बुधवार, 25 मई 2016

कल रात एक सर्जन ने क्या किया? जानिए...

हमारे स्कूल कालेज के दौर के एक वाट्सएप ग्रुप में अपने दोस्त डा अमरजीत ने एक पोस्ट शेयर की...पढ़ते ही मन को छू गई...यही लगा कि यह तो इंगलिश में है ...ज़ाहिर है डाक्टर लोग इंगलिश में ही अपनी बात कहने में सहज महसूस करते हैं...

लेकिन उसे पढ़ते ही मन में ध्यान आया कि यार ऐसी बात तो हिंदी में भी लिख कर शेयर करनी चाहिए ताकि अधिक से अधिक लोग इस को पढ़ सकें... और एक सर्जन की ज़िंदगी के एक दिन से रू-ब-रू हो सकें...

एक सर्जन ने अपनी आप बीती लिखी है ...

उसने लिखा है ...आज सुबह राउंड के बाद जब हम लोग काफी पी रहे थे तो बॉस ने पूछा कि तुम लोगों ने कल क्या किया?
हम लोगों की कल रात बड़ी बिज़ी थी..हम लोगों सो भी नहीं पाए थे, ब्लड-ग्लूकोज़ का स्तर गिर रहा था..हम बहुत थके हुए थे.. हम लोगों में से कोई भी हंसी मज़ाक के लिए उस समय तैयार नहीं था..
कल रात १० बजे के करीब हम लोगों ने एक २० साल के इंजीनियरिंग छात्र का पेट खोल कर (लेपोरेटमी) उस की आंतों के अवरोध (small bowel obstruction) को ठीक किया... और इस आप्रेशन से फारिग हो कर, उस छात्र के चिंतित मां-बाप को तसल्ली देकर, हम लोग डिनर के लिए जा रहे थे कि हमें ट्रामा केयर सेंटर तुंरत आने के लिए कहा गया...
एक ३५ साल को बिजली विभाग का लाईनमेन था जो ड्यूटी के दौरान बिजली के खंभे से गिर गया था...उस के सी.टी स्कैन से पता चला कि उस के पेट के इर्द-गिर्द झिल्ली में रक्त भर गया था...(Hemoperitoneum)...और उस की तिल्ली (स्पलिन- spleen) कट गई थी... और वह शॉक की स्थिति में जाने लगा था...
उस की पत्नी लगभग ३० साल की, साथ में पांच साल के बच्चे के साथ बदहवास हालत में वहां पहुंच चुकी थी... और जब उसे आप्रेशन के लिए फार्म पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा तो वह तो बिल्कुल गुमसुम सी ही हो गई... उस लाइनमैन के साथियों ने उसे संभाला ...और मरीज को आप्रेशन थियेटर में ले जाया गया जहां पर उस की  तिल्ली को निकाल दिया गया...
The usual ritual of profuse thanking by the family followed when we went out and our chief resident donned the role of a smiling Krishna reassuring a frightened Arjuna. 
फिर उस के बाद हमने दो और मरीज़ों को दाखिल किया... एक की बाईं टांग भयंकर पक चुकी थी.. (cellulitis) और दूसरे मरीज़ में पित्ताशय़ की पथरियों की वजह से पैनक्रिया में सूजन आ गई थी...(pancreatitis)....और इन के इलाज उपचार में लगे रहे ...इतने में देखा तो हमारा सुबह का वार्ड राउंड लेने का समय हो चुका था..

जब हम लोग अपने बॉस को यह सब सुना चुके तो उसने फिर से प्रश्न दोहरा दिया...इस के अलावा आप लोगों ने क्या किया?

खीझे हुए हमारे चीफ रेज़ीडेंट ने तपाक से कह दिया.... हम लोगों ने एक और दिन की नींद, डिनर और परिवार के साथ अच्छा समय बिताना खो दिया...

अब हमारे बॉस ने कृष्ण भगवान की तरह कहना शुरू किया....

तुम चिकित्सकों के लिए वह १० सैंटीमीटर का सड़ी आंत का टुकड़ा था और एक कटी हुई तिल्ली थी जिसे तुम लोगों ने निकाल बाहर किया... लेिकन कल रात तुम लोगों ने एक दंपति के उस सपने को जीवित रखा जो वे पिछले बीस साल से देख रहे हैं... तुम लोगों ने एक कम उम्र की महिला को विधवा होने से भी बचा लिया... और एक छोटे बच्चे को हमेशा के लिए उस के बाप के साये से महरूम होने से बचा लिया... तुम लोगों ने एक ऐसे इंसान की मुसीबतें भी खत्म कीं जिस का कोई कसूर नहीं था ...हां, तुम लोगों ने एक रिक्शा वाले की टांग कटने से बचा ली क्योंकि तुम ने उस के तकलीफ़ का तुरंत समाधान कर दिया...
एक रात की नींद और डिनर तो कुछ भी नहीं ....इस की तुलना में जो वे लोग खो देते अगर तुम लोग समय पर अपना काम न करते।  अकसर हम लोग इस बात से बेपरवाह होते हैं कि हम दूसरों की ज़िंदगी को कितना प्रभावित कर सकते हैं.. जब हम में यह समझ आ जाती है तो हम लोगों का नज़रिया और दूसरों के प्रति व्यवहार बिल्कुल बदल जाता है ..
We often don't understand the influence we exert on the lives of others. When we do, we all will be much more careful in our attitudes an actions.

आप्रेशन के दौरान इस्तेमाल किए गये चाकू के एक कट से हम लोग एक परिवार को सड़क पर ले आ सकते हैं या उस खुदा के बंदे की उम्र को दसियों साल तक एक्सटेंड कर सकते हैं... हमारे फैसले मरीज़ की हालत तय करते हैं.. हमें ईश्वर ने इस नायाब प्रोफैशन के लिए चुना है ...हम खुशकिस्मत हैं........यह कहते ही बॉस ने अपनी कॉफी की आखिरी सिप लिया।

हम सब भी अपने अपने वार्डों की तरफ़ रवाना हो गये ....इस बात का अहसास करते हुए कि हम लोग कितने नोबल प्रोफैशन में हैं... और हमारे दिल फख्र और खाकसारी (pride and humility) महसूस कर रहे थे..

हम लोगों ने ता-उम्र के लिए एक सबक सीख लिया ....जब तक इस ब्रह्मांड में जीवन रहेगा..सभी तरह की कमियों के बावजूद हम लोग सब से उत्तम प्रोफैशन में हैं... और हम सच्चे हीरो हैं.....

बहुत अच्छा लगा किसी सर्जन की आपबीती पढ़ कर .. भावुक हो गया मैं भी ...कुछ और मैं इस में एड नहीं करना चाहता...बस यह कि यह सब काम करते हुए सर्जन और अन्य डाक्टरों को तरह तरह की भयंकर और जानलेवा बीमारियों का संक्रमण होने का खतरा लगातार बना रहता है ...


आज कल टीवी में फिल्मों के दौरान ब्रेक के समय एक्स्ट्रा-शॉट नाम से कुछ आता है जिस दौरान फिल्म के निर्माण के दौरान की कुछ बातें दिखाते बताते हैं...मैं भी शेयर करना चाहता हूं कि मैंने कैसे डा अमरजीत की इस पोस्ट को हिंदी में लिखा ..मोबाईल से देख देख कर इंगलिश को हिंदी में करना पड़ता तो मैं ऊब जाता....मैंने सोचा कि लैपटाप पर वाट्सएप खोल कर पोस्ट को कापी कर के व्लर्ड-डाक्यूमेंट में खोल लेता हूं .. लेिकन लैपटाप पर वाट्सएप ही न खुला ..फिर एक जुगाड़ किया ... पोस्ट को कापी किया...ब्लूटुथ से लैपटाप में ट्रांसफर किया... और वहां से प्रिंट-आउट लेकर सामने रखा ...फिर इंगलिश को हिंदी में लिखते लिखते यह पोस्ट लिख डाली.. पोस्ट को देखते यही लगा था कि इसे हिंदी में भी होना चाहिए... प्रूफ के लिए प्रिंट-आउट साथ लगा रहा हूं.. 😄😄😄


इतनी भारी भरकम बातों के बाद अब कुछ इबादत भी कर ली जाए... इस काफ़ी को हम अकसर सत्संग में सुना करते थे...सारी बातें मन को छूने वाली...

