शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

लखनऊ महोत्सव की दूसरी शाम - एक रिपोर्ट




कल मैंने लखनऊ महोत्सव के बारे में पहली पोस्ट लिखी तो मुझे कुछ मित्रों ने फोन किया, मैसेज किया कि यार, तुम्हारी पोस्ट में बढ़िया पार्किंग व्यवस्था का ज़िक्र तो है, कोई प्रूफ तो दिखा नहीं...मैंने कहा कि प्रूफ़ शाम को जुटाऊंगा।


आज लखनऊ महोत्सव की दूसरी शाम थी... दो तीन घंटे वहां बिताने का मौका मिला..सब से पहले मैंने महोत्सव की बढ़िया पार्किंग का प्रूफ़ जुटाया... यहां पेश कर रहा हूं....बात है भी सही ..आजकल हम ने कहीं जाना है या नहीं, पार्किंग की सुगमता या दुर्गमता ही यह तय करती है...लेकिन आप भरोसा रखिए, बिना किसी परेशानी के आप को पार्किंग की सुविधा उपलब्ध हो जायेगी। 

मुख्य पंडाल में गीतों का प्रोग्राम चल रहा था, मैंने साथ बैठे सज्जन से पूछा कि यह गायिका कौन हैं..उन्हें भी शायद पक्का नहीं पता था, कहने लगे शायद श्रुति पाठक। अचानक मुझे अहसास हुआ कि मेरा सामान्य ज्ञान औसत से भी निचले स्तर का है। 

श्रुति पाठक ने अपनी मदमस्त आवाज़ से पापुलर हिंदी फिल्मी को गा कर श्रोताओं का मन जीता...कुछेक जिन का मुझे ध्यान आ रहा है... एह दुनिया पित्तल दी, आ जा फोटो मेरी खींच, कल हो ना हो...हर पल यहां जी भर जिओ, इतना मज़ा आ रहा है (jab we met!) ...अभी मुझ में बाकी है थोड़ी ज़िंदगी, हाय हाय नशा है ज़िंदगी मज़ा है.. और एक गीत काय पोचे फिल्म से भी....यंगस्टर्स भी खूब एंज्वाय कर रहे थे..

मैं ये गीत सुनते हुए यही सोच रहा था कि ये सभी गीत श्रुति ने ही गाये होंगे .....लेकिन नहीं, यू-ट्यूब से देखा तो पता चला कि ऐसा नहीं था.. बहरहाल, श्रुति ने भी बेहतरीन गीत गाये हैं... उन में से एक दो गीतों को यहां एम्बेड कर रहा हूं.. 




अपने प्रोग्राम के आखिरी हिस्से में श्रुति ने बच्चों और युवाओं को स्टेज पर बुला लिया... एक बात जो मैंने नोटिस की .. ये सब स्कूली बच्चे एवं युवा श्रुति के साथ गा रहे थे, डांस कर रहे थे और साथ में अपने अपने मोबाइल से श्रुति के साथ शेल्फी भी लेने की पूरी कोशिश कर रहे थे....सच में आज का युवा भी बिना वजह बड़ा load ले रहा है...एक समय में एक काम कर ही नहीं पाता!

एक पते की बात शेयर करनी तो भूल ही गया मैं....महोत्सव स्थल में जाते ही यह खबर पता चली कि अब लखनऊ महोत्सव धूम्रपान रहित कर दिया गया है .....पढ़ लिया जी मैंने भी उस नोटिस को....कुछ विचार आए मन में, लिखने वाले नहीं हैं......लेिकन आज सुबह पता चला गया कि इस नियम का कितनी कठोरता से पालन किया गया....सराहनीय पहल। दरअसल हम लोग बिना दंड के किसी की सुनते ही कहां हैं!

श्रुति पाठक के बाद स्टेज पर आईं स्थानीय लोकगीत गायक वंदना मिश्रा...इन्होंने भी अपनी कला से सभी दर्शकों को खुश कर दिया... इसे लिखते यही सोच रहा हूं कि यहां लखनऊ आने से पहले मुझे इन गीतों की समझ नहीं आती थी, लेकिन अब अच्छे से समझ आने लगी है .. जैसा देश वैसा भेष... इन्होंने जो गीत गाए और जिन्हें दर्शकों के हुजूम ने बेहद पसंद किया वे थे.... 



हमरी गुलाबी चुनरिया हम का लागे नजरिया, ले चलो पटना बाज़ार जिया न लागे घर मा... और फगुनवा मा रंग रच रच बरसे....आज सुबह मैं यू-ट्यूब पर देख रहा था तो ये वहां भी दिख गये... फगुनवा वाला गीत तो मालिनी अवस्थी का गाया हुआ ही दिख गया... आप भी सुनिएगा... मुझे वहां बैठे ऐसे लग रहा था कि जैसे पंजाबी लोकसंगीत में गुरदास मान, वड़ाली बंधु...हंस राज हंस, बिट्टी का रुतबा है, वही स्थान भोजपुरी और अवधी लोकगीत-संगीत में इन कलाकारों का है। निःसंदेह ये महान कलाकार हमारी लोकसंस्कृति की जड़ों को सींचने का काम कर रहे हैं....इन की अनूठी कला को हमारा सलाम!

मालिनी अवस्थी का गीत यू-ट्यूब पर सुनते हुए राहत फतेह अली खां दिख गये तो उन का बहुत पापुलर गीत भी आप तक पहुंचाना तो बनता ही है ... गुम सुम गुम सुन प्यार दा मौसम... हुन नां दर्द जगावीं...इसे मैं हज़ारों नहीं तो भी सैंकड़ों बार तो सुन चुका हूं ..... and i never get tired of listening to this melody! 

