बुधवार, 11 नवंबर 2015

सुबह सवेरे के किस्से---ऐसे ही!

सुबह सुबह ऐसे ही टहलने के बारे में पोस्ट लिखनी हो तो शीर्षक ही समझ में नहीं आती....तभी किसी हिंदी फिल्मी गीत की ये बोल ध्यान में आ गये..आज का यह दिन कल बन जायेगा कल...पीछे मुड़ के ना देख प्यारे आगे चल..प्यारे आगे चल!...पहले यही शीर्षक लिखा...फिर उसे बदल दिया।

अभी अभी टहल कर लौटा हूं...क्या है ना हमारे बहुत से मरीज़ ही मेरे जैसों को बातों बातों में सुबह सवेरे टहलने की इंस्पिरेशन दे जाते हैं...और एक बार जब आप किसी बाग में पहुंच जाते हैं तो वहां तो प्रेरणा ही प्रेरणा पाते हैं...बहुत से लोग सुबह सुबह कितने उत्साह से टहलने लगते हैं।

वैसे भी मौसम सुबह सुबह अब टहलने-व्यायाम करने के लिए बहुत बढ़िया तो है ही।

पार्क में घुसते ही वही बिहार के चुनाव नतीज़ों के कारणों की चर्चा कानों में पड़ी...मोदी के भाषणों पर चर्चा हो रही थी ..मुझे आगे निकलते निकलते यही सुना।




कभी कभी बाग में टहलते हुए कुछ नया दिखता है...इस पेड़ पर नज़र पड़ी तो लगा कि यह कोई गोंद जैसा होगा....हाथ लगा कर के भी देखा लेकिन कुछ पता नहीं चला....पता नहीं, आप देखिए...शायद आप को मालूम हो।

ऐसे ही लगभग आधा घंटा टहलने के बाद जब बाहर निकला तो इस होर्डिंग पर नज़र पड़ गई....अपने अन्ना जी आ रहे हैं लखनऊ में ...मुद्दा है कि अब जब कि इलेक्ट्रोनिक मशीनों पर उम्मीदवारों की फोटू लगी होती है तो चुनाव चिन्हों को हटा दिये जाने की मांग कर रहे हैं......मुझे इस के पीछे जो औचित्य है उस के बारे में भी कुछ पता नहीं है। पहले अन्ना जी को मीडिया में काफ़ी कवरेज मिला करता था, यह NOTA वोटा वाली बातें वहीं से पता चलीं और समझ भी वहीं से आईं....देखते हैं इस मुद्दे को कैसे डील किया जाता है!


पार्क से लौटते समय एक अन्य भव्य पार्क पर नज़र पड़ गई...बिजली पासी किला के सामने यह पार्क है...इस में लखनऊ महोत्सव १५ दिनों के लिए आयोजित किया जाता है...इसी महीने के अंत में यह होना तय था...मेंहदी हसन साहब भी आने वाले थे....लेकिन लखनऊ में पंचायती चुनाव इस महीने के अंत में और दिसंबर के शुरू में होने निश्चित हुए हैं, इसलिए इस बार लखनऊ महोत्सव को स्थगित कर दिया गया है ..अब यह जनवरी २७, २०१६ से शुरू होगा...

इस भव्य पार्क के बारे में बात कर लेते हैं...यह बहुत ही बड़ा पार्क है...एरिया बताने के बारे में मैं बड़ा अनाड़ी हूं..अकसर हम लोग इधर भी कभी कभी टहलने निकल जाते हैं... पिछले महोत्सवों के दौरान देखने में आता था कि यहां पर पार्किंग की कोई इतनी अच्छी व्यवस्था नहीं हुआ करती थी, धूल मिट्टी बहुत ज़्यादा उड़ा करती थी, लेकिन आज कल यहां पर पार्किंग तैयार करने का ही काम ज़ोरों शोरों से चल रहा है, आप इस तस्वीर में देख सकते हैं।

ये सब पार्क एवं स्मारक मायावती के शासन काल के दौरान ४००० करोड़ रूपये की लागत पर तैयार हुए हैं और इन की देख रेख के लिए ५००० लोगों का स्टॉफ तैनात कर दिया गया है...दो दिन पहले आप ने भी अखबार में पढ़ा होगा कि अगर वे अगली बार सत्ता में आती हैं तो अब स्मारक आदि नहीं बनाए जाएंगे।

आज ही सुबह अखबार खोली तो पता चला कि इन सभी स्मारकों पर सरकार ने लाइटों की संख्या ८०-९० प्रतिशत कम कर दी है, इस के आगे मुझे इस बारे में कुछ नहीं पता।

अभी पार्कों-स्मारकों की बात चली तो ध्यान में आ रहा है लखनऊ की ही जनेश्वर मिश्रा पार्क....मैं कुछ महीने पहले उस के बारे में लिखा भी था (इस लिंक पर देखिए) ...लेकिन इस समय मुझे वह एक दुःखद कारण से याद आ गया...उस पार्क में एक झील भी है ...मुझे भी नहीं पता था कि वह कितनी गहरी है....दो दिन पहले लखनऊ के तीन दोस्त ऐसे ही उस के आस पास मस्ती कर रहे थे ..एक बीटेक तृतीय वर्ष का छात्र अचानक उस में लुड़क गया....कोशिश की गई उसे बचाने की लेकिन बेचारा दम तोड़ गया...और आज जब अखबार देखी तो पता चला कि मुख्यमंत्री के आदेश पर उस झील में बालू डाल कर गहराई को कम किया जायेगा......चलिए, यह तो बहुत अच्छी बात है...क्योंकि इस तरह की तफरीह वाली जगहों पर लोग जोश में अकसर होश कायम रख नहीं पाते।

