मंगलवार, 10 मई 2016

पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है!

मैं अकसर लोगों से कहने लगा हूं कि सुबह और शाम अगर हो सके तो घर से बाहर खुली फ़िज़ाओं के साथ रहना सीख लीजिए...जी हां, अगर हो सके तभी ...वरना कुछ कुछ मजबूरियां होती हैं कुछ लोगों की काम-धंधों की ..लेकिन च्वाईस उन्हीं को करनी है कि वे किसी कितनी तरजीह देते हैं...इस का कोई नुस्खा नहीं हो सकता...मुझे ऐसा लगता है ..





आज जब मैं सुबह भ्रमण कर रहा था तो अचानक ध्यान आया कि फूलों की तो तस्वीरें सभी खींचते हैं...वे हमेशा लाइम-लाइट में रहते हैं...आज पत्तों की तरफ़ भी थोड़ा देख लिया जाए...इतनी विविधता, विशिष्ठता, सब कुछ इतना नैसर्गिक...मुझे नहीं पता इन में से कुछ पेड़ों के नाम क्या हैं...बस इतना जानता हूं कि ये हर राही को अपनी अनुपम सुंदरता से खुश कर देते हैं...जैसे की जीने की कला सिखा रहे हों!





आज सुबह सत्संग में जिस तरह के बढ़ियाा खस्ता-मटर खाए...इतने लज़ीज़ मैंने अाज तक पिछले तीन सालों में लखनऊ प्रवास के दौरान नहीं खाये....मैंने सोचा कि उसे भी लगे हाथ अपने ब्लॉग पर दर्ज़ कर ही दूं...


 मैं मोबाइल से फोटो ट्रांसफर कर रहा था तो मुझे मेरे इस दोस्त की तस्वीर भी दिख गई..कल रात सोते समय खींची..अब टीवी देखना सिरदर्दी जैसा होने लगा है, सोच रहा हूं कि शाम को ही इसे ऑन कर लिया करूं...
यह भी मेरा पक्का दोस्त है..
एक टीवी शो अकसर देखा करता था ...लगता था कि ठीक बातें होती हैं वहां..लेकिन कल देखते देखते अचानक ध्यान आया कि लगता है यह शो भी बिक गया दिखे है, शायद बिकने की कगार पर है...या फिर डर गया है ...पता नहीं ..ठीक है यार वंचितों की, हाशिये पर रहने वालों की बात होनी चाहिए....इस में दो राय नहीं हैं....बात बात पर  "स्वर्णों" पर दोषारोपण, बात बात पर उन में दोष निकालने की कोशिश....अजीब सा लगने लगा है ...बहुत से लोगों से मिलता हूं रोज़ाना...यकीन मानिए अब कुछ कुछ स्वर्ण जाति वाले भी नाम के ही स्वर्ण रह गये हैं और असल में वे भी हाशिये पर जीने वाले ही लगने लगे हैं...मैं किसी का पक्ष नहीं ले रहा हूं , लेकिन हर बात में संतुलन रखना ज़रूरी है....पंद्रह सालों बाद मैं इस तरह की बात आज पहली बार लिख रहा हूं...वंचितों की बात होनी चाहिए, बेशक, लेिकन दूसरे बहुत से लोग भी तो वंचित ही हैं, नाम के लिए वे so-called स्वर्ण हैं, उन का क्या?





मैं भी किस चर्चा में पड़ गया...जिस में अकसर मैं पड़ता नहीं हूं...लेिकन कभी कभी मन की बात बाहर आ ही जाती है...लेकिन एक बात अच्छी हुई ..स्वर्ण लिखते लिखते कल सुबह टहलते हुए एक सज्जन दिख गये जिन्होंने गल में कम से कम २०-३० तोले की सोने की चैन डाली हुई थी...अजीब सा लगा आज कल के माहौल में यू.पी ...मुझे ध्यान आया कि शायद असली हो या शायद नकली हो ..लेकिन जिस तरह वह दबंग अपने दोनों दोस्तों के आगे बिल्कुल छुट्टे सांड की तरह चल रहा था ...बाजू अजीब तरीके से हिला हिला के ...एक बार तो लगा कि यह ज़रूर शुद्ध सोने की चैन ही डाले हुए हैं....लेिकन कुछ पता नहीं चलता आजकल...असली-नकली में.....सारांश यह है कि इस गर्मी में, इस माहौल में यूपी में ...चाहे चैन नकली थी या असली थी, वह तो पता नहीं, लेिकन वह बंदा परले दर्जे का बेवकूफ़ ज़रूर था।


