गुरुवार, 7 मई 2009

अप्राकृतिक यौन-संबंधों का तूफ़ान ( सैक्सुयल परवर्शन्ज़ का अजगर )

आज एक बहुत ही बोल्ड किस्म की पोस्ट लिख रहा हूं ---लिखने से पहले कितने ही दिन यही सोचता रहा हूं कि इस विषय पर लिखूं कि नहीं लिखूं----लेकिन फिर यही ध्यान आया कि अगर पाठकों तक सही जानकारी पहुंचेगी ही नहीं तो यह जो तरह तरह के अप्राकृतिक यौन संबंधों की तेज़ आंधी-तूफ़ान सी चल रही है उस से बचने के लिये लोग किस तरह से उपाय कर पायेंगे।


चलिये, शुरू करते हैं---इन बलात्कार की खबरों से। आपने भी यह तो नोटिस किया ही होगा कि जब हम लोग छोटे थे और जब कभी महीनों के बाद किसी अखबार में बलात्कार की खबर छपती थी तो एक सनसनी फैल जाया करती थी। लोग हैरान-परेशान से हो जाया करते थे और उस केस से लगभग अपने आप को पर्सनली एन्वॉल्व करते हुये उस केस को मीडिया के माध्यम से पूरा फॉलो-अप करते थे कि उस कमबख्त अपराधी का आखिर हुआ क्या ?


आज का दौर देखिये---लगभग हर रोज़ अखबार में बलात्कार की खबरें छप रही हैं लेकिन लोगों की अब इस में रूचि नहीं रही ----अब वे इस में भी क्रूरता के ऐंगल की तलाश करते फिरते हैं ---अब पब्लिक की फेवरिट खबर हो गई है सामूहिक बलात्कार की खबरें ---जिन्हें मीडिया परोसता भी बहुत सलीके से है। आप भी ज़रा सोचिये कि हिंदोस्तानी के वहशी दरिंदों को आखिर इस गैंग-रेप का विचार कहां से आया ?

सामूहिक बलात्कार की खबर किसी दिन अगर नहीं दिखेगी तो इस तरह की खबर दिख जायेगी की एक 70 वर्षीय बुजुर्ग ने एक छः साल की अबोध बच्ची के साथ मुंह काला किया। छः साल की ही क्यों, इस से कम उम्र की बच्चियों के साथ दुराचार की वारदातें हम मीडिया में देखते सुनते रहते हैं।

और अकसर पुरूष के साथ पुरूष के शारीरिक संबंधों ( male homosexuals) की खबरों भी हैड-लाइन बनने लगी हैं ----लेकिन महिलायें भी क्यों पीछे रहें ? --- उन के भी अंतरंग संबंधों ( लैस्बियन – lesbian relationship) की बातें मीडिया लगातार परोसता ही रहता है , इन समलैंगिक जोड़ों की शादियां भी खूब चर्चा में रहती हैं। और जब कभी विकसितदेशों में इन समलैंगिक संबंधों पर कोई नया कानून बनता है या किसी कानून का वहां विरोध बनता है तो उसे अपने यहां मीडिया के लोग खूब मिर्च-मसाला लगा कर परोसते हैं।

कॉन्डोम के विज्ञापन ऐसे आते हैं जैसे कि किसी नये तरह के पिज़ा के बारे में बताया गया हो --- फ्लेवर्ड कॉन्डोम ---- अब इस तरह के विज्ञापन देख कर किसी पाठक के मन में क्या भाव उत्पन्न होते हैं , मुझे नहीं लगता मेरा इस के बारे में कुछ लिखना यहां ज़रूरी है । एक विज्ञापन ने तो कमबख्त सभी फ्लेवर्ज़ की लिस्ट ही छाप रखी होती है---- मैंगो, स्ट्राबरी.......और साथ में नीचे लिखा होता है कि बनॉनॉ फ्लेवर ट्राई किया क्या ?