हां, दीवाली की कुछ बातें शेयर कर ली जाए...सुबह सुबह एनडीटीवी पर देखा कि किस कद्र पटाखे छुड़वाने के चक्कर मे हम वातावरण में कितना ज़हर घोल देते हैं......मैं तो नहीं चलाता पटाखे वाखे...बस, वही कभी कभी एकाध फुलझड़ी, कभी एक चक्कर और सांप वाला खेल......बस, और कुछ नहीं...एनडीटीवी टीवी की टीम तो हाथ में प्रदूषण मापने की मशीन ले कर चल रही थी और एक फुलझड़ी...एक अनार के बाद हम वातावरण में कितने घातक तत्व छोड़ देते हैं, यह सब उस मशीन की रीडिंग से पता चल रहा था.....तो, दोस्तो, मजा इसी में है कि हम लोग इन पटाखों वाखों से दूर ही रहें.....और दूसरों को भी इस के लिए प्रेरित करें। हां, एक यह भी बता रहे थे कि बच्चे आज कल विविध रंगों की फुलझड़ियां आदि लाने लगे हैं......लेिकन ये सब विविध रंगों वाले पटाखे वटाखे इन में तरह तरह के मेट्ल्स (metals) मिले रहने की वजह से यह बहुत ज़्यादा नुकसान पहुंचाते हैं।




यही मोमबत्तियां हैं जिन की बात हो रही है
हां, जाते जाते एक बात और.....कल रात सोने से पहले मैं बाथरूम में गया तो देखा वहां पर अजीब सा कुछ जल रहा है...पता चला कि वहां पर एक प्लास्टिक के डिब्बे के ऊपर मोमबती रखी गई थी...और इस का क्या हाल बन गया, आप स्वयं देख लीजिए....आप भी सचेत रहिए....मिसिज़ ने फिर बालकनी में भी देखा जहां जहां भी मोमबत्तियां रखी गईं थी, वहां से मोम तो बिल्कुल गायब थी.....अकसर हम लोग जब भी मोमबती जलाते हैं, मोम तो नीचे इक्ट्ठा होती ही है तो फिर ये मोमबत्तियां किस पैट्रोलियम प्रोड्क्ट की तैयार की गई हैं कि इन्हें जलाने के बाद कुछ भी बचता ही नहीं....आज कल तो भाई किसी चीज़ का पता नहीं चलता ...क्या चल रहा है कुछ समझ में नहीं आता.....आप भी ध्यान रखिएगा....चलिए, यह कोई विशेष बात नहीं कि मोमबत्ती जलाई और मोम नीचे नहीं गिरी......लेकिन यह जे मोमबत्तीयां हैं ये इस तरह के बिना कुछ शेष छोड़ें हमारी सेहत के लिए कैसी हैं, यह का हमें बिल्कुल भी पता नहीं है!
चलिए, लगता है कि अब मोमबत्तियों से मोम गायब हो जाएगी....या कोई मिलावट .....क्या पता यार क्या क्या चल रहा है?...परसों गुड़ खाया अच्छा लगा तो मैंने तारीफ़ कर दी....श्रीमति जी ने बताया कि पेपरों में बहुत आ रहा है कि अब चीनी की मिलावट वाला गुड़ भी बिकने लगा है!

वापिस एनडीटीवी पर आते हैं...सुबह एक गुस्ताख चित्रहार का एपीसोड दिख गया....ये क्रिएटिव लोग भी बड़ी मेहनत करते हैं ....आप भी इस लिंक पर क्लिक कर के देख सकते हैं।

दीपावली को ढ़ेरों शुभकामनाएं एवं बधाईयां....खुश रहें, तंदरूस्त रहें

मैं भी सुबह सुबह किन किस्सों में लग गया.......आप सब को दीपावली की बहुत बहुत बधाईयां एवं शुभकामनाएं....अचानक इस चकाचौंध में एक जुगनू की रोशनी का ध्यान आ गया.. मुझे अभी ध्यान आया कि इतनी धूल में, प्रदूषण में और इतने शोरगुल में क्या जुगनू का अस्तित्व बस इन्हीं गीतों में ही रह जाएगा.....आप ने पिछली बात कब किसी जुगनू को देखा था?..इस का जवाब मुझे ज़रूर लिखियेगा..


मंगलवार, 10 नवंबर 2015

श्रम करने वाले का व्यायाम भी यही...

मैं अकसर आप का तारुफ़ कुछ ऐसे सेहतमंद लोगों से करवाता रहता हूं जिन की जीवनशैली से हम सब को ..विशेषकर मुझे .. बहुत कुछ सीखने को मिलता है.


तो आज आप की मुलाकात करवाते हैं श्री पी पी सिंह जी से ...इन की आयु ६३-६४ वर्ष है...रिटायर हुए चार साल हो चुके हैं। मेरा ध्यान इन के चमकते-दमकते चेहरे की तरफ़ गया तो मैं इन से इन की जीवनशैली के बारे में पूछने से अपने आप को रोक नहीं पाया...खान पान कैसा है, व्यायाम कितना करते हैं?

इन्होंने बताया कि हमेशा से शुद्ध शाकाहारी हूं ..और जहां तक व्यायाम की बात है, श्रम ही इतना कर लेते हैं, डाक्टर साहब, कि व्यायाम की हमें ज़रूरत ही नहीं पड़ती। चाय हम कभी पीते नहीं। 

पी पी सिंह का गांव लखनऊ से ४० किलोमीटर की दूरी पर है...वहां ये अपनी पत्नी के साथ रहते हैं...लखनऊ में छोटा भाई है ..मां भी वहीं रहती हैं जिन की उम्र १०० के पार है...१५ दिन बीत जाने पर हमें देखने के लिए व्याकुल हो जाती हैं, फोन कर देती हैं कि आओ, आ कर मिल जाओ। मैंने पूछा कि वह गांव में नहीं रहतीं?....बताने लगे कि गांव में चिकित्सा सुविधा नहीं, एमबीबीएस डाक्टर है नहीं, यहां मां को कुछ भी चिकित्सीय मदद चाहिए होती है तो तुरंत मिल जाती है। 

इन्होंने अगले दो तीन मिनट में झट से अपनी जीवनशैली के बारे में बता दिया....गांव के जिस घर में रहते हैं वह एक बीघा में है....खूब खुला है...सब्जी-फल-फूल खूब लगा रखे हैं...

