मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

पद्मश्री गुलाबो सपेरा और सुशील दोशी से कल हो गई मुलाकात..

जब भी मैं टीवी ऑन करता हूं तो एनडीटीवी इंडिया, ज़ी क्लासिक, स्टार गोल्ड आदि पर ही आ कर थम जाता हूं...खबरिया चैनलों में से एनडीटीवी इंडिया मेरा फेवरेट चैनल है...कुछ कारण और भी होंगे, लेकिन सब से बड़ा कारण यही है कि यहां पर ख़बरें पढ़ते हुए लोग उछलते नहीं हैं। ..दूसरे कईं चैनल हैं जिन को लगाते ही पांच मिनट में खबरें पढ़ने वालों की उत्तेजना से मेरा सिर भारी हो जाता है ..

कल दोपहर दो बजे जैसे ही टीवी लगाया तो नगमा सहर दिखीं...हम लोग प्रोग्राम में...पता चला कि पद्मश्री गुलाबो के बारे में यह प्रोग्राम है.. इन के बारे में कईं बार सुना था, पढ़ा था और टी वी पर देखा भी था लेकिन सब कुछ धुंधला ही था...नागिन डांस के नाम पर बस दो तीन वे व्हाट्सएप वीडियो ही याद थे जो कुछ युवा शादी ब्याह में कर लेते हैं।
वैसे भी हम कहां पद्मश्री या अन्य अवार्ड पाने वालों को जानते हैं?... मुझे याद है बस अखबारों में इन की लिस्ट और उस के साथ ब्रेकेट में उन के कार्यक्षेत्र के बारे में ही अकसर हम लोग देख कर इत्मीनान कर लिया करते थे...मेरा तो यही अनुभव रहा है ..शायद मेरे से कुछ प्रोग्राम छूट जाते होंगे। 

बहरहाल कर एनडीटीवी इंडिया पर गुलाबो सपेरा के बारे में बहुत सी बातें जानने का मौका मिला ..बहुत अच्छा लगा...उस की बातें शेयर करने की इच्छा हो रही है...

गुलाबो सपेरा उस प्रोग्राम में अपनी बेटी के साथ आई थीं..यह जो सपेरा डांस है इन्होंने ही शुरू किया .. बचपन से ही अपने पिता के साथ साथ ही रहती थीं... वे सपेरे थे..और ऐसे ही सांपों को बीन की मधुर धुन पर मुग्ध होते देख देख कर गुलाबो भी यह नृत्य करने लगीं...छुपटन से ...और फिर तो कभी सांप इन के ऊपर और कभी ये सांपों के ऊपर और सांपों को गले में डाल कर ये नृत्य करने लगीं और जल्द ही इतनी पारंगत हो गईं कि इन्हें बड़े मेलों पर नृत्य करने का मौका मिलने लगा...

इस बात को यहां थोड़ा रोकते हैं.. पहले इन के जन्म के बारे में यह बात बताना चाहूंगा कि इन के जन्म से पहले तीन बहनें और तीन भाई हो चुके थे..इन का जन्म जिस दिन हुआ..पिता बाहर गये हुए थे ..तो घर की और आस पास की महिलाओं ने सोचा कि तीन छोरियां तो पहले से हैं, अब एक और हो गई..चलो, इसे गाड़ देते हैं...उन महिलाओं ने वैसा ही किया.. नवजात बच्ची को कहीं जा कर गाड़ आईं... गुलाबो की मां ने जब होने वाले बच्चे के बारे में पूछा तो उन्होंने कह दिया कि जो भी बच्चा हुआ, मरा हुआ था... लेकिन जैसे तैसे गुलाबो की मां ने अपनी बहन से सच उगलवा ही लिया ..यह कह कर कि तेरे तो पांच बेटे हैं, चाहे तो इस बेटी को तू रख लेना, पर इसे बचा ले....यह बातें तब चल रही थीं जब उस नवजात बच्ची को दफनाए हुए चार पांच घंटे बीत चुके थे. 

गुलाबों की मौसी ने मां को समझाया कि अब तक तो वह मर चुकी होगी..लेकिन मां ने कहा कि मेरा दिल कहता है वह ज़िंदा होगी, चल, ज़रा जा कर देखते हैं। और जब वे दोनों बच्ची को लेने गये तो उस की सांसें चल रही थीं...यह बात सुना कर गुलाबो ने सब को हिला दिया...

