गुरुवार, 13 अप्रैल 2017

वैसाखी मुबारक

आज कल त्यौहारों का पता भी टीवी या अखबार से ही पता चलता है कईं बार .. हमें छुट्टी भी नहीं है आज...

वैसाखी की मुबारक....आज वैसाखी वाले दिन सुबह सुबह बस कुछ पंजाबी गीत जो ध्यान में आए ... वे देखे और यहां शेयर कर रहा हूं...लिख कुछ नहीं रहा ..








बस जी हमारी वैसाखी तो मन गई....बस, शाम को जलेबियां खाने की कसर है.....

यह भी आराम है, पंजाब से बाहर लखनऊ में बैठ कर वैसाखी का जश्न भी यू-ट्यूब पर ही हो जाता है ... 




फलों के रस का सच हम जानते तो हैं, लेकिन ...

मैंने १० साल पहले जब एक साथ अपने तीन चार ब्लॉग शुरु किये तो उन में से एक का नाम था ...हैल्थ टिप्स...

मुझे लिखने के लिए विषय ही ध्यान में नहीं आते थे...ऐसे ही एक दिन मैंने बाज़ार मेें बिकने वाले जूस पर कुछ लिखा था जिस का लिंक नीचे दिया है ...


पिछले कुछ वर्षों में भी लिखता रहा हूं कभी कभी इस विषय पर ...लेकिन कल एक मित्र ने फेसबुक पर एक वीडियो शेयर करी थी...यही जूस बनाने-पिलाने वाले गोरखधंधे के बारे में ..

इस में कुछ ऐसा देखा मौसंबी जूस के बारे में जिस की वजह से मुझे लगा कि यह तुरंत शेयर करने योग्य है ...

दरअसल बाकी सब बातों से मैं परिचित था ...लेकिन मौसंबी को भी इस तरह से टीके लगा कर भारी किया जाता है, यह शायद पहली बार मेरी नज़रों के सामने आया...

कल तक मैं बाज़ार में मिलने मौसंबी जूस को सब से ज़्यादा सेफ़ समझा करता था कि इसमें कोई मिलावट वाली हरकत नहीं होती होगी...लेकिन खुराफ़ाती लोग तो ठहरे नटवरलाल....

अब कोई यह तर्क दे कि बड़े बडे़ ठेकेदार करोड़ों रूपये के बिल्डिंगों के घोटाले कर जाते हैं...उन्हें कोई नहीं छूता... और ये छोटे मोटे व्यापारी ही सब लोगों को दिखते हैं....

ऐसा नहीं है, देर सवेर सभी घोटालेबाज काबू में आ ही जाते हैं...लेकिन छोटे धंधे के बहाने ऐसा नहीं है कि इन को छोड़ दिया जाए....कोई बीमार है, कितनी उम्मीद के साथ वह जूस पीता है कि वह अब ठीक हो जाएगा.....लेकिन ठीक क्या खाक होगा, ऐसा जूस पीने से वह....

मैं भी बाज़ार में केवल मौसंबी का जूस ही पीता हूं ..लेकिन अब यह वीडियो देखने के बाद तो यह भी नहीं पिया जायेगा...

हमेशा से ही यह प्रश्न तो रहा ही है कि ये जूस वाले ऊंची जगह में ग्राहकों की नज़रों से बच कर ही क्यों जूस बनाते हैं...पुराने दिनों में सब को लगता था कि थोड़े खराब फल भी ठेल देते होंगे, लेेकिन फिर भी लोग चुप थे....और यह भी लगता था कि पानी या बर्फ़ खूब मिला देते होंगे, यह भी सच तो था ही लेकिन कोई चारा था भी तो नहीं ...अगर जूस पीने गये ही हैं...

आपने भी नोटिस किया होगा कि फलों का रस बेचने वाला आपके सामने कुछ नहीं करता...

वैसे भी जूस की बजाए आप फल ही खा सकें तो और भी अच्छा... तीन चार संतरे खा लेंगे, दो तीन कीनू खा लेंगे तो हो गया ना जूस, और जो फाईबर वाला तत्व है वह भी आप तक पहुंच गया....लेकिन हां, कईं बार शारीरिक रूप से अशक्त लोगों के लिए, बड़े बुज़ुर्गों के लिए जो अधिक चबा नहीं पाते ... थक जाते हैं....या छोटे बच्चे हैं, इन सब के लिए जूस हो सके तो घर पर ही तैयार करिए...

एक बात ....अगर आप को लगता है कि आप जहां से जूस पीते हैं वह बंदा यह सब नहीं करता तो भी यह एक खुशफहमी हो सकती है, मुझे तो यही लगता है ... कहां तक धक्के खा खाकर यह पता करने की कोशिश करते रहेंगे कि कौन असली है, कौन मिलावटी, कैसे ढूंढ पाएंगे...
असली नकली चेहरा तो फिर भी पता करना आसान है, लेकिन इन मिलावटी चीज़ों का पता लगाना एक दम मुश्किल ...

मुझे अभी ध्यान आया कि बाकी फलों के रस तो अकसर लोग घर में निकाल ही लेते हैं...लेकिन मौसंबी से जूस निकालने को ही बड़ी सिरदर्दी समझा जाता है ...मैंने सोचा कि आप को मौसंबी जूस निकालने वाली मशीन के इस्तेमाल का तरीका ही बता दिया जाए...बहुत सारे बंधु तो जानते होंगे, कुछ के लिेए नया होगा....




सब कुछ तो दिख ही रहा है इस मशीन के इस्तेमाल के बारे में, अब मैं किस चित्र को लेबल करूं!

हां, एक बात जाते जाते जोड़ना चाहता हूं कि आज कल डिब्बेबंद फलों के रस का चलन बहुत होने लगा है ...मैंने शायद १० साल पहले भी इन सब के बारे में कुछ लिखा था...लिंक नीचे दिया है ...


लिंक तो लगा दिये हैं मैंने अपने १० साल पुराने लेखों के ..लेकिन मुझे सच में पता नहीं कि मैंने इतने साल पहले इन में क्या लिखा था, लेकिन मैं इन लेखों को बाद में कभी पढ़ता नहीं हूं....क्योंकि मुझे फिर से याद आ जाता है कि मैं कितना बकवास लिखता हूं ......इसलिए मैं इन से हमेशा बचता हूं, जैसे हलवाई अपनी दुकान की मिठाईयों से बचता फिरता है..उसे उन मिठाईयों के अंदर की खबर होती है .....इसलिए मैं भी इस खुशफ़हमी में ही जीना चाहता हूं कि मैं रद्दी नहीं लिखता...

मैं सोच रहा था कि यह मशीन देखने में थोड़ी हार्ड-कोर दिख रही है लेकिन इस्तेमाल करने में बहुत आसान है ...

अचानक  पंजाबी सिंगर Hard Kaur का ध्यान आ गया है, इसलिए यह गीत लगा रहा हूं..

बुधवार, 12 अप्रैल 2017

मैं हवा हूं, कहां वतन मेरा ...

कल दोपहर के समय मैं अपनी बिल्डिंग की पार्किंग से निकल रहा था तो मेरी नज़र अचानक इस फूल पर पड़ी....मैं देख कर दंग रह गया..पता नहीं इतना खूबसूरत फूल पहले कब देखा था, याद नहीं!

यह फूल लहरा रहा था उस लू में भी ...फुल मस्ती में...मुझे पौधे का भी नाम भी नहीं पता और ज़रुरत भी क्या है!...मुझे इस की बिल्कुल पतली सी टहनी को आराम से थामना पड़ा इस का यह फोटो खींचने के लिए...

हर बार जब भी इस तरह के फूल देखता हूं कि विचार ज़रूर आता है कि इसे तोड़ लेता हूं....लेकिन तोड़ता कभी नहीं, इस उम्मीद के साथ कि इस शाख पर लगे हुए पता नहीं ये कितनी उथल-पुथल हो चुकी रुहों को दुरुस्त करेंगे! कितने लोग इन्हें देखने भर ही राजी हो जाएंगे, मेरी तरह!

मैं ऐसा सोचता हूं कि आदमी अपने आप को जितना भी तुर्रमखां समझता हो, खुदा से बस थोड़ा ही कम समझता हो, लेकिन जब कभी इस तरह के बेनज़ीर कुदरती करिश्मे से रू-ब-रू होने का मौका मिलता है तो उसी पल ज़मीन पर लौट आता है ...

आगे चलें...

अभी अखबार उठाई तो हर तरफ़ ज्ञान बांटने की बातें...हंसी भी आई...सुबह आंख खुलने से रात नींद आने पर कमबख्त इतना ज्ञान बंट रहा है फोकट में कि उलझन होने लगती है कि यार, इतने ज्ञान का करेंगे क्या... इस का एक प्रतिशत भी इस्तेमाल तो हम करते नहीं, हो पाता नहीं या हो पायेगा नहीं, ये अलग बातें हैं!

मुझे ऐसे लगता है कि कुछ बातें हमारे मन में अब ठूंस दी गई हैं...मेरे पास अपने स्कूल के ज़माने के ४० साल पुराने एक दो स्कूल के मैगज़ीन हैं...कभी कभी देख लेता हूं और दोस्तों के साथ फोटो शेयर भी कर लेता हूं... मैंने कल ध्यान दिया ...४० साल तक कभी नहीं दिया...कि स्कूल के हाल में हवन हो रहा है और हमारे दो तीन टीचर जो सरदार जी थे, वे भी पूरी श्रद्धा के साथ आहूति दे रहे हैं...मैं अभी भी अपने आप से यही पूछ रहा हूं कि यह विचार मेरे मन में आज ४० साल बाद आया तो आया कैसे! ....शायद इसलिए ही आया कि अब हमें अपने धर्म को अपनी बाजू पर ओढ़ने की बातें होने लगी हैं ...हर बात में तर्क-वितर्क के बहाने ढूंढने की बात हो गई है ... योग करने को भी हम किसी धर्म के साथ जोड़ने की हिमाकत करने लगे हैं...और भी बहुत कुछ हो रहा है ..बस आंखे खुली रखिए और देखते रहिए ..लेकिन कभी भी इस भीड़ का हिस्सा न बनिए......बस अब आप से ही उम्मीद बची हुई है कि सब से बढ़िया आपसी सौहार्द का प्रतीक आप लोग ही हैं और आप ही रहेंगे, इतिहास गवाह है!

शायर लोग कभी कभी गीत नहीं लिखते, वे हमें हमारे दिलों को टटोलने के टोटके लिख जाते हैं या ईश्वर इन के घट में बस कर ऐसे रचनाओं का सृजन करवा देता है ......जैसे वह रिफ्यूज़ी फिल्म का वह गाना .....पंछी ..नदिया.. पवन के झोंके, कोई सरहद न इन्हें रोके....सरहद इंसानों के लिए है, सोचो...तुमने और मैंने क्या पाया इंसा हो के!

मुझे आज सुबह सुबह कुछ दिन पहले की एक दोपहर याद आ रही थी ...मैं दोपहर में सोया हुआ था...मेरा रेडियो अकसर मेरे सोने पर भी बजता ही रहता है ...इसे अडिक्शन कहते होंगे ...लेकिन जैसे ही मैं उठा तो उस्ताद अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन का इंटरव्यू चल रहा था, मुझे तो इन का नाम भी नहीं पता था, लेकिन इन की यह गज़ल मेरे मन में उतर गई....बेहतरीन! ..यू-ट्यूब पर इन के वीडियो की आवाज़ बहुत कम थी ...इसलिए किसी दूसरे कलाकार की वीडियो लगा रहा हूं..


सभी बातें कितनी सही कही गई हैं! 