डाक्टर साहब, मुझे यही शौक है, मेरे समय इन फूलों के साथ ही बीत जाता है....इन के साथ ही बतियाते हैं...साग-सब्जी इतनी लग जाती है कि कभी बाहर से खरीदनी ही नहीं पड़ी। 

आगे कहने लगे - "दो बेटे दो बेटियां पढ़े लिखे हैं...काम धंधे पर लगे हुए हैं...सुखी हैं...अब इंटरनेट से हमें पानी तो दे नहीं सकते ..इसलिए हम अपने आप में मस्त रहते हैं।"

" सुनने वाले को अजीब लगता होगा लेकिन सच यह है कि गर्मी हो या सर्दी मैं सुबह चार बजे उठ जाता हूं...दो िगलास पानी पीता हूं ..घर की साफ़-सफाई में लग जाता हूं...पेड़-पौधों की सेवा में लग जाता हूं... इस सब से फ़ारिग हो कर दलिया -मीठा या नमकीन लेता हूं....ग्यारह बजे खाना खा लेता हूं...उस के बाद एक घंटे के लिए खाट पर लेट जाता हूं ..बीस मिनट के लिए झपकी लग जाती है, फिर तरोताज़ा हो कर ऐसे ही टीवी पर खबरें देख लेता हूं...रेडियो सुन लेता हूं."

मैंने पूछा--"केबल लगवाया हुआ है और रेडियो भी सुनते हैं?"

पी पी सिंह कहने लगे..."टी वी पर खबरें ही देखता हूं...और रेडियो पर गाने और भजन आदि सुनना बहुत अच्छा लगता है...और संगीत का तो ऐसा जादू है, डाक्टर साहब, कि मरते हुए को भी ज़िंदा कर दे"

गांव में अखबार चौपाल पर आता है ...किसी की दुकान पर अकसर पेपर पड़ा रहता है ...जो कि इन के घर से लगभग ५०० मीटर की दूरी पर है...उधर से आते जाते या तो कोई घर में इन्हें पकड़ा जाता है ...नहीं तो शाम के समय ये स्वयं जा कर अखबार ले आते हैं....

"लेिकन डाक्टर साहब, अखबार का मैं एक एक शब्द पढ़ता हूं...दैनिक जागरण अखबार लेता हूं...चूंकि मैं कबड्डी का खिलाड़ी रहा हूं, इसलिए सब से पहले खेलों वाला पन्ना पढ़ता हूं...और उस के बाद मुख्य पृष्ठ की तरफ़ लौटता हूं...बस, उस के बाद मैं सारा पेपर खंगाल लेता हूं और शाम होने तक कोई कल्याण या अन्य कोई धार्मिक ग्रंथ का पठन-पाठन कर लेता हूं।" 

मुझे इन की यह बात अच्छी लगी पेपर को इतने गंभीरता से पढ़ने की ...शहरों में कितने लोग इस तरह से पेपर को पढ़ पाते हैं, यह बात विचारणीय है। 

इन की पत्नी के जोड़ों में दिक्कत है इसलिये वह इतनी ज़्यादा सक्रिय नहीं हैं...

शाम के समय कहीं किसी से यहां आस पास निकल जाते हैं या कोई हमजोली आ जाता है....इक्ट्ठे बैठ कर बतिया लेते हैं। 

और एक बात उन्होंने बड़े चाव से बताई...आंगन में आम और अमरूद के पेड़ हैं...इसलिए इन पेड़ों पर फल रहने तक गांव के बच्चों के बाबा-चाचा बने रहते हैं...अकसर आते जाते ...बुलाते रहते हैं....बाबा प्रणाम....चाचा प्रणाम (यह कहते हुए वे खिलखिला कर हंस रहे थे)

बीमारी वीमारी हमेशा दूर रही है...होम्योपैथिक दवाईयों पर ज़्यादा भरोसा है....और रात को साढ़े आठ बजे के करीब खाना खा कर रात नौ बजे तक सो जाना बहुत ज़रूरी है...खटिया पर पड़ते ही पांच मिनट में ही गहरी निद्रा आ जाती है। 

कैसी लगी पी पी सिंह की जीवन शैली?

आप सब पाठक सुधिजन हैं.....आप से कुछ भी कहना सूर्य को दीया दिखाने जैसा है! जहां तक मेरी बात है मुझे तो ऐसे सभी लोगों से बहुत प्रेरणा मिलती है। सीधा-साधा उच्च जीवन ...और काफ़ी हद तक मासूमियत कायम अभी भी .. 
आप को पी पी सिंह जी से मिलना कैसा लगा?.....मुझे पता है आप बिल्कुल नहीं बताएंगे......लेकिन क्या फ़र्क पड़ता है! 

अब आप को सुनाएं क्या!...राजश्री प्रोड्क्शनज़ का ही कुछ लगा देते हैं.....ये प्रेम रतन धन पायो.. रतन धन पायो...प्रेम रतन धन पायो.. रतन धन पायो...अजी प्रेम रतन धन पायो ...सुन कर कर के अभी से कान पक गये हैं....फिल्म तो अभी बाकी है....अब तो वह जब बजता है लगता है मानो कोई सिर पर प्रहार कर रहा हो........और यह जो गीत अभी आप सुनेंगे ....यह के बोल और संगीत तो काफ़ी सुकून देने वाला ही है, आप का क्या ख्याल है?...यह भी राजश्री की ही फिल्म थी...


शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

पान-मसाला चबाने वाले एक किशोर की आप बीती..

शत प्रतिशत सच...बस, नाम बदल रहा हूं...सचिन..आयु १८ वर्ष...अभी छः महीने पहले कालेज में गया है..

