सोमवार, 8 जून 2015

लखनऊ के जनेश्वर प्रसाद मिश्र पार्क से बढ़िया पार्क मैंने नहीं देखा....


कल जनेश्वर मिश्र पार्क जाने का मन हुआ....ये भव्य पार्क गोमती नगर एक्सटेंशन में है...लगभग ४०० एकड़ के क्षेत्र में फैला हुआ है...पार्क के आसपास की ही यह तस्वीर है...इन बिल्डिंगों को देख कर अकसर लगता है कि यह लखनऊ नहीं दिल्ली बंबई जैसा कोई महानगर ही है।


जनेश्वर मिश्र पार्क मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव का एक ड्रीम प्रोजैक्ट है...इस में तेज़ी से काम चल रहा है...क्या आप को पता है कि मुलायम सिंह यादव स्कूल कालेज के दिनों में कुश्ती के चेंपियन रहे हैं....अखिलेश भी फिटनेस पर बहुत ध्यान देते हैं...अपनी भी और शहर की भी ...शहर में साईकिल ट्रेक तैयार हो रहे हैं। वैसे मेरा राजनीति में घुसने का कोई विचार नहीं है, बस जो सच्चाई है ..जो अच्छा लगा उसे ही ब्यां कर रहा हूं....और कुछ नहीं।
यह पार्क इतना बड़ा है कि हम लोग लगभग डेढ़ घंटे तक वहां घूमते रहे ...लेिकन तब भी पता नहीं चला कि यह कहां से कहां तक फैला हुआ है..एक बेहतरीन अनुभव रहा....इतना बढ़िया पार्क मैंने पहले कभी नहीं देखा....और इतना भव्य और शानदार पार्क....हम लोग पार्क से दिखने वाले घरों की तरफ़ हसरत भरी निगाहों से इसलिए देख रहे थे कि ये लोग बड़े मुकद्दरवाले हैं ...जब चाहा पार्क में घूमने चले आए!
दोस्तो, पहली बार कल देखा कि इस पार्क में जगह जगह फिटनेस के यंत्र भी लगे हुए हैं....और अच्छी क्वालिटी के ...काफी लोग उस पर कसरत करते दिखे...इस तस्वीर में तो नहीं, लेकिन दूसरी तस्वीरों में आप उन्हें भी देख सकते हैं।
 विश्राम करने के लिए भी इस तरह की जगहें बनी हुई हैं....एक दम साफ़सुथरी और चमकती हुईं।
 यह बच्चों की मस्ती करने के लिए कोना बना है....
 हज़ारों पेड़ लगे हुए हैं....उन की सही देखभाल हो रही है...अभी छोटे हैं....




जैसे ही हम बाग में पहुंचे हमें यह लाल रंग की बजरी जैसी दिखने वाली सड़क देख कर अच्छा लगा...ऐसा लगा जैसे रेड-कॉरपेट वेलकम किया जा रहा हो....दूर से तो मुझे लगा कि यह डेकोरेशन के लिए है...लेकिन जब उस पर चल कर देखा तो मज़ा आ गया...जूता उस के अंदर धंस रहा था ....बाद में माली से पता चला कि यह दौड़ने के लिए जॉगिंग ट्रैक तैयार हो रहा है।

इस तरह की लाल चटाई बिछाने का काम देखने में बड़ा जटिल और महंगा लगा....भारी यंत्रों की मदद से यह तैयार होता दिखा...

 मैं पहली बार इस तरह के ट्रेक पर खड़े होने का आनंद ले रहा था।




वहां पर जितने भी पेड़ दिखे...ऐसे लगा कि इन्हें लगाने वालों ने इन के सांस लेने का भी ध्यान रखा हो...आप देखिए कि किस तरह से हर पेड़ के आसपास केचमेंट एरिया छोड़ा हुआ है। इस तरह की प्लॉनिंग करने वाले लोग साधुवाद के पात्र हैं।
 यह तस्वीर भी इस पार्क के पास की ही है....खूब बहुमंज़िला इमारते गोमती नगर एक्सटेंशन में तैयार हो रही हैं।

यह पार्क हमारे घर से लगभग १५ किलोमीटर की दूरी पर है...चारबाग रेलवे स्टेशन से १० किलोमीटर के करीब होगा। मेरे विचार में आप अगली बार जब भी लखनऊ आइए तो इस बाग में ज़रूर हो कर जाइए। जिस रास्ते से हम लोग पार्क में जा रहे थे ...रास्ते में इस पुल से गोमती नदी का नज़ारा देखने को मिला....अभी तो लगभग सूखी ही चल रही है।
 बेटे को इस तरह की पेड-पत्तों की तस्वीरें खींचने का बहुत शौक है...मैंने तो उसे कहा है कि फोटोग्राफी कर लो...



यह तस्वीर भी पार्क के अंदर की है ....इतना फैला हुआ है यह पार्क कि एक माली कहने लगा कि पैदल आप इसे पूरा नहीं घूम सकते...मैंने देखा कुछ लोग अंदर साईकिल चला रहे थे...इस पार्क के अंदर साईक्लिंग ट्रैक भी बन रहा है, गोल्फ कोर्स भी....




थक गए यार....थोड़ा सुस्ता लें!

 मैंने भी सोचा एक फिटनेस मशीन पर चढ़ कर देख लिया जाए


अच्छा लगा था इसे भी इस्तेमाल करना...

शेल्फी टाइम...





यह सब कुछ इस पार्क के अंदर ही है... 

