रविवार, 24 मई 2015

आज मैं सरकारी भांग के ठेके पे हो ही आया...


भांग के बारे में मेरी उत्सुकता पिछले कुछ महीनों से ज़्यादा ही बढ़ गई थी...मैंने पांच छः महीने पहले लिखा भी था...
उत्सुकता कुछ तो इसलिए बढ़ गई थी क्योंकि मैं जब से लखनऊ में आया हूं मैंने कईं जगह पर भांग के सरकारी ठेके देखता हूं..

बचपन से भांग की यादें कुछ खास नहीं....बस, जिस घर में हम रहते थे उस के पीछे वीरान जगह थी...जहां पर अकसर आने जाने वाले, कूड़ा कर्कट उठाने वाले लोग कुछ जंगली पौधे के पत्तों को तोड़ते, दोनों हाथों में मसलते, फिर किसी कागज़ में डाल कर पीने लगते...हमें तब पता चल गया था कि यह भांग के पौधे हैं।

फिर कालेज में गये तो भांग के बारे में बॉटनी (वनस्पति विज्ञान) पढ़ते अच्छे से पढ़ा। फिर जब मेडीसन पढ़ने लगे तो पता चला कि यह किस तरह का नशा है।

उन्हीं दिनों की बात है कि होस्टल में रहने वाले कुछ लड़कों को होली वाले दिन धोखे से भांग के पकोड़े खिला दिए गये..उन की हालत इतनी खराब हो गई, उल्टीयां होने लगीं कि उन्हें अस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा....तब पता चला कि भांग बहुत खराब चीज है।

और सब से ज़्यादा तारूफ़ भांग से राजेश खन्ना और मुमताज ने तब तक करवा ही दिया था...जब वे शिवरात्रि के दिन भांग वांग पी लेते हैं....

हां, तो भांग के ठेके वाली बात पर वापिस लौटते हैं...आज मैं एक भांग के ठेके पर रूक ही गया...यह सरकारी ठेका है...मुझे सीधा उस के अंदर जाते हुए झिझक महसूस हुई तो मैंने उस के साथ वाली दुकान से उस ठेके के बारे में थोड़ा जानना चाहा...उसने बताया कि दस बीस रूपये में भांग मिल जाती है...धंधा बहुत बढ़िया है पर यह भांग दिमाग को बिल्कुल खोखला कर देती है। अगर इन ठेकों पर कोई गलत काम होता दिख जाए तो सरकार इन का लाइसेंस कैंसिल भी कर देती है...मैं मन में सोच रहा था कि यार, यह तो तुम मुझे मत बताओ...यह सब सुन कर अब हंसी आती है।
मैं वहां से जाने लगा तो इच्छा हुई कि हिम्मत कर के अंदर ही चलता हूं....

मैं अंदर गया तो देखा कि एक कारीगर जैसा दिखने वाला बंदा छोटे छोटे लड्डू से बना रहा था ..मैंने उत्सुकता से पूछा कि यह क्या है, जवाब मिला कि यह भांग है। यह जो तस्वीर आप देख रहे हैं ये भांग के गोले हैं....बीस बीस रूपये में बिकते हैं।

भांग के गोले 
अब मैं अंदर चला ही गया था तो क्या कहता कि मैं क्यों आया हूं...क्या मैं उस कारीगर के पीछे बैठा उस ठेके के मालिक को कहता कि मैं बस फोटो खींचने आया हूं....यह तो ठीक न लगता ...इसलिए मैंने बात इस तरह से शुरू की कि पंजाब में तो भांग के पकोड़े खूब बिकते हैं। पंजाब का नाम सुन कर दुकान का मालिक कहने लगा कि पंजाब में तो नशों की भरमार है।

बहरहाल, उसने मुझे पूछा कि आप उन पकोड़ों के लिए भांग लेना चाहते हैं, वह भी हमारे पास है....वहां पर पैकेटों में भांग की पत्तियां पैक की हुई थीं....उसने बताया पकोड़े इसी के बनते हैं।

अभी इतनी बात चल रही थी कि एक आदमी आया और इन भांग के गोलों के पास ही रखे कुछ चांदी के वर्क लगे छोटे छोटे भांग के गोले की तरफ़ इशारा कर के एक लेने लगा...बीस रूपये में....उसे मुनक्का कहते हैं....मैंने पूछा कि इसे मुनक्का क्यों कहते हैं...तो कारीगर और मालिक कहने लगे कि यह मीठा होता है ... इसे देशी घी से तैयार किया जाता है।

 भांग मुनक्का 
मैंने यह भी पूछा कि बाहर दुकान के बाहर एक मटका रखा हुआ है...जो भी आपसे भांग खा रहा है, बाहर पानी ज़रूर पी रहा है ..तो कारीगर ने बताया कि भांग गले में अटक जाती है...इसलिए उसे ठीक से निगलने के लिए पानी तो पीना ही पड़ता है। अभी जब मैं विकि-पीडिया पर भांग के बारे में पढ़ रहा था तो उस में लिखा है कि जो लोग इस का सेवन करने लग जाते हैं...उन का मुहं सूखने लगता है....सूखे मुंह में रखी किसी भी चीज़ को आगे सरकाने के लिए पानी तो चाहिए ही।

मुनक्के के एक खरीददार ने मुझे भी मुनक्का खाने के लिए कहा। लेकिन मुझे तो उस मुनक्के का याद आ गया जिसे मैंने हरियाणा में बिकता सुना था...मुझे आज पता चल गया कि उस मुनक्का वटी में भी यह भांग वांग ही होती होगी।

मैंने जब पूछा कि भांग को पीया कैसे जाता है तो दुकानदार ने पास ही रखे कुछ छोटे छोटे पाउचों की तरफ़ इशारा किया कि इन में भांग का पावडर है, अगर आप इन्हें सूंघ ही लें तो बस....मस्त हो जाएं।

इतने में मैंने दुकानदार से पूछा कि क्या मैं इन भांग के गोलों की फोटो खींच लूं.....उसने कहा ...हां, हां......लेकिन मुनक्का वटी की फोटो खींचते समय कैमरा बंद हो गया...कोई बात नहीं..
नेपाल में साधु न बेच पाएंगे भांग

इस के आगे मैं वहां क्या बातें करता....उसने मेरे से पूछा कि आप कहां से आए हैं......मैंने भी अपना परिचय दे दिया।
शायद आप को पता होगा कि भांग को दवाई के तौर पर भी यूज़ किया जाता है ..कुछ पश्चिमी देशों में....और यह मेडीकल यूज़ डाक्टरों की देखरेख में होता है....विशेषकर कैंसर के दर्द को कम करने के लिए इस का बहुत इस्तेमाल हो रहा है... और अभी तो हिंदोस्तान में भी चर्चा शुरू हो गई है कि भांग के मेडीकल इस्तेमाल की अनुमति दी जानी चाहिए....

अगर इसे मेडीकल इस्तेमाल के लिए यूज़ किया जाने लगेगा तो इस का सही तरीके से शुद्दिकरण होगा,....इस तरह से बिक रही भांग में (जैसा कि मैंने ऊपर बताया है) तो पता ही नहीं कौन कौन सी अशुद्धियां हैं...क्या क्या भरा पड़ा है!... लेकिन अगर मेडीकल यूज़ के लिए इसे अनुमति मिल जाती है तो फिर डाक्टरी खुराक की तरह ही इसे लिया जा सकेगा....ऐसे ही नही भांग के गोले, भांग का मुनक्का ही खरीद कर खा लिया जाए..

जो भी हो , भांग खराब तो है ही.......नशे तो सब खऱाब ही हैं......लेकिन इस में कोई शक नहीं कि अगर इस का नियंत्रित इस्तेमाल चिकित्सा के लिए किया जाए तो कैंसर जैसे जटिल रोगों से ग्रस्त रोगियों की पीड़ा का काफ़ी कम किया जा सकता है...और चिकित्सा विज्ञानिक इसी पर रिसर्च करने की ही तो अनुमति मांग रहे हैं। आप इस िलंक को देख सकते हैं...
डाक्टरों को तो भांग पर काम कर लेने दो 

दो साल पहले की बात है हम लोग अपने नेटिव प्लेस पर गये हुए थे....वहां पर हमारे मैदान को बहुत समय से खाली छोड़ा हुआ था..वहां पर भी यह भांग के पौधे निकल आए थे....उन्हें देखते ही मेरा बेटा हंसने लगा...डैड, मरीयाना, वाह ...इस की बड़ी डिमांड है...इसी का ही बिजनेस कर लेते हैं! (बाहर देशों में भांग को मरीयाना ...Marijuana कहा जाता है)...हंसते हंसते फिर कहने लगा......Woh! Marijuana cultivation!!
अगले दिन मजदूरों से उन पत्तों को कटवा कर फैंक दिया गया।

यह टॉपिक बहुत लंबा है ...लेकिन अगर आप को भांग के बारे में बहुत कुछ जानना है तो भांग के विकिपेज पर विज़िट अवश्य करिएगा......यह रहा लिंक ....Cannabis (wikipedia page)


भांग की इतनी बातें हो गईं........ना ही मैंने इसे चखा ना ही इसे आपने खाया....लेकिन फिर भी इस की सीरियस बातों की चर्चा के बाद प्रसाद के रूप में चिट-पट वाला यह कार्टून देख कर थोड़ा हंस दीजिए....आज ही हिन्दुस्तान में छपा है....इन कार्टूनिस्टों के फन को दंडवत सलाम.....किस तरह से गागर में सागर तो भर ही देते हैं.....और बिना भांग खिलाए ही हमें लोटपाट कर देते हैं......अच्छे दिनों को चंद शब्दों में इतनी सटीकता से हमारे सामने रख दिया.....आप का क्या ख्याल है?



