बुधवार, 19 मार्च 2008

अब इस कंबल के बारे में भी सोचना पड़ेगा क्या !



बहुत ही छोटी-छोटी बातें हैं जिन्हें हम अकसर जाने-अनजाने नज़रअंदाज़ कर ही देते हैं...आज कुछ ऐसी ही बातों की चर्चा करते हैं। मुझे किसी के भी यहां जाकर कंबल ओढ़ना कभी नहीं भाता। अब आप भी सोच रहे होंगे कि यह कौन सी नई सनक सवार हो गई भला !!....जी नहीं, यह कोई सनक-वनक नहीं है। आज कल के परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो यह एक अच्छा खासा मुद्दा है।

मुझे किसी के यहां जाकर और यहां तक अपने ही घर में कंबल ओढ़ने में बहुत संकोच होता है। आप इस का कारण समझ ही रहे होंगे !....इस का कारण केवल यही है कि अकसर हमारे घरों में इस्तेमाल होने वाले ये कंबल वगैरा विभिन्न प्रकार के जीवाणुओं की खान होते हैं।

वह पल बहुत अजीब लगता है जब कभी घरों में इस तरह की बातें चलती हैं कि ये कंबल देख रहे हो, जब मुन्ने के पापा ने नई नई इंटर पास की थी...तब खरीदा था...और आज भी देख लो, वैसा का वैसा ही लगता है। लेकिन लगता ही है ना, लगने का क्या है........जो इस ने अरबों-खरबों कीटाणुओं को अपने अंदर छिपाया हुया है , उस का उल्लेख कौन करेगा ?.....जी हां, हमारे घरों में इस्तेमाल हो रहे कंबल कुछ इसी तरह के ही होते हैं। इन को ड्राई-क्लीन करवाने का कोई कल्चर न तो हमारे देश में कभी रहा और मेरे ख्याल में कभी हो ही नहीं पायेगा। वैसे बात वह भी तो है कि जब दो-साल में एक गर्म-सूट ड्राई-क्लीन करवाने में ही आम आदमी के पसीने छूट जाते हैं, तो क्या अब हम कंबलों को ड्राई-क्लीन करवाने के सपने कैसे देखें ?....बात बिल्कुल सही भी है...वैसे हम लोगों के कपड़े खरीदते समय निर्णय भी तो कईं बार इस बार पर ही निर्भर करते हैं कि भई, कहीं इस को ड्राई-क्लीन करवाने की ज़रूरत तो नहीं ना पड़ेगी।


खैर बात कंबल की चल रही थी......और वैसे भी हम अपने घरों में देखते हैं कि इन कंबलों का तो बंटवारा कहां होता है कि यह पपू का है , यह टीटू वाला है....। और यहां तक मेहमान वगैरा भी वही कंबल इस्तेमाल करते हैं। और जब कभी किसी की तबीयत थोड़ी नासाज़ हो, कोई खांसी-जुकाम से बेज़ार हो ..... तो यही कंबल पसीने से लथ-पथ होते हैं। और फिर अगले दिन वही कंबल दूसरे सदस्य द्वारा ओढ़ा जाता है। संक्षेप में बात करें तो यही है कि इस प्रकार से कंबलों का प्रयोग करना स्वास्थ्य के लिये ठीक नहीं है।

तो क्या करें अब कंबल लेना भी बंद कर दें ?....नहीं, नहीं ,ऐसी बात नहीं है। लेकिन पहले लोग जो कंबल के ऊपर सूती कवर डाल कर रखते थे, यह बहुत ही बढ़िया आइडिया है क्योंकि इन्हें थोड़े थोड़े समय के बाद धो दिया जाता था ताकि अंदर कंबल काफी हद तक साफ़-स्वच्छ रह सके। और फिर कंबल को नियमित तौर पर धूप में सेंका भी जाता था ..ताकि उसे कीटाणुरहित किया जा सके। इसलिये हमें इन सूती कवरों को वापिस इन कंबलों पर लगाना चाहिये। नहीं तो इन महंगे ग्लैमरस कंबलों बिना किसी प्रकार के कवर के बीमारियों की खान बना डालें ...,यह फैसला हमारे अपने हाथ में ही है।

