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शनिवार, 18 जुलाई 2009

शॉपिंग माल में चोरी करते ये बच्चे

अभी अभी बाज़ार से लौट कर आया हूं --मूड बहुत खराब है। एक शॉपिंग माल के अंदर दाखिल होते ही देखा कि छः-सात साल के दो बच्चों ने एक दूसरे के कान पकड़े हुये थे और उस शॉपिंग माल के तीन-चार कर्मचारी उन को घेरे खड़े थे। शुरू शुरु में तो लगा कि शायद कोई हंसी मज़ाक चल रहा है, लेकिन जब बच्चों की रोने की आवाज़ सुनी तो मैंने अपनी पत्नी को कहा कि मैं देखता हूं।
मैंने जाते ही कहा --- बस करो भई, बहुत हो गया। तब उस माल का एक कर्मचारी कहने लगा कि इस तरह के बच्चे रोज़ चोरी करते हैं। इन दोनों ने अपनी जेबों में चाकलेटें ठूंस रखी थीं और हम ने कैमरे की मदद से इन का यह काम पकड़ लिया, इसलिये इन्हें यह सज़ा दे रहे हैं। वह कर्मचारी कहने लगा कि इसी तरह की चोरियों की वजह से हमारे सारे कर्मचारियों को हर महीने अपनी तनख्वाह से एक हज़ार रूपये कटवाने पड़ते हैं।
मैंने उन्हें कहा कि चलो, छोड़ो अब इन को --- छोटे हैं। मैंने सुरक्षा वाले को कहा कि इन के लिये कुछ पैसे वैसे भरने हैं तो मैं तैयार हूं। उसने कहा कि नहीं, सामान तो हम ने वापिस करवा लिया है, इन्हें अब छोड़ भी देंगे। फिर मेरी पत्नी ने भी उन से बात करी ---- उन में से एक लड़के ने बताया की बाहर एक लड़का खड़ा था जिस के कहने पर हम यह काम कर रहे थे।
मेरा मूड इतना खराब हुया कि मैं बता नहीं सकता --- मैं एक डिओडोरैंट की शीशी शापिंग-बास्कट में डालते हुये यही सोच रहा था कि मेरी डिओडोरैंट से कहीं ज़्यादा ज़रूरत बच्चों को चाकलेट की होती है। वैसे हो भी क्यों नहीं, जब मैं इस उम्र में चाकलेट के लिये मचल जाता हूं तो फिर बच्चों की तो बिसात ही क्या है !
मैं पिछले एक घंटे से यही सोच रहा हूं कि आखिर कसूरवार कौन ? --शॉपिंग माल में जो दो छोटे छोटे बच्चे ये काम कर रहे थे इस के लिये असली कसूरवार कौन है ? मैं तो इस का जवाब ढूंढ पाने में असमर्थ हूं --- मुझे लगता है कि मेरा दिल मेरे दिमाग से हमेशा ज़्यादा काम करता है।
जिस रोड़ से वापिस हम लोग घर लौट रहे थे उस की हालत देख कर यही सोच रहा था कि इस के जितने खड्ढे हैं ये भी चीख चीख कर किसी न किसी की इमानदारी के किस्से ब्यां कर रहे हैं, जो लोग एटीएम में नकली नोट डालते हैं उन्हें आप क्या कहेंगे, स्मार्ट या कुछ और----------- मैं देख रहा था कि उन दो मासूम बच्चों को पकड़ कर उस माल का सारा स्टाफ आपस में और दूसरे ग्राहकों को यह किस्सा इस तरह से सुना रहे थे जैसे कि उन्होंने 26नवंबर के बंबई के उग्रवादी हमले के दोषियों को पकड़ लिया हो।
पता नहीं मुझे यह सब देख कर बहुत ही ज़्यादा दुःख हुया। लेकिन फिर भी मैंने बाहर आते आते घर में सो रहे अपने बच्चों के लिये दो चाकलेट उस शापिंग बास्केट में डाल दीं।
चलो, मेरी पसंद का यह गाना सुनते हैं -----

शनिवार, 27 जून 2009

स्लम-ड़ॉग मिलिनेयर के सवाल

स्लम-डॉग मिलिनेयर ने अब तक शायद सब लोगों ने देख ही ली होगी --फिल्म में वे प्रश्न चर्चा में रहे जिन का जवाब स्लम-डॉग मिलिनेयर का एक अभिनेता अपने जीवन की वास्तविक परिस्थितियों ( real-life situations) से ढूंढ लेता है।

मेरे को ध्यान आ रहा है कि हम सब के साथ भी ज़िंदगी की कुछ ऐसी पुरानी यादें जुड़ी होती हैं जो किसी भी स्थिति में हमारी निर्णय लेने की, हमारी प्रतिक्रिया को बहुत ज़्यादा प्रभावित करती हैं। हम कितना भी बैलेंस्ड होने का ढोंग कर लें, लेकिन अकसर कुछ पुरानी यादें, कुछ पुरानी घटनायें, किसी का यूं ही कुछ कह दिया जाना, किसी से बातचीत करते हुये उस के हाव-भाव ------दरअसल बात यह है कि ये सब यादें हम लोग किसी से भी साझी भी नहीं करते हैं लेकिन सारी उम्र वे हमारे निर्णयों को बहुत प्रभावित करती रहती हैं। शायद इसीलिये कहते होंगे कि अच्छे लोगों की संगति में उठना बैठना चाहिये --क्योंकि सत्संगी लोग केवल प्रेरणात्मक बातें ही करेंगे ( कम से कम सत्संग के दौरान !!)

