शनिवार, 3 सितंबर 2016

संदेशे तो तब भी आते ही थे...

अकसर मुझे ध्यान आता है हम लोग जब ननिहाल जाया करते थे तो वहां दीवार में बनी एक कांच की अलमारी के दो हैंडलों पर दो लोहे की तारें टंगी दिखी करती थीं..एक में पुराने से पुराने ख़त और दूसरी तार में पुराने से पुराने बिजली पानी के बिल पिरोये रहते थे..

उस समय तो हमें कहां इन सब के बारे में सोचने की फुर्सत ही हुआ करती थी...अब मैं सोचता हूं तो बहुत हंसी आती है कि कोई खतों वाली एक तार उठा ले तो सारे खानदान की हिस्ट्री-ज्योग्राफी समझ में आ जाए..चाहे तो नोट्स तैयार कर ले... एक बात और भी है न, तब छुपाने के लिए कुछ होता भी नहीं था, सब को सब कुछ पता रहता था...यह छुपने-छुपाने की बीमारियां इस नये दौर की देन है।

लोग अभी भी उन पोस्टकार्ड के दिनों को याद करते थे...मुझे याद है जब हम लोग पोस्ट-कार्ड या लिफाफा डाक-पेटी के सुपुर्द करने जाया करते तो हमारे मन में एक बात घर चुकी थी कि खत अंदर गिरने की आवाज़ आनी चाहिए...आवाज़ आ जाती थी तो हमें इत्मीनान हो जाता था, वरना यही लगता था कहीं उस डिब्बे में ही अटक तो नहीं गया होगा....oh my God! Good old innocent days!

  अभी यह पोस्ट कार्ड लिखते मुझे जवाबी पोस्टकार्ड का ध्यान आ गया ...इन का इस्तेमाल उन हार्डकोर बंधुओं के लिए कईं बार लोग किया करते थे जो खतों का जवाब नहीं देते थे..जवाबी खत इसी तरह से डाकिया थमा देता था ..और जवाबी पोस्टकार्ड पर अकसर खत भिजवाने का पता तक भी लिखा रहता था... आज बहुत कुछ याद आया इसी बहाने...

उन दिनों में सब कुछ विश्वास पर ही चलता था...चिट्ठी डाली है तो मतलब पहुंच ही जायेगी ... डाकिये पर पूरा भरोसा, पूरा डाक विभाग पर पूरा अकीदा, चिट्ठी जिसे भेजी है उस पर भी एक दम पक्का यकीन कि चिट्ठी मिलते ही वह जवाब भिजवा ही देगा... मुझे तो कोई चुस्त-चालाकी के किस्से याद नहीं कि किसी ने किसी की चिट्ठी दबा ली हो और मिलने पर गिला किया हो कि आप की चिट्ठी नहीं मिली..हर घर में चंद लोग ऐसे होते थे जिन की आदतों से सब वाकिफ़ हुआ करते थे...बहरहाल, सब कुछ ठीक ठाक चलता रहता था....शादी ब्याह के कार्ड, रस्म-क्रिया, मुंडन, सगाई ...सब खबरें खत से ही मिलती थीं..

शादी ब्याह से याद आया कि अब तो लोग शादी ब्याह के कार्ड भी स्पीड-पोस्ट से भिजवाते हैं अकसर, वरना कूरियर से ...पहले तो शायद दो तीन रूपये का डाक-टिकट लगा कर बुक-पोस्ट कर दिया जाता था और पहुंच भी जाया करता था...कुछ अरसा पहले की बात है कि मैं एक जगह पर स्पीड पोस्ट करवाने गया ... वहां पर दो पुलिस वाले किसी शादी ब्याह के कार्ड स्पीड पोस्ट करवा रहे थे ...३०-४० तो ज़रूर होंगे ...शायद एक हज़ार से भी ज़्यादा खर्च भी आया था ... किसी पुलिस वाले के बच्चे की शादी के कार्ड थे...