हां, गुलाबो जिस नृत्य को करती हैं उसे राजस्थान का कालबेलिया लोकनृत्य कहते हैं ...यह गुलाबो की ही देन है ..अब यह विश्वप्रसिद्ध है। सात साल की उम्र में किसी मेले पर जब यह नृत्य कर रही थीं तो किसी की नज़र इन पर पड़ी और इन्हें स्टेज पर नृत्य करने का मौका मिला .. स्टेज पर नृत्य करना इन्हें इतना अच्छा लगा कि उस के बाद इन्हें पीछे मुड़ के नहीं देखना पड़ा.... देश विदेश में इन के शो होने लगे ...


सब कुछ इन्हें इतनी आसानी से भी नहीं मिल गया... जब यह स्टेज पर नृत्य करने लगीं तो कबीले में बहुत विरोध हुआ.. एक तरह से सामाजिक बहिष्कार हो गया...लेकिन यह धुन की पक्की निकलीं...जैसे जैसे इन की ख्याति बढ़ती गई, यह अमेरिका जैसे देशों में भी शो कर आईं तो इन के कबीले के लोग भी बदलने लगे ...वे इन के पास आने लगे कि हमारी घर की औरतों को भी यह नृत्य सीखना है। इन्होंने उन के सामने यही शर्त रखी कि ज़रूर सिखाएंगी ...लेिकन शर्त एक ही होगी कि तुम लोग बच्चियों को गर्भ में मारना..और उन्हें मार कर दफ़नाना बंद करोगे...धीरे धीरे लोग इन की बात मानने लगे। 


नगमा सहर से इन की बातचीत सुन कर जैसा अनुभव हुआ उस का एक अंश भी मैं इन पंक्तियों के माध्यम से आप तक पहुंचाने में नाकामयाब रहा .. इन की बेटी भी इन के साथ थी, जो बोर्डिंग स्कूल में पढ़ी हैं और अब मां के साथ इस नृत्य को करती हैं.. मैं इसे लिखते सोचा कि काश, इस प्रोग्राम की वीडियो कहीं मिल जाए...एनडीटीवी की साइट पर ढूंढा तो यह मिल गई....इस का लिंक यह है (यहां क्लिक करिए)  ....इस पर क्लिक कर के आप इस प्रोग्राम का आनंद ले सकते हैं....गुलाबो सपेरा की तारीफ़ करने के लिए मेरे पास इस से ज़्यादा शब्द नहीं है.....वैसे ही मेरी हिंदी की वोकेबुलरी मुझे बहुत से मौकों पर फेल कर देती है!

इस के बाद नगमा सहर ने हमें मिलाया हिंदी कमेंटेटर सुशील दोशी जी से ..इन से मिल कर भी बहुत अच्छा लगा.. कितनी तपस्या की इन्होंने क्रिकेट की कमेंटरी हिंदी में देने के लिए..यह इन्हें से जानिए इसी वीडियो से ...पहले पहल लोगों ने मज़ाक उड़ाया कि अंग्रेज़ी खेल की कमेंटरी हिंदी में कैसे कर पाओगे..लेिकन इन के जुनून की जीत हुई...बचपन के बारे में बताते हैं कि १४ साल की उम्र में इंदौर में रहते हुए इन का मन हआ कि बंबई जाकर मैच देखना है...हालांकि इन के पिता को क्रिकेट का बिल्कुल शौक नहीं था लेकिन वे इन्हें लेकर बंबई जा पहुंचे..स्टेडियम में कौन घुसने देता!..टिकट ऐसे कहां िमल पाती... तीन दिन ऐसे ही स्टेडियम के चक्कर काटते रहे, चौथे दिन स्टेडियम के बाहर चाय बेचने वाले ने इन बाप-बेटे को देखा और सारी बात उसने समझी। उस ने जैसे तैसे सुशील को अंदर भिजवा दिया और इन के पिता को बाहर ही इंतज़ार करने को कहा ...सुशील वे पल याद करते हुए भावुक हो गये। 


ये पिछले ५० सालों से हिंदी में कमेंटरी कर रहे हैं...१७-१८ साल की उम्र में इन्होने आकाशवाणी के लिए हिंदी में कमेंटरी करनी शुरू कर दी थी... इन के महान काम को देखते हुए इंदौर के क्रिकेट स्टेडियम के कमेंटरी बॉक्स का नाम इन्हीं के नाम पर रखा गया है ...और ऐसा भारतवर्ष में पहली बार हुआ है..

