शनिवार, 4 जून 2016

आज तो तुलसी जी स्वयं आंगन में आ गई...

सफाई अभियान चल रहा है जगह जगह ..बहुत अच्छी बात है..लेकिन कुछ जगहों पर दस लोगों के आठ सूखे पत्तों को हाथों में झाडू थमाए साफ करती हुई तस्वीरों का खूब मजाक उडाया जा रहा है ...क्या है ना, आज कल सब कुछ साफ़ से दिख जाता है ...पहले वाला ज़माना तो रहा नहीं, जो आपने कहा, मान लिया....लोगबाग आज कल बाल की खाल खींच लेते हैं...वैसे ठीक भी है!

फिर एक बात कुछ इस तरह की व्यवस्था भी शुरू हुई कि हां, सफाई अभियान की तस्वीरें तो डालिए लेकिन एक सफाई से पहले की और दूसरी बाद की...लेिकन इस तरह की तस्वीरें कम ही दिखती हैं अकसर.

कल विश्व पर्यावरण दिवस है ...वैसे तो उस के उपलक्ष्य में मैंने पोस्ट कल ही डाल दी थी...पानी की बोतलें बंद होंगी.. An eco-friendly move! 

लेिकन पर्यावरण एक ऐसा विषय है इस के ऊपर जितना लिखा जाए कम है, जब तक हम लोग अच्छे से सुधर नहीं जाएं...

आज सुबह टाइम्स आफ इंडिया पढ़ रहा था तो देखा कि उसमें िलखा है कि आज से नवभारत टाइम्स एक ग्रीन पहल कर रहा है ..उस के साथ तुलसी के बीज आएंगे..

सुन कर अच्छा लगा ..नवभारत टाइम्स की इस पहल के बारे में जानने की इच्छा हुई...ड्यूटी पर जाते समय नवभारत टाइम्स की दो कापियां ले लीं..


अोपीडी में काम कर रहा था तो एक मरीज़ आया...उस का नाम पढ़ा, साथ में लिखा था..माली...मैंने कहा, एक छोटा गमला ला सकते हो?..वह तुरंत ले आया...पेपर को खोला, उस के साथ लगी स्ट्रिप को काटा...लेकिन कोई बीज नहीं निकले....फिर दूसरे पेपर को भी काटा...उसमें से भी बीज नहीं निकले...

मुझे लग रहा था कि उस में से कुछ सरसों के बीज जैसे कुछ निकलेंगे...माली को भी समझ नहीं आ रहा था...मैं फिर पेपर को ध्यान से देखा...उस खबर को पढ़ा ..उस में लिखा था कि उस स्ट्रिप को काट कर खोलने की ज़रूरत नहीं है, उस के छोटे छोटे टुकड़े काट के गमले में बो देने हैं...फिर, माली ने वैसा ही किया....

अब देखिए इन बीजों को बो तो दिया है ...देखते हैं...इस की देखभाल भी करेंगे...जैसा बताया गया है ...

फिर भी मुझे आज दोपहर सोते समय सत्संग में सुनी एक बात याद आ रही थी ...

माली दा कम बूटे लाना, 
भर भर मश्का पावे,
मालिक दा कम फल-फुल लाना, 
भावें लावे या न लावे
(माली का कर्म है कि उसने पौधे रोपने हैं, उन्हें नियमित पानी देना है...मश्कां एक चमड़े का बैग सा हुआ करता था पहले जिसमें पानी भर कर माली पानी दिया करते थे...लेकिन पौधे को फल फूल लगने हैं या नहीं लगने हैं, यह काम परमपिता परमात्मा का है )...

जब माली को बीजों का कुछ पता नहीं चल रहा था तो वह कहने लगा कि मेरे पास तुलसी के बहुत से पौधे हैं...लेकर आता हूं ..मैंने कहा नहीं, अगर अखबार वाले इतनी सुंदर पहल कर रहे हैं तो उन की बात भी तो हमें माननी चाहिए...