रेडियो की वजह से मुझे इन महान शख्शियतों के बारे में पता चला ... पसंद अपनी अपनी होती है, मुझे रेडियो सुनना टीवी देखने से कहीं ज़्यादा सुकून देता है ...टीवी में अगर हम उन उछल कूद कर खबरें पढ़ने, दिखाने और सनसनी पैदा करने वाले कुछ कलाकारों की ताल के साथ ताल नहीं मिला पाते तो मेरा तो झट से सिर भारी हो जाता है ...इसलिेए मैं तो अकसर बचता हूं ..और नहीं तो पुरानी फिल्मी गीत वाला चैनल ही लगा रहने देता हूं... 

लेकिन टीवी देखने का भी एक सुनहरा दौर था ...अभी हम लोग सीरियल का ध्यान आया तो यू-ट्यूब पर ये बातें सुन लीं कि ये लोग कैसे तपस्या किया करते थे...तपस्या के बिना कुछ भी संभव नहीं है ...देखने में लग सकता है कोई जुगाड़बाजी कर के ऊपर पहुंच गया ....लेकिन स्थिरता बिना तपस्या के नहीं आ सकती! ... आप भी इस वीडियो को ज़रूर देखिए... 


तब यह भी नहीं था कि यह सीरियल पाकिस्तानी है, यह हिंदोस्तानी है....पाकिस्तान के बार्डर के साथ लगते पंजाब के ज़िलों में पाकिस्तान टीवी के बेहतरीन प्रोग्राम भी हम रोज़ देखा करते थे....एक तरह से समझ लीजिए....५० प्रतिशत समय तो वहां के बेहतरीन टीवी सीरियल देखते हुए बीत जाया करता था...गुरूवार को रात में एक दो तीन घंटे का पाकिस्तानी नाटक भी देखा करते थे ....अभी ध्यान आ रहा है ..पाकिस्तानी सीरियल का ...सोना चांदी का ...इन ड्रामों का एक एक किरदार याद है ...आज भी तीस साल बाद ... पता नहीं, आज कल ये प्रोग्राम आते हैं कि नहीं, मैंने पूछा नहीं किसी दोस्त से भी, शायर अब इन सूक्ष्म तरंगों पर भी प्रतिबंध लग चुका है ...


इन सब कलाकारों का भी कैनवेस बहुत बड़ा होता है...कोई भी इन्हें सरहदों में कैसे बांट सकता है....मैं हवा हूं, कहां वतन मेरा! .....अब इंटरनेट लोगों के पास है ..कुछ भी देख-सुन सकते हैं जैसे मैं सैंकड़ों बार राहत अली खां के इस गीत को सुन चुका हूं...


Universal brotherhood विश्व-बंधुत्व के अलावा कोई रास्ता है ही नहीं और हो भी नहीं सकता ... इसे समझ ले सारी दुनिया और इस रास्ते पर ही चलते जाएं....

देखिए, मैं भी ज्ञान की भारी भरकम बातें करने लग गया.....अब समय है इस पोस्ट को बंद करने का ... खुश रहिए, मस्त रहिए, सुबह सुबह ऐसा रूहानी गीत-संगीत सुनते रहिए...फूल-पत्ते, पंक्षी देखते, निहारते रहिए......सुप्रभात...आप का आज कल से बेहतर हो!

मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

आज फिर दिखा सेहतमंद नाश्ता....

अभी मैं टहलने गया हुआ था.. जहां पर जाते हैं वहां एक बाबा जी का सत्संग चल रहा था ..

सुबह का समय है, बहुत से लोग बाहर से अपना नाश्ता ले कर अंदर आ रहे थे....

मुझे पता है ऐसे मौकों पर नाश्ते का ध्यान आते ही पूड़ी-छोले, भटूरे छोले, जलेबी, समोसे, कचौड़ी का ध्यान आता है ...लेकिन प्रशंसा करनी पड़ेगी कि मैंने यह कहीं भी आसपास बिकता नहीं देखा...

बहुत से लोग बाहर से भुने हुए चने और पेठा लेकर आ रहे थे, लिफ़ाफों में ...अच्छा लगा मुझे यह देख कर ..

मैंने बाहर आ कर भी देखा ...इन सब चीज़ों की ही रेहड़ीयां लगी हुई थीं...भुने चने, केले, पेठा, लईया (चिवड़ा, फुलियां), खीरे-ककड़ी ...


कईं बार ऐसा लगता है कि हम लोग पैसे से अपनी आफ़त ही खरीदते हैं...जितने विकल्प किसी के पास कम होते हैं, मैंने देखा है वे उतना ही पौष्टिक नाश्ता कर लेते हैं...पर्यावरण के साथ साथ जेब, सेहत और साफ़-सफ़ाई के लिए भी उत्तम।

आप सफ़र के दौरान भी देखते होंगे कि बहुत से लोग अपना खाना साथ ही लेकर चलते हैं...वे लंबे समय पर चलने वाला खाना बनाने और रखने के सभी जुगाड़ अच्छे से जानते-समझते हैं... लईया-चना, चिवड़ा, सत्तू ....इतने सारे बेहतर विकल्प इन के पास उपलब्ध रहते हैं..

और मेरे जैसे वे लोग जो यह समझते हैं कि पैसा खर्च कर कुछ भी खरीद लेंगे, बेवकूफ़ी ही तो है ...जब भी मैंने सफर में ये पूड़ी-छोले, भटूरे छोले खाए, पकौड़े खरीदे, मेरी तबीयत तब तब खराब ही हुई...मैं अधमोया जैसा हो गया....और जैसे तैसे अपने गनतव्य पर पहुंच कर दवाईयां खाकर उस बिगड़ी तबीयत को दुरुस्त करने में लगा रहा..

अकसर हम लोग जो बाहर खाते हैं हमें पता ही नहीं होता किस तरह के बेसन है, कैसा तेल, कैसा दूध ....हां, सब जांच वांच होती रहती हैं, यह हमें अच्छे से ज्ञान है .. लेकिन अगर आप उन जांचों के भरोसे ही रहना चाहें...

ज्ञान नहीं बांट रहा हूं...बस इतना कह कर बात को विराम दूंगा कि बाहर से खरीदे जाने वाले खाने की तरफ़ सजग रहना होगा.. ऐसे ही तो वह कहावत नहीं बन गई...हमारी सेहत हमारे हाथ में!


दरअसल मुझे कहने में कोई हिचक नहीं है कि जिन लोगों के पास धन ज़्यादा है, उन के पास चोंचलेबाजी भी ज़्यादा हैं...ध्यान आ रहा है कुछ दिन पहले बंबई में एक जगह पर कोई रोटी जैसी चीज़ खा रहा था ...(मुझे उस का नाम नहीं पता)...रोटी जैसी ही थी दिखने में तो ...उस के ऊपर गुड़ की शक्कर का लेप लगा हुआ था....बिल्कुल थोड़ा, लेकिन उस का दाम १५० रूपये के करीब था..बताया गया मुझे कि यह रोटी अलग अलग तरह के अनाज को मिला कर तैयार की जाती है .. शाबाश! ..न तो मेरी भूख मिटी न ही प्यास...


अभी ध्यान आ रहा है अमृतसर के नाश्ते का ..हम लोग भी पहले यही सब कुछ रोज़ ही खाया करते थे....


कभी कभी खाने के लिए तो ठीक है यह सब कुछ..

मैं तो बहुत बार मज़ाक में कहता हूं कि अमृतसर के लोग तो भई खाते-पीते ऐसे हैं जैसे कि वे रब की जंज पर आये हुए हों...(रब की शादी पर बाराती बन कर आए हुए हों)...पंजाब में ऐसा खाना ही पसंद किया जाता है .. इसलिए यह फिक्र करने वाली बात है!



सोमवार, 10 अप्रैल 2017

कभी खुश ही हो जाया करो...

सब से पहले एक गाना लगा देता हूं...सोमवार की अल्साई हुई सुबह को चमकाने का एक छोटा सा उपाय..

हर दिल जो प्यार करेगा, वह गाना गायेगा..

कल ज़ुकाम-खांसी की वजह से सारा दिन घर पर ही था...ज़ाहिर है बस रेडियो ही सुनना था और ४-५ अखबारें ही पढ़नी थीं...
कल के हिन्दुस्तान समाचार-पत्र के संपादकीय पन्ने पर एक लेख यह भी था...


इस का शीर्षक तो आप देख पा ही रहे हैं...अगर इस लेख को भी अच्छे से पढ़ना चाहें तो आप इस पिक्चर पर क्लिक कर के ऐसा कर सकते हैं....संक्षेप में मैं ही बता देता हूं इस लिलि सिंह के बारे में जो मूल रूप से हिंदोस्तान से है, पेरेन्ट्स बाहर बस गये थे ...वहां पर यह डिप्रेशन से ग्रस्त हो गई..किसी से बोलचाल नहीं, घर से बाहर निकलना नहीं, हर समय बेहद उदासी छायी रहती..वगैरह वगैरह....घर वाले अलग परेशान ...


लिलि सिंह को आइडिया आया कि अपनी बात मजाकिया तरीके से मोबाईल पर रिकार्ड कर के सुनी जाए...इसने ऐसा ही किया, इसे खूब हंसी आई...हल्कापन महसूस हुआ ...फिर इसने वही वीडियो अपने दोस्तों के साथ शेयर करने शुरू कर दिये...और फिर यू-ट्यूब पर अपलोड़ करने शुरू कर दिये....इस के यू-ट्यूब चैनल का नाम है सुपरविमेन  (इस पर क्लिक कर के आप वहां पहुंच सकते हैं) .. एक करोड़ से ज़्यादा फालोवर हैं और लाखों लोग इस के वीडियो देखते हैं...और ज़ाहिर सी बात है कमाई भी करोड़ों में है ...

मैंने भी एक वीडियो खोला लेकिन मेरे से एक दो मिनट से ज़्यादा नहीं देखा गया....पता नहीं जुकाम की वजह से या फिर लेंग्वेज प्रॉब्लम ...शायद दोनों ही ....लेकिन मेरे देखने या ना देखने से लिलि सिंह के सेलिब्रिटि स्टेट्स पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता ...लेेकिन जिस बात पर मैं दरअसल ज़ोर देना चाहता हूं वह यह है कि इस लड़की ने कैसे डिप्रेशन को भगाने का बेहतरीन तरीका ढूंढ लिया...


वैसे तो यहां भी अलग अलग क्षेत्रों में कामेडियन लोगों ने धूम मचा रखी थी ...हम अपने ज़माने को याद करें तो काका हाथरसी, हुल्लड़ मुरादाबादी, फिर कालेज के दिनों में सुरेन्द्र शर्मा, पंजाबी में घुग्घी और भगवंत मान, भल्ला...और आज कल ज़ाकिर खान ने यंगस्टर्ज़ में धूम मचा रखी है ... कुछ दिन पहले मैं उस का एक वीडियो देख रहा था...बहुत से हैं आज की तारीख में हंसने-हंसाने वाले वैसे तो ...क्योंकि आज यह भी एक धंधा अच्छा चल निकला है ...बुराई भी नहीं है कुछ , अगर किसी में टेलेंट है और वह उस को भुना रहा है तो बढ़िया है, किसी को क्या आपत्ति हो सकती है ...बहुत बढ़िया है ...


दूसरी एक अखबार में ..कौन सी अमर उजाला में यह लेख दिख गया...


यह भी किसी लाफ्टर गुरू ने लिखा है ..इस में कुछ बातें हैं जिन्हें मैं आप से शेयर करना चाहता था, इतना सब कुछ लिखने का मन नहीं था, इसलिए कागज़ पर लिख लिया था ..क्योंकि एक दो बातों से मैं सहमत नहीं हूं इस लाफ्टर गुरू से ..




मैं इस बात को पचा नहीं पा रहा हूं...
एक बात शेयर करूं आप से ...मेरे से कभी भी इन लाफ्टर क्लबों-वबों में कभी नकली तरह से हंसा ही नहीं गया...इस से आदमी एक तरह का अजीब सा प्रेशर अनुभव करता है ...

मुझे यह नकली हंसी और असली हंसी बात पल्ले भी नहीं पड़ी, मैंने इसे समझने के लिए दिमाग पर ज़ोर दिया भी नहीं....क्योंकि मेरे विचार में यह भी एक भ्रम ही हो सकता है ...

