शनिवार, 21 मई 2016

हमें हमारे स्वाद ही बिगाड़ते हैं...

मेरी नानी अकसर कहती थीं कि स्वाद का क्या है, जुबान तक ही तो है, उस के आगे तो सब बराबर है ...हम लोग खूब ठहाके लगाते थे उन की इस बात पर...लेकिन सच्चाई यह थी कि वह लाजवाब खाना बनाती थीं...best cook i have even known!

आज हमारे स्कूल-कॉलेज के साथियों का एक वॉटसएप ग्रुप बना है ...अच्छा लगा...बहुत से लोगों से बात भी हुई...बहुत अच्छा लगा...एक साथी ने पूछा कि कहां हो आजकल, उसे बताया उन विभिन्न जगहों के बारे में जहां जहां रह चुका हूं...हंसने लगा कि सारा हिंदोस्तान ही घूम लिया...

घूम तो लिया ...ठीक है, मैं उसे यह कहना चाहता था कि हिंदोस्तान चाहे घूम लिया ...लेिकन खाने के मामले में अभी भी दिमाग अमृतसर के कूचों-बाज़ारों में ही अटका हुआ है...

My most fav. food on this planet.. केसर दा ढाबा
१९८८ में अमृतसर छोड़ने के बाद समोसे कभी अच्छे नहीं लगे...अकसर लोहगढ के हलवाई के समोसे बहुत याद आते हैं...बेसन के लड्डू कहीं और जगह के पसंद नहीं आए...कुलचे-छोले तो बस अमृतसर के साथ ही छूट गये..वहां पर अलग तरह के कुलचे मिलते हैं...खमीर वाले ..वे और कहीं नहीं दिखते...इसी तरह से भटूरे-छोले, फलूदा कुल्फी भी हाल बाज़ार की याद आती है...ढेरों यादों के साथ...सारी की सारी मीठी यादें...और तो और इतनी जगहों खाना खाया, घाट घाट का पानी पिया लेकिन केसर के ढाबे का खाना भूल नहीं पाया....अगर मैं आलसी प्रवृत्ति का न होता तो केसर के ढाबे पर खाना खाने के लिए अमृतसर चला जाया करता... 😄😄😄😄

स्वाद की बात से आज मुझे ध्यान आया कि हम लोग स्वाद के गुलाम हो चले हैं शायद ...पहले तो हम लोग सब्जी के बारे में चूज़ी थे...यह खाएंगे, वह नहीं खाएंगे..लेकिन अब हम इस स्वाद के इतने गुलाम हो चुके हैं कि हमारी पसंद की सब्जी भी अगर हमारे स्वाद के अनुसार नहीं बनी है तो हम उसे खा ही नहीं पाते...

आज सुबह भी एक भंडारे में पूड़ी-हलवा और यह कटहल की सब्जी मिली तो इस का स्वाद कुछ अलग तरह का होने के कारण मैं खा ही नहीं पाया... कितना अजीब सा लगता है ना, लेकिन है सो है!
कटहल की सब्जी 
स्वाद का एक सुखद पहलू भी है कि जो स्वाद हम लोगों के बचपन में डिवेल्प हो जाते हैं...वे फिर ताउम्र साथ चलते हैं...मुझे आज के दौर के बच्चों का बिना कुछ खाए ..बस एक गिलास, साथ में दो बिस्कुट खा कर जाना बड़ा अजीब लगता है...वहां पर रिसेस के समय तक पढ़ाई में क्या मन लगता होगा...और फिर अकसर आजकल ज्यादा कुछ टिफिन विफिन वाला ट्रेंड भी कम होता जा रहा है...इसलिए वहीं पर जो जंक-फूड और अनहेल्दी स्नेक्स मिलते हैं, वही खाते रहते हैं बच्चे ....परिणाम हम सब के सामने हैं...

मुझे अपने स्कूल के दिनों का ध्यान आता है ...पहली कक्षा से चौथी श्रेणी तक का भी ...तो जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है वह यही है कि हम लोग घर से बिना एक दो परांठा और दही के साथ खाए बिना निकलते ही नहीं थे, और साथ में एक दो परांठे भी लेकर जाना और वहां रिसेस में पांच दस पैसे में हमें इस तरह के snacks मिलते थे ...एक पत्ते में हमें यह सब कुछ दिया जाता ..पांच दस पैसे में ..नींबू निचोड़ कर ...यह सिलसिला शुरूआती चार पांच सालों तक चलता रहा ..फिर स्कूल बदल गया....लेिकन चार पांच साल किसी अच्छी आदत को अपनी जड़ें मजबूत करने के लिए बहुत होते हैं...

इसलिए अब भी अकसर वही कुछ हम लोग खाते हैं...और स्कूल के दिनों की यादें ताज़ा हो जाती हैं... उबले हुए चने, उबला हुई सफेद रोंगी, लोबिया...सब अच्छा लगता है ...अकसर हम लोगों ने बचपन में सोयाबीन की दाल नहीं खाई...कभी हमारे यहां दिखती ही नहीं थी, स्वाद का ही चक्कर होगा....लेकिन बड़े होने पर जब यह बनने लगी तो हम थोड़ा खाने लगे....कुछ दिन पहले सोयाबीन भी उबली हुई खाने को मिली तो स्वाद अच्छा लगा....

पहली बार उबली हुई सोयाबीन खाई ...स्वाद बढ़िया था..
मैं भी यह क्या खाया-पीया का बही-खाता लेकर बैठ गया.....लेकिन एक बात तो है कि स्वाद की गुलामी छोड़नी पड़ेगी... Earlier it is done, better it is!

वैसे भी धर्म भा जी तो बरसों से दाल रोटी खाने का बढ़िया मशविरा दिये जा रहे हैं....इन की ही मान लें...

पेड़ का ही गला घोंट दिया!

पोस्ट लिखने से पहले ...ध्यान आ रहा है एक गीत का...मधुबन खुशबू देता है ...सागर सावन देता है...जीना उस का जीना है जो औरों को जीवन देता है....wonderful song...evergreen!

कल शाम हम लोग यहां लखनऊ में किसी दुकान में ए.सी देख रहे थे...बाहर आने पर अचानक इस पेड़ की तरफ़ ध्यान गया तो मेरी तस्वीर खींचने की इच्छा हुई...पुराने बुज़ुर्ग पेड़ों की हज़ारों तस्वीरें खींच चुका हूं ...क्योंकि हर पेड़ अपनी अलग दास्तां ब्यां करता दिखता था...वह बहुत सी घटनाओं का मूक गवाह रहा, उसने दशकों से जो कुछ अच्छा-बुरा देखा उसे वह हम से साझा करना चाहता है....हर पेड़ की अपनी दास्तां है..


मैंने इस पेड़ को देखा तो मुझे लगा कि यह तो भई कम से कम सौ साल पुराना ज़रूर होगा...इस के नीचे नारियल पानी बेच रहे बंधु से पूछा तो उसने भी हामी भर दी...

लेकिन यह क्या?....यह किस की कारगुज़ारी है?....पेड़ के आसपास इस तरह का सीमेंट का प्लेटफार्म बना कर उस का तो जैसे गला ही घोंट दिया हो, एक बात...और दूसरी बात कि कितनी धूर्तता से इस बात का ध्यान रखा गया कि कोई भी इस की छाया की ठंड़क न लेने पाए...

मेरे विचार में इस से घटिया सोच हो नहीं सकती कि इतने भीमकाय छायादार पेड़ की ठंडक से महरूम रखने के लिए इतना यत्न किया गया....इतने पुरातन और सुंदर पेड़ को इंसान (?) ने कितना बदसूरत बना कर छोड़ दिया, लेकिन वह फिर भी निःस्वार्थ सेवा जारी रखे हुए है!🍀🍀🌹🌹🍁🌻


हम लोग सब के सब दोगले हैं...(मैं भी उन में शािमल हूं बेशक)..मैंने इस की चार पांच तस्वीरें खींची हैं उन्हें यहां लगा रहा हूं....ये तस्वीरें अहम् इसलिए हैं क्योंकि अन्य शहरों का तो मुझे इतना पता नहीं, हम लोगों की जानकारी बड़ी सतही स्तर की होती है ..लेिकन लखनऊ को जितना मैं देख पाया हूं, जान पाया हूं .....यहां पर लोग अकसर इस तरह की छोटी हरकतें करते नहीं हैं ....