मुझे ध्यान आ रहा था कि क्या इस तरह से तुलसी के चंद बीज गमले में रोप देने से ही बस पर्यावरण ठीक हो जायेगा!

लेिकन कोई भी शुभ काम करने के लिए शुरुआत तो होनी ही चाहिए....मैं यही सोच रहा था कि इसी बहाने जनजन में पर्यावरण के लिए थोड़ा बहुत उत्सुकता, जागरूकता बढ़ेगी...कम से कम कुछ तो कोमल संवेदनाएं पैदा होंगी अपने आस पास के वातावरण के प्रति...मुझे लगता है कि अगर यह भी हो जाए तो काफ़ी है, शायद हमारी सुप्त संवेदनाओं को जगाना भी इस तरह के छोटे छोटे प्रयासों का मकसद होता होगा!

कोई भी प्रयास कम नहीं है..छोटे से छोटे प्रयास भी बहुत सुंदर हैं.....बस, अब हम लोग बिना वजह की नौटंकी करनी बंद दें, फोटू खिंचवाने के लिए...उन्हें आस पास शेयर करने से गुरेज करें, अपनी मन की सुना करें, छोटी छोटी बातों के प्रति संवेदनशील होते जाइए....

मैंने भी पिछले दिनों कुछ निर्णय किये हैं....अभी शेयर कर रहा हूं कि कभी भी प्लास्टिक आदि के दोने में मिले प्रसाद को नहीं खाया करूंगा..इस के बारे में अकसर लोगों को जागरुकता तो करता ही रहता हूं...और बाज़ार जाते वक्त हमेशा कपड़े का थैला ले कर चला करूंगा...पर्यावरण दिवस की पूर्व संध्या पर अपने आप से मैंने ये वायदे किए हैं..


थोड़ी मिलावट की बात भी कर ली जाए... आज ही घर में आई ब्रेड से पता चला कि अब वे घोषणा करने लगे हैं कि हानिकारक तत्व नहीं हैं उनमें.....लेकिन मैं तो ब्रेड वैसे ही नहीं खाता..

तुलसी की बातें हो रही हैं...मुझे यह गीत बार बार ध्यान में आ रहा है ...लीजिए आप भी सुनिए..

आज मुझे बशीर बद्र जी के ये अशआर याद आए...


शुक्रवार, 3 जून 2016

बोतल बंद पानी नहीं दिखेगा...An eco-friendly move!

10-15 वर्ष पहले मैं कोंकण रेलवे पर सफर कर रहा था..विभिन्न स्टेशनों पर पानी के टोटियों के साथ एक नोटिस लगा हुआ था...आप को यहां बोतल बंद पानी खरीदने की ज़रूरत नहीं है, यहां पर नल में जो पानी सप्लाई हो रहा है, इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार जांचा परखा गया है। आप इस की शुद्धता के बारे में आश्वस्त हो सकते हैं। मुझे बहुत अच्छा लगा था उस दिन वह नोटिस पढ़ कर।

आप से एक प्रश्न पूछना है...आप किसी मीटिंग में जाते हैं..आप देखते हैं स्टेज पर जितने लोग हैं, हर माननीय के सामने एक बोतल रखी है ...कुछ लोग बोतल खोलते हैं..पानी की एक चुस्की लेते हैं..बस...बाकी बोतल वही...बस, कचड़ा हो गया जमा...और नीचे पंडाल में बैठे लोगों के िलए कोई छबील तो क्या, मई जून के महीने में गर्म पानी के पानी की टोटियां भी नहीं दिखतीं कईं बार...पीना है तो खरीद कर पियो....नहीं तो प्यास को दबाए रखो...आक्रोश की तरह!


