सोमवार, 5 सितंबर 2016

टीचर जी, मेरे बच्चे को यह सब जरूर सिखाना


आज कल मैं इस ब्लॉग पर चिट्ठी-पत्री की ही बातें कर रहा हूं...

कुछ चिट्ठीयां ऐसी भी होती थीं जिन्हें हम लोग सहेज कर रख लिया करते थे ..बार बार पढ़ने के लिए...


इस बात का ध्यान मुझे कल आया जब मुझे ध्यान आया कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ने एक चिट्ठी अपने बेटे के स्कूल प्रिंसीपल को लिखी थी। लिंकन ने इसमें वे तमाम बातें लिखी थीं, जो वह जिंदगी में बेटे को सिखाना और समझाना चाहते थे...

चलिए, आज अध्यापक दिवस के अवसर पर उस चिट्ठी को ही फिर से पढ़ लेते हैं...ऊबने का तो प्रश्न ही नहीं....

सम्माननीय महोदय,  
मैं जानता हूं  कि इस दुनिया में सारे लोग अच्छे और सच्चे नहीं हैं। यह बात मेरे बेटे को भी सीखना होगी। पर मैं चाहता हूं कि आप उसे यह बताएं कि हर बुरे आदमी के पास भी अच्छा दिल होता है। हर स्वार्थी नेता के अंदर अच्छा लीडर बनने की क्षमता होती है। मैं चाहता हूं कि आप उसे सिखाएं कि हर दुश्मन के अंदर एक दोस्त बनने की संभावना भी होती है।  
ये बातें सीखने में उसे समय लगेगा, मैं जानता हूं। पर आप उसे सिखाइए कि मेहनत से कमाया १ रुपया, सड़क पर मिलने वाले ५ रुपये के नोट से ज़्यादा कीमती होता है।  
आप उसे बताइएगा कि दूसरों से जलन की भावना अपने मन में ना लाए। साथ ही यह भी कि खुलकर हंसते हुए भी शालीनता बरतना कितना जरूरी है। मुझे उम्मीद है कि आप उसे बता पाएंगे कि दूसरों को धमकाना और डराना कोई अच्छी बात नहीं है. यह काम करने से उसे दूर रहना चाहिए।  
आप उसे किताबें पढ़ने के लिए तो कहना ही, पर साथ में उसे आकाश में उड़ते पक्षियों को, धूप में हरे-भरे मैदानों में खिले-फूलों पर मंडराती तितलियों को निहारने की याद भी दिलाते रहना। मैं समझता हूं कि ये बातें उसके लिए ज्यादा काम की हैं।  
मैं मानता हूं कि स्कूल के दिनों में ही उसे यह बात भी सीखना होगी कि नकल करके पास होने से फेल होना अच्छा है। किसी बात पर चाहे दूसरे उसे गलत कहें, पर अपनी सच्ची बात पर कायम रहने का हुनर उसमें होना चाहिए। दयालु लोगों के साथ नम्रता से पेश आना चाहिए। दूसरों की सारी बातें सुनने के बाद उसमें से काम की चीजों का चुनाव उसे इन्हीं दिनों में सीखना होगा।  
आप उसे बताना मल भूलना कि उदासी को किस तरह से खुशी में बदला जा सकता है। और उसे यह भी बताना कि जब कभी रोने का मन करे तो रोने में शर्म बिल्कुल महसूस न करे। मेरा सोचना है कि उसे खुद पर विश्वास होना चाहिए और दूसरों पर भी। तभी तो वह एक अच्छा इंसान बन पाएगा।  
ये बातें बड़ी हैं और लंबी भी। पर आप इनमें से जितना भी उसे बता पाएं, उतना उसके लिए अच्छा होगा। फिर अभी मेरा बेटा बहुत छोटा है और बहुत प्यारा भी।  
आपका
अब्राहम लिंकन 
चिट्ठीयां हमारे पेरेन्ट्स ने भी लिखीं हमारे टीचर्ज़ को और हम ने भी लिखीं अपने बच्चों के अध्यापकों को ...कुछ याद आ रहा है। पहले आज सुबह की सैर की कुछ तस्वीरें ....

अद्भुत प्रकृति का वरदान 
प्रकृति के रहस्य की बंद पोटली ..
अगले पेड़ में यह अद्भुत पिटारा खुला मिला ..
डीएवी स्कूल अमृतसर के दिनों की बात है ..छठी कक्षा में था ...गणित विशेषकर बीजगणित समझ नहीं आ रहा था...कुछ दिन बीत गए...एक दिन घर आ कर मैं रोने लगा ...अपने पिता जी को कारण बताया...उन्होंने उर्दू में एक चिट्ठी लिखी और मुझे उसे मास्टर जी को देने को कहा...उस दिन से ही मास्टर साहब ने मुझे ट्यूशन के लिए रोकना शुरू कर दिया...कुछ ही दिनों में मुझे सब कुछ समझ में आने लगा...कुछ महीने के लिए वह ट्यूशन चलती रही ...लेकिन एक बात मैंने जो आज से ४० साल पहले सीखी कि मेरे पिता जी हर महीने मेरी ट्यूशन की फीस एक सफेद लिफ़ाफे में मुझे देते थे मास्टर साहब को देने के लिए....मुझे यह बहुत अच्छा लगता था ...वरना खुले में उन्हें २५ रूपये महीना थमाना ऐसे लगता जैसे वह दुकानदार हैं और मैं ग्राहक ...छोटी छोटी बातें हमें छू जाती हैं कईं बार ...और मैंने भी इस प्रैक्टिस को अपने बच्चों की ट्यूशन में भी बरकरार रखा ...हर बार मासिक फीस आदर सहित एक सफेद लिफ़ाफे में रख कर ही भिजवाई....

लेकिन कुछ कुछ मस्ती भी की बच्चों के साथ...मेरी जिन बेवकूफियों पर वे आज भी ठहाका लगाते हैं कि देखो, बापू ने इंगलिश वाले क्लास टीचर को क्या लिख दिया था ...

तो हुआ यूं कि बड़ा बेटा सातवीं आठवीं कक्षा में था, फिरोज़ुपर पंजाब की बात है ...इंगलिश पढ़ाने वाले टीचर संधू साहब उस के क्लास टीचर भी थे....मुझे उसदिन क्या मजाक सूझा....बेटे ने होमवर्क नहीं किया था...और संधू साहब चांटे वांटे लगा दिया करते थे ...स्कूल जाने से पहले मुझे कहता है कि कुछ लिख दो पापा, बचा लो...मैंने कहा ..लाओ, यार, डायरी लाओ....लेकिन हिंदी में लिखूंगा...हंसने लगा ...कहने लगा ...चाहे, कैसे भी लिखो, लिख दो बस।

मैंने उस में लिख दिया.....
"महोदय, तबीयत ठीक न होने की वजह से बच्चा गृह-कार्य करने में असमर्थ रहा। कृपा क्षमा कीजिए।"

 उस दिन स्कूल से आया तो बहुत खुश...बच गया था पिटने से ...सारा घटनाक्रम सुना रहा था कि पापा, होमवर्क चैक करते समय मैंने आप का लिखा नोट संधू साहब के आगे कर दिया....जिसे पढ़ कर संधू साहब भी हंस पड़े और मुझे कहने लगा ...चल, सीट पर जा !

 पुरानी बातें हो गईं, नईं बात यह है कि जब कभी मैं शिक्षा मंत्री बन जाऊंगा चॉक एंड डस्टर जैसी फिल्में शिक्षक दिवस पर सभी स्कूलों में इस दिन दिखाए जाने का आदेश दिया करूंगा....बेहतरीन फिल्में...शिक्षकों की व्यक्तिगत पीड़ा और उन की दैनिक चुनौतियों को ब्यां करती इस तरह की फिल्में इन महान् अध्यापकों के प्रति हमारी सुप्त या उनींदी संवेदनाओं को झकझोड़ने का काम करती हैं निःसंदेह ....छोड़िए, शिक्षकों पर और प्रवचनबाजी सुनने और झाड़ने को अब यहीं छोडि़ेए...अगर अभी तक इस फिल्म को नही ं देखा तो आज कम से कम यही शुभ काम कर लीजिए..




रविवार, 4 सितंबर 2016

बैरंग ख़तों की दास्तां

आज मैं आप के साथ अपने बैरंग ख़तों की दास्तां शेयर करूंगा...मैंने लिखा था कल कि ख़तों के ज़माने की अपने पास बहुत सी यादें हैं...कल जब मेरी मां एक ऐसे ही लेख को बांच रही थीं तो मुझे अचानक हंसते हुए कहने लगी कि तुम तो सुवर्षा को भी कितने बैरंग ख़त लिखा करते थे...मुझे भी याद आ गया ...

एक दो बातें पहले स्पष्ट करने लायक हैं, एक तो सुलेख लिखना और दूसरा बैरंग ख़त...सुलेख लिखने से मतलब यह होता था कि हमें हिंदी, पंजाबी और इंगलिश पढ़ाने वाले टीचर ५५ दिन चलने वाली छुट्टियों के लिए एक काम होम-वर्क के अलावा यह भी थमा दिया करते थे कि हर रोज़ कापी में एक पेज़ सुलेख का लिखना है ...सुलेख का मतलब साफ़ साफ़ सुंदर लिखना अधिकतर हिंदी पंजाबी में इसे कलम से लिखना होता और इंगलिश वाले सुलेख के लिए निब लगे होल्डर का इस्तेमाल करना होता!

दूसरी बात, स्पष्ट यह करना चाहता हूं कि पंजाबी भाषी अधिकतर लोगों की हिंदी भाषा ठीक ठाक ही है ...बचपन से हम सुनते आ रहे हैं ..बरंग खत..लेकिन इस पोस्ट को लिखने से पहले मैंने सोचा कि कालिका प्रसाद के हिंदी कोष से देख तो लूं कि सही शब्द आखिर है क्या!.... बरंग तो कोई शब्द था ही नहीं, बेरंग भी देखा, वह भी नहीं दिखा ...फिर एक बार लगा कि यह उर्दू का शब्द ही होगा, उर्दू हिंदी शब्दकोष में देखता हूं...उस से पहले बैरंग शब्द मिल गया ...बैरंग का मतलब यह लिखा हुआ है ...चिट्ठी, पारसल आदि जिसका महसूल भेजनेवाले ने न चुकाया हो .. महसूल का मतलब यहां पर है जिस पर डाक-टिकट  विकट न लगाया गया हो...एक दूसरा अर्थ भी लिखा है इस में ...बिना काम हुए विफल लौटना....आपने भी सुना ही होगा कई ॆबार लोग बाग इस्तेमाल करते हैं इसे कि वह गया तो था फलां काम के लिए लेकिन उसे बैरंग लौटना पड़ा...

चलिए, हो गई व्याकरण की अच्छी अच्छी बातें ..लेकिन बोझिल सी ... अभी किस्से को हल्का किये देते हैं...तो जनाब हुआ यह कि हम उस समय पांचवी छठी कक्षा में रहे होंगे....सुलेख वुलेख ज़ोरों शोरों से चल रहा था ...खुराफ़़ात हुई कि अब इस से इंप्रेस किसे करें....सब से पहले शिकार के रूप में अपनी मौसी सुवर्षा का ध्यान आया ... खतो-किताबत का रिवाज़ बहुत बढ़िया था उन दिनों में ...लेकिन कौन जाए डाकखाने में पोस्टकार्ड लाए...फिर लौट कर पेटी में डालने जाए...मुझे पता नहीं किस ने मुझे यह रास्ता बताया या मेरी खुद की ही खुराफ़ात रही होगी कि मैंने कापी के एक पन्ने पर मौसी के नाम चिट्ठी लिखी .....जैसा कि आप इस तस्वीर में देख रहे हैं...



उसे इस तरह से फोल्ड किया ...
फिर से फोल्ड किया और तैयार हो गया पूरा खत...