नोटिस करिए इन तस्वीरों में कि यह तो सुनिश्चित किया गया है कि कोई भी राहगीर वहां बैठ तो बिल्कुल नहीं पाए लेकिन एक मंदिर ज़रूर वहां बना दिया गया है ...सोचने वाली बात है कि क्या इस प्रयास से ईश्वर खुश हो जाएंगे?..

घोर अज्ञानता, भम्रजाल का अंधेरा छाया हुआ है संसार में....

मैंने उस नारियल वाले से पूछा कि तुम्हें क्या लगता है ऐसे ठीक है पेड़ जिस के नीचे कोई बैठ ही नहीं पाए या फिर उस के नीचे एक बैठने की जगह होती जहां बीस-पच्चीस लोग लू के थपेड़ों से थोड़ा बच लिया करते!....उसने तुरंत कहा कि बैठने की जगह होती तो बहुत बढ़िया होता....और अगर मंदिर की बजाए पानी के दो चार मटके रख दिए जाते तो ईश्वर और भी खुश हो जाते!
 घने पेड़ों से महरूम रास्ते कितने बेरौनकी लगते हैं...अकसर साईक्लिगं करते मैं महसूस करता हूं.
काश हम लोग पेड़ों का ध्यान रख पाएं....हमें अपनी सांसों की तो परवाह नहीं, कम से कम इस तरह के जीवन दाताओं की सांसों की तो फिक्र कर लिया करें ज़रा... 

संस्मरण -- कैप्सूल भरने का लघु-उद्योग

उस साथी के पिता एक नीम हकीम थे...कभी वह हमें अपने साथ बाज़ार चलने को कहता तो हम देखते कि वह किसी दुकानदार को बीस-तीस रूपये देता और वह उसे एक पन्नी में पहले से भरे हुए १००० खाली कैप्सूल थमा देता...हम भी उन दिनों बेवजह बातों का load नहीं लिया करते थे।

फिर जब हम दोस्त लोग उस के घर कभी जाते तो उन के परिवार के दो तीन लोग कैप्सूल भरते दिखते...बिल्कुल बीड़ी उद्योग की तरह .....क्या भरते?..कुछ खास नहीं, मीठा सोड़ा (बेकिंग पावडर) और पिसी हुई चीनी...अभी भी वह दृश्य आंखों के सामने दिख रहा है...जमीन पर बैठे उस के पिता जी और वह ...एक अखबार के टुकड़े पर खाली कैप्सूल रखे हुए और दूसरे पर शक्कर और मीठे सोडे की ढेरी...दे दना दन ..लोगों को सेहतमंद करने का जुगाड़ किया जा रहा होता।

और साथ साथ उस के पिता जी मुस्कुराते रहते... उन के सभी मरीज़ पास के गांवों से आते और दस बीस दिन की दवाईयां लेकर चले जाते ..

फ्लैशबेक से वर्तमान का रूख करें?...

कल एक मेडीकल रिप्रेजेंटेटिव आया ..किसी दवाई के बारे में बता रहा था तो उस ने उस का कवर खोला...कैप्सूल निकाला....और कैप्सूल में से तीन छोटी छोटी गोलियां निकलीं...तस्वीर यहां लगा रहा हूं...उस ने फिर से बताना शुरू किया कि एक गोली तो तुरंत असर कर देगी...दूसरी गोली लंबे समय तक बारह घंटे तक असर करती रहेगी..(sustained release) और तीसरी गोली जो आंतों में पहुंच कर अपना असर कर पाएगी...(enteric coated)..
एम आर ने कैप्सूल खोला तो ये तीन गोलियां बीच में से निकलीं..
इस ब्लॉग पर मैंने पिछले कुछ वर्षों में इस विषय पर कुछ लेख लिखे हैं कि हमारी दवाईयां हमें टेबलेट के रूप में, कैप्सूल या इंजेक्शन के रूप में, जुबान के नीचे रखने वाली टेबलेट के रूप में, किसी इंहेलर के द्वारा दी जाने वाली भी हो सकती है ...यह सब वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर होता है कि कुछ दवाईयां हमारे पेट में जाकर अपना असर शुरू करने वाली होनी चाहिएं...और कुछ आंतों में ..सब कुछ साईंस है... ph का मसला है सब ... किस जगह पर कितना अमल है, कितना क्षार है, दवाई का क्या मिजाज है ...यह सब गहन मैडीकल रिसर्च के विषय हुआ करते हैं।

साथी के नीम हकीम पिता जी की बात कर ली, कल भूले भटके आए एक एम आर की बात कर ली...यह तो बस किस्सागोई जैसा लग सकता है ...दोनों बातें बिल्कुल सच हैं...लेकिन इन के माध्यम से दो बातें मैं अपने मरीज़ों से कहता रहता हूं..

पहली बात तो यह कि कभी भी खुले में मिलने वाली कोई भी दवाई न लिया करें....इस के बहुत से नुकसान हैं...आप को पता ही नहीं आप खा क्या रहे हैं, और किसी रिएक्शन की सिचुएशन में पता ही नहीं चलेगा कि कौन सी दवाई खाने से ऐसा हो गया...अकसर खुले में बिकने वाली दवाईयां सस्ती और घटिया किस्म की होती हैं, बड़ी बड़ी कंपनियों की दवाईयां जांच करने पर मानकों पर खरी नहीं उतर पातीं और खुले में बिकने वाली दवाई पर तो बिल्कुल भी भरोसा किया ही नहीं जा सकता....वैसे भी नीम हकीम खतराए जान....मैं अपने मरीज़ों को इस तरह की  खुली दवाईयों के बारे में इतना सचेत कर देता हूं कि वे उसे मेरे डस्टबिन में ही फैंक जाते हैं...वैसे भी खुले बिकने वाले कैप्सूल में क्या क्या भरा जा रहा होगा, कौन जाने, फुर्सत ही किसे है!

दूसरी बात यह है कि कईं बार कुछ लोग ऐसे भी दिखे कि किसी टेबलेट को पीस का मुंह में रख लेते हैं...दांत का दर्द तो इस से ठीक नहीं होता, मुंह में एक बड़ा सा ज़ख्म ज़रूर बन जाता है ..इस से भी बचना ज़रूरी है....

और कुछ ऐसे भी लोग दिखे जिन्होंने बताया कि कैप्सूल को खोल कर वे दवाई पानी के साथ ले लेते हैं...ऐसा भी गलत है...दवाई को कैप्सूल में डाल कर आप तक पहुंचाना कोई फैशन स्टाईल नहीं है ....यह उस दवाई को कार्य-क्षमता को बनाए रखने के लिए किया जाता है ...

जाते जाते ध्यान आ रहा है कुछ िदन पहले टाइम्स आफ इंडिया के पहले पन्ने पर कुछ इस तरह की कंट्रोवर्सी दिखी कि कैप्सूल का कवर जो वस्तु से बनता है ...वह जिलेटिन (gelatin) है...यह नॉन-वैज है...अब इस को भी वैज बनाने पर कुछ चल रहा है....मुझे उस समय भी यह एक शगूफा दी लगा था, और अभी भी यही लग रहा है ...उस दिन के बाद कभी यह कहीं भी मीडिया में नहीं दिखा....

आज वाट्सएप के कारण मेरी १९७३ के दिनों के अपने स्कूल से साथियों से बात हुई है ..मैं बहुत खुश हूं...इसलिए स्कूल के एक दौर की याद साझी करनी पड़ेगी...१९७५ के दिनों में शोले फिल्म आई...साईंस के मास्टर साहब..श्री ओ पी कैले जी ..working of call bell ...समझा रहे थे...फिर रटने के लिए कह रहे थे...और क्लास के पास ही किसी घर में लगे किसी लाउड-स्पीकर से शोले फिल्म का यह गीत बज रहा था...मेरा ध्यान उधर ज़्यादा था....मास्टर लोग सब कुछ ताड़ तो लेते ही हैं..मुझे बाहर बुलाकर एक करारा सा कंटाप जड़ दिया....उन का हाथ भी धर्मेन्द्र के हाथ जैसा ही भारी था...लेिकन फिर भी मुझे सारी आठवीं में call bell की प्रणाली समझ नहीं आई...शायद मैंने समझने की कोशिश भी नहीं की, मन ही नहीं लगता था इन बोरिंग सी बातों में....आगे 9th क्लास से ढंग से साईंस को पढ़ना शुरू किया तो इस मोटी बुद्धि को कुछ कुछ पल्ले पड़ने लगा... बहरहाल, वह गीत तो सुिनए जिस ने मेरे गाल को बिना वजह लाल करवा दिया....