शनिवार, 23 मई 2015

लखनऊ का 44 डिग्री पारा एक सबक याद करा गया...

कल के अखबार में पढ़ा था कि परसों लखनऊ का पारा ४३ डिग्री था...आज के पेपर में पढ़ा कि कल का पारा ४३.९ डिग्री सेल्सियस था। दोनों दिनों में चलने वाली लू का मैं भी गवाह हूं।

मेरी बीवी मुझे बार बार याद दिलाती हैं कि बाहर कहीं भी गाड़ी पर जाया करो...झुलसने वाली गर्मी में भी पता नहीं आप को स्कूटर चलाना क्यों अच्छा लगता है!

अब इस का मैं क्या जवाब दूं....वैसे भी मुझे शहर में स्कूटर से चलना बहुत अच्छा लगता है...जहां चाहा उसे खड़ा कर दिया...जितनी भी तंग जगह हो तो भी यह तो निकल ही जाता है। रही बात झुलसने वाली ...२२-२३ बरस तक साईकिल पर झुलसते रहे ..फिर पिछले २५ बरसों से स्कूटरों पर झुलस रहे हैं तो ऐसे में गर्मी में झुलसने से कोई परहेज नहीं....बस, थोड़ी सावधानी बरतनी ज़रूर चाहिए...यह समय ने सिखा दिया है।

वैसे भी अाजकल हर जगह पार्किंग की इतनी ज़्यादा सिरदर्दी है कि कहीं भी जाने का मजा कार में जाने से अधिकतर तो किरकिरा हो जाता है.....हर तरफ से हार्न ...यहां पार्किंग नहीं, वहां नहीं, इससे अच्छा है घर में बैठ कर ही तारक मेहता का उल्टा चश्मा लगा लिया जाए।

जब स्कूल जाते थे ..सातवीं कक्षा तक पैदल ही जाते थे...मां कितनी बार कहा करती थी कि सिर पर एक छोटा सा तोलिया गीला कर के रख लिया करो...स्कूल से वापिस आते हुए..नहीं तो लू लग जाती है. हम ने कभी उन की यह बात नहीं मानी...क्योंकि हमें सिर पर तोलिया गीला कर के रखने से शर्म लगती थी।

यहां तक की रूमाल भी कभी सिर पर नहीं रखा ...जिस समय हम लोग दोपहरी में घर आया करते थे...हां, एक काला चश्मा हुआ करता था घर में ....कभी कभी चार पांच मिनट के लिए उसे ज़रूर लगा लिया करते थे...उसे भी लगाने से झिझक ही होती थी....लोग क्या कहेंगे...इतना फैशन क्यों, हम लोगों को गर्मी से ज़्यादा इन कमबख्त लोगों की ज़्यादा चिंता हुआ करती थी।

दोस्तो, मुझे सब से समझदार वे लोग लगते हैं जो अपने सिर पर अंगोछा-वोछा बांध कर गर्मी के दिनों में बाहर निकलते हैं.....कईं बार देखता हूं कि किसी किसी ने एक तोलिया ही सिर पर रखा होता है.....गीला किया होता है...बहुत अच्छी बात है।

आज से १०-१५ बरस पहले हम लोग जयपुर में जाते थे तो देखा करते थे कि वहां पर युवतियां स्कूटर चलाते हुए अपनी बांहों पर एक कपड़ा चढ़ा कर रखा करती थीं और मुंह पर भी एक दुपट्टा अच्छे से लपेट कर रखा करती थीं और अपने कपड़ों के ऊपर अपने भाई की कोई कमीज़ चढ़ा लिया करती थीं......हमें शुरू शुरू में यही लगता था कि यह सब इन्हें चमड़ी को काला पड़ने से बचाने के लिए करना पड़ता होगा.....जी हां, वह बात भी ठीक है लेकिन आज के दौर में ये लू के थपेड़े ही कुछ इस तरह के हैं कि जितना इन से बचा जा सके उतना ही ठीक है।

आज कर देखते ही हैं कि बहुत से लोग अपने चेहरे को अंगोछे या पतले दुपट्टे आदि से ढंक कर ही निकलते हैं। अच्छी बात है।

मुझे बिल्कुल अच्छे से याद है कि स्कूल के दिनों में या फिर साईकिल के दिनों में मैं जब भी बाहर गर्मी से आता तो मेरा सिर दुःखने लगता था...टोपी तो आज से २०-२५ बरस पहले बिकने लगी थीं.....तब तक हम लोग २५ साल तक यह यातना झेल चुके थे.....रंगीन चश्मे वश्मे भी लोग २०-२५ बरस पहले ही ज़्यादा पहनने लगे थे ..पहले तो लोग इसे शौकीनी कहा करते थे।

मुझे याद है कि १९८४-८५ के दौरान जब मैं येज्दी मोटरसाईकिल चलाता था तो उन दिनों मुझे बाटा कि एक दुकान से पावर का एक माथे पर टिकाने वाला कवर सा मिल गया था...उस से धूप से बड़ी राहत मिला करती थी....प्लास्टिक का था ...जैसा आज कल लोग किसी मैच को देखने जाते समय कार्डबोर्ड का माथे को कवर करने वाला एक जुगाड़ रख लिया करते हैं।

हां, अभी मुझे आप से कल का अपना अनुभव शेयर करना है....कल मुझे दोपहर में १०-१५ मिनट स्कूटर चला के कहीं जाना  था....मैंने थोड़ा आलस्य किया कि अब कौन हेलमेट निकाले डिक्की में से...सफेद टोपी तो पहना ही हूं...ऐसे ही हो कर आता हूं.......दोस्तो, यकीन मानिए...जितनी गर्मी उन लू के थपेड़ों से मुझे कल लगी ...मुझे यह सारी बातें जितनी मैंने ऊपर लिखी हैं अनायास याद आ गईं....और मुझे सड़क पर चलते चलते ऐसे लग रहा था जैसे कि मैं किसी तंदूर के बिल्कुल सामने बैठा हूं।

वैसे भी आज कर अधिकतर हेल्मेट चेहरे को कवर कर लेते हैं और लू का इतना पता नहीं चलता .. फिर भी थोड़ी सी जगह भी खाली हो तो उसमें से जाड़े और लू के दिनों में हालत खराब हो जाती है.....मुझे पिछले दिनों में यह भी समझ आने लगा है कि लोग हेल्मेट डाले हुए भी गले के आसपास अंगोछा क्यों लपेट लिया करते हैं.......आज से मैं भी कोशिश करूंगा कि अंगोछे को साथ लेकर और पानी से गीला कर के ही चला करूं।


हां, तो दोस्तो मेरा कल का सबक बस यही था ....कल इतनी ज़्यादा गर्मी थी और अचानक ध्यान आ गया कि आज तो गुरू अर्जुन देव जी का शहीदी दिवस है.....जगह जगह पर ठंडे-मीठे पानी की शबीलें लगी हुई थीं.....जहां तक मुझे याद है कि पहले यह दिन लगभग ५ जून के आसपास आया करता था...तो पंजाब में इस दिन अनेकों जगह पर रूह-अफजा, शर्बत, मीठे धूप के स्टाल और काले चने का लंगर बांटा जाता था.....कल भी यहां पर खूब लंगर लगा......लेकिन पता नहीं अब हम लोग वेस्टेज भी बहुत करते हैं.....बहुत ज़्यादा ......और उस से भी ज़्यादा गॉरबेज के अंबार लगा देते हैं। मुझे नहीं पता हम लोग कब सुधरेंगे....सुधरेंगे भी या यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहेगा।

 बल्ले बाऊ तेरे....शाबाश....आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है
लेिकन यह बाऊ तो अपनी बातें सुन कर ही सुधर गया लगता है, कल वाट्सएप पर यह तस्वीर दिखी कि इसने गर्मी से और दुर्घटना से बचने का एक अनूठा जुगाड़ कर लिया है....

इतनी ज़्यादा गर्मी में मेरे विचार में पहाड़ों की ठंडी ठंडी बातें सुनते हैं.......


शुक्रवार, 22 मई 2015

अपने काम का लेखा-जोखा...