जितनी लंबी लाइनें आज कल स्पीड-पोस्ट के लिए होती हैं, उस से तो यही लगता है कि लोग अब चिट्ठी-पत्री पर भरोसा ही नहीं करते ....यहां तक की रजिस्टरी भी लोग कम ही करवाते हैं...बस, स्पीड-पोस्ट ही चलती है अधिकतर। ठीक है नौकरी के लिए आवेदन करने वाले स्पीड-पोस्ट करवाते हैं, बात समझ में आती है ...आजकल इतनी धांधलियां हो रही हैं भर्ती प्रक्रिया में ...ऐसे में कुछ तो सालिड प्रूफ चाहिए....हम लोग आज से २५-३० वर्ष पूर्व रजिस्टरी करवाया करते थे...हां, क्या आप को पता है कि अब रजिस्टरी लिफाफे नहीं मिलते डाकखानों से, सादे लिफाफे या ५ रूपये वाले डाक-लिफाफे में ही पत्र डाल कर रजिस्टरी करवाई जाती है ...

हमारे जमाने में बड़े-बुज़ुर्ग घर में घुसते ही यह पूछा करते थे कि कोई चिट्ठी आई?....सच में ये ५ पैसे के हाथ से लिखे पोस्टकार्ड और १५ वाले अंतर्देशीय लिफाफे घरों का माहौल खुशनुमा बना दिया करते थे..उन्हें परिवार का हर सदस्य पढ़ता...और फिर उसे संभाल कर रख दिया जाता ...अब वाला चक्कर बड़ा मुश्किल है हर पांच पांच मिनट पर वाट्सएप स्टेटस चैक करना और अपडेट करना ...

चिट्ठी-पत्री के बारे में संस्मरण का पिटारा है मेरे पास, सोच रहा हूं बाकी की बातें अगली कड़ियों में करूंगा..

बहुत लंबे अरसे के बाद आज टीवी पर म्यूजिक इंडिया चैनल पर यह गीत बज रहा है ...सुनेंगे...खुशी की वो रात आ गई...(फिल्म- धरती कहे पुकार के)...







आज फिर अखबार नहीं!

यह अच्छा लफड़ा है, आज फिर अखबार नहीं...

परसों अखबार नहीं आई..हम लोगों ने सोचा हॉकर से मिस हो गई होगी...

कल नहीं आई तो चिंता हुई कि अपना हॉकर प्रजापति ठीक तो होगा...कुछ दिन पहले उस की तबीयत खराब थी..

फोन किया कल...स्विच ऑफ मिला...दो तीन बार करने के बाद जब बात हुई और पूछा कि तबीयत ठीक है, तो पता चला कि उस की तबीयत तो ठीक है, लेकिन अखबार वालों की हड़ताल चल रही है..

मैंने कहा...अच्छा, कोई बात नहीं...

मैं ठीक से समझा नहीं था उस की बात, सोचा कि ड्यूटी पर जाते समय किसी चौराहे से पकड़ लूंगा अखबार ...लेकिन नहीं, वहीं भी अखबार नहीं पहुंची थी...

खबरों का कुछ पता ही नहीं चल रहा आजकल...अखबार का तो यह हाल है ...मुझे यह भी याद नहीं कि टीवी पर खबरिया चैनल को लगाए कितने दिन हो गये हैं...ऐसे ही पता नहीं क्या हो चला है टीवी पर खबरें क्या कुछ भी देखने की इच्छा ही नहीं होती..बस, लगता है रेडियो सारा दिन चलता रहे!

बंबई में जब मैं २०-२२ साल पहले एक सिद्ध समाधि योग का १४-१५ दिन का प्रोग्राम कर रहा था तो एक शर्त थी वहां कि आप लोगों ने अखबार नहीं देखनी जब तक यहां आना है ...हम लोगों ने बात मान ली थी...कभी ऐसा नहीं लगा कि कुछ छूट गया हो..

हमें बताया गया था कि अखबारें सुबह सुबह आप पढ़ते हैं तो सारी निगेटिविटी जबरदस्ती अपने अंदर ठूंस लेते हैं...लेकिन जैसे हम लोग हैं, कुछ दिन तक यह बात मान लीं, लेकिन फिर वापिस अखबार देखना चालू हो गया...

अखबारें इतना बड़ा विलेन भी नहीं हैं, यह हमारे ऊपर है हम उस से क्या ग्रहण करना चाहते हैं...सब तरह का कंटेंट तो बिखरा पड़ा रहता है ...सच में आज के इंसान की आंखें हैं यह अखबार....हम एक तरह से घर बैठे बैठे विश्व-दर्शन कर लिया करते हैं इस के जरिये...