फकीरा चल चला चल...हिम्मत न हार !

पिछले कुछ दिनों से लखनऊ में बहुत ज़्यादा गर्मी, चिलकन थी...रात में बरसात हुई इस का पता चला सुबह जब वॉश-बेसन खोला तो ठंडा पानी आया...वरना तो उबलता पानी आता था...यही लगा कि रात में बारिश हुई होगी...बाहर देखा तो पक्का हो गया...बहुत दिनों बाद मौसम खुखगवार हो गया है ...

टी वी लगाया तो मूवीज़ ओ के फकीरा पिक्चर शुरू हुई थी..अभी भी चल रही है ...यह पिक्चर आज से ठीक ४० साल पहले १९७६ में मैंने अमृतसर के एक थियेटर में देखी थी...अपने दीदी और जीजा के साथ...समय भी कैसे उड़ जाता है ..पता ही नहीं चलता...४० साल का समय कितना लंबा होता है ...कल की बात लगती  है ...मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता है उन दिनों...
अभी यह गाना चल रहा है ..

हिंदी फिल्मों को देखने का सब से बड़ा फायदा यही होता है कि दिमाग पर ज़ोर देने की ज़रा भी ज़रूरत ही नहीं पड़ती...सब कुछ चुपचाप मानते हुए फिल्म देखेंगे तो कोई भी हिंदी फिल्म अच्छी ही लगेगी..

जैसे कि मैंने भी मान लिया कि समुद्र में गिरने के बाद कोई आदमी योग के बल पर ३० मिनट तक अपनी सांसें रोक कर ज़िंदा रह सकता है ...यही किया था शशि कपूर ने ..डैनी ने शशि कपूर के साथ एक सीमेंट का बोरा बांध कर समुद्र में फैंक दिया..घर जाकर पता चला कि वह तो उस का बचपन का बिछड़ा हुआ भाई था...वापिस भागा उसे समुद्र से निकालने...दोस्त ने बताया कि वह ३० मिनट तक सांसें रोक सकता है, योग करता है ...ठीक ३०वें मिनट पर उसे समुद्र से बाहर निकाल लिया जाता है ...पानी की एक भी बूंद उस के नाक और मुंह से नहीं निकलती....गजब हो गया!😊😊😊😊

चालीस साल पहले फिल्म देखी तो इस तरफ़ ध्यान ही नहीं दिया...लेिकन अब बाबा राम देव को सुन सुन कर योग कुछ कुछ समझ में आ रहा है ..उस ज़माने में रामदेव होते तो इस ३० मिनट तक सांसे रोके रखने के खेल पर ज़रूर कुछ कहते ...

बहरहाल, मुझे इस फिल्म का यह गीत अभी भी सुनना अच्छा लगता है ...

अभी यह कव्वाली शुरू हुई है....इसे मैने वर्षों से नहीं सुना...याद नहीं आ रहा था ...अच्छा, हम तो झुक कर सलाम करते हैं ...आप भी सुनिए...another master piece! अभी मदन पुरी की टाई देख कर यही ध्यान आया कि ये कमबख्त विलेन भी इतने घिनौने काम भी कितने कायदे से करते थे...एक तो मुझे विलेन की टाई और दूसरा किसी शादी ब्याह में दूल्हे के रिश्तेदारों द्वारा पहनी टाईयां (कुछ ने तो पहली बार उसी दिन पहनी होती है) बहुत अजीब लगती हैं...विशेषकर जब वे दारू से टुन्न हो कर स्टेज़ पर नर्तकियों के साथ बेहूदा ठुमके लगा लगा के वहीं लुढ़के पड़े होते हैं...

शनिवार, 14 मई 2016

यह संविधान कथा का क्या माजरा है?


मैंने भी श्री राम कथा, गरूड़ पुराण कथा, भागवत कथा के बारे में तो सुन रखा है ...लेकिन यह संविधान कथा की बात आज पहली बार सुनने को मिली..

कोई भी काम की शुरूआत राम जी के नाम से करनी चाहिए...परसों शाम हम लोग ऐसे ही टहलने निकले तो दूर कहीं से किसी कथा की आवाज़ आ रही थी..हम उस आवाज़ को ढूंढने हुए एक पंडाल में पहुंच गये जहां पर श्रीराम कथा चल रही थी...वहां पर बैठे आधा घंटा के करीब...कोई ज़रूरी फोन आया, वहां से निकलना था..उस कथा के पंडाल से बाहर निकलते हुए गेट पर एक कार वाले ने अपनी कार रोकी और पूछने लगा कि राम जी का जन्म हो गया?...मैं उस का प्रश्न समझा नहीं....उसने फिर से दोहराया राम जी का जन्म करवा दिया गया है क्या?....मुझे समझ में आ गया कि श्री राम कथा के कईं अंग होते होंगे ...यह उन में से ही किसी के बारे में पूछ रहा होगा..

लेकिन प्रश्न समझ आए को क्या करता, अगर उस का जवाब ही नहीं पता था...मैं अंदर आधा घंटा बैठ कर आया था और मुझे इतने अहम् प्रश्न के बारे में जानकारी न थी, इस का मतलब साफ़ है कि मेरा ध्यान कितना कथा में था, और कितना और कहीं! बहरहाल, उस बंदे की आतुरता भांपते हुए मैंने पास खड़ी अपनी मां से पूछा कि राम जी का जन्म हो गया है क्या?...वह भी इस पर्चे में फेल हो गईं। 

खैर, मैंने उस बंदे से माफ़ी मांग ली कि आप स्वयं अंदर जा कर देख लीजिए....लेिकन सच बताऊं मुझे उस समय बहुत लज्जा आई ...यही सोच कर कि अगर मेरा ध्यान इतना भी कथा की तरफ़ नहीं था तो मैं अंदर बैठा कर क्या रहा था! ...it was a moment for introspection!



हां, एक बात तो शेयर करनी भूल ही गया...श्री राम कथा के दौरान मैंने देखा कि जब कथा चल रही थी तो और आचार्य जी कोई श्लोक सुनाने लगते तो मेरे आगे बैठे सज्जन पता नहीं किस डिवाईस पर साथ साथ श्लोक वहां से पढ़ रहे थे ..मुझे लगा कि वे आई-पैड है..क्योंकि श्रीमति जी अकसर आई-पैड पर ही अपना काम करती हैं, फिर ध्यान आया कि शायद किंडल होगा या कोई टेबलेट....पता नहीं... 

श्री राम कथा की सच्चाई ब्यां करने के बाद आप को संविधान कथा के बारे में कुछ बताना चाहता हूं...मैंने आज पेपर में देखा कि एक रिटायर्ड इंकम टैक्स कमिश्नर पांडेय जी गांव गांव जा कर संविधान कथा बाचते हैं तो मुझे इतनी खुशी हुई कि मैं पेपर को वहीं कुर्सी पर रख कर यह पोस्ट लिखने बैठ गया...आप स्वयं पढ़ लीजिए...अगर क्लियर पढ़ना हो तो इस तस्वीर पर क्लिक कर के पढ़िएगा...


अकसर बस-अड्डों आदि पर इंग्लिश सीखने के कायदे, जर्नल नालेज की छोटी छोटी किताबें, पैनों के पैकेट में खरीदता रहा हूं ...उन बेचने वालों की बातों में दम ही इतना होता है कि आदमी कहता है कि यार, दस बीस रूपये खर्च कर इन किताबों पैनों को तो खरीद ही लेते हैं, कभी काम ही आएंगे...फिर मैं अकसर इन किताबों को आगे बांट दिया करता था...एक किताब अभी ढूंढी तो मिल गई...यह पक्का होता है कि मैं इन किताबों को कभी पढ़ता नहीं हूं...टाइम ही किस के पास है!...जैसे और किताबें बुक-शेल्फों पर इंतज़ार करती रहती हैं, यह भी उन के साथ पड़ी रहती हैं...