पिछले चार महीनों से परेशान था सचिन ..मुंह खुल नहीं रहा था, दर्द थी, गर्म कुछ भी नहीं खा पा रहा था...तीखा, मिर्च-मसाले वाला खाना तो बिल्कुल ही नहीं खा पाता था, बहुत ज़्यादा लगता है..

यहां वहां से दवाई ले कर खाता रहा...जो किसी भी चिकित्सक की समझ में आया...वे देते रहे, लेिकन कुछ दिन पहले जब इस ने जांच करवाने के लिए कहा तो उस चिकित्सक ने इस के रक्त की जांच करवा दी..

इसे तब लगा कि किसी और चिकित्सक को दिखाना चाहिए...किसी ने बताया होगा कि दंत-चिकित्सक को दिखाओ...इसलिए उस दिन यह मेरे पास आया था और इसने ही मुझे यह सारी बातें बताईं।

जब कोई भी व्यक्ति मुंह के पूरा न खुलने की बात कहता है ..विशेषकर जब कोई युवावस्था या किशोरावस्था में हो ...तो यही गुटखे-पानमसाले से मुंह के अंदर होने वाली विनाश-लीला का ध्यान आ जाता है....या कईं बार इस १८-२०-२२ वर्ष के आयुवर्ग में अकल की दाड़ की वजह से भी कुछ दिक्कत आ जाती है...वह एक अलग विषय है, उस पर फिर कभी चर्चा करेंगे।

हां, तो इस युवक के मुंह के अंदर झांकने से ही पता चलता है जैसा कि आप नीचे तस्वीरों में देखेंगे ..कि मुंह के अंदर कुछ गड़बड़ तो है जो कि एक १८ साल के नौजवान के लिए खतरे की घंटी तो है ही बेशक।

सचिन बता रहा था कि वह लखनऊ से दूर एक गांव में लगभग ४० किलोमीटर की दूरी पर रहता है..हाई स्कूल तक वह इस तरह का कुछ भी नहीं खाता था...११वीं कक्षा में जब नये कालेज में गया तो एक दोस्त ने पानमसाले की थोड़ी थोड़ी आदत डाल दी...बस, फिर थोड़े समय में सचिन भी खाने लगा....कह रहा था कि केवल दो पैकेट पानमसाले के ही खाता था लगभग दो साल तक...बहुत कम बार ऐसा हुआ कि तीसरा पैकेट खाया हो...और यह पानमसाले का सेवन कालेज में ही चलता था अधिकतर...घर में खाने की हिम्मत नहीं थी, मां को पता चल जाता तो वह पिटाई कर देती थी और पिता जी के सामने तो इसे खाने-चबाने की हिम्मत ही नहीं होती थी..

उसने आगे बताना जारी रखा कि लगभग पिछले एक वर्ष से उसने पानमसाले के साथ साथ थोड़ा ज़र्दा भी लेना शुरू कर दिया था...बिल्कुल थोड़ा लेकिन ...पर उसे यह इत्मीनान था कि यह ज़र्दा उसने कभी अपने पैसे से नहीं खरीदा....मुझे लग रहा था कि यार, ज़हर अपने पैसे से खरीदा जाए या दूसरे के पैसे से ...क्या फ़र्क पड़ता है, ज़हर ने तो अपना काम करना ही है। लेकिन मैंने उसे कुछ कहना मुनासिब नहीं समझा।

उसने मुंह में अपनी अंगुली डाल कर मुझे बताया कि अभी तो उस के मुंह में दो अंगुलियां भी नहीं जा पातीं, पहले तो पांच अंगुलियां भी चली जाती थीं....और जब चार पांच महीने पहले उसे लगा कि उस से तो पानी के बताशे (गोलगप्पे) भी नहीं खाए जा रहे, तब से वह यहां वहां से दवाई ले रहा है, लेकिन किसी ने उसे यह नहीं बताया कि यह पानमसाले-गुटखे की वजह से हो रहा है।

मुंह के कैंसर की पूर्वावस्था..(Oral Pre-Cancerous Lesion)- इस युवक में जिस के मुंह की कुछ तस्वीरें भी मैं यहां लगा रहा हूं ..इस के मुंह की जो अवस्था है उसे ओरल-सब-म्यूकस फाईब्रोसिस नाम से पुकारते हैं....(Oral Submucous Fibrosis)...और इसे Oral Pre-Cancerous Lesion कहा जाता है...और इस बीमारी के जितने भी लक्षण हैं, इस १८ वर्षीय युवक में वे सभी मौजूद हैं...







पूरी कोशिश करने के बावजूद अब युवक मुंह के अंदर दो अंगुली नहीं डाल पाता 
इस का मुंह कम खुलने लगा है...और अगर आप इस के तालू के पिछली तरफ़ देखेंगे तो पाएंगे कि वह सारी जगह सफेद पड़ी हुई है...यहां तक कि इस के गाल के अंदर वाले हिस्से की चमड़ी भी सफेद हो चुकी है, और होंठ के अंदर वाले हिस्से का भी यही हाल है, आप नीचे इस के मुंह की तस्वीरों में यह देख सकते हैं जिन में वह अपने हाथ से गाल एवं होंठ के अंदरूनी हिस्सों को दिखा रहा है...एक बात जो आप देख नहीं पाएंगे, वह यह है कि जहां जहां पर भी मुंह के अंदर की चमड़ी सफेद पड़ी हुई है ...उस की फील भी बिल्कुल सूखे चमड़े (dry leather) जैसी हो गई है।

अगर यह युवक पानमसाले-गुटखे का यूं ही सेवन करता रहा तो आने वाले समय में कुछ भी हो सकता है ...मैंने उसे १५-२० मिनट में अच्छे से पक्का कर दिया है ...लगता तो नहीं कि अब पानमसाले-गुटखे को कभी यह इस्तेमाल करेगा।