कल मैं लखनऊ की एक कॉलोनी से निकल रहा था तो मैंने एक बंदे को देखा कि वह टुथब्रुश को दातुन के अंदाज़ में कर रहा था...बस आप इतना समझ लीजिए कि वह उस ब्रुश से दातुन का काम ले रहा था...इस से मेरे मतलब यही है कि इतने ज़ोर से वह दांतों पर तो उस ब्रुश को घिस ही रहा था ..एक बात...दूसरी बात यह कि जैसे दातुन-धारी सुबह सुबह करते हैं ना कि उसे गले की सफाई के लिए इस्तेमाल कर लिया करते हैं....हां, वह यह भी कर रहा था ...जितने उस्ताह से वह अपने ब्रुश को चला रहा था, और जैसी जैसी आवाज़ें गले की सफ़ाई की निकाल रहा था, यह सुन कर यही लग रहा था कि यह तो आज कुछ न कुछ पाड़ के ही दम लेगा।

बहरहाल, मैंने कुछ कहा नहीं ...चुपचाप आगे निकल आया...कहने को मन तो बस इतना हो रहा था कि इसे फैंक कर कहीं से दातुन उठा ले भाई।


हल्की फुल्की लगी होगी बात आपको....एक बात और भी शेयर करनी है चार पांच रोज़ पहले मैंने पहली बार एक झोंपडे के बाहर लखनऊ में देखा कि यह बच्चा ब्रुश कर रहा था और जो सब से अच्छी बात लगी कि साथ ही उसने जीब-छिलनी भी बांध रखी थी.....पहले तो मैं अपने साईकिल पर आगे निकल आया...फिर लगा कि पता नहीं फिर कभी यह मंज़र दिखे कि न दिखे.....मैं मुड़ा और उस की फोटो खींच ली.....आप देख ही रहे हैं कि वह मुझे किस तरह से घूर रहा है। कोई बात नहीं .....आप तक फोटो तो पहुंच गई।

दोस्तो, जब अस्सी के दशक में मैं डैंटिस्ट्री पढ़ रहा था तो यही लगता था कि जैसे सारी दुनिया के दांत ठीक कर देंगे....फिर एमडीएस किया तो ऐसे लगा कि जैसे लोगों के दांतों की सभी तकलीफ़े दूर कर देंगे।

लेकिन हुआ कुछ भी नहीं....पिछले २५ वर्षों से निरंतर सामान्य डेंटिस्ट्री ही कर रहा हूं ...कोई बड़ा बड़ा काम नहीं किया..कोई इंप्लांट नहीं लगाया...और कोई ऐसा काबिले तारीफ़ काम नहीं किया...बस एक सरकारी नौकरी में सामान्य डेंटिस्ट्री ठीक ठाक करता रहा....लोगों को जागरूक करता रहा ...बस यही करते करते पूरे २५ साल हो गये।
पहले किसी को ब्रुश गल्त ढंग से इस्तेमाल करते देख कर दुःख होता था...अब शायद उतना नहीं होता, पहले लोगों के कुछ दांत सड़े देख कर परेशानी होती थी, अब शायद उतनी नहीं होती, पहले पायरिया लगे मसूड़े देख कर मन विचलित होता था, अब शायद नहीं होता।

और यह मैं बिल्कुल सच कह रहा हूं....आप को भी लग रहा होगा कि अब ऐसा क्या हो गया कि अब लोगों की ये परेशानियों से मैं परेशान नहीं होता। अभी मैं उस का कारण बताऊंगा।


दो दिन पहले मैं चांदनी चौंक के एक शो-रूम से बाहर निकला...रिक्शा वाले को चलने को कहा ..कहने लगा ..आप आटो कर लो....चलिए वो तो अलग बात है, लेकिन मेरा ध्यान उस के हाथ में रखी डिब्बी की तरफ़ चला गया।
मैंने पूछा कि यह क्या कर रहे हो भाई। मुझे अंदेशा तो हो गया कि यह क्या है, दोस्तो, वह अपने दांतों पर मूसा का गुल मंजन घिस रहा था.....इस मंजन में पिसा हुआ तंबाकू ठूंसा होता है...मुंह के कैंसर का एक अचूक नुस्खा।

मैंने उसे ऐसा करने से मना किया.....लेिकन मैं उस की बात सुन कर दंग रह गया....दंग क्या रह गया, मुझे शर्म महसूस हुई कि अभी तक जागरूकता की इतनी कमी है ...उसने बताया कि उस का मुंह जाम हो गया था, खुलता नहीं था, और जब से उसने गुल मंजन (तंबाकू मंजन) लगाना शुरू किया है, उसे अच्छा लगने लगा है....मुंह खुलने लगा है। मुझे यह सब सुन कर इतना दुःख हुआ कि मैं बता नहीं सकता....तब तक मैं वहां खड़े खड़े ही उस के मुंह के अंदर झांक चुका था।
उसे तंबाकू और गुटखे की वजह से मुंह मे ओरल-सबम्यूक्सफाईब्रोसिस नामक बीमारी हो चुकी थी....जिसे कैंसर की पूर्वावस्था भी कहते हैं...बहुत अफसोस हुआ ...मैंने उसे दो चार मिनट में समझाया कि इस का पूरा इलाज करवाओ और ये सब तंबाकू-वाकू के लफड़े छोड़ दो...लगता तो था कि बात मान गया है कम से कम तंबाकू न घिसने के लिए राजी हो गया लगा।

पूछने लगा कि इस का इलाज कहां से होगा....मैंने कहा कि पास ही में मोलाना आज़ाद डैंटल कालेज अस्पताल है, वहां जाकर इस का इलाज करवा लेना....मुझे पता है कितना आसान है और कितना मुश्किल है इस तरह की बीमारी का इालज करवाना....लेकिन मैंने उसे तो बताना ही था....कम से कम कहीं से शुरूआत तो हो।

कहने लगा कि वहां तो इलाज के लिए खर्च करना होगा....मैंने कहा कि नहीं, वह फ्री अस्पताल है....लेकिन मुझे पता है कि इस तरह के इलाज के लिए बार बार इसे वहां जाना होगा, दवाईयां बाहर से भी खरीदनी होंगी, वहां पर सरकारी फीस भी भरनी होगी, बार बार अपनी दिहाड़ी खराब भी करनी होगी...क्या अभी भी आप को लगता है कि वह इलाज करवाएगा...दुआ करें कि वह करवा ले, लेकिन वह चाहते हुए भी नहीं करवा पायेगा।

हम लोगों के लिए किसी को सलाह देनी बहुत आसान होती है......बहुत आसान.....बस हमने थोड़ा सा मुंह ही तो हिलाना होता है।

जिस सरकारी अस्पताल में मैं काम करता हूं वहां पर भी मेरे पास इस तरह के बहुत से मरीज़ आते हैं.....सारा खर्च उन का सरकार उठाती है, लेकिन वे फिर भी इलाज पूरा नहीं करवाते, तंबाकू-गुटखा पता नहीं छोड़ते हैं या नहीं, मेरे पास आना छोड़ देते हेैं।

यही कारण है अब खराब दांतों और मसूड़ों की बीमारियां देख कर मेरा मन नहीं पसीजता, मुझे लगता है कि हो जाएंगे ये भी ठीक हो जाएंगे, कम से कम ज़िंदा तो रहेंगे...दांत निकल भी गए तो नकली लग जाएंगे लेकिन एक बार मुंह में कैंसर का रोग हो गया तो यह ज़िंदगी में ज़हर घोल देगा.....हम अपने मरीज़ों को टाटा अस्पताल मुंबई रेफर करते हैं, आने जाने का ...वहां पर होने वाला सारा खर्च सरकार उठाती है....लेकिन अगर इस तरह के दिहाड़ी करने वालों को इस तरह का रोग घेर लेता है तो पूरा घर ही तबाह हो जाता है.......याद आ रहा कुछ महीने पहले किसी जगह पर एक सफाईकर्मी मिला था...मुंह का कैंसर था...मैंने कहा कि इलाज क्यों नहीं करवाया, कहने लगा कि दस हज़ार रूपये का खर्चा है, चलिए, वह भी कर लेते जैसे-तैसे ....लेकिन वहां डाक्टरों ने मेरे को इतना डरा दिया कि तुम्हारे मुंह को कांटना छांटना पड़ेगा तो मैं डर गया.....कि मेरा तो प्राईव्हेट काम है, लोग मेरे को देख कर मेरे से ऩफ़रत करने लगेंगे ...काम धंधे का क्या होगा.......यह उस की आपबीती थी.

अब और क्या लिखूं........अगर अभी भी लोग पान-मसाला-गुटखा, तंबाकू, ज़र्दा, खैनी, सुरती, पान का सेवन बंद करने का मन नहीं बना रहे हैं तो कोई बात नहीं, अभी हम ने भी हार नहीं मानी है। 

बुधवार, 20 मई 2015

मां ने कहा था ओ बेटा...

आज सुबह पांच बजे ही मैं साईकिल उठा कर घूमने निकल गया...आज फिर शहर के अंदर ही घूमने लगा। फिर से वही पुराना सबक याद हो गया....सुबह सुबह शहर के अंदर साईकिल पर घूमना अच्छा नहीं लगता। बाहर की खुली सड़कों पर हरियाली में ही सुबह अच्छा लगता है।

और अगर कहीं आप किसी कॉलोनी की किस तंग गली में घुस जाएं तो क्या हालत होती है, यह तो कोई अनुभव करे तो ही पता चले। मुझे भी आज सुबह मां की कुछ दिन पहले की सीख याद आ गई...मां ने कहा था कि सुबह सुबह बाहर जाते हो, हाथ में कोई छोटी मोटी छड़ी रखा करो, कुत्ते पीछे पड़ जाएं तो उन्हें दूर रखने में मदद मिलेगी।

आज जैसे ही मैं एक कालोनी की गली में घुसा, तो मुझे नहीं पता था कि यह आगे से बंद है...जैसे ही मैं साईकिल से नीचे उतरा एक आदमी से रास्ते के बारे में पूछने लगा तो लगे कुत्ते भौंकने....मैंने उस आदमी को ही कहा कि यार, ज़रा इन कुत्तों से बाहर तो पहुंचा दो.....उसने मदद कर दी ....और मैं उस गली से बाहर आ गया......और आज से यह सबक लिया कि सुबह भ्रमण करते हुए न तो किसी तंग सी सड़कों वाले शहरी एरिया में घूमना है और गलियों में तो जाने का सवाल ही नहीं...सुबह सुबह बहुत से लोग तो सोए होते हैं, ऐसे में अगर कुत्ते अगर अपनी औकात पर उतर आएं तो बंदे का क्या बना दें, सुबह के भ्रमण का सारा फितूर उतर जाए एक ही दिन में।। वैसे भी अगर गलियों वलियों में नहीं घुसा जायेगा तो हिंदोस्तान थोड़ा सा कम ही देख लेंगे ......और तो कुछ नहीं........वह भी चलेगा!