अब आगे चलें ---- यह जो आजकल लोग थ्री-सम, फोर-सम की बातें करते हैं .......यह जो सामूहिक सैक्स क्रीडायों की बातें होती हैं ----क्या यह सब कुछ इतना लाइटली लेने योग्य है ? बिल्कुल नहीं -----ये सब की सब बीमारियां हैं, कमबख्त लोगों को लाइलाज रोग परोसने के बहाने हैं, शारीरिक तौर पर तो तबाह करने के साधन हैं ही ये सब, मानसिक तौर पर भी ये यौन-विकृतियां आदमी को खत्म कर देती हैं। एक बार अगर कोई इस अंधी, अंधेर गली में घुस गया तो समझ लीजिये उस का तो काम हो गया । उस का फिर इस तरह के संबंधों से बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है -----हर तरह की ब्लैक-मेलिंग, वीडियो फिल्मिंग, दांपत्य जीवन पर बहुत ही बुरा असर और उस से भी ज़्यादा बुरा असर बच्चों के विकास पर -----उन बेचारों का भी मानसिक तौर पर बीमार होना लगभग तय ही होता है।


अब कोई अगर यह सोच रहा है कि यह सब तो अमीर, विकसित देशों में ही होता है तो हमें उस बंदे के भोलेपन पर तरस ही आयेगा। जिस तरह से यौन-विकृतियां हम जगह जगह देख-सुन रहे हैं ----गैंग-रेप, स्पॉउस स्वैपिंग, बाईसैक्सुयल लोग .........ये सब अब कैसे विकसित देशों तक ही सीमित रह पाई हैं ? ग्लोबलाईज़ेशन का ज़माना है तो कैसे कोई भी देश कोई भी ऐसी वैसी चीज़ ट्राई करने में पीछे रह सकता है।


आज से दस साल पहले की बातें याद करूं तो ध्यान आता है कि बंबई के अंग्रेज़ी के अखबारों में ढ़ेरों ऐसे विज्ञापन आते थे ( पता नहीं अब भी ज़रूर आते होंगे...या फिर अब इंटरनेट ने लोगों की मुश्किलों को आसान कर दिया है) ...... कि इस वीकएंड पर अगर ब्राड-माईंडेड दंपति बिल्कुल बिनदास पार्टी में हिस्सा लेना चाहते हैं तो इस मोबाइल नंबर पर बात करें ----साथ में यह भी लिखा होता था कि सब साफ़-सुथरे लोग हैं, ऊंची पोजीशन वाले लोग हैं, और साथ में किसी कोने में यह भी लिखा हुआ दिखता था कि इस के बारे में पूरी गोपनीयता रखी जायेगी ( Confidentiality assured!).


आये दिन बड़े शहरों में अमीरज़ादों की रेव-पार्टियां सुर्खियों में होती हैं। अब इन रेव पार्टी में क्या क्या चलता है इस का अंदाज़ा लगाने के लिये बस अपनी कल्पना के घोडे दौड़ाने की ही ज़रूरत है। ड्रग्स चलती हैं, नशे के टीके चलते हैं, दारू बहती है तो फिर इस के आगे भी सब कुछ क्यों नहीं चलता होगा ? ----आप ने बिल्कुल सही सोचा ---जी हां, सब कुछ चलता ही है।


अब कितनी यौन-विकृतियों के बारे में लिखें ----आप सब कुछ जानते हैं। लेकिन मेरा केवल एक ही प्रश्न है कि ये आज से बीस-तीस साल पहले कहां थीं ? वह भी दौर था कि महीनों बाद किसी युवती के रेप की खबर देख कर देश का खून खौलने लगता था लेकिन आज साले इस खून को क्या हो गया कि छोटी छोटी नाबालिग अबोध बच्चियों के साथ दुष्कर्म की खबरें देख-सुन कर भी यह खून बर्फ़ जैसा जमा ही रहता है ? क्यों एक 25 साल का युवक एक अस्सी साल की औरत के साथ मुंह काला करने पर उतारू हो रहा है ? हो सके तो कभी इस के बारे में सोचियेगा।