अब कापी से एक पेज और फाड़ा और उस में इस खत को रख कर एक मुकम्मल लिफ़ाफा तैयार कर लिया...


सभी रिश्तेदारों के अते-पते-ठिकाने उस जमाने में घर के बच्चे बच्चे को याद हुआ करते थे...मुझे अभी भी बीसियों याद हैं...तो उस पर अपने मौसा जी का नाम पता लिखा और आते जाते गिरा दिया उस लाल डाकपेटी में ....


अरे यह क्या, कुछ ही दिनों में मौसी का जवाब आया कि प्रवीण का खत मिला .. बस, अपना हौंसला बुलंदी पर ....इतना आसान है यह सब, हम अपनी कापी के पन्ने पर कुछ भी लिखें, और वह मौसी के घर पहुंच जाता है ...बस, उस के बाद तो मैंने जैसे इन बैरंग ख़तों की झड़ी लगा दी...जब मन करना, मौसी को ऐसा ही बैरंग ख़त लिख कर पोस्ट-बॉक्स में फैंक आना....यह अच्छा खेल मिल गया था मुझे....

उस मौसी को ही टारगेट बनाया गया क्योंकि वह हमारी पढ़ाई लिखाई के बारे में अकसर पूछती रहती थीं, नंदन, चंदामामा आदि प्रतिकायें देखने के लिए भी कहा करती थीं...यही सोचा कि चलो इन्हें ही इंप्रेस करते हैं....वैसे एक आध बार नानी को भी कम टिकट जैसा कोई बैरंग खत चला गया होगा, लेकिन उन की परेशानियों का ध्यान आते ही कभी उन से इस तरह से तफरीह करने की इच्छा भी नहीं हुई।

हां, किस्सा अभी बाकी है ...इत्मीनान कीजिए...

उन दिनों डाक लिफाफा पच्चीस पैसे का होता था ...अब जिस तरह से मैं बैरंग ख़त भिजवाता था, उस पर मौसी को डाकटिकट का डबल भुगतान करना होता था ...याने के ५० पास...कुछ बार ऐसा ही चलता रहा, कुछ महीनों बाद जब मिले तो मौसी ने मज़ाक मज़ाक में समझाया .... तब तक मेरा शौक भी पूरा हो चुका था ....

लेकिन अब ध्यान यह ज़रूर आता है कि शायद उन दिनों डाकविभाग की कमाई के दो ही साधन थे ...एक तो इस तरह की बैरंग चिट्ठीयों से कमाई और दूसरा घर में रखे रेडियो की लाईसेंस फीस भी डाकखाने में हर साल कुछ पांच दस रूपये जमा करवानी पड़ती थी ...और उस की बाकायदा एक कापी भी बनी हुई थी ...

हां, बैरंग चिट्ठीयां सिर्फ इसी तरह से ही न जाया करतीं....दरअसल उन दिनों सत्तर अस्सी के दशक में इन ख़तों के दाम कभी कभी पांच दस पैसे बढ़ जाया करते थे ... फिर अगर पुराने लिफाफे पर बड़ी हुई दर के बराबर की पांच पैसे की टिकट नहीं लगाई और उसे ऐसे ही पोस्ट-बॉक्स में ठेल दिया तो भी उस चिट्ठी पाने वाले को उस का दोगुना भुगतान करना पड़ता था..थे कि नहीं कड़े कानून!

आज कल जिस तरह से डाकिये ने स्पीड-पोस्ट की चिट्ठीयों की डिलीवरी की लिस्ट पकड़ी होती है उन दिनों वह बैरंग चिट्ठीयों को एक अलग पैकेट और वसूली जाने वाली रकम (जो हमेशा एक रूपये से कम ही हुआ करती थी...) की लिस्ट थामे रहता था ...एक तरह से आप समझ लीजिए कि आपने बैरंग चिट्ठी न डाल दी बल्कि एक रजिस्टरी ही करवा दी हो ...क्योंकि डाकिये की जान तभी छूटती थी जब वह छुट्टे पैसे लेकर पोस्टआफिस में जमा करवा देता था...

बैरंग चिट्ठीयां आती थीं हमारे यहां भी ...हर घर में आती थीं कभी न कभी..लेकिन कमबख्त उस समय बिल्कलु मातम सा छा जाता  था ...हमारी एक पड़ोसन तो कईं बार बच्चों से कहलवा देती ... "असीं नहीं लैनी चिट्ठी, लै जा अपने नाल ही ...जा जा के कह दे डाकिये नूं." (हमें नहीं लेनी चिट्ठी, डाकिये को कह दो जा कर कि ले जाए अपने साथ ही वापिस उस बैरंग चिट्ठी को !)

 लेकिन इस तरह के दृश्य कम ही दिखते थे ..लोग मन ममोस कर, कोसते हुए कैेसे भी उस बैरंग चिट्ठी को डाकिये को भुगतान कर के ले ही लिया करते थे.......वरना डाकिया इस का बुरा मान जाता था और साफ़ धमकी भी दे जाया करता था कि आगे से भी चिट्ठीयां तो आप की और भी आयेंगी ही। संदेश साफ होता था ..अब कौन उस ज़माने के डाकिये से पंगा लेता!

 मुझे कईं बार यह भी ध्यान आता है कि घरों में चिट्ठीयो ंका स्टाक करने की भी कोई प्रथा भी थी नहीं...हर बार ज़रूरत पड़ने पर ही दो पोस्टकार्ड और एक अंतरदेशीय लिफाफा लाया जाता था, कईं बार उस के लिए भी दो चक्कर लग जाया करते थे ...कि खतों का स्टॉक खत्म हो गया है ....

पोस्ट-ऑफिस से खत लाना, लिखना और वापिस उसे लाल डिब्बे के हवाले कर के आना एक पूरी प्रक्रिया थी ...लेकिन फिर भी अच्छे दिन थे...आप का क्या ख्याल है?

अभी भी बहुत बार डाकखाने में कंप्यूटर चल नहीं रहे होते जब स्पीड-पोस्ट करवाने जाते हैं, कभी नेटवर्क नहीं होता, कभी किसी और काम में बाबू व्यस्त होता है तो झुंझला के मना कर देता है .....इसलिए अभी बैरंग ख़तों की इतनी पुरानी यादें ताज़ा करने के बाद मुझे एक आइडिया आया है जिसे मैं आप से शेयर नहीं करना चाहता....

अहम् पर तो चर्बी और भी ज़्यादा जमी होती है...

जी हां, चर्बी सिर्फ़ शरीर पर ही जमा नहीं होती ...मैं ऐसा समझता हूं कि इस की कईं मोटी परतें तो हमारे अहम् पर भी जमा होती हैं...

सुबह शाम कैसे हम लोग शरीर वाली चर्बी को कम करने के लिए टहलने निकल जाते हैं..पता नहीं वह भी कितनी कम होती है या नहीं ..जब तक हम लोग अपनी खाने-पीने की आदतें नहीं सुधार लेते ... लेकिन अहम् वाली चर्बी का फिर भी कुछ हो नहीं पाता सामान्य दिनचर्या के दौरान...

चलिए मैं क्यों हम हम की रट लगा रहा हूं...शायद इसलिए कि भीड़ के लिए लिखना सुरक्षित लगता है...जी हां, अकसर ऐसा होता है कि हम लोग सामने वाले को कुछ नहीं समझते ...हमें हमारे रुतबे, पैसे और कभी कभी सेहत का घुमान तो होता ही है ..कुर्सी का भी ...जितनी बडी़ कुर्सी उतना ही हम उड़ते रहते हैं...अधिकतर ...किसी से सीधे मुंह बात न करना, पहले सामने वाले का उस की वेश-भूषा, उस के रहन सहन, उस की बोलचाल, स्टेट्स का आंकलन करना ...फिर उसी हिसाब-किताब से उस के साथ बात करना ...कितना कठिन काम है न यह!

आज मुझे बाग में टहलते हुए इस बात का ध्यान आया कि हम लोग बाग में शारीरिक रूप से सेहतमंद होने तो आते हैं लेकिन अगर ध्यान से प्रकृति की विशालता, उस की अद्भुत रचनाओं को निहारें तो हमारा अहम् जो हमारे सिर पर चढ़ा रहता है, वह भी अपने आप थोड़ा बहुत तो घुल ही जाता है ... निःसंदेह...

आज के प्रातःकाल के भ्रमण की कुछ तस्वीरें यहां लगा रहा हूं ...हरेक कारण है इन में जिन से हमें अपनी तुच्छता का अहसास होता है ...आधा घंटा इन बागों में टहलने के बाद जब बाहर आते हैं तो उस हल्केपन में हमारी "मैं"भी हल्की तो पड़ ही जाती है
...

लेेकिन इतनी खुराक एक दिन के लिए ठीक है ..अगले दिन के लिए फिर से प्रकृति का सान्निध्य ज़रूरी होता है ..





इस पोस्ट के लिए मुझे इतने फिल्मी गीत ध्यान में आ रहे हैं कि यह दूरदर्शन पर रविवार की सुबह दिखाई जाने वाली रंगोली ही न लगने लगे ..



इस फोटो की बाईं तरफ दिखने वाली तितली की फोटो खींचने के लिए मुझे बड़ा धैर्य रखना पड़ा....मुझे तो यह गीत याद आ गया...

  आज वनस्थली पार्क में योग कक्षा की पहली वर्षगांठ मनाई जा रही थी..पांच मिनट वहां भी बैठने का सुअवसर मिला....  
मनाली के पास २००७ में ...वे भी क्या दिन थे! अभी ढूंढ कुछ और रहा था तो यह दिख गई... 

मीडिया डीटॉक्सिफिकेशन भी कभी कभी होनी ही चाहिए...


कुछ दिन पहले यह मैसेज कहीं से घूमता-फिरता मेरे तक पहुंचा और मुझे मीडिया डीटॉक्सीफिकेशन का ध्यान आया...बच्चे जब छोटे थे और टीवी के सामने से उठने का नाम नहीं लेते थे तो हम ने इन्हें टीवी से दूर रखने के लिए मीडिया के इस विष को कम करने के लिए एक लकड़ी की छोटी सी डिब्बी ली...जिस में एक छोटा सा ताला लग जाता था....और उस में एक इस तरह की झिर्री रखवा ली जिस से टीवी के प्लग को अंदर उस में रख दें तो वह अपने आप बिना ताला खोले बाहर नहीं निकल पाता था...

कितनी खतरनाक जुगाड़बाजी है न....हमें भी हर रोज टीवी के प्लग को उस के अंदर डाल कर ताला लगाते हुए बहुत हंसी आती थी...और बच्चों को हम से ज़्यादा हम की बेवकूफी पर आती थी...कुछ ज़्यादा चल नहीं पाया यह जुगाड़...बड़ा बोरिंग काम था पहले ताला लगाओ, फिर उसे खोलो ....कभी चाभी न मिले तो और आफ़त..

लेकिन उस दौर में यह डीटॉक्सीफिकेेशन ज़रूरी जान पड़ती थी जैसे कि आज कल अखबार न आने पर हो रहा है ...
कल मैंने लिखा था कि पिछले तीन दिन से अखबार नहीं आ रही ... आज चौथा दिन है...आज तो मैं बाज़ार भी घूम आया कि पता करूं कहीं से तो मिल जाए यह अखबार....लेेकिन कहीं नहीं मिली...लखनऊ भी विचित्र शहर है इस मामले में कि पिछले चार दिन से शहर में अखबार ही नहीं आ रहे...

शायद यंगस्टर्ज़ को इस से कुछ खास फ़र्क नहीं पड़ता...हम जैसे अधकचरे बड़ऊ लोगों को अधिक फर्क पड़ता है क्योंकि तकनीक होते हुए भी हमें ट्रेडीशन में ज़्यादा लुत्फ मिलता है ....कल ई-पेपर खोला भी ...लेकिन मन ही नहीं करता ..अगले ही पल उसे बंद कर दिया...वही अखबार के पन्नों को तोड़-मरोड़ना, उन पर कलम घिसना, उन से कुछ काट-छांट लेना, किसी खबर की फोटू खींचना...ये सब खेल तो हम अखबार से ही कर सकते हैं...