अब इन यादों का जो प्रभाव है वह अच्छे के लिये होता है या बुरे के लिये , इस के ऊपर सार्वजनिक तौर पर कोई टिप्पणी कर पाना बहुत कठिन है। जब भी कोई सिचुऐशन को फेस करते हैं तो उसी समय गूगल-ईमेजज़ की तरह हमारे दिलो-दिमाग में स्टोरड कुछ पुरानी यादों की तस्वीरों हमारे सामने आ जाती हैं और हम उस तसवीर के प्रभाव में ही कभी कभी कोई निर्णय ले लेते हैं।

और हमारे जीवन को कंट्रोल करने वाली इन चंद यादों का स्पैक्ट्रम इतना लंबा-चौड़ा है कि क्या कहें ----यह किसी दशकों पुरानी फिल्म का कोई सीन या डॉयलाग भी हो सकता है जो हम ने दूसरी कक्षा में देखी थी या यह आप के किसी अपने को किसी दूसरे ने जो शब्द कहे वह भी हो सकते हैं। और मज़े की बात यह है कि इस सारी कायनात में किसी दूसरे इंसान को रती भर भी यह अंदेशा नहीं होता कि हमारे फैसलों का रिमोट किन यादों के द्वारा कंट्रोल किया जा रहा है।
दिल दरिया समुंदरों डूंघे,
कौन दिलां दीयां जाने , कौना दिलां दीयां जाने !!

यह हम सब के साथ होता है ---- कोई मानता है , कोई नहीं मानता है। इस गाने में पता नहीं यह क्यों गया है ---बातें भूल जाती हैं, यादें याद आती हैं। क्या सचमुच बातें भूल जाती हैं ?

बुधवार, 6 मई 2009

अपने को तो ब्लॉगर ही ठीक है !!

पिछले कुछ हफ़्तों में खूब ऑन-लाइन जर्नलिज़्म पढ़ा है, देखा है ----- यह सब कुछ इतना ज़्यादा हो गया कि खेल खेल में एक सर्टिफाइड़ ऑन-लाइन जर्नलिस्ट भी बन गया ---चलिये, अब एक विकल्प तो है कि जब दांतों की डाक्टरी वाली नौकरी से थक जाऊंगा तो किसी कौने में चुपचाप लैप-टॉप ले कर बैठ जाऊंगा।

पिछले दिनों मैंने हिंदी की वेबसाइटों को भी खून छाना --इन का जायज़ा भी लिया। हिंदी की अखबारों की साइटों को भी देखा। अच्छे खासे हिंदी की अखबारों के ऑन-लाइन एडीशन कुछ अजीबो-गरीब कॉलम शुरू किये हुये हैं। मैं बड़े दिन से इन को देख रहा हूं--- अपनी प्रतिक्रिया भी भेजता रहा हूं।

लेकिन इतने weird से कॉलम मुझे दिखने लगे कि मैंने अभी से यह सोच लिया है कि इंटरनेट पर हिंदी में मैं तो केवल चिट्ठों को ही पढ़ा करूंगा और या फिर अब विकिपीडिया की तरफ़ ध्यान देना शुरू करूंगा।

मुझे अकसर अनुनाद जी प्रेरित करते रहते हैं कि हिंदी विकिपीडिया के लिये लिखा करो और मैं बार बार उस साइट पर भी गया हूं लेकिन वहां पर लेखकों के लिये दिेये गये दिशा-निर्देश इतने कठिन हैं कि मेरे तो सिर के ऊपर से ही सब कुछ निकल जाता है। पता नहीं किसी का कोई ब्लॉग इस विषय पर है कि नहीं कि हिंदी विकिपीडिया में कैसे हम लोग अपना योगदान दे सकते हैं।

मुझे कुछ हिंदी अखबारों के ऑन-लाइन एडिशन्ज़ से चिढ़ सी होने लगी है --- अभी अभी एक ऐसी ही साइट पर किसी पाठक की एक समस्या पढ़ कर यह पोस्ट लिखने लगा हूं--- पाठक ने लिखा है कि मेरी अभी अभी शादी हुई है लेकिन हम मियां-बीवी अभी कुछ साल बच्चा नहीं चाहते हैं. लेकिन पाठक लिखता है कि उस के मां-बाप को बच्चा देखने की इतनी लालसा है कि वे कह रहे हैं, कि पाठक को अपनी बीवी को पाठक के बड़े भाई के साथ सुलानी चाहिये।