इसे लिखते लिखते व्हाट्सएप पर एक संदेश दिख गया जिसे यहां शेयर कर रहा हूं....कुछ लोग सच में मुकद्दर के सिकंदर ही होते हैं..



हम जो भी काम करते हैं ..कुछ भी ..हर काम बहुत अहम् है....बस, उसे पूरी ईमानदारी से करते रहना चाहिए..सफलता की ऐसी की तैसी ...वह कहां जाएगी....हम अपने आस पास ऐसे बीसियों किस्से देखते सुनते हैं अकसर...इन पर भी कभी कभी विचार कर लेना चाहिए....होता यह सब कुछ संघर्ष से ही है ...बहुत कम होता है कि किसी नामचीन बाप का बेटा भी वैसा ही जुनून दिखा पाए.......हो सकता है, लेकिन अकसर देखने में आता नहीं ..स्टार पुत्रों के बारे में भी हम यही देखते हैं......होता है,...यह स्वभाविक भी है ... पिता के लिए शायद यह जीने का संघर्ष होता है और फिर बच्चों को सब कुछ पका-पकाया मिल जाता है तो शायद वह स्पार्क पैदा ही नहीं हो पाता....

कल शाम भी लखनऊ महोत्सव में फरहान अख्तर का रॉक-शो देखने का आप्शन था... निमंत्रण पत्र भी था..घर से पांच मिनट की दूरी थी प्रोग्राम स्थल से ..लेकिन तभी यू-ट्यूब पर घूमते हुए अपने मन पसंदीदा कार्यक्रम गुफ्तगू पर संजय मिश्रा से इंटरव्यू का पता चला तो बस वहीं बैठा रह गया...मैं इनका बहुत बड़ा फैन हूं...इन की ईमानदारी का, सच्चाई का... 


....फरहान अख्तर के शो में जाने की इच्छा नहीं हुई... वैसे भी इन रॉक-वॉक शो में मेरी कोई रूचि नहीं है.. बस, उधर तक ही ठीक है ..साडा हक्क ऐत्थे रख.. रॉकस्टार का गीत!!


कल एनडीटीवी के इस प्रोग्राम से लगा कि पद्मश्री पुरस्कारों जैसे अवार्ड के लिए चयन करने वालों का काम भी कितना मुश्किल होता होगा... लेकिन जिन लोगों ने भी अपने काम को पूजा की तरह किया ..उन्हें इन अवार्डों से सुशोभित किया ही जाना चाहिए... पद्मश्री गुलाबो और सुशील दोशी जी को हमारी ढ़ेरों बधाईयां... इन के फन को सलाम...
पद्मश्री अवार्डों की बात चली तो पता चला कि पिछले दिनों मीडिया में यह दिखा कि शायद एक मंत्री ने यह कहा कि एक सुप्रसिद्ध पुराने दौर की सिनेतारिका ने उन से पद्मश्री अवार्ड दिलाने की सिफारिश करने को कहा ...यह पढ़ कर अच्छा नहीं लगा... कारण?...हम उस सिनेतारिका का महान काम बचपन से देख रहे हैं, उम्मीद नहीं कि उसने ऐसा कहा हो, और अगर कहा भी हो तो उस में ऐसा हायतौबा मचाने की बात ही क्या थी, हम सब लोग अकसर कईं बार कमज़ोर लम्हों में कुछ न कुछ कह देते हैं....ऐसे में इस तरह की बात को मीडिया में उछालने से क्या हासिल! मुझे तो यह बात बहुत बुरी लगी। 

रविवार, 31 जनवरी 2016

रोज़नामचः ३०.१.२०१६

एक बात मेरे ध्यान में बार बार आ रही है पिछले कईं दिनों से कि अगर ब्लॉग हमारी अपनी ऑनलाइन दैनिक डायरी है तो फिर हम उसे दूसरों को पढ़ाने के लिए इतना मरे क्यों जा रहे हैं, अपनी बात कर रहा हूं...मुझे यह कुछ अजीब या असहज सा लगने लगा है...किसी ब्लॉग ऐग्रीगेटर में आप अपनी पोस्ट को शेयर कर रहे हैं, समझ में आता है ..लेिकन फेसबुक, ट्विटर या व्हाट्सएप पर अपनी हर पोस्ट शेयर करना अजीब सा लगता है।