आज कल जो नये नये मैटीरियल के कंबल बाज़ारों में दिखने लग गये हैं ...कहने को तो कह देते हैं कि वे धोये जा सकते हैं । लेकिन हम लोग अकसर प्रैक्टिस में देखते हैं कि कौन इन्हें नियमित धोने के चक्कर में पड़ता है। वैसे मुझे याद आ रहा है कि एक बार एक ऐसे ही कंबल को धोने के बाद मैंने भी उसे बाहर बरामदे में सुखाने के लिये बाहर घसीटने में थोड़ी मदद की थी........यकीन मानिये , नानी याद आ गई थी। कहने से भाव है कि मान भी लिया जाये कि यह धोये जा सकते हैं लेकिन यह आइडिया कुछ ज़्यादा प्रैक्टीकल नहीं है....हां, अगर कहीं ये नियमित धुलते हैं तो बहुत बढ़िया बात है।

लेकिन जहां भी संभव हो, इन कंबलों को सूती कवह डले ही होने चाहियें क्योंकि इन में जमा धूल-मिट्टी-जीवाणु भी तरह तरह की एलर्जी बढ़ाने में पूरी भूमिका निभाते हैं। लेकिन लोग तो अकसर एलर्जी के लिये उत्तरदायी एलेर्जन ढूंढने की अकसर नाकामयाब कोशिश करते हैं लेकिन अपने आसपास ही इस तरह के एलर्जैन्ज़ की तरफ़ ज़्यादा ध्यान ही नहीं देते। तो, आगे से ध्यान दीजियेगा।

यह तो हुई कंबलों की बात, लेकिन परदों का भी कुछ ऐसा ही हाल होता है। अकसर इन्हें तब तक धोया नहीं जाता जब तक इन्हें देखते ही उल्टी करने जैसा न होने लगे। ये भी कईं कईं महीनों तक गंदगी समेटे रहते हैं...। वैसे तो हर घर में ही ..लेकिन जिन घरों में एलर्जी के केस हैं, सांस में तकलीफ़ के मरीज़ हैं, दमा के मरीज़ हैं....उन के लिये तो ये सावधानियां शायद दवाई से भी बढ़ कर हैं। लेकिन हमारी समस्या यही है कि हमें परदे तो चाहिये हीं, लेकिन साथ में हमारी सम्पन्नता का दिखावा भी तो होना चाहिये। इसी चक्कर में इतने भारी भारी परदे शो-पीस के तौर पर टांग दिये जाते हैं कि न तो उन्हें नियमित धोते बने और न ही उतारते बने। अकसर इन्हें धोने के नाम पर कईं बार तो बाई ही काम छोड़ कर भाग जाये !!...आखिर हमें सीधे-सादे हल्के फुल्के ऐसे परदे टांगने में दिक्कत क्या है जिन्हें हम नियमित धुलवा तो सकें।

लेकिन यह बात परदों तक ही तो सीमित नहीं है ना.....आज कल हम लोगों के घर में सोफे सैट देख लो। इन को भी देख कर उल्टी आती है। ये भी अपने अंदर इतनी गंदगी समेटे होते हैं कि क्या कहें !!.....कारण वही कि सब कुछ ..सीट कवर, कुशन वगैरा के ऊपर महंगे महंगे कपड़ों के कवर फिक्स हुया करते हैं..........और पता नहीं इन के ऊपर कितने लोगों का पसीना लगा रहता है, कितने छोटे छोटे बच्चों ने इन्हें कितनी ही बार पवित्र किया होता है( समझ गये ना आप!)…, कितनी बार इन के ऊपर खाने पीने की चीज़े गिर चुकी होती हैं, कितनी बार बच्चे गंदे पैरों से इन के ऊपर उछलते रहते हैं........लेकिन इन के कवर चेंज करने का झंझट भला कौन बार बार ले सकता है .....भई खूब पैसा लगता है.....ऐसे में सालों तक ये गंदगी से भरे रहते हैं। एक दूसरी समस्या इन सोफा-सेटों के साथ यह भी तो है ना कि ये सब इतने भीमकाय होते हैं कि इन के रहते ठीक तरह से कमरे की सामान्य सफाई भी तो नहीं हो पाती ।

