बुधवार, 2 मार्च 2011

अस्पताल में होने वाली इंफैक्शन की व्यापकता

अस्पताल में भर्ती लोगों को जो संक्रमण (इंफैक्शन) उन को वहां दाखिल होने के दौरान लग जाते हैं उन्हें हास्पीटल-एक्वॉयर्ड संक्रमण कहते हैं। सामान्यतयः इस विषय पर बात करना एक पाप समझा जाता है क्योंकि इस से अस्पतालों की साख पर प्रश्न उठ सकता है। मीडिया में दो एक साल में एक सनसनीखेज़ सी रिपोर्ट दिख जाती है कि भारतीय अस्पतालों में हास्पीटल इंफैक्शन रेट इतना ज़्यादा है, इस से ज़्यादा कुछ विशेष मुझे कभी दिखा नहीं।

मैं भी अकसर भारत से संबंधित इस तरह के आंकड़े इंटरनेट पर ढूंढता रहता हूं.. लेकिन मुझे बहुत अफसोस से कहना पड़ता है कि ये आंकड़े कभी दिखते नहीं है, इस का कारण जो मुझे लगा वह मैं पहली ही बता चुका हूं।

मैडीकल ऑडिट (medical audit) नाम की बात तो शायद कहीं दिखती नहीं ...बड़े बडे टीचिंग अस्पतालों में इस तरह की मीटिंग नियमित होती होंगी लेकिन भारत में तो मैं इन के बारे में कम ही सुनता हूं।और इस के कारण लिखने की ज़रूरत मैं नहीं समझता।

मैडीकल ऑडिट तो आप जानते ही होंगे ... यह एक ऐसी व्यवस्था है जिस को अगर पूर्ण इमानदारी से निभाया जाए तो चिकित्सा सुविधाओं को यह पता चलता रहता है कि किस किस जगह पर चूक हुई और ये गल्तियां फिर से न दोहरायी जाएं, इस के उपायों पर चर्चा भी होती है। एक महीने में जितने मरीज़ों की अस्पताल में मौत हो जाती है, उन के बारे में भी चर्चा होती है, क्या उन्हें समुचित इलाज दिया गया, क्या उन के सभी ज़रूरी टैस्ट करवा लिये गये अथवा उन की बीमारी का डॉयग्नोसिस क्या सही है, ये सारी बातें एक मैडीकल ऑडिट कमेटी जांचती है।

उसी तरह से अच्छे अस्पतालों में एक हास्पीटल इंफैक्शन कंट्रोल कमेटी भी होती है जो इस बात को लगातार सुनिश्चित करती है कि किस तरह से इस तरह के इंफैक्शन की व्यापकता में लगातार कमी लाई जाए। जो मैंने सुना है कि अधिकतर तौर पर बढ़िया बढ़िया कमेटियां तो बन जाती हैं, लेकिन यह कितना सुचारू रूप से काम कर पाती हैं, यह तो वही जानते हैं।

अब बात आती है, पारदर्शिता की .. ठीक है, आम आदमी ने सूचना के अधिकार कानून का इस्तेमाल कर के अपना राशन-कार्ड तो बनवा लिया, पंचायत का लेखा जोखा तो मांग लिया लेकिन कुछ मुद्दे ऐसे हैं जिन के बारे में शायद किसी आमजन ने सोचा ही नहीं है, और अस्पताल के भर्ती होने के दौरान जो इंफैक्शन किसी मरीज़ को लग सकती है (नोज़ोकोमियल इंफैक्शन – nosocomial infection), यह भी एक ऐसा ही मुद्दा है जिस के बारे में आम आदमी ज़्यादा अवेयर ही नहीं और न ही इस के बारे में कोई बात करने को राजी ही है।

लेकिन पारदर्शिता की दाद मैं उस समय देते न रह सका जब आज मैं न्यू-यार्क टाइम्स की एक रिपोर्ट देख रहा था कि अमेरिका में इंटैंसिव केयर यूनिट में सैंट्रल लाइन इंफैक्शन के केसों की संख्या में 2001 की तुलना में वर्ष 2009 में 58प्रतिशत की कमी आई है – 2001 में इस तरह के 43000 केस थे और 2009 में यह आंकडा 18000 तक आ गया है।