बहरहाल, उन अखबार वाले हाकर्ज़ के साथ पूरी सहानुभूति और समर्थन जताते हुए मैं यह कहना चाहूंगा कि अखबार न आने से अच्छा भी लग रहा है ...सुबह इतना खाली समय होता है ...कुछ भी आलतू-फालतू पढ़ने का झंझट नहीं ...पहले एक दो दिन तो ऐसे लगा कि पता नहीं कहां गई सारी खबरें लेकिन अब महसूस भी नहीं होता...चाहे अगले दस पंद्रह दिन न आएं अखबारें...
अखबारों की कमाई के बारे में मैं जानता हूं कि इन्हें विज्ञापनों आदि से इतनी कमाई होती है कि ये चाहें तो अखबारें मुफ्त भी लोगों को बांटी जा सकती हैं...लेकिन वही बात है जो चीज़ मुफ्त मिलती है, उसे लोग गंभीरता से नहीं लेते ...रास्ते में मिलने वाले पेम्फलेट को लोग चंद कदमों पर गिरा देते हैं और दो तीन रूपये में लोकल बस में खरीदे अकबर-बीरबल के चुटकुले सहेज कर रखते हैं... 

हां, तो मैं कहना यही चाहता हूं कि इस भौतिकवाद की अंधाधुंध दौड़ में हम हर जगह अच्छे से हज़ामत करवा लेते हैं...हाटेल, रेस्टरां, सर्विस स्टेशन....शापिंग माल ....३९० की दाल मक्खनी की प्लेट लेना भी मंजूर है ...लेकिन इन छोटे छोटे काम धंधे वालों की कोई खोज-खबर नहीं करता....उन्हें फिर अपने हक के लिए इस तरह के हथकंडे अपनाने पड़ते हैं तो इसमें बुराई ही क्या है! 

अखबार इतने दिनों से नहीं आ रहे ....इतने दबावों के बावजूद भी ये मेहतनकश लोग डटे हुए हैं....मुझे भी लगता है कि इन की जो भी वाजिब मांगें हैं वे मान ही लेनी चाहिए...पता नहीं फिर कभी यह हड़ताल इतनी लंबी चल पाए या नहीं...देखिएगा... 

वैसे मैं थोड़ा अपनी अखबार पढ़ने की आदत के बारे में भी बता दूं....बहुत पढ़ी अखबारें...पहले हम लोग पांच छः अखबारें लेते थे...हिंदी-पंजाबी-इंगलिश....कुछ पढ़ते थे कुछ बिना खोले रद्दी में रख देते थे ...उन दिनों मैं मॉस-कम्यूनिकेशन भी पढ़ रहा था ...मेरा प्रोजेक्ट भी कुछ ऐसा ही था ...कंटेंट एनेलेसिस के ऊपर ... बहरहाल, अब कुछ वर्षों से थोड़ी शांति है ...लेेकिन अभी भी मैं अखबार तो सुबह ही ३०-४० मिनट मेें जितनी देख पाऊं, उतनी ही पढ़ पाता हूं....कुछ कॉलम मुझे पढ़ने होते हैं, कुछ लेखों की कटिंग रखनी होती है ...लेकिन कुछ नहीं कर पाता सारा दिन ....जैसे ही अखबार लेकर दोपहर में या देर रात में लेटता हूं, तुरंत नींद आ जाती है...
हां, तो इस तरह से मुझे थोड़ा ध्यान तो रहता है कि मैंने अभी ये ये लेख देखने हैं, इन की कटिंग रखनी है...लेकिन इतने में बाहर देखते हैं कि अखबारों का अंबार लग जाता है ....जैसे कि आज भी लगा हुआ था...लेकिन तभी हमारे रद्दीवाले कबाड़ी महाशय पूतन जी प्रकट हुए कुछ समय पहले....सब कुछ उन के सुपुर्द हो गया......जब भी रद्दीवाला सब कुछ समेट कर ले जाता है तो मुझे इतनी खुशी होती है कि मैं ब्यां नहीं कर पाता ...इसलिए... कि अब कुछ भी पिछली अखबारों में से ढूंढने-पढ़ने-कांटने-छांटने की कोई फिक्र नहीं .... it means everything has been read and understood well! 

तो सच में आज कल हम लोगों का मीडिया डीटॉक्सीफिकेशन दौर चल रहा है ....न तो हम लोग टीवी पर खबरें देखते हैं, न ही नेट पर और अखबारों का हाल तो मैंने ऊपर बता ही दिया है ..बस, अब तो रेडियो का ही एक सहारा है ....कल वह भी कुछ खबरें सुनाने लगा ...पहले ही खबर कि मोदी जी  फिलिंपिन्स गये हुए हैं...बस, उसी समय बत्ती गुल हो गई ....और मैं लंबी तान कर सो गया...उठा तो फौजी भाईयों का प्रोग्राम चल रहा था ... संयोगवश गीत भी यही बज रहा था... 

शनिवार, 3 सितंबर 2016

संदेशे तो तब भी आते ही थे...

अकसर मुझे ध्यान आता है हम लोग जब ननिहाल जाया करते थे तो वहां दीवार में बनी एक कांच की अलमारी के दो हैंडलों पर दो लोहे की तारें टंगी दिखी करती थीं..एक में पुराने से पुराने ख़त और दूसरी तार में पुराने से पुराने बिजली पानी के बिल पिरोये रहते थे..

उस समय तो हमें कहां इन सब के बारे में सोचने की फुर्सत ही हुआ करती थी...अब मैं सोचता हूं तो बहुत हंसी आती है कि कोई खतों वाली एक तार उठा ले तो सारे खानदान की हिस्ट्री-ज्योग्राफी समझ में आ जाए..चाहे तो नोट्स तैयार कर ले... एक बात और भी है न, तब छुपाने के लिए कुछ होता भी नहीं था, सब को सब कुछ पता रहता था...यह छुपने-छुपाने की बीमारियां इस नये दौर की देन है।

लोग अभी भी उन पोस्टकार्ड के दिनों को याद करते थे...मुझे याद है जब हम लोग पोस्ट-कार्ड या लिफाफा डाक-पेटी के सुपुर्द करने जाया करते तो हमारे मन में एक बात घर चुकी थी कि खत अंदर गिरने की आवाज़ आनी चाहिए...आवाज़ आ जाती थी तो हमें इत्मीनान हो जाता था, वरना यही लगता था कहीं उस डिब्बे में ही अटक तो नहीं गया होगा....oh my God! Good old innocent days!

  अभी यह पोस्ट कार्ड लिखते मुझे जवाबी पोस्टकार्ड का ध्यान आ गया ...इन का इस्तेमाल उन हार्डकोर बंधुओं के लिए कईं बार लोग किया करते थे जो खतों का जवाब नहीं देते थे..जवाबी खत इसी तरह से डाकिया थमा देता था ..और जवाबी पोस्टकार्ड पर अकसर खत भिजवाने का पता तक भी लिखा रहता था... आज बहुत कुछ याद आया इसी बहाने...

उन दिनों में सब कुछ विश्वास पर ही चलता था...चिट्ठी डाली है तो मतलब पहुंच ही जायेगी ... डाकिये पर पूरा भरोसा, पूरा डाक विभाग पर पूरा अकीदा, चिट्ठी जिसे भेजी है उस पर भी एक दम पक्का यकीन कि चिट्ठी मिलते ही वह जवाब भिजवा ही देगा... मुझे तो कोई चुस्त-चालाकी के किस्से याद नहीं कि किसी ने किसी की चिट्ठी दबा ली हो और मिलने पर गिला किया हो कि आप की चिट्ठी नहीं मिली..हर घर में चंद लोग ऐसे होते थे जिन की आदतों से सब वाकिफ़ हुआ करते थे...बहरहाल, सब कुछ ठीक ठाक चलता रहता था....शादी ब्याह के कार्ड, रस्म-क्रिया, मुंडन, सगाई ...सब खबरें खत से ही मिलती थीं..

शादी ब्याह से याद आया कि अब तो लोग शादी ब्याह के कार्ड भी स्पीड-पोस्ट से भिजवाते हैं अकसर, वरना कूरियर से ...पहले तो शायद दो तीन रूपये का डाक-टिकट लगा कर बुक-पोस्ट कर दिया जाता था और पहुंच भी जाया करता था...कुछ अरसा पहले की बात है कि मैं एक जगह पर स्पीड पोस्ट करवाने गया ... वहां पर दो पुलिस वाले किसी शादी ब्याह के कार्ड स्पीड पोस्ट करवा रहे थे ...३०-४० तो ज़रूर होंगे ...शायद एक हज़ार से भी ज़्यादा खर्च भी आया था ... किसी पुलिस वाले के बच्चे की शादी के कार्ड थे...

जितनी लंबी लाइनें आज कल स्पीड-पोस्ट के लिए होती हैं, उस से तो यही लगता है कि लोग अब चिट्ठी-पत्री पर भरोसा ही नहीं करते ....यहां तक की रजिस्टरी भी लोग कम ही करवाते हैं...बस, स्पीड-पोस्ट ही चलती है अधिकतर। ठीक है नौकरी के लिए आवेदन करने वाले स्पीड-पोस्ट करवाते हैं, बात समझ में आती है ...आजकल इतनी धांधलियां हो रही हैं भर्ती प्रक्रिया में ...ऐसे में कुछ तो सालिड प्रूफ चाहिए....हम लोग आज से २५-३० वर्ष पूर्व रजिस्टरी करवाया करते थे...हां, क्या आप को पता है कि अब रजिस्टरी लिफाफे नहीं मिलते डाकखानों से, सादे लिफाफे या ५ रूपये वाले डाक-लिफाफे में ही पत्र डाल कर रजिस्टरी करवाई जाती है ...

हमारे जमाने में बड़े-बुज़ुर्ग घर में घुसते ही यह पूछा करते थे कि कोई चिट्ठी आई?....सच में ये ५ पैसे के हाथ से लिखे पोस्टकार्ड और १५ वाले अंतर्देशीय लिफाफे घरों का माहौल खुशनुमा बना दिया करते थे..उन्हें परिवार का हर सदस्य पढ़ता...और फिर उसे संभाल कर रख दिया जाता ...अब वाला चक्कर बड़ा मुश्किल है हर पांच पांच मिनट पर वाट्सएप स्टेटस चैक करना और अपडेट करना ...

चिट्ठी-पत्री के बारे में संस्मरण का पिटारा है मेरे पास, सोच रहा हूं बाकी की बातें अगली कड़ियों में करूंगा..

बहुत लंबे अरसे के बाद आज टीवी पर म्यूजिक इंडिया चैनल पर यह गीत बज रहा है ...सुनेंगे...खुशी की वो रात आ गई...(फिल्म- धरती कहे पुकार के)...







आज फिर अखबार नहीं!

यह अच्छा लफड़ा है, आज फिर अखबार नहीं...

परसों अखबार नहीं आई..हम लोगों ने सोचा हॉकर से मिस हो गई होगी...

कल नहीं आई तो चिंता हुई कि अपना हॉकर प्रजापति ठीक तो होगा...कुछ दिन पहले उस की तबीयत खराब थी..

फोन किया कल...स्विच ऑफ मिला...दो तीन बार करने के बाद जब बात हुई और पूछा कि तबीयत ठीक है, तो पता चला कि उस की तबीयत तो ठीक है, लेकिन अखबार वालों की हड़ताल चल रही है..

मैंने कहा...अच्छा, कोई बात नहीं...

मैं ठीक से समझा नहीं था उस की बात, सोचा कि ड्यूटी पर जाते समय किसी चौराहे से पकड़ लूंगा अखबार ...लेकिन नहीं, वहीं भी अखबार नहीं पहुंची थी...