मंगलवार, 24 मई 2016

ब्रेड छोड़ने या कम करने के लिए क्या हमें इस खबर का इंतज़ार था!

पंजाबी की एक मशहूर कहावत है ..वारिस शाह न आदतां जाँदीयां ने, चाहे कट्टीये पोरीयां पोरीयां जी...सच, में अपनी आदतों को बदलना बहुत मुश्किल है ..कल शाम मेरी मां ने भी जब मुझे लेट कर लैपटाप पर काम करते देखा तो उन्होंने शायद पहली बार मुझे यह कहा ...तेरी भी जो आदतें पड़ चुकी हैं, बस वे तो पक्की ही हैं। उन्हें पता है जब मैं इस तरह से लेट कर कुछ लिखता पढ़ता हूं तो अकसर मेरी गर्दन में दर्द शुरू हो जाता है...इसलिए उन्होंने कहा ...और जब मैं लैपटाप को लैप में रख कर कुछ काम करता हूं तो अपने आप ही डर लगता है ..रेडिएशन की वजह से...ज़रूरी तो नहीं ना यार कि कुछ पंगा होने पर ही आदमी सुधरे...

इसलिए आज मैं महीनों बाद अपनी स्टडी टेबल कर बैठ कर यह पोस्ट लिख रहा हूं...लैपटाप गर्म होने की समस्या के लिए पहले दो स्टैंड भी लिए थे..जिन के नीचे मिनी फैन भी लगे रहते हैं...लेिकन वह ज़्यादा प्रैक्टीकल नहीं लगा...कल कहीं पर यह कूलेंट वाला लैपटाप पैठ देखा तो खरीद लिया...अच्छा है, लैपटाप गर्म नहीं होता...

हां, तो मैं आदतों की बात कर रहा था ...तो मुझे आज ध्यान आ गया ब्रेड खाने की आदत का ...मैं मन ही मन अपनी मां और श्रीमति का शुक्रिया करता हूं जिन्होंने कभी भी ब्रेड खाने के लिए विवश नहीं किया...कईं कईं हफ्तों तक घर में ब्रेड आती ही नहीं है...

ब्रेड पर क्यों आज मेरी सूई अटक गई...दरअसल कल रात किसी वाट्सएप ग्रुप पर कोई पोस्ट देखी कि देश में ब्रेड में कुछ तरह के हानिकारक कैमीकल्स मिलाये जाने की सूचना मिली है ...जैसा अकसर होता है..इस पोस्ट को इतना सीरियस्ली लिया नहीं ...लेकिन सुबह उठते ही जैसे ही हिन्दुस्तान अखबार देखा तो पहले पन्ने पर यह खबर, फिर टाइम्स आफ इंडिया के पहले पन्ने और अमर उजाले के भी पहले पन्ने पर इसे देख कर माथा ठनका....कुछ तो गड़बड़ है ही ..जिस संस्था ने यह खुलासा किया है, उस एनजीओ की विश्वसनीयता अच्छी है ...पहले भी कोल्ड-ड्रिंक्स में कीटनाशकों की मौजूदगी के बारे में जो भी कहा ...सच निकला...लोगों सचेत हुए....यही काम ये संस्थायें कर सकती हैं, बाकी तो अपनी अपनी मनमर्जियां हैं...हम कहां किसी की सुनते हैं!....सही कि नहीं?
 अमर उजाला २४.५.१६

हिन्दुस्तान २४.५.१६
Times of India 24.5.16
यह तो कैमीकल वाली बात तो अभी कही जा रही है, लेकिन वैसे भी ब्रेड खानी कितनी ठीक है, कितनी नहीं, यह हम सब जानते हैं....लेकिन फिर भी ....

आज सुबह ध्यान आ रहा था कि कुछ साल पहले एक लेख लिखा था...इस के बारे में...

यह रहा इस का लिंक ... पाव या पांव रोटी! (इसे पढ़ने के लिए इस पर क्लिक करिए).. 

दोस्तो, ऐसा नहीं है कि हम लोगों की डबलरोटी से जुड़ी कुछ भी यादें हैं ही नहीं....बिल्कुल हैं...इन्हें भी एक संस्मरणात्मक लेख में डाला था...अगर आप इसे देखना चाहें तो यह रहा इस का लिंक... डबल रोटी से जुड़ी खट्टी मीठी यादें..(इसे पढ़ने के लिए इस पर क्लिक करिए)..

बस, एक बात को हमेशा ध्यान में रखिए....सिर्फ ब्रेड को ही दोषी नहीं बताया गया है, पिज्जा, बर्गर और बन आदि को भी हानिकारक कहा गया है ... और देखिए किस तरह से नामचीन स्टोरों के ये उत्पाद भी हानिकारक पाये गये हैं...


मुझे पता नहीं हम कब किसी की बात मानना शुरू करेंगे....पहले भी ..एक नूडल कंपनी के बारे में कितना ज़्यादा सुनने को मिला ...हम लोग नहीं माने..मार्कीट शक्तियां बेपनाह ताकत की मालिक हैं..हर तरह से ...रिजल्ट क्या आया, कुछ अरसा पहले...सब कुछ ठीक है ...सब कुछ दुरूस्त है ...बेधड़क खाओ....

लेिकन फैसला हमें अपने आप करना होता है ....हमारी सेहत का मुद्दा है ... जांचों वांचों का तो क्या है, सब कुछ इधर उधर हो सकता है ...लेकिन सीएसई जैसे एनजीओ....और सुनीता नारायण जैसे लोग जो कहते हैं उसे सुने और मानेंगे तो बेहतर होगा...

अब निर्णय आप स्वयं करिए कि आप इस तरह की रिपोर्ट के बावजूद भी ब्रेड-व्रेड, पिज्ज़ा, बर्गर खाते रहेंगे या कुछ सेहतमंद पारंपरिक विकल्प ढूंढेंगे...पिछले रविवार के दिन मैं शहर के अंदर घूमने निकला..एक दुकान से कुछ खरीद रहा था तो एक बुज़ुर्ग आया...बिल्कुल पतला, बंदे के कपड़े भी खस्ता हाल थे, पांच रूपये का दूध का पैकेट मांगा, दुकानदार का लड़की ने सात रूपये वाला आगे कर दिया..कहने लगे...ऩहीं पांच रूपये वाला चाहिए, उस के बाद छोटी ब्रेड मांगी..लड़की ने दस रूपये वाली दी ...तो इन्होंने छोटी ब्रेड पांच रूपये वाली मांगी ... पांच रूपये वाली ब्रेड वाली ले कर इन्होंने दो दो रूपये वाले दो बन भी खरीदे....ठीक से गिनती कर इन्होंने उसे पैसे दिए......फिर धीरे धीरे चले गये......मुझे वह दृश्य हमेशा याद रहेगा...अभी फिर उस बुज़ुर्ग का ध्यान आ गया कि यार, अब इस तरह की गाढ़ी कमाई से ब्रेड-बन खरीदने वाले की सेहत से भी हमारा लालच खिलवाड़ करने से अगर नहीं चूक रहा ..तो शायद हमारा फैसला प्रभु ही करेगा...आप ने ठीक से पढ़ा ना, मैंने लिखा है...पांच रूपये का दूध का पैकेट और पांच रूपये की छोटी ब्रेड...ऊपर से कमज़ोर शरीर....और क्या लिखें! क्या यही अच्छे दिन हैं....या अभी इस से भी और अच्छे िदन आयेंगे, पता नहीं!

सब से पहले तो इस पोस्ट का लिंक अपने बेटों को भी भेजूं...वैसे तो वे अपने बापू को कम ही पढ़ते हैं...लेिकन इसे पढ़ने के लिए तो ज़रूर कहूंगा....बड़ा बेटा तो बेचारा ब्राउन-ब्रेड को बड़ा स्वास्थ्यवर्धक मानता है ... मैंने उसे अकसर बताता हूं यार, यह सब कलरिंग का चक्कर है !