यह तस्वीर मुझे हमेशा इस बात की याद दिलाएगी कि जोश में होश भी कायम रखना ज़रूरी है...पार्क के एक लॉन में इस तरह के आशियाने चींटियों ने बना रखे थे...बहुत से...हम अनुमान लगा सकते हैं कि इन्हें खड़ा करने में इन्होंने कितनी मेहनत की होगी....अचानक मेरे बेटे ने मुझे बताया कि मेरी ठोकर से एक ऐसा आशियाना ढह गया...मुझे बहुत बुरा लगा...हम लोग जोश में नीचे देखते ही कहां हैं!...संसार में भी तो यही कुछ हो रहा है!!
लगभग एक घंटा चलने के बाद हम लोग इस पार्क के इस गेट पर पहुंचे जहां इस के खुलने के समय के बारे में सूचना लगी हुई थी। इसे मैं आप के लिए यहां लगा रहा हूं कि आप भी नोट कर लें...अगली बार जब लखनऊ आएं तो कुछ समय इस पार्क के लिए ज़रूर रखिएगा।

 एक जगह पर तरह तरह के बोर्ड पड़े हुए थे...आप इस से अंदाज़ा लगा सकते हैं कि यह पार्क किस स्तर का होगा!
पार्क में सब के आराम करने के लिए जगह थी....गीली मिट्टी में ये प्राणी भी थोड़ा आराम फरमा रहे थे...बेटे ने कहा भी इन की फोटो मत खींचो, ये डिस्टर्ब हो जाएंगे...उठ जाएंगे...
जगह जगह पर रखे बेहतरीन आकर्षक डस्टबिन 
 इस तरह के पार्कों में जाते समय नेचर-कॉल की भी चिंता रहती है कि अगर ऐसा हो गया तो क्या होगा!..लेकिन बीसियों बढ़िया टायलेट --इंडियन और वेस्टर्न स्टाईल के --आप इस तस्वीर में देख सकते हैं।
 सुबह सुबह ही पार्क के कुछ एरिया में काम ज़ोरों-शोरों से चल रहा था...
 अच्छा दोस्तो, आप का दिन मंगलमय हो......

आज इस पार्क के बारे में लिखते लिखते मुझे हिंदी फिल्म जॉगिंग-पार्क का ध्यान आ रहा है, आज उसी का एक गीत सुन लेते हैं....

रविवार, 7 जून 2015

मैगी बॉय-बॉय-- अब सब्जियों की सोचते हैं...

आज हम लोग एक दुकान पर थे तो मैंने ऐसे ही दुकानदार से ऐसे ही पूछा कि मैगी है?...उसने कहा कि वैसे तो बंद है, हम नहीं बेचते लेकिन अगर आप को चाहिए तो मिल जाएगी। उस दुकान के वर्कर ने कहना शुरू किया कि लोगों को वहम हो गया है, अब तो अगर मैगी खाने से किसी को बुखार भी हो गया तो लोग कहेंगे कि मैगी से ही हुई है, इसलिए अब हम इसे बेचते ही नहीं। 

लेिकन एक बात तो है कि पिछले बीस-तीस सालों में लोगों की सेहत इस तरह के जंक-फूड ने बिगाड़ी है, उस का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। और जितनी चांदी इन कंपनियों ने लूटी है, उस का भी हिसाब नहीं हो सकता....याद है कुछ वर्ष पहले इसी मैगी वालों ने मैगी में दो-चार सूखी सब्जी के टुकड़े घुसा कर उसे स्वास्थ्यवर्धक खाने के रूप में पेश किया था। 

मुझे नहीं लगता कि मेरी उम्र के लोगों को मैगी पसंद आई होगी.....मैं अपनी बात करूं तो यही है कि बच्चे जब खाते थे तो मैं उन के जिद्द करने पर एक चम्मच ले लिया करता था ..लेकिन उसी से मेरी तबीयत खराब हो जाया करती थी...एसिडिटी.....मेरे को भी शायद वहम हो गया था....लेकिन मुझे कभी भी जंक फूड ..मैगी, पिज्जा, बर्गर, मोमो ...अच्छे लगे ही नहीं.

हां, तो आज जब हम लोग कॉलोनी के बाहर सब्जी ले रहे थे तो मुझे यही लग रहा था कि यह गोल्डन समय है ...जब लोगों को मैगी से नफ़रत हो रही है, ऐसे समय में बच्चों को ज़्यादा से ज़्यादा सब्जियां खिलाई जानी चाहिए। 

सब्जियों का तो ऐसा है ...मैं अकसर कहता हूं कि जो दाल-सब्जियां हम लोग बचपन में खाते हैं....हम बड़े होकर भी उन्हें भी खाते हैं...मुझे तो ऐसा लगता है कि जो चीज़ें हम लोग बचपन में नहीं खाते ...उन्हें कुछ वर्षों के बाद खाने लगेंगे ...ऐसा मुझे नहीं लगता। 

ग्वार की फलीयां 
मैं बचपन में करेला नहीं खाता था....अब भी नहीं खाता.....बहुत कोशिशों के बावजूद भी इसे नहीं खा पाता....कभी एक आधा खा लिया तो खा लिया। उसी तरह से हम लोगों को बचपन में यही समझ में आया कि ग्वार की फलियां सेहत के लिए ठीक नहीं होतीं...अमृतसर में तो इतना भी कहा जाता था आज से ३०-४० साल पहले की इसे गवार खाते हैं...लेकिन अब हमें पता है कि यह बहुत पोष्टिक है. लेकिन अब इसे चाहते हुए भी खा नहीं पाते। 