टीवी के खबरिया चैनलों से मुझे आपत्ति है ...जिस तरह से उचक उचक के ऊंची आवाज़ में वे लोग खबरें पढ़ते हैं, सनसनी परोसते हैं....मैं नहीं सहन कर पाता....तुरंत मेरा सिर फटने लगता है ...इसलिए आज कल मुझे टीवी पर खबरें देखना बिल्कुल नहीं भाता....शायद कभी लगी होती हैं तो पांच दस मिनट देख लेता हूं ...वरना यह नहीं कि कभी खबरें देखने के लिए टीवी लगाया हो ....

अखबारों की अलग बात है ...चाहे उन का भी स्वरुप कितना भी बदल गया है ....लेकिन फिर भी आज भी भारत जैसे प्रजातंत्र में जनता में राय तैयार कराने का वे एक जबरदस्त काम तो कर ही रही है... (opinion makers!)

दो दिन से अखबारें नहीं आ रही थीं,कल रात गूगल किया तो पता चला  .... No newspaper in Lucknow for second day


अखबारें हम लोग अपने अपने घरों में मंगवाते हैं, सारा दिन पढ़ते हैं...लेकिन मुझे वह नज़ारा बहुत अच्छा लगता है जब किसी चाय की गुमटी के आसपास, किसी नाई के ठीये के नजदीक चार पांच जीर्ण अवस्था में पड़े लकड़ी के हिलते-डुलते बेंचों और पत्थरों पर टिके आठ-दस लोग एक अखबार को एक साथ चबा रहे होते हैं....एक एक चुटकुला शेयर होता है, सिने-तारिकों की फोटो पर तंज कसे जाते हैं...कार्टून पर एक साथ सब हंसते हैं...गंभीर खबर पर चर्चा करते हैं ....लेकिन वोट किसे देंगे यह राज़ हमेशा अपने मन में छिपाए रखते हैं...इसे कहते हैं असली "चाय पे चर्चा" न कि वह वाली  फेशुनेबल चाय चर्चा जिसे आप सोच रहे हैं!! इन जगहों पर मुझे प्रजातंत्र के साक्षात् दर्शन करने को मिलते हैं!

 छठी-सातवीं कक्षा में जब मैं समाचार-पत्र पर निबंध तैयार रहा होता था तो मेरे पिता जी मुझे ये पंक्तियां कहीं भी उस में फिट करने की ताकीद किया करते थे... और मैं इसे मान लिया करता था...ये लाइनें थीं...

खींचों न कमानो को न तलवार निकालो 
जब तोप मुकाबिल हो तो अख़बार निकालो...

अभी इस पोस्ट का पब्लिश बटन दबाते हैं इन अखबारों के पेज थ्री पर छाए लोगों की असली ज़िंदगी का ध्यान आ गया....पेज-थ्री फिल्म का वह गीत यू-ट्यूब पर मिल गया...आप भी सुनिए... फिल्म ठीक थी, यू-ट्यूब पर पड़ी है, अगर नहीं देखी तो देखिएगा कभी ... फिलहाल तो यही सुनिए...कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पे !


हां, हाकर्स की हड़ताल के बारे में मेरा अोपिनियन यही है कि उन की मांगे तो मान ही ली जानी चाहिए...महंगाई बहुत है, कुछ भी हो, हर मेहनतकश को इतना तो मिले कि वह सम्मानपूर्वक अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके ..इन के पास तो कोई घोटाले कर के घर में करोड़ों रूपये छिपाने का भी कोई स्कोप नहीं है। The society should be liberal and sensitive to the aspirations of these hawkers too! What do you think? 




शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

गुड मार्निंग ..लखनऊ !


लखनऊ की तहजीब की छींटे-फौहारें सुबह-सवेरे से ही इस के वासियों पर पड़नी शुरू हो जाती हैं...

समय की आंधी से जो खबरदार नहीं हैं..
वे और कुछ भी हों, समझदार नहीं हैं! 