मैंने ऊपर लिखा है कि अगर इस की यह आदत चालू रही तो कुछ भी हो सकता है ...कम से कम जो हो सकता है वह यह है कि इस का मुंह धीरे धीरे खुलना और कम होता जायेगा और फिर कुछ समय बाद ऐसी भी परिस्थिति आ सकती है कि मुंह लगभग न के बराबर ही खुले और उस अवस्था में मरीज़ कुछ भी खाने-पीने के लिए भी तरस जाता है...बहुत से मरीज़ इस अवस्था में भी मेरे पास आ चुके हैं.....हो तो जाता है इलाज..विशेषज्ञ कर सकते हैं एक जटिल से आप्रेशन के द्वारा मुंह थोड़ा खोल दिया जाता है ताकि खाने पीने की परेशानी का तो हल हो पाए। लेकिन विभिन्न कारणों की वजह से मैंने देखा है कि लोग इस तरह का इलाज भी करवा नहीं पाते.....बस, ऐसे तैसे कट जाती है...सेहत निरंतर नीचे गिरती रहती है ....और कुछ सालों के बाद इस तरह के मुंह में कैंसर के विकसित होने का अंदेशा तो बना ही रहता है...एक मरीज़ आया था जो बता रहा था कि उसे ओरल-सब-म्यूक्स फाईब्रोसिस की  तकलीफ थी कईं सालों से ...मुंह इतना कम खुलता था कि एक बिस्कुट भी मुश्किल से अंदर जा पाए....पिछले साल जब वह दिखाने आया मेरे पास तो मुंह के अंदर कैंसर बना हुआ था...करवाया गया है उस का पूरा इलाज.

हां तो उस १८ वर्षीय युवक की तरफ़ लौटते हैं...इस युवक के इलाज की सब से पहली सीढ़ी तो यही है कि वह तुरंत ही कल से नहीं, आज अभी से पानमसाले-गुटखे से तौबा कर ले.....और फिर इस का इलाज के लिए इस के मुंह में कुछ इंजैक्शन दिए जाएंगे...कईं महीनों तक इलाज चलेगा....खाने की दवाईयां भी होंगी और मुंह के अंदर इस सफेद हुई चमड़ी पर लगाने की कुछ दवाईयां भी दी जाएंगी...जो भी हो, इलाज का असर इतनी जल्दी नहीं दिखता... लंबा समय लग जाता है...लेकिन अगर यह इस तरह की चीज़ें खानी-चबानी छोड़ देगा ...तो कम से कम इतना तो है कि बीमारी आगे फैलने से तो रूक जायेगी....चिकित्सकों की निगरानी में रहेगा ...नियमित दिखाने आता रहेगा तो इस के अंदर की अवस्था पर नज़र बनी रहेगी ... अगर कुछ भी अनियमित सा विकसित होता दिखेगा तो समुचित उपचार कर दिया जायेगा।

खाने पीना इस तरह के युवक का अच्छा पौष्टिक होना चाहिए...इस से मतलब बस घी-मक्खन से ही नहीं, बल्कि ताजी, हरी पत्तेदार सब्जियां, दाल, साग, सलाद इसे अच्छे से खाना होगा, जंक फूड से, मिर्ची-विर्ची से दूर रहना होगा....और दवाई खाने वाली, मुंह के अंदर लगाने वाली और मुंह में लगाए जाने वाले इंजेक्शन नियमित लगवाने होंगे........वैसे डाक्टरों के लिए लिख देना कितना आसान है ...लेकिन जिसे यह सब करना-करवाना पड़ता है उस के लिए कितनी आफ़त की बात है!

सरकार इतने विज्ञापन देती रहती है इस तरह के खतरों के बारे में ...पान मसाले, गुटखे के पैकटों पर भी लिखा रहता है लेकिन फिर भी इस का चलन बढ़ता ही जा रहा है.....मुझे अच्छे से याद है शायद १९९० के आसपास तक हमें ये केस बहुत कम दिखा करते थे.....लेकिन जैसे ही यह पानमसाले-गुटखे का चलन शुरू हुआ है ...तबाही मची हुई है... ऐसा नहीं है कि पान, बीड़ी-सिगरेट, खैनी, डली, तंबाकू-चूना मिश्रण किसी तरह से कम आतंकी हैं, वे भी कहर बरपा ही रहे हैं.....अलग अलग तरह से ..मुंह में, गले में, फेफड़े में, दिल-दिमाग में......कहीं भी जहां मौका मिलता है। अब क्या बार बार इन पर लिखें, आज के दौर में सब लोग इतना तो जानते ही हैं कि जिस शैतान को वे मुंह में चबाने जा रहे हैं उस के पैकेट पर क्या लिखा हुआ है !

लगता है हो गया, अब इस पोस्ट को यहीं बंद करूं.....लेिकन एक बात है कि कहीं भी आप किसी को भी यह सब करते देखें तो उसे एक मिनट के लिए समझाने की कोशिश तो कीजिए..कोई पता नहीं कब कौन सी बात किसी की ज़िंदगी बदल दे....मैं तो ऐसा ही करता हूं....पैट्रोल पंप वाले युवकों को, रेहड़ी वालों को, रिक्शा वाले को .......जहां भी मौका मिलता है ...मैं तो दो मिनट रूक जाता हूं....मैं जानता हूं कि मेरा योगदान उस छोटी चिड़िया की तरह ही है जो एक जंगल की आग बुझाने के लिए पास ही के एक तालाब से चोंच में पानी भर भर के लाती है ....बस, इसीलिए कि उस का नाम आग बुझाने वालों में दर्ज हो जाएगा। शायद मैं भी यही सोचता हूं।

पिछले महीने मैं चांदनी चौंक दिल्ली की एक दुकान से बाहर आया तो मैंने देखा कि एक साईकिल रिक्शा वाला अपने दांतों के ऊपर कुछ घिस रहा था...मेरे से रहा नहीं गया...मैंने उस से बातचीत की ...वह पिसा हुआ तंबाकू का मंजन घिस रहा था...उस से बातचीत करते हुए मुझे उस के मुंह की हालत कुछ ठीक नहीं लग रही थी..मैंने उसे प्रेरित किया तो इसे छोड़ कर अपने मुंह का इलाज करवाए...पास ही मौलाना आज़ाद डैंटल कालेज है, मुफ्त इलाज होता है....मुझे पता है कि यह सब कहना आसान है , दिखा आयेगा मुफ्त ...लेकिन महंगी दवाईयां, अच्छा पौष्टिक खान पान.....बहुत मुश्किल होता जा रहा है आज के दौर में ......उस ने भी वही बात कही कि अपना काम-धंधा छोड़ कर कहां मैं कहीं इस के इलाज के लिए जा सकता हूं!