मैंने अकसर अपने इस ब्लॉग में बहुत बार लिखा है कि मुझे अकसर बाज़ार में इस तरह की सब्जियां दिख जाती हैं जिन्हें मैंने पहले खाया होना तो दूर, कभी देखा भी नहीं होता, और न ही मैं उन के नाम ही जानता हूं।

मैं यहां लखऩऊ की सब्जियों के बारे में एक बात शेयर करना चाहूंगा कि यहां पर सब्जियों की क्वालिटी बहुत बढ़िया है ...बेंगन इतने बढ़िया और मुलायम हैं कि आलू-बैंगन की सब्जी, बैंगन का भुर्ता बहुत ही बढ़िया तैयार होता है...लौकी, तोरई आदि की भी बहुत बढ़िया...यहां पर परमल की सब्जी भी बहुत चलती है..चूंकि हम लोगों ने बचपन में पंजाब में कभी इसे देखा नहीं, हमें इस का स्वाद डिवेल्प नहीं हो पाया। 

एक बात और लोबिया की फली भी यहां बहुत बढ़िया मिलती है...पहले पंजाब में यह इतनी आसानी से नहीं मिलती थी। 

आज मैंने इस सब्जी को देखा तो पूछने पर पता चला कि इस सब्जी का नाम कुल्लू है....इसे छिलने के बाद, काट कर बनाया जाता है। मैंने इसे काट कर देखा तो पता चला कि यह अंदर से कैसी होती है!

कुल्लू नामक सब्जी 


हम आदर्श बातें करने में तो खूब एक्सपर्ट हैं....लेकिन सच्चाई यह है कि बढ़ती उम्र के साथ हम लोग नईं सब्जी खाने तक का तो एक्स्पेरीमेंट कर नहीं सकते ....शायद करना ही नहीं चाहते! 

इसलिए मेरे मरीज़ जब अपने बच्चों के लिए मेरे से टॉनिक का नाम पूछते हैं तो मैं उन्हें यही कहता हूं कि इसे दाल-रोटी-साग सब्जी खाने की आदत डालिए, हर तरह की सब्जी खिलाइए ताकि इस को इऩ सब का स्वाद पता चले और आगे चल कर यह इन्हें नियमित खाता रहे..

बच्चे दालें, सब्जियां नहीं खाते....यह भी एक तरह से हमारी राष्ट्रीय समस्या बन चुकी है.......मुझे डर है कि यह कहना कि हमारे बच्चे घर का खाना पसंद नहीं करते...यह भी कहीं एक स्टेट्स सिंबल ही बन जाए। 

आज अखबार में आया कि अब मेकरोनी, बर्गर आदि की क्वालिटी की भी जांच होगी........बहुत अच्छा है, होना चाहिए....इन कंपनियों ने हमारी सेहत के साथ खिलवाड़ कर कर के अपने इतने बड़े एम्पॉयर खड़े कर लिए हैं। कुछ ही कह लें इन्हें हमारी सेहत की बिल्कुल भी चिंता नहीं है. ...वरना सारे मानक विकसित देशों में तो तयशुदा सीमाओं के अंदर ही होते हैं.....सीसा हो या फिर एमएसजी हो.......लेकिन यहां पर व्यवस्था का ढुल-मुल रवैया इन को मानकों की धज्जियां उड़ाने की हिम्मत देता है। 

एक खुखबूदार बात कर लें.....खरबूजों की ...पहले अमृतसर में सफेद से खरबूजे ही ज़्यादा दिखते थे ..कुछ दिनों के लिए भूरे खरबूजे आते थे जो ज्यादा मीठे होते थे....फिर पता चला कि कुछ खरबूजे राजस्थान से आते हैं जो ज़्यादा मीठे होते हैं.....सूंघ कर लोगों को खरबूजा खरीदते देखना बड़ा हास्यास्पद तो लगता है लेकिन यह कितना प्रेक्टीकल जुगाड़ है ना! खरबूजों की भी अलग अलग शक्ल अकसर दिख जाती है....हम लोग जब फिरोजपुर में तो वहां पर बंगे बिका करते थे...ये देखने में होते खरबूजे जैसे ही थे लेकिन बिल्कुल फीके से...वहां पर रहने वाले लोगों में ये खूब पापुलर थे। 

लखनऊ में इस तरह के खरबूजे आजकल खूब बिकते हैं.
इन खरबूजों के देख कर मुझे बंबई के पेड़ें याद आते हैं..बिल्कुल वैसी ही शेप में
लखनऊ में इस तरह के खरबूजे भी आजकल दिखते हैं.....बहुत मीठे हैं....हर जगह के अपने स्वाद ...अपने अद्भुत रंग...बस, सब लोग ऐसे ही खाते-पीते-फलते-फूलते रहें....बच्चों को भी सब्जियां रास आने लगें....आमीन!!




शुक्रवार, 5 जून 2015

रंग वाली खाद्य वस्तुओं से अगर बच सकते हैं तो बच लीजिए...