बुक-शेल्फ से इसे निकाल रहा था तो मुझे अचानक ध्यान आ गया ...कि तीन साल पहले जब हम लोग यहां लखनऊ में आये तो एक दिन बड़े डाकखाने के बाहर एक रिक्शे से लाउड-स्पीकर से कुछ आवाज़ें आ रही थीं, एक बंदा ये किताबें बेच रहा था जिस में तरह तरह के कानूनों के बारे में जानकारी थी, मान िलया किताब में जानकारी तो थी ही, लेिकन भीड़ जुटने का कारण उस का अंदाज़े-ब्यां था....इस किताब के कसीदे वह इस अंदाज़ में पढ़ रहा था कि राहगीर को यही लगता था कि यह किताब जैसे तुरंत उस का राशन-कार्ड बनवा देगी, आरटीआई से वह किस तरह से दुनिया बदल देगा...२५ रूपये की किताब...और खरीददार को जिस अंदाज़ में वह तरह तरह के हेल्पलाइन नंबर तुरंत उसी समय लिख कर दे रहा था जैसे कि हर कापी पर कोई नामचीन लेखक अपने आटोग्राफ दे रहा हो... जी हां, मैंने भी खरीदी थी एक कापी...लोगों की उत्सुकता देखते बन रही थी और इसे भुनाने वह विक्रेता अच्छे से जानता था...वैसे इस किताब में आम आदमी के हिसाब से बहुत सी जानकारी है ..और पैसे भी बिल्कुल कम ....हम जैसों के पास तो और भी विकल्प हैं, नेट, न्यूज़-पेपर हैं, लेिकन बहुत से लोगों के लिए इस तरह की किताब बहुत सी स्कीमों के किवाड़ खोल देने का काम करती हैं, निःसंदेह...



निःसंदेह से ध्यान आया...निःस्वार्थ...जैसा कि वह बंदा संविधान कथा वाचक कर रहा है...मुझे लगता है कि मैं भी रिटायर होने के बाद कुछ न कुछ ऐसा ही करूंगा...तंबाकू-गुटखा छुड़ाने से संबंधित....मैं अकसर लोगों को कहता हूं हम लोग ३०-४०-५० साल अपने अपने प्रोफैशन में घिस जाते हैं...इतना ज्ञान होता है लेकिन वह आम आदमी तक बहुत कम पहुंच पाता है ...अभी मैं अपने स्कूल से एक मित्र से बात कर रहा था ...डा साहब पैथोलॉजी मेें एम.डी हैं और मैडीकल कालेज में पढ़ाते हैं....ब्लड-बैंक के बारे में कुछ बातें कर रहे थे तो मुझे उन दस-पंद्रह मिनट के दौरान यही लग रहा था कि इस तरह की जनोपयोगी बातें आम जनता तक उन की ही भाषा में भी पहुंचनी चाहिए....ठीक है, सरकारें अभियान चलाती हैं, रेडियो-टीवी पर भी बातें होती हैं ..इन सब के साथ मुझे ऐसा लगता है कि हर बंदा किसी न किसी काम का विशेषज्ञ है, उस के पास ऐसा ज्ञान है जिसे समाज को ज़रूरत है ...इसलिए इन में सो जो भी सक्षम हों, उन्हें अपने अनुभव, अपनी सीख बिल्कुल खुलेपन से लिख कर लोगों तक पहुंचानी चाहिए....

यकीन मानिए, बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जिन्हें हम तुच्छ समझते हैं ..और सोचते हैं कि इस में शेयर करने जैसा है क्या, लेकिन बहुत से लोगों के लिए वह बड़े काम की बात होती है और उन्हें पहले से इस का इल्म भी नहीं होता...

कहना क्या है, सुबह सुबह क्या लेकर बैठ गया मैं भी ...मैसेज केवल इतना है कि संविधान कथा बढ़िया है, श्री राम कथा भी मुबारक है ..साथ ही साथ दुनिया में बैठे धुरंधर विशेषज्ञ कुछ इस तरह की भी कथाएं कहें ....मानव शरीर की कथा, म्यूनिसिपैलिटि की कथा, बैंकों की कथा, शेयर बाज़ार कथा......भवन निर्माण कथा....लिस्ट को आप जितना लंबा करना चाहें, लेकिन शुरूआत तो करिए...अपनी कहानी कहिए तो ....सुनाईए...लोग आतुर हैं...उन्हें आप के अनुभव से बहुत कुछ सीखना है ...जब आप अपने अनुभव को कथाओं के रूप में कहेंगे तो संपेष्णीयता को चार चांद लग जाएंगे...यकीनन...मैं तो ऐसा कुछ करने वाला हूं ...कुछ तो कर ही रहा हूं...भविष्य के लिए भी कुछ योजनाएं हैं...आमीन!!

बातें कुछ मुश्किल नहीं है, हम ने स्वयं कर रखी हैं, शायद अपने स्वार्थ की वजह से...कोई राकेट साईंस नहीं है, बस ज्योत से ज्योत जगाने वाली बात है ...सिंपल....

शुक्रवार, 13 मई 2016

आइए, मकानों को सुंदर बनाएं!

मकानों को घर बनाने वाला टापिक तो बिल्कुल अलग ही है..प्रवचन टाइप में है...उस के बारे में तो आप सब बहुत कुछ पहले ही से जानते हैं...आज मैं सुबह साईकिल पर घूमने निकला तो अचानक मुझे ध्यान अपने बचपन के दिनों का ..हम लोग स्कूल से आते वक्त एक फौजी अफसर की कोठी के बाहर एक तख्ती देखा करते थे..लिखा रहता था..कुत्ते से सावधान...इंगलिश में भी लिखा रहता था..Beware of dog!

इस घर के आस पास न तो कोई पेड़-पौधे ही थे...बिल्कुल गमगीन सा मकान दिखा करता था..हमें भी इस मकान के आगे से निकलते समय एक अजीब सी उलझन हुआ करती थी...ऐसे लगता था कि झट से इसे पार करें और आगे सरकें...गेट बंद रहता था और उस के आगे कंटीली तार वाली दीवार भी थी..फिर भी लगता था कि आज तो कोई कुत्ता पकड़ ही लेगा...

मैं बहुत बार इस के बारे में सोचता हूं कि मकान कैसे सुंदर बन सकते हैं..क्या हज़ारों रूपयों की महंगी पेन्टिंग्स आर्ट गैलरी से लाकर टांग देने से, वास्तु शास्त्र के अनुसार घर के अंदर वाले हिस्से की लैंड-स्केपिंग करवाने से...या महंगे महंगे पत्थर-संगमरमर मकान पर चिपकाने से ....मुझे नहीं लगता कि किसी भी मकान की सुंदरता किसी भी तरह से मोरंग, रेता, ईंटों की मोहताज है ...हो ही नहीं सकती ...

कईं बार आपने देखा होगा कि आप कहीं से गुज़र रहे हेैं तो अचानक कोई मकान आप को बहुत अच्छा लगता था...चाहे वह कच्चा ही होता है..कईं बार...लेकिन हम तो यहां बस अच्छा लगने की बात कर रहे हैं...उस मकान में अगली बार नोटिस करियेगा कि निम्नलिखित विशेषताओं में से कोई न कोई तो ज़रूर मिल जाएंगी..

उस घर के आस पास और अंदर आंगन में खूब बड़े बड़े पुराने पेड़ होंगे....हां, एक बात कह दूं बिना पड़ताल के ही ...अकसर ऐसे मकान घर भी अच्छे हुआ करते हैं। 

इन घरों के कुछ पेड़ों पर पंक्षियों के घोंसलों से उन के चहचहाने की आवाज़ें भी आ रही होती हैं अकसर..

अपने लिए पानी की सप्लाई कितनी है कितनी नहीं, इस के बावजूद घर के बाहर जानवरों के लिए पानी के लिए एक हौज़ सा होगा, वरना बड़ा सा पत्थर का कोई जुगाड़ जिस में पानी इक्ट्ठा किया जा सके..



पंक्षियों के लिए पानी पीने के लिए कुछ बर्तन घर की दीवार पर पड़े मिलेंगे...

मैं बहुत बार नोटिस करता हूं कि किसी रास्ते पर जाते हुए जब किसी मकान के बाहर आप कोई घना पेड़ देखते हैं तो अचानक आप को लगता है कि यार, यह घर कितना सुंदर है...आने जाने वाले राही को ठंडक तो देते ही हैं ...बेशक...