हां, तो प्रश्न यह है कि अगर इस तरह के पंडाल या सभागृह में बैठे हों तो आप को कैसा महसूस होता है, चलिए, जवाब किसी को बताने की भी ज़रूरत नहीं...अपने मन में ही रखिए...आप की चुप्पी से मैं आप का जवाब समझ गया।

मैं भी जब कुछ मीटिंगों, वर्कशापों, सैमीनारों में इस तरह की व्यवस्था देखा करता था कि स्टेज पर सब के सामने एक एक बोतल पानी की ...मुझे तो बहुत अजीब या भद्दा दिखता था यह सब कुछ....क्यों भाई..कईं तरह के विचार भी मन में आते थे जिन्हें मैं भी आप की तरह मन में दबा के रखना चाहता हूं..

लेकिन आज सुबह सुबह मुझे वाट्सएप पर एक सरकारी सर्कुलर देख कर बहुत अच्छा लगा..पेयजल मंत्रालय की तरफ़ से था .. सभी सरकारी विभागों को एक रिक्वेस्ट की गई है कि सभी मीटिंगों, वर्कशापों एवं सैमीनारों में बोतलबंद पानी नहीं दिया जायेगा....बहुत बहुत बधाई ..इतना बोल्ड स्टेप लेने के लिए..

दरअसल वाट्सएप ने हमें शक्की भी बहुत बना दिया है ...हम अपने स्कूल के दोस्तों के चुटकुलों एवं उन की बातों के अलावा किसी पर भरोसा ही नहीं करते ... मैं भी किसी सरकारी सूचना को बिना वैरीफाई किए किसी के साथ आगे शेयर नहीं करता...क्योंकि फिर यह हमारी सिरदर्दी बन जाती है ..कुछ महीने पहले एक बार किसी ने  मार्फ्ड दस्तावेज (morphed) अपलोड कर दिया था...बिना वजह का झंझट...

मैंने गूगल सर्च से वेरीफाई कर के ही यह पोस्ट लिखनी शुरू की...मुझे बहुत अच्छा लग रहा है...