खबरों का कुछ पता ही नहीं चल रहा आजकल...अखबार का तो यह हाल है ...मुझे यह भी याद नहीं कि टीवी पर खबरिया चैनल को लगाए कितने दिन हो गये हैं...ऐसे ही पता नहीं क्या हो चला है टीवी पर खबरें क्या कुछ भी देखने की इच्छा ही नहीं होती..बस, लगता है रेडियो सारा दिन चलता रहे!

बंबई में जब मैं २०-२२ साल पहले एक सिद्ध समाधि योग का १४-१५ दिन का प्रोग्राम कर रहा था तो एक शर्त थी वहां कि आप लोगों ने अखबार नहीं देखनी जब तक यहां आना है ...हम लोगों ने बात मान ली थी...कभी ऐसा नहीं लगा कि कुछ छूट गया हो..

हमें बताया गया था कि अखबारें सुबह सुबह आप पढ़ते हैं तो सारी निगेटिविटी जबरदस्ती अपने अंदर ठूंस लेते हैं...लेकिन जैसे हम लोग हैं, कुछ दिन तक यह बात मान लीं, लेकिन फिर वापिस अखबार देखना चालू हो गया...

अखबारें इतना बड़ा विलेन भी नहीं हैं, यह हमारे ऊपर है हम उस से क्या ग्रहण करना चाहते हैं...सब तरह का कंटेंट तो बिखरा पड़ा रहता है ...सच में आज के इंसान की आंखें हैं यह अखबार....हम एक तरह से घर बैठे बैठे विश्व-दर्शन कर लिया करते हैं इस के जरिये...

टीवी के खबरिया चैनलों से मुझे आपत्ति है ...जिस तरह से उचक उचक के ऊंची आवाज़ में वे लोग खबरें पढ़ते हैं, सनसनी परोसते हैं....मैं नहीं सहन कर पाता....तुरंत मेरा सिर फटने लगता है ...इसलिए आज कल मुझे टीवी पर खबरें देखना बिल्कुल नहीं भाता....शायद कभी लगी होती हैं तो पांच दस मिनट देख लेता हूं ...वरना यह नहीं कि कभी खबरें देखने के लिए टीवी लगाया हो ....

अखबारों की अलग बात है ...चाहे उन का भी स्वरुप कितना भी बदल गया है ....लेकिन फिर भी आज भी भारत जैसे प्रजातंत्र में जनता में राय तैयार कराने का वे एक जबरदस्त काम तो कर ही रही है... (opinion makers!)

दो दिन से अखबारें नहीं आ रही थीं,कल रात गूगल किया तो पता चला  .... No newspaper in Lucknow for second day


अखबारें हम लोग अपने अपने घरों में मंगवाते हैं, सारा दिन पढ़ते हैं...लेकिन मुझे वह नज़ारा बहुत अच्छा लगता है जब किसी चाय की गुमटी के आसपास, किसी नाई के ठीये के नजदीक चार पांच जीर्ण अवस्था में पड़े लकड़ी के हिलते-डुलते बेंचों और पत्थरों पर टिके आठ-दस लोग एक अखबार को एक साथ चबा रहे होते हैं....एक एक चुटकुला शेयर होता है, सिने-तारिकों की फोटो पर तंज कसे जाते हैं...कार्टून पर एक साथ सब हंसते हैं...गंभीर खबर पर चर्चा करते हैं ....लेकिन वोट किसे देंगे यह राज़ हमेशा अपने मन में छिपाए रखते हैं...इसे कहते हैं असली "चाय पे चर्चा" न कि वह वाली  फेशुनेबल चाय चर्चा जिसे आप सोच रहे हैं!! इन जगहों पर मुझे प्रजातंत्र के साक्षात् दर्शन करने को मिलते हैं!

 छठी-सातवीं कक्षा में जब मैं समाचार-पत्र पर निबंध तैयार रहा होता था तो मेरे पिता जी मुझे ये पंक्तियां कहीं भी उस में फिट करने की ताकीद किया करते थे... और मैं इसे मान लिया करता था...ये लाइनें थीं...

खींचों न कमानो को न तलवार निकालो 
जब तोप मुकाबिल हो तो अख़बार निकालो...

अभी इस पोस्ट का पब्लिश बटन दबाते हैं इन अखबारों के पेज थ्री पर छाए लोगों की असली ज़िंदगी का ध्यान आ गया....पेज-थ्री फिल्म का वह गीत यू-ट्यूब पर मिल गया...आप भी सुनिए... फिल्म ठीक थी, यू-ट्यूब पर पड़ी है, अगर नहीं देखी तो देखिएगा कभी ... फिलहाल तो यही सुनिए...कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पे !


हां, हाकर्स की हड़ताल के बारे में मेरा अोपिनियन यही है कि उन की मांगे तो मान ही ली जानी चाहिए...महंगाई बहुत है, कुछ भी हो, हर मेहनतकश को इतना तो मिले कि वह सम्मानपूर्वक अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके ..इन के पास तो कोई घोटाले कर के घर में करोड़ों रूपये छिपाने का भी कोई स्कोप नहीं है। The society should be liberal and sensitive to the aspirations of these hawkers too! What do you think? 




शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

गुड मार्निंग ..लखनऊ !


लखनऊ की तहजीब की छींटे-फौहारें सुबह-सवेरे से ही इस के वासियों पर पड़नी शुरू हो जाती हैं...

समय की आंधी से जो खबरदार नहीं हैं..
वे और कुछ भी हों, समझदार नहीं हैं! 

ये शब्द आज सुबह टहलते हुए एक मित्र-मंडली की सजी महफिल से सुनने को मिले...कहने का अंदाज़ इतना दिलकश ..पहली लाइन को इतनी बार इतने बढ़िया अंदाज़ में पेश किया गया कि दूसरी लाइन सुनने तक सांसे रुकी रहीं....यही है लखनऊ वालों को निराला अंदाज़...

हां, सुबह टहलने से बात शुरू करते हैं....दरअसल हम लोग सुबह टहलने के मामले में बड़े आलसी टाइप के हैं...आज उमस है, आज लेट हो गया, धूप चढ़ गई है ...बस, ऐसे ही टाल देते हैं...


आज सुबह उठा तो वही मेरी पुरानी तकलीफ़ सिर भारी....ए.सी में सोना मेरी मजबूरी है, मुझे बहुत नफ़रत है ए.सी से ...क्योंकि सोने से पहले तो अच्छा लगता है, उस के बिना शायद नींद ही नहीं आए....लेकिन सुबह उठते ही सिर भारी हुआ होता है ...
जब तक ३०-४० मिनट टहल के न आया जाए, और वापिस लौटने के बाद १०-१५ मिनट शांति से न बैठा जाए तबीयत ठीक नहीं होती...

आज टहलने का मन हो ही गया...थोड़ी हवा भी चल रही थी, मौसम भी खुशगवार ही था...

पार्क के बाहर यह होम-ट्यूशन की इश्तिहार देखा...इस तरह के विज्ञापन जो अखबार में भी छपते हैं, वे मुझे बड़े अजीब से लगते हैं...एक बात का इतमीनान तो होता ही है कि चलिए, इसी चक्कर में कुछ बेरोज़गारों को काम-धंधा मिल जाता है...
लेकिन मेरी सोच यह है कि कुछ भी हो प्यासे का ही कुएं पर जाना ठीक होता है ....मुझे तो यह भी लग रहा है ...जैसा मैं समझता हूं कि जो बच्चे घर में ही ट्यूशन पढ़ते हैं वे पढ़ाई में ज्यादा आगे चल नहीं पाते..कारण कुछ भी हों ...लेकिन पास वास बस हो जाते होंगे ...लेकिन मुझे नहीं लगता कुछ विशेष हासिल कर पाते होंगे...

बच्चों के अगर हाथ-पांव चलते हैं तो उन्हें गुरूजनों के पास भिजवा कर ही विद्या दान ग्रहण करना चाहिए....उस स्थान की एक अलग ही आलौकिक ऊर्जा होती है...घर में तो बच्चा यही समझता है कि जैसे उस का रईस बाप ही सर की रोटी का इंतज़ाम कर रहा है ...हम लोग घर आए गुरूजनों से अति-शिष्ट व्यवहार करते हैं ...यह हमारे संस्कार की बात है या शायद इसमें भी हमारा स्वार्थ ही होता है लेकिन इस से गुरू-शिष्य के पारंपरिक संबंध पैदा नहीं हो पाते....मैं तो पूरे विश्वास के साथ ऐसा सोचता हूं...

हम ने भी बेटे के लिए एक हिंदी टीचर की व्यवस्था करी थी बंबई में १९९० के दशक में ...कुछ महीनों के लिए..उसने बेटे को हिंदी का शब्द-बोध करवाया...अच्छा अभ्यास भी करवाया...चूंकि यह उस के खेलने का समय होता था ..इसलिए उस के हाव-भाव से ऐसे लगता था जैसे उस टीचर का आना उस के लिए बोझ होता था..हमें यह देख कर बहुत असुविधा होती थी..चलिए, जैसे तैसे टाइम पास हो गया..

शुक्र है ईश्वर का कि हम लोगों का कितना भी बैंक बेलेंस हो, लेकिन कुछ चीज़ें हम खरीद नहीं सकते ...जैसे उस्ताद की कृपा-दृष्टि....इसके लिए समर्पण चाहिए....

मैं भी सुबह सुबह क्या प्रवचन झाड़ने लगा! 

प्रवचन से ध्यान आया ..बाग में यह भाई साहब कुछ परचे बांट रहे थे ..११ सितंबर को एक प्रोग्राम है...जितनी आत्मीयता से  ये टहलने वालों से आग्रह कर रहे थे, मन को छू गई यह बात और मैंने सोचा कि मैं भी अपने ब्लॉग के माध्यम से इस का प्रचार करूंगा ... पढ़िए, अगर आप भी आना चाहें तो ज़रूर पधारिए.... अता,पता,ठिकाना सब लिखा है इस परचे में....



टहलते हुए मेरी नज़र एक चबूतरे पर पड़ी तो मैंने देखा कि बीस के करीब पुरूष एक गोलाकार आकृति की व्यवस्था बना कर बैठे हुए हैं...ठहाके लगा रहे हैं...हर बंदा कुछ न कुछ सुना रहा था ....कोई चुटकुला, कविता, किस्सा.....एक शेयर तो मैंने ऊपर लिख दिया है ....एक बात और भी वहां दो  मिनट बैठने पर सुनने को मिली ....
"कोई आप को बेवकूफ कहे तो यह नाराज़ होने की बात नहीं है, बुरा मनाने की भी बात नहीं है, धैर्य खोने की भी बात नहीं है, रिएक्ट करने की भी बात नहीं है, परेशान भी होने की बात नहीं है, लड़ाई-झगड़े पर उतारू होने की भी बात नहीं है......
बस, एक कुर्सी पर आराम से टेक लगा कर बैठिए.....अपने गाल पर हाथ रखिए.....और सोचिए ....कि इसे आखिर पता कैसे चला.. !"
कहने का अंदाज़ उस बंदे का बिल्कुल लखनऊवा किस्सागोई वाला ....खूब ठहाके लगे इस बात पर ....

आगे चले तो देखा कि चार पांच पुरूष अकबर बीरबल का कोई किस्सा मरदमशुमारी पर कह रहे थे ..वह मैं सुन नहीं पाया ...यह लखनऊ की किस्सागोई की बड़ी उमदा रवायत है ...मैं यहां एफएम पर रेडियो जॉकी की बातें भी सुनता हूं तो ऐसे लगता है कि बढ़िया किस्से सुन रहा हूं....


मुझे अभी यह ध्यान आ रहा था कि इस तरह के बाग-बगीचों में ये जो लोगों को इस तरह की गोष्ठियां होती हैं ...मित्र -मंडलियों की ..यही असली गोष्ठियां हैं, वरना धर्म के ठेकेदार या दूसरे ठेकेदार लोग जो भोली भाली जनता को अच्छे दिनों के सपने बेच कर तितर बितर हो जाते हैं ... कुछ सालों के बाद फिर से लौटने के लिए....