25 साल की उम्र में 1987 में एमडीएस करते हुये जब हमें एड्स के विषय पर एक सैमीनार तैयार करने को कहा गया तो हम लोगों ने पहली बार होमोसैक्सुएलिटि ( male homosexuals) का शब्द सुना था । और ये ग्रुप-सैक्स, थ्री-सम, फोर-सम, मुख-मैथुन (ओरल सैक्स), एनल सैक्स (गुदा मैथुन), स्पॉउस स्वैपिंग( एक रात के लिये पति-पत्नी की अदला-बदली) , वन-नाइट स्टैंड -----इन (यहां पर मैंने एक छोटी सी गाली लिखी थी ) विकृतियों के बारे में शायद हिंदोस्तान के चंद लोग ही जानते होंगे। लेकिन सोचने की बात तो यही है कि फिर यह सारा कचरा आया कहां से -------निःसंदेह यह सारा कचरा पोर्नोग्राफी के ज़रिये विश्व भर में फैल रहा है। मैं तो जब भी इस पोर्नोग्राफी के बारे में दो बातें ही जानता हूं ---------सीधा सा नियम है जो इनपुट हम लोग इस के अंदर डालेंगे वैसी ही आउटपुट बाहर निकलेगी। बेशक कोई कितना भी धर्मात्मा क्यों न हो , अगर अश्लील तस्वीरें, फिल्में देखी जायेंगी , अश्लील वार्तालाप में संलिप्त होगा तो फिर परिणाम भयंकर तो निकलेंगे ही।


अब आप भी यह सोच रहे होंगे कि डाक्टर तू भी क्या.....सुबह सुबह नसीहतों की घुट्टी लेकर कहां से आ टपका है ! मैं भी इस तरह के विषयों पर लिखने से पहले बहुत सोचता रहता हूं कि लिखूं कि नहीं लिखूं -----लेकिन फिर जब मन बेकाबू हो जाता है तो लिखना ही पड़ता है। इस तरह के विषयों के बारे में लोगों में बहुत ही अज्ञानता है --- लोग आपस में इन विषयों पर बात करते हुये झिझकते हैं, मीडिया-प्रिंट एवं इलैक्ट्रोनिक इन यौन विकृतियों जैसे विषयों पर खुल कर कुछ कहने से कतराता है --- तो फिर हम जैसे मलंग लोगों को कुछ तो करना ही होगा। लेकिन खफ़ा मत होईये, मैं बस कुछ मुख्य बिंदु यहां लिख कर खिसक लूंगा ----


--- पुरूष समलैंगिक को एचआईव्ही संक्रमण होने का खतरा बहुत अधिक होता है। यह विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है और इस विकृति के परिणाम हम देख ही रहे हैं।

---- जिन महिलायों को गर्भाशय का कैंसर है उन सब के प्रति आदर एवं सहानुभूति के साथ यहां यह लिखना ज़रूरी समझता हूं कि इस तरह के कैंसर के लिये एक से ज़्यादा पुरूषों के साथ शारीरिक संबंध स्थापित किया जाना अपने आप में एक रिस्क फैक्टर है। नोट करें रिस्क फैक्टर है !!

---- यह जो तरह तरह के फ्लवर्ड कॉन्डोम के विज्ञापन दे कर लोगों को किस विकृति की तरफ़ उकसाया जा रहा है , इस का अनुमान आप सहज ही लगा सकते हैं। फ्लेवर्ड ही क्यों आज कल तो ब्रिटेन में शाकाहारी कॉन्डोम( vegetarian condom) ने धूम मचा रखी है। यकीन ना आये तो गूगल सर्च कर के देख लें। बाकी अंदर की बातें आप स्वयं समझ लें -----अब सब कुछ मैं ही लिखूं क्या ?

---- जो अंग जिस काम के लिये बना है उससे वही काम लिया जायेगा तो बात ठीक है-----वरना किसी तरह का अननैचुरल( अप्राकृतिक) यौनाचार अपने साथ तबाही ही लेकर आता है। ओरल-सैक्स ( मुख मैथुन) से तरह तरह की अन्य बीमारियों के साथ साथ ह्यूमन-पैपीलोमा वॉयरस ( human papilloma virus) के ट्रांसफर होने का खतरा बहुत बड़ा होता है ( यह वही वॉयरस है जिसे कि गर्भाशय के मुख के कैंसर के बहुत से केसों के लिये दोषी पाया गया है)। ओरल-सैक्स के द्वारा इस तरह के वॉयरस के ट्रांसफर का जो खतरा बना रहता है उस से गले के कैंसर के बहुत से केस सामने आये हैं, यह मैंने कुछ अरसा पहले ही एक मैडीकल स्टडी के परिणामों को देखते हुये जाना था।