एक बात तो आपसे शेयर करना भूल ही गया...दो तीन दिन से टाटास्काई मिनिप्लेक्स पर ए-वेडनेसडे नाम की फिल्म आ रही थी...इसे मैंने एक डॉयलाग के लिए अभी तक लगभग बीस बार तो देख लिया होगा...एक आम आदमी के प्रतिशोध की कहानी है यह...मैंने पांच छः बार इस डॉयलाग को अपने मोबाइल में रिकार्ड करना चाहा...लेकिन बीच बीच में कैमरा धोखा दे जाता ...हार कर परसों आडियो ही रिकार्ड की इस डॉयलाग की ..लेकिन उस की क्वालिटी से मैं खुश नहीं था...हार कर आज सुबह यू-ट्यूब पर इस डॉयलाग को ढूंढ ही लिया....आप भी सुनिएगा...कितनी मेहनत करते हैं ये लोग भी ...इतने इतने लंबे डॉयलाग और इतने फ्लालैस तरीके से बोलना....इन के चेहरों की भाव-भंगिमा देखते बनती है...महान कलाकार....महान आर्टिस्ट....चुपचाप अपनी साधना में लगे रहते हैं....इन के फन को हमारा सलाम....

आज पत्तों की बातें हो रही हैं तो पत्तों वाला ही कोई गीत सुनना चाहिए...हो जाए फिर!

रविवार, 8 मई 2016

मटरगश्ती खुली सड़क पे...

रात चैन से नहीं बीती, अभी बताता हूं क्यों, लेकिन सुबह उठा तो सोचा चलता हूं थोड़ी मटरगश्ती ही कर आऊं..

हां, तो रात में चैन न आने का कारण मच्छर नहीं थे, उन का आतंक कुछ दिनों से कम ही है...बेचैनी इसलिए रही कि मैंने कल दो समोसे खा लिये थे...रोक नहीं पाया..जब कि पता है कि कोई भी मैदे वाली चीज़ खाने के बाद मेरी हालत अगले २४ घंटे तक खराब ही रहती है...अजीब सा लगता रहता है, न कुछ करने को मन करता है, न नींद आती है...लेकिन ढीठ प्राणी हूं मैं भी ...और लोगों से यह उम्मीद करता हूं कि मेरा घिसा-पिटा पका हुआ भाषण सुनने के बाद वे तुरंत मेरी जुबलेबाजी के आगे सरेंडर कर दें..पानमसाला, गुटखा थूक दें, सिगरेट बीड़ी बुझा दें और सुरती की सूरत न देखने की कसम ले लें.....ऐसा कभी होता है क्या!...मेरा फ़र्ज़ है लोगों को सही-गलत से रू-ब-रू करवाते रहना...आगे इन लोगों की अपनी मनमर्जियां...कोई किसी की परिस्थितियां नहीं बदल सकता, बस हम कोशिश कर सकते हैं...

हां, कल रात वाले सपने की बात तो आप को सुना दूं...मुझे सपना यह आया कि हमारे मुख्यालय के बाबू मुझे कह रहे हैं कि आप ने जो २००५-०६ में नियुक्तियां की थीं...उन में से एक पद तो था ही ही नहीं, लेकिन आप ने नियुक्ति कर दी थी...पंगा पड़ा हुआ है ..चिट्ठी भिजवा रहे हैं....उन्होंने सीधा सीधा कहा कि अब इतने सालों में उस कर्मचारी को जितनी तनख्वाह दी जा चुकी है, वह सारी राशि मेरी तनख्वाह से ही कटेगी।

