शनिवार, 16 मई 2015

हम तो राह बैठे हैं लेकर चिंगारी ...

आज मैं साईकिल पर घूमने निकला तो पास ही के गांव की तरफ़ निकल गया....देखते देखते ही मौसम बहुत सुहावना हो गया....तेज़ हवाएं चलने लगीं...बादल छाने लगे....मैंने देखा कि बहुत से रूई जैसी दिखने वाली चीज़ें हवा में लहराते हुए तेज़ी से उड़ रही थीं...

समझते देर नहीं लगी कि ये पेड़ों के बीज हैं जिन्होंने अपने आप को हवा के रूख के हवाले कर दिया है...जहां चाहे हवाएं ले जाएं...वही पर बस जाएंगे।

मुझे मुनव्वर राणा साहब की वे पंक्तियां याद आ गईं....

"हम फ़कीरों से जो चाहे वो दुआ ले जाए,
खुदा जाने कब हम को हवा ले जाए, 
हम तो राह बैठे हैं लेकर चिंगारी, 
जिस का दिल चाहे चिरागों को जला ले जाए।।"

और एक हम हैं कि हर बात की परफैक्ट प्लॉनिंग करते हैं...हर छोटी से छोटी बात की ..और अगर प्लॉनिंग के अनुसार सब कुछ हो जाए तो खुश और अगर न हो तो बस, लगते हैं कोसने अपने हालात को। काश!हम लोग मां प्रकृति से ही कुछ सीख पाएं...हर पल सारी सृष्टि हमें कुछ सिखा रही है। बस हम समर्पण नहीं कर पाते!

मुनव्वर राणा साहब की बात चली तो उन की सेहत के बारे में दो चार दिन पहले जान कर चिंता की ...उन की सेहत के लिए दुआ की....मुनव्वर राणा साहब को चार पांच बार देखने-सुनने का मौका मिला है...सारा हाल जैसे मंत्रमुग्ध कर देते हैं अपनी शायरी से....ईश्वर इन को उम्रदराज करे। अगले दिन वैसे अखबार से पता चल गया था कि उन के मुंह का आप्रेशन बिल्कुल ठीक ठाक हो गया है.....मेरी यह भी दुआ है कि वह पहले की तरह शेरों की तरह अपनी शायरी को अपने चाहने वालों तक पहुंचाते रहें। आमीन!

वैसे एक और खबर जब मुझे दो दिन पहले अखबार में दिखी तो यही लगा कि यार यह भी कोई लड़ने झगड़ने की बात हुई...आज निर्णय किया है कि तंबाकू-गुटखे के ऊपर एक किताब भी छपवा ही ली जाए...आज यह एक ख्याली पुलाव जैसा कुछ पका है, देखते हैं कब इसे अमली जामा पहनाया जाएगा।

बिन ताड़ी चले न गाड़ी (Courtesy: Google Images)
लेकिन मैं आज क्यों सुबह सुबह लड़ने झगड़ने की बातें करने लगा....कुछ नई बात करते हैं। हां, तो जब मैं साईकिल पर घूमते हुए लौट रहा था तो देखा कि थोड़ी थोड़ी दूर पर लोग इस तरह का शर्बत जैसा कुछ बेच रहे हैं.... पूछने पर पता चला कि यह ताड़ी है...बंदे ने बताया कि हमारे १०-११ पेड़ हैं, हमारे काम करने वाले बर्तन पेड़ से बांध देते हैं ...बूंद बूंद करके ताड़ी उस में गिरती रहती है...एक डिब्बा बीस रूपये में और मिट्टी का पूरा बर्तन अस्सी रूपये में बेचते हैं। पूरा बर्तन पीने पर आप को एक बीयर का नशा हो जाता है, ऐसा उसने बताया। पता चला कि यह दो महीने का ही धंधा है .. आते जाते लोग खूब पीते हैं...मैंने भी देखा कि लोग अपने वाहन रोक कर इस ताड़ी का आनंद ले रहे थे।

उस ताड़ी वाले ने मुझे दूर से ही एक ताड़ी का पेड़ दिखाया ...बताने लगा कि यह नारियल जैसा दिखता है..लेिकन यह ताड़ी का पेड़ है।

बस, आज के लिए इतना ही ... ड्यूटी पर निकलना है, यही अपनी बात को विराम देता हूं।

हां, अभी रेडियो पर एक बहुत सुंदर गीत बज रहा था ... मैंने पता नहीं कितने सालों बाद सुना था....आज यह गीत मुनव्वर राणा साहब के नाम....ईश्वर उन्हें लंबी उम्र दे ...सेहतमंद रखे...

राही ओ राही....ओ राही, तेरे सर पे दुआओं के साए रहें....तू निराशा में आशा के दीप जलाए..हो हिमालय से ऊंचा तेरा हौसला....

गुरुवार, 14 मई 2015

अब सरकारी विज्ञापनों में नेता नहीं दिखा करेंगे..