इसे यहीं बंद करता हूं...पुरानी हिंदी फिल्मी गीत भी हमें कितनी बढ़िया सीख दिया करते थे...स्कूल के दिनों से इसे सुन रहे हैं ...और रिमांइडर के तौर पर कभी कभी सुन लेता हूं.... just to stay grounded! 😉

सोमवार, 23 मई 2016

स्कूल के साथियों का वाट्सएप ग्रुप..

१९७३ में जो लोग पांचवी कक्षा में पढ़ रहे थे ...उन्हें क्या पता था कि चालीस-ब्यालीस साल के बाद कुछ ऐसी सुविधा मिल जायेगी कि हम लोग फिर से मिलेंगे...मोबाइल के माध्यम से ...हमें तो हमारे मास्टरों ने बिजली की घंटी की कार्य-प्रणाली में, मिरर-फार्मूले में ...सूर्य और चंद्र ग्रहण में उलझाए रखा....हम ने तो कभी मोबाइल-वाइल की कल्पना भी नहीं की थी..

दो दिन पहले दो चार स्कूल के साथियों ने वाट्सएप ग्रुप बनाया...हम लोग जो अमृतसर के डीएवी स्कूल और कालेज में एक साथ रहे ...

बहुत अच्छा लग रहा है...बहुत ही अच्छा...सब के चेहरे याद आ रहे हैं ..पुरानी बातें ताज़ा हो रही हैं ..अपनी बेवकूफियों पर हंसी आ रही है ...it is all fun!

जैसे दूसरे ग्रुप में होता है सोच सोच के बात कहनी ...पहले तोलो फिर बोलो ...यहां ऐसा कुछ भी नियम नहीं है. ...सब अपने दिल की बातें करते हैं...मैं अकसर दूसरे ग्रुप्स में ऑडियो नहीं भेजता लेकिन यहां मैं रूक ही नहीं रहा हूं..

मजा इस बात का आ रहा था कि हम लोगों को एक दूसरे के नाम तो याद आ रहे थे ...लेकिन कमबख्त हम एक दूसरे के चेहरे भूल चुके थे..हम लोग दो दिन से एक दूसरे को कह रहे हैं कि लगाओ यार पुरानी बीस तीस साल पुरानी फोटो दिखाओ....ढूंढ रहे हैं लोग ...हम लोगों ने पंद्रह बीस तो ढूंढ लिए हैं साथी..हर बंदे इस मिशन में लगा है कि गुमशुदा साथियों को ढूंढ निकालना है ...

मैंने भी अपनी पुरानी पड़ी स्कूल की मैगजीन में से पांचवी, दसवीं और बारहवीं की क्लास की फोटो निकालीं...हम लोग एक Reunion की planning कर रहे हैं...मुझे भी ये फोटो ग्रुप में भेज कर अपनी पहचान का प्रूफ देना पड़ा....😀😀😀... वरना एंट्री मुश्किल हो जाती!
(पांचवी कक्षा)


मुझे इन दो तीन दिनों में यह अहसास हो रहा है कि मैं अमृतसर से दूर रहते हुए भी उन सब से उतना ही जुड़ा हुआ हूं जितना वे लोग आपस में जुड़े हुए हैं...क्या है ना, हर बंदे की लाइफ में आज संघर्ष है ..बढ़ती उम्र के साथ कईं दूसरी तरह की पारिवारिक जिम्मेवारियां निभानी होती हैं ...

आप मेरे स्कूल की फोटो देखना चाहेंगे... देखिए....
डी ए वी स्कूल अमृतसर ..एक एक कोने से हम लोगों की यादें जुड़ी हैं..
मैं आप सब से यह गुज़ारिश ज़रूर करूंगा कि आप लोग भी अपने स्कूल-कालेज के दिनों के साथियों का एक वाट्सएप ग्रुप ज़रूर बनाईए.... it is so special!

दरअसल मैं २००२ या २००३ में दस-पंद्रह दिन के लिए एक लेखक शिविर के लिए अमृतसर गया था...उन दिनों मैं जितने पुराने साथियों को ढूंढ सकता था ...ढूंढ के छोड़ा...कोई फेक्टरी मालिक था, कोई बिजनेस में था, कोई बैंक में, कोई स्कूल प्रिंसीपल, बहुत से डाक्टर....सब मजे में हैं...मुझे इन को ढूंढने में कईं घंटे लग जाते थे ..लेकिन मैं व्यस्तता के कारण मैं आधा घंटे से ज़्यादा कहीं भी रूक नहीं पाया......लेकिन मुझे बहुत अच्छा लगा था....लेखक शिविर तो बहाना था, वहां मैंने क्या सीखना था, पुराने साथियों  और मास्टर साहिबान का हाल चाल लेना असल मकसद था...

उन दिनों मैं अपने स्कूल गया... वहां पर हमारे इंगलिश के टीचर अब प्रिंसीपल बन चुके थे...उन्हें मैं बीस सालों बाद मिल रहा था...उन्होंने मुझे दूर से ही कहा ...हां, प्रवीण आओ...आओ.....मेरे लिए यह बहुत बड़ी बात थी...he taught us English in 8th Standard and he used to show my answer sheet to the whole class! Sorry for bragging! ..Just innocent nostalgic memories!

अच्छा, दोस्तो, मुझे पिछले दो दिनों में कुछ वाट्सएप मैसेज बहुत अच्छे अच्छे मिले हैं...मन कर रहा है उन्हें आप के साथ शेयर करने का ....



वाह जी वाह ...कितना सुंदर नुस्खा 
हमारे स्कूल के ग्रुप में यही कुछ हो रहा है ...



Another Great Message!
अब इस िचट्ठी को बंद करने का समय आ गया है.....गाना तो बजाना ही होगा...उन्हीं स्कूल के दिनों में गुड़्डी फिल्म के इस गीत ने खूब धूम मचा रखी थी...हम भी दूरदर्शन पर अकसर इसे देख लिया करते थे... Wonderful song....Jayaji, the great!-  in one of her the best and memorable roles! वैसे हमारे स्कूल में रोज़ाना हवन भी हुआ करता था...हम लोग बारी बारी से वहां जाते थे...और सब से पहले गायत्री मंत्र का उच्चारण तो सुबह रोज़ क्लास में बैठे बैठे होता ही था..हर कक्षा में लाउड-स्पीकर लगे हुए थे...

शनिवार, 21 मई 2016

पैदल घूमने की प्रेरणा ऐसे भी मिलती है!

प्रेरणा भी गजब की चीज़ है ...किसी को कहीं से भी मिल जाती है ...अभी ऐसे ही रेडियो सुन कर समय को धक्का दे रहा था कि जर्नलिज़्म के एक विद्यार्थी ने पिछली पोस्ट पर एक टिप्पणी भेज दी पुणे से कि आप के ब्लॉग से प्रेरणा मिली...ठीक है भाई, बहुत अच्छी बात है ...आप ने प्रेरणा शब्द लिख कर मुझे भी इस पर िलखने के लिए एक विषय दे दिया...धन्यवाद...

हां, तो बात प्रेरणा की हो रही थी ...अकसर मैं पैदल टहलते हुए या साईकिल पर लखनऊ शहर का भ्रमण करते हुए कभी कभी ऐसे लोगों को सड़क पर देखता हूं कि मैं उन के स्वास्थ्य लाभ की कामना तो करता ही हूं ..साथ में यही सोचता हूं कि अगर सुबह सात-आठ बजे तक ए सी कमरों में ठिठुर रहे लोग इन लोगों का जज्बा देख लें तो यकीनन, भाग के बाहर आ जाएं वे भी सड़कों पर, बाग बगीचों पर...



यह जो शख्स है इन की पीठ पूरी तरह से झुकी हुई है ...छड़ी लेकर धीरे धीरे चलते हैं..पूरी तैयारी कर के घर से निकलते हैं..स्पोर्ट्स-शूज़ पहन कर ...जब भी मैं इस रोड़ की तरफ़ से निकलता हूं, इन्हें अवश्य देखता हूं टहलते हुए...मुझे बहुत खुशी होती है ... 