मैंने भी एक व्हाट्सएप ग्रुप पर अपने ब्लॉग की पोस्ट शेयर करने के लिए एक ब्रॉडकास्ट ग्रुप बनाया हुआ है..लगभग २०० लोगों का ...मेरी ताज़ा पोस्ट का एक लिंक भेजने पर सभी को एक साथ चला जाता है।

एक सज्जन हैं जिनसे मैं मिला नहीं हूं...दूसरे किसी शहर से हैं...अपनी किसी शारीरिक समस्या के लिए दो तीन बार फोन किया था उन्होंने...नंबर स्टोर था.. उन्हें भी यह लिंक जाने लगा ...परसों उन का मैसेज आया कि यह आप रोज़ाना क्या भेजते रहते हो!. मुझे थोड़ा अजीब सा लगा... मैंने उसी समय निश्चय किया कि किसी को भी अपनी पोस्ट का लिंक भेजना ही नहीं है...क्या फर्क पड़ता है, मैं लिखता हूं इस डायरी को ..बस अपनी खुशी के लिए, कोई पढ़े न पढ़े इस से क्या फ़र्क पड़ता है, यह मेरे समस्या है ही नहीं।

अब लिखते हुए ऐसा लगने लगा है कि अगर मैं अपनी पोस्ट को शेयर नहीं करूं तो मैं कितना आज़ाद हो जाऊंगा.. सच में इतने सारे भिन्न भिन्न लोगों को पोस्ट का लिंक भेजने के चक्कर में मुझे लिखते समय किसी न किसी की भावनाओं का ख्याल रखना ही पड़ता है ...थोड़ा चाहे बिल्कुल थोड़ा ...लेकिन कहीं न कहीं मन में रहता है कि फलां मेरा पुराना मित्र है, यह मेरा सहकर्मी है, यह परिचित है, इस से रोज़ मुलाकात होती है ......वगैरह वगैरह .. लेिकन इस सब के चक्कर में मुझे ऐसा लगने लगा है कि मैं कईं बार खुल कर लिख ही नहीं पाता...इसलिए मुझे अब इस से घिन्न आने लगी है ..

फेसबुक पर भी इसी चक्कर में मैंने अपनी पोस्ट शेयर करनी बंद कर दी थी.. शायद दो एक साल पहले ... लिखते समय ध्यान आने लगता था कि यह पोस्ट किन किन मित्रों तक पहुंचेगी। इस से लिखना प्रभावित होने लगा था...अब व्हाट्सएप पर भी यही होने लगा है...जिसे मेरा ब्लॉग देखना होगा, पहुंच जाएगा कैसे भी, वैसे इस में ऐसा पढ़ने लायक है भी क्या!...अपनी ही डायरी में लिखी चंद बातें ...

अब इन बातों को यहां विराम देता हूं और अपना आज का रोजनामचा लिख रहा हूं...कल टाटास्काई के मिनिप्लेक्स में "मैं ऐसा ही हूं" हिंदी फिल्म आ रही थी, देखी हुई है पहले से ..लेकिन फिर भी देखने लगा... मिनिप्लैक्स में यह फिल्म दिन में पांच छः बार आती है और बिना किसी एड-ब्रेक के....बहरहाल, किश्तों में देखते देखते यह पूरी फिल्म रात तक ही पूरी देख पाया।

बहुत अच्छी फिल्म है, एक संदेश है...और एक गीत जो इस का बहुत पापुलर हुआ था .. और है भी बहुत बढ़िया उसे आप को सुनाना चाहूंगा..



कल रात में Epic चैनल पर देख रहा था कि रविन्द्रनाथ टैगोर की कहानी पर आधारित काबुलीवाला नाटक चल रहा था... बहुत ही बढ़िया... ध्यान आ गया उस समय कि काबुलीवाला फिल्म मैंने १९७० के दशक में देखी थी ...शायद १९७४ -७५ के आसपास जब अमृतसर में टी वी नया नया ही आया था.. कितना बड़ा प्रभाव छोड़ा था इस फिल्म ने मेरी उस बालावस्था में ...मुझे याद है अच्छे से।



