शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

बड़ी बड़ी खुशियां हैं छोटी छोटी बातों में

यकीनन बात तो बिल्कुल सही है...छोटी मोटी बातों में ही बड़ी तूफ़ानी खुशियां छुपी रहती हैं।

आप को ही कल ही की बात सुनाता हूं...मैंने सड़क पर देखा कि दो छोटे बच्चे एक साईकिल पर बड़ी मस्ती से जा रहे थे...अब इस में वैसे तो कोई बड़ी बात नहीं लगती अकसर बच्चे मस्ती में साईकिलों आदि पर चलते ही हैं...

लेकिन दोस्तो पता नहीं इन दोनों बच्चों की मस्ती में क्या बात थी और इन के साईकिल की गजब की डेकोरेशन थी कि मैं क्या, बहुत से लोग इन्हें देख रहे थे..मैंने कुछ तस्वीरें भी खींची ...यहां शेयर कर रहा हूं...दरअसल मैंने नोटिस किया कि ये बच्चे एक पतंग को कहीं से ला रहे थे (कटी हुई को लूट कर या खरीद कर, क्या फर्क पड़ता है)..साईकिल के पीछे बैठा हुआ तो उसे संभालने में पूरा व्यस्त था और चलाने वाला फुल मस्ती में हांक रहा था....लेकिन जो बात शायद को लोगों को आकर्षित कर रही थी वे थे ये लाल रंग के फुम्मन (पंजाबी शब्द)...पता नहीं इसे हिंदी में क्या कहते हैं...जो इस साईकिल के टायरों पर टंगे हुए थे।

ये फुम्मन देखने में कितने सुंदर लगते हैं....बस, एक तरह से टोटल इफैक्ट था..इन लाल, चमकीले, सुंदर फुम्मनों का, बच्चों के हर्षोल्लास, इन की मस्ती का, बेफिक्री का......ऐसे में किसे जगजीत सिंह की वह गजल याद ना आती होगी....दौलत भी ले लो, वो शोहरत भी ले लो...मगल मुझ को दिलवा दो, मेरे बचपन के वो दिन....वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी।

सच में इस तरह की खुशियां होती हैं जो देखने में शायद किसी को तुच्छ लगें लेकिन आपने भी नोटिस किया ये कितनी संक्रामक निकली ...जी हां, खुशियां तो संक्रामक ही होनी चाहिए।

ये बच्चे पीछे छूट गये तो मुझे भी बीते दिनों की बातें याद आने लगीं कि हम भी बचपन में अकसर देखा करते थे कि लोग साईकिल के हैंडल की मुट्ठ (जहां से हम साईकिल को पकड़ते हैं-- Hand grip)पर रंग बिरंगे कवर और टायरों के एक्सल के साथ लाल पीले फुम्मन बंधवा लिया करते थे ... और कुछ ऐसे ही फुम्मन, परांदे, लाल पीले रंग के कपड़े के टुकड़े रिक्शे वाले भी अपने नये खरीदे रिक्शे पर बांधे रखते थे ...और मेरे जैसे लोग हंसी हंसी में कहां मसखरी करने से बाज़ आते थे....यह मैं अमृतसर की बातें सुना रहा हूं ...रिक्शा पर बैठते बैठते हंसते हंसते रिक्शावाले से ज़रूर कह देना...यार, रिक्शा बहुत सुंदर सजा रखी है.....यह सुन कर वह भी खुश हो कर हंस देता था।

कल मैंने इन दोनों बच्चों को इतनी मस्ती में देखा तो मुझे अपने दिन भी याद आ गये कि कितना रोमांच होता था अपने पापा के साईकिल पर बैठने का ....और कुछ मांग नहीं...बर्फी तो वे दिला ही देते थे ...लेिकन बस उन के साथ साईकिल के अगले डंडे पर बैठ कर ऐसे लगता था जैसे ..........जैसे क्या, उम्र के उस दौर में हमें तुलना भी कहां आता है, बस खुशी होती थी .......शुद्ध खालिस १०० प्रतिशत खुशी।

मुझे याद है जब मैं छोटा था तो मुझे साईकिल के डंडे पर बैठने में थोड़ी दिक्कत तो होती थी...लेकिन मैं कहता नहीं था...एक तो मुझे वह डंडा चुभता रहता था और दूसरा, मेरे पांव रखने की जगह नहीं हुआ करती थी...शायद १९६० के दशक में छोटी काठी या फुट-होल्ड मिलते भी न हों, anyway, no regrets.....passed wonderful moments with my lovely and caring, doting father.