कुछ सुझाव भी हैं... like a bottled message in a sea! लिख रहा हूं...
  • अब यह न हो कि बोतलों की जगह वे प्लास्टिक के सीलबंद गिलास मिलने शुरू हो जाएं इन मीटिंगों में...वे भी उतने ही भद्दे लगते हैं और पर्यावरण के लिए बेहद खराब तो है ही यह सब कचड़ा...
  • सभागार में बैठे श्रोताओं के लिए भी किसी कोने में जो पानी का डिस्पेन्सर रखा है, उस के पास भी प्लास्टिक के डिस्पोज़ेबल गिलास नहीं रखे जाने चाहिए....क्यों भई, कांच के दो चार गिलास रख दीजिए..जिसे प्यास होगी, थोड़ा धो के पी लेगा..तो कौन सा शान कम हो जायेगी!
  • डेलीगेट्स के लिए छोटी छोटी मिनी बोतलबंद पानी की बोतलों का भी चलन बहुत खराब है ...ऐसी ही सैंकड़ों भरी हुई और खाली बोतलों का अंबार मेरे आधे सिर के दर्द के ट्रिगर करने के लिए काफी होता है, चलिए, मेरे पुराने सिर दर्द से किसी को क्या लेना-देना, लेकिन एन्वार्यनमैंट से तो है...यह सिलसिला भी खत्म होना ही चाहिए..
  • यह जो सर्कुलर है यह एक निवेदन जैसा है...मुझे ऐसा लगता है कि अब सभी मंत्रालयों एवं विभागों को इस तरह के सर्कुलर निकालने होंगे...और आदेश वाली भाषा में ...निवेदन-वेदन क्या, सरकारी नौकर हैं सभी ..ऊपर से नीचे तक...जैसा आदेश होगा, उस की पालना करनी ही होगी..
  • कहीं पर भी सरकारी दफ्तरों में डिस्पोजेबल गिलास भी न खरीदे जाएं...न पानी के लिए न चाय के लिए...बिना वजह हम लोग कचड़े के अंबार लगाते रहते हैं...थर्मोकोल भी तो खराब ही है ..कांच और चीनी के बर्तनों में चाय-वाय पिलाई जाए...जिसे पीनी हो पिए, वरना कोई बात नहीं घर जा के पी लेंगे..
  • और क्या लिखना है, जितना लिखें कम है..टॉपिक ही ऐसा है, हम सब कि ज़िंदगी से जुड़ा हुआ..जितनी जल्दी हम लोग अपनी आदतें सुधार लें, बेहतर होगा हमारे लिए भी और अगली पीढ़ी के लिए भी ...वरना वे भी हंसेंगे हमारे बाद कि ये बुड्ढे लोग भी कचड़े के ढेर पर बिठा कर चले गये..
  • एक सुझाव और भी है ...ये जो राजधानियां और शताब्दीयां चलती हैं..इन में भी रोज़ाना लाखों पानी की बोतलें बांटी जाती हैं...यह सब भी बंद होना चाहिए...हम कोई फिरंगी साहब लोग नहीं हैं...देश की आम जनता है सब लोग..बिना वजह के शोशेबाज़ी, फिज़ूल के नखरे (इस महान प्रजातंत्र में एक चाय बेचने वाला अगर प्रधानमंत्री बन सकता है..इस से बड़ा और मजबूत प्रजातंत्र का और क्या प्रमाण चाहिए), जिसे ज़रूरत होगी पानी खुद खरीद लेगा ...आज से तीस चालीस साल पहले ट्रेन के पहले दर्जे के डिब्बों में एक किनारे पर एक स्टील की टंकी सी पड़ी होती थी पीने वाले पानी की...वरना लोग अपनी अपनी बोतलें, मश्कें और सुराहियां साथ ही ले कर चला करते थे......एक सुझाव है..एक आईडिया देने में, जनमत तैयार करने में अपना क्या जाता है! वैसे भी मन की बात कहने को आज कल अच्छा समझा जाता है। 
जब मैं इस बोतलबंद पानी की बोतलों को मीटिंग से दूर भगाने वाली खबर गूगल कर रहा था तो कुछ और खबरें भी मिल गईं...पढ़ रहा था कि मिक्स रिस्पांस है, वह तो होगा ही ....Change is always traumatic.... लेकिन फिर जो काम करना हो तो करना ही होता है...No ifs and buts! Just orders, that's all! हम लोग ऐसे ही सुधरेंगे...फिरंगियों ने हमें इसी तरह से ही सुधरने की आदतें डाल दी हैं, क्या करें, हमारी भी मजबूरी है!

पानी ही बोतलें ही नहीं, हर जगह ध्यान रखें कि हम किस तरह से नॉन-बॉयोडिग्रेडेबल कचड़े को कम कर सकते हैं...प्लास्टिक का इस्तेमाल कम कर सकते हैं...थर्मोकोल हटा सकते हैं...To add fuel to fire...हम लोग इन चीज़ों के अंबार लगा देते हैं..फिर उन्हें जला देते हैं...ताकि फेफड़ों तक इन के तत्व आसानी से पहुंच जाएं...जिस सत्संग में जाते हैं, वहां हलवे जैसा प्रसाद भी प्लास्टिक लाईनिंग वाले दोने में मिलता है, क्या करें, कह कह के थक गये हैं...कुछ कहते ही नहीं,अब चुप ही रहते हैं...अगर पत्तल के दोने नहीं भी मिलते तो हाथ में प्रसाद देने में क्या दिक्कत है, मेरी समझ में यह नहीं आता... लंगर के दौरान चाय भी प्लास्टिक या थर्मोकोल के गिलासों में ही होती है ...और तो और लखनऊ में बड़े मंगलवारों(यहां ज्येष्ठ माह में आने वाले मंगलवारों को बड़े मंगलवार कहते हैं..फिर कभी इन के बारे में बात करेंगे)  के दिनों लाखों टन कचड़ा प्लास्टिक और थर्मोकोल इक्ट्ठा हो जाता है.....बहुत बड़ा मुद्दा है शहर में यह कि इसे कौन उठायेगा.......इन्हें चिंता होती है उठवाने की, मुझे चिंता होती है इस कचड़े के हश्र की .....उठवा के कहीं भी जला देंगे..