सब, बेकार का कचरा भर रहे हैं इंटरनेट पर --- मुझे यह प्रश्न देख कर तो जो हैरानी होनी थी सो हुई उस से भी बड़ी हैरानगी इसलिये हुई क्योंकि उस पर बीस के करीब टिप्पणीयां लोगों ने दी हुई हैं ---- सब के सब एक्सपर्टज़ ---एक से बढ़ कर एक। मैंने भी टिप्पणी लिखने में पांच-सात मिनट लगाये ---जो मैंने टिप्पणी लिखी वह यह है ---

सुन, भई , पहले तो यह समस्या पढ़ कर मैं इसलिये परेशान हूं कि यह इंटरनेट पर हो क्या रहा है, किस तरह का कचरा फैलाया जा रहा है। पहले तो यह रियल सवाल हो ही नहीं सकता ---क्योंकि इस तरह का सवाल पूछने वाला किसी हिंदी वेबसाइट पर अपनी समस्या सारी दुनिया के सामने रखेगा , बात गले से नीचे नहीं उतरती। अगर यह मनघडंत प्रश्न है तो भी साइट का एडिटर बैठा क्या कर रहा है। मनघडंत इसलिये कह रहा हूं कि कुछ लोगों को इस तरह की बातें करने सुनने में थोड़ा बहुत मज़ा मिल जाती है ----बस, उन का कोटा इसी से पूरा हो जाता है। मैंने टिप्पणी में आगे लिखा कि देख भई पाठक वैसे तो हमें तेरे जैसे पोलू-पटोलू से बहुत सहानुभूति है कि तेरे मां-बाप भी किस चक्कर में हैं ? लेकिन अगर तेरी बात में रती भर भी सच्चाई है तो तू पहले अपने बूढ़े मां-बाप का दिमाग चैक करवा----लगता है उधर भी कचरा ही कचरा है। और हां, अगर मां और बापू को एक बच्चा देखने की इतनी ही ज़्यादा लालसा है तो बापू को एक पतिया लिख के कह डाल कि बापू, हमें छोटा भाई चाहिेये, ------बापू, कोई बात नहीं, कोशिश तो करो। टिप्पणी के अंत में मैंने लिखा कि बाकी बातें तो अपनी जगह हैं , लेकिन भई तू अपनी जोरू पर एक करम कर कि तू उसे उसके मायके छोड़ आ ----यह कह कर अभी बच्चा नहीं चाहिये। जब तेरे को चाहिये होगा तो ले आइयो बच्चा पैदा करने की मशीन को। तब तक तो बेचारी को चैन से रहने दे। देख भई तेरी जोरू को उस के मायके छोड़ने के लिये इसलिये कह रहा हूं कि अगर तेरे मां-बाप तेरे से खुले में यह कह रहे हैं कि तू बीवी को अपने बड़े भाई के साथ सुलवा ----इस का सीधा मतलब है कि तू भी बस ऐसा ही है ---- बंदा बन बंदा ।

मैंने जब इतनी बड़ी टिप्पणी लिख दी तो फिर मुझे ध्यान आ गया कि इसे कौन ऑन-लाइन करेगा ----इस पर कैंची चलेगी ही, सो मैंने स्वयं ही उस टिप्पणी को डिलीट कर दिया और लग गया पोस्ट लिखने।

मुझे तो बस यह खुशी है कि अपने पास ब्लॉगर है जिस पर अपने भाव लिख कर मन हल्का कर लेते हैं, ---- थैंक यू ब्लागर, थैंक-यू वेरी मच। कईं बार ध्यान आया भी है कि अपनी वेबसाइट शुरू करूं फिर ध्यान आता है कि कौन पड़े इस तरह के झंझट में ---कौन करे यह सब कंटैंट मैनेजमैंट ----ब्लॉगर है ना, ठीक है। उसी से काम चलाते हैं। इसलिये अब यही विचार पक्का है कि ब्लॉगर पर ही ज़्यादा से ज़्यादा ध्यान लगाऊंगा। फोक्सड़ रहने में ही समझदारी है ---- वैसे भी जब हम ब्लॉगर पर लिखने लगते हैं तो जब गूगल सर्च करते हुये लोग आप तक पहुंचते हैं तो यह आभास होता है कि यह इंटरनेट भी कितना जबरदस्त और ट्रांसपेरेंट मीडियम है ----- यहां पर ना तो कोई सिफारिश चले, न ही कोई फोन, न ही किसी एडिटर को फोन करने का झंझट, न ही किसी बड़े लेखक से किसी तरह की टिप्स लेने की ज़हमत, न ही किसी तरह की चमचागिरी, न ही किसी तरह की चापलूसी, न ही किसी तरह के जुगाड़ ढूंढने में समय खराब करने का झंझट, न ही एडिटर लोगों के नखरे झेलने का झंझट..............मेरा क्या है मैं तो सब पोल खोलता ही जाऊंगा एक बार शुरू हो गया तो हो गया ।

अहा , अहा !!!! इतना लिखने के बाद मुझे इतना हल्का महसूस हो रहा है कि क्या बताऊं ?