सैंट्रल लाइन इंफैक्शन से अभिप्रायः उन ट्यूबों से उपजे संक्रमण से है जिन्हें मरीज़ के अस्पताल में दाखिल होने के दौरान मरीज़ की गले अथवा छाती की बड़ी शिराओं (veins, रक्त की नाड़ी) में डाला जाता है जिन के द्वारा दवाईयां एवं न्यूट्रिशन मरीज़ों तक पहुंचाई जाती है।

यह नोट करें कि इस अमेरिकी रिपोर्ट में कहा गया है कि सैंट्रल-लाइन इंफैक्शन आम समस्या है लेकिन इस तरह के ज़्यादातर केसों से मरीज को बचाया जा सकता है। इस तरह के इंफैक्शन सीरियस हो सकते हैं और 12 से 25 प्रतिशत केसों में मौत भी हो सकती है।

एक समस्या और भी है.... अमेरिकी आंकड़े हैं कि वहां पर रोज़ाना लगभग तीन लाख पचास हज़ार मरीज़  लोग गुर्दे के रोगों के इलाज हेतु अपनी डॉयलायसिस करवाते हैं ..और 2008 में 37000 हज़ार मरीज़ों को सैंट्रल लाइन इंफैक्शन हो गई – और इस तरह की इंफैक्शन डायलिसिस के दौरान मरीज़ों को अधिक समय तक भर्ती रखे जाने और उन की मृत्यु का मुख कारण है। लेकिन हमारे अपने यहां के आंकड़े कहां हैं ?

यह पोस्ट केवल यह बात रेखांकित करती है कि अगर अमेरिका जैसा देश इतने सीरियस मुद्दे पर इतनी पारदर्शिता रख सकता है तो अपने यहां ऐसा करने में आखिर क्या परेशानी है? हमें क्यों इस तरह के आंकड़े कहीं नहीं दिखते --- मैं आम नागरिक की बात नहीं कर रहा हूं – इस तरह के विश्वसनीय जानकारी हमें भी कहां दिखती है। सब कुछ चटाई के नीचे सरका देने ही से क्या सब कुछ ठीक ठाक हो जाएगा?  ….सोचने की बात यह है कि अमेरिका जैसे देश में अगर इस तरह की इंफैक्शन इतनी व्यापक है तो हम लोग कल्पना कर सकते हैं कि हमारे यहां पर ज़मीनी वास्तविकता क्या होगी।

नीम-हकीमों द्वारा खोले गये अस्पताल, अन-ट्रेंड स्टाफ, अन-ट्रेंड नर्सें, शिक्षा का अभाव, तरह तरह के मैडीकल उपकरणों की रि-साईक्लिंग..... क्या फ़ायदा ये सब कारण गिनाने का .. चिकित्सा सुविधायों को स्वयं अपने अंदर झांकने की ज़रूरत है ... और एक बात .... कहीं से पता चले कि अपने देश के लिये इस तरह के आंकड़े कहां से मिलेंगे, तो बतलाईयेगा ......ठीक या गलत, जैनूईन या फ़र्ज़ी वो तो बाद की बात है, पहले किसी विश्वसनीय पोर्टल पर ये आंकड़े दिखें तो सहीं, फिर इस का इलाज भी हो जाएगा, लेकिन अगर मर्ज़ की व्यापकता का ही पता नहीं है, तो फिर इस निष्क्रियता रूपी कोढ़ का आप्रेशन कैसे होगा !!

Further Reading …
Fewer Patients in ICU getting Blood Infections
Fewer Bloodstream Infections in Intensive care, CDC says




एचआईव्ही दवाईयों की लूटमार से परेशान अफ्रीकी मरीज़

आप को भी विश्वास नहीं हो रहा होगा कि दवाईयों की लूटमार — मुझे भी नहीं हो रहा था लेकिन पूरी खबर पढ़ने के बाद यकीन हो जाएगा।

भारत में रहते हैं तो महिलायों की सोने की चेन की छीना-झपटी की वारदातें रोज़ सुनते हैं, बैंको से बाहर निकलते लोगों के पैसे छीने जाने की घटनाएं आम हो गई हैं, गाड़ियों में लूट-खसोट की घटनाओं को भी सुना है लेकिन यह दवाईयों की लूटमार के बारे में पहली बार ही सुन रहे होंगे।