ये शब्द आज सुबह टहलते हुए एक मित्र-मंडली की सजी महफिल से सुनने को मिले...कहने का अंदाज़ इतना दिलकश ..पहली लाइन को इतनी बार इतने बढ़िया अंदाज़ में पेश किया गया कि दूसरी लाइन सुनने तक सांसे रुकी रहीं....यही है लखनऊ वालों को निराला अंदाज़...

हां, सुबह टहलने से बात शुरू करते हैं....दरअसल हम लोग सुबह टहलने के मामले में बड़े आलसी टाइप के हैं...आज उमस है, आज लेट हो गया, धूप चढ़ गई है ...बस, ऐसे ही टाल देते हैं...


आज सुबह उठा तो वही मेरी पुरानी तकलीफ़ सिर भारी....ए.सी में सोना मेरी मजबूरी है, मुझे बहुत नफ़रत है ए.सी से ...क्योंकि सोने से पहले तो अच्छा लगता है, उस के बिना शायद नींद ही नहीं आए....लेकिन सुबह उठते ही सिर भारी हुआ होता है ...
जब तक ३०-४० मिनट टहल के न आया जाए, और वापिस लौटने के बाद १०-१५ मिनट शांति से न बैठा जाए तबीयत ठीक नहीं होती...

आज टहलने का मन हो ही गया...थोड़ी हवा भी चल रही थी, मौसम भी खुशगवार ही था...

पार्क के बाहर यह होम-ट्यूशन की इश्तिहार देखा...इस तरह के विज्ञापन जो अखबार में भी छपते हैं, वे मुझे बड़े अजीब से लगते हैं...एक बात का इतमीनान तो होता ही है कि चलिए, इसी चक्कर में कुछ बेरोज़गारों को काम-धंधा मिल जाता है...
लेकिन मेरी सोच यह है कि कुछ भी हो प्यासे का ही कुएं पर जाना ठीक होता है ....मुझे तो यह भी लग रहा है ...जैसा मैं समझता हूं कि जो बच्चे घर में ही ट्यूशन पढ़ते हैं वे पढ़ाई में ज्यादा आगे चल नहीं पाते..कारण कुछ भी हों ...लेकिन पास वास बस हो जाते होंगे ...लेकिन मुझे नहीं लगता कुछ विशेष हासिल कर पाते होंगे...

बच्चों के अगर हाथ-पांव चलते हैं तो उन्हें गुरूजनों के पास भिजवा कर ही विद्या दान ग्रहण करना चाहिए....उस स्थान की एक अलग ही आलौकिक ऊर्जा होती है...घर में तो बच्चा यही समझता है कि जैसे उस का रईस बाप ही सर की रोटी का इंतज़ाम कर रहा है ...हम लोग घर आए गुरूजनों से अति-शिष्ट व्यवहार करते हैं ...यह हमारे संस्कार की बात है या शायद इसमें भी हमारा स्वार्थ ही होता है लेकिन इस से गुरू-शिष्य के पारंपरिक संबंध पैदा नहीं हो पाते....मैं तो पूरे विश्वास के साथ ऐसा सोचता हूं...

हम ने भी बेटे के लिए एक हिंदी टीचर की व्यवस्था करी थी बंबई में १९९० के दशक में ...कुछ महीनों के लिए..उसने बेटे को हिंदी का शब्द-बोध करवाया...अच्छा अभ्यास भी करवाया...चूंकि यह उस के खेलने का समय होता था ..इसलिए उस के हाव-भाव से ऐसे लगता था जैसे उस टीचर का आना उस के लिए बोझ होता था..हमें यह देख कर बहुत असुविधा होती थी..चलिए, जैसे तैसे टाइम पास हो गया..

शुक्र है ईश्वर का कि हम लोगों का कितना भी बैंक बेलेंस हो, लेकिन कुछ चीज़ें हम खरीद नहीं सकते ...जैसे उस्ताद की कृपा-दृष्टि....इसके लिए समर्पण चाहिए....

मैं भी सुबह सुबह क्या प्रवचन झाड़ने लगा! 

प्रवचन से ध्यान आया ..बाग में यह भाई साहब कुछ परचे बांट रहे थे ..११ सितंबर को एक प्रोग्राम है...जितनी आत्मीयता से  ये टहलने वालों से आग्रह कर रहे थे, मन को छू गई यह बात और मैंने सोचा कि मैं भी अपने ब्लॉग के माध्यम से इस का प्रचार करूंगा ... पढ़िए, अगर आप भी आना चाहें तो ज़रूर पधारिए.... अता,पता,ठिकाना सब लिखा है इस परचे में....