मैं हैरान-परेशान ...मुझे इतना इत्मीनान तो था कि मैं कौन होता हूं यह नियुक्ति करने वाला...ठीक है, सेलेक्शन कमेटी का एक सदस्य होता हूं ...लेकिन वहां भी सब कुछ पारदर्शी तरीके से करने में विश्वास रखता हूं ...अब इतना पैसा कैसे भरूंगा...क्योंकि बाबू तो बाबू होता है, जो उसने कह दिया वह तो हो कर ही रहेगा...यह वसूली तो होगी ही..वैसे दफ्तर से आते आते मुझे एक बाबू ने धीमे से यह भी कह दिया कि हम आप को इस वसूली से बचने की कोई तरकीब बता देंगे....लेकिन पता नहीं मैं उस समय उस की तरकीब या जुगाड़ सुनने के मूड में ज़रा भी नहीं था...मैं बाहर चला आया..

रात भर मैं टोटल करता रहा कि यह वसूली कमबख्त कितनी बनेगी....५ हज़ार रूपया महीना भी उसे अगर तनख्वाह मिली होगी तो भी बहुत हो जायेगा...वैसे तो इस से कहीं ज़्यादा ही उसने वेतन पा लिया होगा...क्योंकि २००६ के बाद से तो वेतन आयोग की वजह से सेलरी बढ़ गई थी....बस, यही कुछ चलता रहा सपने में .....बीच में यही ध्यान भी आता रहा सोते सोते कि अच्छा होता वलेंटरी रिटायरमेंटी ले ली होती ...यह सब कहां मुझे कोयलों की दलाली में फंसना पड़ेगा... न कुछ किया न कराया...बिना वजह झंझट...

सुबह जब नींद से उठा तो शुक्र किया कि यह सब सपना था...

मुझे लगता है मुझे इसलिए सपना आया क्योंकि आज कल ८०० करोड़ मार्का आईएएस लोगों की खबरें बहुत दिखने लगी हैं...और मामूली अफसरी से रिटायर लोगों की जब मैं आते जाते कोठियां देखता हूं तो अपने आप से यह प्रश्न करता हूं कि यार, मैं तो रिटायरमैंट पहुंचते पहुंचते किसी मेट्रो शहर में एक बंगला तो छोड़िए, एक अच्छे फ्लैट का जुगाड़ तक न कर पाया....और ये इतने इतने भव्य भवन कैसे बन गये...

पूछा था जी एक बार किसी से .... अचानक पता चला कि उस का ससुरा बहुत रईस था, वह दे गया बहुत कुछ उसे.....किसी दूसरे के बापू के पास गांव में बड़ी ज़मीन जायदाद थी िजसे बेच दिया गया....अब हम इन चीज़ों में पड़ते नहीं हैं तो क्या हम असलियत जानते नहीं है, कोई रईस-वईस नहीं...कोई ज़मीन जायदाद नहीं, अधिकतर लोग -९९प्रतिशत लिखते डर लगता है ...जो नौकरी में आते हैं वे सब के सब शुद्ध मिडिल क्लास बैकग्राउंड के होते हैं ...जितने मर्जी नखरे कर ले कोई भी ...सच तो सच ही होता है ...जो थोड़े से भी खाते-पीते होते हैं वे नौकरी में आते ही नहीं है, ऐसा मुझे लगता है ...




मेरा सपना टूटा तो मेरी जान में जान आई..थोड़ी मटरगश्ती करने निकल पड़ा....बाज़ार में आज देखा कि मटके खूब बिक रहे हैं और वे भी टोटी वाले ...अच्छी बात है लोटे का झंझट ही खत्म ..वरना उसे भी संभालना पड़ता है ...मैंने पंडित जी से कहा कि आप ने यह काम बहुत पुण्य वाला कर दिया है ...हंसने लगे...

लौटते समय देखा कि यह भीमकाय टंकी रिक्शा वाला कहां ले जा रहा है....उसने बताया कि ५००० लिटर की है ..लगभग डेढ़ टन का वजन है ...लगभग २० किलोमीटर दूरी पर बिजनौर ले कर जा रहा हूं...तनख्वाह पर हूं दुकानदार के पास....रिक्शेवाले से भी चिकचिक....उसे अगर हर फेरे के पैसे देने पड़ेंगे तो वह महंगा पड़ेगा...इसलिए पांच छः हज़ार दे देते होंगे, और क्या! पसीने से लथपथ दिखा वह रिक्शावाला...लेकिन मस्ती में चला जा रहा था खुशी खुशी...