काबुलीवाला नाटक देखते देखते रविन्द्रनाथ टैगोर का ध्यान आ गया .. आज दोपहर में ही महान लेखक दूधनाथ सिंह जी से यह सुना कि टैगोर जी ने १९१५ में लंदन से अमेरिका का २६ बार दौरा किया और हर बार राष्ट्रवाद विषय पर व्यक्तव्य प्रस्तुत किया... आप भी सोच रहे हैं कि यह अचानक से राष्ट्रवाद कहां से आ गया।


दरअसल आज दोपहर में मुझे कुछ समय के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ में जयशंकर प्रसाद जयन्ती समारोह में भाग लेने का अवसर मिला...संगोष्ठी का विषय था.. प्रसाद के साहित्य में राष्ट्रीयता एवं लोकमंगल की भावना।

दूधनाथ सिंह जी को सुनने का सौभाग्य मिला  

श्री दूधनाथ सिंह जी मुख्य अतिथि थे.. उन्हें सुनना बहुत अच्छा लगा...उन्हें सुनते हुए ऐसे लग रहा था जैसे वह श्रोताओं से बातचीत कर रहे हैं.. और एक बात जो मैंने कल महसूस की कि मेरे तो जो मन में होता है उसे लिखना तो बहुत दूर कह भी नहीं पाता हूं बहुत बार ... और बहुत बार उस पर अमल करने से भी बहुत दूरी है अभी ...लेिकन दूधनाथ सिंह जी को सुनते हुए लग रहा था कि जो उन के मनोभाव थे वे उन्होंने बहुत बेबाकी से ... बिना किसी हिचकिचाहट के श्रोताओं के सामने रखे....उस में नहीं जाते कि क्या कहा, क्या नहीं कहा, यह सब तो पेपर वाले लिख ही देंगे....लेिकन मैं तो उन की ईमानदारी की दाद देता हूं...ऐसा करना हरेक के बश की बात है भी नहीं, इस के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए होती है ... एक तरह से आत्मावलोकन का अवसर मिल गया मुझे दूधनाथ सिंह जी को सुनते हुए। 

कल ३० जनवरी थी...राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी की पुण्यतिथि भी थी, वहां पर एक वक्ता ने राष्ट्रवाद के बदलते मायनों पर चिंता ज़ाहिर करते हुए बताया कि आज गोवा में नाथूराम गोड़से पर एक किताब का विमोचन होने वाला है ... इसे सुनने के बाद श्री दूध नाथ सिंह जी ने अपने भाषण के दौरान कहा कि यह सुन कर उन्हें बहुत दुःख हुआ... उन्होंने बताया कि मैं तो गांधी जी का भक्त हूं... उन्होंने बताया कि गांधी जी की शहादत को दूसरा क्रूसीफिकेशन कहा जाता है।

अमेरिका में गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर द्वारा दिए गए व्यक्तव्यों में से राष्ट्रवाद की परिभाषा दूधनाथ सिंह जी ने शेयर की .. मुझे ठीक से याद हो कि नहीं, इसलिए किसी त्रुटि के लिए क्षमा करिएगा...इतिहास बताता है कि राष्ट्रवाद जो है वह एक दूसरे से लड़ने झगड़ने और अपना स्वार्थ साधने की चिंता है और उस की तैयारी है लेिकन टैगोर साहब ने कहा कि इतने बड़े देश में जहां कईं संस्कृतियां एक साथ रहती हों, उन सब की सुरक्षा को सुनिश्चित करना और यह भी सुनिश्चित करना कि वे सब आगे बढ़ें, यही राष्ट्रीयता है।



हां, एक बात और ... घर आते ही मैंने सब से पहले जयशंकर प्रसाद जी कि एक किताब अपने संग्रह से निकाली .. अभी तो बस निकाली है, देखता हूं पढ़ने का कब मुहूर्त निकलता है ...मैं पढ़ने के मामले में अव्वल दर्जे का आलसी प्राणी हूं..

बस यही फुल-स्टाप लगाता हूं.....वैसे भी आज कोई टेंशन नहीं, कहीं पर पोस्ट को शेयर करना नहीं, जो पढ़े उस का भला..जो न पढ़े उस का भी भला...  अपनी पोस्ट पढ़वाने का यह फितूर उतारना पड़ेगा......जो मन में है, अपनी डायरी में लिख कर छुट्टी करो....its as simple as that...unnecessarily it has become so complex!...मैं कितने लोगों के व्हाट्सएप मैसेज और लिंक खोलता हूं......शायद ९९ प्रतिशत तो बिना देखे ही रहते हैं, सच में .....ऐसे में भला कोई मेरे भेजे लिंक्स क्यों खोलने लगा!