डा बेदी साहब भोग लगाते हुए...
अभी अभी वाट्सएप पर एक संदेश आया अपने जिगरी दोस्त डा कुलदीप बेदी जी का लुधियाना से ...उन्होंने बताया कि वह अभी मरीज़ों से फारिग हुए हैं और अब ज़रा लड्डूओं की तरफ़ हो रहे हैं।

कितना ईमानदार मैसेज है ना......है कि नहीं, आप को लगेगा कि डाक्टर लोग भी आप ही की तरह सब कुछ खाते पीते हैं, सब के शौक एक जैसे ही होते हैं।

लेिकन मुझे जिस बात ने तुरंत प्रभावित किया ...वह यही थी कि लड्डू बिना रंग वाले थे.....ये लड्डू कहीं नहीं दिखते...पिछले दिनों मुझे कुछ डिब्बे मोतीचूर के लड्डूओं के चाहिए थे....मैंने लखनऊ की तीन चार टॉप की दुकानें छान लीं, कहीं से भी नहीं मिले...सभी जगह पर गहरे संतरी नारंगी और लाल रंग के बूंदी के लड़्डू बिक रहे थे।

लड्‍डू ही क्यों, हमें कौन सी खाने की चीज़ है जो बिना रंग के प्राकृतिक रंग में मिल पाती है...जलेबी में रंग, बर्फी में रंग....क्या क्या गिनाएं, मुझे तो हर तरफ़ रंग वाली चीज़ें ही दिखती हैं।

कल के पेपर में पढ़ रहा था कि लखनऊ की एक प्रसिद्द मिठाई की दुकान से जो नमूने लिए गये थे, उन में सिंथेटिक रंगों की भरमार थी.....

यह तो हमें अब समझ आ ही चुकी है कि ये सिंथेटिक कलर और तरह तरह के सस्ते इसेंस ये जो दुकानदार इस्तेमाल करते हैं, ये सेहत के लिए बहुत ही ज़्यादा खराब हैं..

ऐसा नहीं है कि एक बार रंग वाली जलेबी खा के कोई बीमार हो जाएगा ..लेकिन वही बात है , मैगी के पाए गये सीसे की तरह, इन चीज़ों की एक्यूमुलेटिव प्रभाव होता है....कहने से मतलब यह है कि ये कलर आदि हमारे शरीर के विभिन्न अंगों में निरंतर इक्ट्ठे होते रहते हैं ....और फिर तरह की बीमारियों के कारण बनते हैं। यह बिल्कुल वैज्ञानिक सच्चाई है।

बाहर के विकसित देशों में इस तरह के कलर्ज़ आदि के इस्तेमाल पर बहुत अच्छा नियंत्रण होता है...लेिकन यहां तो आप सब जानते ही हैं....किसी भी शहर की बड़ी से बड़ी दुकान का पकवान भी इस कद्र फीका होता है कि मैं तो यही सोच कर हैरान होता रहता हूं कि ये रोड़ के किनारे खड़े होकर बेचने वाले पब्लिक को क्या क्या छका रहे होंगे!

मुझे केवल और केवल एक ही उम्मीद है कि अगर जनता ही जागरूक हो जाए तो ही कुछ हो सकता है।

मैं अकसर जलेबी,ईमरती  बनाने वालों को पूछता हूं कि आप लोग इनमें यह रंग वंग क्यों घुसेड़ देते हो, तो वे कहते हैं कि क्या करें, बिना रंग वाली जलेबी हमारी बिकती नहीं है, लोग बिना रंग वाली जलेबी पसंद नहीं करते।

मुझे एक दो जगहों का लखऩऊ में पता चल गया है जहां पर जलेबी में रंग नहीं डाला जाता.....वहीं से अब लाते हैं।

अपनी बात कर लें....यह कोई शेखी बघारने वाला मुद्दा कतई नहीं है, अपने अनुभव बांटने वाली बस बात है कि हम लोग किसी भी इस तरह के रंग वाली किसी भी खाद्य पदार्थ का सेवन पिछले कईं वर्षों से नहीं करते.......क्योंकि हमें नहीं है भरोसा कि ये लोग हमारी सेहत के साथ खिलवाड़ नहीं करते होंगे.... हर तरफ़ सस्ते, सिंथेटिक और नुकसान पहुंचाने वाले रंगों का बोलबाला है।

आप हैरान न होइएगा ...अगर मैं आप को कहूं कि हम प्रसाद में मिली भी कोई चीज़ अगर रंगदार है तो उसे नहीं खाते....क्योंकि ज़्यादातर जगहों पर ये लड्डू, बूंदी, हलवा आदि भी गहरे लाल-पीले रंग वाली ही मिलती हैं....लेकिन हम उसे अपने पास रख लेते हैं,  खाते नहीं, कभी कभी थोड़ा सा चख लेते हैं...बस......बाकी सारे प्रसाद को मैं अकसर बहुत बार किसी जानवर को किसी पक्षी को डाल दिया करता था तो मेरे बेटे ने मुझे एक बार डांटा....पापा, जो चीज़ हमारे लिए ठीक नहीं है, वह इन के लिए भी तो ठीक नहीं हो सकती। 

मुझे उस की बात ने उस दिन शर्मदार कर दिया.....उस दिन से मुझे नहीं पता मैं इस तरह के रंग-बिरंगे प्रसाद का क्या करता हूं ...लेकिन न स्वयं खाता हूं और न ही किसी को खाने के लिए देता हूं।

हां, अपने दोस्त बेदी साहब के बिना रंग वाले लड्डूओं की तरफ़ आता हूं....ईश्वर करे इन्हें ऐसे ही खुशियां मिलती रहें, और ये लड्डूओं का भोग लगाते रहें, सेहतमंद रहें...खुशियां बांटते रहें......इस समय गाना भी वैसा ही याद आ रहा है....
अभी लगाता हूं .....लेकिन आप को भी मेरा मशविरा यही है कि प्रसाद भी अगर इस तरह के रंगों से सरोबार हुआ मिले तो मत खाया करें.....कोई पाप-वाप नहीं लगेगा.....जहां पेशी होगी, चाहे तो मेरा नाम ले दीजिएगा कि मैंने मना किया है। सजग रहे, सेहतमंद रहें.....बस इतना ही कर सकते हैं, बाकी सब कुछ तो परमपिता परमात्मा की इच्छा है....