विपुल आर जे रेडियो मिर्ची 
कत्थक नृत्य 
श्रीसारंगी द्वारा प्रस्तुत ओडिशी नृत्य 
कुछ समय के बाद मंच का संचालन करने रेडियो मिर्ची के आर जे विपुल पहुंच गये...with his great initimable style to mesmerize the audience!. ...कल कार्यक्रम मे सुरभि सिंह द्वारा निर्देशित कथक नृत्य भी देखने को मिला और दिल्ली से आई ७-८ साल की श्री सारंगी ने ओडिशी नृत्य से दर्शकों का मनोरंजन किया... मैं वहां बैठा यही सोच रहा था कि स्कूली स्तर पर ही हमें विद्यार्थीयों को इन सांस्कृतिक धरोहरों के बारे में बताना चाहिए... this all must be a vital part of holistic education! 



दादी का सेल्यूट 
अब बारी थी ... कपिल की दादी (अली असगर) और गुत्थी (सुनील ग्रोवर) की ...उन्होंने हंसाया भी और लड़कियों को पूरा लंदन ठुमकदा वाले गीत पर डांस करने के गुर भी सिखाए.....इन दोनों को लखनऊ के एसएसपी श्रीं पंाडेय द्वारा सम्मानित भी किया गया... वैसे उस समय मेरे मन में भी कुछ ऐसे विचार आ तो रहे थे, लेकिन आज अखबार में भी वे दिख गये... 

बस, अब छुट्टी करते हैं .. कुछ फोटो लगा के...जिस से पता चल रहा है कि त्योहार का माहौल चल रहा है .. बिल्कुल गांव के मेलों जैसा भी बहुत कुछ ...वही खिलौने, वही खेल....बहुत कुछ वही का वही ...एक विचार यह भी कल आ रहा था कि इस तरह के त्यौहार देश के हर शहर, हर कसबे में लगने चाहिए..... ताकि लोग फुर्सत के कुछ पल मस्ती में बिता सकें...ज़रूरी है यह भी बहुत ही ..







 इस तरह के त्योहारों पर अकसर मेलों तीज त्योहारों के अपने दौर के फिल्मी गीत भी अकसर याद आ जाते हैं.. शायद आप भी इसे बहुत बरसों बाद सुन रहे होंगे.....



गुरुवार, 28 जनवरी 2016

लखनऊ महोत्सव ...१


आज सुबह लखनऊ महोत्सव की तरफ़ जाने की इच्छा हुई..घर के बिल्कुल पास ही में है। वहां पर कुछ तस्वीरें लीं जो यहां इस पोस्ट में शेयर कर रहा हूं...ज्यादा बातें नहीं करूंगा...आज सुबह ही किसी पेपर से यह ज्ञान हुआ है कि बातें कम करनी चाहिए... 



इस जोनल पार्क में मैं जैसे ही बिजली पासी किले की तरफ़ से दाखिल हुआ तो यह टॉवर देख कर हैरानी हुई...दूर से देख कर यही लगा कि इतने कम समय में इतना बड़ा टॉवर कैसे तैयार हो गया। हैरानगी हो रही थी ...लेकिन जैसे जैसे मेैं इस के पास पहुंचता चला गया, वह हल्की फुल्की उत्सुकता में बदलती गई...ऐसा लगने लगा कि यह कोई माडल होगा...

स्वस्थ भारत मिशन कार्यक्रम के अंतर्गत जगह जगह पर देखा कि सुलभ इंटरनेशनल ने इस तरह के कूड़ादान तो रखे ही हैं, साथ में सामाजिक संदेश भी लगा दिये हैं...साधुवाद।
मुझे पिछले दो वर्षों से इस लखनऊ महोत्सव में जाने का मौका मिल रहा है...मुझे वहां जाना और टहलना-घूमना अच्छा लगता है लेकिन एक समस्या तो बहुत थी ... हर तरफ़ मिट्टी के गुब्बार उड़ा करते थे... इस मिट्टी की वजह से आने वाले लोगों का हाल बेहाल हुआ करता था...लेिकन मैं देख रहा था पिछले कुछ महीनों से कि इस बार की तैयारियों में यहां इस मैदान में सड़कें तैयार की जा रही थीं..इसलिए अगर आप मिट्टी के गुब्बार से डर रहे हैं तो अब की बार ऐसी कोई बात है ही नहीं।
केवल सड़कें ही नहीं, अब यहां पर पार्किंग की भी कोई समस्या नहीं होगी क्योंकि पार्किंग स्थल को बहुत ही व्यवस्थित कर दिया गया है। अगर आप अपने वाहन पर आ रहे हैं तो आप के लिए उस को पार्क करने का कोई झंझट नहीं होगा।

जिस जगह पर भी  वृद्ध जनों या दिव्यांग जनों के लिए कुछ विशेष सुविधा रहती है, उसे देखना ही अपने आप में एक सुखद अहसास रहता है। हरेक का मन होता है कि मेलों में जा कर रौनक-मेले का आनंद लिया जाए।
कुछ लोगों ने आग तापने का ऐसा बढ़िया जुगाड़ कर रखा था..

खाने पीने के बहुत से स्टाल...हर तरह का खाना...बिरयानी, लखनवी कबाब..भेल पूरी और पता नहीं क्या क्या...हां, पिछली बार की मेरठ की खताईयां नहीं भूली अभी भी...

इस महोत्सव में पुस्तक मेले का आयोजन तो है ही, शायद रोज़ाना साहित्यिक संगोष्ठियां भी हुआ करेंगी...जैसा कि इस पंडाल से पता लग रहा है. वहां पर मौजूद स्टॉफ से इस के बारे में पूछा तो उसे इस के बारे में कोई जानकारी नहीं थी।



इस टावर के बिल्कुल पास जाने से ही इस भेद से परदा खुल गया....


  मेरे फेवरेट रेडियोसिटी का भी अड्डा तैयार हो चुका है।



इस महोत्सव का यह मेन हाल है ....इस में हज़ारों लोगों के बैठने की सक्षमता है।


जब मैं इस महोत्सव स्थल में घुसा तो पता चला कि अभी तो विभिन्न स्टालों वाले अपनी अपनी दुकानें सजाने में जुटे हैं... होता है शुरूआती एक दो िदन तो किसी भी आयोजन को गर्म होने में लग जाते हैं... वैसे कल इस महोत्सव की शुरूआत हो चुकी है.. और शायद यह अगली ७ फ्रेबुवरी तक चलेगा...