चार्ली चैप्लिन ...हंसी के इस जादूगर को कोटि कोटि नमन
असली हंसी असली होती है, दोस्तो...बच्चों को कभी हंसते देखिए....यारों-दोस्तों को आपस में बैठ कर हंसी ठट्ठा करते देखिए....वह है असली हंसी ... मेरी चिंता यही है कि कम से कम इसे तो हम लोग असली ही रहने दें....नकली हंसी हम लोगों को कुछ भी फायदा नहीं कर सकती....

अब ये कौन सा लाफ्टर योग कर रहे हैं...इन की हंसी में देखिए कितना असलीपन है !

एक विचार कल से कौंध यह भी रहा है कि नकली हंसी हंसने के लिए बंदा अलग तरह की मिट्टी का बना होना चाहिए....क्योंकि उन्मुक्त "असली" हंसी के लिए बस हमाारा अपने सगे-संबंधियों, दोस्तों, बच्चों के साथ बैठना ही काफ़ी है, बाकी सब कुछ अपने आप ही हो जाता है क्योंकि हमें केवल और केवल अपनी बेवकूफ़ियों पर ही हंसी आती है ....अकसर हम लोग सुनते भी हैं कि बंदे को अपने आप पर हंसना चाहिए....

मुझे पूरा विश्वास है कि नकली हंसने के लिए आप को शायद कुछ हद तक  नकचढ़ा सा होना भी ज़रूरी होता है ....यार, सीधी सी बात है दूसरों पर हंसी तभी आयेगी जब हम उन का उपहास करेंगे ..अपने आप से उन्हें कमतर समझेंगे....यह किसी विरले से ही हो पाता है (और होना भी नहीं चाहिए).....मुझे भी किसी का मज़ाक बनाना बिल्कुल पसंद नहीं ....पहले अपनी हिमाकतों से तो निपट लें...दूसरे की ज़िंदगी है, उसे जीने दें... 


लैपटाप लेकर मैं लिखने तो बैठ जाता हूं ..लेेकिन चंद मिनट लिखने के बाद ध्यान आता है कि इस में लिखने वाली बात तो कुछ थी ही नहीं....सब लोग ज्ञानी हैं आजकल, सब बातों का ज्ञान रखते हैं....

बस, मुझे यह नकली असली हंसी बात ने उद्वेलित किया तो यह सब लिख दिया....दरअसल मुझे लगता है कि यह हंसना-हंसाना. .और लाफ्टर थैरैपी भी करोड़ों -अऱबों का धंधा होता होगा ...लोग परेशान हैं, उन की बात सुनने वाला कोई नहीं है ...कुछ दिन पहले एक जगह पर पढ़ रहा था कि लोगों की ज़िंदगी की टच ही खत्म होता जा रहा है ...किसी को छूने के भी बड़े सकारात्मक परिणाम होते हैं ...वृह्द विषय है फिर कभी ...लेकिन उस में लिखा था कि लोगों को जादू की झप्पी देने के लिए भी एँगेज किया जाता है ...पेमेन्ट पर ......सच में यह कहां आ गये हम ! 

यह पोस्ट लिखते लिखते जो बालीवुड गीत मेरे ज़ेहन में आ रहे थे, उन्हें लगा दूं यहां पर ?......बस, हंसते रहिए, मुस्कुराते रहिए....हो सके तो अपने आप पर, बीसियों कारण मिल जायेंगे....ढूंढना नहीं पड़ेगा...


रविवार, 9 अप्रैल 2017

रेल बर्थ वाली नई खबर पता चली?

जितना सब्र मैंने जनरल डिब्बे में सफ़र करने वाले लोगों में देखा है ...कहीं नहीं देखा ..बंदे के ऊपर बंदे चढ़े हुए, बाहर तक लटके हुए लोग कंधे से भारी भरकम झोला लटकाए हुए....अकसर ऐसे मंजर देख कर इन सब की सलामती की दुआ ज़रूरत मांग लिया करता हूं ...मुझे तो यही सोच कर डर लगता है कि यार, ये लोग एन नंबर या दो नंबर के लिए कैसे रास्ता बनाते होंगे ...लेकिन यकीनन कुछ तो करते ही होंगे...क्योंकि कभी की पतलून गीली होती भी नहीं और इन डिब्बों की आबो-हवा भी बदलती नहीं दिखी...

मैं कैसे कह सकता हूं इतने यकीन से?...ज़िंदगी में कभी न कभी कुछ बार तो ऐसे हालात में सफ़र किया ही हुआ है ....

जन साधारण में इतना सब्र कि जनरल डिब्बे में ऊपर वाली बर्थ पर चार छः लोग बैठे हुए किसी की पसीने से लथपथ कमीज़, अत्याचार करने जैसे बदबूदार जुराबों, बिना रुमाल रखे की गई खांसी, छींके, डकारें, गैसी गुब्बारे, जुकाम, बीड़ी-सिगरेट का निरंतर निकलता धुआं....ये सब बिना किसी चूं-चां के सहते चले जाते हैं...

पता नही मैं यह लिख कर कहीं आम आदमी की हर जगह बस सब कुछ सहने की इस मजबूरी को ग्लोरीफॉई तो नहीं कर रहा हूं..लेकिन यह सच भी तो है ...

असल में हिंदोस्तान के जनमानस की कभी हमें तो समझ आई ही नहीं... समझदार ये इतने हैं कि जब चाहें किसी भी सरकार को बदल देते हैं या आगे पांच साल के लिए बढ़ा देते हैं ...और नासमझ ऐसे कि हर किसी की बातों में आ जाते हैं....उस दिन मैं एक जगह टहल रहा था तो मैं एक सत्संग के स्टाल्स की तरफ़ निकल गया ...पास में ही था....मुझे देख कर इतनी हैरानी हुई कि साधारण महिलाएं जो अपनी सेहत के लिए बीस रूपये भी खर्च करना एक बहुत बड़ी फिज़ूलखर्ची समझती हैं, वहां कुछ यंंत्रों-तंत्रों, मंत्रो, चोलों, आसन आदि के लिए ६०० रूपये ..१२०० रूपये खुशी खुशी अपने छोटे पर्स से तुंरत निकाल कर अपने परिवार के लिए सुनहरे सपने खरीद रही थीं....

मैं तो वहां दस मिनट भी रूक नहीं सका....मेरा दिमाग बगावत करने लगता है ऐसे मंजर देख कर ..

हां, खबर पर आते हैं... रेल बर्थ वाली नईं खबर पर ....तो जनाब, खबर यह है कि अब ट्रेन छूटने से चार घंटे पहले ही यात्रियों को उन के डिब्बे और बर्थ का नंबर पता चलेगा....रेलवे यह शुरूआत राजधानी गाडियों से कर रही है और फिर धीरे धीरे इन्हें अन्य गाड़ियों पर भी लागू कर दिया जायेगा ...

खबर पढ़ने से एक बार तो ऐसे लगा कि यह क्या हुआ, चार घंटे पहले तक इतना सुस्पैंस क्यों?

लेकिन जब खबर पूरी पढ़ी तो पता चला कि यह कितना सराहनीय प्रयास है ....दरअसल होता क्या है कि गाड़ियों में नीचे वाली बर्थ के चाहवान अधिकतर होते हैं ...ऐसे में जो लोग बहुत पहले से टिकट बुक करवा लेते हैं, उन्हें तो नीचे वाली बर्थें मिल जाती हैं...चाहे वे नौजवान ही होते हों.....और बाद में जैसे जैसे सीटें बची खुची रह जाती हैं...वे सब की सब ऊपर वाली रह जाती हैं... और ऐसे में बुज़ुर्ग और महिलाओं को खासी दिक्कत हो जाती है....

इस खबर को आप पूरा यहां पढ़ सकते हैं... रेलवे का बड़ा फैसला

महिलाओं और बुज़ुर्गों को इस से कितनी ज़्यादा तकलीफ़ होती है, इस के हम सब साक्षी हैं और भुक्तभोगी भी रहे हैं..जब हमारे साथ बुज़ुर्ग चल रहे होते हैं ..

दरअसल रेलवे ने कोई बढ़िया सा साफ्टवेयर इस्तेमाल कर के यह व्यवस्था शुरू करने की सोची होगी ...इस की जितनी प्रशंसा की जाए कम है ...

बात खत्म करने से पहले ...मैं एसी डिब्बों में सफर करने वाले कुछ लोगों के कम सब्र की भी तो बात कर लें.....पहले होता था कि पहले दर्जे या एसी दर्जे में सुबह कुछ सात से रात नौ दस बजे तक उस की बैकरेस्ट को ऊपर ही रखना होता था...और लोग अकसर ऐसा ही करते थे .. ताकि ऊपर की सीट वाले को नीचे बैठने में दिक्कत न हो ...जब वह ऊपर चढ़ जाता तो नीचे की बर्थ वाला भी अपनी बेकरेस्ट नीचे कर लेता .. और बिछौना बिछा लेता ...

लेकिन अब तो ऐसा होने लगा कि आप किसी एसी डिब्बे में घुसें और अगर आप की ऊपर वाली सीट है तो नीचे वाले बंदे ने पहले ही चंदर कंबल बिछा रखा होता है ..समझ ही नहीं आता कि बूट कहां बैठ कर उतारें, खाना कहां बैठ कर खाएं....यह आप सब के साथ भी होता ही होगा... हर बंदे की अपनी अपनी संवेदनशीलता है ... क्या कहें! जगह जगह पर उलझने से भी कुछ हासिल नहीं होता !

 टॉपिक को थोड़ा खुशनुमा बनाते है ं...अभी १०४ एफ एम पर पिक्चर पांडेय नाम से एक प्रोग्राम चल रहा है ...बॉबी फिल्म के इस गाने की बातें चल रही हैं और यह लो, अब यह बज भी रहा है ....लेकिन इस गीत मेरे लिए सब से स्पेशल इसलिए है क्योंकि इस की शुरुआती ट्यून मुझे जबरदस्त पसंद है ..यह मुझे मेरे आठवीं कक्षा के दिनों को याद दिलाती है .. ४०-४२ साल हो गये ...इस की ट्यून अभी भी उतनी ही फेवरेट है... 

शनिवार, 8 अप्रैल 2017

स्कूल के साथियों ने किया कमाल...और धमाल!

 हमारा स्कूल जहां से हम सब बंदे बन कर बाहर निकले

मैंने शायद पहले कहीं इस बात का ज़िक्र किया है कि हमारे स्कूल के साथियों का एक वाट्सएप ग्रुप है ...जो हम सभी को सारे ग्रुप्स में से अधिक प्रिय है....कालेज वाले दिनों के भी, और प्रोफैशन लाइफ वाले दौर के दौरान जुड़ने वालों के साथ वाट्सएप ग्रुप भी हैं, लेकिन सब से ज़्यादा ओपननैस इसी स्कूल वाले ग्रुप में दिखती है ...

स्कूल के बारे में थोड़ा बता दें ... यह डी ए वी सीनियर सैकंडरी स्कूल अमृतसर के प्रसिद्ध हाथी गेट के पास स्थित है ...१०० साल से भी पुराना है ...१९७३ से १९७८ तक याने पांचवी कक्षा से मैट्रिक तक हम लोग इसी स्कूल में थे ...कोई हमारे साथ छठी कक्षा में जुड़ा, कोई आठवीं में आया...लेकिन जब भी कोई आया हमारे सब के रंग में रंगता चला गया...