बुधवार, 3 जून 2015

अगर आप को सुबह टहलने की प्रेरणा चाहिए...

सुबह टहलने के बहुत से फायदे तो हैं ही ...हम स्कूल के दिनों से प्रातःकाल के भ्रमण का निबंध रटते आए हैं...फिर भी कभी भी बाहर जाने का बड़ा आलस्य सा बन आता है... एक बात और भी है कि अगर हम लोग दो चार दिन नहीं जाएं तो फिर आदत भी टूट सी जाती है। काश! हम सब लोग इसे दिनचर्या का एक अभिन्न अंग ही मान कर चलें।

पहले मैं बहुत से साल अपने इसी ब्लॉग में बीमारियों के बारे में लिखता रहा ....लेिकन फिर अचानक लगने लगा कि ऐसा लिखने के क्या हासिल...वही घिसी पिटी बातें...अचानक लगने लगा कि सेहत की बातें कहते-सुनते रहना चाहिए...पता नहीं कब किसी को कहां से प्रेरणा मिल जाए।

प्रातःकाल के भ्रमण से संबंधित मैं कुछ प्रेरणात्मक प्रसंग तो पहले भी इस ब्लॉग पर शेयर कर चुका हूं...लेिकन फिर भी कभी कभी अपने आप को भी बूस्टर डोज़ देने के लिए उस पाठ को फिर से दोहराना पड़ता ही है ताकि कभी सुस्ती छाने लगे तो अपनी लिखी बात ही याद आ जाए।

आज टहलते हुए मैंने एक बहुत ही बुज़ुर्ग दादा को देखा जो लाठी की टेक से टहल रहे थे ...आप देखिए यह सड़क कितनी लंबी है लेकिन मैं इन्हें दूर से देखा ...इन का उत्साह देख कर मेरा मन इन के चरण-स्पर्श करने को हुआ...लेकिन उस की जगह मैंने जेब से मोबाइल निकाल कर झट से इस प्रेरणा-पुंज को कैमरे में बंद कर लिया...लेकिन जैसे ही मैंने मोबाइल हटाया ...इन दादा जी ने मेरे को दूर से ही ताकीद कर दी...टहलने आते हो तो इसे तो घर पर भी रख आया करो। कम से कम टहल...

आगे के शब्द मुझे सुने नहीं....मैंने इन्हें इतना तो कहा कि ठीक है...लेकिन अभी सोच रहा हूं कि उन्होंने कहा होगा कम से कम टहल तो इत्मीनान से लेने दिया करो या फिर टहल तो इत्मीनान से लिया करो........दोनों ही बातें सही हैं.

वैसे मैं इस तरह के किसी व्यक्ति की फोटो लेना पसंद नहीं करता क्योंकि मुझे लगता है कि यह उस की निजता का एक तरह का हनन है....लेकिन फिर भी कुछ लोग इस तरह की इंस्पीरेशन लिए होते हैं कि उन की फोटो तो लेनी पड़ ही जाती है...लेकिन फिर भी फोटो में मैंने इन का चेहरा थोड़ा कवर कर दिया है।

कल मेरे पास एक रिटायर्ड कर्मचारी आये थे ..७० वर्ष के हैं, पूरी तरह से तंदरूस्त....ब्लड-प्रेशर की मशीन अपने बैग में रखी हुई थी...सब कुछ है, लेकिन खुशी नहीं है...बहुत सी काल्पनिक तकलीफ़ों में उलझे हुए हैं...कोई भी नशा नहीं करते।

ठीक उन के बाद एक ६५ वर्ष का बंदा आया....मैं हैरान हो गया, ओपीडी स्लिप पर इन की उम्र देख कर ...आप भी इस तस्वीर में देख सकते हैं कि इन की उम्र पचास के आसपास की लगती है...कोई भी नशा नहीं करते, रोज़ाना टहलते हैं, योगाभ्यास करते हैं।

कल एक पोस्ट में मैंने अपने एक कर्मचारी की ९० वर्ष की मां की फोटो लगाई थी...उन की दिनचर्या बहुत सक्रिय है....इस दूसरी फोटो में देखिए कि उस उम्र में भी यह ज्ञानी जी अपने साईकिल पर पूरी मस्ती कर रहे हैं। सब कुछ हमारे मन की स्थिति पर निर्भर करता है..अगर सब कुछ नहीं भी तो बहुत कुछ तो निःसंदेह।



हां, तो मैं इंस्पीरेशन की बात कर रहा था, यह हमें कहीं से भी किसी भी वक्त मिल सकती है.....और सुबह सुबह टहलते समय तो सारी प्रकृति जैसे हमें उत्साहित करने में लगी होती है।

मैं तो बड़े बड़े पेड़ देख कर ही इतना खुश हो जाता हूं कि ब्यां नहीं कर सकता....कुछ पेड़ों पर लाल-पीले राखी के बंधन बंधे होते हैं ..वे तो समझिए बच ही गए... लेिकन कुछ बड़े बड़े पेड़ बिना इस तरह के बंधनों के भी बने होते हैं.....इतने विशाल पेड़ कि इन्हें देख कर मन खुशी से झूम उठता है।




लेकिन यह क्या अचानक एक पेड़ को इस हालत में देखा तो अचानक लगा कि इन्हें भी चमड़ी के रोग होते होंगे शायद ...लेकिन हम लोग अपने स्वार्थ के लिए इन की चमड़ी छीलते भी तो रहते हैं ..जैसा कि मुझे पास ही एक नीम के पेड़ के छिले हुए तने को देख कर आभास हुआ।


जो भी हो, दोस्तो, सुबह का समय होता मज़ेदार है.......एक दम शांत..सन्नाटा....और सन्नाटे में ही बहुत से जवाब सिमटे पड़े होते हैं....सुबह का वातावरण ...सुंदर पेड़-फूल....नैसर्गिक वातावरण....सब कुछ हमें उपलब्ध होता है...लेिकन अगर हम लोग उठ कर घर से बाहर निकलने की थोड़ी परवाह करें।






मंगलवार, 2 जून 2015

सुबह सुबह फिर से पेड़ों की बातें करें?