अच्छा तो दोस्तो...आप का दिन बहुत खुशगवार हो... मस्त रहिए, व्यस्त रहिए.... take care! मुझे भी अभी अपने काम-धंधे पर निकलना है ... 

जाते जाते इस सपने के सौदागर की बातें भी सुनते जाइए.... क्या मालूम आप के मतलब की भी कोई चीज़ इस के पास हो ...

  

गुरुवार, 1 सितंबर 2016

कहानी ... पहचान की चमक

"आप को शरीर में और कोई कष्ट तो नहीं?"..डाक्टर ने रामदीन से पूछा...

"नहीं, डाक्साब, और कुछ नहीं, बस यह खांसी जुकाम से ही परेशान हूं...कुछ अरसा पहले हम का बताये रहिन कि हम का शूगर है...लेकिन तब से हम ने बराबर परहेज करना शुरू कर दिया और सुबह शाम दो बार आधा आधा चम्मच अजवाईन, मेथी और काली जीरी का पावडर ले लेता हूं...ठीक रहता हूं"


"कभी आपने रक्त की जांच भी करवाई ...कितना अरसा पहले करवाई थी..."

"पर साल ...शायद...उस से भी पहले ...ही करवाये रहे..."

"नहीं, आप को ठीक भी लगे तो भी..परहेज भी करिए, और यह देसी पावडर भी खाते रहिए, इस का कोई नुकसान नहीं है, लेकिन इस के साथ साथ रक्त की जांच भी दो तीन महीने में एक बार तो शूगर के लिए करवा ही लिया कीजिए..."

"ठीक है, करवा लेंगे..."

इतना कहते कहते रामदीन ने अपने बैग से उस देशी पावडर को अपने बैग से निकाल लिया और हथेली पर थोड़ा उंडेल कर उसे दिखाते हुए उस के घटकों की मात्रा के बारे में बताने लगे....

डाक्साब ने कुछ सुना..कुछ अनसुना...उन का ध्यान तो कमरे के बाहर लगी मरीज़ों की भीड़ की आवाज़ों भी तरफ़ था...

"वैसे आप इस डिबिया को साथ ही लेकर चलते हैं" ...डाक्टर ने उत्सुकतावश पूछ ही लिया...

"हमारा कोउना ठिकाना नहीं, आज यहां, कल वहां...इसलिए इस डिबिया को, दांत कूचने के लिए ब्रुश-मंजन, एक जोड़ा कपड़े इस बैग में धरे रखता हूं...दरअसल डाक्दर बाबू, मैं एक वृद्ध आश्रम चलाता हूं और इस एनजीओ को रजिस्टर करवाया हुआ है..."

"आप वृद्ध आश्रम चलाते हैं, कहां, कितने लोग रहते हैं वहां?" ....डाक्टर ने तो जैसे प्रश्नो की झड़ी लगा डाली ...

रामदीन ने बताया ....." रिटायरमैंटी के बाद मैंने ८० हज़ार रूपये बिसवा के हिसाब से अढ़ाई बिसवा जमीन गांव में खरीद ली ..बाराबंकी के पास ही है ...चहारदीवारी करवा दी...बस, अपने हाथ से तीन चार हज़ार खर्च हो जाता है ...वहां पर दो लोग रखे हुए हैं जो अपनी सेवा के लिए पैसा नहीं लेते...

कहीं पर भी कोई बूढ़ा बुज़ुर्ग मिल जाता है ..अच्छे माथे वाला ...या कोई उलझन में बूढ़ा दिख जाता है मारा मारा फिरता तो उसे हम लोग उस आश्रम में ले आते हैं...वहां एक दो दिन रखते हैं...उस के घर फोन करते हैं कि आप का पिता हम लोगों के यहां हैं, ले जाइए...दो दिन के बाद पुलिसिया कार्रवाई करवा देंगे...."

"पुलिसिया कार्रवाई ?"... डाक्टर ने पूछा

"हां, हां, सुप्रीम कोर्ट ने कानून बनाया है कि बुजुर्गों को बच्चे ऐसा ठोकरें खाने के लिए नहीं छोड़ सकते, वरना कार्रवाई होगी और १० हज़ार रूपये का मासिक खर्चा-पानी देना होगा..."

"बस, इतना सुनते ही वे आकर बाप को लिवा ले जाते हैं...और हम लोग उस के परिवार वालों से एक एफीडेविट भी ले लेते हैं...यह कहते रामदीन के चेहरे पर खुशी साफ़ दिख रही थी."

"रामदीन, आप तो बहुत अच्छे काम का बीडा़ उठाए हो....बहुत अच्छे.."- यह कहते हुए डाक्टर ने उसे शाबाशी दी...

"साब, यह काम करने का मुझे ध्यान अपने बूढ़े बाप की हालत से आया...मेरा बाप मेरे भाई के पास रहता था, सारी ज़मीन जायदाद उस से लिखवा कर, उसे घर में ही बंद कर दिया...तिल तिल मरने के लिए....कईं महीने बीत गए...इस दौरान मैं जब भी बापू से मिलने जाऊं..हर बार यही जवाब मिले ...कि बापू तो वहां गये हैं....अब उधर गये हैं....एक बार मुझे शक हुआ...मैंने एक बंद कमरे को देखा तो भाई से पूछा कि यह बंद क्यों हैं.....कमरा खोला ...तो देखा मेरा बाप बुरी हालत में अंदर दुबका पड़ा था, मुझे देखते ही उसने मुझे अपनी कमज़ोर बांहों में कस लिया....मेरा मुंह चूमा....मैंने पूछा ..बाबा, कुछ खाओगे, ..कहने लगा ..हां, बेटा, बर्फी खाऊंगा..... मैंने तुरंत किसी बच्चे को बाज़ार भिजवा कर बर्फी मंगवाई....डाक्साब, बापू ने बर्फी का एक टुकड़ा खाया, पानी का एक गिलास पिया और वहीं मेरी बांहों में ही लुढ़क गया......चल बसा बेचारा, जैसे मेरी ही बाट जोह रहा था.......बहुत से बुज़ुर्गों को इसी तरह से तिल तिल मरने पर मजबूर किया जाता है ...पहले उन से सब कुछ हथिया लिया जाता है ...बस, फिर ठोकर मार दी जाती है.."

 "उस दिन से मैंने यह सोच लिया कि अब यही काम करूंगा ...बुज़ुर्गों के लिए कुछ करूंगा....और मैं इस काम में लग गया....चलता फिरता रहता हूं...ठहरने खाने की कोई चिंता नहीं, कहीं भी जैसा भी रहने खाने को मिल जाता है....मैं खुश हूं..परिवार है, बच्चे हैं, अपना गुज़ारा कर लेते हैं... बीवी से मेरी पटड़ी सारी उम्र नहीं खाई. उस की सोच अलग है, वह सोचती है कि कैसे किसी से कुछ मिल जाए...मैं सोचता हूं कैसे किसी को हम कुछ दे सकें...बस, ऐसे ही है ..."


डाक्टर ने उस के पारिवारिक जीवन में झांकना मुनासिब न समझते हुए विषयांतर किया...."अच्छा, आप को इस एनजीओ चलाने के लिए कहीं से पैसा मिलता है...जैसे कोई सरकारी सहायता आदि?"

"नहीं, नहीं, बिल्कुल कोई पैसा नहीं मिलता ....हम सब लोग मिल कर इंतजाम कर लेते हैं...जिन बुज़ुर्गों को हम अपने यहां लाते हैं...उन्हें एक दो दिन का खाना हमारे सेवक अपने घर से ही खिला देते हैं...वह कोई दिक्कत नहीं है..."

पढ़े-लिखे शहरी लोग तो हर बात में नफ़ा-नुकसान का हिसाब लगा कर ही कुछ करते हैं.....डाक्टर साहब के दिल की बात उन की जुबां पर आ ही गई...."रामदीन, इस एनजीओ से आप को फिर मिलता क्या है?"

"डाक्साब, इलाके मेंं मेरी पूछ है....मेरा एन जी ओ रजिस्टर्ड है, किसी सिपाही दारोगा की इतनी हिम्मत नहीं कि मुझ से ऊंची आवाज में बात करे या मुझे छू भी सके....न ही कोई हम लोगों पर यह इल्जाम ही लगा सकता है कि हम ने किसी बुज़ुर्ग को किडनेप कर के अपने आश्रम में रखा है... एक पहचान है इस की वजह से मेरी " -अपने वृद्ध-आश्रम का विज़िटिंग कार्ड डाक्टर को दिखाते हुए रामदीन एक सांस में ही इतना सब कह गया...

डाक्टर ने उस कार्ड पर रामदीन अध्यक्ष लिखा देखा....फिर से रामदीन की तरफ़ देखा तो उसे रामदीन की आंखों में एक अजीब सी चमक दिखी .........पहचान की चमक!

स्मार्ट फोन ने हमें कितना स्मार्ट बना दिया...

स्मार्ट वार्ट कुछ नहीं बना दिया...हम लोग कुछ मामलों में पहले से ज्यादा बेवकूफ से हो गये हैं...

हर समय अपनों की कुशलता जानने के चक्कर में अपनी और दूसरों की नाक में दम कर रखा है हमने...

पहले का ज़माना याद आता है तो हैरानगी भी होती है ...१९७० के दशक के शुरूआत की बातें याद आती हैं तो यकीन नहीं होता कि आप कुछ दिन शहर के बाहर गये हैं और वहां पहुंचने का या अपनी कुशल-क्षेमता घर पहुंचाने का एक ही जरिया होता है खत...पोस्ट कार्ड या अंतरदेशीय लिफाफा...वह दूसरे वाला पीला एन्वेल्प तो फिजूलखर्ची समझा जाता है...

कईं बार तो लोग कईं कईं दिन खत की इंतज़ार किया करते कि इतने दिन हो गये अभी तक कोई पहुंचने की खबर नहीं आई...
अब तो हम लोग मिनट मिनट की खबर चाहते हैं...खुद भी परेशान होते हैं और दूसरों को भी परेशान कर मारते हैं....और अगर किसी का फोन कुछ समय के लिए स्विच-ऑफ मिला तो ज़मीन-आसमान एक कर देते हैं...सोशल मीडिया के सभी प्लेटफार्मों पर उस बंदे की एक्टिविटी चैक कर मारते हैं...ऐसे ही हैं न हम लोग! 


हर तरफ़ फार्मेलेटी करना सीख गये हैं....ऐसे ही दुनिया भर के लोगों को सुबह से शाम मैसेज करते रहना ...कोई एक्नालेज करे या न करे, बस हम एक्टिव दिखना चाहते हैं..

लेकिन कभी नोटिस करिएगा कि इस सब के चक्कर में हमारा संवाद उन अपनों से बिखर गया है जिन के पास स्मार्ट फोन नहीं है ...हमें सब से ज्यादा दुःख आज तब होता है जब पता चलता है कि अपने फलां फलां बंदे के पास स्मार्ट फोन नहीं है ...और उस से भी ज़्यादा शायद तब जब हमें पता चलता है कि वह न तो वाट्सएप इस्तेमाल करता है और न ही वह फेसबुकिया है....

लेकिन मेरी इस के बारे में सोच अलग है ...मुझे यह स्मार्ट-फोन आफ़त लगते हैं...ठीक है फायदे तो हैं ही लेकिन ओवरयूज़ से सिर जकड़ा जाता है बहुत बार ... हर समय इसे हाथ में पकड़े रखना एक मुसीबत जान पड़ती है ... 