अकसर ऐसे घरों के बाहर दो तीन पानी के मटके लाल कपड़े में िलपटे भी मिल जाएंगे...राही को बुला रहे हों जैसे कि पथिक, आओ, इस शिखर दोपहरी में पेड़ की छाया में थोड़ा सुस्ता लो, पानी पिओ...फिर आगे बढ़ो। 

मेरी यह परिभाषा है सुंदर मकान की....जैसा कि मैंने कहा और पूरे विश्वास से साथ कह रहा हूं कि अकसर इस तरह के सुंदर मकान बेहद सुंदर घर भी होते हैं....मतलब आप समझ रहे हैं...सब अच्छे संस्कारों और कोमल भावनाओं का खेल है, और कुछ नहीं!

जाते जाते एक बात ध्यान में आ गई...कुछ िदन पहले मैं सुबह साईकिल पर टहलने निकला...एक आलीशान मकान के गेट के पास एक रईस दिखने वाली महिला कुर्सी पर बैठ कर अपनी बेड-टी का आनंद ले रही थी ..साथ में शायद अखबार पढ़ा जा रहा था ...और पास ही गेट के पास एक बड़े सुंदर पिंजड़े में एक तोताराम जी चुपचाप सहमे हुए बैठे थे...मुझे उस दिन यही लगा कि जिस तरह से तुम अपनी आज़ादी का मजा ले रही हो, ऐसे में क्यों इस बेचारे को पिंजड़े में कैद कर रखा है ...अचानक वह मकान कुरूप दिखने लगा...

यहां भी मिट्ठू मियां को पिंजड़ें में बंद करने की बातें चल रही हैं...बहुत बरसों बाद इस का ध्यान आया..सोचा फिर से देख ही लिया जाए..फिल्म चरणों की सौगंध...

लेकिन जिन सुंदर मकानों की बात मैं कर रहा हूं उन में अकसर पिंजड़े नहीं हुआ करते, तरह तरह के पंक्षी, तोते-मैना सभी खुशी खुशी आते हैं ....मकान वालों को अपना हाल चाल ब्यां करते हैं, दाना खाते हैं, पानी पीते हैं और फुर्र....ये गये वो गये....अगले दिन फिर से सुबह वापिस लौट कर आने के लिए....यही प्रेम का असली रिश्ता है...

इस मकान को किराये पर लेने की बड़ी तमन्ना थी...लेकिन हो नहीं पाया!
आज सुबह टहलते मुझे यह मकान भी दिख गया जिसे हम लोग किराये पर लेना चाहते थे ..लेकिन यह संभव नहीं हो पाया...इस मकान को आप देखिए पेड़ों ने हर तरफ़ से घेर रखा है ...मुझे एक रिटायर्ड चिकित्सा महानिदेशक की बात याद आ गई ..किसी से सुनी थी एक बार...वह कहा करते थे कि अस्पतालों के आसपास और उन के आंगन में पेड़ों के इस तरह के झुरमुट होने चाहिए ...हरियाली इतनी होनी चाहिए कि दूर से अस्पताल दिखे ही नहीं....कितनी सुंदर बात ...कितनी संवेदना....अगर इस तरह का वातावरण रहेगा तो मरीज़ को स्वास्थ्य लाभ भी कितनी जल्दी मिलेगा! 

कुछ लोगों के लिए पेड़ जैसे आफ़त हों...हम लोग एक घर में रहते थे ...हम ने उस में बहुत से पेड़ लगवाए...आठ दस साल में बड़े हो गये....उन से हम सब को इतनी मोहब्बत कि श्रीमति को उन की छंटाई भी बच्चों के स्कूल के समय ही करवानी पड़ती ...बच्चे फिर भी स्कूल से आने पर नाराज़ हो जाते...लेिकन जब हमारा तबादला हुआ तो जिस बंदे को वह मकान अलाट हुआ, सुना है उसने पहला काम यही किया कि सभी पेड़ जड़ से उखड़वा फिंकवा किए....हमें उस दिन बहुत दुःख हुआ.. क्या करें यार, लोग समझने को तैयार ही नहीं है, फिर कहते हैं कि अब कूलर से कुछ नहीं होता, ए.सी भी काम करते नहीं दिखते.......साहब, अगर यही हालात रहे तो आगे आगे देखिए होता है क्या!

हमारे मकान (घर?) का एक कोना मेरा भी है ...हा हा हा हा ...हम मकानों की सुंदरता पर चर्चा कर रहे हैं और इस रेडवे पर इस party song में अपनी मस्ती में मस्त किसी लड़की ब्यूटीफुल के चुल कर जाने की बात सुनाई दे रही है...इन की भी सुन लीजिए...

आज सुबह के लिए इतनी बकबक ही काफ़ी है, चुपचाप आप भी नाश्ता करिए और अपने काम धंधे की फ़िक्र करिए...मिलते हैं जल्दी ही फिर से...




मंगलवार, 10 मई 2016

पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है!

मैं अकसर लोगों से कहने लगा हूं कि सुबह और शाम अगर हो सके तो घर से बाहर खुली फ़िज़ाओं के साथ रहना सीख लीजिए...जी हां, अगर हो सके तभी ...वरना कुछ कुछ मजबूरियां होती हैं कुछ लोगों की काम-धंधों की ..लेकिन च्वाईस उन्हीं को करनी है कि वे किसी कितनी तरजीह देते हैं...इस का कोई नुस्खा नहीं हो सकता...मुझे ऐसा लगता है ..





आज जब मैं सुबह भ्रमण कर रहा था तो अचानक ध्यान आया कि फूलों की तो तस्वीरें सभी खींचते हैं...वे हमेशा लाइम-लाइट में रहते हैं...आज पत्तों की तरफ़ भी थोड़ा देख लिया जाए...इतनी विविधता, विशिष्ठता, सब कुछ इतना नैसर्गिक...मुझे नहीं पता इन में से कुछ पेड़ों के नाम क्या हैं...बस इतना जानता हूं कि ये हर राही को अपनी अनुपम सुंदरता से खुश कर देते हैं...जैसे की जीने की कला सिखा रहे हों!





आज सुबह सत्संग में जिस तरह के बढ़ियाा खस्ता-मटर खाए...इतने लज़ीज़ मैंने अाज तक पिछले तीन सालों में लखनऊ प्रवास के दौरान नहीं खाये....मैंने सोचा कि उसे भी लगे हाथ अपने ब्लॉग पर दर्ज़ कर ही दूं...


 मैं मोबाइल से फोटो ट्रांसफर कर रहा था तो मुझे मेरे इस दोस्त की तस्वीर भी दिख गई..कल रात सोते समय खींची..अब टीवी देखना सिरदर्दी जैसा होने लगा है, सोच रहा हूं कि शाम को ही इसे ऑन कर लिया करूं...
यह भी मेरा पक्का दोस्त है..
एक टीवी शो अकसर देखा करता था ...लगता था कि ठीक बातें होती हैं वहां..लेकिन कल देखते देखते अचानक ध्यान आया कि लगता है यह शो भी बिक गया दिखे है, शायद बिकने की कगार पर है...या फिर डर गया है ...पता नहीं ..ठीक है यार वंचितों की, हाशिये पर रहने वालों की बात होनी चाहिए....इस में दो राय नहीं हैं....बात बात पर  "स्वर्णों" पर दोषारोपण, बात बात पर उन में दोष निकालने की कोशिश....अजीब सा लगने लगा है ...बहुत से लोगों से मिलता हूं रोज़ाना...यकीन मानिए अब कुछ कुछ स्वर्ण जाति वाले भी नाम के ही स्वर्ण रह गये हैं और असल में वे भी हाशिये पर जीने वाले ही लगने लगे हैं...मैं किसी का पक्ष नहीं ले रहा हूं , लेकिन हर बात में संतुलन रखना ज़रूरी है....पंद्रह सालों बाद मैं इस तरह की बात आज पहली बार लिख रहा हूं...वंचितों की बात होनी चाहिए, बेशक, लेिकन दूसरे बहुत से लोग भी तो वंचित ही हैं, नाम के लिए वे so-called स्वर्ण हैं, उन का क्या?