हमारी किसी अगली दावत के लिए गिलासों का इंतज़ाम चल रहा है..
आगे जाते हुए देखा कि सुबह सुबह कुछ लोग प्लास्टिक के गिलास इक्ट्ठा कर रहे थे, मैंने पूछा कि इन का क्या होगा, तो उस बंदे ने जवाब दिया कि ये दिल्ली जाएंगे, वहां ये इन्हें फिर से ढाला जाएगा.. (यानि पिघलाया जायेगा) ...और फिर गिलास बनेंगे...सच में इस प्लास्टिक ने तो हमारी ज़िंदगी में ज़हर घोल दिया है...मैं यही सोच रहा था कि हम लोग कितनी खुशी खुशी विभिन्न समारोहों में पानी इस तरह के गिलासों में पा कर इत्मीनान कर लेते हैं कि चलो, गिलास किसी का जूठा तो नहीं है, सब साफ़-सुथरा है.....लेिकन इस तरह का प्लास्टिक हमारी सेहत के साथ सच में बहुत बड़ा खिलवाड़ कर रहा है।

मैंने एक जगह देखा कि एक कबाड़ी अपने सामान के ढेर को आग लगाए बैठा था....करते हैं यह काम कबाड़ी ताकि रबड़ आदि जल जाए और शेष बची धातु को आगे बेचा जा सके। अजीब तरह का धुआं और गंध आ रही थी...उसी आग के पास ही बैठी थी उस की बीवी और उस के पास ही उस के दो छोटे छोटे बच्चे....एक बार तो मैं आगे निकल गया, फिर मेरे से रहा नहीं गया...बच्चों को इस धुएं में खेलते देख कर.....मुझे इतना तो पता है कि मेरे कहने से वह यह काम बंद नहीं करेगा ..लेकिन मैंने उसे इतना तो दो बार ज़रूर कहा कि इस तरह का काम करते वक्त मुंह पर कपड़ा बांध लिया करे और बच्चों को तो इस तरह के धुएं से बहुत दूर रखा करे, यह इन की सेहत के लिए भी बहुत खराब है। उस ने मेरी बात पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की ....लेकिन मुझे उस की आंखों की भाषा से यह पता चल गया कि वह मेरी बात समझ गया है। मेरा क्या गया, ऐसा कितनी बार होता है ...हम कुछ ऐसा वैसा होते देखते हैं ...लेकिन हमें क्या...वाली मानसिकता के रहते आगे निकल जाते हैं....ऐसा नहीं होना चाहिए, अगर आप िकसी बात को जानते हैं तो कम से कम उसे आगे पहुंचा तो दें.......बाकी निर्णय उस के हाथ में है, लेकिन हम अपने सामाजिक दायित्व का निर्वाह तो करें।

मुझे यहां लखनऊ की अखबारें पढ़ कर यही लगने लगा है कि यहां पर अकेली टहलने निकली महिलाओं को तो अपने घर के आस पास ही टहल लेना चाहिए...कानून व्यवस्था यहां पर बहुत खराब है...छीना-झपटी, ज़ोर-जबरदस्ती दिन दिहाड़े करने से तो लोग चूकते नहीं......इसलिए विशेषकर महिलाओं को अपनी सुरक्षा के प्रति सजग रहने की ज़रूरत है.....मैं बहुत बार लिख चुका हूं कि आज के दौर में सोना तो क्या, नकली गहने पहनना भी अपनी जान को खतरे में डालने वाली बात है।

एक महिला को देखा उसने एक नुकीली सी छोटी छड़ी पकड़ी हुई थी...अब वह छड़ी इस तरह की थी कि अगर यह छड़ी किसी आपराधिक प्रवृत्ति वाले बंदे के हाथ में आ जाए तो वह उसी से कितने लोगों को नुकसान पहुचंा दे...मैं कोई गामा पहलवान नहीं हूं जानता हूं.....लेकिन फिर भी अकेली सुनसान सड़कों पर बुज़ुर्गों को भी हाथों में मजबूत सी स्टिक्स कुत्तों से रक्षा के लिए... हाथों में थामे देखता हूं तो यही लगता है कि आदमी को वही हथियार उठाना चाहिए जिसे वह अच्छे से संभाल तो सके..

बातों से बातें तो आगे से आगे निकलती ही जाएंगी........बातों का क्या हाल, लेकिन मुझे ऐसा लगने लगा है कि सुबह शाम टहलने के लिए अपने घर के आस पास का पार्क जिस में खूब लोग आते हों, नहीं तो अपनी कॉलोनी का चक्कर लगा लेना ही सुरक्षित है। यह राय विशेषकर महिलाओं के लिए है......सुनसान रास्तों पर गहने पहन कर इन्हें टहलता देख कर तो यार हम लोग इन की दबंगाई पर हैरान हो जाते हैं। आगे जैसी इन की इच्छा.......It's their life anyway....Choice is theirs!

आज साईकिल बड़ा भारी चल रहा था...ऐसे लग रहा था जैसे रिक्शा हांक रहा हूं......शाम को मेकेनिक को दिखाते हैं...बस, आज तो ऐसे लगा कि घर में एक्सरसाईकिल चलाने की बजाए साईकिल पर बाहर घूम आए।

सबक एक दूसरे से सीख लेने चाहिए....कल शाम मैं और बेटा स्कूटर पर कहीं जा रहे थे...बिज़ी रोड़ थी....दो युवक वहां पर लंबी दौड़ लगा रहे थे ...जॉगिंग....बेटा कहने लगा कि इन्हें इधर नहीं दौड़ना चाहिए....उस की बात यही थी, एक तो ट्रैफिक की वजह से अनसेफ और दूसरा इतनी प्रदूषण में इस तरह से जॉिगंग करने का मतलब यह कि हम कईं गुणा ज़्यादा प्रदूषित हवा अंदर फेफड़ों में खींच रहे हैं......कोई सुन रहा है क्या! लेिकन हर कोई अपने अनुभव से ही सीखता है....करने देने चाहिए जितने अनुभव कोई करना चाहे. ...

नसीहतों की इतनी बातें हो गईं तो मुझे यह सुंदर गीत चाचा भतीजा फिल्म का याद आ गया....मां ने कहा था ओ बेटा, कभी दिल किसी का न तोड़ो...

शनिवार, 16 मई 2015

सन्नी लिओन, मैगी और मजिस्ट्रेट का काला चश्मा...

आप को इस पोस्ट का शीर्षक कितना ऊट-पटांग लग रहा होगा..कोई बात नहीं, मुझे भी लग रहा है..लेकिन मुझे इस से बेहतर कोई सूझा नहीं।

दरअसल स्कूल के दिनों में ही मुझे छात्र-संपादक बना दिया गया...हंसी आती है अब वे दिन याद कर के...सुबह सुबह हिंदी, पंजाबी और इंगलिश के पेपर स्कूल के समय से १५ मिनट पहले देखने होते थे और उन में से मुख्य खबरों के हैडिंग एक कागज पर लिखने होते थे......फिर उन्हें गीली चाक से बड़े बड़े ब्लैक-बोर्डों पर लिखना होता था...बहुत समय तक यह सिलसिला चलता रहा।

मुझे यह सब काम करना अच्छा लगता था...मुझे यही रोमांचक लगता था कि मेरी पसंद की खबरों को रिसेस के समय सारे छात्र पढ़ेंगे।

तो आज भी अखबार देखी तो लगा कि ये तीन खबरों के हैडिंग आप से शेयर कर के पुराने दिनों की बातें याद कर लूं।
ये तीनों खबरें आज की टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले पन्ने पर छपी हैं।


कहां से शुरू करें...चलिए सन्नी लिओन ने आज कल खासी धूम मचा रखी है, उसी की खबर से कर देते हैं। किसी महिला ने पुलिस में शिकायत कर दी है कि सन्नी लिओन भारत की संस्कृति को खराब कर रही है...आप स्वयं ही देख लें यह खबर....मुझे तो सब से अजीब यह लगा कि उस खबर में उस की विवादित पोर्नो साइट का यूआरएल भी दिया हुआ है, जिसे नहीं भी पता उसे भी पता चल जाए....दरअसल हमें कुछ भी पता नहीं होता कि परदे के पीछे क्या क्या चल रहा होता है।

वैसे आज कल के दौर में इस तरह के केस हास्यास्पद ही लगते हैं....किसे किसे रोक पाएंगे....सब कुछ इतना आसानी से उपलब्ध है। मुझे तो लगने लगा है कि अब लोग इस सन्नी लिओन नामक चीज को भी बख्श दें तो बेहतर होगा..कर रही है अपना काम, करने दीजिए। मैं बिल्कुल भी नसीहत देने में विश्वास नहीं रखता, लेकिन इतना ज़रूर कहना चाहता हूं कि हम जो चाहें वह देखें नेट पर .....लेकिन इतना हमेशा याद रखें कि जैसा कंटेंट दिमाग में जाएगा......आउटपुट भी शर्तिया वैसी ही होगी। यकीनन........सौ टका प्रामाणिक सच।

करो, सन्नी लिओन, तुम अपने काम पर ध्यान दो....