मैंने कहीं पर पढ़ा था कि कईं देशों में लोगों की आर्थिक हालत इस तरह की हो चुकी है कि वे कुछ पैसे के लिये अपनी महंगी एचआईव्ही दवाईयां तक बेच देते हैं और अपनी ज़िंदगी को दवा न खाने की वजह से खतरे में डाल देते हैं।

लेकिन यह अफ्रीकी लोगों में वूंगा नामक नशे ने तो कहर ही बरपा रखा है। वहां पर एचआईव्ही संक्रमित लोगों की महंगी दवाईयां उन से लूट कर इस नशे के रैकेट में लिप्ट माफिया उन दवाईयों को डिटर्जैंट पावडर एवं चूहे मारने वाली दवाई से मिला कर एक बेहद घातक नशा तैयार करते हैं जिसे फिर वे महंगे दामों पर बेचते हैं।

यह तो आप जानते ही है कि अफ्रीका में एचआईव्ही-एड्स एक तरह की महामारी है, इस से संबंधित आंकड़े कुछ इस प्रकार हैं ..
  • अफ्रीका में लगभग 57 लाख लोगों में एचआईव्ही संक्रमण है
  • इन संक्रमित लोगों में से 18 फीसदी 15 से 49 आयुवर्ग से हैं
  • लगभग चार लाख साठ हज़ार लोग एंटी-रिट्रो-वॉयरल दवाईयां ले रहे हैं (2008 का अनुमान)
  • एड्स से अब तक तीन लाख पचास हज़ार मौतें हो चुकी हैं (2007 का अनुमान)
  • 14 लाख बच्चे अफ्रीका में एड्स की वजह से अनाथ हैं
    थोड़ा सा यह जान लेते हैं कि ये जो एंटी-रिट्रो-वॉयरल दवाईयां एचआईव्ही संक्रमित लोगों को दी जाती हैं, वे क्या हैं? ये महंगी दवाईयां इन मरीज़ों को इस लिये दी जाती हैं ताकि उन की गिरती रोगप्रतिरोधक क्षमता (इम्यूनिटि) को थाम के रखा जा सके जिस से उन के जीवनकाल को बढ़ाया जा सके। भारत में आपने पेपरों में देखा ही होगा कि कभी कभी रेडियो एंव अखबारों में इस तरह के विज्ञापन आते हैं कि एचआईव्ही संक्रमित व्यक्ति फलां फलां चिकित्सालयों से ये दवाईयां मुफ्त प्राप्त कर सकते हैं ।

और यह निर्णय विशेषज्ञों का रहता है कि किन मरीज़ों में ये दवाईयां शुरु करने की स्थिति आ गई है ...यह सब एचआईव्ही संक्रमित बंदे की रक्त जांच के द्वारा पता चलता है कि उस में इम्यूनिटि का क्या स्तर है !

हां, तो बात अफ्रीका की हो रही थी – बीबीसी की रिपोर्ट से यह पता चलता है कि वहां पर लोग इस तरह के आतंक से कितने भयभीत हैं... वे लोग स्वास्थ्य केंद्रों पर जाकर दवाई लेने से ही इतने आतंकित हैं ---कोई पता नहीं बाहर आते ही ये लुटेरे उन से कब दवाईयां छीन कर नौ-दो ग्यारह हो जाएं।

दोहरी मार को देखिये ---एक तरफ़ तो जिन से ये एचआईव्ही संक्रमण के लिये दी जाने दवाईयां छीन लीं –उन की जान को तो खतरा है ही, और दूसरी तरफ़ जिन्हें वूंगा नाम नशा तैयार कर के बेचा जा रहा है, उन की ज़िंदगी भी खतरे में डाली जा रही है।

लोग इन दवाईयों को स्वास्थ्य इकाईयों से लेते वक्त इतने भयभीत होते हैं कि वे अब उन्होंने ग्रुप बना कर जाना शुरू कर दिया है।

इंसान अपने स्वार्थ के लिये किस स्तर तक गिर सकता है, यह देख कर सिर दुःखने लगता है, मेरा भी सिर भारी हो रहा है, इसलिये अपनी बात को यहीं विराम देता हूं।