हां, बाज़ार में एक जगह मैं फ्रूट खरीद रहा था तो साथ वाली रेहड़ी पर ये तीन चीज़ें बिक रही थीं.... मुझे एक का तो नाम पता है फालसे...हम लोग खूब खाया करते थे, अब शहर में दो तीन जगहों पर दिख जाते हैं इस मौसम में ...बाकी दो फलों का नाम मुझे पता नहीं था...खरबूजे वाले ने बताया कि यह पीले वाला फल है किन्नी और दूसरे फल का नाम है सिंगड़ी ...घर आकर गूगल किया तो कुछ पता नहीं चला, अगर आप में से इन के बारे में किसी को पता हो तो लिखिएगा..मैं सोच रहा था कि मेरी उम्र के लोगों को अब इन तीन में से एक का ही नाम पता है, और स्वाद पता है....और कुछ सालों में तो ये फल विलुप्त ही हो जाएंगे जब किसी को इन का नाम तक पता नहीं होगा, तो खरीदेगा कौन......वैसे खरबूजे वाले ने आते आते सीख दे डाली कि हर मौसम के फल का स्वाद ज़रूर चखना चाहिए....

घर आकर नवभारत टाइम्स पर नज़र गई तो वहां पर पहली बात दिखा कि एक ट्रक में इतने सारे मटके लदे हुए हैं...एकदम ध्यान आया कि ५००० लिटर की टंकी रिक्शे पे और पांच लिटर की सुराही ट्रक पे..

सुबह सुबह और वह भी रविवार के दिन इतनी सीरियस बातें करना ठीक नहीं ...चलिए, इस मटरगश्ती सांग को ही सुन लेते हैं... कहते हैं फिल्म इतनी चली नहीं थी, नहीं चली तो न सही, लेकिन गाना तो मस्त है ही, काम भी अच्छा ही किया लगता है ....लोगों ने नहीं अच्छी लगी तो कोई बात नहीं ...वैसे भी पब्लिक अभी अच्छे दिनों की इंतज़ार में है, उन्हें और कुछ भी अच्छा नहीं लगता.... क्या ख्याल है?



शनिवार, 7 मई 2016

मजे में हूं...

एक सत्संग में जाता हूं..वहां पाखंडबाजी बिल्कुल नहीं है..अच्छा लगता है वहां बैठना, महांपुरूषों के वचन सुनना और अगर ये वचन मन में अगर बस जाएं तो बात बने!

बहरहाल, कुछ दिन पहले सत्संग में सुना महात्मा बता रहे थे कि हर हाल में, हर पल इस परमपिता परमात्मा का शुक्रिया अदा करते रहा करिए...सच में यह हमारी सब से बड़ा कर्त्तव्य है कि हम लोग हर क्षण इस परमात्मा का शुकराना करते रहें...इस से यह खुश हो जाता है ज़ाहिर सी बात है ...

यही समझा रहे थे कि जो लोग ईश्वर में आस्था रखते हैं अगर कोई उनसे पूछता है कि कैसे हैं तो वे यही कहते हैं....बिल्कुल ठीक हूं...मजे में हूं, ईश्वर का लाख लाख शुक्र है। और अगर दुनिया में इधर उधर देखें तो अकसर यही देखने में आता है कि अगर कोई किसी का हाल चाल पूछता है तो अगर सामने वाला कहे कि मेरे एक घुटने में दर्द है ...तो पूछने वाला तुरंत कह देता है कि यार, मेरे तो दोनों घुटनों में दर्द है।

आज के हिन्दुस्तान अखबार में घुघूतीबासूती ब्लाग की एक पोस्ट दिखी ...मजे में हूं...इन के ब्लॉग पर नियमित जाना होता रहता है और ये भी अकसर मेरे ब्लॉग पर आकर उचित मार्ग-दर्शन करती हैं...बहुत अच्छा लिखती हैं ...आप भी इन का ब्लॉग देख-पढ़ सकते हैं इस लिंक पर क्लिक कर के..