तो दोस्तो, ज़मीनी हालात ये हैं...मैंने इस तरह के विषय पर पिछले आठ-दस सालों में बीसियों लोगों की आप-बीती शेयर की है, अगर आप भी इन सब चीज़ों का शौक रखते हैं, तो आज ही से थूक दीजिए...हम लोग तो कह ही सकते है,  यह ढिंढोरा पीटने की ड्यूटी हमें मिली है, कृपया इसे अन्यथा न लें, चिकित्सकों के पास तो यही बातें हैं......After all, Choice is very much yours.......Tobacco or Health! ....Please Choose Health!

आज की पोस्ट कुछ लंबी हो गई दिखती है ... लिखते लिखते सिर भारी हो गया है...अब मैं इस गीत को सुनूंगा तो मेरा सिर हल्का हो जायेगा.... आप भी सुनिए और इस युवक के लिए दुआ कीजिए की वह यह गुटखा-पान मसाला छोड़ पाए...



बुधवार, 4 नवंबर 2015

चांद सितारे छू लेने दो, प्लीज़


अभी अभी आज का अखबार उठाया तो बच्चों पर निगरानी रखने की कोई बात पहले पेज पर देख कर मैंने उस तरफ़ कुछ खास तवज्जोह नहीं दी..शायद परसों ही की बात है कि कहीं पर एक विज्ञापन दिखा था कि आप जब घर पर नहीं भी हैं तो फलां फलां गैजेट्स के ज़रिये बच्चों पर नज़र रख सकते हैं...बड़ा अजीब लगा था, मानो बच्चे न हो गये, गैंगस्टर हो गये।
(अच्छे से पढ़ने के लिए इस तस्वीर पर क्लिक करना होगा) 
आज भी इस तरह की खबर देख कर कुछ अजीब सा तो लगा लेकिन फिर जैसे ही पन्ना उलटने लगा तो एक जगह पर कहीं सीबीएसआई नज़र आ गया...उत्सुकता हुई कि यह अब स्कूलों में वीडियो कैमरे लगा कर बच्चों की गतिविधियों पर नज़र रखने का जुगाड़ हो रहा है!

नहीं, ऐसा कुछ नहीं था...और जहां तक स्कूलों के बरामदों में कैमरे लगाने की बात है ...वह तो पुरानी बात हो गई...१४-१५ साल पहले मैं अपने स्कूल गया....अमृतसर का डीएवी स्कूल....मैंने बरामदों में इतना सन्नाटा पसरा देखा...फिर कैमरे देखा...सब समझ में आ गया....उस दिन यही लगा कि इन्हीं बरामदों में हम लोग कितनी मस्ती किया करते थे...लेकिन उस दिन मजेदार बात यह हुई कि हमारे प्रिंसीपल साहब ने (जो १९७५ में हमें इंगलिश पढ़ाया करते थे) मुझे इतने वर्षों बाद भी मेरे नाम से पुकारा जब मैंने उन्हें चरण-स्पर्श किया। उस दिन मेरी भी रूह गद गद हो गई थी। मैंने हैरानगी प्रगट की तो उन्होंने कहा ...कमरे में मौजूद दूसरे लोगों के सामने....."तुम जैसे स्टूडेंट्स को हम कैसे भूल सकते हैं!"

हां, तो वापिस सीबीएसआई वाली बात पर लौटते हैं जिस के मुताबिक अब बच्चों पर रोज़ाना निगरानी का यह आलम होगा कि मास्साब रोज़ाना बच्चों की गतिविधियों को ऑनलाइन डालते रहेंगे और मम्मी पापा यह रोजनामचा रोज़ाना देखते रहा करेंगे।

आप को यह पढ़ कर कैसा लगा?...चलिए, मुझे तो जो लगा सो लगा, उस से फ़र्क भी क्या पड़ना है...लेिकन मुझे अचानक गुज़रा हुआ ज़माना याद आ गया...जब मां-बाप केवल बच्चे के दाखिले के लिए ही जाया करते थे....लेकिन पहले लोगबाग भरोसेलायक थे...अपनापन था, प्यार, अखलाक था...अब तो बस हम लोग सोशल-मीडिया के अलावा कुछ जानते ही नहीं, कईं बार ऐसा ही लगता है। मुझे याद है कि जब मैंने पांचवी कक्षा में उस स्कूल में दाखिला लेना था, तो मेरे पिता जी के दफ्तर के एक साथी का बेटा उसी स्कूल में टीचर था, मुझे उसी के साथ एक दिन उसी के साईकिल पर दाखिले के लिए रवाना कर दिया गया...उन्होंने ही टेस्ट दिलवाया और लो जी हो गया दाखिला।

बच्चों पर नज़र रखना तो दूर ...मां-बाप स्कूल जाया ही नहीं करते थे...और जिन के मां-बाप बार बार टीचरों के पास आया करते थे..इस बात को ठीक नहीं समझा जाता था...ऐसा मैं समझता था....हां, एक दो छात्रों की जिन की अकसर पिटाई हुआ करती थी तो उन के मां-बाप कभी कभी दिख जाया करते थे...उलाहना ले कर आते हुए....और मुझे अपने मास्टर साहब की छठी कक्षा की वह बात भी नहीं भूलेगी जब एक ऐसे ही मौके पर उन्होंने मेरी तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि पिटाई तो इस की भी हो जाती है, इस के घर से तो कभी कोई नहीं आया....और मैंने घर आते ही जब यह बात सब के साथ शेयर कर दी। मजाक में वह भी कहने लगे ...हम भी जाया करेंगे।

लेिकन कभी स्कूल के दिनों में घर से कोई भी नहीं गया....बस, एक बार याद है मुझे बहुत से इनाम-वाम मिलने थे तो मेरी माता जी अपनी एक सखी के साथ ज़रूर आई थीं, मुझे बहुत अच्छा लगा था. और वह आज तक उस दिन को याद कर खुश हो जाती हैं...they rightly say... "We remember moments, not days!"