जब सरकारी विज्ञापनों से नेताओं की तस्वीरें ही गायब हो जाएंगी तो फिर उन विज्ञापनों का लुत्फ़ ही क्या बाकी रह जाएगा। चलिए, लुत्फ कितना बचेगा, कितना जाएगा....यह तो समय ही बताएगा।

लेकिन आज सुबह अखबार उठाई तो मन प्रसन्न हो गया यह खबर देख कर कि सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को सरकारी विज्ञापनों में मंत्रियों और नेताओं की तस्वीर लगाने पर रोक लगा दी है। कोर्ट ने कहा, ऐसे विज्ञापनों में सिर्फ प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और मुख्य न्यायाधीश की ही तस्वीर लग सकेगी, वह भी उनकी मंजूरी के बाद।

व्यक्ति पूजा के खिलाफ 

कोर्ट ने यह फैसला सीपीआईएल और कॉमन कॉज की याचिका पर दिया है, जिसकी पैरवी अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने की थी। इस याचिका पर जस्टिस रंजन गोगोई की पीठ ने कहा, राजनीतिक व्यक्तित्वों के चित्र विज्ञापनों में लगातार छापने से व्यक्ति पूजा होने की संभावना रहती है. कोर्ट ने कहा कि दिवंगत नेताओं की याद में जारी विज्ञापनों में उनके फोटो लग सकते हैं।

अखबारों का भी अपना अद्भुत अंदाज़ रहता है चुटकी लेने का... आप देखिए अखबार के पहले पन्ने पर छपी इस पहली खबर में कैसे प्रोमिनेंटली लिखा है...Pictures of Sonia Gandhi, Rahul Gandhi, A B Vajpayee and other prominent leaders to vanish from govt ads. सोचने वाली बात है कि जहां सैंकड़ों-हज़ारों दूसरे नेताओं की तस्वीरें अब सरकारी विज्ञापनों से गायब हो जाएंगी....वहीं पर इन की भी तस्वीरें नहीं दिखेंगी तो कौन सी बडी बात है।

मुझे तो इस खबर पढ़ कर इतनी खुशी हुई है कि मैं ब्यां नहीं कर सकता। ऐसे दर्जनों विज्ञापन हर अखबार में दिख जाया करते थे.....झुंझलाहट हुआ करती थी यार इतनी सारी तस्वीरें बार बार देख कर ..ऐसे लगा करता था जैसे ये लोग अपनी तिजोरी से पैसा निकाल कर यह सब कुछ बनवा रहे हैं।

और इन की जो तस्वीरें इन विज्ञापनों में लगती थीं, उन पर ही राजनीति हावी हुआ करती थी....जिस का जितना बड़ा कद उस की फोटू भी उतनी ही बड़ी और उसे उतना ही महत्व दिया जाता था....मेरे जैसा आदमी विज्ञापन में लिखी बात तो काम पढ़ता था, इन तस्वीरों के साइज को देख कर इन में दिख रहे लोगों की राजनीतिक कद-काठी का आंकलन करने में लग जाता था। है कि नहीं, बिल्कुल फिजूल का काम, लेकिन जो सच्चाई थी मैंने बता दी, अब देखा जाए कि मेरे को क्या लेना देना इस तरह की राजनीतिक कद-काठी को भांप कर।

और सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की जितना प्रशंसा की जाए उतनी कम है....मैं कईं बार सोचता हूं जिस का काम उसी को साजे......एक कहावत है ना....प्रशांत भूषण को इस तरह के बढ़िया बढ़िया कामों में ही मन लगाना चाहिए. क्या करना है राजनीति के चक्कर में पड़ कर......हमें ईश्वर ने किसी खास मकसद के लिए भेजा है...हम वही काम बखूबी कर सकते हैं। प्रशांत भूषण पर हमें फख्र है .....बहुत बहुत धन्यवाद इस तरह की जनहित याचिकाओं की पैरवी करने के लिए.......इस तरह के केस देश में प्रजातंत्र को और भी सजाने का काम करते हैं। निःसंदेह!!

सरकारी विज्ञापनों पर नहीं लगेगी नेताओं की तस्वीर

अभी अभी मुझे रोटी फिल्म का ध्यान आ गया ...उस के एक गीत की वजह से ....यह जो पब्लिक है, सब जानती है ...





बुधवार, 13 मई 2015

यह है गीता का ज्ञान...

अच्छा यार, ज्ञान की बातें बाद में करते हैं...पहले कुछ इधर उधर की बातें करते हैं। पिछले दो तीन दिन से कुछ ऐसी व्यस्तता रही कि सुबह साईक्लिंग करने नहीं जा सका...लिखने पढ़ने के चक्कर में रहा। करना पड़ता है, वह भी ज़रूरी है।

दो दिन पहले मैं एक दिन साईकिल पर शाम को रायबरेली रोड़ पर निकल गया.. मैं आप को बता नहीं सकता कि वह अनुभव कितना बुरा रहा। भारी ट्रैफिक और उतना ही प्रदूषण....ऊपर से उमस....ऐसा लग रहा था कि कहां आ गया...यही लगा कि साईक्लिंग आदि का शौक तो सुबह सवेरे के लिए ही बढ़िया है....एक दम नैसर्गिक वातावरण में। अचानक चलते चलते मैंने पेढ़ देखे ...मैं सैनिक कॉलोनी की तरफ़ मुड़ गया...इतने हरे-भरे पेढ़ कि मुझे लगा जैसे मैं एसी हाल में आ गया ...रूह खुश हो गई.

