गुरुवार, 6 अक्तूबर 2016

इन्हें कहां घुस के मारे कोई !

1975 में शोले फिल्म आई तो गब्बर का रोल देख कर शायद बच्चे सहम गये होंगे...

लेकिन फिर इतना इत्मीनान हो जाता कि यह तो फिल्मी कहानी नहीं है, ऐसा पहले कहीं होता होगा...फिर पता चला कि ये डकैत वकैत चंबल के बीहड़ों में अभी भी होते हैं...


पहले ये ट्रेनों में डकैतियां हिंदी फिल्मों में ही दिखती थीं...

लेकिन अब तो ....

अब तो आए दिन यह ट्रेन डकैतियों की खबरें आने लगी हैं...आम सी बात लगने लगी है शायद...लोग पता नहीं अब इन खबरों का संज्ञान लेते भी हैं या नहीं या यह सोच कर इत्मीनान कर लेते हैं कि शुक्र है कि मैं या मेरा बच्चा तो उस गाड़ी में नहीं था...

नहीं, हर जान की कीमत एक जैसी है ...उस एक जान के साथ बीसियों लोगों की जानें परोक्ष-अपरोक्ष रुप में जुड़ी होती हैं...
लखनऊ से जाने वाली ट्रेन डकैती वाली खबर ने आज सुबह का सारा उत्साह काफ़ूर कर दिया...सच मानिए, दूसरी कोई भी खबर और अगला पन्ना पटलने की इच्छा ही नहीं हुई...


पता नहीं यह पागलपन कब थमेगा! 

अब तो यही लगने लगा है कि जैसे खबरिया चैनल उस दिन उछल उछल कर घोषणा कर रहे थे कि आतंकियों को उन के घर में घुस कर मारा...अब पता नहीं इन आंतरिक आतंकियों का कब नंबर लगेगा...पता नहीं कभी लगेगा भी कि नहीं ! 

उन आतंकियों का पता तो लगा लिया गया ...उन्हें ठोक भी दिया गया लेकिन इन शातिर अंदरुनी आतंकियों का तो पता नहीं चलता ... कुछ दिन पहले किसी ने यह ज्ञान बांटा था...

सरकारें अपना काम कर रही हैं...छींकें आ जाने पर या शरीर में थोड़ी हरारत महसूस होने पर लोग अब रेल के आला अधिकारियों को तुरंत ट्वीट करने लगे हैं ...और अगले स्टेशन का डाक्टर कईं बार अढ़ाई घंटे मच्छरों से जूझते हुए उस मरीज़ को देखने के लिए ट्रेन का इंतज़ार करता रहता है ....यह बिल्कुल प्रामाणिक बात है ...

लेकिन छुर्रा-चाकू घोंप कर कोई कहीं भी गाड़ी में घुस कर डकैत-लुटेरे गायब हो जाए...निःसंदेह चिंता का विषय तो है ही ...जुबान हम लोग पूरी खोल पाएं या नहीं, यह दूसरा मुद्दा है ... लेकिन इस तरह के असामाजिक तत्वों के मन में डर-खौफ का नामो-निशान ही नहीं रहा, ऐसा लगता है .......लगता ही नहीं है सिर्फ़, पक्की बात है ! 

अब इतनी पुलिस, इतनी आरपीएफ, इतने सुरक्षा दस्ते कहां से आएं......काश! जो उचक्के पकड़े जाएं, उन को सजा देने की प्रक्रिया तेज़ हाे जाए...और सज़ा सुनिश्चित हो ....तो शायद कुछ बात बने....

वरना यही प्रार्थना करिए कि आने वाली बुलेट ट्रेन में कुछ ऐसा भी प्रावधान हो कि यह डाकू-लुटेरों का भी अपने पास पता लगा के तुरंत बुलेट बरसाने लगे...ताकि यात्रियों के माल-जान की सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सके...

आम आदमी कुछ कर तो सकता नहीं....बस चुपचाप इसे सुनता रहे ...बिना कुछ बोले-कहे ...





बुधवार, 5 अक्तूबर 2016

रोशनाई का काम तो है ही रोशनी फैलाना...

रोशनाई का मतलब ?.... वही स्याही जो अब जगह जगह लोगों के चेहरों पर फैंकी जा रही है...

यह पागलपन ही है एक तरह से ... कुछ और न कर सके तो किसी के चेहरे पर स्याही ही फैंक दी...हिम्मत है तो इसी स्याही को पेन में उंडेल कर कुछ कमाल कीजिए...

रोशनाई का काम तो रोशनी फैलाना है बस...कम से कम सिरफिरे लोगों को इसे तो बख्श देना चाहिए...

आज भी देखी एक तस्वीर किसी नेता जी की ... स्याही गिरने की वजह से बौखलाए हुए दिख रहे थे...