 हमारे स्कूल में हर क्लास में लाउड-स्पीकर लगे हुए थे...हर दिन की शुरुआत गायत्री मंत्र से होती थी और उस के बाद हाल में रोज़ाना हवन होता था..जिस में हर क्लास बारी बारी से सम्मिलित हुआ करती थीं...शायद दो महीने के बाद बारी आती थी...ठीक से याद नहीं है..
स्कूल मैगजीन अरूण के ४० साल पुराने एक अंक से ...
आज से पंद्रह साल पहले मैं एक लेखक शिविर (राइटर्स वर्कशाप) के सिलसिले में अमृतसर गया था..कुछ दिन वहां रहने का मौका मिला ...मैं इन दिनों शिविर के काम से जैसे ही फारिग होता, अपने स्कूल के साथियों का अता-पता निकालने निकल पड़ता....वह सुंदर कहावत भी तो है...ढूंढने से तो परमात्मा भी मिल जाता है ...मुझे दो चार के ठिकाने पता थे...बस, वहां से दूसरों के ठिकाना का पता चलता गया....चाहे मैं किसी के पास चंद मिनट ही रुका लेकिन जो खुशी मुझे मिली वह मेरे लिए ब्यां कर पाना मुश्किल है ..

Lovely Quote ...absolute truth!

वाट्सएप की पावर का तो अंदाज़ा मुझे तब भी हुआ जब इन्हीं साथियों में से कुछ ने मशक्कत कर के 30 साथियों के साथ एक वाट्सएप ग्रुप बना लिया...बहुत अच्छा लगता है ...

इस ग्रुप में कुछ भी कहने लिखने का फायदा सब से बड़ा यह है कि कोई किसी को judge नहीं करता...और ऐसी ज़ुर्रत कोई करे भी करे कैसे...जो किसी के मन में आता है वह वही बात कहता है ...लिखता है ...

मैं ही शायद इन सब से इतना दूर बैठा हूं ..बाकी तो अमृतसर में ही बसे हुए हैं...एक साथी मोगा में, एक कैथल में ....ऐसे कुछ कुछ हैं बाहर भी ...


इन ब्वायज (इन्हें स्कूल ब्वायज़) ही कहना ठीक लगता है ....क्योंकि हम सब की हरकतें भी वैसी ही हैं...इस ग्रुप का सब से बड़ा फायदा यह है कि इस में बात करते-लिखते वक्त बंदा अपने आप को १३ साल का ही महसूस करने लगता है ...वही ठहाके, वही लड़कपन, वही बेपरवाही ...

हां, तो इन्होंने कल शाम अमृतसर की एक क्लब में एक गेट-टु-गेदर रखा ....मैं नहीं जा पाया....अमृतसर में रहने वाले बहुत से साथी भी नहीं आ पाए...कल इन दस साथियों का जमावड़ा लगा हुआ था..लेकिन हम कुछ तीन चार साथी इन को बार बार फोन पर बात कर के परेशान किये जा रहे थे ...इस पार्टी के दौरान मुझे भी सब से साथ बातचीत करने का मौका मिला ...बेइंतहा खुशी हुई...

जब ये सब लोग सही सलामत घर लौट गये और सोने की तैयारी करने लगे तो कहीं जा कर वाट्सएप पर मैसेजिंग बंद हुई....

 (बाएं से )>>>गुलशन अरोड़ा, संजीव पोपली, राज कपूर 

सब से बाएं बैठा है रमन भाटिया 

 (बाएं से ) >> मधुर बंसल, सुनील महाजन (छुपा रुस्तम), अतुल खन्ना, अनिल महाजन, मंगत राम

यह हरी टी-शर्ट में है नवल किशोर 

ये सब के सब अपने अपने फील्ड़ की धुरंधर हस्तियां हैं अमृतसर की ...  काफी तो बिजनेस में हैं...और बिजनेस भी ऐसे जिसे हम लोग कहते हैं कि ये पुराने ज़माने से रईस हैं, कोई किसी नामचीन स्कूल का वाईस-प्रिंसीपल जो लाफ्टर चैनल के कपिल और प्रभाकर का उस्ताद भी है, कोई किसी सरकारी ब्लड-बैंक का प्रभारी और कोई किसी बडे़ डॉयनोस्टिक सैंटर का मालिक और कोई किसी बड़ी ड्रग कंपनी में बड़े ओहदे पर तैनात है  ... लेकिन सब से सब बहुत ही ज़्यादा विनम्र....इन में इन का कुछ नहीं, यह अमृतसर की मिट्टी की देन है।

बस, इस पोस्ट के लिए इतना ही काफी है, बस मैं इन तस्वीरों को जल्दी से जल्दी सहेज लेना चाहता था...


अगली बार जब भी हम स्कूल के साथियों का ऐसा जमावड़ा लगेगा ...हमारा पहुंचा भी ज़रूरी होगा, वरना फालतू में पिट-विट जाएंगे..

कल बड़े बेटे ने बंबई से एक बुज़ुर्ग महिला की यह तस्वीर भेजी ...बता रहा था कि ७० के करीब की इन की उम्र थी और यह चेतक पर चली जा रही थीं.....God bless her.....गुरदास मान याद आ गया अचानक...गुरदास मान जो नसीहत दे रहे हैं, यह मेरे स्कूल के साथियों के लिए भी है ...




शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

डिप्रेशन ..आओ खुल कर बात करें..

आज विश्व स्वास्थय दिवस है ...जिस का इस बार का थीम भी यही है ..डिप्रेशन...आओ खुल कर बात करें..

लेेकिन आज मेरी तो बिल्कुल भी इच्छा नहीं है कि मैं वही घिसी पिटी बातें लिख कर आप को पका दूं...डिप्रेशन के बारे में जितनी भी काम की बातें हैं आप रेडियो, टीवी अखबार में और नेट पर देख-पढ़ लेते हैं, मुझे पता है आप सब नेट-सेवी हैं ...मैं तो बस आप से ऐसे बतियाना चाहता हूं जैसे हम लोग चौपाल पर बैठ कर हंसी-ठट्ठा कर रहे हों...ठीक है?

मुझे कभी भी निबंध की तरह अपने ब्लॉग पर कुछ भी लिखना अच्छा लगता ही नहीं...कि डिप्रेशन बीमारी है क्या, इस के लक्षण क्या हैं, बचें कैसे और इलाज कैसे और कब करवाएं?....यह मेरा विषय है ही नहीं, क्योंकि मैं कोई विद्वान मनोचिकित्सक हूं ही नहीं....इसलिए बिल्कुल मन की बातें ही कहना चाहूंगा...

पढ़ाई लिखाई पूरी होने के बाद यह शायद १९९४ के आस पास की बात है कि मेरी भी तबीयत कुछ चिंता करने वाली हो चली थी..खामखां बातों की चिंता ..काल्पनिक बातों की चिंता ...बंबई में रहते थे ...मेरे साथ किसी ने ऐसे ही ज़िक्र किया कि एक योग विद्या का प्रोग्राम चलता है ...सिद्ध समाधि योग ... संयोगवश वह उसी दिन शुरू होने वाला था ..कांदिवली में ...मैं शाम को पहुंच गया ...पहले दिन इंट्रो ही होती है ..एक पेंफलेट मिला ...उसे पढ़ा तो तो उसमें एक बात लिखी थी जिस पढ़ कर मैंने उसी समय निश्चय किया कि यह तो अवश्य करूंगा ...उस में लिखा था कि किस तरह से हर कोई तनावग्रस्त है ...और तो और डाक्टर लोग मरीज़ को तो कहते हैं कि आप तनाव मत करिए लेकिन स्वयं वे भी तनाव से ग्रस्त हैं...

मैं अब सोचता हूं कि जो डाक्टर स्वयं सिगरेट पीता हो या पानमसाला चबाता हो, वह कैसे सख्ती से अपने मरीज़ को यह सब छोड़ने के लिए कह सकता है!

बस यह बात तनाव वाली बात मेरे दिल को छू गई ...और मैंने वह कोर्स किया ...उस के बाद मैं नियमित प्राणायाम् करता ...ध्यान भी हो जाता अपने अाप ही ....खाना-पीना भी उस शिक्षा के अनुसार ही चलता रहा ..बहुत समय तक मैं जुड़ा भी रहा ...एक फर्स्ट हैंड अनुभव जो योग का बेहद उम्दा रहा ...

अब मैं आलस की वजह से प्राणायाम् नहीं करता, ध्यान भी नहीं होता ....बस टहलना हो जाता है...वह भी कईं कईं हफ्तों के अंतराल के बाद...साईक्लिंग करने की सोचता रोज़ हूं. लेकिन कभी कभी ही जाता हूं...(धूप हो गई है, साईकिल में हवा नहीं है, ट्रैफिक बहुत है ...इन बहानों के चलते ...) ब्लड-प्रेशर की एक गोली खाता हूं..वह भी महीने में बीस दिन भूल जाता हूं....तो, यह तो हुई मेरी अापबीती ...बस, खाना पीना ठीक ले लेते हैं....कोई मांस-मझली नहीं, दारू-तंबाकू नहीं कभी भी ..

एक बात याद आ गई ...लगभग दस साल पहले की बात है .... एक मनोरोग चिकित्सक ने नया नया क्लीनिक खोला था ...उस का इश्तिहार आया पेपर में ..पढ़ा.....उस ने बड़े सनसनीखेज तरीके से उस लिखवाया था....

हर दस लोगों में से चार मनोरोगी...इन में से कहीं आप भी तो नहीं! .....और उस के आगे उसने दस बीस लक्षण लिख दिए....वे लक्षण ऐसे थे कि दस में से चार तो क्या, दस में से दस लोगों में वे दो चार मिल जाएं...

उस मनोरोग चिकित्सक की विद्वता को मैें सेल्यूट करता हूं ..और मनोरोगियों को बिना विलंब इन से संपर्क भी करना ही चाहिए...और कईं बार दवाईयां लेना ज़रूरी भी होता है....वे इस तरह के रोगों के एक्सपर्ट होते हैं, उन्हें तो अंदर तक की खबर होती है ...

और हम ठहरे बक बक करने से अपने आप को रोक न सकने वाले.....

वैसे मुझे आप बताइए कि आपने अपने आस पास कितने लोगों को डिप्रेशन के लिए किसी मनोरोगचिकित्सक से नियमित परामर्श अथवा दवाई लेते देखा है....

बहुत कम, आप को भी यही लगता है ना!

मैं एक बिल्कुल लेमैन की तरह से लिख रहा हूं ... लेकिन कोई बात नहीं ...ब्लॉग है, यह आज़ादी तो है ही .... मैंने तो जितने लोगों को भी डिप्रेशन की दवाईयां लेते देखा है ...ये बहुत ज़्यादा पढ़े लिखे दिखे ....और एक बात कहते हैं हमेशा कि दवाई लेते हैं तो सारा दिन नींद घेरे रहती है और न लेते तो सारा दिन खाते ही रहते हैं...

हां, तो मेरा यह सब लिखने का आशय यही है कि मनोरोग चिकित्सक से अवश्य मिलें, बात करें, उन की सलाह भी मानें, अगर दवाई के लिए कहें तो वह भी आप को लेनी ही होगी, आप के पास कोई चारा भी तो नहीं ...

लेकिन इतना सब कुछ लिखने के बाद मैं यह भी लिखना चाहता हूं कि डिप्रेशन है, उदासी है ...तो पहले कुछ फ्री में मिलने वाले नुस्खे भी तो आजमा लिए जाएं...समस्या हमारी अब यह हो गई है कि हम होलिस्ट्क मैडिसन प्रैक्टिस नहीं कर पा रहे ...हर विशेषज्ञ अपने अपने हिस्से की बीमारी ढूंढने में पारंगत होता जा रहा है...trying perhaps up to molecular level! कोई बुराई भी नहीं है ....

लेकिन मुझे लगता है मन की उलझनें मन से ही सुलट सकती हैं....चलिए, मैं भी कुछ ऐसे ही उलट-सुलट विचार यहां लिख लूं...जो मुझे लगता है कि किसी को भी अवसाद से ऊपर उठा सकते हैं, और बचा भी सकते हैं... इन में से मैं बहुत से स्वयं भी नहीं करता हूं... I am in noway holier than you! ...लेकिन इन सब उपायों की सार्थकता को अनुभव अवश्य कर चुका हूं...