हां, एक काम की बात और है ... वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर आप सैंकड़ों-हज़ारों कहानियां, उपन्यास...नामचीन लेखकों द्वारा रचे हुए ..मुफ्त पढ़ सकते हैं ...मैं यहां पर जयशंकर प्रसाद की कहानियों का लिंक लगा रहा हूं.... just check this out!

जाते जाते प्रिय बाबू की पावन स्मृति को बहुत बहुत नमन ...





शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

लखनऊ महोत्सव की दूसरी शाम - एक रिपोर्ट




कल मैंने लखनऊ महोत्सव के बारे में पहली पोस्ट लिखी तो मुझे कुछ मित्रों ने फोन किया, मैसेज किया कि यार, तुम्हारी पोस्ट में बढ़िया पार्किंग व्यवस्था का ज़िक्र तो है, कोई प्रूफ तो दिखा नहीं...मैंने कहा कि प्रूफ़ शाम को जुटाऊंगा।


आज लखनऊ महोत्सव की दूसरी शाम थी... दो तीन घंटे वहां बिताने का मौका मिला..सब से पहले मैंने महोत्सव की बढ़िया पार्किंग का प्रूफ़ जुटाया... यहां पेश कर रहा हूं....बात है भी सही ..आजकल हम ने कहीं जाना है या नहीं, पार्किंग की सुगमता या दुर्गमता ही यह तय करती है...लेकिन आप भरोसा रखिए, बिना किसी परेशानी के आप को पार्किंग की सुविधा उपलब्ध हो जायेगी। 

मुख्य पंडाल में गीतों का प्रोग्राम चल रहा था, मैंने साथ बैठे सज्जन से पूछा कि यह गायिका कौन हैं..उन्हें भी शायद पक्का नहीं पता था, कहने लगे शायद श्रुति पाठक। अचानक मुझे अहसास हुआ कि मेरा सामान्य ज्ञान औसत से भी निचले स्तर का है। 

श्रुति पाठक ने अपनी मदमस्त आवाज़ से पापुलर हिंदी फिल्मी को गा कर श्रोताओं का मन जीता...कुछेक जिन का मुझे ध्यान आ रहा है... एह दुनिया पित्तल दी, आ जा फोटो मेरी खींच, कल हो ना हो...हर पल यहां जी भर जिओ, इतना मज़ा आ रहा है (jab we met!) ...अभी मुझ में बाकी है थोड़ी ज़िंदगी, हाय हाय नशा है ज़िंदगी मज़ा है.. और एक गीत काय पोचे फिल्म से भी....यंगस्टर्स भी खूब एंज्वाय कर रहे थे..

मैं ये गीत सुनते हुए यही सोच रहा था कि ये सभी गीत श्रुति ने ही गाये होंगे .....लेकिन नहीं, यू-ट्यूब से देखा तो पता चला कि ऐसा नहीं था.. बहरहाल, श्रुति ने भी बेहतरीन गीत गाये हैं... उन में से एक दो गीतों को यहां एम्बेड कर रहा हूं.. 




अपने प्रोग्राम के आखिरी हिस्से में श्रुति ने बच्चों और युवाओं को स्टेज पर बुला लिया... एक बात जो मैंने नोटिस की .. ये सब स्कूली बच्चे एवं युवा श्रुति के साथ गा रहे थे, डांस कर रहे थे और साथ में अपने अपने मोबाइल से श्रुति के साथ शेल्फी भी लेने की पूरी कोशिश कर रहे थे....सच में आज का युवा भी बिना वजह बड़ा load ले रहा है...एक समय में एक काम कर ही नहीं पाता!

एक पते की बात शेयर करनी तो भूल ही गया मैं....महोत्सव स्थल में जाते ही यह खबर पता चली कि अब लखनऊ महोत्सव धूम्रपान रहित कर दिया गया है .....पढ़ लिया जी मैंने भी उस नोटिस को....कुछ विचार आए मन में, लिखने वाले नहीं हैं......लेिकन आज सुबह पता चला गया कि इस नियम का कितनी कठोरता से पालन किया गया....सराहनीय पहल। दरअसल हम लोग बिना दंड के किसी की सुनते ही कहां हैं!