----यह जो वन-नाईट स्टैंड है, ग्रुप सैशन, थ्री सम, फोर-सम हैं ---ये सब की सब दिमागी बीमारियां हैं -----वह इसलिये कि इन के दौरान भयंकर किस्म की लाइलाज बीमारियां मोल लेने का पूरा अवसर मिलता है लेकिन फिर भी इन तरह की यौन-क्रीडायों ( परवर्शन्ज़) में लिप्त होने वाले बस एक खेल ही समझते हैं। ऐसा बिलकुल नहीं है, यह तो बस आग है। बाहर के विकसित देशों में इन यौन-जनित रोगों की वजह यही है कि वहां पर उन्मुक्त यौनाचार है । लेकिन हम लोग की क्या स्थिति है यह कोई स्टडी खुल कर कह नहीं रही है !! वैसे भी जब इस तरह के विषयों पर कुछ कहने-सुनने की बात आती है तो हम लोग कबूतर की तरह आंखें बंद कर लेने में ही अपनी भलाई समझते हुये यह सोच लेते हैं कि इस से बिल्ली भाग जायेगी।


खजुराहों की गुफायों पर आकृतियां( माफ़ कीजिये मैंने देखा नहीं है, बस सुना ही है , उसी आधार पर ही लिख रहा हूं) , कोणार्क की सैंकड़ों साल पुरानी आकृतियां ---- आप यही सोच रहे हैं ना कि डाक्टर फिर वह सब क्या है , लेकिन इमानदारी से इस का मेरे पास कोई जवाब नही है, ज़रूरी तो नहीं कि जो सदियों पुरानी बातें हैं सब पर हाथ आजमाना ही है, वैसे भी हम लोग कब सारी पुरातन बातों को मान ही लेते हैं------हज़ारों साल पहले हमारे तपी-पपीश्वरों ने तो योग-ध्यान-प्राणायाम् को भी अपनी दिनचर्या में शामिल करने की गुज़ारिश की थी, लेकिन अगर हम उन की ये बातें कहां मान रहे हैं ?


बस, दोस्तो, आज तो इन सैक्स-परवर्शन्ज़ के बारे में बातें करने की ओवर-डोज़ सी ही हो गई है ---इसलिये यही यह कह कर आप से आज्ञा लेता हूं कि किसी भी तरह का अननैचुरल सैक्सुयल आचरण केवल खतरा ही खतरा है ----------एक बार इस सुनामी की चपेट में कोई आ जाये तो फिर ......। कहने वाले ऐसे ही तो नहीं कहते कि एक बार मुंह को खून लग जाये तो बस ........।।

बुधवार, 6 मई 2009

अपने को तो ब्लॉगर ही ठीक है !!

पिछले कुछ हफ़्तों में खूब ऑन-लाइन जर्नलिज़्म पढ़ा है, देखा है ----- यह सब कुछ इतना ज़्यादा हो गया कि खेल खेल में एक सर्टिफाइड़ ऑन-लाइन जर्नलिस्ट भी बन गया ---चलिये, अब एक विकल्प तो है कि जब दांतों की डाक्टरी वाली नौकरी से थक जाऊंगा तो किसी कौने में चुपचाप लैप-टॉप ले कर बैठ जाऊंगा।

पिछले दिनों मैंने हिंदी की वेबसाइटों को भी खून छाना --इन का जायज़ा भी लिया। हिंदी की अखबारों की साइटों को भी देखा। अच्छे खासे हिंदी की अखबारों के ऑन-लाइन एडीशन कुछ अजीबो-गरीब कॉलम शुरू किये हुये हैं। मैं बड़े दिन से इन को देख रहा हूं--- अपनी प्रतिक्रिया भी भेजता रहा हूं।

लेकिन इतने weird से कॉलम मुझे दिखने लगे कि मैंने अभी से यह सोच लिया है कि इंटरनेट पर हिंदी में मैं तो केवल चिट्ठों को ही पढ़ा करूंगा और या फिर अब विकिपीडिया की तरफ़ ध्यान देना शुरू करूंगा।