मैं शेल्फी खींच रहा था और ....
दो दिन पहले टाइम्स ऑफ इंडिया एवं राष्ट्रीय वनस्पति उद्यान की तरफ से आयोजित एक कार्यक्रम में शिरकत करने का मौका मिला...

उस कार्यक्रम में एक बाबा जी भी थे जो एक आश्रम चलाते हैं ..आंगन में लावारिस गऊएं, कुत्ते तो रखते ही हैं, साथ में बहुत से पक्षी भी वहां रोज़ाना आ जाते हैं...उन की बातें सुन कर अच्छा लगा। उन्होंने बताया कि कैसे उन के घर के बाहर सीमेंट के डिब्बे जैसे बना रखे हैं...लोगों को कहा कि आप लोग घर में इस्तेमाल होने वाली सब्जियों के छिलके आदि यहां पर फैंक जाया करें, कहने लगें कि लोग ज़्यादा मान नहीं रहे थे, फिर इन्होंने कुछ बार ऐसा कह दिया  कि जो भी ऐसा काम करते हैं उन का शनि सध जाएगा...हंसते हंसते बता रहे थे कि बात फैल गई, बाबा जी कह रहे हैं तो पक्का ऐसा ही होगा. देखते देखते लोगों ने बात मान ली और रोज़ाना उस में छिलके फैंक कर जाने लगे।

उन का बात सुन कर मुझे वही ध्यान आ रहा था ....टी वी पर कुछ वर्ष पहले एक विज्ञापन आया करता था..स्कूली बच्चे मैदान में खेल रहे होते हैं, एक बच्चा कीचड़ में गिर जाता है, बस, उस की सभी बच्चों से दोस्ती हो जाती है ...उस विज्ञापन का थीम यही था...दाग अच्छे हैं।

उसी तरह मुझे हमेशा से यही लगता है कि जो भी आस्थाएं लोगों की इस तरह की हैं कि उस से पर्यावरण को लाभ होता हो, वे सब बहुत अच्छी हैं....मैं जब भी सड़क पर चलते हुए किसी भीमकाय पेड़ पर खूब सारे नीचे पीले धागे बंधे देखता हूं तो मन खुश होता है कि चलो, यह तो बच गया.....इसे कोई न हाथ लगा पाएगा।

कल भी घूमते हुए देखा कि एक घर के बाहर बहुत बड़ा पेड़ है और उस के साथ ही चबूतरा बना दिया गया है....अच्छा लगा, एक मंदिर की शक्ल दे दी गई थी उस चबूतरे को ......ठीक है, लेकिन अगर उसे ऐसे ही खुला छोड़ा जाता तो बेहतर होता जहां पर कोई राहगीर आते जाते दो पल छाया में बैठ जाता ....

हां, एक बात और ...उस कार्यक्रम के बाद बाबा जी बता रहे थे कि आज एक यह बहुत बड़ी समस्या यह भी हो गई है कि फुटपाथों पर टाइलें लगने लगी हैं, हर तरफ, अच्छी बात है, लेकिन इस चक्कर में इन्हें बनाने वाले पेड़ों के आसपास थोड़ी सी भी जगह नहीं छोड़ते ...पेड़ के तने तक टाइलें फिक्स कर देते हैं.....बता रहे थे कि मैं जब भी इस तरह के काम होते देखता हूं तो रूक कर उस काम करने वाले ठेकेदार का नाम पूछता हूं ....बस, इतने से ही वे लोग समझ जाते हैं और पेड़ के आसपास कच्ची जगह छोड़ देते हैं......वे बता रहे थे कि हर पेड़ के आसपास लगभग एक डेढ़ फुट की जगह चाहिए, आप कह सकते हैं उसे सांस लेने के लिए....लेकिन यह जगह पानी के नीचे तक जाने के लिए चाहिए, ठीक है विशाल पेड़ नीचे ज़मीन से पानी लेते हैं लेिकन नीचे पानी के वॉटर स्तर को बरकरार रखने के लिए भी तो कुछ सोचना होगा...



कल मैंने जब देखा यहां लखनऊ के काशी राम मेमोरियल एवं ईको-गार्डन के पास कि किस तरह से पेड़ों के आस पास जगह छोड़ी हुई है तो मुझे अच्छा लगा....लेकिन पता नहीं मैं यह निर्णय नहीं ले पाया कि जिस तरह से इन पेड़ों के आस पास जगह छोड़ी गई है, वह वैज्ञानिक तौर पर भी ठीक है या बस लैंड-स्केपिंग के लिए ही यह सब किया गया है....मुझे पता नहीं क्यों लग रहा था कि यहां पर तो बरसात का पानी तो बस वही पेड़ के आस पास के केचमेंट एरिया में जा पाएगा जो ऊपर से पत्तियों और टहनियों से नीचे गिरेगा.......मुझे ऐसा लगा, अगर आप को कुछ अलग लग रहा हो तो लिखिएगा....बस इतना इत्मीनान है कि चलिए पेड़ों के आसपास उस के फैलने के लिए खाली जगह तो है।