हां, तो ज्ञान की बातें आज चलेंगी ...यार, एक तो मैं व्हाट्सएप और फेसबुक पर यह ज्ञान से भरी बातों से बड़ा डरता हूं...परसों मैं इतना परेशान हो गया...इतने लंबे लंबे स्पैम मेसेज बार बार ..कभी एक ग्रुप से कभी दूसरे से.......अगर कुछ ग्रुप्स को म्यूट कर के भी रखें तो भी कभी तो बंदिश से तो मैसेज देखने ही पड़ते हैं...अब दोस्तो बंदिश से तो हम लोग अपने मास्टरों के काबू में नहीं आए....इसलिए इतनी ढ़ेर सारी ज्ञान की बातें देख देख कर मेरा तो भाई सिर दुःखने लगता है....अधिकतर तो मैं पढ़ता भी नहीं था, लेकिन स्क्रीन पर इन्हें स्क्रॉल करते करते ही वॉट लगती थी......किसी का मज़ाक उड़ाना अपने को बिल्कुल पसंद नहीं, अपनी ही मूर्खता पर हंसना ठीक लगता है....इसलिए मैं तो अधिकतर वाट्सएप ग्रुपों से बाहर निकल आया....अपने को इतना ज्ञान रास नहीं आता। बस, कुछ परिवार के एवं पुराने कालेज के दिनों के दोस्तों के ग्रुप में ही हाजिर हूं अभी......यार, ये सब कालेज के उन दिनों के जिगरी सहपाठी हैं जब हमें न बात करने की तहज़ीब थी, न ही पतलून डालने का ढंग आता था...हम सब एक ही तरह के थे....डरे सहमे से ....पता नहीं किस कमबख्त से.......इन पुराने बंदों के साथ नखरे नहीं चलते....इन सब को एक दूसरे की साईकिल की हालत तक तो पता रहती थी और वे आज भी याद करते हैं।

हां, अब ज्ञान की असली बात पर आते हैं...आज शाम को भी मैं आदत से मजबूर साईकिल पर घूमने निकल गया...रास्ते में मैंने देखा कि एक चौक पर कुछ लोग कुछ लिटरेचर बांट रहे थे...उन की वेशभूषा से मैं समझ गया कि यह आध्यात्मिक लिटरेचर बांट रहे हैं...मुझे इन्होंने आवाज दी तो मैं भी रूकने लगा....उस बंदे ने कहा कि सेवा है....किताबें मेरी तरफ़ कर के बोला कि सेवा है। साथ में उसने कहा कि सौ रूपये की सेवा है सारे सेट की। अब दोस्तो हम लोगों की मानसिकता है कि सेवा है तो फ्री ही होनी चाहिए....मैं आगे बढ़ गया....बिना इस बात की ज़हमत उठाए कि अकसर किताबें कौन सी हैं।

वापिसी पर फिर वही नज़ारा....बहुत से चार पहिया वाहनों वाले भी मैंने नोटिस किया कि अपने वाहनों की गति धीमी करें, शायद वे भी सौ रूपये वाली बात सुन कर झट से रफ्तार तेज़ कर के आगे निकल जाते। मैंने दो तीन मिनट यह सब देखा ....मैं भी आदत से मजबूर ...रहा नहीं गया. मैंने उनमें से एक बंदे से पूछ ही लिया कि आप इतनी मेहनत कर रहे हैं, कोई खरीदता भी है क्या इन किताबों को ! .. उसने बताया कि अगर सौ लोगों को कहते हैं तो १० या बीस लोग तो ले ही लेते हैं......बता रहे थे कि इन िकताबों में स्वामी प्रभुपाद जी की गीता की व्याख्या भी है। और भी दो तीन सनातन धर्म की किताबें......गीता तो अपने घर में कईं रखी हैं, दूसरी किताबों को देखने की मुझे जिज्ञासा ही नहीं हुई।

गीता घर में तो है....मेरी मां बताती हैं कि मेरे दादा जी गीता का अध्ययन किया करते थे...मेरे जन्म से तीन साल पहले ही वे चल बसे थे...मेरे जीजा भी गीता रोज़ पढ़ते हैं...मां भी अकसर गीता पढ़ती दिखती हैं..

मैंने भी आज से पंद्रह बीस साल पहले बंबई के भारतीय विद्या भवन जो चौपाटी एरिया में है...वहां पर छः महीने के लिए गीता पढ़ने का दाखिला लिया था...हर रविवार को दो घंटे कक्षा लगा करती थी.......पढ़ाते थे अच्छा ...लेकिन मैं तो दो तीन महीने में ही उस कोर्स से भाग निकला.....शायद एक महीना और .......अपने तो कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता था....मैंने जाना ही बंद कर दिया।

मुझे ऐसे लगता है ..लगता ही नहीं है, विश्वास है कि इस तरह का ईश्वरीय ज्ञान किसी योग्यता का मोहताज नहीं है, यह कृपा का विषय है, बख्शीश का विषय है....बस, यह समय के सत्गुरू के सनिध्य से ही मिल पाता है।

कबीर जी ने कितनी सरतला से कह दिया......पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ...पंडित भया न कोए.....ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होए।।...जितने भी साधु, संत, पीर, फकीर हुए उन्होंने बिल्कुल दो टूक शब्दों में ज्ञान को जन जन  तक पहुंचाने का काम किया......उन सब को कोटि कोटि नमन।