अच्छा लगता है...मेले यूं ही लगते रहें, लोग जश्न मनाते रहें, आपस में प्रेम से रहें, सद्भाव बनाए रखें....यही जीवन है... इसी बात पर मुझे मेला फिल्म का यह गीत ध्यान में आ गया...यह नई वाली मेला फिल्म है...

गुरुवार, 21 जनवरी 2016

ई-चौपाल से खबरिया ..१

स्कूल के दिनों में मेरे लिए लाइब्रेरी पीरियड का बहुत महत्व था...मुझे लाइब्रेरी में हिंदी और अंग्रेज़ी के समाचार पत्रों से पांच छः खबरों के शीर्षक एक कागज़ पर नोट करने होते थे...इस बात की मुझे पूरी आज़ादी थी कि मैं किस खबर के शीर्षक को लिखूं, किसे रहने दूं..याद नहीं कि कभी किसी भी टीचर में कोई भी हस्ताक्षेप किया हो। फिर उन खबरों को स्कूल के ब्लैक-बोर्ड पर जो स्कूल के कंपाउंड में था...उन पर गीले चॉक के साथ लिखना होता था...इस सारे काम में आधा घंटा लग जाता था...लेकिन अच्छा लगता था...अच्छा नहीं, बहुत ही अच्छा लगता था, एक खास तरह की फीलिंग हुआ करती थी कि यार, अपने लिखे को रिसैस में इतने सारे लड़के आते जाते पढ़ रहे हैं.. यह छठी-सातवीं-आठवीं कक्षा की बातें हैं... उस के बाद मेरा प्रमोशन हो गया ...मैं स्कूल की पत्रिका अरूण का छात्र संपादक नियुक्त कर दिया गया। 

कुछ दिन पहले अपने स्कूल के एक साथी से बात हो रही थी ..रमन बब्बर का मुझे एक व्हाट्सएप ग्रुप से पता चला ..लगभग ३५ वर्षों के बाद .. उसने भी सब से पहले वही ब्लैक-बोर्ड पर खबरें लिखने वाली बात को याद दिलाया। 

मैं कल सोच रहा था कि अब स्कूल के उन दिनों को बीते हुए भी चालीस वर्ष होने वाले हैं, लेिकन कभी कभी ध्यान कुछ वैसा ही करने का हो जाता है.. कईं बार... वैसे आपने भी नोटिस किया होगा कि हर दिन कुछ खबरें हम ऐसी देख-सुन और पढ़ लेते हैं जो हमारे मन को उद्वेलित करती हैं..हम उन्हें आगे शेयर करना चाहते हैं.. उन पर रिएक्ट करना चाहते हैं ...उन के बारे में अपने विचारों से दूसरों को रू-ब-रू करवाना चाहते हैं ...हां, वे विचार अच्छे, बुरे, नैतिक, अनैतिक, वाजिब-गैर वाजिब कुछ भी हो सकते हैं, लेिकन परवाह नहीं क्योंकि वे विचार अपने व्यक्तिगत हैं...

दरअसल गांव-कसबों की चौपालों पर यही कुछ तो हुआ करता था... यही ओपिनियन मेकिंग के अड्डे हुआ करते थे.. जाने अनजाने में ... सब लोग कुछ न कुछ --पढ़े, गुढ़े और अनपढ़े ---सब कुछ न कुछ सीख पा लिया करते थे...जहां पर एक अदद अखबार को बीसियों लोगों द्वारा पूरी तरह से चबा लिया जाता है शाम तक .. लेिकन अब अपनी बात आगे भेजने को मेरे जैसे pseudo-intellactuals के पास ब्लॉगिंग के अलावा कोई माध्यम है नहीं ... शायद और कुछ सीखने की कोशिश की भी नहीं।  

बहरहाल जो भी अच्छा लगा, बुरा लगा दिन भर की खबरों में ...सोच रहा हूं कभी कभी इस का तप्सरा भी पेश कर दिया जाना चाहिए... एक बार लिख देने से छुट्टी हो जाया करेगी, वरना वही खबरें दिन भर उद्वेलित किए रहती हैं। चलिए, आज ही से शुरूआत किए देते हैं..

कल पेपर से पता चला कि दूध भी पॉलीथिन पैक में नहीं मिलेगा... आज से यहां यू पी में पॉलीथिन पर प्रतिबंध लग रहा है... मुझे यह खबर बड़ी सुखद लगी ..कम से कम अब हम लोग अपने थैलों को लेकर तो चला करेंगे...प्लास्टिक ने तो जैसे हम लोगों की ज़िंदगी में ज़हर घोल दिया है... यह खबर मैंने पढ़ी तो मुझे यह जान कर दुःख हुआ कि इस का विरोध करने वाले अभी से डट गये हैं... पूछ रहे हैं, पानी के पाउच भी तो बंद होने चाहिए.....अरे भाई, सरकार कुछ बढ़िया काम कर रही है, शुरूआत तो होने दो यारो, वे पाउच भी बंद हो जाएंगे... लेकिन कहीं से शुरूआत तो करनी होगी... इस के लिए प्रदेश सरकार को बहुत बहुत बधाईयां ... 