अकसर मेरी आब्जर्वेशन है कि लोगों को इन बातों की खास फिक्र है नहीं, उन्हें तो बस अपनी बैठक को चकाचक रखने में ही मज़ा आता है। इसीलिये कईं घरों में तो बच्चों को डराया जाता है कि खबरदार, अगर तुम सोफे की तरफ भी गये, पता है जब कोई आ जाता है तो कितनी शर्म आ जाती है। मेरा इस के बारे में विचार एकदम क्रांतिकारी है ...............शायद बहुत से लोगों को न पच पाये............मेरा विचार है कि घर आप का है, आप के रहने के लिये, बच्चों के लिये ताकि वे पूरी मस्ती कर सकें..............मज़ा कर सकें ताकि बड़े हो कर उन के पास अनगिनत मीठी यादें हों...........इसलिये घरों में सीधे-सादे फ्रेम वाले सोफे हों, कुर्सियां हों जिन के ऊपर कपड़े के इस तरह के कवर हों कि उन्हें आसानी से धुलाया जा सके। इस से एक तो आपका ड्राइंग-रूम साफ-स्वच्छ दिखेगा....दिखेगा ही नहीं , होगा भी.....और बच्चे भी खुश रह कर बिना किसी रोक टोक के जहां मरजी मस्ती कर सकते हैं, ऊधम मचा सकते हैं। और रही बात मेहमानों की , वे ना ही तो महंगे परदे और न ही महंगे, भारी भरकम सोफे देखने आ रहे हैं और न ही एक काजू और दो किशमिश के दाने खाने के लिये......अतिथि के लिये हमारा सत्कार हमारी आंखों से झलकता है.....उसे चाहे हम चटाई पर बैठा कर सादा पानी ही पिला दें....वो हमारी आंखों को पढ़ता है कि उस का स्वागत हुया है या नहीं।

पता नहीं ...मैं भी कहां का कहां निकल जाता हूं...मेरा बेटा वैसे मुझे अकसर चेतावनी देता रहता है कि बापू, अगर तुम ने ब्लोगगिरी में कुछ करना है ना तो कुछ टैक्नीकल लिखा करो, यह फलसफा आज कल कोई पढ़ना नहीं चाहता । खैर, यह उस का अपना ओपिनियन है और उसे अपना ओपिनियन रखने का पूरा पूरा हक है। लेकिन मुझे जो अच्छा लगता है , मैं तो भई लिख कर फारिग हो जाता हूं, और मुझे क्या चाहिये। लेकिन आज यह कंबल, परदों एवं सोफों वाली बात है बहुत ही ..बहुत ही ...बहुत ज़्यादा ही महत्त्वपूर्ण ............इसिलये इस के बारे में थोड़ा ध्यान करियेगा.....ताकि हम अपने इर्द-गिर्द इन कीटाणुओं, जीवाणुओं के अंबार तो न लगा लें।

अब इस कंबल के बारे में भी सोचना पड़ेगा क्या !




बहुत ही छोटी-छोटी बातें हैं जिन्हें हम अकसर जाने-अनजाने नज़रअंदाज़ कर ही देते हैं...आज कुछ ऐसी ही बातों की चर्चा करते हैं। मुझे किसी के भी यहां जाकर कंबल ओढ़ना कभी नहीं भाता। अब आप भी सोच रहे होंगे कि यह कौन सी नई सनक सवार हो गई भला !!....जी नहीं, यह कोई सनक-वनक नहीं है। आज कल के परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो यह एक अच्छा खासा मुद्दा है।
मुझे किसी के यहां जाकर और यहां तक अपने ही घर में कंबल ओढ़ने में बहुत संकोच होता है। आप इस का कारण समझ ही रहे होंगे !....इस का कारण केवल यही है कि अकसर हमारे घरों में इस्तेमाल होने वाले ये कंबल वगैरा विभिन्न प्रकार के जीवाणुओं की खान होते हैं।
वह पल बहुत अजीब लगता है जब कभी घरों में इस तरह की बातें चलती हैं कि ये कंबल देख रहे हो, जब मुन्ने के पापा ने नई नई इंटर पास की थी...तब खरीदा था...और आज भी देख लो, वैसा का वैसा ही लगता है। लेकिन लगता ही है ना, लगने का क्या है........जो इस ने अरबों-खरबों कीटाणुओं को अपने अंदर छिपाया हुया है , उस का उल्लेख कौन करेगा ?.....जी हां, हमारे घरों में इस्तेमाल हो रहे कंबल कुछ इसी तरह के ही होते हैं। इन को ड्राई-क्लीन करवाने का कोई कल्चर न तो हमारे देश में कभी रहा और मेरे ख्याल में कभी हो ही नहीं पायेगा। वैसे बात वह भी तो है कि जब दो-साल में एक गर्म-सूट ड्राई-क्लीन करवाने में ही आम आदमी के पसीने छूट जाते हैं, तो क्या अब हम कंबलों को ड्राई-क्लीन करवाने के सपने कैसे देखें ?....बात बिल्कुल सही भी है...वैसे हम लोगों के कपड़े खरीदते समय निर्णय भी तो कईं बार इस बार पर ही निर्भर करते हैं कि भई, कहीं इस को ड्राई-क्लीन करवाने की ज़रूरत तो नहीं ना पड़ेगी।