अपनी तकलीफ़ का ध्यान था, इसलिए जब आज से १४-१५ साल पहले मेरा छोटा बेटा साईकिल पर बैठने लगा तो मैंने इन दोनों बातों की तरफ़ विशेष ध्यान दिया....बेटों को भी साईकिल पर मेरे साथ बैठ कर उतना ही अच्छा लगता था जितना मुझे ......यह एक तरह से यूनिवर्सल सच्चाई ही है कि दुनिया के सभी बच्चों को अपने बापू के या मां के साईकिल पर सवारी करना बहुत भाता है...लेिकन समय के तो जैसे पंख लगे हुए हैं। परसों बेटा राघव यह तस्वीर देख रहा था तो अचानक कहने लगा......पापा, समय बहुत जल्दी बीत जाता है!...... सो तो है, यार, इसे कौन बांध पाया है।

राघव और पापा २००१-०२ के आस पास
हां, एक बात और ध्यान में आ गई....जब हम लोगों के साईकिल सीखने का ज़माना था ..तो पहले हम लोग कितने कितने दिन या शायद महीनों तक बाज़ार से छोटा साईकिल किराये पर ला कर चलाया करते थे....फिर उसके बाद हमें बड़े साईकिल को कैंची चलाने की छूट मिलती थी....कईं सालों बाद मैंने कुछ दिन पहले एक लड़के के उसी कैंची अंदाज़ में साईकिल चलाते देखा था....फिर उस के बाद घर में पड़े बहन के लेडी साईकिल को चलाना शुरू किया जाता था.....कारण सिर्फ इतना ही कि गिरने का चांस कम होगा, और गिर भी गये तो चोट कम आयेगी......जब इतनी प्रैक्टिस हो जाती थी तो एक दिन वह आता था जब सच में टेक-ऑफ का दिन होता था...उस दिन जो आप की मदद कर दिया करता था, बस उसे ही श्रेष्य जाता था कि उसने ही साईकिल चलाई....हमारे पड़ोस में एक हमारी चंचल दीदी हुआ करती थीं......मुझे बिल्कुल साफ याद है, एक दिन में ऐसे ही साईकिल चला रहा था तो उसने पीछे से कैरियर को पकड़ कर मुझे साईकिल चलाने की िहदायत दी......दो तीन बार लड़खड़ाया तो ....लेिकन पांच दस पंद्रह मिनटों में मैं अपने आप साईकिल चला रहा था....यह ही एक छोटी सी बात जिस की मुझे बहुत बड़ी खुशी मिली.....जैसे संसार ही बदल गया उस दिन के बाद.....साईकिल पर पैर रखो और ले आओ बाज़ार से बर्फ़, समोसे, जलेबियां, बर्फी ....कुछ भी।

लेिकन यह मैं कहां से कहां निकल गया....दोस्तो, आप को ध्यान होगा, मैंने इस ब्लॉग में पहले भी लिखा है कि यहां लखनऊ में साईकिल ट्रैक कुछ तो बन चुके हैं...कुछ बन रहे हैं....किसी को कहते सुना एक दिन पहले कि चुनावी मौसम में इन ट्रैकों को भी क्या कवर कर दिया जायेगा (क्यों कि ये समाजवादी पार्टी का चुनाव चिन्ह है) जैसे लखनऊ के दर्जनों बागों में पत्थर के सैंकड़ों हाथियों को चुनाव के मौसम में कपड़े पहना दिये गये थे....राजनीति पर लिखना मेरा काम नहीं है ...बस, मेरी सलाह यही है कि यार, जब ट्रैक के ऊपर टॉट डाला जायेगा, उस को तो अभी टाइम है....शुक्र है कि इस प्रदेश में किसी ने साईकिल पर यात्रा करने वाले के बारे में सोचा तो .....चलिए, आज से एक और प्रण करते हैं कि हर काम के सकारात्मक पहलू पर ही ध्यान केंद्रित किया करेंगे और कल से अपने साईकिलों को इन ट्रैकों पर दोड़ाना शुरू करते हैं........याद आया, मैंने भी दो तीन महीने से साईकिल को नहीं देखा......आज उसे मैं भी दुरूस्त करवाता हूं....वैसे मुझे यह विज्ञापन भी बहुत पसंद हैं.....बहुत ज़्यादा......दादी की ज़िंदादिली को शत-शत नमन् जिस में उस का पोता अपनी साईिकल दादी के हाथ में देने से बहुत ही ज़्यादा डर रहा है, लेकिन दादी अपने शाल को पोते को थमा कर, खुद उस के साईकिल पर सवार हो कर हवा से बातें करने लगती है..Wonderful Ad..but i dont remember the product for which this wonderful Ad has been prepared! I wonder if the Advertising has passed of FAILED!