इस शख्स को मैंने पिछले हफ्ते देखा था ...इस तरह से वॉकर का सहारा लेकर आप देख सकते हैं आराम से सुबह सुबह टहल रहे हैं...ऐसे और भी लोग अकसर टहलते दिख जाते हैं...कभी कभी महिलाएं भी इसी तरह वॉकर का सहारा लेकर टहलती दिख जाती हैं...


और ये शख्स भी सुबह सुबह टहलते दिखे ....मुझे लगा था कि ये टहल रहे हैं  वह भी पलस्टर चढ़े हुए ....इस तरह से इन का टहलना मुझे मुनासिब नहीं लगा था..लेकिन इन की समस्या दूसरी थी... इनको कोई मारूति वाला कुछ दिन पहले ठोक गया था, टांग टूट गई थी, पलस्टर चढ़ा है लेिकन कह रहे थे कि उस दिन से वह मारूति वाला भी घर से बाहर नहीं निकला... यह किसी रिक्शा का इंतज़ार कर रहे थे...कहीं जाने के लिए...रिक्शा आई और चले गये। 

उस दिन जब मैंने इस वॉकर वाले शख्स को देखा तो मुझे यही ध्यान आया कि इस तरह के लोग टहलते हुए जैसे हृष्ट-पुष्ट लोगों को प्रेरणा दे रहे हों कि तुम तो सक्षम हो अभी टहलने के, घर से बाहर निकल आओ...

मैं भी अपने सभी मरीज़ों को रोज़ाना टहलने की नसीहत ज़रूर पिला देता हूं...जो कहता है नहीं हो पाता, उसे कहता हूं कोई बात नहीं, घर से बाहर निकल कर किसी खाली जगह में बैठ जाइए, रौनक मेला देखिए, सुबह की प्राकृतिक सुंदरता का लुत्फ उठाईए, चढ़ते सूर्य को निहारिए, उसे सलाम कीजिए, पंक्षियों के गीत सुनिए....कोई आता जाता दो बात करेगा...शरीर को सुबह की गुलाबी धूप मिलेगी....आप को अच्छा लगेगा...कुछ दिन कर के देखिए, अगर अच्छा नहीं लगे तो मत करिए...बहुत से लोगों में मेरी बातों से जोश आ जाता है ...Thank God.. 🌺🌳🌴🌲🌼🍀🌻🌻🌹🍀..

मैंने नसीहत का शरतब पिलाने की बात कही ...सच में दोपहर होते होते थक जाते हैं इस छबील पर काम करते करते...लेकिन काम तो काम है!



हमें हमारे स्वाद ही बिगाड़ते हैं...

मेरी नानी अकसर कहती थीं कि स्वाद का क्या है, जुबान तक ही तो है, उस के आगे तो सब बराबर है ...हम लोग खूब ठहाके लगाते थे उन की इस बात पर...लेकिन सच्चाई यह थी कि वह लाजवाब खाना बनाती थीं...best cook i have even known!

आज हमारे स्कूल-कॉलेज के साथियों का एक वॉटसएप ग्रुप बना है ...अच्छा लगा...बहुत से लोगों से बात भी हुई...बहुत अच्छा लगा...एक साथी ने पूछा कि कहां हो आजकल, उसे बताया उन विभिन्न जगहों के बारे में जहां जहां रह चुका हूं...हंसने लगा कि सारा हिंदोस्तान ही घूम लिया...

घूम तो लिया ...ठीक है, मैं उसे यह कहना चाहता था कि हिंदोस्तान चाहे घूम लिया ...लेिकन खाने के मामले में अभी भी दिमाग अमृतसर के कूचों-बाज़ारों में ही अटका हुआ है...

My most fav. food on this planet.. केसर दा ढाबा
१९८८ में अमृतसर छोड़ने के बाद समोसे कभी अच्छे नहीं लगे...अकसर लोहगढ के हलवाई के समोसे बहुत याद आते हैं...बेसन के लड्डू कहीं और जगह के पसंद नहीं आए...कुलचे-छोले तो बस अमृतसर के साथ ही छूट गये..वहां पर अलग तरह के कुलचे मिलते हैं...खमीर वाले ..वे और कहीं नहीं दिखते...इसी तरह से भटूरे-छोले, फलूदा कुल्फी भी हाल बाज़ार की याद आती है...ढेरों यादों के साथ...सारी की सारी मीठी यादें...और तो और इतनी जगहों खाना खाया, घाट घाट का पानी पिया लेकिन केसर के ढाबे का खाना भूल नहीं पाया....अगर मैं आलसी प्रवृत्ति का न होता तो केसर के ढाबे पर खाना खाने के लिए अमृतसर चला जाया करता... 😄😄😄😄

स्वाद की बात से आज मुझे ध्यान आया कि हम लोग स्वाद के गुलाम हो चले हैं शायद ...पहले तो हम लोग सब्जी के बारे में चूज़ी थे...यह खाएंगे, वह नहीं खाएंगे..लेकिन अब हम इस स्वाद के इतने गुलाम हो चुके हैं कि हमारी पसंद की सब्जी भी अगर हमारे स्वाद के अनुसार नहीं बनी है तो हम उसे खा ही नहीं पाते...

आज सुबह भी एक भंडारे में पूड़ी-हलवा और यह कटहल की सब्जी मिली तो इस का स्वाद कुछ अलग तरह का होने के कारण मैं खा ही नहीं पाया... कितना अजीब सा लगता है ना, लेकिन है सो है!
कटहल की सब्जी 
स्वाद का एक सुखद पहलू भी है कि जो स्वाद हम लोगों के बचपन में डिवेल्प हो जाते हैं...वे फिर ताउम्र साथ चलते हैं...मुझे आज के दौर के बच्चों का बिना कुछ खाए ..बस एक गिलास, साथ में दो बिस्कुट खा कर जाना बड़ा अजीब लगता है...वहां पर रिसेस के समय तक पढ़ाई में क्या मन लगता होगा...और फिर अकसर आजकल ज्यादा कुछ टिफिन विफिन वाला ट्रेंड भी कम होता जा रहा है...इसलिए वहीं पर जो जंक-फूड और अनहेल्दी स्नेक्स मिलते हैं, वही खाते रहते हैं बच्चे ....परिणाम हम सब के सामने हैं...

मुझे अपने स्कूल के दिनों का ध्यान आता है ...पहली कक्षा से चौथी श्रेणी तक का भी ...तो जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है वह यही है कि हम लोग घर से बिना एक दो परांठा और दही के साथ खाए बिना निकलते ही नहीं थे, और साथ में एक दो परांठे भी लेकर जाना और वहां रिसेस में पांच दस पैसे में हमें इस तरह के snacks मिलते थे ...एक पत्ते में हमें यह सब कुछ दिया जाता ..पांच दस पैसे में ..नींबू निचोड़ कर ...यह सिलसिला शुरूआती चार पांच सालों तक चलता रहा ..फिर स्कूल बदल गया....लेिकन चार पांच साल किसी अच्छी आदत को अपनी जड़ें मजबूत करने के लिए बहुत होते हैं...

इसलिए अब भी अकसर वही कुछ हम लोग खाते हैं...और स्कूल के दिनों की यादें ताज़ा हो जाती हैं... उबले हुए चने, उबला हुई सफेद रोंगी, लोबिया...सब अच्छा लगता है ...अकसर हम लोगों ने बचपन में सोयाबीन की दाल नहीं खाई...कभी हमारे यहां दिखती ही नहीं थी, स्वाद का ही चक्कर होगा....लेकिन बड़े होने पर जब यह बनने लगी तो हम थोड़ा खाने लगे....कुछ दिन पहले सोयाबीन भी उबली हुई खाने को मिली तो स्वाद अच्छा लगा....

पहली बार उबली हुई सोयाबीन खाई ...स्वाद बढ़िया था..
मैं भी यह क्या खाया-पीया का बही-खाता लेकर बैठ गया.....लेकिन एक बात तो है कि स्वाद की गुलामी छोड़नी पड़ेगी... Earlier it is done, better it is!

वैसे भी धर्म भा जी तो बरसों से दाल रोटी खाने का बढ़िया मशविरा दिये जा रहे हैं....इन की ही मान लें...