दूसरी खबर, छत्तीसगढ़ का कोई मजिस्ट्रेट है...उस ने बढ़िया से नीले रंग के कपड़े और रे-बैन का चश्मा लगा कर प्रधानमंत्री से हाथ मिला लिया तो उसे चेतावनी देते हुए एक चिट्ठी थमा दी गई है। सुबह जब मैंने इस खबर को देखा तो मुझे लगा कि इस में ऐसा खबर जैसा है क्या। पहन लिया यार उसे जो अच्छा लगता होगा, उसने पहन लिया....लेिकन शाम होते होते जब इस तस्वीर को तीन चार बार देखा तो कुछ अटपटा ही लगा...ठीक है, कोई ड्रेस कोड नहीं होता, लेकिन कुछ रवायतें भी तो होती हैं...अब एक अधिकारी देश के प्रधानमंत्री से इस अंदाज़ में हाथ मिलाते हुए थोड़ा अजीब सा लगा.......शायद हमने ऐसा कभी देखा नहीं ....लेकिन फिर भी जितना इस मामले को तूल दिया गया...जितना समाचारपत्रों में उछाला गया, यह बहुत ज़्यादा हो गया...ऐसी हरकतों से हम लोग सारी दुनिया के सामने उपहास का कारण बनते हैं...अब वह अफसर आकाश से तो उतरा नहीं उसी समय, उधर ही घूम रहा होगा प्रधानमंत्री के आने से पहले...उसे चुपचाप पहले ही कह िदया जाता कि भई, जा के कपड़े बदल ले, और चश्मा भी हाथ मिलाते हुए हटा लईयो। बात इत्ती सी थी.....लेकिन अखबारों ने तो ..। वैसे ड्रेस कोड तो बहुत से कर्मचारियों का भी नहीं होता, लेकिन फिर भी मौके को देख कर ही कपड़ों को सिलेक्ट किया जाता है। चलो यार इस बात पर मिट्टी डाल देते हैं, और ऊपर से उसे दुरमुट से कूट देते हैं.....मजिस्ट्रेट साब वैसे ही परेशान हो गये होंगे......बिना वजह का पंगा हो गया।

और हां, यह क्या मैगी की जांच से पता चला है कि उस में एमएसजी नामक कैमीकल पाया गया और लैड (lead) की मात्रा भी बहुत ज़्यादा पाई गई। अब यह सब कुछ किसी लैब ने जांच कर के रिपोर्ट दी है, आप इस खबर में पढ़ सकते हैं कि कंपनी कितनी हास्यास्पद सफाई दे रही है, इतनी इनोसेंट सफाई .......क्या कहें, बस इस तरह की चीज़ों से दूर ही रहें तो बेहतर है...वैसे हम पिछले कितने वर्षों से सुनते आ रहे हैं कि ऐसी चीज़ों में इस तरह के एमएसजी जैसे कैमीकल तो होते ही हैं.....कंपनी चाहे कुछ भी कहे, उन्हें अपना माल बेचना है........लेकिन फिर भी हम लोग विशेष कर बच्चे कहां सुनते हैं.......अभी दो दिन पहले एक अखबार में एक मेडीकल शोध छपा था कि जो बच्चे जंक फूड खाते हैं, उन में भोजन को पचाने वाले आंतडियों में मौजूद सेहतमंद जीवाणु बहुत कम हो जाते हैं.....जिस की वजह से वे लोग खाना भी नहीं पचा पाते। अब इस से ज़्यादा कोई क्या कहे!

मुझे लगने लगा है कि एक स्टेज के बाद ..भाषण वाषण देने के बाद.....हर किसी को उस की किस्मत पर छोड़ दिया जाना चाहिए। स्कूल के दिनों में बस हैडिंग लिखता था, आज तो बेकार की टिप्पणीयां भी लिख दीं....कोई बात नहीं..झेल लीजिए..

हम तो राह बैठे हैं लेकर चिंगारी ...

आज मैं साईकिल पर घूमने निकला तो पास ही के गांव की तरफ़ निकल गया....देखते देखते ही मौसम बहुत सुहावना हो गया....तेज़ हवाएं चलने लगीं...बादल छाने लगे....मैंने देखा कि बहुत से रूई जैसी दिखने वाली चीज़ें हवा में लहराते हुए तेज़ी से उड़ रही थीं...

समझते देर नहीं लगी कि ये पेड़ों के बीज हैं जिन्होंने अपने आप को हवा के रूख के हवाले कर दिया है...जहां चाहे हवाएं ले जाएं...वही पर बस जाएंगे।

मुझे मुनव्वर राणा साहब की वे पंक्तियां याद आ गईं....

"हम फ़कीरों से जो चाहे वो दुआ ले जाए,
खुदा जाने कब हम को हवा ले जाए, 
हम तो राह बैठे हैं लेकर चिंगारी, 
जिस का दिल चाहे चिरागों को जला ले जाए।।"

और एक हम हैं कि हर बात की परफैक्ट प्लॉनिंग करते हैं...हर छोटी से छोटी बात की ..और अगर प्लॉनिंग के अनुसार सब कुछ हो जाए तो खुश और अगर न हो तो बस, लगते हैं कोसने अपने हालात को। काश!हम लोग मां प्रकृति से ही कुछ सीख पाएं...हर पल सारी सृष्टि हमें कुछ सिखा रही है। बस हम समर्पण नहीं कर पाते!

मुनव्वर राणा साहब की बात चली तो उन की सेहत के बारे में दो चार दिन पहले जान कर चिंता की ...उन की सेहत के लिए दुआ की....मुनव्वर राणा साहब को चार पांच बार देखने-सुनने का मौका मिला है...सारा हाल जैसे मंत्रमुग्ध कर देते हैं अपनी शायरी से....ईश्वर इन को उम्रदराज करे। अगले दिन वैसे अखबार से पता चल गया था कि उन के मुंह का आप्रेशन बिल्कुल ठीक ठाक हो गया है.....मेरी यह भी दुआ है कि वह पहले की तरह शेरों की तरह अपनी शायरी को अपने चाहने वालों तक पहुंचाते रहें। आमीन!

वैसे एक और खबर जब मुझे दो दिन पहले अखबार में दिखी तो यही लगा कि यार यह भी कोई लड़ने झगड़ने की बात हुई...आज निर्णय किया है कि तंबाकू-गुटखे के ऊपर एक किताब भी छपवा ही ली जाए...आज यह एक ख्याली पुलाव जैसा कुछ पका है, देखते हैं कब इसे अमली जामा पहनाया जाएगा।

बिन ताड़ी चले न गाड़ी (Courtesy: Google Images)
लेकिन मैं आज क्यों सुबह सुबह लड़ने झगड़ने की बातें करने लगा....कुछ नई बात करते हैं। हां, तो जब मैं साईकिल पर घूमते हुए लौट रहा था तो देखा कि थोड़ी थोड़ी दूर पर लोग इस तरह का शर्बत जैसा कुछ बेच रहे हैं.... पूछने पर पता चला कि यह ताड़ी है...बंदे ने बताया कि हमारे १०-११ पेड़ हैं, हमारे काम करने वाले बर्तन पेड़ से बांध देते हैं ...बूंद बूंद करके ताड़ी उस में गिरती रहती है...एक डिब्बा बीस रूपये में और मिट्टी का पूरा बर्तन अस्सी रूपये में बेचते हैं। पूरा बर्तन पीने पर आप को एक बीयर का नशा हो जाता है, ऐसा उसने बताया। पता चला कि यह दो महीने का ही धंधा है .. आते जाते लोग खूब पीते हैं...मैंने भी देखा कि लोग अपने वाहन रोक कर इस ताड़ी का आनंद ले रहे थे।

उस ताड़ी वाले ने मुझे दूर से ही एक ताड़ी का पेड़ दिखाया ...बताने लगा कि यह नारियल जैसा दिखता है..लेिकन यह ताड़ी का पेड़ है।

बस, आज के लिए इतना ही ... ड्यूटी पर निकलना है, यही अपनी बात को विराम देता हूं।

हां, अभी रेडियो पर एक बहुत सुंदर गीत बज रहा था ... मैंने पता नहीं कितने सालों बाद सुना था....आज यह गीत मुनव्वर राणा साहब के नाम....ईश्वर उन्हें लंबी उम्र दे ...सेहतमंद रखे...

राही ओ राही....ओ राही, तेरे सर पे दुआओं के साए रहें....तू निराशा में आशा के दीप जलाए..हो हिमालय से ऊंचा तेरा हौसला....

गुरुवार, 14 मई 2015

अब सरकारी विज्ञापनों में नेता नहीं दिखा करेंगे..