मुझे अकसर अनुनाद जी प्रेरित करते रहते हैं कि हिंदी विकिपीडिया के लिये लिखा करो और मैं बार बार उस साइट पर भी गया हूं लेकिन वहां पर लेखकों के लिये दिेये गये दिशा-निर्देश इतने कठिन हैं कि मेरे तो सिर के ऊपर से ही सब कुछ निकल जाता है। पता नहीं किसी का कोई ब्लॉग इस विषय पर है कि नहीं कि हिंदी विकिपीडिया में कैसे हम लोग अपना योगदान दे सकते हैं।

मुझे कुछ हिंदी अखबारों के ऑन-लाइन एडिशन्ज़ से चिढ़ सी होने लगी है --- अभी अभी एक ऐसी ही साइट पर किसी पाठक की एक समस्या पढ़ कर यह पोस्ट लिखने लगा हूं--- पाठक ने लिखा है कि मेरी अभी अभी शादी हुई है लेकिन हम मियां-बीवी अभी कुछ साल बच्चा नहीं चाहते हैं. लेकिन पाठक लिखता है कि उस के मां-बाप को बच्चा देखने की इतनी लालसा है कि वे कह रहे हैं, कि पाठक को अपनी बीवी को पाठक के बड़े भाई के साथ सुलानी चाहिये।

सब, बेकार का कचरा भर रहे हैं इंटरनेट पर --- मुझे यह प्रश्न देख कर तो जो हैरानी होनी थी सो हुई उस से भी बड़ी हैरानगी इसलिये हुई क्योंकि उस पर बीस के करीब टिप्पणीयां लोगों ने दी हुई हैं ---- सब के सब एक्सपर्टज़ ---एक से बढ़ कर एक। मैंने भी टिप्पणी लिखने में पांच-सात मिनट लगाये ---जो मैंने टिप्पणी लिखी वह यह है ---

सुन, भई , पहले तो यह समस्या पढ़ कर मैं इसलिये परेशान हूं कि यह इंटरनेट पर हो क्या रहा है, किस तरह का कचरा फैलाया जा रहा है। पहले तो यह रियल सवाल हो ही नहीं सकता ---क्योंकि इस तरह का सवाल पूछने वाला किसी हिंदी वेबसाइट पर अपनी समस्या सारी दुनिया के सामने रखेगा , बात गले से नीचे नहीं उतरती। अगर यह मनघडंत प्रश्न है तो भी साइट का एडिटर बैठा क्या कर रहा है। मनघडंत इसलिये कह रहा हूं कि कुछ लोगों को इस तरह की बातें करने सुनने में थोड़ा बहुत मज़ा मिल जाती है ----बस, उन का कोटा इसी से पूरा हो जाता है। मैंने टिप्पणी में आगे लिखा कि देख भई पाठक वैसे तो हमें तेरे जैसे पोलू-पटोलू से बहुत सहानुभूति है कि तेरे मां-बाप भी किस चक्कर में हैं ? लेकिन अगर तेरी बात में रती भर भी सच्चाई है तो तू पहले अपने बूढ़े मां-बाप का दिमाग चैक करवा----लगता है उधर भी कचरा ही कचरा है। और हां, अगर मां और बापू को एक बच्चा देखने की इतनी ही ज़्यादा लालसा है तो बापू को एक पतिया लिख के कह डाल कि बापू, हमें छोटा भाई चाहिेये, ------बापू, कोई बात नहीं, कोशिश तो करो। टिप्पणी के अंत में मैंने लिखा कि बाकी बातें तो अपनी जगह हैं , लेकिन भई तू अपनी जोरू पर एक करम कर कि तू उसे उसके मायके छोड़ आ ----यह कह कर अभी बच्चा नहीं चाहिये। जब तेरे को चाहिये होगा तो ले आइयो बच्चा पैदा करने की मशीन को। तब तक तो बेचारी को चैन से रहने दे। देख भई तेरी जोरू को उस के मायके छोड़ने के लिये इसलिये कह रहा हूं कि अगर तेरे मां-बाप तेरे से खुले में यह कह रहे हैं कि तू बीवी को अपने बड़े भाई के साथ सुलवा ----इस का सीधा मतलब है कि तू भी बस ऐसा ही है ---- बंदा बन बंदा ।