कल के ही अखबार में एक यह भी व्यंग्य दिख गया...लिखने वाली स्याही, फेंकने वाली स्याही ... आप भी पढ़िए... मैं राजनीतिक बात कभी नहीं करता ... कुछ अनुभव नहीं है, न ही हो तो ठीक हो....लेिकन जिस तरह से एक महिला ने केजरीवाल पर स्याही फैंकी, मुझे उस औरत की यह हरकत बेहद बेहूदा लगी ....कोई परेशानी है, कोई कष्ट है तो प्रजातांत्रिक तरीकों से उसे बताएं.... कलम का इस्तेमाल करिए....यह तो कोई बात न हुई कि किसी के ऊपर स्याही गिरा दी.....बेवकूफ़ाना हरकतें..इन का प्रजातंत्र में कोई स्थान नहीं है।

एक और खबर जो मैं शेयर करना चाहता हूं वह यह है कि अब यू पी की जेलों में कैदियों को छोला भटूरा और दूध भी मिलेगा...मुझे लगता है कि जेलों और वहां के खाने के बारे में जो हम लोगों के मन में एक तस्वीर है वह अधिकतर हिंदी मसाला फिल्मों की बनाई हुई है जिस में अमिताभ बच्चन किसी जेल अपनी एल्यूमीनियम की प्लेट में मोटे चावल और दाल डलवाने पहुंचता है तो किसी १० नंबरी से उस का पंगा हो जाता है और उसे कहना पड़ता है कि जहां हम खड़े होते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है... फिर वह खतरनाक कैदी उस एल्यूमीनियम की प्लेट को दोहरा कर के अपनी शक्ति का परिचय देता है ... बस, आगे तो आप जानते ही हैं कि फिर कैसे अपना हिंदी फिल्म का हीरो उसी प्लेट से उस के सिर पर वार कर के उसे सबक सिखा देता है.. और जिस तरह का खाना कैदियों को उन की कोठरियों में पहुंचाया जाता है, उसे देख कर प्रेमरोग की बालविधवा पद्मिनी कोल्हापुर की खाने की प्लेट का ध्यान आ जाता है...
लेकिन कल पता चला कि अब यह स्थिति इतनी निराशाजनक नहीं है... तिहाड़ जेल में परोसे जा रहे व्यंजनों की तर्ज पर अब सूबे की जेलों में भी भोजन मिलेगा। बूंदी, दूध-जलेबी और छोले-भटूरे भी खाने को मिलेंगे, उबला अंडा भी मिलेगा..


मुझे यह खबर पढ़ कर बहुत खुशी हुई... लेकिन एक बार लगा कि शायद यह ऐसा इसलिए हो पाया क्योंकि अब बहुत बड़े बड़े नामचीन लोग भी तो जेलों में बंद हैं.....वैसे जो भी हो, बहाना कोई भी हो, सभी बंदियों का इस में फायदा है...वैसे भी ह्यूमन राईट्स का मामला है यह ....सजाएं चलती रहेंगी ...लेकिन अगर थोड़ा खाना ठीक ठाक हो, पौष्टिक हो तो बहुत ही अच्छा है....बहुत अच्छा कदम है यह। 


इतना तो मैं अच्छे से जानता हूं कि अब लखनऊ में सुबह-शाम के वक्त कहीं जाना सेहत के लिए बहुत खराब है, लेिकन पर्यावरण की स्थिति इतनी दयनीय है, वह मैंने इस खबर से जाना... इस का असर यह हुआ कि कल मैंने जब शाम छःबजे एक युवक को जेल रोड पर जॉगिंग करते देखा तो मैंने रुक कर उसे समझाया कि भाई, इस समय इतनी बिज़ी रोड़ पर इस व्यायाम से फायदा तो होगा नहीं, बल्कि नुकसान हो जायेगा...दो मिनट बात की, समय और जगह का सही इंतिख़ाब करने की उसे मुफ्त में नसीहत बांट दी .....बंदा पढ़ा लिखा था, समझ गया तुरंत। 




के सी त्यागी नाम के एक नेता हैं, मुझे इन के बारे में बस इत्ता पता है कि ये रवीश कुमार के प्राइम टाइम में या अन्य टीवी के प्रोग्रामों में अपनी बात बड़े अच्छे ढंग से रखते हैं... एकदम सटीक... जब मैं जीएम क्राप्स पर इन के इस लेख को पढ़ रहा था तो मुझे अचानक ध्यान आ गया कि आज कल बहुत सी सब्जियां तो बाज़ार में एक ही आकार की, एक ही साइज़ की बिल्कुल ऐसे बिक रही होती हैं..जैसे खेत में नहीं, किसी फैक्ट्री में तैयार हुई हों...कल चारबाग पुल से गुज़रते हुए मैंने जब भीमकाय पपीते देखे ...लगभग तरबूज जैसे-- तो पहले तो मुझे हंसी आई ...फिर चिंता हुई कि अब पता नहीं ये पपीते कौन सा मुसीबतों का पहाड़ लेकर आएंगे......वे सामान्य तो हो नहीं सकते, इतने जम्बो साइज़ के पपीते देखे तो पहले भी हैं दो तीन बार.....लेकिन सोचने वाली बात है कि अगर ये जम्बो साइज़ के पपीते पेड़ों पर ही उगते हों तो सच में पेड़ की जान ही ले लें! मुझे लगता है कि पेड़ों से तो इन्हें समय पर ही उतार लिया जाता होगा....बाकी की कारीगिरी नीचे ही होती होगी..अगर हो सके तो इस तरह के सुपर-डुपर पपीतों से परहेज़ ही करिएगा। 

लेिकन त्यागी जी की बातें बहुत बढ़िया लगी इस लेख में ...जैसे उन्होंने गागर में सागर भर दिया हो ...अच्छे से यह समझा दिया पाठकों को कि जी एम फसलें (genetically modified crops) का कितना बड़ा नुकसान है, सेहत पर भी और पर्यावरण को भी। 

कल लखनऊ में एक चौराहे पर यह पोस्टर दिख गया... सस्ते मूल्य के सैनेटरी नेपकिन का उपयोग बढ़ाने के लिए उत्पादन वृद्धि पर जोर दिया जा रहा है ..यह अच्छी पहल है क्योंकि इस तरह के उत्पादों का सस्ता एवं सुगमता से न मिल पाना बीमारियां पैदा करने में जिम्मेदार तो है ही ..बहुत ही छात्राएं स्कूल जाना ही इन सब के न उपलब्ध होने की वजह से छोड़ देती हैं....यह काम बहुत सराहनीय शुरू किया गया है। 

                                        डिंपल यादव की यह पहल काबिले-तारीफ़ है..

इसी बात पर एक सुंदर से वीडियो का ध्यान आ गया...