श्रुति पाठक के बाद स्टेज पर आईं स्थानीय लोकगीत गायक वंदना मिश्रा...इन्होंने भी अपनी कला से सभी दर्शकों को खुश कर दिया... इसे लिखते यही सोच रहा हूं कि यहां लखनऊ आने से पहले मुझे इन गीतों की समझ नहीं आती थी, लेकिन अब अच्छे से समझ आने लगी है .. जैसा देश वैसा भेष... इन्होंने जो गीत गाए और जिन्हें दर्शकों के हुजूम ने बेहद पसंद किया वे थे.... 



हमरी गुलाबी चुनरिया हम का लागे नजरिया, ले चलो पटना बाज़ार जिया न लागे घर मा... और फगुनवा मा रंग रच रच बरसे....आज सुबह मैं यू-ट्यूब पर देख रहा था तो ये वहां भी दिख गये... फगुनवा वाला गीत तो मालिनी अवस्थी का गाया हुआ ही दिख गया... आप भी सुनिएगा... मुझे वहां बैठे ऐसे लग रहा था कि जैसे पंजाबी लोकसंगीत में गुरदास मान, वड़ाली बंधु...हंस राज हंस, बिट्टी का रुतबा है, वही स्थान भोजपुरी और अवधी लोकगीत-संगीत में इन कलाकारों का है। निःसंदेह ये महान कलाकार हमारी लोकसंस्कृति की जड़ों को सींचने का काम कर रहे हैं....इन की अनूठी कला को हमारा सलाम!

मालिनी अवस्थी का गीत यू-ट्यूब पर सुनते हुए राहत फतेह अली खां दिख गये तो उन का बहुत पापुलर गीत भी आप तक पहुंचाना तो बनता ही है ... गुम सुम गुम सुन प्यार दा मौसम... हुन नां दर्द जगावीं...इसे मैं हज़ारों नहीं तो भी सैंकड़ों बार तो सुन चुका हूं ..... and i never get tired of listening to this melody! 

विपुल आर जे रेडियो मिर्ची 
कत्थक नृत्य 
श्रीसारंगी द्वारा प्रस्तुत ओडिशी नृत्य 
कुछ समय के बाद मंच का संचालन करने रेडियो मिर्ची के आर जे विपुल पहुंच गये...with his great initimable style to mesmerize the audience!. ...कल कार्यक्रम मे सुरभि सिंह द्वारा निर्देशित कथक नृत्य भी देखने को मिला और दिल्ली से आई ७-८ साल की श्री सारंगी ने ओडिशी नृत्य से दर्शकों का मनोरंजन किया... मैं वहां बैठा यही सोच रहा था कि स्कूली स्तर पर ही हमें विद्यार्थीयों को इन सांस्कृतिक धरोहरों के बारे में बताना चाहिए... this all must be a vital part of holistic education! 



दादी का सेल्यूट 
अब बारी थी ... कपिल की दादी (अली असगर) और गुत्थी (सुनील ग्रोवर) की ...उन्होंने हंसाया भी और लड़कियों को पूरा लंदन ठुमकदा वाले गीत पर डांस करने के गुर भी सिखाए.....इन दोनों को लखनऊ के एसएसपी श्रीं पंाडेय द्वारा सम्मानित भी किया गया... वैसे उस समय मेरे मन में भी कुछ ऐसे विचार आ तो रहे थे, लेकिन आज अखबार में भी वे दिख गये... 

बस, अब छुट्टी करते हैं .. कुछ फोटो लगा के...जिस से पता चल रहा है कि त्योहार का माहौल चल रहा है .. बिल्कुल गांव के मेलों जैसा भी बहुत कुछ ...वही खिलौने, वही खेल....बहुत कुछ वही का वही ...एक विचार यह भी कल आ रहा था कि इस तरह के त्यौहार देश के हर शहर, हर कसबे में लगने चाहिए..... ताकि लोग फुर्सत के कुछ पल मस्ती में बिता सकें...ज़रूरी है यह भी बहुत ही ..







 इस तरह के त्योहारों पर अकसर मेलों तीज त्योहारों के अपने दौर के फिल्मी गीत भी अकसर याद आ जाते हैं.. शायद आप भी इसे बहुत बरसों बाद सुन रहे होंगे.....