मैंने जब इतनी बड़ी टिप्पणी लिख दी तो फिर मुझे ध्यान आ गया कि इसे कौन ऑन-लाइन करेगा ----इस पर कैंची चलेगी ही, सो मैंने स्वयं ही उस टिप्पणी को डिलीट कर दिया और लग गया पोस्ट लिखने।

मुझे तो बस यह खुशी है कि अपने पास ब्लॉगर है जिस पर अपने भाव लिख कर मन हल्का कर लेते हैं, ---- थैंक यू ब्लागर, थैंक-यू वेरी मच। कईं बार ध्यान आया भी है कि अपनी वेबसाइट शुरू करूं फिर ध्यान आता है कि कौन पड़े इस तरह के झंझट में ---कौन करे यह सब कंटैंट मैनेजमैंट ----ब्लॉगर है ना, ठीक है। उसी से काम चलाते हैं। इसलिये अब यही विचार पक्का है कि ब्लॉगर पर ही ज़्यादा से ज़्यादा ध्यान लगाऊंगा। फोक्सड़ रहने में ही समझदारी है ---- वैसे भी जब हम ब्लॉगर पर लिखने लगते हैं तो जब गूगल सर्च करते हुये लोग आप तक पहुंचते हैं तो यह आभास होता है कि यह इंटरनेट भी कितना जबरदस्त और ट्रांसपेरेंट मीडियम है ----- यहां पर ना तो कोई सिफारिश चले, न ही कोई फोन, न ही किसी एडिटर को फोन करने का झंझट, न ही किसी बड़े लेखक से किसी तरह की टिप्स लेने की ज़हमत, न ही किसी तरह की चमचागिरी, न ही किसी तरह की चापलूसी, न ही किसी तरह के जुगाड़ ढूंढने में समय खराब करने का झंझट, न ही एडिटर लोगों के नखरे झेलने का झंझट..............मेरा क्या है मैं तो सब पोल खोलता ही जाऊंगा एक बार शुरू हो गया तो हो गया ।

अहा , अहा !!!! इतना लिखने के बाद मुझे इतना हल्का महसूस हो रहा है कि क्या बताऊं ?

मंगलवार, 5 मई 2009

पंगा अकल की दाढ़ का - पार्ट 3.



हां, तो अपनी बातें हो रही हैं पंगेबाज अकल की दाढ़ के बारे में। और अब तक हमने जो थोड़ी बहुत बातें की वह इस के बारे में थीं कि 17 से 21-22 वर्ष का युवावर्ग किस तरह से इस अकल दाढ़ की वजह से परेशान रहता है। इस का यह मतलब नहीं कि इस उम्र के आगे इस दाढ़ की समस्या खत्म हो जाती है।

दरअसल हम लोग रोज़ाना बड़ी उम्र के लोगों को भी अकल दाढ़ की वजह से होने वाली विभिन्न परेशानियों के साथ देखते रहते हैं। चलिये, जैसा कि मैंने पीछली दो पोस्टों में कहा कि कुछ लोग बस दर्द-सूजन के ठीक होते ही अकल की दाढ़ को भूल सा जाते हैं।

यह भूलना विभिन्न कारणों से हो सकता है --- सकता है कि उन्होंने अपने दंत-चिकित्सक की सलाह अनुसार अकल की दाढ़ के एरिये का एक्सरे ही करवाया हो। और अगर करवाया भी हो डाक्टरी सलाह के मुताबिक ऐसी अकल की दाढ़ को निकलवाया ही हो जिस तरह की अकल दाढ़ की तस्वीर आप यहां नीचे देख रहे हैं।



ठीक है, कुछ साल बीत गये , बस, किसी बंदे को लगता रहा कि चलो, अब ठीक हैं, क्यों बिना वजह इस अकल की दाढ़ को निकलवाने के झंझट में पड़ें ----गाड़ी चल ही रही है , फिर कभी सोचेंगे। अकसर ऐसी अवस्था को इग्नोर करने के पीछे यही मानसिकता ही काम कर रही होती है।