हां, एक काम की बात तो बतानी भूल ही गया....अगर इतनी ही आज़ादी थी तो बच्चों पर नज़र कैसे रखी जाती थी...उस का भी उन दिनों एक जुगाड़ था स्कूल वालों के पास...तैमाही (या तिमाही?), अर्द्धवार्षिक एवं नौमाही परीक्षा के बाद (तब हम लोग ऐसे ही परीक्षाओं को नाम दिया करते थे) ...एक पोस्टकार्ड पर उस बच्चे के द्वारा प्राप्त किए गये अंकों का पूरा विवरण डाक से भेजा जाता था....मेरे और मेरे जैसे दो तीन पढ़ाकू टाइप के छात्रों की ड्यूटी इस काम में लगा करती थी...एक लिखता था, दूसरा वेरीफाई करता था...फिर डाक पेटी में डाल दिये जाते थे...सुना है दो चार फेल होने वाले बच्चे उन ख़तों को अपने मां-बाप तक न पहुंचने का कुछ भी जुगाड़ कर ही लिया करते थे....लेकिन वह भी काम इतना आसान नहीं होता था, क्योंकि उस पोस्टकार्ड को अपने पेरेन्ट्स के हस्ताक्षर के साथ वापिस अपने मास्साब को लौटाना भी ज़रूरी होता था...

तो, दोस्तो, यह था उस दौर में निगरानी का चलन......मुझे ऐसे लगता है कि इस से कुछ तो बेहतर आत्मविश्वास पैदा हो जाता था, परिस्थितियों से जूझने की एक skill develop अपने आप ही हो जाया करती थी, कैसे भी कितनी भी, और भी बहुत से फायदे तो थे.......लेकिन मानना पड़ेगा कि मासूमियत बरकरार थी, पढ़ाई-लिखाई और रेडियो और खेल-कूद तक ही दुनिया सिमटी हुई थी।

मुझे हमेशा लगता है कि विभिन्न कारणों की वजह से हम लोग बच्चों को आज की तारीख में खुल के जी भी नहीं लेने देते...हर बात पे निगरानी ...और इतनी निगरानी के बावजूद क्या हो रहा है, किसी से कुछ छुपा नहीं है। काश, हम इन्हें भी कुछ अलग सोचने का एक छोटा सा मौका तो दे पाएं।

मैं बस यही सोचता हूं कि बच्चों को निगरानी के साथ साथ थोड़ी आज़ादी भी तो चाहिए....उन्हें भी सपने देखने दीजिए....निदा फाज़ली साहब की यही बात मैंने अपनी नोटबुक में नोट की हुई है....


वैसे भी इस ज्ञान की परिभाषा भी बदलती जा रही है.... जैसा कि निदा फाज़ली साहब ने यह भी कहा है कि ....

मैं जब भी अपने स्कूल के दिनों को याद करता हूं तो इस गीत का ध्यान आ ही जाता है...


मंगलवार, 3 नवंबर 2015

एसिडिटी की दवाईयां और गुर्दों की सेहत

 टाइ्स ऑफ इंडिया ३ नवंबर २०१५
आज सुबह अखबार में यह खबर देख कर चिंता हुई कि एसिडिटी खत्म करने वाले जिन दवाईयों को लोगबाग बिना कुछ ज़्यादा विचार किए ..नियमित खाने लगे हैं...इस के इस्तेमाल से गुर्दे भी खराब हो सकते हैं।

यह तो हम सब जानते हैं कि एसिडिटी कम करने के लिए इन दवाईयों का किस तरह से अंधाधुंध उपयोग हो रहा है...डाक्टर लोग इसे कुछ दिनों के लिए किसे लेने का मशविरा देते हैं, वह बिल्कुल दुरूस्त है..लेिकन यह जो अपने आप ही बाज़ार से खरीद कर  किसी डाक्टर से परामर्श किए बिना ही इन दवाईयों को रोज़ाना उठते ही गटक लेना, यह बिल्कुल ठीक नहीं है, इससे गुर्दे खराब होने का खतरा मंडराता रहता है।

आज जब मैंने यह खबर देखी तो मुझे लगभग आठ साल पहले अपने इसी ब्लॉग पर लिखा एक लेख याद आ गया....अभी ढूंढा तो मिल गया...उस का लिंक यह लगाए दे रहा हूं...देखिएगा.. छाती में जलन- आधुनिकता की अंधी दौड़ की देन।

मेरे पास भी बहुत से मरीज़ आते हैं...मैं बहुत बार जो बात उन से कहता हूं ...विशेषकर जो लोग मुझे कहते हैं कि इस तरह की गोली तो सुबह उठते ही खानी पड़ती है, उस के बिना तो गुज़ारा ही नहीं है...मैं उन से भी वही बात कहता है कि यह जो एसिडिटी वाली आग है, ठीक है एक बार आपने इस तरह की गोली, कैप्सूल खा कर बुझा ली...लेकिन क्या ध्यान नहीं किया कि इस आग के लगने के कारणों के बारे में भी विचार किया जाए।