बुधवार, 20 जनवरी 2016

परीक्षक भी फर्जी होते हैं..

मुझे अच्छे से याद है कि बचपन में हमें लगता था कि सब से बड़े फ्रॉड वही लोग होते हैं जो लोगों की कमेटियां लेकर कहीं गायब हो जाते हैं ..कमेटियां यानि चिट-फंड चलाने वाले लोग .. फिर थोड़े बड़े हुए तो पता चला कि नटवर लाल ने भी बहुत से कारनामे किए हैं। फिल्मों में तो चोरी, डकैती, धोखाधड़ी देखते ही रहते थे.

अब तो लगने लगा है जैसे कि धुरंधर नटवरलाल हमारे आस पास ही फैले हुए हैं...हर तरह की जालसाजी, फर्जीवाड़ा, धोखाधड़ी नये नये रूप में सुबह आंख खुलते ही अखबार में देखने को मिल जाती है।

मुन्ना भाई एमबीबीएस ने एक रास्ता दिखा दिया हो जैसे देश को कि अगर नकल करने का हुनर है तो बड़ी से बड़ी परीक्षा को क्लियर करना भी बाएं हाथ का खेल है...मध्यप्रदेश के व्यापम् घोटाले ने देश को हिला कर रखा हुआ है...आए दिन उस से संबंधित या उस की बात करने वाले की मौत की खबर देख-सुन लेते हैं...अभी भी निरंतर परीक्षाओं में परीक्षार्थी की जगह किसी दूसरे के द्वारा परीक्षा में बैठे जाने की खबरें आती ही रहती हैं..दो दिन पहले पढ़ा कि रेल के आर पी एफ की एक आई जी की पत्नी के पर्स से ट्रेन के फर्स्ट क्लास ए.सी कोच से एक लाख से ज़्यादा रकम निकल गई...

अब तो बस वह कहावत ही सच होनी रह गई है जिस में कहते हैं कि किसी की आंखों से काजल चुराना...फिर यह भी लगता है कि ये तो लेखक के मन की उड़ान है, अगर काजल में भी चुराने जैसा कुछ होता तो यह भी ज़रूर चुरा ही लिया जाता। वैसे हाल ही की फिल्मों की बात करें तो अनुपम खेर की सुपर २६ ने अच्छे से समझा दिया कि फर्जी सी बी आई या फर्जी इंकम टैक्स की टीम कैसे छापा मारती है!

अच्छा, भूमिका तो ठीक ठाक हो गई िदखे है...अब असली बात कर ली जाए। कल मैंने अखबार उठाया तो देखा कि कोई फर्जी परीक्षक जा कर कहीं पर स्कूली छात्रों का कैमिस्ट्री का प्रेक्टीकल ले आया....मैंने इसे इतनी गंभीरता से लिया नहीं ...सोचा पहले दूसरी खबरें देख ली जाए।

इस फर्जी परीक्षक के बारे में फिर से पढ़ा .... पढ़ते पढ़ते यही लगा कि ऐसे ही कोई मजाक-वाक कर दिया होगा किसी ने .. मसखरा होगा कोई ...वरना कोई ठीक ठाक आदमी क्यों इस तरह के चक्कर में पड़ेगा ...बस, अच्छी मेहमान नवाज़ी के चक्कर में ... आप को भी याद होगा कि जो परीक्षक हमारी भी परीक्षाएं लेने आया करते थे हमारे स्कूल कालेज वाले उन की भी सेवा-सुश्रुषा जमाई राजा की तरह किया करते थे... हमें झल्लाहट हुआ करती थी कि हमें सॉल्ट का पता नहीं चल रहा और इस बंदे का ध्यान बस बर्फी की प्लेट खाली करने पर ही है।

इस मेहमान-नवाजी के लिए बस एक बार स्कूल में हम से हमारे पी टी मास्टर ने सब से पैसे ऐंठे थे .. यही पांच दस बीस ही होंगे .. सच में अभी याद नहीं है...साफ साफ मॉनीटर ने कहा था कि फिजिकल एजेकेशन के प्रैक्टीकल में पूरे अंक मिल जाएंगे, इन पैसों से एक्सटर्नल परीक्षक की सेवा होनी है... पढ़ाई के मैदान में शायद वह पहली और आखिरी सौदीबाजी थी।

अच्छा तो मैं कल की अखबार की बात कर रहा था फर्जी परीक्षक की ... सारा दिन मेरे दिमाग में बात घूमती रही .. यह भी पता चला कि वह तो पहले भी चार पांच स्कूलों में प्रैक्टीकल की परीक्षाएं ले चुका है ...और इस के साथ ही एक दूसरे फर्जी परीक्षक के बारे में भी पढ़ा...मन में बात घूमती रही ... यह भी और एक और भी ...एक तो मैंने आप से शेयर कर दी, दूसरी मैंने केवल अपने सहयोगी (असिस्टेंट) से शेयर की ...उस ने भी खूब ठहाके लगाये...वह बात यहां शेयर नहीं कर सकता... अपने कुलीग्ज़ से भी मैं अकसर जो बातें शेयर नहीं करता, वह मैं अपने असिस्टैंट से कर लिया करता हूं...पूरे भरोसे के साथ।

दोपहर होते होते जब एक दूसरी अखबार हाथ में लगी तो जाकर पता चला कि ये फर्जी परीक्षक बन कर जाना भी केवल कचौड़ी-जलेबी या मक्खन मलाई के लिए ही नहीं होता... यह तो पूरा मामला ही मलाईदार है...जिस स्कूल में ये फर्जी परीक्षक जाते हैं वहां से हर छात्र के लिए १०० रूपये के हिसाब से वसूली करते हैं ताकि उन्हें अच्छे अंक दिला सकें.....अगर किसी स्कूल में २०० छात्र हैं तो हो गई २०००० की वसूली.....अगर प्रैक्टीकल परीक्षाओं के सीजन में आठ-दस स्कूल कवर कर लिए तो हो गया कुछ महीनों के गुजारे का जुगाड़।