तो, फिर सालों-साल इस तरह की टेढ़ी पड़ी अकल दाढ़ जिस के ऊपर निकलने की बिल्कुल भी संभावना नहीं होती है, मुंह के अंदर छुप कर पड़ी सी रहती है। शायद बंदे को इस की केवल इतनी परेशानी होती होगी की कभी कभी कुछ खाना-वाना फंसने पर उसे वहां से कैसे भी निकालने की ज़हमत निकालनी पड़ सकती होगी। और यह भी हो सकता है कि बंदे को ऐसे जबड़े के अंदर धंसी अकल दाढ़ की वजह से कोई परेशानी ही होती हो।

लेकिन अगर बंदे को इस से कोई परेशानी नहीं है या थोड़ा बहुत उस अकल दाढ़ एवं उससे अगली दाढ़ के बीच कुछ खाना फंसता है -----बात केवल इतनी ही नहीं है। दरअसल , इस खाने के फंसने से इस अकल की दाढ़ में या इस के अगली दाढ़ में दंत-क्षय लगना शुरू हो जाता है जिसे हम लोग दांतों की सड़न या कैविटि या आम भाषा में दांत को कीड़ा लगना भी कह देते हैं।

अकसर लोग दंत चिकित्सक के पास नियमित जांच के लिये जाते तो हैं नहीं, इसलिये जब यह कैविटी एक बार बननी शुरू हो जाती है तो फिर इलाज होने तक गहरी ही होती जाती है , आगे ही बढ़ती जाती है। यह सिलसिला तब तक चलता रहता है जब तक कि इस सड़न की वजह से इंफैक्शन किसी दाढ़ की जड़ तक ही पहुंच जाये।

तब एक दिन मरीज़ को भयानक दर्द के साथ जब सूजन सी जाती है और वह डैंटिस्ट के पास जाता है जहां पर उस पर एक्स-रे करने से यह पता चलता है कि इस धंसी हुई अकल दाढ़ की वजह से इस बंदे की तो अगली दाढ़ भी खत्म हो गई अब अगर मरीज़ अकल दाढ़ के आगे पड़ी ( जो पहले अच्छी खासी थी ) का रूट कनॉल ट्रीटमैंट एवं कैपिंग का महंगा इलाज करवा पाता है तो ठीक है , वरना उस दाढ़ को तो उखड़वाने के अलावा कोई चारा नहीं और साथ में टेढी पड़ी हुई अकल की दाढ़ तो जाती ही जाती है। है कि नही यह सब पंगे का काम।

एक दूसरी स्थिति देखिये , इस नीचे दी गई तस्वीर में आप देख रहे हैं कि ऊपर वाले जबड़े में तो अकल की दाढ़ है लेकिन नीच वाले जबडे ( मैंडीबल) में अकल की दाढ़ है ही नहीं ---शायद तो कभी थी ही नहीं ( ऐसा भी होता है !!) और शायद कुछ साल पहले निकलवा दी गई होगी। अब ऐसी स्थिति में होता क्या है कि ऊपर वाली अकल दाढ़ पर नीचे की दाढ़ का अंकुश होने की वजह से वह धीरे धीरे नीचे की तरफ़ सरकनी शुरू कर देती है ---ऐसे केस डैंटिस्ट रोज़ाना देखते हैं।



अब इस ऊपर वाली अकल दाढ़ के सरकने की वजह से उस का उस के अगले दांत से संबंध बिगड़ने लगता है प्रकुति ने दांतो के आपसी संबंध को परफैक्ट तरीके से रखा हुआ है। इस बिगड़े संबंधों की वजह से अब ऊपर वाली अकल दाढ़ एवं उस के अगली स्वस्थ दाढ़ के बीच खाना फँसना शुरू हो जाता है और वही क्रम चल निकलता है जैसे कि मैंने पिछले पैराग्राफों में चर्चा की है। अकसर लोग इस तरह के खाना-वाना फंसने को इतनी गंभीरता से लेते नहीं है जिसकी वजह से एक अच्छी खासी दाढ ( दूसरी दाढ़) इतनी ज़्यादा खराब हो जाती है कि या तो उसे निकलवाना पड़ता है और या फिर रूट कनॉल ट्रीटमैंट और कैप वैप लगवाने वाले महंगे इलाज का विकल्प ही बच जाता है।

अब तो आप को भी थोडा थोड़ा आभास हो चला होगा कि सचमुच यह अकल दाढ़ पंगा भी रियल पंगा है इस के बाकी पंगों के बारे में आगे बाते करते रहेंगे।