लेकिन अभी मैं थोड़ा ही आगे गया था तो क्या देखा कि एक फुटपाथ पर छोटे छोटे से सजावटी पेड़ तो लगे हुए हैं, लेकिन आप देखिए कि पैदल चलने वाले राहगीरों के लिए कोई जगह ही नहीं छोड़ी गई है....आप देखिए इन तस्वीरों में आप को भी इन्हें देख कर बड़ा अजीब लगेगा.......पता नहीं किस इंजीनियर ने इस प्लॉन को बनाया और किस ने इसे स्वीकृत्त किया......देखना होगा, मुझे यही लगा कि अगर प्रदेश की राजधानी में और वह भी इतने पॉश एरिया में इस तरह की People-unfriendly landscaping हो सकती है तो बाकी जगहों की तो बात ही क्या करें....


हां, एक बात तो मैं आप से शेयर करनी भूल ही गया ...जब मैं कल सुबह साईकिल पर घूम रहा था कि मैंने रायबरेली रोड़ पर एक बहुत पॉश कालोनी देखी ...इतनी बढ़िया कॉलोनी कि उस के बीचोबीच एक झील भी थी...और जगह जगह बोर्ड लगे हुए थे ....यह झील आप की है, इस में गंदगी मत फैंकिए...लेकिन झील गायब थी, पानी तो था ही नहीं, जिस तरह से गांव के पोखर, तालाब गायब होते जा रहे हैं, उसी तरह यह झील भी बस नाम की ही झील थी......वैसे इस झील के आसपास एक पक्का फुटपाथ होने की वजह से लोग वहां सुबह टहलते हैं, यह भी बढ़िया है।

गांवों के पोखर-तालाब जिस तरह से गायब होते जा रहे हैं, पशुओं के साथ साथ मानव जाति के लिए भी बड़ी मुश्किल हो गई है...पर्यावरण को तो खराब करने में हम कोई कोर-कसर छोड़ ही नहीं रहे, पहले तालाबों में गर्मी के दिनों में गाए-भैंसे उसी में दोपहर काट लिया करती थीं. ..और उन के बहाने गांव के बच्चों का भी उन की पीठ पर खेलते हुए समय बढ़िया कट जाता था....गर्मी से निजात, खेल कूद और मस्ती .......ऑल इन वन!


अच्छा अभी मुझे भी अपनी साइकिल पर घूमने निकलना है......आप भी टहलने निकलिए......अच्छा लगता है......आप सब को सुप्रभात ....हार्दिक शुभकामनाएं....


इतनी गप्पें हांकता रहता हूं....कभी कभी तो प्रार्थना भी कर लेनी चाहिए....आज कर लें?......साहिब, नज़र रखना, मौला नज़र रखना.....बेहतरीन प्रार्थना........मुझे फिल्मी गीत से कहीं ज़्यादा यह एक भजन लगता है......एक एक शब्द पर ध्यान देते हुए इस में आप भी शामिल हो जाइए...



सोमवार, 1 जून 2015

अपनी ज़ड़ों से जुड़ने की चमक...

हमारे अस्पताल का कर्मचारी मनसा राम अपने अच्छे व्यवहार के लिए जाना जाता है..अस्पताल एक ऐसी जगह होती है जहां केवल अच्छे डाक्टर ही अस्पताल नहीं चला सकते...सारे स्टॉफ के मेलजोल से अस्पताल चला करते हैं।

मुझे लखनऊ आए दो साल से कुछ ज्यादा अरसा हुआ है...मुझे याद है जिस दिन मैं और मेरी मिसिज़ ड्यूटी ज्वाइन करने यहां आए तो मुझे लगा कि शायद यही एक बंदा है जिसे हमारे यहां आने की खुशी हुई थी...इस बंदे ने हंसते-मुस्कुराते बातचीत की...और फिर मैंने नोटिस किया पिछले दो-अढ़ाई साल में कि इस बंदे का व्यवहार हर एक के साथ बहुत ही अच्छा है। अपने साथियों एवं अन्य कर्मचारियों के साथ ही नहीं, मरीज़ों के साथ भी यह बड़ी विनम्रता से पेश आता है।

अभी कुछ दिनों से दिख नहीं रहा था..अकसर आते जाते दिन में एक बार तो मनसा राम दिख ही जाता है...पता चला कि मनसा राम छुट्टी पर है दो हफ्ते के लिए।

आज मनसा राम आया तो पता चला कि वह अपने गांव गया हुआ था जो चमोली जिले में पड़ता है....मैंने जैसे ही कुशल-क्षेम पूछा तो बड़े उत्साह से कहने लगा कि पहाड़ पर अपने गांव गया था...और बच्चों जैसे उत्साह के साथ उसने वहां अपने गांव में  खींची फोटो अपने मोबाइल से दिखानी शुरू कर दी।

मैंने कुछ फोटो अपने मोबाइल से खींच लीं....आप तक पहुंचाने के लिए...