लिखतीं हैं इस लेख ..मजे में हूं ..कि लोग अकसर पूछते हैं अगर किसी से कि आप कैसे हैं तो हम लोग अपनी सारी परेशानियों को छुपा कर कितनी सहजता से कह देते हैं ....मजे में हूं...लेकिन एक छोटा बच्चा है, उस से कोई पूछे तो वह कितनी ईमानदारी से अपनी तकलीफ़ें िगना देता है ...नाक बह रही है, बुखार है, पैर में फोड़ा है, खांसी हो रही है..आदि इत्यािद।

इन का लेख सुबह ही पढ़ लिया था...ड्यूटी पर चला गया...बात यही मन में बार बार आ रही थी कि चलिए बच्चे तो बच्चे हैं, मन के सच्चे हैं, उन्होंने जैसा भी अपना हाल ब्यां कर दिया, ठीक ही है...लेिकन बड़ों के लिए यह कहने के साथ साथ कि मजे में हूं, हर पल ईश्वर का शुक्रिया अदा करना भी बनता है ...

आज ओपीडी में एक अधेड़ उम्र की औरत आई ...कुछ बात हुई तो अपनी सास के बारे में बताने लगीं कि सास बहुत बीमार है...मैं उन की सास को अच्छे से जानता हूं ..डेढ-दो साल पहले वे मेरे पास इलाज के लिए डेढ--दो महीने आती थीं...बहुत नेक औरत..उम्र यही ७५-८० के करीब रही होगी....

उस बुज़ुर्ग की बहू बता रही थीं कि सास की शूगर कंट्रोल नहीं हो रही है, पिछले कुछ दिन दाखिल थीं...मैं इस बुज़ुर्ग औरत को बड़ा ज़िंदादिल मानता हूं...यहां लखनऊ महोत्सव में पिछले से पिछले साल बड़े से झूले पर बैठने की इच्छा ज़ािहर की ... जो बहुत ऊंचे जा कर नीचे आता है ...बेटे ने टिकट ले कर बिठा दिया...इन्होंने खूब एंज्वाय किया...वैसे भी किसी से बातचीत करने पर पता चल ही जाता है ...बड़ी करूणामयी, वात्सल्य से भरी हुई लगी मुझे यह बुज़ुर्ग...
आज जो बात पता चली बहू से कि ये अपने अड़ोस-पड़ोस में तो दूसरी की मदद करती ही हैं ...अपनी बुज़ुर्ग काया के बावजूद भी ...लेकिन पिछले दिनों जब यह अस्पताल में थीं तो इन्होंने यहां भी नेकी की कमाई कर गईं...क्या किया बताऊं?...मैं दंग रह गया उन की बहू से यह सुन कर कि थोड़ी सी तबीयत सुधरी तो आस पास की अपने से बुज़ुर्ग औरतों की मदद करने लगतीं ...एक बहुत ही बुज़ुर्ग औरत जिसे घर वाले दाखिल करवा कर चले गये थे उसे नहलाने ले गईं...बाथरूम उस के साथ जाना....और तो और बहू ने बताया कि हम घर से खाना लाते हैं...एक चपाती खातीं, बाकी दूसरों में बांट देतीं आस पास के मरीज़ों में जिन के घर से खाना नहीं आया होता....
मुझे तो ये बातें सुन कर इतना अच्छा लगा िक मैंने तो उस महिला को इतना ही कहा ....अम्मा को ऐसा ही बने रहने दीजिए, सेवा में बड़ी शक्ति है...

साथ में मैंने एक कागज़ के टुकड़े पर आशीर्वाद के रूप में एक संदेश लिख कर उस बुज़ुर्ग को भिजवा दिया..बहू बता रही थी कि आप को बहुत याद करती हैं ...मुझे लिखते लिखते ध्यान आया कि पिछले साल मेरे बेटे का रिजल्ट आया तो मेरी मां, बीवी और मेरी फोटो बेटे के साथ पेपर में छपी तो पेपर देख कर बताते हैं बहुत खुश हुईं...और बधाई देने भी आईं।