ज्ञान चाहे ईश्वरीय हो या दुनियावी ....हम लोग ढीठ हैं.....हम इसे व्यवहार में नहीं लाते। आज दोपहर बाद विविध भारती पर एक पर्यावरण पर सुंदर चर्चा आ रही थी....मेहमान १९५० का दशक याद कर रहा था...उस के नाना नानी दिल्ली में रहते थे...पास की दुकान से कोई सामान लेने जाना होता था तो दुकानदार सामान को अखबार के एक टुकड़े  में लपेट कर ऊपर से थोड़ा धागा (जो पास ही खूंटी से लटका रहता था) लपेट कर दे देता। घर आकार ...धागे को वापिस उस के नाना खूंटी पर टांग देते ...अखबार के टुकड़े को बेड़ के नीचे रख दिया जाता कि बाद में काम आ जाएगा...बता रहा था वह बंदा कि कहां गंदगी पैदा हुई और कहां उसने पर्यावरण को दूषित किया! अब देखें तो हर तरफ़ पालीथीन की गंदगी के अंबार लगे हुए हैं। अब आप किसी भी एटीएम मे देख लें, वहीं पर हर तरफ कागजों के ढेर लगे पड़े होते हैं.....शायद अब हम लोगों ने सोचना ही बंद कर दिया है।

स्थिति इतनी भी खराब नहीं है, कभी कभी कुछ अच्छा भी दिख जाता है.....दो दिन पहले हम लोग सब्जी खरीद रहे थे तो देखा कि एक दस वर्ष के करीब का लड़का भी सब्जी खरीदने आया हुआ था...साईकिल पर....जिस तरह से वह एक बड़े से खीरे को खाने का आनंद ले रहा था, देख कर अच्छा लगा....मैंने देखा जब वह एक रेहड़ी से सब्जी लेकर आगे जाने लगता तो अपने खीरे को साईकिल के कैरियर पर दबा देता। आज के मैकरोनी, नूडल्स, बर्गर, पिज़ा के दौर में एक बच्चे को ककड़ी-खाते देख कर बहुत अच्छा लगा......मुझे मौका नहीं मिला, बस मैं उसे इतना ही कहना चाहता था कि बस ककड़ी खीरे को खाने से पहले अच्छे से धो लेना चाहिए। कोई बात नहीं, यह ज्ञान उसे कहीं और से मिल ही जाएगा।

मैं वापिस लौट रहा था तो मुझे मेरे बेटे की पसंदीदा समोसे जलेबी की दुकान दिख गई...मैं लेने गया लेकिन उसने कहा कि आज सामान जल्दी बिक गया है....अभी टाइम लगेगा। मैंने सोचा यहां पर समोसे जलेबियां भी इस गुजिया की तरह ही बनती होंगी.....इतनी जंबो साइज की चासनी टपकाती गुजिया.....

ज्ञान बांटने वालों की कमी नहीं है, गीता के ज्ञान की बात चली तो मुझे रह रह कर आज शाम से यही गीत याद आ रहा था...यह है गीता का ज्ञान ....यह है गीता का ज्ञान ......आगे पीछे कुछ याद नहीं, यू-ट्यूब पर आखिर मिल ही गया......बड़ा रोचक गीत है....आप भी सुनिए......साठ-सत्तर-अस्सी के दशक का कोई हिंदी फिल्मी गीत हम से कैसे छुप सकता है.......और कुछ किया ही नहीं, बस ये गीत ही सुनते रहे ........वरना हम भी बंदे तो काम के..

चलिए, मैं अपनी बक बक बंद कर रहा हूं......आप पूरी तन्मयता से इसे सुनिए..



शनिवार, 9 मई 2015

एक महान् साईक्लिस्ट से मिलिए..

कल जब मैं सुबह साईकिल पर घूम रहा था तो मुझे ये सूने पड़े चाय के अड्डे दिखे...सुबह सुबह अगर आप शहर से थोड़ा सा ही बाहर निकलने की ज़हमत उठाएं तो इस तरह के देशी जुगाड़ दिख ही जाते हैं।

वैसे तो ये जुगाड़ मिट्टी से ही बने हैं..ज़ाहिर सी बात है कि मिट्टी की खुशबू तो आएगी ही...ऐसी जगहों पर क्या आपने कभी चाय और भजिया खाए हैं, अगर नहीं खाए, तो फिर आप से इस बारे में क्या बात करें।

जब भी मैं इस तरह की मिट्टी से बनी और जुड़ी जगहें देखता हूं तो मुझे कहीं न कहीं बचपन में हमारे घर के पास ही अमृतसर के इस्लामाबाद एरिया के बेहतरीन ढाबे याद आ जाते हैं....जहां से हम कभी कभी खाना लाते थे...जब मां का सिर या दांत दर्द हुआ करता या फिर मां एक दो दिन के लिए हमारे ननिहाल जाया करतीं। बड़ी ईमानदारी से कह रहा हूं कि उतनी बेहतरीन दाल और रोटी (अधिकतर चने की दाल वहां चलती है) मैंने उस के बाद कभी किसी ढाबे की नहीं खाई..उस दाल में चार चांद लगाने में मेरे पापा का भी योगदान तो होता ही था..जो उसमें केवल प्याज और भरपूर मात्रा में देशी घी डाल कर खूब गर्म कर दिया करते थे....और साथ में तंदूरी सिंकी हुई पतली कड़क रोटियां...