टहलते हुए मेरी नज़र एक चबूतरे पर पड़ी तो मैंने देखा कि बीस के करीब पुरूष एक गोलाकार आकृति की व्यवस्था बना कर बैठे हुए हैं...ठहाके लगा रहे हैं...हर बंदा कुछ न कुछ सुना रहा था ....कोई चुटकुला, कविता, किस्सा.....एक शेयर तो मैंने ऊपर लिख दिया है ....एक बात और भी वहां दो  मिनट बैठने पर सुनने को मिली ....
"कोई आप को बेवकूफ कहे तो यह नाराज़ होने की बात नहीं है, बुरा मनाने की भी बात नहीं है, धैर्य खोने की भी बात नहीं है, रिएक्ट करने की भी बात नहीं है, परेशान भी होने की बात नहीं है, लड़ाई-झगड़े पर उतारू होने की भी बात नहीं है......
बस, एक कुर्सी पर आराम से टेक लगा कर बैठिए.....अपने गाल पर हाथ रखिए.....और सोचिए ....कि इसे आखिर पता कैसे चला.. !"
कहने का अंदाज़ उस बंदे का बिल्कुल लखनऊवा किस्सागोई वाला ....खूब ठहाके लगे इस बात पर ....

आगे चले तो देखा कि चार पांच पुरूष अकबर बीरबल का कोई किस्सा मरदमशुमारी पर कह रहे थे ..वह मैं सुन नहीं पाया ...यह लखनऊ की किस्सागोई की बड़ी उमदा रवायत है ...मैं यहां एफएम पर रेडियो जॉकी की बातें भी सुनता हूं तो ऐसे लगता है कि बढ़िया किस्से सुन रहा हूं....


मुझे अभी यह ध्यान आ रहा था कि इस तरह के बाग-बगीचों में ये जो लोगों को इस तरह की गोष्ठियां होती हैं ...मित्र -मंडलियों की ..यही असली गोष्ठियां हैं, वरना धर्म के ठेकेदार या दूसरे ठेकेदार लोग जो भोली भाली जनता को अच्छे दिनों के सपने बेच कर तितर बितर हो जाते हैं ... कुछ सालों के बाद फिर से लौटने के लिए....

अच्छा तो दोस्तो...आप का दिन बहुत खुशगवार हो... मस्त रहिए, व्यस्त रहिए.... take care! मुझे भी अभी अपने काम-धंधे पर निकलना है ... 

जाते जाते इस सपने के सौदागर की बातें भी सुनते जाइए.... क्या मालूम आप के मतलब की भी कोई चीज़ इस के पास हो ...

  

गुरुवार, 1 सितंबर 2016

कहानी ... पहचान की चमक

"आप को शरीर में और कोई कष्ट तो नहीं?"..डाक्टर ने रामदीन से पूछा...

"नहीं, डाक्साब, और कुछ नहीं, बस यह खांसी जुकाम से ही परेशान हूं...कुछ अरसा पहले हम का बताये रहिन कि हम का शूगर है...लेकिन तब से हम ने बराबर परहेज करना शुरू कर दिया और सुबह शाम दो बार आधा आधा चम्मच अजवाईन, मेथी और काली जीरी का पावडर ले लेता हूं...ठीक रहता हूं"


"कभी आपने रक्त की जांच भी करवाई ...कितना अरसा पहले करवाई थी..."

"पर साल ...शायद...उस से भी पहले ...ही करवाये रहे..."

"नहीं, आप को ठीक भी लगे तो भी..परहेज भी करिए, और यह देसी पावडर भी खाते रहिए, इस का कोई नुकसान नहीं है, लेकिन इस के साथ साथ रक्त की जांच भी दो तीन महीने में एक बार तो शूगर के लिए करवा ही लिया कीजिए..."

"ठीक है, करवा लेंगे..."

इतना कहते कहते रामदीन ने अपने बैग से उस देशी पावडर को अपने बैग से निकाल लिया और हथेली पर थोड़ा उंडेल कर उसे दिखाते हुए उस के घटकों की मात्रा के बारे में बताने लगे....