बुधवार, 16 सितंबर 2015

मोबाइल का सही सटीक उपयोग करने वाले

मुझे इस किस्से को लिखने की प्रेरणा मिली आज शाम लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर बैठी एक अधेड़ उम्र की महिला से...वह अपने पति और परिवार के साथ पालीथीन की शीट पर बैठ कर लईया-चना का लुत्फ उठा रही थी कि अचानक उस के पति ने मोबाइल पर फोन करते करते फोन उसे थमा दिया...मैं दूर से देख रहा था..यार, मैं उस की खुशी और चेहरे के भाव ब्यां नहीं कर सकता....लेकिन मुझे भी बड़ी खुशी हुई...मुझे एक घटिया विचार आया कि इस खुशी को अपने मोबाईल में कैद कर लूं...फोटू ले लूं.....लेकिन उसी समय उस ख्याल को निकाल परे किया.

दो मिनट बाद मैं वहां से लौट आया लेकिन आज उस अधेड़ महिला ने मुझे बहुत सोचने पर मजबूर कर दिया....मुझे यही लगा कि फोन का असली लुत्फ़ वही लोग उठा पाते हैं जिन के पास बिल्कुल एक बेसिक...पुराना, रबड़ बैंड से कसा हुआ, पन्नी में डाला हुआ या चाय पत्ती के चमकीले पाउच में छुपाया हुआ और स्टील की चेन से बंधा हुआ ...मोबाईल फोन होता है...जो २५-३० हज़ार के फोन हम लेकर चलते हैं....ये हमारे खिलौने हैं, ठीक है...ज़रूरत है, लेकिन खिलौने ज़्यादा हैं....हम लोग खाली समय में एक तरह से सोशल मीडिया पर बैठे बैठे मसखरी करते हैं....अधिकतर सब बकवास है, मुझे तो ऐसा लगता है...ठीक है, संतुलित इस्तेमाल किया जाए तो ठीक है, लेकिन हम लोग कहां संतुलित इस्तेमाल कर पाते हैं....व्हाट्सएप, ट्विटर एवं फेसबुक पर मुंडी झुकाए और आंखें गड़ाए सिर दुःखा लेते हैं......पल पल की खबर जानने की अफरातफरी, हर तरफ़ अपने ज्ञान को दूसरे के ज्ञान से श्रेष्ठ दिखाने की होड़......पता ही नहीं चलता कि हम कर क्या रहे हैं!

हम लोगों के घर एक तरह से मोबाइल म्यूजियम बने हुए हैं......कोई भी अलमारी, कोई भी ड्राअर खोलें, कोई न कोई पुराना कंडम मोबाइल वहां पड़ा मिल जाता है....यह लिखते लिखते ध्यान आ रहा है हम लोगों के लगभग १५ साल पुराने एक फोन कर जिसे मैंने कल एक कोने में पड़े देखा था.....अभी आप को उस का फोटू दिखाता हूं।

मुझे सरकारी सिम मिला हुआ है...इसलिए उसे हर समय पास रखना मेरी मजबूरी है...लेकिन मैंने सोच रखा है कि वीआरएस लेने के बाद मैं पहला काम यही करूंगा कि अपने पास मोबाइल फोन रखना बंद करूंगा...अगर रखना भी होगा तो वही सब से सस्ता सा जिस पर फोन आ जाए, फोन किया जा सके और एसएमएस की सुविधा है....इस के आगे क्या करना है......कईं बार ऐसे लगता है कि मेरे पुराने सिरदर्द की जड़ ही यही है।

वापिस फोन के सही सटीक इस्तेमाल की बात करते हैं......हां, तो मैं बात कर रहा था उस अनजान अधेड़ महिला की खुशी....जिसने मुझे यह लिखने पर मजबूर किया है...वैसे आप भी देखिए कहीं भी आसपास, रिक्शा वाले के पास भी फोन होगा..बिल्कुल बेसिक सा लेकिन वे बात तभी करते हैं आप ध्यान दीजिएगा जब वास्तव में ही कोई बात करने वाली होगी...वे लोग इस का सटीक इस्तेमाल करते हैं हम लोगों से कहीं ज़्यादा...

गाड़ी में भी हम अकसर देखते हैं कि कुछ लोग बिल्कुल खस्ता हाल फोन जेब में लोहे की चेन के साथ बांध कर रखते हैं...थोड़ा बहुत हिला डुला कर उसे फोन के लिए तैयार करते हैं...फिर जेब से बाबा आदम के जमाने की एक डायरी निकालते हैं और बगल में बैठे किसी पैंट-शर्ट पहने बंदे को उसे थमाते हुए कहते हैं कि ज़रा सुरेश का नंबर देखिए तो.....फिर वह जेंटलमेन अगले चंद मिनटों में सुरेश का फोन ढूंढता है, नंबर मिला कर भी देता है और दद्दू की बात भी इत्मीनान से हो जाती है....पूरा हाल चाल...सब कुछ......