 आज सुबह मैं टहलने गया क्योंकि मुझे यह पोस्ट लिखनी थी ... 
सुबह जल्दी उठें, योग-प्राणायाम् करिए,  टहलने निकल पड़िए, शारीरिक परिश्रम करें... साईक्लिंग करें, कुछ खेलें....अपनी क्षमता के अनुसार ...अगर दौड़ नहीं सकते, तो टहलिए, जितना भी चल सकते हैं, चलिए, फिर आराम कीजिए....मेरे कुछ मरीज़ कहते हैं कि हम ज़्यादा चल ही नहीं सकते, मैं उन्हें कहता हूं पड़ोस के किसी पार्क में एक घंटा चले जाइए, सुबह की सूर्य की रोशनी में स्नान कीजिए, कहीं कोई गपशप हो जाए तो ठीक, वरना और भी ठीक, पेड़ पौधों की भव्यता से ऊर्जा मिलेगी आप को निःसंदेह ....चहचहाते पंक्षी आप की ज़िंदगी में भी चहक ले आएंगे ....शर्तिया ...आप तरोताज़ा वापिस लौटेंगे ... आप सुबह मैं भी टहल कर आया हूं... अच्छा लग रहा है, इसीलिए इतना सब कुछ लिख पा रहा हूं..


एक तो बात से बात निकल पड़ती है तो मुझे वह भी लिखनी पड़ती है ...कल एक पर्यावरण से संबंधित समारोह में था, वहां पर एक बहुत बड़े आदमी के घर की तारीफ़ के पुल बांधे जा रहे थे ..होता ही है यह सब कुछ ..करना भी पड़ता है ...हां, इन के घर में सौ तरह के तो पौधे हैं, चंदन का पेड़ भी है और १०० तरह के पंक्षी भी हैं.... उस समय तो मुझे कुछ ज़्यादा समझ में आया नहीं, लेकिन बात में ध्यान आया कि ये सभी पंक्षियों की प्रजातियां उस के यहां पिंजड़ों में कैद होंगी ......यह कोई बड़प्पन की बात नहीं, हमें तो तोते को भी पिंजड़े में रखना बहुत बुरी बात लगती है और १०० तरह की पक्षियों की प्रजातियां पिंजरों में .....पक्षी और फूल टहनियों पर भी मन को लुभाते हैं ...सब को खुशीयां देते हैं , किसी उदास के मन को खिलखिला देते हैं मुफ्त में ...गुलदस्ते और बुके वाले फूल पता नहीं क्यों असली होते हुए भी कितने बनावटी लगते हैं ....


 खाने पीने का ध्यान रखना चाहिए...विशेषकर बढती उम्र के साथ नमक, चीनी और फैट्स और जंक फूड का ध्यान रखें.. तंबाकू, शराब , ड्रग्स से बच कर रहें.... 

जहां तक हो सके खुशमिजाजी कायम रखें...इस से बड़ा कोई स्ट्रैसबस्टर है नहीं असल में ...स्कूल के दोस्तों के वाट्सएप ग्रुप पर इतने बढ़िया बढ़िया जोक्स आते हैं कि कल पता नहीं मैं कितने समय बाद इन चुटकुलों को पढ़ कर अकेला बैठा हुआ भी ठहाके लगा रहा था ....खुलापन बहुत ज़रुरी है ...इस से भी आदमी हल्का बना रहता है ....तने हुए रहने से तनाव ही बढ़ता है ... मैंने ऐसा अनुभव किया है ...मन को तने रहने से तो बढ़ता ही है, मेरे जैसे का तो टाई लगाने से ही बढ़ जाता है .....पता नहीं वह गले में प्रेशर की वजह से या फिर टाई लगा कर मुझे एक अलग तरह से बिहेव करना पड़ता है ..इस की वजह से भी शायद फ़र्क पड़ता होगा...इसलिए मैंने बीस सालों से कभी टाई लगाई ही नहीं, जी हां, किसी भी शादी-ब्याह के समारोह में भी नहीं....क्योंकि हिंदोस्तान में एक रिवाज है कि वैसे चाहे कभी टाई लगाई हो या नहीं, लेकिन किसी की शादी ब्याह में टाई किसी से ही गांठ बंधवानी पड़े, अवश्य टांग लेते हैं.....वह भी चलता है, लेेकिन जब दारू चढ़ने पर ये टाईधारी बेहूदा हरकतें करते हैं ना, उस से सब कचरा हो जाता है ... 

खुलेपन से बात याद आई...एक टीवी के प्रोग्राम में विश्वविख्यात हार्ट रोग विशेषज्ञ ने भी कहा था ..

दिल खोल लै यारां नाल, 
नहीं ते डाक्टर खोलनगे औज़ारां नाल ...

एक दो बातें और कर के आज की चौपाल खत्म करते हैं....

कल टीवी पर ग्लोबल बाबा फिल्म देखी ...आप भी ज़रुर देखिए...किस तरह से कुछ बाबा लोगों ने भोली भाली जनता को अपने चंगुल में फंसा रखा है, आप सब जानते हैं......यू-ट्यूब पर भी पड़ी हुई है यह फिल्म ... पता नहीं इतने बाबा लोग कहां से उग आते हैं और इन के इतने अनुयायी भी कैसे बन जाते हैं, यह सब और भी अच्छे से समझने के लिए इसे देखिएगा...ट्रेलर मैं यहां दिखाए दे रहा हूं.. 


कल विनोद खन्ना साब की तबीयत के बारे में पढ़ा-देखा....आज सुबह मित्र खुशदीप सहगल की फेसबुक पोस्ट दिखी ...जो को मेरी भावनाएं भी व्यक्त करती दिखी....इसलिए यहां चिपकाए दे रहा हूं उसे ....


विनोद खन्ना साब का ज़िक्र हुआ तो उन के कुछ बेहतरीन गीत जो बचपन से लेकर अब तक सुनते चले आ रहे हैं...यहां आप के लिए बजा रहा हूं....आप भी इन गीतों के बहाने अपने पुराने दिनों की यादें ढूंढिए और इसी बहाने डिप्रेशन से दूर रहिए और इस महान कलाकार के शीघ्र अति शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना करिए... 







बुधवार, 5 अप्रैल 2017

98 साल की उम्र में योग सिखाना...

अभी कुछ समय पहले मेरी मां ने मुझे अपने फोन में बीबीसी हिंदी की एक रिपोर्ट दिखाई जिस में एक ९८ साल की महिला के बारे में बताया गया है कि वह इस उम्र में योग स्वयं तो करती ही हैं, वे एक योग शिक्षक भी हैं...


हमारा क्या है, सारा दिन अखबारों, पत्रिकाओं और मीडिया में घुसे रहते हैं...इस बीमारी से बचना है, उस बीमारी से बचना है तो यह करें, फलां फलां मेवे नहीं खाएंगे तो ढिमका रोग हो जायेगा...

अच्छी बात है रोगों की जानकारी लेना, उन से बचाव के बारे मेें एक साधारण सी जानकारी रखना ....बस उतनी जितनी ज़रूरत हो, ऐसा न हो कि हम खुद ही डाक्टर बन कर अपना और आसपास के लोगों का इलाज शुरू कर दें....आजकल हो कुछ कुछ यही रहा है ..लोग अपने आप ही पैथोलॉजी में चले जाते हैं, सीटी स्कैन या अल्ट्रासाउंड तक करवाने का निर्णय स्वयं ले लेते हैं...और प्राईवेट संस्थाओं में इन की इच्छा की पूर्ति भी तुरंत हो जाती है...

जितना भी यह मीडिया में ज्ञान सेहत से संबंधी पड़ा हुआ है..उम्दा है यकीनन, बस आप को यह अच्छे से पता होना चाहिए कि इस जानकारी का स्रोत क्या है...किसी का कोई vested interest तो नहीं है... धीरे धीरे आप समझने लगते हैं..सरकारी संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों द्वारा उपलब्ध करवाई जा रही जानकारी विश्वसनीय होती है बेशक ...लेकिन बहुत सी गैर सरकारी संस्थाएं भी बहुत बढ़िया जानकारी उपलब्ध करवाती हैं....बस, आप को ही थोड़ा परखना जरूरी है...

बहुत सी कमर्शियल साइटों की समस्या यह है कि ये सनसनी पैदा करती हैं...लोगों को भ्रमित तक कर सकती हैं...बहुत से इंजेक्शनों तक के बारे में यह सब चलता है कि नईं ऩईं बीमारियों से बचने के लिए जिस तरह से इंजेक्शन को कितना aggressively promote किया जाता है ..

होलिस्टिक बात तो योगी लोग ही करते हैं ... कुछ योगी भी हाई-टैक हो चले हैं..कहने को तो योग शिक्षा है, लेकिन यह भी प्रोफैशनल कालेज की शिक्षा जितनी महंगी हो चली है ..

उस दिन एक पति-पत्नी आए मेरे पास ... पुरूष का वजन पहले से कम लग रहा था...मैंने पूछा तो उन्होंने बताया कि यह सब योग की माया है ..हम एक आश्रम में रहे हैं ..तीन हज़ार रूपया कमरे का किराया था.. पंद्रह दिन रहे हैं..पचास हज़ार खर्च कर आये हैं...अब फिट महसूस करते हैं ....और उन्होंने बताया कि अब वह तीन हज़ार वाला कमरा पांच हज़ार प्रतिदिन के हिसाब से मिला करेगा ......और हां, अगर सुविधाएं इस से बढ़िया चाहिए ...तो दस हज़ार रूपये एक दिन के खर्च करने होंगे...

मेरा माथा ठनका एक बार तो ...मुझे जिज्ञासा हुई कि योग संस्थान में ऐसी कौन सी "अन्य सुविधाओं"की ज़रूरत पड़ती होगी कि इतने महंगे कमरे लेने के लिए लोग तैयार हो जाते हैं...उसने बताया कि हम लोगों को तो थैला उठा कर उस संस्थान में एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़ता था लेकिन यह जो १० हज़ार वाली कैटेगरी है, उन का सारा काम ...क्या बताया था उसने ..सोना बॉथ तक का प्रबंध भी उनके कमरे में ही हो जाता है...

मेरी तरह आप भी शायद यही मानते होंगे कि योग विद्या ऐसी कृपा है जो शुल्क की मोहताज नहीं हो सकती .. मैंने ऊपर जिस संस्थान के बारे में लिखा है, मुझे कोई आपत्ति नहीं है...वे जबरदस्ती तो किसी को रोकते नहीं, जिस के पास पैसा है वह कुछ भी खरीद सकता है, सेहत के सिवाय, लोग एग्ज़ीक्यूटिव क्लास में भी सफर करते हैं और बैलगाड़ी पर भी करते हैं ..अपने अपने साधनों की मौज है...

इसलिए जिन संस्थानों में ज़्यादा पैसा लेने की बातें ज़्यादा होने लगती हैं, उन से कमर्शियल संस्थानों की महक आने लगती है....योग शिक्षा को भी मुझे लगता है कि आज कल कुछ अजीब से कमर्शियल ढंग से प्रस्तुत किया जा रहा है ...मुझे हमेशा से ही लगता रहा है कि योग विद्या ऐसी नहीं है कि आप जैसे बाज़ार में जाकर मिठाई खरीद लाए...जितने जेब में पैसे ज़्यादा हैं, उतनी बढ़िया खरीद लाएंगे ..ऐसा असंभव है ..योग विद्या में....यह तो एक गुरू की कृपा से ही एक दान के रूप में ही हासिल की जा सकती है ....फिर चाहे आप गुरु-दक्षिणा के रूप में जो भी समर्पित करना चाहें, वह आप की श्रद्धा है ....योग विद्या तो भई प्राचीन गुरु-शिष्य परंपरा के नियमों पर ही टिकी रहेगी तो ठीक है.......वरना यह भी एक धंधा ही बनता जा रहा है, विज्ञापनों को देखते हुए तो यही लग रहा है ....