खैर बात कंबल की चल रही थी......और वैसे भी हम अपने घरों में देखते हैं कि इन कंबलों का तो बंटवारा कहां होता है कि यह पपू का है , यह टीटू वाला है....। और यहां तक मेहमान वगैरा भी वही कंबल इस्तेमाल करते हैं। और जब कभी किसी की तबीयत थोड़ी नासाज़ हो, कोई खांसी-जुकाम से बेज़ार हो ..... तो यही कंबल पसीने से लथ-पथ होते हैं। और फिर अगले दिन वही कंबल दूसरे सदस्य द्वारा ओढ़ा जाता है। संक्षेप में बात करें तो यही है कि इस प्रकार से कंबलों का प्रयोग करना स्वास्थ्य के लिये ठीक नहीं है।
तो क्या करें अब कंबल लेना भी बंद कर दें ?....नहीं, नहीं ,ऐसी बात नहीं है। लेकिन पहले लोग जो कंबल के ऊपर सूती कवर डाल कर रखते थे, यह बहुत ही बढ़िया आइडिया है क्योंकि इन्हें थोड़े थोड़े समय के बाद धो दिया जाता था ताकि अंदर कंबल काफी हद तक साफ़-स्वच्छ रह सके। और फिर कंबल को नियमित तौर पर धूप में सेंका भी जाता था ..ताकि उसे कीटाणुरहित किया जा सके। इसलिये हमें इन सूती कवरों को वापिस इन कंबलों पर लगाना चाहिये। नहीं तो इन महंगे ग्लैमरस कंबलों बिना किसी प्रकार के कवर के बीमारियों की खान बना डालें ...,यह फैसला हमारे अपने हाथ में ही है।
आज कल जो नये नये मैटीरियल के कंबल बाज़ारों में दिखने लग गये हैं ...कहने को तो कह देते हैं कि वे धोये जा सकते हैं । लेकिन हम लोग अकसर प्रैक्टिस में देखते हैं कि कौन इन्हें नियमित धोने के चक्कर में पड़ता है। वैसे मुझे याद आ रहा है कि एक बार एक ऐसे ही कंबल को धोने के बाद मैंने भी उसे बाहर बरामदे में सुखाने के लिये बाहर घसीटने में थोड़ी मदद की थी........यकीन मानिये , नानी याद आ गई थी। कहने से भाव है कि मान भी लिया जाये कि यह धोये जा सकते हैं लेकिन यह आइडिया कुछ ज़्यादा प्रैक्टीकल नहीं है....हां, अगर कहीं ये नियमित धुलते हैं तो बहुत बढ़िया बात है।
लेकिन जहां भी संभव हो, इन कंबलों को सूती कवह डले ही होने चाहियें क्योंकि इन में जमा धूल-मिट्टी-जीवाणु भी तरह तरह की एलर्जी बढ़ाने में पूरी भूमिका निभाते हैं। लेकिन लोग तो अकसर एलर्जी के लिये उत्तरदायी एलेर्जन ढूंढने की अकसर नाकामयाब कोशिश करते हैं लेकिन अपने आसपास ही इस तरह के एलर्जैन्ज़ की तरफ़ ज़्यादा ध्यान ही नहीं देते। तो, आगे से ध्यान दीजियेगा।
यह तो हुई कंबलों की बात, लेकिन परदों का भी कुछ ऐसा ही हाल होता है। अकसर इन्हें तब तक धोया नहीं जाता जब तक इन्हें देखते ही उल्टी करने जैसा न होने लगे। ये भी कईं कईं महीनों तक गंदगी समेटे रहते हैं...। वैसे तो हर घर में ही ..लेकिन जिन घरों में एलर्जी के केस हैं, सांस में तकलीफ़ के मरीज़ हैं, दमा के मरीज़ हैं....उन के लिये तो ये सावधानियां शायद दवाई से भी बढ़ कर हैं। लेकिन हमारी समस्या यही है कि हमें परदे तो चाहिये हीं, लेकिन साथ में हमारी सम्पन्नता का दिखावा भी तो होना चाहिये। इसी चक्कर में इतने भारी भारी परदे शो-पीस के तौर पर टांग दिये जाते हैं कि न तो उन्हें नियमित धोते बने और न ही उतारते बने। अकसर इन्हें धोने के नाम पर कईं बार तो बाई ही काम छोड़ कर भाग जाये !!...आखिर हमें सीधे-सादे हल्के फुल्के ऐसे परदे टांगने में दिक्कत क्या है जिन्हें हम नियमित धुलवा तो सकें।
