शुक्रवार, 16 मई 2008

मुझे सत्संग में जाकर अच्छा क्यों नहीं लगता !!

मैं अपने आप से कईं बार पूछ चुका हूं कि मुझे सत्संग में जाकर भी ज़्यादा अच्छा क्यों नहीं लगता......सोच रहा हूं कि शायद वह इस लिये होगा कि जो भी मैं वहां सुनता हूं उस को अपनी लाइफ में उतार तो पाता नहीं हूं.....इसीलिये मुझे ऐसी जगहों पर जाकर आलस सा ही आता रहता है.....ऐसा लगता है कि किसी थ्योरी की क्लास अटैंड करने जा रहा हूं...बड़े बोझ से जाताहूं ज़्यादातर मौकों पर......भार लगता है इन जगहों पर जाना। मैं तो बस केवल यही समझता हूं कि हमें उस परमात्मा, गाड, अल्ला , यीशू के सभी बंदों के साथ प्यार करना आ जाये तो बस समझो कि हमें मंजिल मिल ही गई। मैं कबीर जी की इस बात का बेहद कायल हूं कि .......पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया ना कोय....ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होय। बस, बात यही पते की जान पड़ती है..........पंजाबी में भी कहते हैं...मन होवे चंगा॥कठोती विच गंगा....। मुझे तो लगता नहीं कि मेरा मन किसी सत्संग में कभी ठहर पायेगा। लेकिन पता नहीं जब मुझे कुछ चाहिये होता है, मेरे पर कोई मुश्किल आन पड़ती है, मेरे को दिन में तारे नज़र आने शुरू हो जाते हैं तो मैं ज्यादा भागता हूं इन सत्संगों की तरफ....लेकिन किसी अनजान डर की वजह से, किसी अनजान खौफ की वजह से, किसी भी अनहोनी से अपनी और अपनों की रक्षा के लिये....पर पता नहीं मेरा मन क्यों नहीं लगता इन सत्संगों में......मैं यही समझता हूं कि अगरी मेरी सोच, मेरी कथनी, मेरी करनी में अंतर है तो क्या फायदा होगा मुझे इन सत्संगों में जाने का .........पता नहीं मुझे ये विचार बारबार तंग करते हैं और खास कर ऐसे सत्संगों में जहां पर यह कहते हैं कि आप लोग अज्ञानी हो, बुरे हो, अच्छे बनो, वरना मानव जीवन व्यर्थ चला जायेगा......इस तरह की बातें.....मैं तो उस समय यही सोच रहा होता हूं कि अगर व्यर्थ चला भी गया यह जीवन तो क्या ....हम ने कौन सा मोल खरीदा है.............और यह भी सोचता हूं कि यह मुक्ति वुक्ति का क्या चक्कर है....किन ने देखी कि किसे मिली मुक्ति और किसे नहीं..........बस, ये बातें मुझे बोर कर देती हैं। लेकिन एक जगह पर जाकर मैं कभी बोर नहीं होता....जहां मैं बार बार गया और मुझे कभी नहीं लगा कि आयेहुये लोगों की नुक्ताचीनी कर रहे हैं....इन के यहां कोई दिखावा भी नहीं होता। इसलिये मैं इस संस्था से जुड़ा रहना चाहता हूं लेकिन मेरी मजबूरी है कि मेरे शहर में इस की कोई ब्रांच नहीं है......तो फिर मैं क्या करूं ...वैसे मुझे तो इसी संस्था में जाकर ही जीने का थोड़ा बहुत सलीका आया है, मेरा चंचल मन ठहर सा गया है, लेकिन मैं इस के साथ लगातार जुड़े रहना चाहता हूं।