जब सरकारी विज्ञापनों से नेताओं की तस्वीरें ही गायब हो जाएंगी तो फिर उन विज्ञापनों का लुत्फ़ ही क्या बाकी रह जाएगा। चलिए, लुत्फ कितना बचेगा, कितना जाएगा....यह तो समय ही बताएगा।

लेकिन आज सुबह अखबार उठाई तो मन प्रसन्न हो गया यह खबर देख कर कि सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को सरकारी विज्ञापनों में मंत्रियों और नेताओं की तस्वीर लगाने पर रोक लगा दी है। कोर्ट ने कहा, ऐसे विज्ञापनों में सिर्फ प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और मुख्य न्यायाधीश की ही तस्वीर लग सकेगी, वह भी उनकी मंजूरी के बाद।

व्यक्ति पूजा के खिलाफ 

कोर्ट ने यह फैसला सीपीआईएल और कॉमन कॉज की याचिका पर दिया है, जिसकी पैरवी अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने की थी। इस याचिका पर जस्टिस रंजन गोगोई की पीठ ने कहा, राजनीतिक व्यक्तित्वों के चित्र विज्ञापनों में लगातार छापने से व्यक्ति पूजा होने की संभावना रहती है. कोर्ट ने कहा कि दिवंगत नेताओं की याद में जारी विज्ञापनों में उनके फोटो लग सकते हैं।

अखबारों का भी अपना अद्भुत अंदाज़ रहता है चुटकी लेने का... आप देखिए अखबार के पहले पन्ने पर छपी इस पहली खबर में कैसे प्रोमिनेंटली लिखा है...Pictures of Sonia Gandhi, Rahul Gandhi, A B Vajpayee and other prominent leaders to vanish from govt ads. सोचने वाली बात है कि जहां सैंकड़ों-हज़ारों दूसरे नेताओं की तस्वीरें अब सरकारी विज्ञापनों से गायब हो जाएंगी....वहीं पर इन की भी तस्वीरें नहीं दिखेंगी तो कौन सी बडी बात है।

मुझे तो इस खबर पढ़ कर इतनी खुशी हुई है कि मैं ब्यां नहीं कर सकता। ऐसे दर्जनों विज्ञापन हर अखबार में दिख जाया करते थे.....झुंझलाहट हुआ करती थी यार इतनी सारी तस्वीरें बार बार देख कर ..ऐसे लगा करता था जैसे ये लोग अपनी तिजोरी से पैसा निकाल कर यह सब कुछ बनवा रहे हैं।

और इन की जो तस्वीरें इन विज्ञापनों में लगती थीं, उन पर ही राजनीति हावी हुआ करती थी....जिस का जितना बड़ा कद उस की फोटू भी उतनी ही बड़ी और उसे उतना ही महत्व दिया जाता था....मेरे जैसा आदमी विज्ञापन में लिखी बात तो काम पढ़ता था, इन तस्वीरों के साइज को देख कर इन में दिख रहे लोगों की राजनीतिक कद-काठी का आंकलन करने में लग जाता था। है कि नहीं, बिल्कुल फिजूल का काम, लेकिन जो सच्चाई थी मैंने बता दी, अब देखा जाए कि मेरे को क्या लेना देना इस तरह की राजनीतिक कद-काठी को भांप कर।

और सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की जितना प्रशंसा की जाए उतनी कम है....मैं कईं बार सोचता हूं जिस का काम उसी को साजे......एक कहावत है ना....प्रशांत भूषण को इस तरह के बढ़िया बढ़िया कामों में ही मन लगाना चाहिए. क्या करना है राजनीति के चक्कर में पड़ कर......हमें ईश्वर ने किसी खास मकसद के लिए भेजा है...हम वही काम बखूबी कर सकते हैं। प्रशांत भूषण पर हमें फख्र है .....बहुत बहुत धन्यवाद इस तरह की जनहित याचिकाओं की पैरवी करने के लिए.......इस तरह के केस देश में प्रजातंत्र को और भी सजाने का काम करते हैं। निःसंदेह!!

सरकारी विज्ञापनों पर नहीं लगेगी नेताओं की तस्वीर

अभी अभी मुझे रोटी फिल्म का ध्यान आ गया ...उस के एक गीत की वजह से ....यह जो पब्लिक है, सब जानती है ...





बुधवार, 13 मई 2015

यह है गीता का ज्ञान...

अच्छा यार, ज्ञान की बातें बाद में करते हैं...पहले कुछ इधर उधर की बातें करते हैं। पिछले दो तीन दिन से कुछ ऐसी व्यस्तता रही कि सुबह साईक्लिंग करने नहीं जा सका...लिखने पढ़ने के चक्कर में रहा। करना पड़ता है, वह भी ज़रूरी है।

दो दिन पहले मैं एक दिन साईकिल पर शाम को रायबरेली रोड़ पर निकल गया.. मैं आप को बता नहीं सकता कि वह अनुभव कितना बुरा रहा। भारी ट्रैफिक और उतना ही प्रदूषण....ऊपर से उमस....ऐसा लग रहा था कि कहां आ गया...यही लगा कि साईक्लिंग आदि का शौक तो सुबह सवेरे के लिए ही बढ़िया है....एक दम नैसर्गिक वातावरण में। अचानक चलते चलते मैंने पेढ़ देखे ...मैं सैनिक कॉलोनी की तरफ़ मुड़ गया...इतने हरे-भरे पेढ़ कि मुझे लगा जैसे मैं एसी हाल में आ गया ...रूह खुश हो गई.

हां, तो ज्ञान की बातें आज चलेंगी ...यार, एक तो मैं व्हाट्सएप और फेसबुक पर यह ज्ञान से भरी बातों से बड़ा डरता हूं...परसों मैं इतना परेशान हो गया...इतने लंबे लंबे स्पैम मेसेज बार बार ..कभी एक ग्रुप से कभी दूसरे से.......अगर कुछ ग्रुप्स को म्यूट कर के भी रखें तो भी कभी तो बंदिश से तो मैसेज देखने ही पड़ते हैं...अब दोस्तो बंदिश से तो हम लोग अपने मास्टरों के काबू में नहीं आए....इसलिए इतनी ढ़ेर सारी ज्ञान की बातें देख देख कर मेरा तो भाई सिर दुःखने लगता है....अधिकतर तो मैं पढ़ता भी नहीं था, लेकिन स्क्रीन पर इन्हें स्क्रॉल करते करते ही वॉट लगती थी......किसी का मज़ाक उड़ाना अपने को बिल्कुल पसंद नहीं, अपनी ही मूर्खता पर हंसना ठीक लगता है....इसलिए मैं तो अधिकतर वाट्सएप ग्रुपों से बाहर निकल आया....अपने को इतना ज्ञान रास नहीं आता। बस, कुछ परिवार के एवं पुराने कालेज के दिनों के दोस्तों के ग्रुप में ही हाजिर हूं अभी......यार, ये सब कालेज के उन दिनों के जिगरी सहपाठी हैं जब हमें न बात करने की तहज़ीब थी, न ही पतलून डालने का ढंग आता था...हम सब एक ही तरह के थे....डरे सहमे से ....पता नहीं किस कमबख्त से.......इन पुराने बंदों के साथ नखरे नहीं चलते....इन सब को एक दूसरे की साईकिल की हालत तक तो पता रहती थी और वे आज भी याद करते हैं।

हां, अब ज्ञान की असली बात पर आते हैं...आज शाम को भी मैं आदत से मजबूर साईकिल पर घूमने निकल गया...रास्ते में मैंने देखा कि एक चौक पर कुछ लोग कुछ लिटरेचर बांट रहे थे...उन की वेशभूषा से मैं समझ गया कि यह आध्यात्मिक लिटरेचर बांट रहे हैं...मुझे इन्होंने आवाज दी तो मैं भी रूकने लगा....उस बंदे ने कहा कि सेवा है....किताबें मेरी तरफ़ कर के बोला कि सेवा है। साथ में उसने कहा कि सौ रूपये की सेवा है सारे सेट की। अब दोस्तो हम लोगों की मानसिकता है कि सेवा है तो फ्री ही होनी चाहिए....मैं आगे बढ़ गया....बिना इस बात की ज़हमत उठाए कि अकसर किताबें कौन सी हैं।

वापिसी पर फिर वही नज़ारा....बहुत से चार पहिया वाहनों वाले भी मैंने नोटिस किया कि अपने वाहनों की गति धीमी करें, शायद वे भी सौ रूपये वाली बात सुन कर झट से रफ्तार तेज़ कर के आगे निकल जाते। मैंने दो तीन मिनट यह सब देखा ....मैं भी आदत से मजबूर ...रहा नहीं गया. मैंने उनमें से एक बंदे से पूछ ही लिया कि आप इतनी मेहनत कर रहे हैं, कोई खरीदता भी है क्या इन किताबों को ! .. उसने बताया कि अगर सौ लोगों को कहते हैं तो १० या बीस लोग तो ले ही लेते हैं......बता रहे थे कि इन िकताबों में स्वामी प्रभुपाद जी की गीता की व्याख्या भी है। और भी दो तीन सनातन धर्म की किताबें......गीता तो अपने घर में कईं रखी हैं, दूसरी किताबों को देखने की मुझे जिज्ञासा ही नहीं हुई।

गीता घर में तो है....मेरी मां बताती हैं कि मेरे दादा जी गीता का अध्ययन किया करते थे...मेरे जन्म से तीन साल पहले ही वे चल बसे थे...मेरे जीजा भी गीता रोज़ पढ़ते हैं...मां भी अकसर गीता पढ़ती दिखती हैं..