डाक्साब ने कुछ सुना..कुछ अनसुना...उन का ध्यान तो कमरे के बाहर लगी मरीज़ों की भीड़ की आवाज़ों भी तरफ़ था...

"वैसे आप इस डिबिया को साथ ही लेकर चलते हैं" ...डाक्टर ने उत्सुकतावश पूछ ही लिया...

"हमारा कोउना ठिकाना नहीं, आज यहां, कल वहां...इसलिए इस डिबिया को, दांत कूचने के लिए ब्रुश-मंजन, एक जोड़ा कपड़े इस बैग में धरे रखता हूं...दरअसल डाक्दर बाबू, मैं एक वृद्ध आश्रम चलाता हूं और इस एनजीओ को रजिस्टर करवाया हुआ है..."

"आप वृद्ध आश्रम चलाते हैं, कहां, कितने लोग रहते हैं वहां?" ....डाक्टर ने तो जैसे प्रश्नो की झड़ी लगा डाली ...

रामदीन ने बताया ....." रिटायरमैंटी के बाद मैंने ८० हज़ार रूपये बिसवा के हिसाब से अढ़ाई बिसवा जमीन गांव में खरीद ली ..बाराबंकी के पास ही है ...चहारदीवारी करवा दी...बस, अपने हाथ से तीन चार हज़ार खर्च हो जाता है ...वहां पर दो लोग रखे हुए हैं जो अपनी सेवा के लिए पैसा नहीं लेते...

कहीं पर भी कोई बूढ़ा बुज़ुर्ग मिल जाता है ..अच्छे माथे वाला ...या कोई उलझन में बूढ़ा दिख जाता है मारा मारा फिरता तो उसे हम लोग उस आश्रम में ले आते हैं...वहां एक दो दिन रखते हैं...उस के घर फोन करते हैं कि आप का पिता हम लोगों के यहां हैं, ले जाइए...दो दिन के बाद पुलिसिया कार्रवाई करवा देंगे...."

"पुलिसिया कार्रवाई ?"... डाक्टर ने पूछा

"हां, हां, सुप्रीम कोर्ट ने कानून बनाया है कि बुजुर्गों को बच्चे ऐसा ठोकरें खाने के लिए नहीं छोड़ सकते, वरना कार्रवाई होगी और १० हज़ार रूपये का मासिक खर्चा-पानी देना होगा..."

"बस, इतना सुनते ही वे आकर बाप को लिवा ले जाते हैं...और हम लोग उस के परिवार वालों से एक एफीडेविट भी ले लेते हैं...यह कहते रामदीन के चेहरे पर खुशी साफ़ दिख रही थी."

"रामदीन, आप तो बहुत अच्छे काम का बीडा़ उठाए हो....बहुत अच्छे.."- यह कहते हुए डाक्टर ने उसे शाबाशी दी...

"साब, यह काम करने का मुझे ध्यान अपने बूढ़े बाप की हालत से आया...मेरा बाप मेरे भाई के पास रहता था, सारी ज़मीन जायदाद उस से लिखवा कर, उसे घर में ही बंद कर दिया...तिल तिल मरने के लिए....कईं महीने बीत गए...इस दौरान मैं जब भी बापू से मिलने जाऊं..हर बार यही जवाब मिले ...कि बापू तो वहां गये हैं....अब उधर गये हैं....एक बार मुझे शक हुआ...मैंने एक बंद कमरे को देखा तो भाई से पूछा कि यह बंद क्यों हैं.....कमरा खोला ...तो देखा मेरा बाप बुरी हालत में अंदर दुबका पड़ा था, मुझे देखते ही उसने मुझे अपनी कमज़ोर बांहों में कस लिया....मेरा मुंह चूमा....मैंने पूछा ..बाबा, कुछ खाओगे, ..कहने लगा ..हां, बेटा, बर्फी खाऊंगा..... मैंने तुरंत किसी बच्चे को बाज़ार भिजवा कर बर्फी मंगवाई....डाक्साब, बापू ने बर्फी का एक टुकड़ा खाया, पानी का एक गिलास पिया और वहीं मेरी बांहों में ही लुढ़क गया......चल बसा बेचारा, जैसे मेरी ही बाट जोह रहा था.......बहुत से बुज़ुर्गों को इसी तरह से तिल तिल मरने पर मजबूर किया जाता है ...पहले उन से सब कुछ हथिया लिया जाता है ...बस, फिर ठोकर मार दी जाती है.."