पेड़ का ही गला घोंट दिया!

पोस्ट लिखने से पहले ...ध्यान आ रहा है एक गीत का...मधुबन खुशबू देता है ...सागर सावन देता है...जीना उस का जीना है जो औरों को जीवन देता है....wonderful song...evergreen!

कल शाम हम लोग यहां लखनऊ में किसी दुकान में ए.सी देख रहे थे...बाहर आने पर अचानक इस पेड़ की तरफ़ ध्यान गया तो मेरी तस्वीर खींचने की इच्छा हुई...पुराने बुज़ुर्ग पेड़ों की हज़ारों तस्वीरें खींच चुका हूं ...क्योंकि हर पेड़ अपनी अलग दास्तां ब्यां करता दिखता था...वह बहुत सी घटनाओं का मूक गवाह रहा, उसने दशकों से जो कुछ अच्छा-बुरा देखा उसे वह हम से साझा करना चाहता है....हर पेड़ की अपनी दास्तां है..


मैंने इस पेड़ को देखा तो मुझे लगा कि यह तो भई कम से कम सौ साल पुराना ज़रूर होगा...इस के नीचे नारियल पानी बेच रहे बंधु से पूछा तो उसने भी हामी भर दी...

लेकिन यह क्या?....यह किस की कारगुज़ारी है?....पेड़ के आसपास इस तरह का सीमेंट का प्लेटफार्म बना कर उस का तो जैसे गला ही घोंट दिया हो, एक बात...और दूसरी बात कि कितनी धूर्तता से इस बात का ध्यान रखा गया कि कोई भी इस की छाया की ठंड़क न लेने पाए...

मेरे विचार में इस से घटिया सोच हो नहीं सकती कि इतने भीमकाय छायादार पेड़ की ठंडक से महरूम रखने के लिए इतना यत्न किया गया....इतने पुरातन और सुंदर पेड़ को इंसान (?) ने कितना बदसूरत बना कर छोड़ दिया, लेकिन वह फिर भी निःस्वार्थ सेवा जारी रखे हुए है!🍀🍀🌹🌹🍁🌻


हम लोग सब के सब दोगले हैं...(मैं भी उन में शािमल हूं बेशक)..मैंने इस की चार पांच तस्वीरें खींची हैं उन्हें यहां लगा रहा हूं....ये तस्वीरें अहम् इसलिए हैं क्योंकि अन्य शहरों का तो मुझे इतना पता नहीं, हम लोगों की जानकारी बड़ी सतही स्तर की होती है ..लेिकन लखनऊ को जितना मैं देख पाया हूं, जान पाया हूं .....यहां पर लोग अकसर इस तरह की छोटी हरकतें करते नहीं हैं ....

नोटिस करिए इन तस्वीरों में कि यह तो सुनिश्चित किया गया है कि कोई भी राहगीर वहां बैठ तो बिल्कुल नहीं पाए लेकिन एक मंदिर ज़रूर वहां बना दिया गया है ...सोचने वाली बात है कि क्या इस प्रयास से ईश्वर खुश हो जाएंगे?..

घोर अज्ञानता, भम्रजाल का अंधेरा छाया हुआ है संसार में....

मैंने उस नारियल वाले से पूछा कि तुम्हें क्या लगता है ऐसे ठीक है पेड़ जिस के नीचे कोई बैठ ही नहीं पाए या फिर उस के नीचे एक बैठने की जगह होती जहां बीस-पच्चीस लोग लू के थपेड़ों से थोड़ा बच लिया करते!....उसने तुरंत कहा कि बैठने की जगह होती तो बहुत बढ़िया होता....और अगर मंदिर की बजाए पानी के दो चार मटके रख दिए जाते तो ईश्वर और भी खुश हो जाते!
 घने पेड़ों से महरूम रास्ते कितने बेरौनकी लगते हैं...अकसर साईक्लिगं करते मैं महसूस करता हूं.
काश हम लोग पेड़ों का ध्यान रख पाएं....हमें अपनी सांसों की तो परवाह नहीं, कम से कम इस तरह के जीवन दाताओं की सांसों की तो फिक्र कर लिया करें ज़रा... 

संस्मरण -- कैप्सूल भरने का लघु-उद्योग

उस साथी के पिता एक नीम हकीम थे...कभी वह हमें अपने साथ बाज़ार चलने को कहता तो हम देखते कि वह किसी दुकानदार को बीस-तीस रूपये देता और वह उसे एक पन्नी में पहले से भरे हुए १००० खाली कैप्सूल थमा देता...हम भी उन दिनों बेवजह बातों का load नहीं लिया करते थे।

फिर जब हम दोस्त लोग उस के घर कभी जाते तो उन के परिवार के दो तीन लोग कैप्सूल भरते दिखते...बिल्कुल बीड़ी उद्योग की तरह .....क्या भरते?..कुछ खास नहीं, मीठा सोड़ा (बेकिंग पावडर) और पिसी हुई चीनी...अभी भी वह दृश्य आंखों के सामने दिख रहा है...जमीन पर बैठे उस के पिता जी और वह ...एक अखबार के टुकड़े पर खाली कैप्सूल रखे हुए और दूसरे पर शक्कर और मीठे सोडे की ढेरी...दे दना दन ..लोगों को सेहतमंद करने का जुगाड़ किया जा रहा होता।

और साथ साथ उस के पिता जी मुस्कुराते रहते... उन के सभी मरीज़ पास के गांवों से आते और दस बीस दिन की दवाईयां लेकर चले जाते ..

फ्लैशबेक से वर्तमान का रूख करें?...

कल एक मेडीकल रिप्रेजेंटेटिव आया ..किसी दवाई के बारे में बता रहा था तो उस ने उस का कवर खोला...कैप्सूल निकाला....और कैप्सूल में से तीन छोटी छोटी गोलियां निकलीं...तस्वीर यहां लगा रहा हूं...उस ने फिर से बताना शुरू किया कि एक गोली तो तुरंत असर कर देगी...दूसरी गोली लंबे समय तक बारह घंटे तक असर करती रहेगी..(sustained release) और तीसरी गोली जो आंतों में पहुंच कर अपना असर कर पाएगी...(enteric coated)..
एम आर ने कैप्सूल खोला तो ये तीन गोलियां बीच में से निकलीं..
इस ब्लॉग पर मैंने पिछले कुछ वर्षों में इस विषय पर कुछ लेख लिखे हैं कि हमारी दवाईयां हमें टेबलेट के रूप में, कैप्सूल या इंजेक्शन के रूप में, जुबान के नीचे रखने वाली टेबलेट के रूप में, किसी इंहेलर के द्वारा दी जाने वाली भी हो सकती है ...यह सब वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर होता है कि कुछ दवाईयां हमारे पेट में जाकर अपना असर शुरू करने वाली होनी चाहिएं...और कुछ आंतों में ..सब कुछ साईंस है... ph का मसला है सब ... किस जगह पर कितना अमल है, कितना क्षार है, दवाई का क्या मिजाज है ...यह सब गहन मैडीकल रिसर्च के विषय हुआ करते हैं।

साथी के नीम हकीम पिता जी की बात कर ली, कल भूले भटके आए एक एम आर की बात कर ली...यह तो बस किस्सागोई जैसा लग सकता है ...दोनों बातें बिल्कुल सच हैं...लेकिन इन के माध्यम से दो बातें मैं अपने मरीज़ों से कहता रहता हूं..

पहली बात तो यह कि कभी भी खुले में मिलने वाली कोई भी दवाई न लिया करें....इस के बहुत से नुकसान हैं...आप को पता ही नहीं आप खा क्या रहे हैं, और किसी रिएक्शन की सिचुएशन में पता ही नहीं चलेगा कि कौन सी दवाई खाने से ऐसा हो गया...अकसर खुले में बिकने वाली दवाईयां सस्ती और घटिया किस्म की होती हैं, बड़ी बड़ी कंपनियों की दवाईयां जांच करने पर मानकों पर खरी नहीं उतर पातीं और खुले में बिकने वाली दवाई पर तो बिल्कुल भी भरोसा किया ही नहीं जा सकता....वैसे भी नीम हकीम खतराए जान....मैं अपने मरीज़ों को इस तरह की  खुली दवाईयों के बारे में इतना सचेत कर देता हूं कि वे उसे मेरे डस्टबिन में ही फैंक जाते हैं...वैसे भी खुले बिकने वाले कैप्सूल में क्या क्या भरा जा रहा होगा, कौन जाने, फुर्सत ही किसे है!