मुझे बड़ी खुशी होती है जब मेरे किसी मरीज़ को कोई फोन आता है और वह अपने थैले के किसी कोने से बाबा आदम के ज़माने का रबड़-बैंड की मदद से जुड़ा हुआ फोन निकालता है ...पूरे जोर से बटन दबा कर कॉल को रिसीव करता है और इत्मीनान से उसे फिर उसी थैले के सुपुर्द कर देता है ....मेरे विचार में वह बंदा अकलमंद है ....फोन का जो काम है ...फोन करना और सुनना ...वह काम ही वह उस से लेता है ...और किसी तरह की कोई सिरदर्दी नहीं पालता। 

मेरे पास सरकारी फोन है, इसे हर समय रखना मेरी मजबूरी है ....मैं पहले भी शेयर कर चुका हूं कि जब इस फोन को रखना मेरी मजबूरी न होगा तो मैं भी एक दो चार रूपये का बेसिक फोन खरीद लूंगा..

हां, तो मैं बात कर रहा था कि आधुनिकता (?) की दौड़ में वे रिश्तेदार कुछ पीछे छूटते दिखते हैं जिन के पास स्मार्ट-फोन नहीं है ...जिन के पास है भी उन के साथ भी हम सब लोग कितना जुड़ पाते हैं यह भी एक आत्मचिंतन का विषय तो है ही ....लेकिन अभी तो उन अपनों की बाते ंकरें जिन के पास यह सुविधा नही ंहैं....

मुझे अकसर ध्यान आता है कि हम लोग पोस्टकार्ड के दौर के प्राडक्ट हैं...हम कैसे अचानक इतने बदल जाते हैं....प्रधानमंत्री के एक टीचर उन्हें ९० साल की उम्र में हाथ से चिट्ठी लिख कर भेजते हैं...और पीएम उसे पाकर खुश हो जाते हैं...

हम लोगों ने चिट्ठियां लिखनी लगभग बंद ही कर दीं ....विभिन्न कारणों की वजह से ... क्यों न हम वापिस खतो-किताबत भी कर लिया करें....अगर अपनों के पास सोशल मीडिया नहीं भी है तो क्या फर्क पड़ता है, बेसिक फोन पर एसएमएस की सुविधा तो हरेक फोन पर है....हम क्यों उन अपनों के साथ एसएमएस के ज़रिये से ही क्यों जुड़े नहीं रह सकते! उन सब को भी कभी कभी अच्छी सकारात्मक बातें भिजवा दिया कीजिए...वाट्सएप पर ज्ञान की वर्षा तो निरंतर होती ही रहती है ...बस वहां से कापी करिए और एसएमएस कर दीजिए..

आज मैं यह प्रश्न आप सब के लिए छोड़ कर अपनी बात को यहीं विराम दे रहा हूं ...सोचिएगा....मैंने तो सोच लिया है...फैसला कर लिया है ... 

बुधवार, 31 अगस्त 2016

कहानी लिखना कभी तो सीख ही लूंगा..

पिछले १५-१६ वर्षों से बेकार में कलम घिसते घिसते अभी तक एक कहानी लिखना सीख नहीं पाया...

शायद २००१ या २००२ की बात होगी, एक नवलेखक शिविर लगा था जोरहाट में १५ दिन के लिए...वहां पर बस एक कहानी लिखी थी, उस के बाद कभी यह काम नहीं हो पाया...

बहुत बार अपने ब्लाग के द्वारा भी लेखक मित्रों से पूछा...लेेकिन संतोषजनक जवाब नहीं मिला...किसी ने कहा कि जो आप लिख रहे हो, उसे कहानी ही समझो....किसी ने कहा कि महान् कथाकारों की ५००-६०० कहानियां पढ़ो...अपने आप रास्ता मिल जायेगा...मुझे यह सुझाव बहुत अच्छा लगा था..

मैं निरंतर पढ़ता रहता हूं...पुराने नये लेखकों को जिसे भी पढ़ने का मौका मिल जाता है, पढ़ लेता हूं...शायद सैंकड़ों कहानियां हिंदी-पंजाबी की पढ़ भी चुका हूंगा..लेकिन मेरी मोटी बुद्धि में कुछ नहीं पड़ता...मुझे तो कभी डैंटिस्ट्री पढ़नी मुश्किल नहीं लगी जितनी मुश्किल यह कहानी लिखनी जान पड़ती है ....

कल दोपहर १ बजे अचानक लखनऊ के मिजाज कुछ ऐसे खुशगवार दिखे थे...
सारी कोशिशें कर चुका हूं....दर्जनों या सैंकड़ों लेखकों को सुन भी चुका हूं...यहां लखनऊ में रहते हुए तो यह सिलसिला पिछले साढ़े तीन सालों से कुछ ज़्यादा ही रहा ... मैंने हमेशा साहित्यिक समारोहों में ही शिरकत करने को तरजीह दी हमेशा... पुस्तक मेले, लिटचेर फेस्टिवल, सेमीनार ...कुछ नहीं छोड़ा....लेकिन इतने सारे महान लेखकों की ज़िंदगी के बारे में और उन की कालजयी कृतियों के बारे में पढ़ कर मुझे इन हस्तियों के संघर्ष का, उन की तंगहाली का ...उन के द्वारा झेली गयी चुनौतियों का तो अच्छे से पता चल गया ...लेकिन मैं कहानी नहीं लिख पाया...

शायद आप के मन में भी यह प्रश्न आ ही गया हो कि यार, तुम कहानी लिखना ही चाहते क्यों हो, चुपचाप डैंटिस्ट्री करो और साथ में ब्लागिंग करते रहो ....इन कहानी-वहानी के चक्कर में पढ़ते ही क्यों हो! ....हां, ठीक है, वह तो मैं अपनी क्षमता अनुसार कर ही रहा हूं... लेकिन कहानी लिखने की भी मेरी जिद्द है ....

कहानी मैं इसलिए भी लिखना चाहता हूं क्यों कि इस में कोई भी लेखक अपने मन को अच्छे से खोल सकता है ...कोई चूं-चड़ाक नहीं करता ...अपनी ज़माने भर की बातें कह भी लेते हो और कहानी के रूप में कहने की वजह से यह सब बहुत आसान जान पड़ता है ...

हां, इग्नू ने १५ साल पहले हिंदी में सर्जनात्मक लेखन नाम का एक डिप्लोमा शुरू किया था...मैंने भी उसे ज्वाईन किया ...पहले कंटेक्ट प्रोग्राम में गया चार पांच दिन का था...फिरोज़ुपर से चंडीगढ़ गया छुट्टी लेकर ...लेकिन वहां पढ़ाने वाली विद्वान महिला इतनी ज्यादा अच्छी थीं कि उस मोहतरमा ने पहले ही दिन कह दिया....कोर्स के दौरान जितने भी कंटेक्ट प्रोग्राम होने हैं, उन में अटैंडैंस की चिंता न करिए आप लोग....वह सब की लग जाती है। साथ में उस की पढ़ाने में भी बिल्कुल रूचि नहीं थी....मैंने उसी रात फिरोज़पुर की वापिसी की गाड़ी पकड़ी और फिर से उस कोर्स की कोई किताब नहीं खोली....

एक तो उस कोर्स की किताबें थीं भी बड़ी मुश्किल ..कलिष्ठ हिंदी ...अब मेरे जैसे पंजाबी-भाषी लोगों को जिन का पाला हिंदी से मैट्रिक तक ही पड़ा हो, उन्हें कहां ये सब समझ में आए....कईं बार लगता है कि कुछ लोगों की जिद्द हमें लखनऊ ले आई .(एक कहानी तो वक्त आने पर इस पर भी लिखेंगे)...यह मेरी हिंदी के लिए भी अच्छा रहा ...मैं यहां के अखबारों, जन-मानस, अपने मरीज़ों से हिंदी को अच्छे से जाना ...भाषा की शैली के बारे में यहां के लोगों के उमदा संवाद से बहुत कुछ समझा...यही कुछ किया लखनऊ में रहते हुए...मुझे लगता कि जैसे मैं लखनऊ में अपनी हिंदी सुधारने ही आया हूं..

सोच रहा हूं कि यह कहानी ही तो नहीं लिख रहा मैं...हां, इग्नू के उस हिंदी लेखन वाली कुछ किताबें मेरे पास अभी भी बची पड़ी हैं, उन में से एक किताब है ...कहानी लेखन के आधारभूत नियम....पिछले कुछ दिनों से इसे पढ़ रहा हूं...अब यह समझ आ रही है क्योंकि लखनऊ प्रवास ने मेरी हिंदी को इन पुस्तकों को पढ़ने लायक तो कर ही दिया है ...निःसंदेह ...Thank you, Lucknow!

नावल, उपन्यास तो कभी नहीं, मैं उपन्यास लिखने की तो कभी कल्पना भी नहीं कर सकता ...लेकिन कहानी तो मैं सीख कर रहूंगा.... मुझे बहुत सी बातें कहनी हैं....मेरे मन में बहुत कुछ भरा है ...ब्लॉग पर वह लिखा नहीं जा सकता ...कहानियों में ही अपनी बातें कहा करेंगे.....कहानी सीखने के लिए अगर मुझे अपनी सर्विस भी छोड़नी पड़ी तो मैं वह भी कर जाऊंगा किसी दिन ....किसी उस्ताद की शागिर्दी भी करनी पड़ी तो भी मैं तैयार हूं....जब तक दिल की सभी बातें कहानियों में नहीं पिरो दूंगा, चैन नहीं आयेगा...

लेकिन हर कला के लिए मैं समझता हूं सतत प्रयास और अभ्यास की ज़रूरत है जो मैं नहीं कर पाता हूं ....बस, बक बक ज्यादा करता हूं, इस तरह का सर्जनात्मक काम कम....शायदी ख्याली पुलाव या हवाई किले अच्छे बना लेता हूं..

आज कल मैं प्रेम-चंद के रचना संचयन का अध्ययन कर रहा हूं...इस में एक कहानी मैंने आज शाम पढ़ी....इस का नाम था..दूध का दाम ....मुझे आखिर तक नहीं पता चला कि इस का अंत क्या होने वाला है, यह कहानी प्रेमचंद जी ने १९३४ में लिखी थी, उस समय हमारे देश में कितना छुआछूत था, इसे मैंने इसे पढ़ कर जाना ....बिल्कुल सही कहते हैं कि साहित्य किसी भी समाज का आईना होता है ... जो भी किसी समय में घटित होता है, साहित्यकार लोग उसे आने वाली पीढ़ियों के लिए सहेजते रहते हैं...प्रेमचंद की साहित्य रचना को कोटि-कोटि नमन...

हां, मैं अकसर लिखता रहता हूं कि अगर आप के पास किताबें-वाबें नहीं हैं या आसानी से उपलब्ध नहीं हो पा रही हैं तो आप वर्धा  हिंदी विश्वविद्यालय की इस साइट पर जा कर हज़ारों कहानियां, नावल, नाटक, कविताएं .....कुछ भी पढ़ सकते हैं .... www.hindisamay.com  ...इस का वेबलिंक यह रहा ... हिंदीसमय.... इस में सैंकड़ों लेखकों के नामों और कृतियों को क्रमवार रखा गया है ...उदाहरण के तौर पर आप मुंशी प्रेमचंद जी के लिंक पर क्लिक करेंगे तो इस पेज पर पहुंच जाएंगे...

दो साल पहले मुझे इस विश्वविद्यालय ने एक संगोष्ठी में वक्ता के तौर पर बुलाया था ....ब्लॉगिंग से जुड़ा कुछ विषय था... मुझे तब इस साइट का पता चला था...उस अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में हिंदी पर बहुत काम हो रहा है...बहुत भव्य एवं सुंदर कैंपस है ....

 कुछ कुछ बोरिंग सा लग रहा है यह सब लिखना ... सामने टीवी पर मेरे स्कूल के समय का एक सुपर-डुपर गीत चल रहा है..(one of my all time favourites!) .... बहुत बार पहले भी शेयर कर चुका हूं...एक बार फिर से ...बोरियत को भगाने के लिए ही सही .... आप भी सुनिए...