लेकिन यह बात परदों तक ही तो सीमित नहीं है ना.....आज कल हम लोगों के घर में सोफे सैट देख लो। इन को भी देख कर उल्टी आती है। ये भी अपने अंदर इतनी गंदगी समेटे होते हैं कि क्या कहें !!.....कारण वही कि सब कुछ ..सीट कवर, कुशन वगैरा के ऊपर महंगे महंगे कपड़ों के कवर फिक्स हुया करते हैं..........और पता नहीं इन के ऊपर कितने लोगों का पसीना लगा रहता है, कितने छोटे छोटे बच्चों ने इन्हें कितनी ही बार पवित्र किया होता है( समझ गये ना आप!)…, कितनी बार इन के ऊपर खाने पीने की चीज़े गिर चुकी होती हैं, कितनी बार बच्चे गंदे पैरों से इन के ऊपर उछलते रहते हैं........लेकिन इन के कवर चेंज करने का झंझट भला कौन बार बार ले सकता है .....भई खूब पैसा लगता है.....ऐसे में सालों तक ये गंदगी से भरे रहते हैं। एक दूसरी समस्या इन सोफा-सेटों के साथ यह भी तो है ना कि ये सब इतने भीमकाय होते हैं कि इन के रहते ठीक तरह से कमरे की सामान्य सफाई भी तो नहीं हो पाती ।
अकसर मेरी आब्जर्वेशन है कि लोगों को इन बातों की खास फिक्र है नहीं, उन्हें तो बस अपनी बैठक को चकाचक रखने में ही मज़ा आता है। इसीलिये कईं घरों में तो बच्चों को डराया जाता है कि खबरदार, अगर तुम सोफे की तरफ भी गये, पता है जब कोई आ जाता है तो कितनी शर्म आ जाती है। मेरा इस के बारे में विचार एकदम क्रांतिकारी है ...............शायद बहुत से लोगों को न पच पाये............मेरा विचार है कि घर आप का है, आप के रहने के लिये, बच्चों के लिये ताकि वे पूरी मस्ती कर सकें..............मज़ा कर सकें ताकि बड़े हो कर उन के पास अनगिनत मीठी यादें हों...........इसलिये घरों में सीधे-सादे फ्रेम वाले सोफे हों, कुर्सियां हों जिन के ऊपर कपड़े के इस तरह के कवर हों कि उन्हें आसानी से धुलाया जा सके। इस से एक तो आपका ड्राइंग-रूम साफ-स्वच्छ दिखेगा....दिखेगा ही नहीं , होगा भी.....और बच्चे भी खुश रह कर बिना किसी रोक टोक के जहां मरजी मस्ती कर सकते हैं, ऊधम मचा सकते हैं। और रही बात मेहमानों की , वे ना ही तो महंगे परदे और न ही महंगे, भारी भरकम सोफे देखने आ रहे हैं और न ही एक काजू और दो किशमिश के दाने खाने के लिये......अतिथि के लिये हमारा सत्कार हमारी आंखों से झलकता है.....उसे चाहे हम चटाई पर बैठा कर सादा पानी ही पिला दें....वो हमारी आंखों को पढ़ता है कि उस का स्वागत हुया है या नहीं।
पता नहीं ...मैं भी कहां का कहां निकल जाता हूं...मेरा बेटा वैसे मुझे अकसर चेतावनी देता रहता है कि बापू, अगर तुम ने ब्लोगगिरी में कुछ करना है ना तो कुछ टैक्नीकल लिखा करो, यह फलसफा आज कल कोई पढ़ना नहीं चाहता । खैर, यह उस का अपना ओपिनियन है और उसे अपना ओपिनियन रखने का पूरा पूरा हक है। लेकिन मुझे जो अच्छा लगता है , मैं तो भई लिख कर फारिग हो जाता हूं, और मुझे क्या चाहिये। लेकिन आज यह कंबल, परदों एवं सोफों वाली बात है बहुत ही ..बहुत ही ...बहुत ज़्यादा ही महत्त्वपूर्ण ............इसिलये इस के बारे में थोड़ा ध्यान करियेगा.....ताकि हम अपने इर्द-गिर्द इन कीटाणुओं, जीवाणुओं के अंबार तो न लगा लें।