भूली हुई यादो इतना ना सताओ ....चैन से रहने दो.......मेरे पास न आओ.....

हां, तो कल साईकिल पर घूमते मुझे कुछ फोटो खींचने लायक दिखा नहीं ...और मैं इन दो फोटो के साथ ही वापिस घर की तरफ़ लौट रहा था तो अचानक मेरी नज़र एक शख्स पर पड़ी ...इन के साईकिल के कैरियर पर सामान इस तरह से बंधा हुआ था कि यह समझते देर न लगी कि ये लंबे टूर पर निकले हुए हैं...मैं जिस रास्ते पर जा रहा था यह शख्स उस की उल्ट दिशा से आ रहे थे......मैंने दूर से दो बार हैलो कहा ...इन्हें सुन गया और ये रूक गये...मुझे दूसरी तरफ़ आने को कहा।

मैं इन के पास गया... बातचीत शुरू हुई... यह महान शख्स हीरालाल यादव हैं जो जम्मू से कन्याकुमारी तक साईकिल टूर कर रहे हैं...गोरखपुर के रहने वाले हैं...अब बंबई में रहते हैं...अब ये साईकिल पर घूम घूम कर नशे के प्रति, पर्यावरण के प्रति लोगों को जागरूक कर रहे हैं और बेटी बचाओ...बेटी पढ़ाओ जैसे अभियानों रूपी यज्ञों में अपनी आहूति दे रहे हैं।

इन से मिल कर बहुत अच्छा लगा...क्योंकि मैं भी मन में कहीं न कहीं कुछ वर्षों बाद यही काम करने की तमन्ना रखता हूं...मैं भी बीड़ी-तंबाकू-गुटखे-पानमसाले जैसी घातक चीज़ों के लिए ऐसा ही कुछ करना चाहता हूं....लेिकन मेरा क्या है, मैं तो ख्याली पुलाव बनाने वाला मास्टर शेफ हूं....बस, ख्याली पुलाव लेकिन यह शख्स तो अकेला ही एक मिशन के लिए यह सब कर रहा है.....मैंने इन्हें कहा कि आप के इस ज़ज़्बे को सलाम।

मैंने इन के इस मिशन के बारे में पूछा तो इन्होंने बताया कि यह रोज़ाना आठ घंटे साईकिल चलाते हैं....जहां ठहरते हैं फिर वहां पर इन के लेक्चर होते हैं....मन बहुत प्रसन्न हुआ.....हम ने अपने मोबाइल फोन एक्सचेंज किए... इन्होंने मुझे अब्दुल कलाम जी से सम्मानित होते हुए का एक वीडियो दिखाया...हाल ही में इन्हें अखिलेख यादव ने भी सम्मानित किया।

अच्छा एक बात तो बताना भूल ही गया... इन्होंने बताया कि साईकिल पर इतना सामान लेकर चलने के लिए साईकिल का बेलेंस बनाना बहुत ज़रूरी है ...वरना आप साईकिल चला ही नहीं सकते ..और इसलिए इन्होंने कहा कि मेरी साईकिल की सीट नहीं है, क्योंिक मैं यह कल्पना भी नहीं कर सकता था कि बिना सीट के भी कोई साईकिल चला सकता है, इसलिए मेरा ध्यान इन के कैरियर की तरफ़ गया....शायद मैं यही सोच रहा था कि सीट तो पीछे लगी है।

लेकिन ये जैसे ही अपने साईकिल से उठे ...मैं देख कर दंग रह गया कि उस पर सीट (काठी) ही नहीं थी..मुझे कहने लगे कि आप इस पर बैठ कर देखिए....दोस्तो, मैंने कोशिश तो की, लेकिन मैं बैठ ही नहीं पाया....तस्वीरें तो मैंने और भी खींचनी थीं...लेिकन मेरा मोबाइल ऐन वक्त पर धोखा दे गया.....मैमोरी फुल......इन्होंने मेरी फोटी ली और मुझे व्हाट्सएप पर भेजी।

इन्होंने मुझे अपने इस महान् मिशन से संबंधित बहुत सी फोटो भेजीं...अखबारों की कतरने भेजीं...पढ़ कर देख कर बहुत खुशी हुई कि हीरालाल यादव जी जैसे लोग चुपचाप इस तरह के महान् कामों में लगे हुए हैं....इन के साईकिल के अगले पहिये पर दोनों तरफ़ छोटे छोटे गमलों में दो पोधे लगे देख कर मज़ा आ गया.

इन से इन के अनुभवों के बारे में कभी फिर जानेंगे और आप से शेयर करेंगे......मैंने इन्हें कहा कि आप सोशल मीडिया पर भी जुड़ें ...लेकिन अभी तो इस पोस्ट के ज़रिये मैं अपने दो लाख नियमित पाठकों तक इन की बात पहुंचा रहा हूं. सच में इन के ज़ज्बे को सलाम........ईश्वर इन की यात्रा सफल करे.....यह सुरक्षित रहें.

कल जब मैं लौट रहा था तो मुझे यही ध्यान आ रहा था कि राह पर आते जाते हम कैसे कैसे महान् लोगों से मिल जाते हैं ...लेकिन अगर हमारे पास दो मिनट बात करने के लिए समय हो तभी....यादव जी भी बता रहे थे कि मुझे भाव से कोई भी आवाज़ देता है तो मैं रूक जाता हूं...