सोमवार, 29 अगस्त 2016

गोलगप्पे भी बदल गये दिक्खे हैं....



सही बात है जैसे सब और चीज़ों का स्वरूप बदला है...ये गोलगप्पे भी बदल गये दिक्खे हैं...पंजाब हरियाणा दिल्ली के गोलगप्पे बंबई में पानी पूरी और लखनऊ में पानी के बताशे हो जाते हैं...लेकिन मुझे गोलगप्पा ही अच्छा लगता है ...क्योंकि इस में शायद हंसी की एक छींट सी दिखती है ....

अब तो अकसर बड़ी मिठाई-वाई की दुकानों के बाहर ये पानी के बताशे, इमरती, टिक्की के स्टाल देख कर और इन पर तैयार लोगों के सिर की नीली टोपियां और हाथों में दस्ताने देख कर किसी कारपोरेट अस्पताल के पोर्च में खड़े डाक्टरों की टीम की तरफ़ ध्यान चला जाता है जो किसी तगड़ी आसामी की बाट जोह रहे होते हैं कि कब कोई सही-सा मुर्गा फंसे और कब इसे हलाल करें...


पहले गोलगप्पे खाते समय इतना कुछ सोचना नहीं पड़ता था कि खिलाने वाले की पर्सनल हाईजिन कैसी है, आसपास का एरिया किस तरह का क्या है, इन सब बातों से बेपरवाह एक मटके में इमली का पानी होता था, जिसे बाहर से लाल रंग कर दिया होता था, नहीं तो लाल कपड़ा बांध दिया जाता था...(इस का कारण मुझे आज तक कभी समझ नहीं आया)..और बस चार पांच गोलगप्पे हम लोगों ने खाने होते थे ...उस में उबले हुए आलू के दो चार टुकड़े वह डालता और साथ में उबले हुए चार-छः काले चने ...पानी में डुबोता और वहां से हमारी दोने में रख देता...


अब तो पानी के बताशे खाना परोसना भी हाई-टैक हो गया है ...अच्छी बात है ...ये लखनऊ की एक मिठाई की दुकान के बाहर की तस्वीरें तो मैं पोस्ट कर ही दूंगा...लेकिन अकसर होटलों में जिस तरह से प्लेट में सजा कर गोलगप्पे परोसे जाते हैं...साथ में अलग अलग तरह का पानी, इस तरह से यह सब खाने में कहां मज़ा आता है! कुछ दिन पहले तो एक फोटो दिखी जिस में प्लेट में एक सिरिंज भी रखा हुआ था ...पानी डालने के लिए...बड़ा अजीब सा लगा ....जैसे कोई एक्सपेरीमेंट करने आये हों....वैसे भी कुछ जगहों पर मटके में भी हाथ डालने से पहले डाक्टरी दस्तानों का प्रयोग होते दिख जाता है....अजीब सी फिलिंग होती है यह देख कर ...

पानी के बताशों के लिए भी ग्राहकों को विशेषकर पढ़ेलिक्खों को आकर्षित करना अब आसां नहीं दिखता ....यहां लखनऊ के कैंट एरिया में सदर बाज़ार में तो कुछ दुकानों ने बोर्ड लगा रखे हैं कि वे आर ओ का पानी इस्तेमाल करते हैं...

स्वाद तो हर जगह गोलगप्पों का बढिया ही होता है ... मुझे याद आ रहा है कि कुछ साल पहले हम लोग भुवनेश्वर गये तो वहां भी एक गोलगप्पे वाला यू.पी से ही गया हुआ था...वह बहुत बढ़िया गोलगप्पे खिलाता था ...हम लोग अकसर उधर रोज़ ही निकल जाया करते थे... वह हमें पहचानने लगा था....मुझे ऐसा लगता है कि गोलगप्पे जैसी चीज़ें महानगरों में भी इतनी ज़्यादा चल पड़ी हैं, इस के पीछे भी यूपी से गये लोगों की बड़ी भूमिका है ...ये बड़े मेहनती हैं....इस का प्रमाण हमें तब भी मिला जब मनाली के आगे रोहतांग पर यूपी से गये लोग भुट्टे बेच रहे थे....great entrepreneurs indeed!

 मैं अकसर सोचता हूं कि तकनीक में तो हमने बहुत तरक्की कर ली, लेकिन कंटेंट में गड़बड़ी करने लगे....जैसे मीका के गाने हम लोग कितने दिन सुन सकते हैं लेकिन इस तरह के गीत हम सुनते-देखते नहीं थकते....


बीडीएस करते समय हमारी एक बहुत अच्छी मैडम थी...मैडम संतोष रियाड़...वे हमें दूसरे वर्ष में ओरल एनॉटमी पढ़ाती थीं, और हर पाठ के बाद हमें एनॉटमी के हर पाठ की Clinical implications अच्छे से समझाया करती थीं, और वे सब बातें हमारे मन में टिकी हुई हैं आज भी ....

चलिए, गोलगप्पों की तो बातें हो गईं, अब एक डेंटल-सर्जन के नज़रिये से इस की क्लीनिकल इंप्लीकेशन्स भी देख लेते हैं....

तालू का जलना 

यह तो हम बहुत वर्षों से जान ही चुके हैं कि आजकल गोलगप्पे वाले पानी को तैयार करने में कुछ गड़बड़ी तो करते ही हैं क्योंकि इमली महंगी है और टारटरी एसिड जैसा कुछ इन लोगों के हाथ लग चुका है ...लेकिन हम कहां खाते समय इन सब बातों की परवाह करते हैं !

पांच छः साल पहले मेरे पास एक महिला आई जिस का तालू जला हुआ था....देखने में वह कैमीकल बर्न जैसा लग रहा था...बहुत पीड़ा में थी....मुझे कुछ समझ में नहीं आया...मैं ऐसे ही पूछ लिया कि कुछ गर्म तो नहीं खाया, नहीं, उसने बताया कि कल शाम को लड़का गोल-गप्पे लाया था, उसे खाने के तुरंत बाद ही यह हो गया...

यह कैमीकल-बर्न ही था... उसे समझाया ...दो चार दिन दवाई लगाने से वह ठीक हो गईं...ये गोलगप्पे का पानी बनाने वाले कुछ एसिड-वेसिड तो मिलाते ही हैं, अगर ज़्यादा पड़ जाए तो यह परेशानी हो सकती है ....अभी भी कभी कभी लोग आते हैं मुंह के जल जाने के .. और काफी बार उस के पीछे पानी के बताशे ही निकलते हैं...

आप भी अपना ध्यान रखिएगा...लेकिन कैसे, वह मुझे भी नहीं पता! ....देश में पानी के बताशों के प्रति दीवानगी का आलम देखते बनता है ...हमारे घर के पास बाज़ार में एक बंदा सुबह सी पानी के बताशे खिलाने लग जाता है ...उस का सैट अप बिल्कुल पानी की छबील जैसा है ...he is very chilled-out....इत्मीनान से लगा रहता है, और पास में पत्तल के दोनों का अंबाल लगा होता है ...कुछ समय पहले मुझे पता चला कि उस के पास ही गोलगप्पे तैयार करने का एक कारखाना है!

मुंह न खुलने की वजह से पानी का बताशा न खा पाना
इस के मुंह में दो उंगली भी नहीं जा पा रही 
अगर गुटखा-पान मसाला चबाने वाले को कभी पानी का बताशा मुंह में डालने में दिक्कत आ रही है तो यह भी एक बहुत दुःखद लक्षण है मुंह की एक गंभीर बीमारी का ....बहुत से मरीज हमारे पास आते ही इस तकलीफ के साथ हैं कि मुंह पूरा नहीं खुल रहा ...और पता तब लगा जब पानी के बताशे भी नहीं खाए जा रहे ....जैसे कि यह १९-२० साल के नवयुवक के साथ हुआ...यह मेरे पास परसों आया था...छः साल से लगभग रोज़ाना छः पैकेट गुटखे-पानमसाले के खा रहा है ...और अभी इसे यह तकलीफ़ हो गई है .... इस तकलीफ़ के बारे में पढ़ना चाहें तो बाद में इस लिंक पर जा कर पढ़ लीजिएगा....अभी नहीं, वरना पानी के बताशों का स्वाद जाता रहेगा.... 


पानी के बताशे खाते खाते सामने टिक्की दिख जाती है, तब तक एक तरफ़ गर्मागर्म इमरती भी बुलाने लगती है ....मेरे साथ ऐसा बहुत बार होता है ....लेेकिन कल एक बहुत सुंदर मैसेज वाट्सएप पर आया है, शेयर कर रहा हूं, आप भी ध्यान रखिएगा...


रविवार, 28 अगस्त 2016

मन की बात क्या आप भी पीएम को लिखते हैं?

हमें पी.एम के भाषण के बारे में अभी तक इतना ही पता था कि ये वे बड़े बड़े लोग हैं जो राष्ट्रीय त्योहारों की पूर्व-संध्या पर देशवासियों को भाषण देते हैं ...यही तो बचपन से देखा करते थे ...बड़ा सीरियस या भाषण हुआ करता था...बहुत बार तो मुश्किल सी इंगलिश में यह बात कही जाती जिसे का हिंदी अनुवाद फिर कोई दूसरा सुनाया करता (जहां तक मुझे याद है!)...

हां, कईं बार पीएम तब भी बोला करते थे टीवी पर जब देश के किसी हिस्से में साम्प्रदायिक दंगे भड़क जाते थे या पड़ोसी देश से कुछ लफड़ा बढ़ जाता था तो भी पीएम बोला करते थे..

लेकिन पीएम नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह से देशवासियों से मन की बात करने का सिलसिला शुरू कर के एक प्रशंसनीय पहल की है, उस का कोई जवाब नहीं...

मुझे भी पीएम की मन की बात सुनने का मन होता है ....आज तो मैं अपना ट्रांजिस्टर १५ मिनट पहले ही पकड़ कर बैठ गया...अच्छा लगता है ...दिल से कही बातें सीधी दिल में उतर जाती हैं...

मुझे कुछ दिन पहले ध्यान आया की पीएम की मन की बातें तो सुन लीं...लेकिन हम ने अपनी तो उन से कही नहीं...जैसे ही मुझे यह विचार आया ...अब मैंने भी अपने मन की बातें पीएम को भेजनी शुरू कर दी हैं...जब भी मन होता है लिख लेता हूं...चिटठी लिख कर भेजता हूं..

मुझे कईं बार लगता है कि मन की बात इतना पापुलर है जितना शायद रामायण सीरियल था...सब लोगों को इस की प्रतीक्षा रहती है ...

आज भी उन्होंने बहुत से current topics पर बात करी.....शिक्षक दिवस के बारे में बात करते हुए उन्होंने सिंधु के कोच गोपीचंद की बहुत प्रशंसा की ...बिल्कुल सही बात है उस बंदे की जितनी तारीफ की जाए कम है ...आज कल बहुत कम लोग ऐसे मिलते हैं...वरना बातें ज्यादा करने वालों का ही हर तरफ़ बोलबाला है ....छाये हुए हैं...मुझे तो गोपीचंद की वह बात भी बहुत बढ़िया लगी थी जब इस ग्रेट-आदमी ने करोड़ों रूपयों के एक कोल्ड-ड्रिंक के विज्ञापन को इसलिए करने से मना कर दिया था क्योंकि वह स्वयं इसे नहीं पीते..... indeed great! ....वरना गुटखे के विज्ञापन इतने नामचीन हस्तियों को करते देख कर इन की "गरीबी" पर तरस आता है और मुंह के कैंसर के युवा रोगियों की चंद तस्वीरें इन्हें भेजने की इच्छा होती है। 

पीएम ने अपने टीचर के बारे में भी कहा कि अब उन के अध्यापक ९० साल की उम्र के हो चुके हैं लेकिन अभी भी हर महीने उन की टीचर अपने हाथ से लिखी चिट्ठी उन्हें भेजते हैं....वे कौन सी किताबें पढ़ रहे हैं, उन के बारे में ...कुछ Quotations, और जो मैंने महीने में काम किये होते हैं उन के बारे में अपनी राय भी भेजते हैं....मोदी बता रहे थे कि अभी भी लगता है जैसे कि वह मुझे एक correspondence course के द्वारा पढ़ा रहे हों...