6 comments:

राज भाटिय़ा said...
चोपडा जी आप ने लेख तो बहुत अच्छा लिखा हे बिजली के स्वीच, दरवाजे के हेडिल, जाली वाले दरवाजे , ओर बर्तनॊ पर लगे स्टीकर तो छोड ही दिये,ओर भी बहुत सी चीजे हे,हमारे नोट जिन्हे हाथ लगने को भी दिल नही करता कभी इन पर भी लिखऎ,बहुत उप्योगी बाते लिखी हे.
अनिल रघुराज said...
सफाई का नया संस्कार ही सिखा दिया आपने। वैसे मेरी पत्नीश्री कई साल से पूरे परिवार को इसकी ट्रेनिंग दे रही हैं। सब के तौलिये अलग, कंबल अलग, साबुन अलग। स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी है यह सब।
गुस्ताखी माफ said...
बहुत काम का लेख लिखा है.
पत्नियां अक्सर सही ही होती हैं
Kaput Pratapgarhi said...
डा साहब आप मेरे भाई जैसे दिखते हैं।
एक डॉक्‍टर साहब को ब्‍लॉग पर देखकर अच्‍छा लगा।
Neeraj Rohilla said...
डाक्टर साहब,
हम तो आपके इसी फ़लसफ़े के मुरीद हैं । आपकी पालीथीन वाली पोस्ट ने सीधा असर किया था । कुछ दिन पहले मैं अपने रूममेट से बात कर रहा था कि यहाँ ह्यूस्टन में कितना कबाडा हर रोज पैदा होता है मेरे अपार्टमेंट में, हर चीज तो डिब्बाबंद है ।

खैर आप लिखते रहे, हम पढने और अमल में लाने का प्रयास करने के लिये तैयार हैं । एक बात का सुकून है कि हमारे घर पर सबकी अपनी रजाई/कंबल फ़िक्स है और सभी पर सफ़ेद सूती कवर चढे हुये हैं । अब याद आ रहा है कि सर्दी की शुरूआत में बडे सन्दूक से रजाई गद्दे निकालकर धूप लगाकर और कवर धो-सुखा कर प्रयोग में लाये जाते थे । ठीक यही उपक्रम सर्दी खत्म होने पर उनको सन्दूक में रखने से पहले किया जाता था ।
Gyandutt Pandey said...
सच में डाक्टर साहब - यात्रा में सरकारी कम्बल की बजाय मैं अपनी रजाई घर से ले कर चलता हूं। कभी फंस गये तो मजबूरी है। वैसी अवस्था मे एक बार स्किन एलर्जी भी हो चुकी है।

ये दूरवर्ती शिक्षण पाठ्यक्रम (correspondence courses)……..मेरे अनुभवों से कुछ सीखा चाहेंगे ?

छः सात साल पहले मुझे बस ऐसे ही अच्छे-भले बैठे बैठे फिर से पढ़ाई करने का जबरदस्त कीड़ा काट गया...पढ़ाई की यह थी कि लेखक कैसे बना जाये। अंग्रेज़ी के अखबार में अंग्रेज़ों का एक विज्ञापन नियमित तौर पर आता था कि आ जाओ, हम बनायेंगे तुम्हें लेखक.....और हमारा कोर्स करने के बाद तुम लोग इतनी इतनी कमाई करने लगोगे। आव देखा न ताव....मैंने भी मंगवा लिया प्रास्पैक्ट्स......जब उस लेखक बनने की सारी जानकारी आई तो पता चला कि इस की फीस तीस हज़ार के आसपास थी। लेकिन वह विज्ञापन इतना लुभावना था और मेरे ऊपर लेखक बनने का भूत सवार इस कद्र ठाठां मार रहा था कि मैंने उस कंपनी ( कंपनी ही कहूंगा....क्योंकि ये कंपनियों के इलावा कुछ हैं भी नहीं।)...को पैसे भेजने का प्रण कर ही लिय़ा ।