मनसा राम आज बहुत खुश लग रहा था...वैसे तो वह हमेशा खुश ही रहता है ...लेकिन आज अपने गांव, अपनों के साथ रह कर आने की खुशी उस के चेहरे पर झलक रही थी।

डाक्टर साहब, हम लोग वहां तो परसों तक कंबल ओड़ते थे और यहां पर ४५ डिग्री पारा है, मनसा राम ने कहा...सुबह ११ बजे तक तो वहां पर हम लोग धूप सेंकने के लिए बाहर बैठे रहते थे।

मनसा राम की ९० वर्षीय माता जी
गांव को याद करते उस का चेहरा खिल उठा था...मुझे यही लग रहा था उस से बातचीत करते हुए कि अपनी जड़ों से जुड़े रहने का भी क्या जादू है.....आदमी चमक उठता है, बच्चा बन जाता है......मां को याद कर रहा था, अपनी मां के बारे में तो मनसा राम पहले भी बता चुका है, ९० साल की हैं, सेहतमंद हैं.....हमारी यही दुआ है कि वे शतायु से भी आगे तक जीएं...आप को इन की मां जी की तस्वीर यहां दिखा रहा हूं...

हां, जब वह अपने मोबाइल पर अपने घर की फोटो दिखा रहा था तो मुझे भी वह लकड़ी का घर देख कर बहुत अच्छा लगा... मैंने कहा कि मुकद्दर वाले हो, इतनी अच्छी जगह में रहते हो...बता रहा था कि इस बार वहां पर टीन की चादरें खरीदने के चक्कर में, उन्हें अपने गांव तक लाने में ...और थोड़ा खेती-बाड़ी को देखते देखते समय का पता ही नहीं चला...हल से जुताई करते की फोटो भी मनसा राम ने दिखाई।

मनसा राम खेतों में हल चलाते हुए..
मनसा राम का पैतृक घर 
मनसा राम अपने परिवार के साथ अपने गांव गया हुआ था...गांव के अड़ोस-पड़ोस के चाचा, मौसी की तस्वीरें, अपनी दादी के साथ मनसा राम की बेटी को खेलते देख कर अच्छा लगा...सब लोग कितने खुश लग रहे थे........उन को खुश देख कर मैं भी खुश हो गया।

यह मैं पता है क्यों लिख रहा हूं.....क्योंिक मैंने मनसा से वायदा किया है कि मैं इन तस्वीरों को अपने लेख में इस्तेमाल करूंगा...

इस जगह पर ये लोग बस से उतरते हैं और फिर ३ किलोमीटर पहाड़ की चढ़ाई करते हैं. 
तस्वीरें देख कर, मनसा राम से बात कर के हमेशा यही लगता है कि पापी पेट के लिए लोग कहां से कहां अपनी जड़ों से कितनी दूर आ बसते हैं.....दाने पानी का सब चक्कर है। हां, दूर की बात हुई तो यह बताना तो भूल ही गया कि यह जगह चमोली कितनी दूर है....लखनऊ से ये लोग हरिद्वार जाते हैं...ट्रेन से ...आठ दस घंटे तो लगते ही होंगे....फिर हरिद्वार से ये लोग बस पकड़ते हैं....जो आठ घंटे लेती है इन के गांव के बाहर इन्हें छोड़ने में .......जहां पर इन्हें बस छोड़ती है, यह उस जगह की तस्वीर है....यहां से ये लोग तीन किलोमीटर पैदल चढ़ाई चढ़ते हैं....दो घंटे लगते हैं तब जाकर अपने गांव तक पहुंचते हैं....मुझे लगा कि तीन किलोमीटर चढ़ाई और दो घंटे ....तो मनसा ने साफ कर दिया कि चढ़ाई बिल्कुल सीधी है और अब हम लोगों को इतनी आदत भी नहीं रही...

वहां के गांव की खेती का एक भव्य नज़ारा
मनसा ने अपने गांव से दिखने वाले दूसरे गांवों की तस्वीरें भी दिखाईं....पास ही के एक जंगल में आग लगी हुई थी, उस की भी फोटो देखी... मनसा राम अपने गांव की और पहाड़ों पर की जाने वाली खेती की खासियत बता रहा था कि किस तरह से सीढ़ीनुमा खेतों में खेती की जाती है......

उस की बातों में उस का उत्साह, हर्ष, उमंग, और बच्चों जैसी खुशी झलक रही थी....जो एक तरह से संक्रमक भी थी....पास ही खड़ा मेरा सहायक सुरेश भी ये तस्वीरें देख कर खुश हो रहा था। अपनी जड़ों से जुड़े रहने का फख्र भी था मनसा की बातों मे।

बात इसी बात पर इस पोस्ट को संपन्न कर रहा हूं कि हम लोग अपने देश को ही कितना कम जानते हैं.....किसी साथी के मोबाइल कैमरे में बंद उस के घर-गांव की चंद तस्वीरें देख कर ही अगर हम लोग इतने खुश हो जाते हैं ...अगर हम लोग कभी इन नैसर्गिक स्थलों पर जाकर इन जगहों का हाल चाल जानने की ज़हमत उठाएं तो कैसा लगेगा! लेकिन शहर में जब हमारे पास अपने पड़ोसी का हाल जानने की फुर्सत नहीं है, तो इस तरह की यात्राओं की तो बात ही क्या करें।

जाते जाते एक बात......मैं जब भी मनसा राम को कहता हूं तो रिटायर होने के बाद गांव लौट जाना ....तो मुझे कभी मनसा राम की आवाज़ में वह दम नहीं लगा कि हां, वह वापिस वहीं लौट जाएगा.....मुझे लगता है वह वापिस लौट कर वहां नहीं जाएगा..यहीं लखनऊ में घर ले लिया है ....होती हैं , सब की पारिवारिक मजबूरियां ....वैसे यह उस का पर्सनल मामला है....हम क्यों इस में घुसने की कोशिश कर रहे हैं!

जाते जाते इतना ही कहूंगा कि मनसा राम जैसे कर्मचारी किसी भी संस्था के लिए एक asset होते हैं...God bless him and his family!