मुझे यह गीत याद आ रहा है......राजेश खन्ना साहब के दिल से यह गीत किसी दूसरे हसीं कारण की वजह से निकल रहा है......मुझे इसलिए याद आ गया क्योंकि इस के सभी बोल दिल की गहराईयों को छू जाते हैं....



गुरुवार, 7 मई 2015

अच्छा तो सूअर भी झुंड में ही चलते हैं!

कल एक डिनर में गये थे...निमंत्रण पर Compulsory लिखा हुआ था..वहां पर खाने में थोड़ी ओव्हर-ईटिंग सी हो गई..आठ बजे से भजिया-पकौड़ी आने लगी तो खाने के समय कुछ विशेष इच्छा नहीं थी। लेकिन फिर भी स्वीट डिश में बेक्ड बूंदी, चाकलेट पुडिंग और कुल्फी देख कर रहा नहीं गया..ज़रूरत से ज़्यादा खा ली। 

आज सुबह पांच बजे के करीब उठा तो तबीयत भारी भारी सी लग रही थी..यही लगा कि अगर आज सुबह साईकिल टूर पर नहीं निकले तो सारा दिन तबीयत ऐसे ही सुस्त ही रहने वाली है। 

कॉलोनी से बाहर निकलने पर विचार बनाया कि आज एयरपोर्ट तक हो कर आया जाए...इसी चक्कर में एक-सवा घंटा भी पास हो जाएगा। 

तो हवाई अड्डे का ही रूख कर लिया। 

यह तस्वीर जो आप देख रहे हैं यह सुबह लगभग छः बजे की है...सुबह सुबह किस तरह से सफाई कर्मचारी अपने काम धंधे पर निकल पड़ते हैं। आगे चल कर मैंने दो महिलाओं को भी देखा जो बड़ी सहजता ते इस तरह की रिक्शा चला रही थीं। जो भी व्यवसाय किसी को सम्मानपूर्वक गुजर-बसर करने का अवसर देता है वह श्रेष्ठ व्यवसाय है।
बीस पच्चीस मिनट लखनऊ कानपुर रोड पर चलने के बाद एयरपोर्ट आ गया। अमौसी एयरपोर्ट जाने के लिए यहां से सड़क अंदर की तरफ़ मुड़ जाती है। आगे की पांच तस्वीरें एयरपोर्ट एप्रोच रोड की हैं।





लखनऊ का एयरपोर्ट (डोमेस्टिक टर्मिनल)
एयरपोर्ट से बाहर आने के लिए दूसरी एप्रोच रोड पर यह नोटिस किया कि लार्सेंन एंड टूबरो का कोई काम चल रहा है...और इतने बढ़िया बढ़िया स्लोगन भी दिख गये...बेहद सटीक ...थोड़ा आगे चल कर पता चला कि यह तो लखऩऊ मेट्रो का प्रोजेक्ट ऑफिस है..

वृक्ष धरा के भूषण, दूर करें प्रदूषण 

आज तक यहां लखनऊ में मेट्रो का काम ज़ोरों शोरों से चल रहा है। अखिलेश यादव सरकार ने इसे अगले विधान सभा चुनाव से पहले एयरपोर्ट से चारबाग रेलवे स्टेशन तक तो शुरू करने की ठान रखी है।

बीच बीचे में कुछ लफड़ा हो जाता है ...कुछ खास नहीं--बस ऐसे ही छोटा मोटा...क्रेडिट कौन ले और कौन किसे कितना लेने दे, यह भी तो एक बड़ा मुद्दा होता है। तो हुआ यूं कि मेट्रो के किसी समारोह में प्रदेश सरकार ने किसी केन्द्रीय मंत्री को नहीं बुलाया...दिक्कत हो गई...५० फीसदी पैसा तो केन्द्र का लग ही रहा है, केन्द्र ने कोई अनुमति देने से इंकार कर दिया.... मेट्रो के काम में अवरोध होने वाला था....लेकिन मेट्रो प्रशासन ने बीच बचाव करा के सुलह करवा दी ..अगले फंक्शन में प्रदेश सरकार के साथ साथ केन्द्र सरकार के नुमांइदे भी होंगे। शुक्र है जल्दी सी मामला सुलट गया।

यह जो तस्वीर आप नीचे देख रहे हैं, यहां से मेट्रो का काम शुरू है...यह एयरपोर्ट के बिल्कुल बाहर ही है ...

