शनिवार, 25 जुलाई 2015

बेबसी के आलम में आशा कि एक किरण...

परसों रात हम लोगों ने काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस से लखनऊ से दिल्ली जाना था..यह गाड़ी रात पौन बजे लखनऊ स्टेशन से छूटती है।

लगभग १५-२० मिनट पहले हम लोग स्टेशन पर पहुंच गये थे...मैंने अपनी श्रीमति जी और बेटे को बोलो कि वे आगे चलें और आराम से गाड़ी में जा कर बैठे...तब तक गाड़ी प्लेटफार्म पर पहुंच चुकी थी...उद्घोषणा हो रही थी।

मैं मां के साथ धीरे धीरे चल रहा था...हम लोग किसी दूसरे प्लेटफार्म तक पहुंचने वाले पुल पर चले गये...फिर वहां से दूसरे पुल के लिए सीढियां चढ़ना...बुज़ुर्ग शरीर के लिए मुश्किल सा था...फिर भी धीरे धीरे चलते रहे।

लेकिन अभी प्लेटफार्म नं ६ तक पहुंचने के लिए सीढ़ियां उतर ही रहे थे ..बस पांच छः सीढ़ियां ही उतरनी बाकी थीं कि गाड़ी चल दी।

मन में बहुत अफसोस तो हुआ चंद मिनट....कि काश १०-१५ सैकेंड के लिए ट्रेन थम जाती तो हम लोग किसी भी डिब्बे में चढ़ ही जाते ...उसी समय मैंने बेटे को फोन लगाया कि मम्मी को कहो कि गाड़ी रोकने के लिए चेन खींच दें। मैं भी यही उम्मीद के साथ वहां खड़ा था कि अगर गार्ड मुझे देख लेगा और मेरे कहने पर शायद गाड़ी रोक देगा..मुझे हल्की सी बस यही उम्मीद थी।

मैं और मेरी मां स्टेशन पर खड़े थे...गाड़ी आगे निकल रही थी...भाग कर पकड़ने का सवाल ही नहीं होता था...लखनऊ वाले घर की चाभीआं श्रीमति जी के  पास थीं...मन को थोड़ा बुरा तो लगा।

लेकिन तभी गाड़ी धीमी हुई और थम गईं....सामने जनरल डिब्बा आया...उस में घुसना नामुमकिन था...साथ वाला डिब्बा पेन्ट्री कार वाला था...उस में हम जल्दी जल्दी चढ़े और ट्रेन चल दी...आप यह जानिए की ट्रेन १०-१२ सैकेंड के लिए ही थमी थी।

हम लोग धीरे धीरे अपने रिज़र्वेशन वाले कोच तक पहुंच गए। वहां जाकर पता चला कि श्रीमति जी ने ट्रेन की ज़ंज़ीर खींचने की कोशिश तो की ...लेकिन वह जंज़ीर टस से मस न हुई। तो फिर सोचने वाली बात यही है कि आखिर ट्रेन १० सैकेंड के लिए कैसे रूक गई.....मैं इन बातों को ज़्यादा समझने की कोशिश नहीं करता......बस ईश्वरीय अनुकंपा समझ कर इस ईश्वर का शुकराना करना नहीं भूलता।

यह स्टोरी क्यों लिखी, आप को बोर करने के लिए?.... नहीं, ऐसा कोई उद्देश्य नहीं था......बस, जब उस दिन गाड़ी में चढ़े तो यही ध्यान बार बार आ रहा था कि हम लोग भी अकसर बहुत से लोगों को मिलते ही हैं जो बड़े बेबस, लाचार होते हैं.....अपनी परिस्थितयों की वजह से.....लेकिन वे इतनी दयनीय स्थिति में होते हैं कि वे अपनी बात भी ठीक से हमारे समक्ष नहीं रख पाते, हमारा कुछ भी बिगाड़ने की स्थिति में होते नहीं, हमें भविष्य में उन से कोई काम निकालने की अपेक्षा होती नहीं......मैं तो बस इतना जानता हूं कि इस तरह के लोगों की उन की बेबसी के इन क्षणों में हमारा व्यवहार उन के साथ कैसा होता है, बस यही ज़िंदगी का फ़लसफ़ा है.......जो मैं समझ पाया हूं.......बाकी तो भाई सब लेन देन के सौदे हैं, उस से मुझे यह काम है, उसे मुझ से यह काम है....वह मेरे कितने काम है....बस, हमारा व्यवहार इसी तरह की बातों पर निर्भर करता है..अधिकतर, लेकिन यह तो बिजनेस है, है कि नहीं?

मैं अपने आप से अकसर यह प्रश्न करता रहता हूं कि किसी अनजान, बेबस, लाचार इंसान की मदद करने के लिए आखिरी बार मैंने कब कुछ किया था?.....दिल की बातें दिल ही जाने!! चलिए, दिल की बात से एक गीत याद आ गया, इसलिये लिखने को यही विराम लगाता हूं...