 "उस दिन से मैंने यह सोच लिया कि अब यही काम करूंगा ...बुज़ुर्गों के लिए कुछ करूंगा....और मैं इस काम में लग गया....चलता फिरता रहता हूं...ठहरने खाने की कोई चिंता नहीं, कहीं भी जैसा भी रहने खाने को मिल जाता है....मैं खुश हूं..परिवार है, बच्चे हैं, अपना गुज़ारा कर लेते हैं... बीवी से मेरी पटड़ी सारी उम्र नहीं खाई. उस की सोच अलग है, वह सोचती है कि कैसे किसी से कुछ मिल जाए...मैं सोचता हूं कैसे किसी को हम कुछ दे सकें...बस, ऐसे ही है ..."


डाक्टर ने उस के पारिवारिक जीवन में झांकना मुनासिब न समझते हुए विषयांतर किया...."अच्छा, आप को इस एनजीओ चलाने के लिए कहीं से पैसा मिलता है...जैसे कोई सरकारी सहायता आदि?"

"नहीं, नहीं, बिल्कुल कोई पैसा नहीं मिलता ....हम सब लोग मिल कर इंतजाम कर लेते हैं...जिन बुज़ुर्गों को हम अपने यहां लाते हैं...उन्हें एक दो दिन का खाना हमारे सेवक अपने घर से ही खिला देते हैं...वह कोई दिक्कत नहीं है..."

पढ़े-लिखे शहरी लोग तो हर बात में नफ़ा-नुकसान का हिसाब लगा कर ही कुछ करते हैं.....डाक्टर साहब के दिल की बात उन की जुबां पर आ ही गई...."रामदीन, इस एनजीओ से आप को फिर मिलता क्या है?"

"डाक्साब, इलाके मेंं मेरी पूछ है....मेरा एन जी ओ रजिस्टर्ड है, किसी सिपाही दारोगा की इतनी हिम्मत नहीं कि मुझ से ऊंची आवाज में बात करे या मुझे छू भी सके....न ही कोई हम लोगों पर यह इल्जाम ही लगा सकता है कि हम ने किसी बुज़ुर्ग को किडनेप कर के अपने आश्रम में रखा है... एक पहचान है इस की वजह से मेरी " -अपने वृद्ध-आश्रम का विज़िटिंग कार्ड डाक्टर को दिखाते हुए रामदीन एक सांस में ही इतना सब कह गया...

डाक्टर ने उस कार्ड पर रामदीन अध्यक्ष लिखा देखा....फिर से रामदीन की तरफ़ देखा तो उसे रामदीन की आंखों में एक अजीब सी चमक दिखी .........पहचान की चमक!

स्मार्ट फोन ने हमें कितना स्मार्ट बना दिया...

स्मार्ट वार्ट कुछ नहीं बना दिया...हम लोग कुछ मामलों में पहले से ज्यादा बेवकूफ से हो गये हैं...

हर समय अपनों की कुशलता जानने के चक्कर में अपनी और दूसरों की नाक में दम कर रखा है हमने...

पहले का ज़माना याद आता है तो हैरानगी भी होती है ...१९७० के दशक के शुरूआत की बातें याद आती हैं तो यकीन नहीं होता कि आप कुछ दिन शहर के बाहर गये हैं और वहां पहुंचने का या अपनी कुशल-क्षेमता घर पहुंचाने का एक ही जरिया होता है खत...पोस्ट कार्ड या अंतरदेशीय लिफाफा...वह दूसरे वाला पीला एन्वेल्प तो फिजूलखर्ची समझा जाता है...

कईं बार तो लोग कईं कईं दिन खत की इंतज़ार किया करते कि इतने दिन हो गये अभी तक कोई पहुंचने की खबर नहीं आई...
अब तो हम लोग मिनट मिनट की खबर चाहते हैं...खुद भी परेशान होते हैं और दूसरों को भी परेशान कर मारते हैं....और अगर किसी का फोन कुछ समय के लिए स्विच-ऑफ मिला तो ज़मीन-आसमान एक कर देते हैं...सोशल मीडिया के सभी प्लेटफार्मों पर उस बंदे की एक्टिविटी चैक कर मारते हैं...ऐसे ही हैं न हम लोग! 