चलिए, बस यही बंद करते हैं इस बात को ...यहां पर यह कुछ माला जपने की बात कर रहे हैं, इन्हें सुनते हैं...

जैसे राधा ने माला जपी शाम की .... 

मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

आर ओ का पानी भी गड़बड़?

आर ओ के पानी के बारे में यहां वहां कुछ पढ़ते तो रहते हैं ...कि इसे पीने से यह गड़बड़ है ...कुछ ज़रूरी तत्व भी यह निकाल देता है ...लेकिन कभी गहनता से इस का ज़्यादा अध्ययन करने की ज़रूरत समझी नहीं...

क्या करेंगे समझ कर भी?...कोई विकल्प भी तो हो! ....वरना यहां वहां हर जगह बस सनसनी फैलाते जाएं, यह तो कोई बात न हुई...

जन साधारण तो कईं बार मार्कीट शक्तियों का खेल समझ ही नहीं पाता ....ये शक्तियां इतनी प्रबल हैं कि किसी चीज़ को भी बिकवा दें और किसी को भी बिल्कुल कंडम करवा दें...बहुत बड़ा खेल है...

आर ओ के बारे में दो दिन पहले भी वाट्सएप पर पढ़ा कि इस पानी को पीने से मिनरल्ज़ की कमी हो जाती है ...दरअसल वाट्सएप की किसी भी बात पर मुझे यकीं नहीं होता जब तक कि मैं स्वयं उस बात की पुष्टि न कर लूं...

इसीलिए मैंने गूगल सर्च किया ... तो रिज़ल्ट देख कर यही पता चला जिसे आप भी पढ़ सकते हैं...


खासा लंबा चौड़ा लेख है ...मैंने पूरा नहीं पढ़ा, आप चाहें तो पढ़ें लेकिन बातें वही कही गई हैं जो अकसर इस तरह के पानी के बारे में कही जाती हैं...

मैं सोच रहा था कि आज कल तो आर ओ का पानी इतना फैशन में है कि पानी के बताशे वाला भी अपनी दुकान पर बोर्ड टांग कर रखता है कि यहां बताशे के पानी के लिए आर ओ का पानी ही इस्तेमाल होता है ...

मैं कईं बार सोचता हूं कि पब्लिक सच में बड़ी कंफ्यूज़ हो जाती होगी कि किस की बात मानें ..अपने मन की मानें या हेमा मालिनी की बात मानें?

 हमारे यहां भी पानी में कुछ गड़बड़ तो है ही ....पानी के जग, पानी की बोतलों में सफेदी जम जाती है ...स्टील की पानी वाली टंकी में भी सफेद सफेद लेयर जम जाती है जिस में एक्वागार्ड से छना हुआ पानी स्टोर किया जाता है ... इस बार एक्वागार्ड की सर्विस करने वाला आया था तो कह रहा था कि अगर आप चाहें तो कोई यंत्र फिट कर देगा उसी मशीन में जिस से पानी की हार्डनेस कम हो जायेगी ...लेकिन फिर वही बात, इस से कुछ ज़रूरी trace elements भी तो निकल जाते हैं...यह तो तय ही है...

हम लोगों को भी इतने इतने साल हो गये मैडीकल फील़्ड में...हमें ही कोई पूछ ले कि क्या ठीक है, कौन सी मशीन ठीक है...हम भी क्या जवाब दें?... बड़ी कंफ्यूज़न है सच में ....

पानी में तो वैसे इतनी गड़बड़ होने लगी है कि सब को ही अपने पीने वाले पानी के बारे में कुछ ज़रूरी बातों का ध्यान रख लेना चाहिए...लखनऊ के पास एक जगह है ...नाम याद नहीं आ रहा, डेढ़ दो घंटे का रास्ता है ...एक बहुत बुज़ुर्ग इंसान है ..मेरा मरीज़ रहा है...कुछ अरसा पहले सारे दांत उखड़वाये थे मेरे से ...अब जब भी अस्पताल आता है तो ज़रूर मिल कर जाता है ...और पूछता है कि कुछ लाऊं, पेप्सी लेकर आऊं?....मैं हर बार हंस कर टाल देता हूं और हाथ जोड़ देता हूं...कल भी मिलने आया था..उस की बीवी हमारे अस्पताल में दाखिल थी, पेचिश और उल्टियों की वजह से...अब ठीक है ...खुश थे दोनों मियां-बीवी ...मैंने पूछा कि घर में पानी उबाल कर पीना....मेरी तरफ़ बड़ी हैरानी से देखने लगे ...मुझे पता है वे यह सब कभी नहीं करेंगे ....चलिए, मैं तो इन की सेहत की दुआ मांग ही सकता हूं...

हम लोगों की इस देश में समस्याएं बेहद विषम हैं....दो गुणा दो चार नहीं है यार यहां...सेहत से जुड़े भी फैसले लोगों को अपनी ही समझ के अनुसार - ठीक या गलत मैं नहीं कह रहा -- अपने आप ही करने पड़ते हैं...

दरअसल हम ने प्रकृति का इतना ज़्यादा दोहन कर लिया है और जल प्रदूषण का स्तर ऐसा कर दिया है कि मेरी एक तमन्ना है कि कुछ ऐसा हो जाए कि ये सब पालीथीन की थैलियां बंद हो जाएं...प्रतिबंध लगने से क्या फर्क पड़ा है, हम देख ही रहे हैं...कुछ ऐसी मुहिम चले कि कहीं भी ये प्लास्टिक की थैलियां नज़र ही न आएं...वही ४०-५० साल पुराने दिन लौट आएं जब हम लोग कभी बर्फ लेने जाते थे और थैला नहीं लेकर जाते थे तो उसे हाथ में ही उठा कर लाना होता था ...

देखो भई, अपनी सेहत के फैसले स्वयं लेने की आदत डालो, तथ्यों के आधार पर ...कौन सी मशीन ठीक है कौन सी नहीं है, नेट पर पढ़ा करो ...लेकिन कम ही ...ज़्यादा पढ़ने से भी आदमी और कंफ्यूज़ हो जाता है मेरी तरह ... मुझे पूरा यकीन है कि अगर हम आर ओ पानी के फायदे लिख कर सर्च करेंगे तो भी बीसियों रिज़ल्ट आ जायेंगे....

मैंने भी कुछ तो नहीं कहा इस पोस्ट में ...बस अपने मन की दो बातें कर के इसे बंद कर रहा हूं...जाते जाते एक गीत सुन कर अपनी कंफ्यूज़न को थोड़ा भूलने की कोशिश तो करिए...मैं भी उतना ही कंफ्यूज़ हूं जितने आप हैं... चलिए, इसे सुनते हैं...



रविवार, 2 अप्रैल 2017

माय संडे हाइलाईट्स ...बस ऐसे ही ..

अभी अभी श्रीमति ने पूछा है कि संडे मतलब ...नहाने-धोने से छुट्टी....मैंने कहा ..नहीं, अभी होता हूं तैयार ...संडे के दिन वैसे मुझे बहुत बार लगता है कि तैयार हो कर करना क्या! चुपचाप बीतने दिया जाए संडे का, इतनी भी क्या जल्दी है ...

अभी ध्यान आया कि आज संडे की कुछ हाइलाईट्स ही शेयर कर दूं आज ब्लॉग पर ...

हां , तो ओ लो एक्स OLX के विज्ञापन देख कर मुझे भी लगा कि एक बार यह काम भी कर ही लिया जाए...मैंने भी एकाउंट बनाया और सोचा कि स्टडी रूम में काफी कुछ बिखरा रहता है...वहां पर कुछ लिखने-पढ़ने की तो क्या, बैठने की भी जगह नहीं होती ...एक अलमारी खरीदी जाए जिस में सारा सामान बंद कर के छुट्टी कर ली जाए...

हां तो ओ एल एक्स का ध्यान आया...यही लगा कि हम लोग चार साल से यहां लखनऊ में हैं और अभी भी लगता है कि बस कभी भी यहां से कूच कर जाएंगे...ऐसे में क्या क्या नया सामान इक्ट्ठा करते रहें...ओएलएक्स पर देखा तो एक विज्ञापन था घर के पास ही किसी एड्रेस का पांच हज़ार में गोडरेज की अलमारी दे रहे थे...(ओएलएक्स में यह अच्छी सुविधा है कि आप अपने घर से दूरी वाला फिल्टर सैट कर सकते हैं ...ऐसे में घर से पांच किलोमीटर के दायरे में आने वाले लोगों के विज्ञापन नज़र आ जाते हैं...)

फोन वोन लिए और दिए गये...अंग्रेजी में ओएलएक्स पर चैट भी हुई मुख्तसर सी ...और मैं सुबह पहुंच गया उस अलमारी को देखने ...

उस अलमारी को देखते ही मुझे यह आभास हुआ कि पिछले जमाने में जो लोग शादी ब्याह के मामलों में लकड़ी-लड़का दिखा कोई और देते थे ..और ब्याह किसी और से कर दिया करते थे....कमबख्त लोग भी अजीब किस्म के डेयरिंग थे ...होता रहा है पुराने दौर में यह सब गोलमाल ...फिर बाद में लड़ाईयां-झगड़े सब चलते थे

हां, पहले तो अलमारी गोदरेज की थी नहीं ...और उसे देखते ही लगा कि यार, यह कौन से बाबा आदम के ज़माने की अलमारी है ...पेंट इतना खराब ...बहुत ही ज़्यादा खराब ..लेकिन कमबख्त इतनी भारी ...

उस अलमारी का बंदा भी थोडा़ कंफ्यूज़ड ही लगा ...विज्ञापन में बताया था कि यह दस साल पुरानी है ...लेेकिन थी यह और भी बहुत पुरानी....वह बंदा तो जैसे अपना दुःखड़ा रोने लगा ...यह इन्होंने मुझे दहेज में दी थी ...(मैं इधर उधऱ देखने लगा कि बंदा किस को "इन्होंने" कह रहा था ..दो बुजुर्ग बस एक कमरे में गुफ्तगू में तल्लीन थे ...खैर, तभी उसे कुछ याद आया होगा कि कहने लगा कि मेरे लिए इस की बहुत इमोशनल वेल्यू है ...अब हम लोग १५ वीं मंज़िल पर रहने जा रहे हैं, इसलिए इसे डिस्पोज़ आफ करना चाह रहे हैं...

मेरे मन में उस समय अतिथि तुम कब जाओगे....में सतीश कौशिक का अजय देवगण को उस के चाचा के लिए बोला गया डायलाग याद आ गया...कुछ बहस हो गई थी एक सेट पर ...देवगण कहता है कि यह तो मेरे पिता सामान हैं....तो सतीश कौशिक गाली निकाल कर कहता है, सामान है तो इसे घर रखो ...दरअसल कौशिक उस समय भड़का हुआ था क्योंकि उस चाचा (परेश रावल) ने एक बहुत महंगी गलती कर के फिल्म का सेट ही राख करवा दिया था....

देखो यार, मेरी पोस्ट चाहे आगे आप पढ़ो चाहे नहीं, लेकिन इस क्लिप को अवश्य देखिएगा...

बहरहाल, वह मुझे कहने लगा कि इस में दो चाबियां लगती हैं...मेरे को उसने लगा के भी दिखाईं ...बड़ा रोमांचकारी फीचर था ...लेकिन मेरे को दो क्या एक चाभी वाले लाक में भी कोई रुचि नहीं होती ...सभी अलमारीयां वैसे ही खुली रहती हैं...होता क्या है इन में ताले लगाने वाला!!

और मेरे जैसे भुलक्कड़ के लिए तो वैसे ही दो चाभियाों वाला मामला और भी पेचीदा ...कईं बार तो मैं अपनी चाभियां भूल जाता हूं...

और हां, भारी भरकम इतनी थी यह अलमारी जिसे वह ओएलएक्स विक्रेता एक USP मानता था कि यह बड़ी मजबूत है ...मैं तो बस लोहे के पैसे ही ले रहा हूं...