मैंने पहले शायद कभी नोटिस नहीं किया होगा......लेकिन आज सुबह मुझे यह भी पता चल गया कि झुंड में भेड़-बकरियां- गधे ही नहीं चलते, झुंड में चलने की तहज़ीब इन सूअरों को भी हासिल है। इन के पीछे भी इन का मालिक डंडा लेकर और इन्हें गालियां बकता हुआ जा रहा था।
जो नीचे आप तस्वीरें देख रहे हैं ये शहीद पथ फ्लाई-ओवर के नीचे वाली सड़क की हैं। एक बार हम एयरपोर्ट से वापिस आ रहे थे तो गल्ती से गाड़ी में इस फ्लाई-ओव्हर पर चढ़ गए और बहुत दूर निकल गये...पूरा एक डेढ़ घंटा लग गया था घर वापिस लौटते लौटते।
अकसर ट्रेनों में सफर करते वक्त हम ने झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों को मंजन, तंबाकू, और दातुन से दांत घिसते देखा है...कईं बार लोग ब्रुश करते भी दिख जाते हैं...जो भी हो इस बच्चे को ब्रुश करते देख कर अच्छा लगा...दूसरे हाथ में टंग-क्लीनर देख कर तो और भी खुशी हुई....चाहे वह ठीक ढंग से कर तो नहीं था, लेकिन कोई बात नहीं....
मजबूरी का नाम........आप जानते ही हैं। ये श्रमिक लोग बहुत सी चीज़ों को रीसाईक्लिंग करने का जुगाड़ जानते हैं...हम लोग तो बस नारे लगाते हैं...लेकिन ये लोग इसे व्यवहार में लाते हैं। आप देख रहें किस तरह से सीमेंट की पुरानी टूटी-पुरानी चद्दरों से इन्होंने अपने कच्चे झोंपड़ों की दीवारें खड़ी करने का जुगाड़ कर रखा है। इस के लिए ताली ही बजा दीजिए।


यह कोई पोखर है या कुछ और .......पता नहीं.


बड़े बड़े पेड़ों के नीचे मंदिर आदि तो बनते ही आए हैं ..लेकिन अगर इस काम को पेड़ के तने से थोड़ा हट के किया जाना तो पेड़ की सेहत के लिए बहुत अच्छा लगा। जब भी मैं इस रोड से गुज़रता हूं तो यही लगता है जैसे इस पेड़ का किसे ने गला ही दबा दिया हो..एक तरफ़ मंदिर और दूसरी तरफ़ बिना किसी गैप के एक बड़ा सा सीमेंटेड प्लेटफार्म भी बना दिया है बनाने वालों ने...!


We are in the habit of taking so many things for granted and also grumbling over slight discomforts...इन छोटे छोटे बच्चों को मैंने जब घर के सभी डिब्बों और कोल्ड-ड्रिंक्स की खाली बोतलों में पानी भरते देखा तो मुझे यह एहसास हुआ कि पानी की सही कीमत ये बच्चे जानते होंगे!

 गर्मियों का तोहफा-- तरबूज के ढ़ेर आज कल जगह जगह दिखते हैं. 
पढ़ेंगे तो बढ़ेंगे वाली बात समझ गया है यह बच्चा 
स्कूल चलें हम भी ...
 बस, घर आते आते तबीयत ठीक ही लग रही थी...फ्रिज में रखा तरबूज खाया, अच्छा लगा।
 पसंद का एक गीत बजा कर निकलता हूं.....

सोमवार, 4 मई 2015

मैं तो चला जिधर चले रस्ता ...


सच में जब मैं सुबह बाहर निकलता हूं तो मुझे भी मेरे मंज़िल का पता नहीं होता..बस, मुझे नये रास्तों की, नई जगहों की हमेशा तलाश रहती है। आज भी जब मैं इस रास्ते पर चल रहा था तो मुझे इन्हें इंतज़ार करते हुए देख कर बहुत बुरा लगा। इंतज़ार आप को पता ही है किस का हो रहा है, मैं क्या कहूं!

कल फेसबुक पर एक बिल्डींग की तस्वीर देखी ..उस की छत के बीच से एक वृक्ष की टहनी निकल रही थी...बड़ी तारीफ़ हो रही थी...वे फुसबुकिया बातें हैं..ठीक हैं...लेकिन इस देश के मिडिल क्लास लोग किसी तारीफ़ के लिए ये सब नहीं करते जो कुछ आप इस तस्वीर में देख रहे हैं। यह बहुत बड़ा पीपल का पेड़ है...और इस के इतने बड़े तने के कारण इस दुकान का दरवाज़ा भी ठीक से नहीं खुल पाता.....लेकिन ये लोग मस्त हैं....यह है पर्यावरण प्रेम.......न ही ये किसी अखबार के पेज थ्री पर छपते हैं और न ही इन्हें कोई अवार्ड के लिए चुनता है। लेकिन मजे की बात यह है कि ये लोग किसी प्रभोलन की वजह से थोड़े ही न कर रहे हैं, यह इन की सुंदर सोच की अभिव्यक्ति है। थैंक गॉड, अभी भी बहुत सी महत्वपूर्ण चीज़ें सरकारीकरण के दायरे में सीमित नहीं हैं।

मैंने कुछ दिन पहले सुबह सुबह देखा कि एक बहुत बड़ा पेड़ इस तरह के ट्री-गार्डस के अंदर लगा हुआ था। मुझे यकायक लगा कि यार, अब इस इतने पल्लवित-पुष्पित पेड़ को इस की सुरक्षा की क्या ज़रूरत है! उस दिन का सवाल बस मेरे मन में ही रह गया। लेकिन आज सुबह जब पेड़ों के इस झुरमुट को देखा तो यही लगा कि ये ट्री-गार्डस तो हमेशा ही चाहिए...कम से कम पेड़ का तना तो मानस की लालच एवं हवस रूपी कुल्हाड़ी से बचा रह पाएगा।