मैं भी किस चर्चा में पड़ गया...जिस में अकसर मैं पड़ता नहीं हूं...लेिकन कभी कभी मन की बात बाहर आ ही जाती है...लेकिन एक बात अच्छी हुई ..स्वर्ण लिखते लिखते कल सुबह टहलते हुए एक सज्जन दिख गये जिन्होंने गल में कम से कम २०-३० तोले की सोने की चैन डाली हुई थी...अजीब सा लगा आज कल के माहौल में यू.पी ...मुझे ध्यान आया कि शायद असली हो या शायद नकली हो ..लेकिन जिस तरह वह दबंग अपने दोनों दोस्तों के आगे बिल्कुल छुट्टे सांड की तरह चल रहा था ...बाजू अजीब तरीके से हिला हिला के ...एक बार तो लगा कि यह ज़रूर शुद्ध सोने की चैन ही डाले हुए हैं....लेिकन कुछ पता नहीं चलता आजकल...असली-नकली में.....सारांश यह है कि इस गर्मी में, इस माहौल में यूपी में ...चाहे चैन नकली थी या असली थी, वह तो पता नहीं, लेिकन वह बंदा परले दर्जे का बेवकूफ़ ज़रूर था।


एक बात तो आपसे शेयर करना भूल ही गया...दो तीन दिन से टाटास्काई मिनिप्लेक्स पर ए-वेडनेसडे नाम की फिल्म आ रही थी...इसे मैंने एक डॉयलाग के लिए अभी तक लगभग बीस बार तो देख लिया होगा...एक आम आदमी के प्रतिशोध की कहानी है यह...मैंने पांच छः बार इस डॉयलाग को अपने मोबाइल में रिकार्ड करना चाहा...लेकिन बीच बीच में कैमरा धोखा दे जाता ...हार कर परसों आडियो ही रिकार्ड की इस डॉयलाग की ..लेकिन उस की क्वालिटी से मैं खुश नहीं था...हार कर आज सुबह यू-ट्यूब पर इस डॉयलाग को ढूंढ ही लिया....आप भी सुनिएगा...कितनी मेहनत करते हैं ये लोग भी ...इतने इतने लंबे डॉयलाग और इतने फ्लालैस तरीके से बोलना....इन के चेहरों की भाव-भंगिमा देखते बनती है...महान कलाकार....महान आर्टिस्ट....चुपचाप अपनी साधना में लगे रहते हैं....इन के फन को हमारा सलाम....

आज पत्तों की बातें हो रही हैं तो पत्तों वाला ही कोई गीत सुनना चाहिए...हो जाए फिर!

रविवार, 8 मई 2016

मटरगश्ती खुली सड़क पे...

रात चैन से नहीं बीती, अभी बताता हूं क्यों, लेकिन सुबह उठा तो सोचा चलता हूं थोड़ी मटरगश्ती ही कर आऊं..

हां, तो रात में चैन न आने का कारण मच्छर नहीं थे, उन का आतंक कुछ दिनों से कम ही है...बेचैनी इसलिए रही कि मैंने कल दो समोसे खा लिये थे...रोक नहीं पाया..जब कि पता है कि कोई भी मैदे वाली चीज़ खाने के बाद मेरी हालत अगले २४ घंटे तक खराब ही रहती है...अजीब सा लगता रहता है, न कुछ करने को मन करता है, न नींद आती है...लेकिन ढीठ प्राणी हूं मैं भी ...और लोगों से यह उम्मीद करता हूं कि मेरा घिसा-पिटा पका हुआ भाषण सुनने के बाद वे तुरंत मेरी जुबलेबाजी के आगे सरेंडर कर दें..पानमसाला, गुटखा थूक दें, सिगरेट बीड़ी बुझा दें और सुरती की सूरत न देखने की कसम ले लें.....ऐसा कभी होता है क्या!...मेरा फ़र्ज़ है लोगों को सही-गलत से रू-ब-रू करवाते रहना...आगे इन लोगों की अपनी मनमर्जियां...कोई किसी की परिस्थितियां नहीं बदल सकता, बस हम कोशिश कर सकते हैं...

हां, कल रात वाले सपने की बात तो आप को सुना दूं...मुझे सपना यह आया कि हमारे मुख्यालय के बाबू मुझे कह रहे हैं कि आप ने जो २००५-०६ में नियुक्तियां की थीं...उन में से एक पद तो था ही ही नहीं, लेकिन आप ने नियुक्ति कर दी थी...पंगा पड़ा हुआ है ..चिट्ठी भिजवा रहे हैं....उन्होंने सीधा सीधा कहा कि अब इतने सालों में उस कर्मचारी को जितनी तनख्वाह दी जा चुकी है, वह सारी राशि मेरी तनख्वाह से ही कटेगी।

मैं हैरान-परेशान ...मुझे इतना इत्मीनान तो था कि मैं कौन होता हूं यह नियुक्ति करने वाला...ठीक है, सेलेक्शन कमेटी का एक सदस्य होता हूं ...लेकिन वहां भी सब कुछ पारदर्शी तरीके से करने में विश्वास रखता हूं ...अब इतना पैसा कैसे भरूंगा...क्योंकि बाबू तो बाबू होता है, जो उसने कह दिया वह तो हो कर ही रहेगा...यह वसूली तो होगी ही..वैसे दफ्तर से आते आते मुझे एक बाबू ने धीमे से यह भी कह दिया कि हम आप को इस वसूली से बचने की कोई तरकीब बता देंगे....लेकिन पता नहीं मैं उस समय उस की तरकीब या जुगाड़ सुनने के मूड में ज़रा भी नहीं था...मैं बाहर चला आया..

रात भर मैं टोटल करता रहा कि यह वसूली कमबख्त कितनी बनेगी....५ हज़ार रूपया महीना भी उसे अगर तनख्वाह मिली होगी तो भी बहुत हो जायेगा...वैसे तो इस से कहीं ज़्यादा ही उसने वेतन पा लिया होगा...क्योंकि २००६ के बाद से तो वेतन आयोग की वजह से सेलरी बढ़ गई थी....बस, यही कुछ चलता रहा सपने में .....बीच में यही ध्यान भी आता रहा सोते सोते कि अच्छा होता वलेंटरी रिटायरमेंटी ले ली होती ...यह सब कहां मुझे कोयलों की दलाली में फंसना पड़ेगा... न कुछ किया न कराया...बिना वजह झंझट...

सुबह जब नींद से उठा तो शुक्र किया कि यह सब सपना था...

मुझे लगता है मुझे इसलिए सपना आया क्योंकि आज कल ८०० करोड़ मार्का आईएएस लोगों की खबरें बहुत दिखने लगी हैं...और मामूली अफसरी से रिटायर लोगों की जब मैं आते जाते कोठियां देखता हूं तो अपने आप से यह प्रश्न करता हूं कि यार, मैं तो रिटायरमैंट पहुंचते पहुंचते किसी मेट्रो शहर में एक बंगला तो छोड़िए, एक अच्छे फ्लैट का जुगाड़ तक न कर पाया....और ये इतने इतने भव्य भवन कैसे बन गये...

पूछा था जी एक बार किसी से .... अचानक पता चला कि उस का ससुरा बहुत रईस था, वह दे गया बहुत कुछ उसे.....किसी दूसरे के बापू के पास गांव में बड़ी ज़मीन जायदाद थी िजसे बेच दिया गया....अब हम इन चीज़ों में पड़ते नहीं हैं तो क्या हम असलियत जानते नहीं है, कोई रईस-वईस नहीं...कोई ज़मीन जायदाद नहीं, अधिकतर लोग -९९प्रतिशत लिखते डर लगता है ...जो नौकरी में आते हैं वे सब के सब शुद्ध मिडिल क्लास बैकग्राउंड के होते हैं ...जितने मर्जी नखरे कर ले कोई भी ...सच तो सच ही होता है ...जो थोड़े से भी खाते-पीते होते हैं वे नौकरी में आते ही नहीं है, ऐसा मुझे लगता है ...




मेरा सपना टूटा तो मेरी जान में जान आई..थोड़ी मटरगश्ती करने निकल पड़ा....बाज़ार में आज देखा कि मटके खूब बिक रहे हैं और वे भी टोटी वाले ...अच्छी बात है लोटे का झंझट ही खत्म ..वरना उसे भी संभालना पड़ता है ...मैंने पंडित जी से कहा कि आप ने यह काम बहुत पुण्य वाला कर दिया है ...हंसने लगे...