अब मसला यह था कि इंगलैंड में तीस हज़ार रूपये भेजने थे और मुझे इस के बारे में एक पैसे की भी जानकारी न थी। तब हम लोग फिरोज़पुर (पंजाब) में रहते थे......जान-पहचान ढूंढ कर किसी बैंक में गया जहां इस तरह के विदेशी ड्राफ्ट्स (शायद यही कहते थे !)..बनते थे....वहां जा कर पता चला कि यह काम फिरोज़पुर शहर में कहीं नहीं होता, आप को लुधियाना जाना होगा ..वहां फलां फलां ब्रांच में फारन एक्सचेंज का इस तरह का काम होता है...कुछ फारमैलिटिज़ भी बतला दी गईं।
मैंने सोचा कि लुधियाना जो 110किलोमीटर की दूरी पर था.....अगर वहां जा कर भी काम न हुया तो दिन खराब होगा। इसलिये दिल्ली ही चला गया...छुट्टी ले कर...वहां पर भी जान-पहचान की लाठी के सहारे आखिर उसी दिन इस तरह का लगभग तीस हज़ार रूपये खर्च कर के ड्राफ्ट बन गया।
ड्राफ्ट भेजने के कुछ दिनों बाद ही मुझे छोटी-छोटी किताबों का एक पुलंदा आ गया............एक बात बतला दूं...कि इन अंग्रेजों की अंग्रेज़ी चीज़ों का इतना ज़बरदस्त क्रेज़ रहा है कि उस पैकेट को देख कर मेरी तो बांछे ही खिल गईं कि अब बन के दिखायूंगा सारी दुनिया को एक चोटी का लेखक।
किताबों के साथ ही एक असाइनमैंट की एक लिस्ट भी थी कि ये ये होम-वर्क कर के हमें भेजते रहना । खैर, कुछ ही दिनों के बाद मैंने एक-दो असाइनमैंट भेज दीं और लगभग एक महीने के बाद जांची हुईं असाइनमैंट मेरे पास वापिस पहुंच गईं..............अब तो याद भी नहीं कि उस की ग्रेडिंग में उन्होंने क्या लिखा ,लेकिन जो भी था सब कुछ अच्छा अच्छा ही था..............लेकिन धीरे धीरे कुछ ही हफ्तों में मुझे यह समझ आते देर न लगी कि भैया, इस कोर्स वालों को अपने तीस हज़ार इक्ट्ठे करने तक ही मतलब था जो उन्होंने साध लिया है। अब तुम इन किताबों का आचार डालो..............क्योंकि बिना किसी तरह के पर्सनल इंटरएक्शन के कहां ये गूढ़-ज्ञान की बातें समझ में आती हैं। वैसे तो इंगलिश मेरी बचपन से ही ठीक-ठाक रही है( थैंक यू.....मास्टर शूर साहिब......जो आजकल डीएवी स्कूल अमृतसर के प्रिंसीपल हैं.....) ...लेकिन फिर भी इस के लेखन में हिंदी –पंजाबी जैसा धारा-प्रवाह कभी बना नहीं.....भला बनेगा भी कैसे, जो भी है...चाहे इंटरनैशनल भाषा है...है तो विदेशी ही ना.....तो इस इंगलिश में कुछ भी लिखने से पहले सोचो, फिर तोलो, उस के बाद बोलो या लिखो। यह वाली बात अपनी मातृ-भाषा या राष्ट्रीय भाषा के साथ कतई नहीं है.......इस में लिखना तो अपनी मां के साथ या किसी देशवासी के साथ बात करने जैसा आसान है।
मैं भी बात बहुत ज़्यादा खींचने लग गया हूं.........ब्रीफ में बताता हूं कि बिना किसी तरह की गाइडैंस के मेरे उस कोर्स में कभी इंट्रैस्ट बन ही नहीं पाया.................बस,किताबें ही धरी की धरी रह गईं। ना मैंने उन को कभी फिर कोई असाइनमैंट भेजी और न ही उन्होंने कभी पूछा कि हे उभरते लेखक, क्या कर रहा है तू आजकल...........क्या कुछ लिख रहा है.........किताबें पढ़ रहा है कि नहीं..................सीधी सी बात की उन का सरोकार तीस हज़ार रूपये पाने तक ही सीमित था। खैर, इस टापिक को तो मैं खत्म ही समझ बैठा।