दूसरी बात यह है कि कईं बार कुछ लोग ऐसे भी दिखे कि किसी टेबलेट को पीस का मुंह में रख लेते हैं...दांत का दर्द तो इस से ठीक नहीं होता, मुंह में एक बड़ा सा ज़ख्म ज़रूर बन जाता है ..इस से भी बचना ज़रूरी है....

और कुछ ऐसे भी लोग दिखे जिन्होंने बताया कि कैप्सूल को खोल कर वे दवाई पानी के साथ ले लेते हैं...ऐसा भी गलत है...दवाई को कैप्सूल में डाल कर आप तक पहुंचाना कोई फैशन स्टाईल नहीं है ....यह उस दवाई को कार्य-क्षमता को बनाए रखने के लिए किया जाता है ...

जाते जाते ध्यान आ रहा है कुछ िदन पहले टाइम्स आफ इंडिया के पहले पन्ने पर कुछ इस तरह की कंट्रोवर्सी दिखी कि कैप्सूल का कवर जो वस्तु से बनता है ...वह जिलेटिन (gelatin) है...यह नॉन-वैज है...अब इस को भी वैज बनाने पर कुछ चल रहा है....मुझे उस समय भी यह एक शगूफा दी लगा था, और अभी भी यही लग रहा है ...उस दिन के बाद कभी यह कहीं भी मीडिया में नहीं दिखा....

आज वाट्सएप के कारण मेरी १९७३ के दिनों के अपने स्कूल से साथियों से बात हुई है ..मैं बहुत खुश हूं...इसलिए स्कूल के एक दौर की याद साझी करनी पड़ेगी...१९७५ के दिनों में शोले फिल्म आई...साईंस के मास्टर साहब..श्री ओ पी कैले जी ..working of call bell ...समझा रहे थे...फिर रटने के लिए कह रहे थे...और क्लास के पास ही किसी घर में लगे किसी लाउड-स्पीकर से शोले फिल्म का यह गीत बज रहा था...मेरा ध्यान उधर ज़्यादा था....मास्टर लोग सब कुछ ताड़ तो लेते ही हैं..मुझे बाहर बुलाकर एक करारा सा कंटाप जड़ दिया....उन का हाथ भी धर्मेन्द्र के हाथ जैसा ही भारी था...लेिकन फिर भी मुझे सारी आठवीं में call bell की प्रणाली समझ नहीं आई...शायद मैंने समझने की कोशिश भी नहीं की, मन ही नहीं लगता था इन बोरिंग सी बातों में....आगे 9th क्लास से ढंग से साईंस को पढ़ना शुरू किया तो इस मोटी बुद्धि को कुछ कुछ पल्ले पड़ने लगा... बहरहाल, वह गीत तो सुिनए जिस ने मेरे गाल को बिना वजह लाल करवा दिया....



फकीरा चल चला चल...हिम्मत न हार !

पिछले कुछ दिनों से लखनऊ में बहुत ज़्यादा गर्मी, चिलकन थी...रात में बरसात हुई इस का पता चला सुबह जब वॉश-बेसन खोला तो ठंडा पानी आया...वरना तो उबलता पानी आता था...यही लगा कि रात में बारिश हुई होगी...बाहर देखा तो पक्का हो गया...बहुत दिनों बाद मौसम खुखगवार हो गया है ...

टी वी लगाया तो मूवीज़ ओ के फकीरा पिक्चर शुरू हुई थी..अभी भी चल रही है ...यह पिक्चर आज से ठीक ४० साल पहले १९७६ में मैंने अमृतसर के एक थियेटर में देखी थी...अपने दीदी और जीजा के साथ...समय भी कैसे उड़ जाता है ..पता ही नहीं चलता...४० साल का समय कितना लंबा होता है ...कल की बात लगती  है ...मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता है उन दिनों...
अभी यह गाना चल रहा है ..

हिंदी फिल्मों को देखने का सब से बड़ा फायदा यही होता है कि दिमाग पर ज़ोर देने की ज़रा भी ज़रूरत ही नहीं पड़ती...सब कुछ चुपचाप मानते हुए फिल्म देखेंगे तो कोई भी हिंदी फिल्म अच्छी ही लगेगी..

जैसे कि मैंने भी मान लिया कि समुद्र में गिरने के बाद कोई आदमी योग के बल पर ३० मिनट तक अपनी सांसें रोक कर ज़िंदा रह सकता है ...यही किया था शशि कपूर ने ..डैनी ने शशि कपूर के साथ एक सीमेंट का बोरा बांध कर समुद्र में फैंक दिया..घर जाकर पता चला कि वह तो उस का बचपन का बिछड़ा हुआ भाई था...वापिस भागा उसे समुद्र से निकालने...दोस्त ने बताया कि वह ३० मिनट तक सांसें रोक सकता है, योग करता है ...ठीक ३०वें मिनट पर उसे समुद्र से बाहर निकाल लिया जाता है ...पानी की एक भी बूंद उस के नाक और मुंह से नहीं निकलती....गजब हो गया!😊😊😊😊

चालीस साल पहले फिल्म देखी तो इस तरफ़ ध्यान ही नहीं दिया...लेिकन अब बाबा राम देव को सुन सुन कर योग कुछ कुछ समझ में आ रहा है ..उस ज़माने में रामदेव होते तो इस ३० मिनट तक सांसे रोके रखने के खेल पर ज़रूर कुछ कहते ...

बहरहाल, मुझे इस फिल्म का यह गीत अभी भी सुनना अच्छा लगता है ...

अभी यह कव्वाली शुरू हुई है....इसे मैने वर्षों से नहीं सुना...याद नहीं आ रहा था ...अच्छा, हम तो झुक कर सलाम करते हैं ...आप भी सुनिए...another master piece! अभी मदन पुरी की टाई देख कर यही ध्यान आया कि ये कमबख्त विलेन भी इतने घिनौने काम भी कितने कायदे से करते थे...एक तो मुझे विलेन की टाई और दूसरा किसी शादी ब्याह में दूल्हे के रिश्तेदारों द्वारा पहनी टाईयां (कुछ ने तो पहली बार उसी दिन पहनी होती है) बहुत अजीब लगती हैं...विशेषकर जब वे दारू से टुन्न हो कर स्टेज़ पर नर्तकियों के साथ बेहूदा ठुमके लगा लगा के वहीं लुढ़के पड़े होते हैं...

शनिवार, 14 मई 2016

यह संविधान कथा का क्या माजरा है?


मैंने भी श्री राम कथा, गरूड़ पुराण कथा, भागवत कथा के बारे में तो सुन रखा है ...लेकिन यह संविधान कथा की बात आज पहली बार सुनने को मिली..

कोई भी काम की शुरूआत राम जी के नाम से करनी चाहिए...परसों शाम हम लोग ऐसे ही टहलने निकले तो दूर कहीं से किसी कथा की आवाज़ आ रही थी..हम उस आवाज़ को ढूंढने हुए एक पंडाल में पहुंच गये जहां पर श्रीराम कथा चल रही थी...वहां पर बैठे आधा घंटा के करीब...कोई ज़रूरी फोन आया, वहां से निकलना था..उस कथा के पंडाल से बाहर निकलते हुए गेट पर एक कार वाले ने अपनी कार रोकी और पूछने लगा कि राम जी का जन्म हो गया?...मैं उस का प्रश्न समझा नहीं....उसने फिर से दोहराया राम जी का जन्म करवा दिया गया है क्या?....मुझे समझ में आ गया कि श्री राम कथा के कईं अंग होते होंगे ...यह उन में से ही किसी के बारे में पूछ रहा होगा..