मैंने भी आज से पंद्रह बीस साल पहले बंबई के भारतीय विद्या भवन जो चौपाटी एरिया में है...वहां पर छः महीने के लिए गीता पढ़ने का दाखिला लिया था...हर रविवार को दो घंटे कक्षा लगा करती थी.......पढ़ाते थे अच्छा ...लेकिन मैं तो दो तीन महीने में ही उस कोर्स से भाग निकला.....शायद एक महीना और .......अपने तो कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता था....मैंने जाना ही बंद कर दिया।

मुझे ऐसे लगता है ..लगता ही नहीं है, विश्वास है कि इस तरह का ईश्वरीय ज्ञान किसी योग्यता का मोहताज नहीं है, यह कृपा का विषय है, बख्शीश का विषय है....बस, यह समय के सत्गुरू के सनिध्य से ही मिल पाता है।

कबीर जी ने कितनी सरतला से कह दिया......पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ...पंडित भया न कोए.....ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होए।।...जितने भी साधु, संत, पीर, फकीर हुए उन्होंने बिल्कुल दो टूक शब्दों में ज्ञान को जन जन  तक पहुंचाने का काम किया......उन सब को कोटि कोटि नमन।

ज्ञान चाहे ईश्वरीय हो या दुनियावी ....हम लोग ढीठ हैं.....हम इसे व्यवहार में नहीं लाते। आज दोपहर बाद विविध भारती पर एक पर्यावरण पर सुंदर चर्चा आ रही थी....मेहमान १९५० का दशक याद कर रहा था...उस के नाना नानी दिल्ली में रहते थे...पास की दुकान से कोई सामान लेने जाना होता था तो दुकानदार सामान को अखबार के एक टुकड़े  में लपेट कर ऊपर से थोड़ा धागा (जो पास ही खूंटी से लटका रहता था) लपेट कर दे देता। घर आकार ...धागे को वापिस उस के नाना खूंटी पर टांग देते ...अखबार के टुकड़े को बेड़ के नीचे रख दिया जाता कि बाद में काम आ जाएगा...बता रहा था वह बंदा कि कहां गंदगी पैदा हुई और कहां उसने पर्यावरण को दूषित किया! अब देखें तो हर तरफ़ पालीथीन की गंदगी के अंबार लगे हुए हैं। अब आप किसी भी एटीएम मे देख लें, वहीं पर हर तरफ कागजों के ढेर लगे पड़े होते हैं.....शायद अब हम लोगों ने सोचना ही बंद कर दिया है।

स्थिति इतनी भी खराब नहीं है, कभी कभी कुछ अच्छा भी दिख जाता है.....दो दिन पहले हम लोग सब्जी खरीद रहे थे तो देखा कि एक दस वर्ष के करीब का लड़का भी सब्जी खरीदने आया हुआ था...साईकिल पर....जिस तरह से वह एक बड़े से खीरे को खाने का आनंद ले रहा था, देख कर अच्छा लगा....मैंने देखा जब वह एक रेहड़ी से सब्जी लेकर आगे जाने लगता तो अपने खीरे को साईकिल के कैरियर पर दबा देता। आज के मैकरोनी, नूडल्स, बर्गर, पिज़ा के दौर में एक बच्चे को ककड़ी-खाते देख कर बहुत अच्छा लगा......मुझे मौका नहीं मिला, बस मैं उसे इतना ही कहना चाहता था कि बस ककड़ी खीरे को खाने से पहले अच्छे से धो लेना चाहिए। कोई बात नहीं, यह ज्ञान उसे कहीं और से मिल ही जाएगा।

मैं वापिस लौट रहा था तो मुझे मेरे बेटे की पसंदीदा समोसे जलेबी की दुकान दिख गई...मैं लेने गया लेकिन उसने कहा कि आज सामान जल्दी बिक गया है....अभी टाइम लगेगा। मैंने सोचा यहां पर समोसे जलेबियां भी इस गुजिया की तरह ही बनती होंगी.....इतनी जंबो साइज की चासनी टपकाती गुजिया.....

ज्ञान बांटने वालों की कमी नहीं है, गीता के ज्ञान की बात चली तो मुझे रह रह कर आज शाम से यही गीत याद आ रहा था...यह है गीता का ज्ञान ....यह है गीता का ज्ञान ......आगे पीछे कुछ याद नहीं, यू-ट्यूब पर आखिर मिल ही गया......बड़ा रोचक गीत है....आप भी सुनिए......साठ-सत्तर-अस्सी के दशक का कोई हिंदी फिल्मी गीत हम से कैसे छुप सकता है.......और कुछ किया ही नहीं, बस ये गीत ही सुनते रहे ........वरना हम भी बंदे तो काम के..

चलिए, मैं अपनी बक बक बंद कर रहा हूं......आप पूरी तन्मयता से इसे सुनिए..



शनिवार, 9 मई 2015

एक महान् साईक्लिस्ट से मिलिए..

कल जब मैं सुबह साईकिल पर घूम रहा था तो मुझे ये सूने पड़े चाय के अड्डे दिखे...सुबह सुबह अगर आप शहर से थोड़ा सा ही बाहर निकलने की ज़हमत उठाएं तो इस तरह के देशी जुगाड़ दिख ही जाते हैं।

वैसे तो ये जुगाड़ मिट्टी से ही बने हैं..ज़ाहिर सी बात है कि मिट्टी की खुशबू तो आएगी ही...ऐसी जगहों पर क्या आपने कभी चाय और भजिया खाए हैं, अगर नहीं खाए, तो फिर आप से इस बारे में क्या बात करें।

जब भी मैं इस तरह की मिट्टी से बनी और जुड़ी जगहें देखता हूं तो मुझे कहीं न कहीं बचपन में हमारे घर के पास ही अमृतसर के इस्लामाबाद एरिया के बेहतरीन ढाबे याद आ जाते हैं....जहां से हम कभी कभी खाना लाते थे...जब मां का सिर या दांत दर्द हुआ करता या फिर मां एक दो दिन के लिए हमारे ननिहाल जाया करतीं। बड़ी ईमानदारी से कह रहा हूं कि उतनी बेहतरीन दाल और रोटी (अधिकतर चने की दाल वहां चलती है) मैंने उस के बाद कभी किसी ढाबे की नहीं खाई..उस दाल में चार चांद लगाने में मेरे पापा का भी योगदान तो होता ही था..जो उसमें केवल प्याज और भरपूर मात्रा में देशी घी डाल कर खूब गर्म कर दिया करते थे....और साथ में तंदूरी सिंकी हुई पतली कड़क रोटियां...

भूली हुई यादो इतना ना सताओ ....चैन से रहने दो.......मेरे पास न आओ.....

हां, तो कल साईकिल पर घूमते मुझे कुछ फोटो खींचने लायक दिखा नहीं ...और मैं इन दो फोटो के साथ ही वापिस घर की तरफ़ लौट रहा था तो अचानक मेरी नज़र एक शख्स पर पड़ी ...इन के साईकिल के कैरियर पर सामान इस तरह से बंधा हुआ था कि यह समझते देर न लगी कि ये लंबे टूर पर निकले हुए हैं...मैं जिस रास्ते पर जा रहा था यह शख्स उस की उल्ट दिशा से आ रहे थे......मैंने दूर से दो बार हैलो कहा ...इन्हें सुन गया और ये रूक गये...मुझे दूसरी तरफ़ आने को कहा।

मैं इन के पास गया... बातचीत शुरू हुई... यह महान शख्स हीरालाल यादव हैं जो जम्मू से कन्याकुमारी तक साईकिल टूर कर रहे हैं...गोरखपुर के रहने वाले हैं...अब बंबई में रहते हैं...अब ये साईकिल पर घूम घूम कर नशे के प्रति, पर्यावरण के प्रति लोगों को जागरूक कर रहे हैं और बेटी बचाओ...बेटी पढ़ाओ जैसे अभियानों रूपी यज्ञों में अपनी आहूति दे रहे हैं।

इन से मिल कर बहुत अच्छा लगा...क्योंकि मैं भी मन में कहीं न कहीं कुछ वर्षों बाद यही काम करने की तमन्ना रखता हूं...मैं भी बीड़ी-तंबाकू-गुटखे-पानमसाले जैसी घातक चीज़ों के लिए ऐसा ही कुछ करना चाहता हूं....लेिकन मेरा क्या है, मैं तो ख्याली पुलाव बनाने वाला मास्टर शेफ हूं....बस, ख्याली पुलाव लेकिन यह शख्स तो अकेला ही एक मिशन के लिए यह सब कर रहा है.....मैंने इन्हें कहा कि आप के इस ज़ज़्बे को सलाम।

मैंने इन के इस मिशन के बारे में पूछा तो इन्होंने बताया कि यह रोज़ाना आठ घंटे साईकिल चलाते हैं....जहां ठहरते हैं फिर वहां पर इन के लेक्चर होते हैं....मन बहुत प्रसन्न हुआ.....हम ने अपने मोबाइल फोन एक्सचेंज किए... इन्होंने मुझे अब्दुल कलाम जी से सम्मानित होते हुए का एक वीडियो दिखाया...हाल ही में इन्हें अखिलेख यादव ने भी सम्मानित किया।

अच्छा एक बात तो बताना भूल ही गया... इन्होंने बताया कि साईकिल पर इतना सामान लेकर चलने के लिए साईकिल का बेलेंस बनाना बहुत ज़रूरी है ...वरना आप साईकिल चला ही नहीं सकते ..और इसलिए इन्होंने कहा कि मेरी साईकिल की सीट नहीं है, क्योंिक मैं यह कल्पना भी नहीं कर सकता था कि बिना सीट के भी कोई साईकिल चला सकता है, इसलिए मेरा ध्यान इन के कैरियर की तरफ़ गया....शायद मैं यही सोच रहा था कि सीट तो पीछे लगी है।

लेकिन ये जैसे ही अपने साईकिल से उठे ...मैं देख कर दंग रह गया कि उस पर सीट (काठी) ही नहीं थी..मुझे कहने लगे कि आप इस पर बैठ कर देखिए....दोस्तो, मैंने कोशिश तो की, लेकिन मैं बैठ ही नहीं पाया....तस्वीरें तो मैंने और भी खींचनी थीं...लेिकन मेरा मोबाइल ऐन वक्त पर धोखा दे गया.....मैमोरी फुल......इन्होंने मेरी फोटी ली और मुझे व्हाट्सएप पर भेजी।

इन्होंने मुझे अपने इस महान् मिशन से संबंधित बहुत सी फोटो भेजीं...अखबारों की कतरने भेजीं...पढ़ कर देख कर बहुत खुशी हुई कि हीरालाल यादव जी जैसे लोग चुपचाप इस तरह के महान् कामों में लगे हुए हैं....इन के साईकिल के अगले पहिये पर दोनों तरफ़ छोटे छोटे गमलों में दो पोधे लगे देख कर मज़ा आ गया.