मंगलवार, 21 जुलाई 2015

मांवां ठंडीयां छावां....

अभी खाना खाने के बाद टीवी के सामने बैठा ही था कि अपने एक मित्र प्यारे का व्हाट्सएप पर एक स्टेट्स दिखा...आप से शेयर कर रहा हूं...

वृद्ध आश्रम के दरवाजे पर मां को छोड़ कर बेटा जब वापिस जाने लगा तो मैं ने पीछे से आवाज़ लगा कर उसे रोक लिया..फिर रूआंसी हो कर कांपती हुई आवाज़ में कहा...बेटा, तू अपने मन पर कोई बोझ मत रखना...पांच बेटियों को अपने गर्भ में कत्ल करने के बाद बेटा पैदा करने के गुनाह की सजा तो मुझे मिलनी ही थी..

मैंने उस पर यही टिप्पणी की ...बेबे ने बहुत बढ़िया थप्पड़ जड़ दिया...और अपनी तरफ से मैंने जोड़ दिया कि इस तरह के कमबख्त की तो छित्तर परेड़ होनी चाहिए..हर बार ९९ पर आकर गिनती भूल जानी चाहिए...ताकि उसे फिर से शुरू किया जा सके।

सच्चाई तो यही है कि समाज में जो कुछ हम लोग आज आस पास देख रहे हैं वह बेहद शर्मनाक है, दुःखद है। चूंकि हमारा प्रोफैशन ऐसा है कि हमें बहुत से लोगों से अकेले में मिलने का अवसर मिलता है...इसलिए दुःखी बंदा अपना दुःख फरोलने में समय नहीं लगाता....जितना बुज़ुर्गों की हालत मैंने पिछले बीस पच्चीस सालों में बुरी देखी है...उस को शायद कलमबद्ध भी नहीं किया जा सकता। बूढ़े लाचार मां बाप को या मां को उसी के बेटे द्वारा पीटे जाना....बागबां फिल्म बनाने वाले ने बना ली, अमिताभ ने कमाई कर ली....लेकिन यहां तो घर घर में बागवां बना हुआ है।

मैं बहुत बार सोचता हूं कि हम लोग जितने सफेदपोश बनते हैं, उतने है नहीं....और किसी भी बुज़ुर्ग का उत्पीड़न शारीरिक ही नहीं होता, उसे उत्पीड़ित करने के सैंकड़ों तरीके हैं....जो अकसर हम देखते-सुनते रहते हैं....अहसास करते रहते हैं। कभी लिखेंगे इन पर डिटेल में....

मेरे पास एक बहुत ही पढ़ी लिखी मरीज आती है....यही कोई ६०-६२ के करीब की होगी....बहुत अच्छा परिवार है...एक दिन वह बात करने लगी कि हम तो अभी से कुछ पचता नहीं, और हमारी सासू जी हैं जो ८० के ऊपर हैं, लेकिन खूब खाती हैं और सब कुछ पचा भी लेती हैं। मुझे उस की इस बात से इतना दुःख हुआ कि मैं ब्यां नहीं कर सकता...अब जिस बहू के अपनी सास के बारे में इतने नेक विचार हैं, बाकी बातों की हम कल्पना कर सकते हैं। मुझे इस तरह की किसी की भी पर्सनल बातें सुनने में रती भर भी रूचि नहीं होती..लेकिन उसने दो तीन और बातें भी शेयर करीं, जिसे मैं यहां लिखना समय की बरबादी समझता हूं......जहां तक इस मोहतरमा के विचार हैं, उन से आप वाकिफ़ हो ही गये हैं।

अभी इस विषय पर चर्चा चल ही रही थी कि एक दूसरे साथी मनोज ने यह फोटो शेयर कर दी...

दोस्त ने फिर स्टेट्स डाला कि अगर बेटे अपने मां-बाप की स्वयं इज्जत करेंगे तो ही बाकी परिवार भी उन की इज्जत करेगा। बिल्कुल दुरूस्त बात करी उसने.....यह पढ़ते ही मुझे अपनी नानी मां की याद आ गई....मेरा एक मामा मेरी नानी को कभी कभी कुछ पैसे दिया करता था....लेिकन मेरी नानी को यह बहुत बुरा लगता था कि वह पैसे स्वयं उसे देने की बजाए अपनी बीवी के हाथों उन्हें दिलवाता था.....अब इसमें नहीं पड़ते कि इस में बुराई क्या है, लेकिन मैं समझता हूं अगर बुज़ुर्ग मां को इस तरह के बहू से पैसे लेने में कुछ अलग अहसास होता है तो फिर क्यों न उन्हें स्वयं ही सम्मान पूर्वक भेंट दी जाए...

अनेकों तरह के उत्पीड़न बुज़ुर्गों का हो रहा है, होता रहा है, और होता रहेगा ....दामाद और बहू के हाथों तो यह सब होता ही रहा है....अब तो अपने बेटे भी यह सब करने से नहीं चूकते।

कहां से बात शुरू हुई ...कहां निकल गई......बस, बात इतनी सी है कि हमें अपने बुज़ुर्गों का सत्कार करना चाहिए....यह किसी के कहने से नहीं होता, जैसे जैसे हम लोगों के संस्कार होते हैं, हमारा बर्ताव, बोल वाणी वैसी ही होती है.