गुरुवार, 28 जनवरी 2016

लखनऊ महोत्सव ...१


आज सुबह लखनऊ महोत्सव की तरफ़ जाने की इच्छा हुई..घर के बिल्कुल पास ही में है। वहां पर कुछ तस्वीरें लीं जो यहां इस पोस्ट में शेयर कर रहा हूं...ज्यादा बातें नहीं करूंगा...आज सुबह ही किसी पेपर से यह ज्ञान हुआ है कि बातें कम करनी चाहिए... 



इस जोनल पार्क में मैं जैसे ही बिजली पासी किले की तरफ़ से दाखिल हुआ तो यह टॉवर देख कर हैरानी हुई...दूर से देख कर यही लगा कि इतने कम समय में इतना बड़ा टॉवर कैसे तैयार हो गया। हैरानगी हो रही थी ...लेकिन जैसे जैसे मेैं इस के पास पहुंचता चला गया, वह हल्की फुल्की उत्सुकता में बदलती गई...ऐसा लगने लगा कि यह कोई माडल होगा...

स्वस्थ भारत मिशन कार्यक्रम के अंतर्गत जगह जगह पर देखा कि सुलभ इंटरनेशनल ने इस तरह के कूड़ादान तो रखे ही हैं, साथ में सामाजिक संदेश भी लगा दिये हैं...साधुवाद।
मुझे पिछले दो वर्षों से इस लखनऊ महोत्सव में जाने का मौका मिल रहा है...मुझे वहां जाना और टहलना-घूमना अच्छा लगता है लेकिन एक समस्या तो बहुत थी ... हर तरफ़ मिट्टी के गुब्बार उड़ा करते थे... इस मिट्टी की वजह से आने वाले लोगों का हाल बेहाल हुआ करता था...लेिकन मैं देख रहा था पिछले कुछ महीनों से कि इस बार की तैयारियों में यहां इस मैदान में सड़कें तैयार की जा रही थीं..इसलिए अगर आप मिट्टी के गुब्बार से डर रहे हैं तो अब की बार ऐसी कोई बात है ही नहीं।
केवल सड़कें ही नहीं, अब यहां पर पार्किंग की भी कोई समस्या नहीं होगी क्योंकि पार्किंग स्थल को बहुत ही व्यवस्थित कर दिया गया है। अगर आप अपने वाहन पर आ रहे हैं तो आप के लिए उस को पार्क करने का कोई झंझट नहीं होगा।

जिस जगह पर भी  वृद्ध जनों या दिव्यांग जनों के लिए कुछ विशेष सुविधा रहती है, उसे देखना ही अपने आप में एक सुखद अहसास रहता है। हरेक का मन होता है कि मेलों में जा कर रौनक-मेले का आनंद लिया जाए।
कुछ लोगों ने आग तापने का ऐसा बढ़िया जुगाड़ कर रखा था..

खाने पीने के बहुत से स्टाल...हर तरह का खाना...बिरयानी, लखनवी कबाब..भेल पूरी और पता नहीं क्या क्या...हां, पिछली बार की मेरठ की खताईयां नहीं भूली अभी भी...

इस महोत्सव में पुस्तक मेले का आयोजन तो है ही, शायद रोज़ाना साहित्यिक संगोष्ठियां भी हुआ करेंगी...जैसा कि इस पंडाल से पता लग रहा है. वहां पर मौजूद स्टॉफ से इस के बारे में पूछा तो उसे इस के बारे में कोई जानकारी नहीं थी।



इस टावर के बिल्कुल पास जाने से ही इस भेद से परदा खुल गया....


  मेरे फेवरेट रेडियोसिटी का भी अड्डा तैयार हो चुका है।



इस महोत्सव का यह मेन हाल है ....इस में हज़ारों लोगों के बैठने की सक्षमता है।


जब मैं इस महोत्सव स्थल में घुसा तो पता चला कि अभी तो विभिन्न स्टालों वाले अपनी अपनी दुकानें सजाने में जुटे हैं... होता है शुरूआती एक दो िदन तो किसी भी आयोजन को गर्म होने में लग जाते हैं... वैसे कल इस महोत्सव की शुरूआत हो चुकी है.. और शायद यह अगली ७ फ्रेबुवरी तक चलेगा...

अच्छा लगता है...मेले यूं ही लगते रहें, लोग जश्न मनाते रहें, आपस में प्रेम से रहें, सद्भाव बनाए रखें....यही जीवन है... इसी बात पर मुझे मेला फिल्म का यह गीत ध्यान में आ गया...यह नई वाली मेला फिल्म है...