इन से इन के अनुभवों के बारे में कभी फिर जानेंगे और आप से शेयर करेंगे......मैंने इन्हें कहा कि आप सोशल मीडिया पर भी जुड़ें ...लेकिन अभी तो इस पोस्ट के ज़रिये मैं अपने दो लाख नियमित पाठकों तक इन की बात पहुंचा रहा हूं. सच में इन के ज़ज्बे को सलाम........ईश्वर इन की यात्रा सफल करे.....यह सुरक्षित रहें.

कल जब मैं लौट रहा था तो मुझे यही ध्यान आ रहा था कि राह पर आते जाते हम कैसे कैसे महान् लोगों से मिल जाते हैं ...लेकिन अगर हमारे पास दो मिनट बात करने के लिए समय हो तभी....यादव जी भी बता रहे थे कि मुझे भाव से कोई भी आवाज़ देता है तो मैं रूक जाता हूं...

मुझे यह गीत याद आ रहा है......राजेश खन्ना साहब के दिल से यह गीत किसी दूसरे हसीं कारण की वजह से निकल रहा है......मुझे इसलिए याद आ गया क्योंकि इस के सभी बोल दिल की गहराईयों को छू जाते हैं....



गुरुवार, 7 मई 2015

अच्छा तो सूअर भी झुंड में ही चलते हैं!

कल एक डिनर में गये थे...निमंत्रण पर Compulsory लिखा हुआ था..वहां पर खाने में थोड़ी ओव्हर-ईटिंग सी हो गई..आठ बजे से भजिया-पकौड़ी आने लगी तो खाने के समय कुछ विशेष इच्छा नहीं थी। लेकिन फिर भी स्वीट डिश में बेक्ड बूंदी, चाकलेट पुडिंग और कुल्फी देख कर रहा नहीं गया..ज़रूरत से ज़्यादा खा ली। 

आज सुबह पांच बजे के करीब उठा तो तबीयत भारी भारी सी लग रही थी..यही लगा कि अगर आज सुबह साईकिल टूर पर नहीं निकले तो सारा दिन तबीयत ऐसे ही सुस्त ही रहने वाली है। 

कॉलोनी से बाहर निकलने पर विचार बनाया कि आज एयरपोर्ट तक हो कर आया जाए...इसी चक्कर में एक-सवा घंटा भी पास हो जाएगा। 

तो हवाई अड्डे का ही रूख कर लिया। 

यह तस्वीर जो आप देख रहे हैं यह सुबह लगभग छः बजे की है...सुबह सुबह किस तरह से सफाई कर्मचारी अपने काम धंधे पर निकल पड़ते हैं। आगे चल कर मैंने दो महिलाओं को भी देखा जो बड़ी सहजता ते इस तरह की रिक्शा चला रही थीं। जो भी व्यवसाय किसी को सम्मानपूर्वक गुजर-बसर करने का अवसर देता है वह श्रेष्ठ व्यवसाय है।
बीस पच्चीस मिनट लखनऊ कानपुर रोड पर चलने के बाद एयरपोर्ट आ गया। अमौसी एयरपोर्ट जाने के लिए यहां से सड़क अंदर की तरफ़ मुड़ जाती है। आगे की पांच तस्वीरें एयरपोर्ट एप्रोच रोड की हैं।





लखनऊ का एयरपोर्ट (डोमेस्टिक टर्मिनल)
एयरपोर्ट से बाहर आने के लिए दूसरी एप्रोच रोड पर यह नोटिस किया कि लार्सेंन एंड टूबरो का कोई काम चल रहा है...और इतने बढ़िया बढ़िया स्लोगन भी दिख गये...बेहद सटीक ...थोड़ा आगे चल कर पता चला कि यह तो लखऩऊ मेट्रो का प्रोजेक्ट ऑफिस है..

वृक्ष धरा के भूषण, दूर करें प्रदूषण 

आज तक यहां लखनऊ में मेट्रो का काम ज़ोरों शोरों से चल रहा है। अखिलेश यादव सरकार ने इसे अगले विधान सभा चुनाव से पहले एयरपोर्ट से चारबाग रेलवे स्टेशन तक तो शुरू करने की ठान रखी है।

बीच बीचे में कुछ लफड़ा हो जाता है ...कुछ खास नहीं--बस ऐसे ही छोटा मोटा...क्रेडिट कौन ले और कौन किसे कितना लेने दे, यह भी तो एक बड़ा मुद्दा होता है। तो हुआ यूं कि मेट्रो के किसी समारोह में प्रदेश सरकार ने किसी केन्द्रीय मंत्री को नहीं बुलाया...दिक्कत हो गई...५० फीसदी पैसा तो केन्द्र का लग ही रहा है, केन्द्र ने कोई अनुमति देने से इंकार कर दिया.... मेट्रो के काम में अवरोध होने वाला था....लेकिन मेट्रो प्रशासन ने बीच बचाव करा के सुलह करवा दी ..अगले फंक्शन में प्रदेश सरकार के साथ साथ केन्द्र सरकार के नुमांइदे भी होंगे। शुक्र है जल्दी सी मामला सुलट गया।

यह जो तस्वीर आप नीचे देख रहे हैं, यहां से मेट्रो का काम शुरू है...यह एयरपोर्ट के बिल्कुल बाहर ही है ...

मैंने पहले शायद कभी नोटिस नहीं किया होगा......लेकिन आज सुबह मुझे यह भी पता चल गया कि झुंड में भेड़-बकरियां- गधे ही नहीं चलते, झुंड में चलने की तहज़ीब इन सूअरों को भी हासिल है। इन के पीछे भी इन का मालिक डंडा लेकर और इन्हें गालियां बकता हुआ जा रहा था।
जो नीचे आप तस्वीरें देख रहे हैं ये शहीद पथ फ्लाई-ओवर के नीचे वाली सड़क की हैं। एक बार हम एयरपोर्ट से वापिस आ रहे थे तो गल्ती से गाड़ी में इस फ्लाई-ओव्हर पर चढ़ गए और बहुत दूर निकल गये...पूरा एक डेढ़ घंटा लग गया था घर वापिस लौटते लौटते।
अकसर ट्रेनों में सफर करते वक्त हम ने झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों को मंजन, तंबाकू, और दातुन से दांत घिसते देखा है...कईं बार लोग ब्रुश करते भी दिख जाते हैं...जो भी हो इस बच्चे को ब्रुश करते देख कर अच्छा लगा...दूसरे हाथ में टंग-क्लीनर देख कर तो और भी खुशी हुई....चाहे वह ठीक ढंग से कर तो नहीं था, लेकिन कोई बात नहीं....
मजबूरी का नाम........आप जानते ही हैं। ये श्रमिक लोग बहुत सी चीज़ों को रीसाईक्लिंग करने का जुगाड़ जानते हैं...हम लोग तो बस नारे लगाते हैं...लेकिन ये लोग इसे व्यवहार में लाते हैं। आप देख रहें किस तरह से सीमेंट की पुरानी टूटी-पुरानी चद्दरों से इन्होंने अपने कच्चे झोंपड़ों की दीवारें खड़ी करने का जुगाड़ कर रखा है। इस के लिए ताली ही बजा दीजिए।


यह कोई पोखर है या कुछ और .......पता नहीं.


बड़े बड़े पेड़ों के नीचे मंदिर आदि तो बनते ही आए हैं ..लेकिन अगर इस काम को पेड़ के तने से थोड़ा हट के किया जाना तो पेड़ की सेहत के लिए बहुत अच्छा लगा। जब भी मैं इस रोड से गुज़रता हूं तो यही लगता है जैसे इस पेड़ का किसे ने गला ही दबा दिया हो..एक तरफ़ मंदिर और दूसरी तरफ़ बिना किसी गैप के एक बड़ा सा सीमेंटेड प्लेटफार्म भी बना दिया है बनाने वालों ने...!


We are in the habit of taking so many things for granted and also grumbling over slight discomforts...इन छोटे छोटे बच्चों को मैंने जब घर के सभी डिब्बों और कोल्ड-ड्रिंक्स की खाली बोतलों में पानी भरते देखा तो मुझे यह एहसास हुआ कि पानी की सही कीमत ये बच्चे जानते होंगे!

 गर्मियों का तोहफा-- तरबूज के ढ़ेर आज कल जगह जगह दिखते हैं. 
पढ़ेंगे तो बढ़ेंगे वाली बात समझ गया है यह बच्चा 
स्कूल चलें हम भी ...
 बस, घर आते आते तबीयत ठीक ही लग रही थी...फ्रिज में रखा तरबूज खाया, अच्छा लगा।
 पसंद का एक गीत बजा कर निकलता हूं.....