थोड़ा यह भी लगता है कि १०-२० हज़ार के लिए इतना बड़ा जोखिम कैसे उठा लेते हैं ये युवक... फिर यह भी लगा कि क्या इस फर्जीवाड़े का सारा दोष बस इन के सिर पर ही मढ़ देने से काम चल जाएगा... नहीं ना, व्यवस्था में कहीं न कहीं तो ढीलापन होगा ही वरना डाकखाने में देखते हैं कि लोगों को अपने ही पैसे पर मासिक ब्याज के १३३० रूपये लेने में पसीने छूट जाते हैं कईं बार कि हस्ताक्षर नहीं मिल रहे, आई.डी लाओ, फोटो कापी लाओ, कोई साक्ष्य लाओ.....ऐसे में यू पी बोर्ड की शिक्षा प्रणाली कब से इतनी ढीली हो गई कि कोई भी जब चाहे जा कर किसी स्कूल में फर्जी परीक्षक बन कर टोपी पहना कर आ जाए।

उम्मीद है कि इन प्रकरणों की पूरी जांच होगी ताकि सच सामने आ जाए...बहुत बार सच सामने आ नहीं पाता.....हां, लीपापोती अच्छी हो जाती है बस।


ये तो हो गई बातें फर्जी परीक्षकों की ... लेकिन आदर्श अध्यापकों की बात भी आज करनी होगी... कुछ दिन पहले कैफ़ी आज़मी साहब की ९७ वीं जन्म जयंती के अवसर पर आल इंडिया कैफ़ी आज़मी एकेडमी द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में शिरकत करने का मौका मिला...शबाना आज़मी भी थीं...अच्छा लगा शबाना को सुनना .. जिसे फिल्मों में देखते देखते ही हम लोग बड़े हुए.. बेहतरीन अदाकारा... शबाना आज़मी ने बताया कि उन की फिल्म चाक एंड डस्टर रिलीज़ होने वाली है.. जो टीचर्ज़ के बारे में है....अखिलेश यादव ने भी जब अपनी बात रखी तो यह भी कहा कि अभी अभी इस फिल्म की यूपी में टैक्स मुआफ़ी की फाइल पर हस्ताक्षर करने के बाद इस कार्यक्रम में आया हूं......हां, एक बात तो बहुत बढ़िया मैं शेयर करना भूल ही गया कि उस प्रोग्राम में अखिलेश यादव और चीफ सैक्रेटरी जैसी शख्शियतों का पुष्प-गुच्छों से नहीं, गमलों में रोपे हुए तुलसी के पौधों से स्वागत किया गया... अच्छा लगा ....बहुत ही अच्छा....काश, हम लोग कम से कम इस एक बात को ही अपना लें।

जी हां, पहले ही दिन चॉक एंड डस्टर फिल्म देखने का अवसर मिला.....मुझे बहुत पसंद आई....मैंने भी अपने स्कूल के टीचर्ज़ को इसी बहाने फिर से याद कर लिया...बेहतरीन फिल्म......आप भी देखिए ज़रूर और बच्चों को भी ज़रूर दिखाइएगा....इस तरह की सार्थक फिल्में वैसे भी आज कल कम ही दिखती हैं...

चलिए, चॉक एंड ड्स्टर फिल्म का एक छोटा सा ट्रेलर ही देख लेते हैं..


शबाना आज़मी का बातें हुई और जावेद अख्तर का नाम नहीं आए, हो नहीं सकता....उन की कही एक बात को यहां शेयर कर रहा हूं... मन को छू गई...

गुरुवार, 14 जनवरी 2016

मधुबन खुशबू देता है ...

बड़े शहरों में जब मैंने पहली बार देखा कि वहां पर मेन रास्तों पर लगी ऊंची ऊंची स्ट्रीट लाइटों की साफ़ सफ़ाई या मुरम्मत के लिए एक ट्रक के ऊपर बड़ी सी सीड़ी लगाई जाती है, मुझे हैरानगी हुई थी...अब तो लखनऊ की मुख्य सड़कों पर भी यह सब दिखता रहता है ..बंबई में अकसर देखा करता कि सड़क किनारे या बीच में डिवाईडर पर लगे पेड़ों की छंटाई भी इस तरह से ही की जाती थी...वहां तो यह सब नियमित चलता ही है क्योंकि डबल-डेकर बसों की मूवमेंट के लिए ऐसा नियमित करना ही पड़ता है...

कटाई-छंटाई तो देख ली, समझ में आ गया लेकिन मैंने कभी इस के बारे में ज़्यादा नहीं सोचा कि इन को नियमित कौन पानी देता होगा!

इस के बारे में मेरी यही बचकानी सोच हमेशा से रही कि हो जाते होंगे, एक बार पौधे रोप दिए जाएं, जानवरों से बचाने के लिए ट्री-गार्ड्स् लगा दिए जाएं तो पौधे अपने आप पल्लवित-पुष्पित हो ही जाते होंगे... बिल्कुल होंगे वाली ही बात थी.. मैं यही सोचा करता था कि जब पानी बरसता है तभी इन की भी प्यास बुझ जाती होगी और ये धुल भी जाते होंगे ...उन दिनों पानी से धुल कर इन के चमकते-दमकते पत्ते मन को बहुत भाते हैं।

अकसर हम देखते हैं कि शहर के कुछ मेन चौराहे या तिराहे आदि होते हैं उन्हें किसी न किसी सरकारी या गैर-सरकारी संगठन ने गोद लिया होता है ... वे वहां पर अपने विज्ञापन लगा देते हैं...और उस जगह पर लगे सभी पेड़-पौधों और बेल-बूटियों का रख-रखाव का पूरा जिम्मा उन पर ही होता है ... बढ़िया सी लाल-हरी रोशनी भी वहां पर लगी होती है...it's fine ... Win-Win situation for both for the local civil authorities and the advertisers!