इस बात से कोई इंकार नहीं है कि इस तरह की शारीरिक तकलीफ़ों में हमारी जीवनशैली की ही अहम् भूमिका रहती है। फिर भी अगर प्रशिक्षित चिकित्सक इस तरह की दवाईयां किसी को लिख रहे हैं, तो आप इन का सेवन कर सकते हैं बेझिझक कुछ दिन डाक्टरी सलाह के मुताबिक।

मैंने भी अभी अपने उस पुराने लेख को पढ़ा तो मुझे भी हैरानगी हुई कि मैंने उस में दर्ज किया हुआ है कि २००७ तक मैंने शायद इस तकलीफ़ के लिए २० गोली-कैप्सूल खाए होंगे.....लेिकन ऐसा क्यों कि अब मुझे एक-दो महीने में इस तरह के एक कैप्सूल की ज़रूरत पड़ ही जाती है...और मुझे पता रहता है कि आज इस की ज़रूरत पड़ेगी.......वैसे तो हम लोग बाहर होटल-रेस्टरां में खाते ही नहीं, लेिकन फिर भी कभी किसी शादी-ब्याह में या किसी अन्य सार्वजनिक जगह पर अगर थोड़ी भी ओव्हर-ईटिंग हो जाए तो पता रहता है ....कि अब तो रात में २ बजे अजीब अजीब सी खट्टी डकारें आएंगी ...और बड़ी परेशानी होगी.....लेकिन अगर मैं उसी समय फ्रिज में रखा ठंडा दूध दो-चार घूंट ले लूं तो बड़ी राहत महसूस हो जाती है ..लेकिन कईं बार अगला सारा दिन ...खराब हो जाता है...एसिडिटी की तकलीफ़ से मेरे सिर में भयंकर दर्द होने लगता है....तबीयत बहुत खराब हो जाती है ...इसलिए मैं बदपरहेज़ी से बहुत डरता हूं....कईं बार तो इस एसिडिटी की वजह से उल्टियां होने लगती हैं।

बहरहाल, बात चल रही थी कि इस तरह की दवाईयों के अंधाधुंध उपयोग से गुर्दे खराब हो जाते हैं....और यह रिसर्च भी की है ...अमेरिकी गुर्दा रोग विशेषज्ञों ने....लेकिन अगर आप खबर पूरी देखेंगे तो कहीं यह भी लिखा पाएंगे कि ठीक है, अध्ययन कहीं पर हुआ है ...लेकिन इस का पुख्ता सबूत नहीं मिला है।

सेहत हमारी है....हम क्यों न विशेषज्ञ चिकित्सकों की बात को अभी से गांठ बांध लें.....प्रूफ जुटाने के चक्कर में पता नहीं कितने साल और लग जाएंगे.....फिर भी प्रूफ मिलेगा या नहीं मिलेगा.....इस तरह की दवाईयों को बनाने वाली कंपनियां बड़ी अमीर कंपनियां हैं......अगर पक्का प्रूफ़ मिल गया तो भी ...फिर शुरू होगा मुकदमेबाज़ी का लंबा दौर.....आरोप-प्रत्यारोप....जो भी फैसला आएगा ...कंपनियों के हक में आया तो ठीक, वरना फिर अपील पर अपील....सीधी सीधी बात यह कि जब तक........(आप समझते ही हैं सब, हर बात लिखना कहां ज़रूरी होता है) ....लिखने से ध्यान आया कि आपने नोटिस किया कि अखबार में भी इन दवाईयों में से किसी का भी ट्रेड-नेम नहीं लिखा गया, इसीलिए मैंने भी नहीं लिखा......आप जानते ही हैं जो दवाईयां हम इस काम के लिए इस्तेमाल किया करते हैं....सुबह, शाम....खाली पेट भी!

मेरा मशविरा तो यही है कि दोस्तो, अगर आप भी अपने आप अपनी इच्छा से कैमिस्ट से इस तरह की दवाईयां मंगवा कर रोज़ खाने लगते हैं तो इस पर फुल-स्टाप लगा दीजिए....गुर्दों की सेहत बेशकीमती है....लाखों-करोड़ों रूपयों की ढेरी लगाने से भी इन की सेहत वापिस नहीं आ सकती। और वैसे भी अमेरिकी विशेषज्ञों ने जब इस तरह के परिणाम निकाल ही दिए हैं...तो उस के आगे हमने क्या करना है प्रूफ़-व्रूफ़ को.....इस तरह की बात मान लेने में ही समझदारी है। दोस्तो, अपना खान-पान बदल दीजिए....जीवनशैली ठीक कीजिए.....और यह गीत सुन लीजिए....अफसोस, दाल अाम देशवासी की थाली से गायब होती जा रही है लेकिन धर्मेन्द्र भाजी तो अपनी बात पर अभी भी कायम हैं..





रविवार, 1 नवंबर 2015

मैं शायर तो नहीं...

पिछले दिनों से कुछ शेयरो-शायरी की खुराक ज़्यादा मिल गई...बहुत अच्छा लगता है इसे पढ़ना..ज़िंदगी के सभी तजुर्बे ये शख्शियतें आने वाली पुश्तों के लिए सहेज जाती हैं..

इन में से कुछ कुछ को मैं अपनी नोटबुक में लिखता गया ..वाट्एएप पर भी अकसर शेयर करता रहा...

कल ध्यान आया कि अपने ब्लॉग पर भी शेयर कर दिया जाए तो बेहतर होगा...शायद किसी को कोई काम की चीज़ मिल जाए...









हां जनाब, पढ़ लिये?... अब आगे क्या फरमाईश है?...हां, एक बात...शायर तो मैं हूं नहीं, यह सब चुराया माल है...कईं शेयर मैं समझ नहीं पाता, इसलिए एक उर्दू-हिंदी शब्दकोष भी ले आया हूं... फिर भी मुझे फिल्मी गीत ठीक ठाक समझ आ जाते हैं...उदाहरण के तौर पर स्कूल के दिनों से ही बॉबी फिल्म के इस शायराना गीत को समझने में कोई दिक्कत आई नहीं...