कुछ दिनों बाद ही अपने ही देश की एक अच्छी खासी यूनिवर्सिटी का एक विज्ञापन दिखा जिस में हिंदी में सृजनात्मक लेखन करने-करवाने की बात कही गई थी। अभी उस पहले काटे कीड़े की खुजली शांत भी न हुई थी कि इस हिंदी लेखन सीखने वाले देशी कोर्स के ततैये ने डंग मार दिया.............सो, बड़े चाव से कर दिया कोर्स शुरू ....शायद 1700या 1800रूपये फीस थी।
इस कोर्स के लिये रिक्वायरमैंट तो थी केवल बारहवीं कक्षा में पास होन की। लेकिन जब किताबें आईं तो उन्हें देख कर सिर दुखता............नहीं,नहीं, कोई भारी-भरकम नहीं थीं..........बस, उन में विभिन्न पाठ बड़े बड़े लेखकों ने इतनी मुश्किल भाषा में लिखे हुये थे कि या तो उन की बिल्कुल भी समझ नहीं आती थी और अगर एक-दो पैरे पढ़ने की हिम्मत जुटा भी पा लेता था तो आगे पढ़ना सिर-दर्द जैसा लगता था। इसलिये सारी उम्मीदे इस कोर्स के पर्सनल कंटैक्ट प्रोग्राम पर ही टिकी हुईं थीं....कि जब वहां जाऊंगा तो इन को पढ़ने का , समझने का टीका लगवा कर के ही आऊंगा......खैर, मैं सारी रात गाड़ी में खराब ( अब खराब ही कहूंगा.....कारण अभी बतलाता हूं...)....करने के पश्चात् सुबह पंजाब गया चंडीगढ़............लेकिन जहां पर स्टडी सैंटर बना था..वहां पर कोई हरकत ही नज़र नहीं आई। काफी समय के बाद एक सुस्त सी मैडम ( हां, विद्यार्थीयों से भी ज़्यादा सुस्त )....ने बड़े ही नीरस ढंग से कोर्स के बारे में बताया। वह रविवार का दिन था...और यह पर्सनल कोंटैक्ट कार्यक्रम आने वाले तीन-चार रविवारों को चलना था। लेकिन उस मैडम ने इतनी नीरसता से बात की कि वह नीरसता तो किताबों के रूखेपन को भी मात दे गई)....लेकिन वो मैडम चाहे जितनी भी जल्दी में थी ( उस महान आत्मा ने हमें आधे घंटे में ही फारिग भी कर दिया...........जै हो!!!!!)…..उस ने इतना बतलाने में कोई जल्दबाजी नहीं की कि इस पर्सनल कंटैक्ट प्रोग्राम में आप का आना अनिवार्य नहीं है.....सो ,उस प्रोफैसरनी की इस बात में कुछ इतना ज़्यादा जादू था कि मन ही मन जो अगले रविवार ना आने का विचार बन रहा था , वह फिरोज़पुर वापिस आते आते एक दम बरगद के पेड़ की जड़ों की तरह मज़बूत हो गया। और हम अकसर कहते हैं कि टीचर का क्या है, हम तो किताबों से, नेट से कुछ भी सीख सकते हैं...........ऐसा नहीं है दोस्तो....मेरे विचार में तो उस टीचर को अपनी टीचरी करने का कोई हक ही नहीं है जो छात्रों के मन में अपने विषय के प्रति रोमांच (रोमांच कहूं या रूचि कहूं !).. ही न पैदा कर सके। बस, आज उस प्रोफैसरनी का धन्यवाद ही करता हूं कि दोबारा उस कोर्स की कभी किताबें खोल कर देखने की इच्छा ही नहीं हुई। और हां, आज कल जब उस यूनिवर्सिटी का इश्तिहार देखता हूं तो पाता हूं कि उन की लिस्ट से वह वाला हिंदी लेखन सिखाने वाला कोर्स ही हटा दिया गया है।
लेखक बनने की बाकी यात्रा अगले किसी लेख में लिखूंगा..बात लंबी होती लग रही है। वैसे जाते जाते मेरे अपने का वह गीत अचानक याद आ गया जो यू-टयूब पर नहीं मिला , लेकिन उस के लीरिक्स कहीं दिख गये हैं जिन्हें यहां पर चेप रहा हूं........