मेरा आग्रह है कि आप इस लेख को भी ज़रूर देखिएगा.... जनगणना करने वाले की आपबीती 

अब इस तरह की पोस्ट को बंद करने का एक तरीका यही है कि कुलदीप मानक साहब का एक सुंदर सा गीत बजा दिया जाए........इसे पूरा सुनिएगा......मां कसम इतना सुंदर गीत मां के ऊपर कभी किसी ने नहीं कहा....



रविवार, 19 जुलाई 2015

गुम होता बचपन...

जब तारक मेहता का उल्टा चश्मा देख रहे होते हैं तो दिन में उस के कईं कईं ऐपीसोड आ जाते हैं ...कुछ तो बरसों पहले के होते हैं जिन में अब जवान हो चुके बच्चे बिल्कुल छोटे छोटे दिखाई पड़ते हैं....बहुत बार ऐसे विचार भी आते हैं कि इन लोगों ने तो अपना बचपन, अपनी मासूमियत ऐसे फिल्मी वातावरण में रह कर खो ही दिया होगा.

टीवी में जब कोई लिटिल मास्टर का प्रोग्राम आता है तो भी यही महसूस होता है कि इतने छोटे छोटे कंधों पर इतना बड़ा बोझ और वह भी किस कीमत पर!

आज से बीस बरस पहले जावेद खान के बूगी-वूगी कंपीटीशन में भी यही कुछ होता था ...छोटे छोटे बच्चे इतनी बड़ी बड़ी प्रतिस्पर्धा करते दिखते थे...इतने दबाव के अंदर कि लगता था कि मां-बाप भी कैसे यह सब बच्चों से इस उम्र में करवाने से सहमत हो जाते होंगे।

फिल्मी बाल कलाकारों के बारे में भी हम लोग सुनते हैं कि किस तरह से वे लोग भी अपना बचपन जी ही नहीं पाते...मुकाबला कड़ा तो होता ही है, पहले इस फिल्मी जगत में घुसने के लिए और फिर टिके रहने के लिए...कल रात बजरंगी भाईजान के निर्देशक कबीर खान का न्यूज़-२४ पर एक इंटरव्यू सुन रहा था कि उस फिल्म में जिस बच्ची ने जो भूमिका करी है, उस किरदार को सिलेक्ट करने के लिए...उन्होंने कम से कम १००० बच्चियों का ऑडीशन किया...विभिन्न शहरों में, अफगानिस्तान तक जा कर बच्चों के ऑडीशन किये गए ...उस के बाद इस बच्ची का सिलेक्शन किया गया।

ये तो हो गये वे लोग जो अपनी मरजी से ...खुशी खुशी यह काम करते हैं...लेिकन एक श्रेणी ऐसी भी है जिन्हें अपने पेट के लिए यह काम करना पड़ता है..उड़ीसा के बुधिया को तो आपने अभी तक याद ही रखा होगा जो ४-५ साल की उम्र में किस तरह से ६० किलोमीटर की दौड़ लगा लिया करता था...फिर मीडिया में खूब हो हल्ला हुआ ...तो जाकर कहीं यह सब प्रैक्टिस बंद हुई....डाक्टर ने कहना शुरू किया कि इस तरह के अभ्यास से उस की हड्डियां पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाएंगी...उन को नुकसान पहुंचेगा।

लेकिन कुछ अभागे लोग ऐसे भी होते हैं जिन तक कोई नहीं पहुंच पाता.......छोटे छोटे बाजीगर बच्चे...दो दिन पहले मैंने इस बच्ची को देखा...मैंने इस का मुश्किल सा करतब रिकार्ड भी किया ....मुझे नहीं पता मुझे यह करना चाहिए था या नहीं....लेिकन इस से ज़ाहिर होता है कि कितने जोखिम भरे काम को यह बच्ची अंजाम दे रही है। सोच रहा हूं कि यह क्या बाल श्रम विरोधी कानून के अधीन नहीं आता..आता भी हो तो क्या फर्क पड़ता है!! वैसे भी ....



सोचने की बात है कि भविष्य कितना अंधकारमय है...मजबूरी है ......ज़्यादा से ज़्यादा आने वाले दिनों में बड़ी होने पर किसी हेमा मालिनी की डुप्लीकेट बन जायेगी किसी फिल्म में........वाहवाही हेमा की और जोखिम इस तरह के करतब करने वालों का .... और अगर कहीं इस तरह के करतब करते हुए कोई डुप्लीकेट आहट हो भी गया तो सब यही कहेंगे कि कसूर उसी का है..वह अपना काम ठीक से नहीं कर पा रही थी...कितना आसान है दोषारोपण कर के मुक्त हो जाना।

हाय ये मजबूरियां...