यह जो रास्तों पर पेड़ लगे होते हैं ..जिन पर किसी बैंक या किसी संस्था आदि के नाम की पट्टी लगी होती है, इन के बारे में बस इतना ही अनुमान जानता हूं कि वह संस्था इन जगहों पर विज्ञापन लगाने के लिए कुछ सरकारी शुल्क तो देती होगी ... क्या पता बस पेड़ ही लगा देती है...मुझे इस के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है...लेकिन कुछ तो शासकीय नियंत्रण होगा अवश्य।




कल शाम के समय मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी को जाने वाली रोड़ पर जा रहा था... बड़ी व्यस्त रोड है यह (कौन सी नहीं है!!) ...अचानक मेरा ध्यान गया इस लारी पर रखी इन बड़ी बड़ी टैंकियों पर .. वैसे तो मैं जल्दी में था, मुझे साईंस फिक्शन की एक वार्ता के लिए जाना था, लेकिन मैं वहां रुक गया... तभी मैंने देखा कि एक आदमी पाइप से सड़क किनारे लगे पौधों को बारी बारी से पानी दे रहा था ...


देख कर बहुत अच्छा लगा .. मैं यह मंज़र पहली बार देख रहा था ... इसलिए आप से शेयर करने का मन हुआ और ये तस्वीरें ले लीं....मुझे यही लगा कि देना बैंक के विज्ञापन इन ट्री-गार्ड्स पर लगे हैं तो यह सब रख-रखाव भी देना बैंक के जिम्मे ही होगा...

बस वह लारी ही नहीं चल रही थी, उस के साथ पाईप से हर पौधे को सींचने वाले वर्कर के साथ साथ तीन लोग और चल रहे थे ...एक तो साईकिल पर चलने वाले उन का कोई सुपरवाईज़र टाइप का बंदा था, दूसरा लाल झँड़ी लिए हुए था, पीछे से आने वाले ट्रैफिक को सावधान करने के लिए और एक तीसरा बंदा जो ड्राइवर से आवाज़ लगा कर संपर्क करता था कि अभी ठहरो और अभी आगे चलो...


अच्छा लगा यह देख कर कि कम से कम हम लोग बंदों की नहीं भी तो पेड़ों की तो परवाह करते हैं अभी भी .. बार बार कहा जाता है जितना पेड़ लगाना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी उन की देखभाल भी करना है.. लालफीताशाही के चक्कर में बहुत कुछ हो ही रहा है फाइलों में और होता भी रहेगा, लेकिन जो लोग निष्काम भाव से दिल से ये काम कर रहे हैं, उन को नमन करता हूं।

अभी मैं इस पोस्ट में ये फोटो लगाने के लिए इन्हें एडिट कर रहा था तो मेरा ध्यान गया कि यह काम सरकारी विभाग नहीं कर रहा, इस कोई गैर-सरकारी संस्था कर रही है... इस का नाम और फोन नंबर आप देख सकते हैं, अगर इन से संपर्क करना चाहें तो कर सकते हैं।


पेड़ों की बातें करना ...उन के बीचों-बीच रहना किसे अच्छा नहीं लगता, मुझे कुछ ज़्यादा ही पसंद है, लेकिन मैं इन के लिए बस कलम चलाने के अलावा कुछ करता नहीं हूं...मुझे बस इन भीमकाय छायादार पेड़ों के नीचे खड़े होकर फोटो खिंचवाना बहुत अच्छा लगता है .. इससे मुझे अपनी औकात और तुच्छता का अहसास रहता है!  लोग इन पेड़ों के प्यार में बहुत कुछ कर रहे हैं जैसे मैंने कुछ अरसा पहले फेसबुक पर भी इस वीडियो को शेयर किया था...


ये तो हो गये बड़े बड़े काम ...लेकिन आस पास अकसर हम देखते हैं कि लोगों को प्रकृति से बहुत प्रेम है...अपने अड़ोसी-पड़ोसियों के बाग बगीचों के बारे में तो लिखता ही रहता हूं ...अच्छे से लैंड-स्केपिंग करवाते हैं, फिर उन में छोटे छोटे फव्वारे और मन-लुभावन हरी-लाल लाइटें लगवाते हैं....शाम के वक्त टहलते हुए यह सब देख कर मन प्रफुल्लित होता है।


मुझे अभी ध्यान आया अपने सामने वाले घर में रहने वाले रिटायर्ड बुज़ुर्ग दंपति का ...ध्यान आया तो मैंने अभी यह तस्वीर ली ... ये दोनों विशेषकर महिला एक एक पौधे को रोज़ाना निहारती हैं, उन की देखभाल करती हैं जैसे उन से बतिया रही हों, मुझे देख कर बहुत अच्छा लगता है......आजकल ये लोग बाहर गये हुए हैं लेकिन इन के यहां काम करने वाली बाई इन पौधों को नियमित पानी देती दिख जाती है .. कहने का मतलब यही कि सब लोग अपनी अपनी साधना में जुटे हुए तो हैं..

हमेशा की तरह मुझे यह सुंदर गीत का ध्यान आ गया, इतना बढ़िया गीत ...बार बार याद आता है ...यसुदास की आवाज़ वजह से तो यह बेहद लोकप्रिय है है,  इस फिल्म की स्टोरी, इन महान कलाकारों ने, इस के संगीत ने....सब ने मिल जुल कर इस गीत को अमर बना दिया है ....अगर इसे सुनते हुए हम आंखें बंद कर लें तो यकीनन मेडीटेशन हो जाए ....मैं इस तरह के फिल्मी गीतों को भी एक भक्ति गीत या भजन से कहीं ज़्यादा ऊपर मानता हूं ... जीवन का उद्देश्य बता दिया हो जैसे गीतकार इंदिवर ने हम सब को ..इस तरह के गीत भी तो वही सभी बातें करते हैं जो हम सत्संग में सुनते हैं...सुनिएगा?....वैसे इस फिल्म साजन बिना सुहागिन की स्टोरी भी बड़ी टचिंग हैं...उद्वेलित करती है...उम्मीद है आपने ज़रूर देखी होगी! नहीं तो अभी देख लीजिए....a masterpiece indeed!