इसलिए मुझे इस तरह के भंडारे बहुत अच्छे लगते हैं जिस में पत्ते के दोनों में प्रसाद दिया जाता है ...इन का क्या है, यहां से उठाए जाने के बाद दो दिन में मिट्टी में िमट्टी हो जाएंगे....

आज यहां लखनऊ में इतनी उमस है, इतनी चिलकन और गर्मी है कि क्या बताऊं...ऊपर से मैं पोस्टमार्टम के लिए विषय ऐसा शुष्क सा लेकर बैठ गया...जो भी हो, पेय जल मंत्रालय के इस सर्कुलर की जितनी तारीफ़ की जाए कम है...मुझे सरकार के इस तरह के कदम बहुत भाते हैं....अब कहने वाले कह रहे हैं कि इस से क्या होगा...क्यों नहीं होगा...There is a chinese proverb...Journey of 3000 miles start with a first step!.... हो जायेगा सब कुछ होगा धीरे धीरे, शुरूआत तो हुई...किसी को यह भी लग रहा होगा कि यह भी कोई PR exercise के तहत हो रहा होगा...just a publicity gimmick... चलिए, अगर किसी को यह भी लग रहा है तो भी क्या बुराई है....कुछ भला ही तो हो रहा है हमारे और हमारे बच्चों के लिए...

कुछ ज्यादा brain-storming करने की ज़रूरत नहीं, चुपचाप इस तरह के छोटे छोटे काम पर्यावरण के लिए आप भी करते रहिए...एक एक बूंद से भी घड़ा भर जाता है....

अब इतनी ड्राई पोस्ट के बाद अगर मैं कोई डिप्रेसिंग सा गीत चला दूंगा तो बहुत अन्याय होगा...कुछ ऐसा याद करते हैं जिस में थोड़ी ठंडक हो, कुछ मस्ती हो...आप चंद लम्हों के लिए घमौरियों को भूल जाएं.....ठंडी हवाओं ने गोरी का घूंघट उठा दिया...यह गीत कैसा रहेगा! Again, one of my favorites since childhood!






गुरुवार, 2 जून 2016

गंगाजल की खबर तो यूं ही एक बहाना है..

जी हां, इसी बहाने पिछले दो तीन दिनों से मेरे फिल्मी दिमाग में कुछ गीत बार बार आ रहे हैं...इन में से दो तीन के तो वीडियो भी आज पहली बार देखे...रेडियो पर तो खूब सुना...सोच रहा हूं आप से भी शेयर कर लूं तो मुझे चैन पड़े।


कुछ दिनों से गंगा जी की और गंगाजल की बहुत बातें देखने-सुनने को मिल रही हैं...शायद रविवार के दिन गंगा मामलों की मंत्री उमा भारती की इंटरव्यू आ रही थी... पांच दस मिनट देखने का मौका मिला...मैं उन की धाराप्रवाह हिंदी बोलने की शैली से प्रभावित हुआ..बस!


आगे चलते हैं...डाकिये का नाम लेते ही ध्यान में क्या आता है?....मुझे तो बस वही याद आता है ..डाकिया डाक लाया ..खुशी का पैगाम कहीं दर्दनाक लाया....अपनी मेमोरी में ये गीत फिट हो चुके हैं...

लेकिन कल पता चला है कि अब डाकिये के जरिये लोगों तक गंगा जल भी सप्लाई किया जाएगा....क्या कहें ...तुरंत काजल कुमार जी का एक कार्टून दिख गया...यहां शेयर कर रहा हूं...