लौटते समय देखा कि यह भीमकाय टंकी रिक्शा वाला कहां ले जा रहा है....उसने बताया कि ५००० लिटर की है ..लगभग डेढ़ टन का वजन है ...लगभग २० किलोमीटर दूरी पर बिजनौर ले कर जा रहा हूं...तनख्वाह पर हूं दुकानदार के पास....रिक्शेवाले से भी चिकचिक....उसे अगर हर फेरे के पैसे देने पड़ेंगे तो वह महंगा पड़ेगा...इसलिए पांच छः हज़ार दे देते होंगे, और क्या! पसीने से लथपथ दिखा वह रिक्शावाला...लेकिन मस्ती में चला जा रहा था खुशी खुशी...


हां, बाज़ार में एक जगह मैं फ्रूट खरीद रहा था तो साथ वाली रेहड़ी पर ये तीन चीज़ें बिक रही थीं.... मुझे एक का तो नाम पता है फालसे...हम लोग खूब खाया करते थे, अब शहर में दो तीन जगहों पर दिख जाते हैं इस मौसम में ...बाकी दो फलों का नाम मुझे पता नहीं था...खरबूजे वाले ने बताया कि यह पीले वाला फल है किन्नी और दूसरे फल का नाम है सिंगड़ी ...घर आकर गूगल किया तो कुछ पता नहीं चला, अगर आप में से इन के बारे में किसी को पता हो तो लिखिएगा..मैं सोच रहा था कि मेरी उम्र के लोगों को अब इन तीन में से एक का ही नाम पता है, और स्वाद पता है....और कुछ सालों में तो ये फल विलुप्त ही हो जाएंगे जब किसी को इन का नाम तक पता नहीं होगा, तो खरीदेगा कौन......वैसे खरबूजे वाले ने आते आते सीख दे डाली कि हर मौसम के फल का स्वाद ज़रूर चखना चाहिए....

घर आकर नवभारत टाइम्स पर नज़र गई तो वहां पर पहली बात दिखा कि एक ट्रक में इतने सारे मटके लदे हुए हैं...एकदम ध्यान आया कि ५००० लिटर की टंकी रिक्शे पे और पांच लिटर की सुराही ट्रक पे..

सुबह सुबह और वह भी रविवार के दिन इतनी सीरियस बातें करना ठीक नहीं ...चलिए, इस मटरगश्ती सांग को ही सुन लेते हैं... कहते हैं फिल्म इतनी चली नहीं थी, नहीं चली तो न सही, लेकिन गाना तो मस्त है ही, काम भी अच्छा ही किया लगता है ....लोगों ने नहीं अच्छी लगी तो कोई बात नहीं ...वैसे भी पब्लिक अभी अच्छे दिनों की इंतज़ार में है, उन्हें और कुछ भी अच्छा नहीं लगता.... क्या ख्याल है?



शनिवार, 7 मई 2016

मजे में हूं...

एक सत्संग में जाता हूं..वहां पाखंडबाजी बिल्कुल नहीं है..अच्छा लगता है वहां बैठना, महांपुरूषों के वचन सुनना और अगर ये वचन मन में अगर बस जाएं तो बात बने!

बहरहाल, कुछ दिन पहले सत्संग में सुना महात्मा बता रहे थे कि हर हाल में, हर पल इस परमपिता परमात्मा का शुक्रिया अदा करते रहा करिए...सच में यह हमारी सब से बड़ा कर्त्तव्य है कि हम लोग हर क्षण इस परमात्मा का शुकराना करते रहें...इस से यह खुश हो जाता है ज़ाहिर सी बात है ...

यही समझा रहे थे कि जो लोग ईश्वर में आस्था रखते हैं अगर कोई उनसे पूछता है कि कैसे हैं तो वे यही कहते हैं....बिल्कुल ठीक हूं...मजे में हूं, ईश्वर का लाख लाख शुक्र है। और अगर दुनिया में इधर उधर देखें तो अकसर यही देखने में आता है कि अगर कोई किसी का हाल चाल पूछता है तो अगर सामने वाला कहे कि मेरे एक घुटने में दर्द है ...तो पूछने वाला तुरंत कह देता है कि यार, मेरे तो दोनों घुटनों में दर्द है।

आज के हिन्दुस्तान अखबार में घुघूतीबासूती ब्लाग की एक पोस्ट दिखी ...मजे में हूं...इन के ब्लॉग पर नियमित जाना होता रहता है और ये भी अकसर मेरे ब्लॉग पर आकर उचित मार्ग-दर्शन करती हैं...बहुत अच्छा लिखती हैं ...आप भी इन का ब्लॉग देख-पढ़ सकते हैं इस लिंक पर क्लिक कर के..

लिखतीं हैं इस लेख ..मजे में हूं ..कि लोग अकसर पूछते हैं अगर किसी से कि आप कैसे हैं तो हम लोग अपनी सारी परेशानियों को छुपा कर कितनी सहजता से कह देते हैं ....मजे में हूं...लेकिन एक छोटा बच्चा है, उस से कोई पूछे तो वह कितनी ईमानदारी से अपनी तकलीफ़ें िगना देता है ...नाक बह रही है, बुखार है, पैर में फोड़ा है, खांसी हो रही है..आदि इत्यािद।

इन का लेख सुबह ही पढ़ लिया था...ड्यूटी पर चला गया...बात यही मन में बार बार आ रही थी कि चलिए बच्चे तो बच्चे हैं, मन के सच्चे हैं, उन्होंने जैसा भी अपना हाल ब्यां कर दिया, ठीक ही है...लेिकन बड़ों के लिए यह कहने के साथ साथ कि मजे में हूं, हर पल ईश्वर का शुक्रिया अदा करना भी बनता है ...

आज ओपीडी में एक अधेड़ उम्र की औरत आई ...कुछ बात हुई तो अपनी सास के बारे में बताने लगीं कि सास बहुत बीमार है...मैं उन की सास को अच्छे से जानता हूं ..डेढ-दो साल पहले वे मेरे पास इलाज के लिए डेढ--दो महीने आती थीं...बहुत नेक औरत..उम्र यही ७५-८० के करीब रही होगी....

उस बुज़ुर्ग की बहू बता रही थीं कि सास की शूगर कंट्रोल नहीं हो रही है, पिछले कुछ दिन दाखिल थीं...मैं इस बुज़ुर्ग औरत को बड़ा ज़िंदादिल मानता हूं...यहां लखनऊ महोत्सव में पिछले से पिछले साल बड़े से झूले पर बैठने की इच्छा ज़ािहर की ... जो बहुत ऊंचे जा कर नीचे आता है ...बेटे ने टिकट ले कर बिठा दिया...इन्होंने खूब एंज्वाय किया...वैसे भी किसी से बातचीत करने पर पता चल ही जाता है ...बड़ी करूणामयी, वात्सल्य से भरी हुई लगी मुझे यह बुज़ुर्ग...
आज जो बात पता चली बहू से कि ये अपने अड़ोस-पड़ोस में तो दूसरी की मदद करती ही हैं ...अपनी बुज़ुर्ग काया के बावजूद भी ...लेकिन पिछले दिनों जब यह अस्पताल में थीं तो इन्होंने यहां भी नेकी की कमाई कर गईं...क्या किया बताऊं?...मैं दंग रह गया उन की बहू से यह सुन कर कि थोड़ी सी तबीयत सुधरी तो आस पास की अपने से बुज़ुर्ग औरतों की मदद करने लगतीं ...एक बहुत ही बुज़ुर्ग औरत जिसे घर वाले दाखिल करवा कर चले गये थे उसे नहलाने ले गईं...बाथरूम उस के साथ जाना....और तो और बहू ने बताया कि हम घर से खाना लाते हैं...एक चपाती खातीं, बाकी दूसरों में बांट देतीं आस पास के मरीज़ों में जिन के घर से खाना नहीं आया होता....
मुझे तो ये बातें सुन कर इतना अच्छा लगा िक मैंने तो उस महिला को इतना ही कहा ....अम्मा को ऐसा ही बने रहने दीजिए, सेवा में बड़ी शक्ति है...

