानदारी से बांटता जाऊंगा क्योंकि मेरा काम ही यही है।

चाहे इस समय मेरे पास कोई खास अजैंडा नहीं है, लेकिन देखते हैं कि जब पिछले पच्चीस सालों के अनुभवों के सागर में गोते लगाने शुरू करूंगा तो क्या क्या निकलेगा...................और हां, मैं जहां भी ज़रूरत होगी विभिन्न प्रकार के मुंह के घावों की तस्वीरें भी आप को दिखाता रहूंगा। यह सब इसलिये करना चाहता हूं कि लोगों में इस स्थिति के बारे में बहुत से भ्रम तो हैं ही, भय-खौफ़ भी है और परेशानी तो है ही...और इसी चक्कर में वे कईं तरह की छालों पर लगाने वाली दवाईयां अपने आप ही खरीद कर लगानी शुरू कर देते हैं जो सर्वथा अनुचित है ।


बाकी बातें अगली पोस्ट में करेंगे।

7 comments:

Gyandutt Pandey said...

मेरी पत्नीजी होली मिलन में जो मिठाइयां चख कर आयी हैं, उससे मुँह में छाले पड़ गये हैं। अब वे मुँह में हल्दी लगा कर बैठी हैं।

PD said...

ज्ञान जी का कमेंट बहुत बढिया है..:)

वैसे मेरा अपना एक अनुभव है, जब मैं बहुत ज्यादा सिगरेट पीने लग गया था शायद दिन में 20 से भी ज्यादा तब मेरे मुंह में अक्सर छाले हो जाया करते थे..
आपका पोस्ट पढकर ध्यान आया.. आपने कल जब मुझे फोन किया था तब मैं मिटिंग में था और घर लौटते-लौटते रात 11 से ज्यादा बज गये थे और आज सुबह जल्दी जाना पर गया था सो फोन नहीं कर पाया, उसके लिये क्षमा चाहता हूं.. मैं अभी आपसे बात करता हूं..

Mired Mirage said...

अगली पोस्ट की प्रतीक्षा में !
घुघूती बासूती

दिनेशराय द्विवेदी said...

डॉक्टर साहब। आप ने मौके की बात की है। सिरीज आरंभ करने के पहले ही मरीज हाजिर हैं। रीता भाभी तो हैं ही। मेरे 22 वर्षीय पुत्र को छाले हर दूसरे माह हो जाते हैं। वह इन्दौर में पढ़ रहा है। भोजन भी सादा ही होता है, न अधिक तैलीय और न ही अधिक मसालेदार। हमारा कन्सेप्ट यह है कि कब्ज ही छालों का मुख्य कारण है। उसे कब्ज रहती भी है। इस कारण से उसे लगातार कब्ज दूर करने का कुछ न कुछ उपाय करते रहना पड़ता है। अभी होली पर दोनों भाई-बहन घर पर थे तो पुत्री की दांत की तकलीफ के कारण डेन्टिस्ट के यहाँ जाना पड़ा बेटा भी साथ था। उस के भी दाँत व मसूड़े कल और आज साफ करवाए गए हैं। मगर छालों पर असर कम ही नजर आ रहा है। डेण्टिस्ट ने कुछ दवाइयां छालों के लिए और कब्ज दूर करने की भी दी हैं। मगर उसे मोशन भी आज रात होने पर हुआ है। उसे वापस इन्दौर जाना था मगर वह रुक गया है एक-दो दिनों में तो उसे जाना ही होगा। उस के छालों का कोई स्थाई इलाज चाहिए। आप की इस श्रंखला को गौर से पढूँगा।

अनूप शुक्ल said...

सही विचार है। आप इलाज बताना शुरू करें। मरीज आते जायेंगे।

राज भाटिय़ा said...

चोपडा जी,मुझे लगता हे अब तो टिपण्णी देने के लिये भी पक्ति मे आना पडे गा,मुझे भी कभी कभी एक आधा सफ़ेद सा दाना होटो के अन्दर की तरफ़ हो जाता हे पहले तो एक दवाई लगा लेता था अब फ़िट्करी से एक दो बार कुल्ला कर लेता हु, फ़िर ठीक, मेने ध्यान दिया हे मे जब भी बिना धुली कच्ची सब्जई, फ़ल काता हु तभी यह फ़ुनंशी होती हे.

आशीष said...

अजी डॉक्‍टर साहब आप तो जारी रखें लोग आते जाएंगे