वैसे तो गांव में इनका घर है लेकिन पारिवारिक कारणों की वजह से (जिन्हें मैं यहां लिखना नहीं चाहता) उन्हें लखनऊ में ही रहना अच्छा लगता है ...बड़ा बेटा गांव में रहता है ..इन की बहू ने बताया कि जब इन के पति केवल २९ दिन के थे तो इन के ससुर चल बसे थे...और तब इन का बड़ा बेटा डेढ़ साल का था...इन के ससुर को २१ साल की उम्र में पेट का कैंसर हो गया था, जैसा उन्होंने बताया...बड़े संघर्ष से बेटों को पालन-पोषण किया।

उस बुज़ुर्ग महिला के महान कामों के बारे में सुन कर मुझे यही लगा कि मैं तो बस शब्दों से खेलना ही जानता हूं...सच में यह शब्दों का खेल ही है कि कोई हाल पूछे तो क्या कहना है, क्या नहीं कहना है, लेकिन इस वयोवृद्ध महिला ने तो सच में जीने की कला ही सिखा दी हो जैसे ....अपना हाल ठीक नहीं है, लेकिन उस का रोना रोने की बजाए (वैसे भी आज के दौर में किसे परवाह है किसी की तकलीफ़ की, और कोई सुनना भी तो नहीं चाहता!) अपने से ज़्यादा लाचार-बेबस किसी अन्य बुज़ुर्ग का हाथ थाम लिया....लेकिन सब कुछ निःस्वार्थ भाव से...आप के इस जज्बे को बार बार नमन ...ईश्वर आप को स्वस्थ रखे और आप श्तायु हों..




रविवार, 1 मई 2016

रोड़-इंस्पेक्टरी का भी अपना मजा है...

आज फिर मैं रोड़-इंस्पैक्टरी करते हुए चारबाग स्टेशन के आगे से गुजर रहा था तो देखा कि एक युवक खड़ा था और एक अधेड़ उम्र का बंदा उस की पतलून की जिप से कुछ कर रहा था..तभी उस बंदे की औज़ारों की तरफ़ देखा तो पाया कि यह तो उस की ज़िप रिपेयर करने में लगा हुआ है..

ठीक है, खुली ज़िप भी जो बंद न हो या अटक जाए ..वह तो एक एमरजेंसी तो होती ही है..आज तक यही पता था कि जिप खराब होने पर पतलून को दर्जी के यहां ही देना होता है ..आज पहली बार पता चला कि यह काम एमरजेंसी में खड़े खड़े भी कुछ लोग कर देते हैं।

इन की फोटो खींचने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था..वैसे मेरी जेब में आज कैमरा थी भी नहीं...जानबूझ कर मैं उसे घर पर ही छोड़ गया था...मैंने यही सोचा कि देखते हैं कौन सा पहाड़ टूट पड़ता है मोबाइल जेब में न रखने से..

दरअसल कल शाम जब मैं टहलने गया तो भी मैं सेलफोन घर पर ही छोड़ गया था...सच में बड़ा मज़ा आया...न बार बार की टुं टुं... न चूं चूं...ठंडी हवा का इतना लुत्फ़ आया कि मैं ब्यां नहीं कर सकता...कल दोपहर में खाना-छाछ-तरबूज सब कुछ इतना ठूंस लिया कि शाम होते होते सिर भारी होने लगा..इसलिए मैं निकल पड़ा टहलने खुली हवा में...तबीयत अच्छी हो गई...कुछ समय टहलने के बाद..उल्टी जैसा हुआ और हुई भी..उसके बाद तुरंत हल्कापन महसूस हो गया..

मैं आज सुबह की रोड़-इंस्पैक्टरी की बात कर रहा था.. उस जिप रिपेयर वाले से थोड़ा आगे चलने पर पाया कि कुछ लोग नीचे जमीन पर चौकड़ी लगा कर अपनी दाड़ी बनवा रहे हैं...दाड़ी बनाने वाला एक लकड़ी की चौकी पर बिराजमान था और उसने उतनी जगह पर एक छाता भी लगवा रखा था..