बात, दरअसल पैसों की तो बिल्कुल थी ही नहीं, उस के भारीपन पर ही पेच फंस गया ....मैंने कहा कि थोड़ा साइड से देख सकता हूं, उसने कहा कि मेरे को तो रॉड पड़ी हुई है, मैं तो इतनी भारी अलमारी को हाथ नहीं लगा सकता....तब, मुझे लगा कि यार, अगर यह बंदा ही इस अलमारी से इतना परेशान है तो मुझे इस की आफ़त मोल लेने की क्या पड़ी है...

तब भी मैं पूरी तरह से कोई निर्णय ले नहीं पाया ...मैंने कहा टैंपो का पता करके फोन करता हूं..

टैंपो वाला मिला ...७०० रूपये कहने लगा ...तुरंत चलने को तैयार हो गया...मैंने वहीं सोचा कि ५००० की अलमारी, ७०० टैंपो के और ऊपर से डेढ़ दो हज़ार के पेंट करवाने के .... फायदा क्या ऐसी अलमारी का, जो पेंट के बिना सिरदर्दी बनी रहेगी ...वैसे भी वज़न इतना ज़्यादा कि मेरे बाद स्वभाविक है यह फिर किसी की इमोशनल वेल्यू बन जायेगी कि इस में अपना बापू रद्दी रखता था....लेकिन जब भी इसे शिफ्ट करने की बात आया करेगी तो मन ही मन मेरे को गालियां निकाला करेंगे..

मुझे लगा कि इसे खरीदना हर नज़रिये से बेवकूफ़ी है ...कबाड़ इक्ट्ठा करने जैसी बात है ...इसलिए उस को फोन कर दिया कि आप बेच दीजिए अपने इच्छानुसार (क्योंकि उसने कह दिया था कि बहुत से लोग इस में रूचि ले रहे हैं) ...हमारे यहां इतनी भारी अलमारी चल नहीं पायेगी......

अब अपने पुराने सामान का क्या करूंगा ..सोच रहा हूं किसी दिन मोहमाया का त्याग कर के उसे बारी बारी से नेकी की दीवार पर ही टांग आया करूंगा ....

चलिए...अगली बात ....

अगली बात यह कि कल एक फुटपाथ पर पुरानी किताबें बिक रही थीं ....मुझे एक पुरानी किताब दिख गई जिस की फोटो यहां लगा रहा हूं...

लगभग १०० वर्षो के बाद भी इस की जिल्द और बांईंडिंग सही सलामत है

मुझे तो यह किताब लेनी ही थी, १९२० की किताब है ...बस, इसलिए ...क्योंकि मुझे इस की अंग्रेजी से कोई सरोकार नहीं ..कोशिश ज़रूर करूंगा इसे पढ़ने की ...कोई धांसू विषय तो लग ही रहा है ...लेकिन मेरा अपना, हमारे स्कूल का, हमारे टीचर्ज़ का यह दोष तो रहा कि हमें वर्ल्ड आर्ट, वर्ल्ड ड्रामा, विश्व की हिस्ट्री, जियोग्राफी, विश्व सिनेमा का कुछ भी ज्ञान नहीं दे पाए और न ही इसमें हमारी रूचि ही विकसित कर पाए...इन विषयों के बारे में कुछ भी नहीं पता....शून्य बटे सन्नाटा जैसी बात है ....बस जैसे तैसे रट-रटा के हिस्ट्री-ज्योग्राफी पास करते रहे क्योंकि एक तरह से हम लोगों को ब्रेन-वाश कर दिया जाता था उस दौर में बस मैथ, साईंस और ईंगलिश पर ज़ोर दो ...बाकी में कुछ नहीं होता, अपने आप सब पास हो जाते हैं.....लेकिन बाद में पता चलता है कि पास होना ही तो कुछ नहीं होता, हर विषय अच्छे से समझना ज़रूरी तो होता ही है ...
किस मिट्टी के लोग थे तब भी ...किताब पढ़ते थे या चबा जाते थे!!

मैं उस दुकानदार से पूछा कि क्या दूं ?..कहने लगा ..जो आप ठीक समझें.....मैंने बीस रूपये उस तरफ़ बढाए....कहने लगा कि आप इस किताब को देख रहे हैं कितनी पुरानी है ...आप को तो इस के बारे में पता होगा (मैं उस को क्या बताता कि मुझे भी कुछ नहीं पता...सिवा इस के कि यह १९२० में छपी थी और और आज भी इस की बांईंडिंग ठीक ठाक है...)...पचास तो दे दीजिए......मैं उसे तुरंत पचास रूपये दिए और किताब लेकर आगे बढ़ गया.....

एक बात और शेयर करता हूं ....

आज बाद दोपहर ४ से ५ विविध भारती पर सावन कुमार टाक -फिल्म लेखक, निर्माता, निर्देशक के साथ एक इंटरव्यू आ रहा था ...अच्छा लगा, कुछ नईं जानकारियां मिलीं ....एक विशेष बात यह पता कि वे अपनी फिल्मों के गाने भी स्वयं ही लिखते थे ....उन के लिखे दो तीन गाने प्रोग्राम में रेडियो पर बजे ..ये सभी मेरे भी एकदम फेवरेट हैं....




शनिवार, 1 अप्रैल 2017

पंजाबी फिल्मों का अमिताभ बच्चन ....सतीश कौल

पिछले कुछ अरसे से मैं टीवी पर अमिताभ बच्चन के विज्ञापन बार बार देख कर उतना ही ऊब गया जितना आप साउथ की हिंदी में डब की गई फिल्मों को देख कर पक जाते हैं....

मैंने फेसबुक पर एक स्टेट्स टाइप भी कर लिया कि अगर हो सके तो ऐसा नियम ही बना देना चाहिए की सभी विज्ञापनों में अमिताभ बच्चन ही काम करेंगे...एक तरह से व्यंग्यबाण की तरह।

पता नहीं आज कल मेरे फेसबुक में कुछ गड़बड़ सी है ...मुझ से वह स्टेट्स हो नहीं पाया...

आज सुबह कुछ ऐसा हुआ कि मुझे लगा कि ठीक ही हुआ...नहीं तो मुझे उसे डिलीट करना पड़ता ... क्योंकि आज मुझे एक बार फिर आभास हुआ कि जब तक बल्ला चल रहा है तो ठीक ही तो है...अगर बच्चन साहब को काम मिल रहा है इस उम्र में भी और वे एक्टिव हैं अभी भी कुछ शारीरिक परेशानियों के बावजूद भी ...तो अच्छी बात है...


आज सुबह मेरी एक ३५-४० साल पुराने मित्र से पर व्हाट्सएप पर बात हो रही थी...मैं उस का नाम नहीं लिखना चाहता यहां पर और वह किस शहर में रहते हैं, मैं यह लिखना ठीक नहीं लगता..क्योंकि यह एक हस्ती की बात है ...दोस्त ने लिखा कि वह कुछ दिन पहले हमारे ज़माने के एक पंजाबी फिल्मों के एक सुपरहिट हीरो सतीश कौल से एक वृद्ध आश्रम में मिले ...वह मित्र अकसर वृद्ध आश्रम में जाते रहते हैं....दोस्त ने बताया कि जैसे ही उन्होंने सतीश कौल जी को थाली में खाना परोसा और साथ में ५०० रूपये का नोट थमाया तो उन की बेटी ने पूछ लिया कि कौन हैं ये। दोस्त ने जवाब दिया कि यह हमारे दौर के पंजाबी फिल्मों के शाहरूख खान हैं...

उन की इस बात से सतीश कौल की इस तंगहाली के बारे में जान कर हैरत हुई...सुबह से ध्यान बार बार उस तरफ जाता रहा कि हम लोग कैसे स्कूल-कालेज के दिनों में उन की पंजाबी फिल्मों के दीवाने हुआ करते थे...

सुबह से अब तक यू-ट्यूब पर उन के बारे में देखा-उन के मुंह से सुना भी ...उन की कुछ फिल्मों के गीत भी सुने-देखे....एक जगह बता रहे थे कि पहले हम लोग काम के दीवाने थे, २२-२२ घंटे काम किया करते थे...भविष्य की चिंता नहीं करी....१५००० हजा़र रूपये एक पंजाबी फिल्म करने के मिलते थे...कमाई पंजाब में करते थे और खर्च बंबई में करते थे, ऐसे में कहां कुछ बच पाता....बस, ऐसे ही दिवालिया हो गये ...


यह पोस्ट किसी महान् कलाकार की ज़िंदगी को चटापट बना कर पेश करने का कोई प्रयास नहीं है ...लेकिन एक सच्चाई है कि लोगों की यादाश्त बहुत कच्ची है, वे झट से सब कुछ भुला देते हैं....हर बंदे को अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ती है...ऐसे में मुझे लगता है कि अमिताभ या फिर अन्य बुज़ुर्ग कलाकार अपनी आमदनी का कुछ भी बढ़िया जुगाड़ कर रखते हैं तो अच्छी ही बात है ...वरना हम कितने ही वयोवृद्ध बेहतरीन कलाकारों के आखिर दिनों में तंगहाली के किस्से सुनते रहते हैं...मुझे अभी एके हंगल साहब के आखिरी दिन भी याद आ रहे हैं....

सतीश कौल साहब की कुछ फिल्मों के नाम मैं यहां लिख रहा हूं.... लच्छी, रूप शौकीनन दा, मोरनी, रानो, जट पंजाबी, जीजा साली, पटोला, सस्सी पुन्नू, पींगां प्यार दीयां, यार गरीबां दा, धी रानी, यारा औ दिलदारा, वेहड़ा लंबड़ा दा....इन में से अधिकांश फिल्में अब यू-ट्यूब पर पड़ी हुई हैं ...लेेकिन इन के गीत अलग से नहीं दिखे यू-ट्यूब पर ...हों भी कैसे, आज की पीढ़ी को जब यह ही नहीं पता कि सतीश कौल कौन है तो कौन अपलोड़ करेगा उस बेहतरीन युग के पंजाबी गीतों को यू-ट्यूब पर...

मेरे पास पंजाबी गीतों की अच्छी कलेक्शन है ....बड़ी मेहनत से कईँ सालों के प्रयास से यह कलेक्शन की है ...बहुत समय से सोच रहा था कि इन को यू-ट्यूब पर अपलोड़ करूंगा ...लेकिन बस ऐसे ही समय नहीं मिलता, जब समय मिलता है तो थक जाते हैं....बस, ऐसे ही ख्याली पुलाव पका पका के ही टाइम को धक्के दिये जा रहे हैं...

हां, अपनी इंटरव्यू में वे रफी साहब की बड़ी तारीफ करते हैं ...एक फिल्म आई थी सस्सी पुुुन्नू ..जिस का एक गीत था...असीं अल्हड़पुणे विच ऐवें अखियां ला बैठे....दिल बेकदरां नाल ला कर कदर गवा बैठे ....(हम तो ऐसे ही बेवकूफी में ही दिल लगा बैठे और जिसे हमारी कद्र भी नहीं थी, उस के साथ दिल लगा कर अपनी कद्र भी गंवा बैठे...)


लगी वाले कदे वी ना सोंदे, ते तेरी किवें अख लग गई... (जिन को ईश्क का रोग लग जाता है, उन को तो नींद नहीं आती, लेकिन तू कैसे सो गई...) ..इस गीत के बारे में सतीश कौल बताते हैं कि रफी साहब ने यह गीत गाने से पहले पूछा कि यह गीत किस पर फिल्माया जाना है, तो जब उन्हें पता चला कि सतीश कौल ...तो उन्होंने कहा ..ठीक है....क्योंकि इस गीत में तरह तरह के इमोशनल हाव भाव हैं...और कौल ने बताया कि जब रफी साहब ने वह फिल्म देखी तो इतने खुश हुए कि कौल को ५००० रूपये का इनाम दिया कि तुमने मेरे गीत में जान भर दी...