लेकिन प्रश्न समझ आए को क्या करता, अगर उस का जवाब ही नहीं पता था...मैं अंदर आधा घंटा बैठ कर आया था और मुझे इतने अहम् प्रश्न के बारे में जानकारी न थी, इस का मतलब साफ़ है कि मेरा ध्यान कितना कथा में था, और कितना और कहीं! बहरहाल, उस बंदे की आतुरता भांपते हुए मैंने पास खड़ी अपनी मां से पूछा कि राम जी का जन्म हो गया है क्या?...वह भी इस पर्चे में फेल हो गईं। 

खैर, मैंने उस बंदे से माफ़ी मांग ली कि आप स्वयं अंदर जा कर देख लीजिए....लेिकन सच बताऊं मुझे उस समय बहुत लज्जा आई ...यही सोच कर कि अगर मेरा ध्यान इतना भी कथा की तरफ़ नहीं था तो मैं अंदर बैठा कर क्या रहा था! ...it was a moment for introspection!



हां, एक बात तो शेयर करनी भूल ही गया...श्री राम कथा के दौरान मैंने देखा कि जब कथा चल रही थी तो और आचार्य जी कोई श्लोक सुनाने लगते तो मेरे आगे बैठे सज्जन पता नहीं किस डिवाईस पर साथ साथ श्लोक वहां से पढ़ रहे थे ..मुझे लगा कि वे आई-पैड है..क्योंकि श्रीमति जी अकसर आई-पैड पर ही अपना काम करती हैं, फिर ध्यान आया कि शायद किंडल होगा या कोई टेबलेट....पता नहीं... 

श्री राम कथा की सच्चाई ब्यां करने के बाद आप को संविधान कथा के बारे में कुछ बताना चाहता हूं...मैंने आज पेपर में देखा कि एक रिटायर्ड इंकम टैक्स कमिश्नर पांडेय जी गांव गांव जा कर संविधान कथा बाचते हैं तो मुझे इतनी खुशी हुई कि मैं पेपर को वहीं कुर्सी पर रख कर यह पोस्ट लिखने बैठ गया...आप स्वयं पढ़ लीजिए...अगर क्लियर पढ़ना हो तो इस तस्वीर पर क्लिक कर के पढ़िएगा...


अकसर बस-अड्डों आदि पर इंग्लिश सीखने के कायदे, जर्नल नालेज की छोटी छोटी किताबें, पैनों के पैकेट में खरीदता रहा हूं ...उन बेचने वालों की बातों में दम ही इतना होता है कि आदमी कहता है कि यार, दस बीस रूपये खर्च कर इन किताबों पैनों को तो खरीद ही लेते हैं, कभी काम ही आएंगे...फिर मैं अकसर इन किताबों को आगे बांट दिया करता था...एक किताब अभी ढूंढी तो मिल गई...यह पक्का होता है कि मैं इन किताबों को कभी पढ़ता नहीं हूं...टाइम ही किस के पास है!...जैसे और किताबें बुक-शेल्फों पर इंतज़ार करती रहती हैं, यह भी उन के साथ पड़ी रहती हैं...

बुक-शेल्फ से इसे निकाल रहा था तो मुझे अचानक ध्यान आ गया ...कि तीन साल पहले जब हम लोग यहां लखनऊ में आये तो एक दिन बड़े डाकखाने के बाहर एक रिक्शे से लाउड-स्पीकर से कुछ आवाज़ें आ रही थीं, एक बंदा ये किताबें बेच रहा था जिस में तरह तरह के कानूनों के बारे में जानकारी थी, मान िलया किताब में जानकारी तो थी ही, लेिकन भीड़ जुटने का कारण उस का अंदाज़े-ब्यां था....इस किताब के कसीदे वह इस अंदाज़ में पढ़ रहा था कि राहगीर को यही लगता था कि यह किताब जैसे तुरंत उस का राशन-कार्ड बनवा देगी, आरटीआई से वह किस तरह से दुनिया बदल देगा...२५ रूपये की किताब...और खरीददार को जिस अंदाज़ में वह तरह तरह के हेल्पलाइन नंबर तुरंत उसी समय लिख कर दे रहा था जैसे कि हर कापी पर कोई नामचीन लेखक अपने आटोग्राफ दे रहा हो... जी हां, मैंने भी खरीदी थी एक कापी...लोगों की उत्सुकता देखते बन रही थी और इसे भुनाने वह विक्रेता अच्छे से जानता था...वैसे इस किताब में आम आदमी के हिसाब से बहुत सी जानकारी है ..और पैसे भी बिल्कुल कम ....हम जैसों के पास तो और भी विकल्प हैं, नेट, न्यूज़-पेपर हैं, लेिकन बहुत से लोगों के लिए इस तरह की किताब बहुत सी स्कीमों के किवाड़ खोल देने का काम करती हैं, निःसंदेह...



निःसंदेह से ध्यान आया...निःस्वार्थ...जैसा कि वह बंदा संविधान कथा वाचक कर रहा है...मुझे लगता है कि मैं भी रिटायर होने के बाद कुछ न कुछ ऐसा ही करूंगा...तंबाकू-गुटखा छुड़ाने से संबंधित....मैं अकसर लोगों को कहता हूं हम लोग ३०-४०-५० साल अपने अपने प्रोफैशन में घिस जाते हैं...इतना ज्ञान होता है लेकिन वह आम आदमी तक बहुत कम पहुंच पाता है ...अभी मैं अपने स्कूल से एक मित्र से बात कर रहा था ...डा साहब पैथोलॉजी मेें एम.डी हैं और मैडीकल कालेज में पढ़ाते हैं....ब्लड-बैंक के बारे में कुछ बातें कर रहे थे तो मुझे उन दस-पंद्रह मिनट के दौरान यही लग रहा था कि इस तरह की जनोपयोगी बातें आम जनता तक उन की ही भाषा में भी पहुंचनी चाहिए....ठीक है, सरकारें अभियान चलाती हैं, रेडियो-टीवी पर भी बातें होती हैं ..इन सब के साथ मुझे ऐसा लगता है कि हर बंदा किसी न किसी काम का विशेषज्ञ है, उस के पास ऐसा ज्ञान है जिसे समाज को ज़रूरत है ...इसलिए इन में सो जो भी सक्षम हों, उन्हें अपने अनुभव, अपनी सीख बिल्कुल खुलेपन से लिख कर लोगों तक पहुंचानी चाहिए....

यकीन मानिए, बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जिन्हें हम तुच्छ समझते हैं ..और सोचते हैं कि इस में शेयर करने जैसा है क्या, लेकिन बहुत से लोगों के लिए वह बड़े काम की बात होती है और उन्हें पहले से इस का इल्म भी नहीं होता...

कहना क्या है, सुबह सुबह क्या लेकर बैठ गया मैं भी ...मैसेज केवल इतना है कि संविधान कथा बढ़िया है, श्री राम कथा भी मुबारक है ..साथ ही साथ दुनिया में बैठे धुरंधर विशेषज्ञ कुछ इस तरह की भी कथाएं कहें ....मानव शरीर की कथा, म्यूनिसिपैलिटि की कथा, बैंकों की कथा, शेयर बाज़ार कथा......भवन निर्माण कथा....लिस्ट को आप जितना लंबा करना चाहें, लेकिन शुरूआत तो करिए...अपनी कहानी कहिए तो ....सुनाईए...लोग आतुर हैं...उन्हें आप के अनुभव से बहुत कुछ सीखना है ...जब आप अपने अनुभव को कथाओं के रूप में कहेंगे तो संपेष्णीयता को चार चांद लग जाएंगे...यकीनन...मैं तो ऐसा कुछ करने वाला हूं ...कुछ तो कर ही रहा हूं...भविष्य के लिए भी कुछ योजनाएं हैं...आमीन!!

बातें कुछ मुश्किल नहीं है, हम ने स्वयं कर रखी हैं, शायद अपने स्वार्थ की वजह से...कोई राकेट साईंस नहीं है, बस ज्योत से ज्योत जगाने वाली बात है ...सिंपल....

शुक्रवार, 13 मई 2016

आइए, मकानों को सुंदर बनाएं!