साथ में मैंने एक कागज़ के टुकड़े पर आशीर्वाद के रूप में एक संदेश लिख कर उस बुज़ुर्ग को भिजवा दिया..बहू बता रही थी कि आप को बहुत याद करती हैं ...मुझे लिखते लिखते ध्यान आया कि पिछले साल मेरे बेटे का रिजल्ट आया तो मेरी मां, बीवी और मेरी फोटो बेटे के साथ पेपर में छपी तो पेपर देख कर बताते हैं बहुत खुश हुईं...और बधाई देने भी आईं।

वैसे तो गांव में इनका घर है लेकिन पारिवारिक कारणों की वजह से (जिन्हें मैं यहां लिखना नहीं चाहता) उन्हें लखनऊ में ही रहना अच्छा लगता है ...बड़ा बेटा गांव में रहता है ..इन की बहू ने बताया कि जब इन के पति केवल २९ दिन के थे तो इन के ससुर चल बसे थे...और तब इन का बड़ा बेटा डेढ़ साल का था...इन के ससुर को २१ साल की उम्र में पेट का कैंसर हो गया था, जैसा उन्होंने बताया...बड़े संघर्ष से बेटों को पालन-पोषण किया।

उस बुज़ुर्ग महिला के महान कामों के बारे में सुन कर मुझे यही लगा कि मैं तो बस शब्दों से खेलना ही जानता हूं...सच में यह शब्दों का खेल ही है कि कोई हाल पूछे तो क्या कहना है, क्या नहीं कहना है, लेकिन इस वयोवृद्ध महिला ने तो सच में जीने की कला ही सिखा दी हो जैसे ....अपना हाल ठीक नहीं है, लेकिन उस का रोना रोने की बजाए (वैसे भी आज के दौर में किसे परवाह है किसी की तकलीफ़ की, और कोई सुनना भी तो नहीं चाहता!) अपने से ज़्यादा लाचार-बेबस किसी अन्य बुज़ुर्ग का हाथ थाम लिया....लेकिन सब कुछ निःस्वार्थ भाव से...आप के इस जज्बे को बार बार नमन ...ईश्वर आप को स्वस्थ रखे और आप श्तायु हों..




रविवार, 1 मई 2016

रोड़-इंस्पेक्टरी का भी अपना मजा है...

आज फिर मैं रोड़-इंस्पैक्टरी करते हुए चारबाग स्टेशन के आगे से गुजर रहा था तो देखा कि एक युवक खड़ा था और एक अधेड़ उम्र का बंदा उस की पतलून की जिप से कुछ कर रहा था..तभी उस बंदे की औज़ारों की तरफ़ देखा तो पाया कि यह तो उस की ज़िप रिपेयर करने में लगा हुआ है..

ठीक है, खुली ज़िप भी जो बंद न हो या अटक जाए ..वह तो एक एमरजेंसी तो होती ही है..आज तक यही पता था कि जिप खराब होने पर पतलून को दर्जी के यहां ही देना होता है ..आज पहली बार पता चला कि यह काम एमरजेंसी में खड़े खड़े भी कुछ लोग कर देते हैं।

इन की फोटो खींचने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था..वैसे मेरी जेब में आज कैमरा थी भी नहीं...जानबूझ कर मैं उसे घर पर ही छोड़ गया था...मैंने यही सोचा कि देखते हैं कौन सा पहाड़ टूट पड़ता है मोबाइल जेब में न रखने से..

दरअसल कल शाम जब मैं टहलने गया तो भी मैं सेलफोन घर पर ही छोड़ गया था...सच में बड़ा मज़ा आया...न बार बार की टुं टुं... न चूं चूं...ठंडी हवा का इतना लुत्फ़ आया कि मैं ब्यां नहीं कर सकता...कल दोपहर में खाना-छाछ-तरबूज सब कुछ इतना ठूंस लिया कि शाम होते होते सिर भारी होने लगा..इसलिए मैं निकल पड़ा टहलने खुली हवा में...तबीयत अच्छी हो गई...कुछ समय टहलने के बाद..उल्टी जैसा हुआ और हुई भी..उसके बाद तुरंत हल्कापन महसूस हो गया..

मैं आज सुबह की रोड़-इंस्पैक्टरी की बात कर रहा था.. उस जिप रिपेयर वाले से थोड़ा आगे चलने पर पाया कि कुछ लोग नीचे जमीन पर चौकड़ी लगा कर अपनी दाड़ी बनवा रहे हैं...दाड़ी बनाने वाला एक लकड़ी की चौकी पर बिराजमान था और उसने उतनी जगह पर एक छाता भी लगवा रखा था..

मैं यही सोचता हुआ जा रहा था कि ये सब कारीगर भी हमारी दिनचर्या का एक अभिन्न अंग हैं...आम आदमी की इन पर बहुत निर्भरता है ... इन सब लोगों का विकास भी कौशल विकास ही है ...थोड़े थोड़े पैसों में लोगों का काम हो जाता है ..और इन का जीविकोपार्जन।

थोड़ा आगे चलने पर मैंने नवभारत टाइम्स खरीदी..संडे के दिन मेरी कोशिश रहती है कि मैं इसे भी ज़रूर देख लूं..अभी मैं थोड़ा ही आगे गया था तो मैंने सुना डी जे का तेज़ म्यूज़िक चल रहा है...आगे देखा तो पता चला कि जैसे लोग कोई मूर्ति विसर्जन करने जा रहे हों...लेकिन ऐसा लगा तो नहीं...खूब तेज़ तेज़ म्यूज़िक चल रहा था...सब से आगे डी जे की वैन थी...फिर कुछ बच्चे और युवा साथ साथ नृत्य करने में मशरूफ थे... उस के पीछे एक खुले छोटे ट्रक में एक महिला को कुछ "पवन"जैसे आ रही थी...वह ज़ोर ज़ोर से अपनी सिर और बाजू हिलाए जा रहीं थीं..जो कि अधितकर डी जे गाने से मैच ही कर रही थी... कुछ समय के लिए लखबीर सिंह लक्खे का यह गीत बजा..एक दो मिनट के लिए...बाकी तो हनी सिंह के गीत ही बज रहे थे...

मुझे नहीं पता था, एक युवक ट्रक से हलवे-चने का प्रसाद लेकर आ रहा था और साथ में हंस हंस कर लोटपोट हुआ जा रहा था...उस ने ही किसी दूसरे बंदे को हंसते हुए कहा....(पूरा नहीं लिख पाऊंगा)... हनी सिंह का गीत लगा रखा है!

सब की अपनी अपनी आस्था है...मुझे तो बस इस बात की खुशी थी कि इसी बहाने लोग एक साथ मिल कर हंस-खेल रहे हैं..बाकी तो अपनी अपनी श्रद्धा की बातें हैं...उन में उलझ कर हम इन हल्के-फुल्के पलों का भी मज़ा किरकिरा कर लेते हैं..राहगीर एंज्वाय कर रहे थे, हल्वे-चने का प्रसाद का मजा ले रहे थे, यह अपने आप में बड़ी बात है।

ओह अम्मा यह क्या हुआ....अचानक एक अम्मा प्रसाद लेकर आई तो किसी दूसरे का हाथ लगा उस का दोना िगर गया...वह असमंजस में थी, मैंने तुरंत कहा ...आप फिर से लीजिए जाकर ...वह फुर्ती से पिछले ट्रक की तरफ़ गई और फिर से प्रसाद पा लिया....मुझे बड़ा इत्मीनान हुआ।

कुछ दिन पहले एक फेसबुक मित्र जो कि ब्राह्मण हैं उन्होंने एक पोस्ट लिखी फोटो सहित कि किसी के यहां तिलक पर गये हुए थे तो पंडित जी मंत्रोच्चारण के साथ साथ जैसे कि स्टेज-पर्फार्मैंस दे रहे हों, उन्होंने ऐसा अनुभव किया.. फोटो से भी ऐसा ही लग रहा था.. वैसे यह भी होना तो तय ही था जिस तरह से टीवी चैनलों पर कथा-वाचकों को भी बीच बीच में पर्फार्म करना पड़ता है...

पता नहीं आज वहां खड़े खड़े राधे मां और निर्मल बाबा जी की बहुत याद आई...वैसे मैंने आज सुबह ही पेपर में एक भजन संध्या के बारे में भी पढ़ा था जिस में कुछ लाइव-पर्फार्मैंस की बात की गई थी...

पता नहीं मैं भी क्यों आज लाइव-पर्फार्मैंस के पीछे हाथ धो कर क्यों पड़ गया हूं...हम सब भी सुबह से शाम क्या कर रहे हैं...नाटक ही तो करते हैं ...हा हा हा हा, कम से कम अपने बारे में तो मैं पूरे यकीं के साथ कह सकता हूं...और राज कपूर साहब ने तो चालीस-पचास साल पहले ही कह दिया था..दुनिया इक सर्कस है.....