मुझे याद है जब डाकखानों में टैलीफोन बिल, बिजली बिल...रेलवे की टिकटें...और भी पता नहीं क्या क्या, ये सब सुविधाएं शुरू होती गईं तो कुछ लोगों को डाक कर्मीयों के साथ एक सहानुभूति सी होने लगी....लेिकन यह डाकियों द्वारा गंगाजल सप्लई किए जाने की बात पर तो वह विज्ञापन याद आ गया....बच्चे की जान लोगे क्या!

अभी अभी आज का अखबार उठाया तो एक खबर देख कर बड़ी हैरानी हुई....जैसे कि कल हुई थी...कल एक खबर दिखी कि यहां लखनऊ में िमलावटी मैदा बरामद किया गया है ...यार, मैदा भी कोई मिलावट करने वाली चीज़ है....और आज पता चला कि सादे जल को गंगा जल कह कर बेचने का गोरखधंधा भी चल रहा है...
(इसे पढ़ने के लिए इस इमेज पर क्लिक करिए)
फूड सेफ्टी वाले भी इन छोटी छोटी मछलियों को पकड़ कर आंकड़ों का पेट भरने में लगे हैं...किसी व्हेल मछली को पकड़ें तो जानें..


बहरहाल, गंगा जल की बात आते ही ..कुछ यादें आ जाती हैं...जितनी बार भी गये ...हरिद्वार के बाज़ार से चार-पांच लिटर की प्लास्टिक की एक बोतल गंगा जल से भर कर लाना नहीं भूले...हर साइज की खाली बोतलें वहां मिलती हैं...बस, आप को गंगा जल भर के ठसाठस भऱी बस-ट्रेन में उसे कहीं रखने भर का जुगाड़ करना होता है...लेकिन एक बात है अब लगता है वहां पर बसे हम लोगों के पुश्तैनी पुरोहितों के दिन भी लदने वाले हैं.....क्यों?..सदियों से बिछड़े रिश्तेनातेदार अब आनलाइन अपने फैमली-ट्री तैयार कर रहे हैं, अपडेट कर रहे हैं...भूलचूक सुधार रहे हैं!! ऐसे में फिर कौन पुरोहितों के बही खातों को देखने के चक्कर में पसीना बहायेगा!

बचपन में सुना करते थे .फलां फलां घर में गंगाजल है...किसी के दिन जब पूरे होने लगते...उसे बिस्तर से नीचे उतार दिया जाता...दिया जला दिया जाता तो उस की मुक्ति के लिए गंगाजल की दो बूंदें भी डालनी ज़रूरी होती थीं...लोगों की दृढ़ आस्थाएं हैं.... No comments!...इत्मीनान से अरूणा ईरानी की ख्वाहिश सुनिए...


हां, मैं रेडियो बहुत सुनता हूं...जब भी मौका मिलता है ...मोबाइल पर नहीं...अच्छे खासे रेडियो पर...वे भी आज कल फिल्मी गीत बजाते समय कुछ थीम चुन लेते हैं....आधे घंटे के लिए.... गंगा जी और गंगा जल के नाम से जो गीत मेरे ज़हन में भी आ रहे हैं बस मैं उन्हें यहां एम्बेड कर के आप से क्षमा चाहूंगा...

शेष बातें फिर कभी करेंगे... फिर मिलते हैं..
शेष सब कुशल मंगल है...
आप का अपना ...
प्रवीण...
लेकिन इस गीत में गंगाजल की नहीं, पानी की ही बात है बस...पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, जिस में मिला दो लगे उस जैसा....कितनी धूम मचाए रखी इस गीत ने!!


मेरे आज सुबह के मूड के साथ मिलता जुलता एक विचार अभी ध्यान में आ रहा है ...वैसे अभी तो ध्यान गंगाजल फिल्म का भी आ रहा है...लेिकन आप लोग पक जाएंगे...