बुधवार, 13 जनवरी 2016

कल्लू मामा को सुनना एक्टिंग ग्रंथ पढ़ने जैसा

जब भी मौका मिलता है मुझे राज्य सभा के यू-ट्यूब चैनल पर गुफ्तगू जैसे कार्यक्रम देखना अच्छा लगता है ... दर्जनों एपिसोड देख चुका हूं।

सुबह की शुरूआत आज भी ऐसा ही एक एपिसोड देख कर की। राज्यसभा के चैनल पर दो दिन पहले सौरभ शुक्ला का इंटरव्यू अपलोड किया गया था। लगभग एक घंटे का एपिसोड था, लेिकन इसे देखते समय का पता ही नहीं चला।

इस गुफ्तगू को यहां एम्बेड किए दे रहा हूं, देखिएगा....इसे देखते हुए मैं यही सोच रहा था कि इन शख्शियतों की बातें सुन कर ऐसे लगता है कि जैसे आदमी एक्टिंग का कोई ग्रंथ पढ़ रहा है...इतनी सादगी और सब से बड़ी बात अपने मन की बात कहने में बरती गई इतनी ईमानदारी।


मैं हमेशा से ही सौरभ शुक्ला का बहुत बड़ा प्रशंसक रहा हूं..कभी भी किसी भी फिल्म में इन्हें देख कर लगा ही नहीं कि यह एक्टिंग कर रहे हैं, उस भूमिका में पूरी तरह ढल जाते हैं...कितनी ही फिल्में हैं जिन का ध्यान इस समय आ रहा है। सत्या में कल्लू मामा को हम कैसे भूल सकते हैं!

अभी पिछले साल ही मैंने एक फिल्म देखी थी ..जोली एल एल बी ....इस फिल्म में सौरभ शुक्ला ने एक जज की भूमिका निभाई थी....बेहतरीन काम किया था... बहुत अच्छा लगा था।



इन फ़नकारों की बात सुनने पर यही पता चलता है कि ये लोग भी जिस मुकाम पर पहुंचे हैं बड़े संघर्ष के बाद ही वहां तक जा पाए हैं...

मैं इन एपिसोड्स को देखना इसलिए पसंद करता हूं क्योंकि इन में ईमानदारी झलकती है...किसी बात पर भी ये लोग लीपापोती नहीं करते .. इसलिए यहां मन लग जाता है।



पता नहीं आज मैंने नोटिस किया और आज राज्यसभी चैनल को लिखूंगा भी कि कईं बार इस तरह के कार्यक्रम कुछ नीरस लगने लगते हैं...कंटैंट की बात नहीं कर रहा हूं..वह तो बेहतरीन है ही ...लेकिन राज्यसभी चैनल को लगता है अब प्रस्तुति के अंदाज़ में थोड़ा परिवर्तन करने की बहुत ज़रूरत है .....वर्तमान और भविष्य यू-ट्यूब का है और आज की पीढ़ी का भी ध्यान रखते हुए .. अन्यू विजुएल एलीमेंट्स ..जैसे कि इन महान फ़नकारों की फिल्मों के कुछ दुश्य अगर इस तरह के प्रोग्रामों में डाल दिए जाएं तो चार चांद लग जाते हैं.......वरना एक घंटे के लिए इस तरह के प्रोग्रामों को झेल पाना मुश्किल हो जाता है ऐसा तो नहीं कहूंगा.....शायद मेरी उम्र के लोग यह कर लेते हैं लेकिन फिर भी बिना किसी विजुएल के ये बोझिल से लगने लगते हैं ...१०-१५ मिनट बाद .....और यह बोझ इसलिए भी ज़्यादा लगने लगता है क्योंकि कोई एड-ब्रेक तो होती नहीं जो कि एक अच्छी बात है ...



कुछ फिल्में ऐसी हैं जो मैं केवल इसलिए देखता हूं क्योंकि उन में सौरभ शुक्ला ने काम किया है या संजय मिश्रा का काम देखने को मिलेगा....कल रात मुझे मसान फिल्म का यू-ट्यूब लिंक का मैसेज मिला... लगभग दो घंटे की फिल्म थी...बेहतरीन फिल्म लगी...सब के लिए कुछ न कुछ संदेश....सार्थक प्रस्तुति...संजय मिश्रा ने भी इस फिल्म में बहुत उमदा काम किया है....देखिएगा अगर कहीं से मिले तो ....वरना तो यू-ट्यूब का प्रिंट भी परफेक्ट है....

मैंने बस ऐसे ही इस फिल्म के बारे में कहीं से सुना था ...यही लखनऊ टाइम्स में या कहीं किसी चैनल पर ...लेकिन अफसोस यही है कि इन फिल्मों की इतनी पब्लिसिटी होती नहीं है ... फिल्म देखने पर अहसास हुआ कि इस तरह की फिल्में हमारे समाज के लिए कितनी ज़रूरी हैं, पुरानी रूढ़ियों पर चोट की गई है, नवयुवक किस तरह से गल्तियों की वजह से ज़िंदगी खराब कर लेते हैं, किस तरह से छोटे छोटे बच्चों का शोषण किया जाता है चंद सिक्कों के लिए...यह वाराणसी शहर की कहानी है...बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है यह कहानी और बहुत से प्रश्न छोड़ जाती है ...इस की कहानी मैं आप से शेयर नहीं करना चाहता क्योंकि इसे आप को स्वयं देखना चाहिए... यह आज की जेनरेशन की भी कहानी है .. something about their strengths and weaknesses!

सारी फिल्म देख ली, लेकिन मुझे मसान का अर्थ नहीं पता था... फिल्म के बाद डिक्शनरी में इस का मतलब देखा तो पता चला इस का शब्दार्थ है ...श्मसान घाट...फिर मुझे याद आया कि पंजाबी में भी कुछ इसी तरह की शब्द कहते तो सुना तो था कईं बार ...मसानां ...जिस का अर्थ तो पता था लेकिन मसान का सही अर्थ तो यह फिल्म देखने के बाद ही जाना .... देखिएगा यह फिल्म अपनी पहली फ़ुर्सत में...