अरे यह क्या, यह देखिए विश्व का सब से बड़ा क्रिकेट मुकाबला होने की तैयारी हो रही है....दादा पोते के बीच...कितनी सहनशीलता मांगता है यार बच्चों के साथ इस तरह से खेलना। इन दोनों को देख कर एक बार तो ऐसा लगा जैसे यह बच्चा ता-उम्र इस के साथ रहने वाली यादों को बटोर लेने की जल्दी में है। ऐसे परिवेश में पले-बढ़े बच्चे आगे चल कर परिवार, समाज और देश को सजाने का काम करते हैं, ऐसा मैं सोचता हूं। आने वाले समय में यही यादें इस बच्चे की बेशकीमती धरोहर बन जाएंगी।

कितनी बार वही घिसी पिटी बात कहता रहता हूं कि मेरे लिए दुनिया में दो ही तरह के प्राणी हैं ...जो प्रकृति प्रेमी हैं और जो नहीं हैं। प्रकृति प्रेमियों के घरों की दहलीज़ ही उन की शख्शियत के बारे में बहुत कुछ वर्णन कर देती है अकसर...आने जाने वालों को इतनी ठंडक का अहसास।
फोटो लेते हुए तो मुझे लगा कि यह अकेला बाबा चलता हुआ इस वीरान सड़क के सन्नाटे को और भी रहस्यमयी कर रहा है..लेकिन अब ध्यान आ रहा है कि मैं अपनी सोच आखिर क्यों थोपना चाहता हूं.....मुझे क्या पता उसे सुबह सुबह यह सब करने में कितना आनंद आ रहा हो और वह मेरे बारे में सोच रहा है कि यह बंदा सुबह सुबह वीरान रास्तों पे क्या किए जा रहा है। Some questions are best left unanswered! .....आज कल तो वैसे भी निगेटवि मार्किंग होने लगी है।
एक फ्लाई-ओवर चढ़ने लगा तो यह बहुत ही बड़ा पेड़ दिख गया जिस के नीचे बीसियों लोग पनाह लिए हुए थे.....अब अगर पेड़ दिख जाए और वह अपने कैमरे से बच जाए, ऐसा कैसे हो सकता है। वैसे जब से मेरे नेक्सेस फोन का कैमरा खराब हुआ है, मेरी तस्वीरें खींचने की इच्छा नहीं होती, बारिश में भीग कर उस का एक बटन खराब हो गया है, उसे भी दिखवाना होगा....यह तस्वीरें ब्लैकबेरी से खींची गई हैं।
पैदल चलने वालों पर कब किस का ध्यान जाता है! ये अकसर हर जगह किसी न किसी अवहेलना का शिकार होते हैं। उदाहरण आप के सामने है। यह फ्लाई-ओवर सीतापुर रोड पर है...आप देखिए जहां से यह शुरू होता है वहां से लेकर ऊपर तक जो पैदल वालों के लिए चलने का रास्ता बना हुआ है, वह पूरी तरह से कुड़े-कर्कट से भरा पड़ा है, शायद इस की सुध लेने की किसी को फुर्सत नहीं है....या किसी ने यह ज़रूरत ही नहीं समझी।

लेकिन इस तरह की बदइंतज़ामी को दुरूस्त करने के लिए केवल एक सूचना के अधिकार के अंतर्गत आवेदन करने की ज़रूरत है ....अगले चंद दिनों में यह एक दम साफ हो सकता है अगर कोई आवेदक प्रशासन से यही पूछ ले कि इस रास्ता का रखरखाव जिस अधिकारी के जिम्मे है उस का नाम एवं पदनाम बताएं.....और दूसरा प्रश्न यह कि यह जो पैदल वालों के लिए रास्ता है इसे ठीक ठाक करने और खोलने में कितने दिन लगेंगे......बस, यह चाहिए.....और कुछ ही दिनों में यह सब आप को साफ़ दिखने लगेगा। रास्ते तो और भी हैं, लेकिन मुझे लग रहा है मैं विषय से हट रहा हूं।
यारां नाल बहारां..
मैं बहुत बार बुज़ुर्ग लोगों को डंडी पकड़ कर जब टहलते हुए देखता हूं तो यही सोचता हूं जैसे ये महान् लोग जवानों को संदेश दे रहे हों कि उठ जाओ....सुबह सवेरे उठने की आदत डाल लो....और घर से बाहर निकल आया करो.....इस से पहले की देर हो जाए! ... एक बार पटड़ी से उतरी रेल तो क्रेन लाइन पर ले आती है, लेकिन तंदरूस्त रहने के लिए प्रातःकाल के भ्रमण से बढ़िया कोई व्यायाम नहीं है। 
आप भी देख लें....लखनऊ की वी आई पी रोड़
अभी सात बजने वाले थे और सूर्य देवता अपनी तपिश देने लगे तो मैं भी वापिस लौट आया....यह तस्वीर वी-आई-पी रोड की है....आज की सामाजिक व्यवस्था में रहते हुए मुझे ये सब शब्द बड़े टुच्चे लगते हैं......वी-आई-पी ...कौन वी आई पी ....कौन नॉन-वी आई पी.....दुनिया की नज़र में सब से तुच्छ एवं तिरस्कृत इंसान ही मेरी नज़रों में वी आई पी नहीं.....वी वी आई पी है...पग पग पर शोषण का शिकार......

सड़कों को इस तरह के नामों से पुकारा जाना मुझे फिरंगियों की कड़वी याद दिला जाता है।

जाते जाते यह गीत तो बजा ही दूं....मैं तो चला जिधर चले रस्ता ...