यह पता नहीं स्याही का आइडिया इन खुराफ़ातियों को कहां से आ गया है ...पहले तो हालात और भी खराब थे...जिसे देखो स्टेज पर जूता फैंक दिया करता था..

दरअसल भारत जैसे प्रजातंत्र में इन चीज़ों की कोई जगह ही नहीं है...इस तरह की पागलपंथी करने वालों की अच्छी मुरम्मत होनी चाहिए...

मुझे यह लग रहा है कि कहीं इन स्याही फैंकने वालों के चक्कर में स्याही पर ही प्रतिबंध न लग जाए....जैसे और भी कईं चीज़ों पर लगा हुआ है ...अपना नाम, अता-पता लिखवाओ..आधार कार्ड की कापी लाओ..तो मिलेगी स्याही ...वरना नहीं!

आज स्याही से पुते हुए एक नेता की फोटो देखी तो अचानक से मेरे मन में बचपन में पहली कक्षा से लेकर अभी तक इस स्याही से अपने रिश्ते की बातें एक चलचित्र की भांति चलने लगीं...पांच पैसे की दवात, पांच पैसे की रोशनाई से लेकर अब चार हज़ार की कलम से चार सौ रूपये की स्याही से लिखने की ५० साल की यात्रा....मुझे लगता है कि मैं इस यात्रा के बारे में बहुत से लेख कभी लिखूंगा...बच्चे भी बडा़ मज़ाक करते हैं कि ये बापू के हथियार हैं....मुझे लगता था कि ये जो हज़ारों रूपये के पेन हैं, ये बेकार हैं....नौटंकीयां हैं बेकार की... लेकिन नहीं....एक बार इस्तेमाल करने के बाद इन की लत लग जाती है....
इसे देख कर ४० साल पुराने दिन तो याद आ ही गये होंगे आप को भी ...
यह अकसर होता ही है ..कुछ साल पहले मैं एक जूता खरीद रहा था...एक युवक एक विदेशी ब्रांड की ही डिमांड कर रहा था...शायद वह उन के पास था नहीं...मैंने ऐसे ही कह दिया कि वह नहीं तो यह भी तो ठीक ही है...लेकिन उस युवक ने मुझे इतना कहा कि सर, adidas का जूता पहनने के बाद अब मेरे से कोई जूता पहना ही नहीं जाता...अब जब मैं भी इस तरह के दूसरे ब्रांड्स के शूज़ खरीदने की हिम्मत करने लगा हूं...बच्चों के द्वारा बार बार फटकारे जाने के बाद ...अब मैं सोचता हूं कि जूते ही यही हैं। किस तरह से हमारे ओपिनियन, शायद हमारे नखरे भी ... और हमारा नज़रिया भी चीज़ों के बारे में निरंतर बदलता रहता है ......As my son often says... "Money is damn important. It buys experiences!" मुझे भी अब कुछ कुछ ऐसा ही लगने लगा है 😀 😘

चार सौ रूपये का यह शॉक जो अब मैं झेल लेता हूं खुशी खुशी ..😀
दो चार दिन पहले मेरा बेटे ने किसी जगह अपने दस्तख़त करने थे...टेबल पर मेरा पैन पड़ा था...साईन करने के बाद कहने लगा कि बापू, कमाल का पैन है ....मजा आ गया है ...साईन करते मुझे लग रहा था जैसे मैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हूं...

यह बात सच है कि जब तक हम लोग किसी चीज़ का इस्तेमाल नहीं करते ...हमें अंगूर खट्टे ही लगते हैं शायद...लेकिन एक बार इन्हें इस्तेमाल करने के बाद तो फिर बस....

जब मैंने इस तरह के कीमती पेन खरीदने शुरु किए तो भी साथ में पार्कर की इंक खरीदनी भी थोड़ी महंगी ही लगती थी...छोटी सी शीशी ५० रूपये की ....बंबई में था कुछ साल पहले तो इंक देख रहा था ...कोई आठ सौ की, कोई छः सौ की ...मैंने भी हिम्मत के चार सौ रूपये की एक शीशी ले ही ली...मैं इस तरह की फिज़ूलखर्ची करते समय आज के युवाओं के बारे में सोच लेता हूं ...वे परवाह नहीं करते पैसे की तो ...हम ही क्यों करें!

लेकिन यकीन मानिए, उस चार सौ रूपये की इंक की बोतल से मुझे पता चला कि इंक इसे कहते हैं....उस का फ्लो, उस की चमक, उस की चकाचौंध.......फिर तो मुझे उस इंक की ही लत लग गई...मैं जब भी उसे खरीदता हूं सोचता हूं कि दो पिज़्जा खरीद रहा हूं... तो चार सौ रूपये की स्याही खरीदते हुए शॉक नहीं लगता...