और भी नोटिस करिएगा ....जिन लोगों के पास इस तरह के पुराने माडल खस्ता हाल फोन हैं, वे इस पर मनोरंजन भी भरपूर करते हैं.....चुपचाप दस बीस रूपये में अपने मरजी के फिल्मी गीत और अपनी पसंद के वीडियो क्लिप्स भरवा लेते हैं और कईं महीनों तक फिर कोई चाहत नहीं, वो बात अलग है कि इन फोनों पर कईं बार नंबर घुमाने के लिए विभिन्न अंकों को इतने ज़ोर से दबाना पड़ता है मानो मोबाईल की जान ही ले डालेंगे........और हमारे फोनों पर भी तो कईं तरह के लफड़े एप्स के, ब्लूटुथ, ट्रू-कॉलर का झमेला, नेट पेक और पता नहीं क्या क्या, और वे लोग उतना ही चार्ज करवाते हैं जितना निहायत ही ज़रूरी होता है.....

मुझे उस महिला को इतना खुश देख कर एक गीत की वह लाइन याद आ गई......बड़ी बड़ी खुशियां हैं छोटी छोटी बातों में.......निःसंदेह हैं, बिल्कुल हैं यार, लेिकन फिर भी हम लोग आई-फोन के अगले वर्ज़न की इंतज़ार में किस कद्र घुलते रहते हैं.....बात सोचने लायक तो है..तकनीक के जानकार होते हुए भी असलियत यह है कि एक डेढ़ साल से सोच रहा हूं कि फोन में किशोर दा के पचास सौ गीत डाल लूं......लेकिन आलस्य ...कौन इस झंझट में पड़े, ब्लू-टुथ से या डैटा केबल से, मैकबुक से या फिर सी.डी ....बस इतनी च्वाईसिस में ही गुम हो के रह जाता हूं.....और हमारी कॉलोनी का माली सुबह सुबह मोबाइल पर पूरी आवाज़ में यह भोजपुरी गीत बार बार सुन रहा होता है......ओ राजा जी, बाजा बाजई के ना बाजई....



जल्दी हो जाना चाहिए पायरिया का इलाज

पायरिया के बारे में मैं पहले भी कईं बार लिख चुका हूं..लेकिन कभी कभी कोई ऐसा मरीज़ आ जाता है कि फिर से उसी विषय पर लिखने की इच्छा होती है।

 आज मेरे पास यह ३० वर्ष का युवक आया था...मसूड़े आप इस के देख रहे हैं किस तरह से फूले हुए हैं...ब्रुश करते समय और ज़रा सा भी हाथ लगाते ही इन से रक्त बहने लगता है। घबरा रहा था कि पता नहीं क्या हो गया है!

यही समझाया उसे कि पायरिया है ...लेकिन यह पूरी तरह से ठीक हो जायेगा..तीन चार बार बुलाएंगे....और इस के साथ ही साथ इसे दांतों पर ब्रुश करने का सही ढंग बता दिया ताकि फिर से इतना टारटर दांतों पे इक्ट्ठा न होने पाए। जीभछिलनी के नियमित इस्तेमाल की सलाह भी दी...

आज इस के आगे के दांतों के मसूड़ों का प्रारम्भिक इलाज करने के तुरंत बाद उस का फोटो लिया ...यहां पेस्ट कर रहा हूं...एक बात आप देख रहे हैं कि बहुत से मसूड़े दांतों से नीचे सरक रहे हैं....देखते हैं इस इलाज से कितना फर्क पड़ता है...छोटी उम्र है, इसलिए मसूड़े थोड़ा बहुत तो अपनी जगह पर वापिस लौट ही आएंगे....मसूड़ों की मालिश करने की भी इसे सलाह दी है।
अभी पूरे इलाज के लिए इसे तीन चार बार और आना पड़ेगा...यह पोस्ट बस इसलिए लिखी है कि आप तक यह संदेश पहुंच सके कि यार, अगर मसूड़ों वूड़ों में कोई इस तरह का लफड़ा है या कुछ भी दिक्कत है तो अपने दंत चिकित्सक की शरण में चले चाहिए...ताकि तकलीफ़ का निवारण समय पर हो सके।


अभी मुझे अपने मोबाइल पर सुबह पार्क में खींची यह तस्वीर भी दिख गई....इस तरह की मिट्टी का ढेर इतना बड़ा छोटी चींटींयों द्वारा तैयार किया गया शायद मैंने आज पहली बार देखा था.....कितना प्रेरणात्मक है इस तरह के अथक प्रयास को भी निहारना !