और भी बहुत सी बातें मन को छूने वाली की गई आज की मन की बात में ....कुछ बातें जो हमें पहले से पता नहीं होती ..शायद हम लोग इतनी परवाह ही नहीं करते इन बातों के बारे में सोचने की ..लेकिन मन की बात में जब वे कही जाती हैं तो उस का बहुत प्रभाव पड़ता है ...

२५ सालों से देख रहे हैं कि गणेश-चतुर्थी और दुर्गा पूजा के समय जिस plaster of paris से मूर्तियां बनती हैं ...वह पर्यावरण के लिए खतरा है ..विसर्जन के बाद पानी में यह सब मिल जाता है ...और जल में रहने वाली जीव-जंतुओं के लिए भी यह खतरनाक साबित होता है ....लेकिन आज जिस तरह से मिट्टी के इस्तेमाल से इन मूर्तियों को तैयार करने की गुजारिश की गई, आशा है उस का सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा...

और भी बहुत सी बातें थीं आज की मन की बात में .....चलिए..उस का यू-ट्यूब लिक ही यहां एम्बेड कर रहा हूं ...फुर्सत लगने पर सुनिएगा....


 आज कल त्योहारों की बहुत सी बातें हो रही हैं...आज की मन की बात में थीं...अभी मुझे एक सुपरहिट पंजाबी गाने पर एक मराठी महिला ने जो डांस किया था ...वह ध्यान में आ गया...कुछ साल पहले यह वीडियो वॉयरल हुआ था...शेयर कर रहा हूं..full marks to this lady for her enthusiasm .... it proves that music has no barriers...it unites people! ... वैसे कहते भी हैं कि नाचते समय ऐसे नाचो जैसे अपने लिए नाच रहे हो...गाते समय ऐसे गाओ जैसे अपनी रूह के लिए गा रहे हो....I like this clip so very much! 




काश! ट्रैफिक कंट्रोल भी मेट्रो अपने हाथ में ले ले

२१ जून को विश्व योग दिवस था....मुझे लगता है मैं शायद उस दिन योग करते करते इतना थक गया कि मुझे अपने ब्लाग पर वापिस लौटने के लिए २ महीने से भी ज्यादा का समय लग गया...इन दिनों मैं बड़े बड़े लेखकों को पढ़ने-समझने में व्यस्त रहा ....लखनऊ की जान अमृतलाल नागर जी, कथाकार यशपाल जी, पंजाबी साहित्यकार गुलज़ार सिंह संधू जी....और भी कुछ न कुछ पढ़ता ही रहा ...


लखनऊ शहर में मेट्रो का काम ज़ोरों-शोरों से चल रहा है...जैसे भी हो विधानसभा चुनाव से पहले मेट्रो दौड़ा ही दी जायेगी...

पहले सुनते थे दिसंबर में अमौसी एयरपोर्ट से चारबाग रेलवे स्टेशन तक मेट्रो दिसंबर से चलाई जायेगी...लेकिन दो दिन पहले खबर थी कि दिसंबर से ट्रायल शुरू होंगे ...यात्री फरवरी २०१७ से इन में यात्रा कर सकेंगे।


अभी अमौसी एयरपोर्ट से मवैया तक ही मेट्रो दौड़ेगी....मवैया से चारबाग स्टेशन की दूरी तो चाहे एक डेढ़ किलोमीटर ही होगी ..लेकिन कुछ टेक्नीकल मुश्किलों की वजह से यह काम कुछ महीनों के लिए लटक जायेगा।


आज मैंने मवैया में ये तस्वीरें खींचीं ...यह मुश्किल एरिया है मेट्रो के काम के लिए ..ट्रैफिक तो यहां पर काफी होता ही है ..यहां एक रेलवे ब्रिज भी है ...जिस के ऊपर से यह मेट्रो को चलाया जायेगा...


मैं भी ज्यादा तकनीकी डिटेल्स तो जानता नहीं हूं ...बस जो देखा सुना है ..वही शेयर कर रहा हूं ...ये तस्वीरें ही बहुत कुछ बोलती हैं...



हां, एक बात पिछले कुछ दिनों से ध्यान में यह आ रही है कि मैट्रो रेल का निर्माण जिन जिन इलाकों में चल रहा है ...वहां पर मेट्रो ने अपने ट्रैफिक मार्शल तैनात किये हुए हैं...जो पूरी तन्मयता से अपना काम करते हैं ...absolutely no trespassing ....अकसर मेट्रो रेल का सड़क ट्रैफिक का शानदार नियंत्रण देख कर मुझे यही लगता है कि इतना अच्छे से तो ट्रैफिक तब भी कंट्रोल नहीं हो पाता था जब मैट्रो रेल का काम नहीं चल रहा था...इन की सारी वर्क-फोर्स अनुशासन में रहती है, प्लानिंग बहुत बढ़िया होती है ...इसलिए लोगों को कम से कम दिक्कत होती है ...थोड़ी बहुत तो अब तकलीफ़ होगी ही अगर मेट्रो का मजा लेना है ....


वैसे मैंने तो देखा है सब से ज्यादा शिकायत भी इस समय बड़ी गाड़ियों में चलने वालों को ही है ...वे लोग ही हर समय परेशानी सुनाते रहते हैं कि बस इत्ती सी दूरी तय करने में हालत बिगड़ गई ...इतना समय लग गया... शायद इन लोगों में ही सहनशीलता की सब से ज्यादा कमी दिखती है ...

कईं रास्ते जो वन-वे थे ..वहां भी अब बीच में बडे़ बड़े कुछ ब्लाक्स जैसे रख के और उन्हें रस्सियों से जोड़ कर आने और जाने वाले ट्रैफिक को सुव्यवस्थित कर दिया गया है ...

जितनी तारीफ़ की जाए मेट्रो रेल के अनुशासन की ....इन के प्रशासन की...उतनी ही कम है! इस पोस्ट में शेयर की गई सभी तस्वीरें आज सुबह की मवैया क्षेत्र की है ं...

कल मुझे एक सुंदर गीत सुनने को मिला ...आप से शेयर कर रहा हूं...

खुशबू जैसे लोग मिले अफसाने में ...एक पुराना खत खोला अंजाने में ...

शनिवार, 13 अगस्त 2016

जैसी करो संगत ..वैसी चढ़े रंगत

इस तरह की बातें हम लोग बचपन से सुनते आ रहे हैं ..है कि नहीं? स्कूल की किताबों में भी एक सड़े हुए सेब से दूसरे सभी सेब खराब करने वाली कहानी ...ये सब बातें ही समझाया करती थीं।

बचपन से ही हिंदी फिल्में हमारे दिलो-दिमाग में छाई हुई हैं ...वहां भी यही दर्शाया जाता है कि परवरिश जिस तरह की होगी..हम वैसे ही बन जाते हैं...संस्कार कह लें, संगत कह लें या परिवेश कह लीजिए..बात एक ही है ..

अपनी ड्यूटी की वजह से बहुत से लोगों से मिलना होता है ...

एक महिला मरीज आई थीं कल ...५०-५५ के करीब की उम्र होगी..विधवा हैं...बिहार के मुंगेर जिले की मूलतः रहने वाली हैं...उस के बात करने का सलीका, उस की वेशभूषा से मुझे ऐसा लगता था जैसे वह टीचर हैं या अच्छी पढ़ी लिखी हैं...

आज मैंने पूछ ही लिया कि आप की शिक्षा कहां तक हुई है?

उस का जवाब सुन कर मैं हैरान रह गया...उसने बताया कि वह तो कभी स्कूल ही नहीं गईं...बिल्कुल छोटेपन में मां चल बसीं...इसलिए स्कूल जाने का उपाय हो ही नहीं पाया...

मैं इतना तो ज़रूर से कहा कि आप लगती तो खूब पढ़ी लिखी हैं...

उसने बताया कि उस के पिता रेलवे में थे..शादी से पहले रेलवे कालोनी में रहे, सब पढ़े-लिखे लोगों के साथ ही बैठना-उठना होता था..फिर शादी हो गई ..पति फौज में थे, उन के साथ नौकरी में सारा देश घूम लिया...तीन तीन साल तक बहुत सी जगहों पर रहे..बंगलौर, श्रीलंका का बार्डर, पंजाब......उस महिला ने बहुत से नाम गिना दिए।

आर्मी की नौकरी के दौरान भी सभी पढ़े-लिखे लोगों के साथ उठना-बैठना होता ही है ...बस, उन सभी लोगों से ही सीखा जो सीखा...

मैं और मेरा सहायक उस महिला की ये बातें सुन कर बहुत हैरान भी हो रहे थे....

एक बात तो है कि हम लोग जिस तरह के लोगों के साथ उठते बैठते हैं उन के जैसे ही हो जाते हैं...स्कूल कालेज के ज़माने में देखें तो जिन बच्चों का उठना बैठना जैसे बच्चों के साथ होता वे भी बिल्कुल वैसे ही बन जाते हैं ...पढ़ने लिखने वालों के साथ लगे रहने से बच्चे पढ़ाई में चमक जाते हैं...नावल, अश्लील साहित्य देखने-पढ़ने वालों का अपना एक ग्रुप बन जाता है ...और परिणाम भी उस के अनुसार ही आते हैं...

सत्संग की बातें बिल्कुल सही होती हैं कि सब एक जैसे हैं ...लोगों में किसी तरह का कोई भाव नहीं होना चाहिए....वह बात बिल्कुल ठीक है ..लेकिन जैसी शोहबत होगी वह अपना रंग छोड़ देती है ...

कईं उच्च घरानों के नौकरों-नौकरानियों के तेवर देखते ही बनते हैं....उन का रहन सहन ..बीच बीच में अंग्रेेज़ी झाड़ देना...हम अपने रहन-सहन-बोलवाणी को जाने-अनजाने बदलने लगते हैं जिस संगत के प्रभाव में हम होते हैं...

सत्संग  में एक बात समझाया करते हैं कि आप कितना भी बच कर चलिए कोयले की खान से बाहर निकलने तक कहीं न कहीं कालिख पुत ही जायेगी और इत्र की फैक्टरी में हो कर आइए...चाहे आप इत्र न भी छिड़किए...महक आ ही जाएगी...मैं इस बात से पूर्णतयः सहमत हूं....

हमारी ज़िंदगी में हमारी संगत की बहुत भूमिका है ....कहने वाले तो यहां तक कह देते हैं कि Better alone than in a bad company!

और एक बात, पढ़ाई ठीक है अपनी जगह है...पढ़ाई होनी चाहिए...लेेकिन पढ़ाई के साथ अगर गुड़ाई नहीं हुई तो सब बेकार...जैसे कि पहले के जमाने की हमारी नानीयां-दादीयां पढ़ी कम और गुढ़ी कहीं ज़्यादा हुआ करती थीं....रिश्तों की समझ, रिश्तों को निभाने का फन.....और भी बहुत कुछ ...उन का मानवीय पहलू आज की अपेक्षा कहीं ज़्यादा मजबूत हुआ करता था ...

बस आज उस महिला को मिलने के बाद पढ़ाई लिखाई औस संगत सोहबत पर ये विचार कलमबद्ध करने का मन हुआ, सो कर लिया...

इस पोस्ट को लिखते समय बार बार परवरिश फिल्म का वह गीत याद आ रहा है ...खुली नज़र क्या खेल दिखेगा दुनिया का, बंद आंख से देख तमाशा दुनिया का ...पता नहीं इस गीत का इस पोस्ट से कोई संबंध है भी कि नहीं! .. लेकिन फिर भी यह गीत इस फिल्म की तरह दिलकश तो है ही ....लीजिए आप भी सुनिए...