हर तरफ़ फार्मेलेटी करना सीख गये हैं....ऐसे ही दुनिया भर के लोगों को सुबह से शाम मैसेज करते रहना ...कोई एक्नालेज करे या न करे, बस हम एक्टिव दिखना चाहते हैं..

लेकिन कभी नोटिस करिएगा कि इस सब के चक्कर में हमारा संवाद उन अपनों से बिखर गया है जिन के पास स्मार्ट फोन नहीं है ...हमें सब से ज्यादा दुःख आज तब होता है जब पता चलता है कि अपने फलां फलां बंदे के पास स्मार्ट फोन नहीं है ...और उस से भी ज़्यादा शायद तब जब हमें पता चलता है कि वह न तो वाट्सएप इस्तेमाल करता है और न ही वह फेसबुकिया है....

लेकिन मेरी इस के बारे में सोच अलग है ...मुझे यह स्मार्ट-फोन आफ़त लगते हैं...ठीक है फायदे तो हैं ही लेकिन ओवरयूज़ से सिर जकड़ा जाता है बहुत बार ... हर समय इसे हाथ में पकड़े रखना एक मुसीबत जान पड़ती है ... 

मुझे बड़ी खुशी होती है जब मेरे किसी मरीज़ को कोई फोन आता है और वह अपने थैले के किसी कोने से बाबा आदम के ज़माने का रबड़-बैंड की मदद से जुड़ा हुआ फोन निकालता है ...पूरे जोर से बटन दबा कर कॉल को रिसीव करता है और इत्मीनान से उसे फिर उसी थैले के सुपुर्द कर देता है ....मेरे विचार में वह बंदा अकलमंद है ....फोन का जो काम है ...फोन करना और सुनना ...वह काम ही वह उस से लेता है ...और किसी तरह की कोई सिरदर्दी नहीं पालता। 

मेरे पास सरकारी फोन है, इसे हर समय रखना मेरी मजबूरी है ....मैं पहले भी शेयर कर चुका हूं कि जब इस फोन को रखना मेरी मजबूरी न होगा तो मैं भी एक दो चार रूपये का बेसिक फोन खरीद लूंगा..

हां, तो मैं बात कर रहा था कि आधुनिकता (?) की दौड़ में वे रिश्तेदार कुछ पीछे छूटते दिखते हैं जिन के पास स्मार्ट-फोन नहीं है ...जिन के पास है भी उन के साथ भी हम सब लोग कितना जुड़ पाते हैं यह भी एक आत्मचिंतन का विषय तो है ही ....लेकिन अभी तो उन अपनों की बाते ंकरें जिन के पास यह सुविधा नही ंहैं....

मुझे अकसर ध्यान आता है कि हम लोग पोस्टकार्ड के दौर के प्राडक्ट हैं...हम कैसे अचानक इतने बदल जाते हैं....प्रधानमंत्री के एक टीचर उन्हें ९० साल की उम्र में हाथ से चिट्ठी लिख कर भेजते हैं...और पीएम उसे पाकर खुश हो जाते हैं...

हम लोगों ने चिट्ठियां लिखनी लगभग बंद ही कर दीं ....विभिन्न कारणों की वजह से ... क्यों न हम वापिस खतो-किताबत भी कर लिया करें....अगर अपनों के पास सोशल मीडिया नहीं भी है तो क्या फर्क पड़ता है, बेसिक फोन पर एसएमएस की सुविधा तो हरेक फोन पर है....हम क्यों उन अपनों के साथ एसएमएस के ज़रिये से ही क्यों जुड़े नहीं रह सकते! उन सब को भी कभी कभी अच्छी सकारात्मक बातें भिजवा दिया कीजिए...वाट्सएप पर ज्ञान की वर्षा तो निरंतर होती ही रहती है ...बस वहां से कापी करिए और एसएमएस कर दीजिए..

आज मैं यह प्रश्न आप सब के लिए छोड़ कर अपनी बात को यहीं विराम दे रहा हूं ...सोचिएगा....मैंने तो सोच लिया है...फैसला कर लिया है ...