मैं यही सोचता हुआ जा रहा था कि ये सब कारीगर भी हमारी दिनचर्या का एक अभिन्न अंग हैं...आम आदमी की इन पर बहुत निर्भरता है ... इन सब लोगों का विकास भी कौशल विकास ही है ...थोड़े थोड़े पैसों में लोगों का काम हो जाता है ..और इन का जीविकोपार्जन।

थोड़ा आगे चलने पर मैंने नवभारत टाइम्स खरीदी..संडे के दिन मेरी कोशिश रहती है कि मैं इसे भी ज़रूर देख लूं..अभी मैं थोड़ा ही आगे गया था तो मैंने सुना डी जे का तेज़ म्यूज़िक चल रहा है...आगे देखा तो पता चला कि जैसे लोग कोई मूर्ति विसर्जन करने जा रहे हों...लेकिन ऐसा लगा तो नहीं...खूब तेज़ तेज़ म्यूज़िक चल रहा था...सब से आगे डी जे की वैन थी...फिर कुछ बच्चे और युवा साथ साथ नृत्य करने में मशरूफ थे... उस के पीछे एक खुले छोटे ट्रक में एक महिला को कुछ "पवन"जैसे आ रही थी...वह ज़ोर ज़ोर से अपनी सिर और बाजू हिलाए जा रहीं थीं..जो कि अधितकर डी जे गाने से मैच ही कर रही थी... कुछ समय के लिए लखबीर सिंह लक्खे का यह गीत बजा..एक दो मिनट के लिए...बाकी तो हनी सिंह के गीत ही बज रहे थे...

मुझे नहीं पता था, एक युवक ट्रक से हलवे-चने का प्रसाद लेकर आ रहा था और साथ में हंस हंस कर लोटपोट हुआ जा रहा था...उस ने ही किसी दूसरे बंदे को हंसते हुए कहा....(पूरा नहीं लिख पाऊंगा)... हनी सिंह का गीत लगा रखा है!

सब की अपनी अपनी आस्था है...मुझे तो बस इस बात की खुशी थी कि इसी बहाने लोग एक साथ मिल कर हंस-खेल रहे हैं..बाकी तो अपनी अपनी श्रद्धा की बातें हैं...उन में उलझ कर हम इन हल्के-फुल्के पलों का भी मज़ा किरकिरा कर लेते हैं..राहगीर एंज्वाय कर रहे थे, हल्वे-चने का प्रसाद का मजा ले रहे थे, यह अपने आप में बड़ी बात है।

ओह अम्मा यह क्या हुआ....अचानक एक अम्मा प्रसाद लेकर आई तो किसी दूसरे का हाथ लगा उस का दोना िगर गया...वह असमंजस में थी, मैंने तुरंत कहा ...आप फिर से लीजिए जाकर ...वह फुर्ती से पिछले ट्रक की तरफ़ गई और फिर से प्रसाद पा लिया....मुझे बड़ा इत्मीनान हुआ।

कुछ दिन पहले एक फेसबुक मित्र जो कि ब्राह्मण हैं उन्होंने एक पोस्ट लिखी फोटो सहित कि किसी के यहां तिलक पर गये हुए थे तो पंडित जी मंत्रोच्चारण के साथ साथ जैसे कि स्टेज-पर्फार्मैंस दे रहे हों, उन्होंने ऐसा अनुभव किया.. फोटो से भी ऐसा ही लग रहा था.. वैसे यह भी होना तो तय ही था जिस तरह से टीवी चैनलों पर कथा-वाचकों को भी बीच बीच में पर्फार्म करना पड़ता है...

पता नहीं आज वहां खड़े खड़े राधे मां और निर्मल बाबा जी की बहुत याद आई...वैसे मैंने आज सुबह ही पेपर में एक भजन संध्या के बारे में भी पढ़ा था जिस में कुछ लाइव-पर्फार्मैंस की बात की गई थी...

पता नहीं मैं भी क्यों आज लाइव-पर्फार्मैंस के पीछे हाथ धो कर क्यों पड़ गया हूं...हम सब भी सुबह से शाम क्या कर रहे हैं...नाटक ही तो करते हैं ...हा हा हा हा, कम से कम अपने बारे में तो मैं पूरे यकीं के साथ कह सकता हूं...और राज कपूर साहब ने तो चालीस-पचास साल पहले ही कह दिया था..दुनिया इक सर्कस है.....