एक बात और यहां लिखना चाहता हूं कि ये सारी पंजाबी गीत वे हैं जो अकसर हमें आए दिन शाम के समय जालंधर रेडियो स्टेशन से प्रसारित होने वाले पंजाबी प्रोग्राम में तो सुनते ही थे ...७ से ८ बजे तक शाम में और फिर बाद में जब १९७५ के आसपास टीवी आया तो पंजाबी चित्रहार में भी हम ये गीत सुनते-देखते बड़े हुए...


एक बात और भी है कि यू-ट्यूब पर अगर आप पुरानी फिल्में देखेंगे तो बहुत खुश होंगे ...ये उस समय के पंजाब की रूह का आइना हैं...

वैसे हर शै की तरह पंजाब भी बदल रहा है ....नशे-पत्ते की गिरफ्त में है, लोग राजनीतिक रोटियां सेंकते हैं वहां भी....सब घालमेल है.....सतीश कौल साहब को ढ़ेरों शुभकामनाओं के साथ इस पोस्ट को बंद कर रहा हूं....उस दोस्त का शुक्रिया जिसने आज का दिन सतीश कौल को याद करने का एक बहाना दे दिया....

ढंग से बात करने वाली बात...

अभी मैंने कुछ दिन पहले वाला अखबार ढूंढने की कोशिश की तो थी लेकिन हमारे यहां पर अकसर बीते हुए कल के अखबार को ढूंढ पाना मुश्किल काम होता है, ऐसे में कुछ दिनों पुराना अखबार कहां से ढूंढें।

ऐसी क्या बात छप गई थी उस में....उस के संपादकीय पन्ने पर एक व्यंग्य लेख था....लेखकों के बारे में किसी ने टिप्पणी करी थी...मुझे पूरा तो याद नहीं है ...लेकिन इतना पक्का याद है कि नामचीन लेखक की एक निशानी यह भी होती है कि वे सीधे मुंह किसी से बात नहीं करते..

कड़वा सच है तो है ...हो सकता है कि यह उस व्यंग्यकार का अपना अनुभव रहा है ...मन से हम सब जानते हैं कि किसी भी क्षेत्र में सफल लोगों के हाव-भाव कैसे बदल जाते हैं..

मैं भी कुछ अपने अनुभव दर्ज कर लूं लगे हाथ...हो सकता है कि ये मेरे व्यक्तिगत अनुभव हों..बिल्कुल व्यक्तिगत ..अगर आप के अनुभव इन से बिल्कुल भिन्न हैं तो भी मैं यह सब लिखने के लिए किसी तरह का क्षमा-प्रार्थी नहीं हूं...

किसी भी क्षेत्र में जब कोई सफल हो जाता है तो अकसर वह सफलता उस के सिर पर चढ़ ही जाती है...अगर नहीं भी चढ़ती तो कुछ चमचे लोग जो उसे घेरे रहते हैं ये गड़बड़ कर देते हैं..

लेकिन एक बात और भी तय है कि सब लोग एक जैसे भी नहीं होते ....कुछ सफल लोगों को ज़मीन पर टिके रहने का आर्ट भी आता है...

एक प्राईव्हेट चिकित्सक के यहां जाने का मौका मिला...प्रोफैशन में नाम है उसका ...और है भी बहुत काबिल और अनुभवी ...आठ सौ रूपये परामर्श फीस...लेकिन वही बात उस की मेज के आसपास बीस पच्चीस मरीज बेंचों पर बैठे हुए...मुझे उसे देखते ही अमृतसर के पुतलीघर चौक के डाक्टर कपूर की याद आ जाती है...फीस उन की पांच दस रूपये ही थी ..लेकिन मेरे गला खराब होने से लेकर आंख में कुछ चले जाने पर उन के ही पास ले जाया जाता था...और मैं वहां बैठा यही केलकुलेट करता रहता कि बंदे को इतनी कमाई होती होगी!

वह ज़माना ही और था, लोग अलग मिट्टी के बने हुए थे, मरीज़ की प्राईव्हेसी नाम की कोई चीज़ नहीं थी और पांच दस रूपये में शायद आप इस की उम्मीद भी तो नहीं कर सकते ..शायद..लेकिन आज सात-आठ रूपये देकर भी अगर ऐसा ही माहौल देखने के मिले तो समझ में यही आता है कि शायद हम लोग इस मुद्दे के प्रति संवेदनशील नहीं हैं...मरीज़ इस तरह के माहौल में अपनी बात पूरी तरह से रख नहीं पाते ..वे रुक-रूक कर अपनी बात कहते हैं...डाक्टर की तरफ़ कम और आस पास बैंचों पर बैठे लोगों की तरफ़ देख कर यह पता लगाने की कोशिश करते हुए कि कहीं उन की पहचान का तो वहां कोई नहीं बैठा...

और डाक्टर को भी देखा कि अधिकतर वह मरीज़ की आंख में आंख मिला कर बात करता ही नहीं ... बहुत ही कम आई-कंटेक्ट, और मरीज़ बात करते हुए भी बहुत डरे-सिमटे से ...

एक दिन मेरी मां से यही बात हो रही थी ...उन्होंने भी डाक्टर का ही पक्ष लिया ...कहने लगीं कि ये लोग भी क्या करें, इतने मरीज़ होते हैं...

यह तो महज एक उदाहरण है ..लेकिन मैं बहुत जगहों पर देखता हूं कि हम लोग मरीज़ की प्राईव्हेसी की परवाह करते ही नहीं हैं...और यह मेरा अनुभव है कि कईं मरीज़ का मन एक बिल्कुल पके हुए फोड़े की तरह होता है .. अगर वे अकेले में अपने मन की कुछ बात कह लेते हैं तो जैसे वह एब्सेस से पस निकल गया है ...आप अकसर उस की परिस्थितियों को बदलने के लिए कुछ भी कर सकने में सक्षम होते ही नहीं, लेकिन उसे अपनी मन की बात बाहर निकाल कर एक अजीब सा सुकून मिल जाता है...

अब आते हैं असल मुद्दे पर ....क्या हम लोग किसी से ढंग से बात इसलिए नहीं करते कि हम ज़्यााद बिझी हैं....यह आत्म-चिंतन की बात तो है ही ....लेकिन मेरा विचार ऐसा है कि हम कितने बड़े शहंशाह भी बन जाएं...अपने आप को बहुत कुछ मानने लगें तो भी इतना तो कम से कम है कि हम हर व्यक्ति से ढंग से बात से कर लें....मेरे विचार में यह सब से महत्वपूर्ण है ...उस के लिए कुछ कर पायें या नहीं, वह अलग है .....लेकिन ढंग से बात तो ऐसे करें कि उसे वीआईपी फील आ जाए...हर आदमी विलक्षण है, हमें कुछ न कुछ सिखाता रहता है ...लेकिन हम फिर भी किसी से व्यवहार करते समय एक काल्पनिक तराज़ू अपने हाथ में रखते हैं...

जगह जगह यही ताकीद की जाती है ...फलां से मुंह मत लगो, उस से दूर ही रहो ....डिस्टैंस रखना ज़रूरी है ... मुझे ये सब बातें कभी समझ में नहीं आईं और न ही मैं इन्हें समझना चाहता हूं कभी ....हां, एक बात अकसर कही जाती है कि किसी से फ्री नहीं होना चाहिए....

अरे यार, क्या हो जायेगा अगर आपस में अच्छे से बातचीत कर ली जायेगी....

मुझे कईं बार लगता है  कि किसी भी प्रोफैशन में जो बहुत ऊंचे पहुंच जाते हैं उन्हें शायद यही लगता होगा कि अगर वे सब के साथ खुल जायेंगे तो लोग उन का अनुचित लाभ लेना शुरू कर देंगे ....इस के बारे में भी मेरी यही राय है कि क्या ले लेगा कोई किसी से ...आप वही तो देंगे जो आप के पास है ...

लिखते लिखते मुझे यही लग रहा है कि कम्यूनिकेशन का विषय इतना फैला हुआ है कि हम लोग इस की एबीसी भी नहीं जान पाते ...बस, अपनी धुन में, अपनी तड़ी में ही ज़िंदगी बिता देते हैं...

आप चाहे कितने भी बड़े आदमी बन जाएं, इतना तो यार गुंजाईश रहे कि कोई भी आप से खुल कर अपनी समस्या ब्यां तो कर सके...बहुत बार जब कोई अपनी बात कह लेता है, अपनी भड़ास निकाल लेेता है ...और सामने वाला उसे सहानुभूति पूर्वक उसे सुन लेता है ....यह भी एक राहत-सामग्री ही होती है .....

क्या कहें, क्या न कहें...किस से खुलें, किस से हंसे, किस से दूरी रखें, किस से नज़र मिलाए, किस से छुपाएं.....कमबख्त यह तो एक पेचीदा गणित हो गया, इसी जोड़-तोड़ में लगे रहेंगे तो जिएंगे कब ...बेहतर होगा कोई पार्टी ज्वाईन कर लें, वहां पर ऐसे लोगों की बड़ी डिमांड रहती है...

कुछ हट के बात करें ....आज सुबह मैंने विश्वविख्यात हिंदी लेखक मोहन राकेश की कहानी उस्ताद पढ़ी....बहुत अच्छा लगा ..इस में अपने एक उस्ताद के बारे में लिखते हैं जो इन्हें ट्यूशन पढ़ाने आते थे ...तंगहाली में रहते थे...किस तरह से इंगलिश के पेपर के बाद उन्हें ट्यूशन के लिए मना करना उन के लिए एक बड़ा मुश्किल काम था और वे जाते जाते उन्हें अपना पैन दे गये...बहुत अच्छी कहानी है ...स्कूल की सरकारी किताबों में सहेजी गई सभी कहानियां हमारी संवेदनाओं को झंकृत तो करती ही हैं, सोचने पर मजबूर भी करती हैं और हमारे चरित्र का निर्माण भी अवश्य करती हैं...

हां तो ज़्यादा केलकुलेशन के साथ जिया नहीं जा सकता है ....ऐसा ही कुछ मैसेज शायद इस बालीवुड गीत में भी है ...

शनिवार, 28 जनवरी 2017

एक्स्ट्रा दांत निकलवाने ही ठीक रहते हैं...


यह तस्वीर जो आप यहां देख रहे हैं यह एक आठ-नौ साल की बच्ची की है जो मेरे पास ठीक २ महीने पहले आई थी, इस की मां को इस के ऊपर वाले अजीब से दांत से परेशानी थी ...उसे लगता था कि यह कैसा दांत है, अजीब सा लगता है...

उसे बताया गया कि यह एक एक्स्ट्रा दांत है जो इस जगह पर निकल आता है ..इसे जितनी जल्दी हो सके निकलवा लेना चाहिए, वरना यह साथ वाले दांतों को बेतरतीब कर देते हैं ...देखने में तो बुरा लगता ही है ...

उसी दिन इस बच्ची का यह दांत निकाल दिया गया...इस तरह के दांतों को उखाड़ना बहुत आसान होता है ..

कल यह बच्ची दो महीने बाद अपने दंत परीक्षण के लिए आई थी...आप इस तस्वीर में देख सकते हैं कि कैसे धीरे धीरे दो दांतों के बीच वाली खाली जगह थोड़ी कम हुई है ...और मुझे उम्मीद है कि अगले दो तीन वर्षो ं में यह खाली जगह या तो खत्म ही हो जायेगी नहीं तो बिल्कुल ही कम हो जायेगी...


बच्ची अपने दांत ठीक से ब्रुश नहीं कर रही थी, उसे इस का सही तरीका समझाया गया और उस के दांतों की स्केलिंग भी कर दी थी...

पोस्ट यह छोटी है ...बस यही बताने के लिए कि दांतों का नियमित परीक्षण करवाते रहना चाहिए ...थोड़ी सी भी गड़बड़ी आगे चल कर बहुत दिक्कत पैदा कर सकती है ...