मकानों को घर बनाने वाला टापिक तो बिल्कुल अलग ही है..प्रवचन टाइप में है...उस के बारे में तो आप सब बहुत कुछ पहले ही से जानते हैं...आज मैं सुबह साईकिल पर घूमने निकला तो अचानक मुझे ध्यान अपने बचपन के दिनों का ..हम लोग स्कूल से आते वक्त एक फौजी अफसर की कोठी के बाहर एक तख्ती देखा करते थे..लिखा रहता था..कुत्ते से सावधान...इंगलिश में भी लिखा रहता था..Beware of dog!

इस घर के आस पास न तो कोई पेड़-पौधे ही थे...बिल्कुल गमगीन सा मकान दिखा करता था..हमें भी इस मकान के आगे से निकलते समय एक अजीब सी उलझन हुआ करती थी...ऐसे लगता था कि झट से इसे पार करें और आगे सरकें...गेट बंद रहता था और उस के आगे कंटीली तार वाली दीवार भी थी..फिर भी लगता था कि आज तो कोई कुत्ता पकड़ ही लेगा...

मैं बहुत बार इस के बारे में सोचता हूं कि मकान कैसे सुंदर बन सकते हैं..क्या हज़ारों रूपयों की महंगी पेन्टिंग्स आर्ट गैलरी से लाकर टांग देने से, वास्तु शास्त्र के अनुसार घर के अंदर वाले हिस्से की लैंड-स्केपिंग करवाने से...या महंगे महंगे पत्थर-संगमरमर मकान पर चिपकाने से ....मुझे नहीं लगता कि किसी भी मकान की सुंदरता किसी भी तरह से मोरंग, रेता, ईंटों की मोहताज है ...हो ही नहीं सकती ...

कईं बार आपने देखा होगा कि आप कहीं से गुज़र रहे हेैं तो अचानक कोई मकान आप को बहुत अच्छा लगता था...चाहे वह कच्चा ही होता है..कईं बार...लेकिन हम तो यहां बस अच्छा लगने की बात कर रहे हैं...उस मकान में अगली बार नोटिस करियेगा कि निम्नलिखित विशेषताओं में से कोई न कोई तो ज़रूर मिल जाएंगी..

उस घर के आस पास और अंदर आंगन में खूब बड़े बड़े पुराने पेड़ होंगे....हां, एक बात कह दूं बिना पड़ताल के ही ...अकसर ऐसे मकान घर भी अच्छे हुआ करते हैं। 

इन घरों के कुछ पेड़ों पर पंक्षियों के घोंसलों से उन के चहचहाने की आवाज़ें भी आ रही होती हैं अकसर..

अपने लिए पानी की सप्लाई कितनी है कितनी नहीं, इस के बावजूद घर के बाहर जानवरों के लिए पानी के लिए एक हौज़ सा होगा, वरना बड़ा सा पत्थर का कोई जुगाड़ जिस में पानी इक्ट्ठा किया जा सके..



पंक्षियों के लिए पानी पीने के लिए कुछ बर्तन घर की दीवार पर पड़े मिलेंगे...

मैं बहुत बार नोटिस करता हूं कि किसी रास्ते पर जाते हुए जब किसी मकान के बाहर आप कोई घना पेड़ देखते हैं तो अचानक आप को लगता है कि यार, यह घर कितना सुंदर है...आने जाने वाले राही को ठंडक तो देते ही हैं ...बेशक...

अकसर ऐसे घरों के बाहर दो तीन पानी के मटके लाल कपड़े में िलपटे भी मिल जाएंगे...राही को बुला रहे हों जैसे कि पथिक, आओ, इस शिखर दोपहरी में पेड़ की छाया में थोड़ा सुस्ता लो, पानी पिओ...फिर आगे बढ़ो। 

मेरी यह परिभाषा है सुंदर मकान की....जैसा कि मैंने कहा और पूरे विश्वास से साथ कह रहा हूं कि अकसर इस तरह के सुंदर मकान बेहद सुंदर घर भी होते हैं....मतलब आप समझ रहे हैं...सब अच्छे संस्कारों और कोमल भावनाओं का खेल है, और कुछ नहीं!

जाते जाते एक बात ध्यान में आ गई...कुछ िदन पहले मैं सुबह साईकिल पर टहलने निकला...एक आलीशान मकान के गेट के पास एक रईस दिखने वाली महिला कुर्सी पर बैठ कर अपनी बेड-टी का आनंद ले रही थी ..साथ में शायद अखबार पढ़ा जा रहा था ...और पास ही गेट के पास एक बड़े सुंदर पिंजड़े में एक तोताराम जी चुपचाप सहमे हुए बैठे थे...मुझे उस दिन यही लगा कि जिस तरह से तुम अपनी आज़ादी का मजा ले रही हो, ऐसे में क्यों इस बेचारे को पिंजड़े में कैद कर रखा है ...अचानक वह मकान कुरूप दिखने लगा...

यहां भी मिट्ठू मियां को पिंजड़ें में बंद करने की बातें चल रही हैं...बहुत बरसों बाद इस का ध्यान आया..सोचा फिर से देख ही लिया जाए..फिल्म चरणों की सौगंध...

लेकिन जिन सुंदर मकानों की बात मैं कर रहा हूं उन में अकसर पिंजड़े नहीं हुआ करते, तरह तरह के पंक्षी, तोते-मैना सभी खुशी खुशी आते हैं ....मकान वालों को अपना हाल चाल ब्यां करते हैं, दाना खाते हैं, पानी पीते हैं और फुर्र....ये गये वो गये....अगले दिन फिर से सुबह वापिस लौट कर आने के लिए....यही प्रेम का असली रिश्ता है...

इस मकान को किराये पर लेने की बड़ी तमन्ना थी...लेकिन हो नहीं पाया!
आज सुबह टहलते मुझे यह मकान भी दिख गया जिसे हम लोग किराये पर लेना चाहते थे ..लेकिन यह संभव नहीं हो पाया...इस मकान को आप देखिए पेड़ों ने हर तरफ़ से घेर रखा है ...मुझे एक रिटायर्ड चिकित्सा महानिदेशक की बात याद आ गई ..किसी से सुनी थी एक बार...वह कहा करते थे कि अस्पतालों के आसपास और उन के आंगन में पेड़ों के इस तरह के झुरमुट होने चाहिए ...हरियाली इतनी होनी चाहिए कि दूर से अस्पताल दिखे ही नहीं....कितनी सुंदर बात ...कितनी संवेदना....अगर इस तरह का वातावरण रहेगा तो मरीज़ को स्वास्थ्य लाभ भी कितनी जल्दी मिलेगा! 

कुछ लोगों के लिए पेड़ जैसे आफ़त हों...हम लोग एक घर में रहते थे ...हम ने उस में बहुत से पेड़ लगवाए...आठ दस साल में बड़े हो गये....उन से हम सब को इतनी मोहब्बत कि श्रीमति को उन की छंटाई भी बच्चों के स्कूल के समय ही करवानी पड़ती ...बच्चे फिर भी स्कूल से आने पर नाराज़ हो जाते...लेिकन जब हमारा तबादला हुआ तो जिस बंदे को वह मकान अलाट हुआ, सुना है उसने पहला काम यही किया कि सभी पेड़ जड़ से उखड़वा फिंकवा किए....हमें उस दिन बहुत दुःख हुआ.. क्या करें यार, लोग समझने को तैयार ही नहीं है, फिर कहते हैं कि अब कूलर से कुछ नहीं होता, ए.सी भी काम करते नहीं दिखते.......साहब, अगर यही हालात रहे तो आगे आगे देखिए होता है क्या!

हमारे मकान (घर?) का एक कोना मेरा भी है ...हा हा हा हा ...हम मकानों की सुंदरता पर चर्चा कर रहे हैं और इस रेडवे पर इस party song में अपनी मस्ती में मस्त किसी लड़की ब्यूटीफुल के चुल कर जाने की बात सुनाई दे रही है...इन की भी सुन लीजिए...

आज सुबह के लिए इतनी बकबक ही काफ़ी है, चुपचाप आप भी नाश्ता करिए और अपने काम धंधे की फ़िक्र करिए...मिलते हैं जल्दी ही फिर से...