बस, मेरे ख्याल में स्याही के बारे में इतना ही काफ़ी है अभी के लिए...बस वही विचार है कि रोशनाई से रोशनी फैलाने का ही काम कीजिए....इस के इस्तेमाल से लोगों के जीवन से अंधकार मिटाने का प्रयास कीजिए.....इस तरह की स्याही फैंकने वाला शोहदापन हमें कष्ट देता है ...

महंगे पेन और स्याही की बातों को अब बंद कर रहा हूं ...यह तस्वीर लगा कर ... डॉयरी का यह पन्ना मैंने वही बचपन वाली कलम से उसी स्याही से ही लिखा था (लखनऊ में इस कलम को सेठा कहते हैं...) ..और यह वाला पन्ना मुझे बहुत प्रिय है ....


इंक्म टैक्स वालों के पास अगर यह पोस्ट पहुंच जाए तो पहली raid वह मेरे यहां ही मार देंगें.......लेकिन उन्हें किताबों कापियों, ़डॉयरियों, और लेखन हथियारों के अलावा कुछ भी नहीं हाथ लगने वाला....हम खुद अब अपने घर को कबाड़खाना और कभी कभी म्यूज़ियम कहने लगे हैं... और सच में यह ऐसा ही है !!

रविवार, 2 अक्तूबर 2016

पंजाबियों से नफ़रत !

कोई कोई मरीज़ भी न..

मरीज़ के साथ बहस करना, उलझना...यह सब डाक्टर लोग नही करते अकसर...मुझे भी इस से बड़ी नफ़रत है ...मैं तो बहस किसी से भी नहीं करता...शुरू से ही ऐसा ही हूं...क्योंकि मेरा सिर दुःखने लगता है बहसबाजी के नाम ही से...चुप रह कर हार मान लेना या हां में हां मिला देना ठीक लगता है ...

लेकिन फिर भी कईं महीनों के बाद एक न एक मरीज़ अच्छा सिर दुःखा जाता है ... दो चार दिन पहले एक आया था...इस तरह के मरीज़ जब कभी भी दोबारा आते हैं तो उन्हें देखते ही उलझन होने लगती है ...

यह जो बंदा था, बेहद बदतमीज, अजीब सा बोलने का लहजा, ऊंची आवाज़ ....कोई बात नहीं, फिर भी सिर पर चढ़ने को उतारू...

मैं बहुत बार अपने अटैंडेंट से भी यही शेयर करता हूं कि किसी भी डाक्टर से बेेकार में उलझना हिमाकत है .. कुछ लोगों को दस मिनट  इंतज़ार करना भी दुश्वार होता है .. बात कुछ भी नहीं हुई कहने लगा मुझे सीएमएस (हमारे अस्पताल की हैड) से बात करनी होगी...मैंने कहा कर लेना..दरअसल, मैं समझता हूं कि हम एक छोटे से कमरे में बैठ कर कईं बार परेशान हो जाते हैं ...इसलिए सारे अस्पताल को, कर्मचारी संगठनों, कर्मचारियों की सारा दिन बातें सुनना और उद्योगीय शांति के नाम पर सब को साथ लेकर चलना बहुत मुश्किल काम है .....इसलिए मैं कभी नहीं चाहता कि हम लोग अपने चीफ़ को बेकार की छोटी छोटी बातों में उलझाए रखें...जो भी है, जैसे भी निर्णय खुद कर लेने चाहिए...

यह जिस मानस की मैं बात कर रहा हूं..इसे जुकाम-खांसी भी थी...और अचानक मेंरे सामने दो तीन बार ज़ोर ज़ोर से खांसा ...मुझे इसे इतना तो कहना ही पड़ा कि मुंह पर हाथ तो रख लो ....लेकिन उसने मेरी नहीं सुनी...और मुझे उसी समय लगा कि मुझे भी यह सौगात दे रहा है ... अब आज के ज़माने में एक अनपढ़ को भी पता है कि खांसते-छींकते हुए मुंह के ढक लेना होता है...ऐसे में मुझे तो बहुत बार ऐसा लगता है कि कुछ मरीज़ जानबूझ पर यह सब करते हैं...वे समझते हैं कि चिकित्सक सुपरमैन हैं....ऐसा नहीं है...इम्यूनिटी कितना बचा लेगी...अगर हमला करने वाले कीटाणु-विषाणु की संख्या ज़्यादा होगी तो कुछ नही ंहो पाता ...हम भी इन रोगों की चपेट में आ ही जाते हैं....कल से जुकाम से परेशान हूं..

हां, एक और ४० साल का व्यक्ति याद आ गया अभी अभी ... अपनी मां के इलाज के लिए आता है ...दस बारह बार आ चुका होगा...लेखक है ...बड़े बड़े सेठों और नेताओं की किताबें लिखता है ...प्रायोजित लेखन....दो दिन पहले अचानक कमरे में आया तो कहने लगा ...डाक्टर साहब, एक बात करनी है एक मिनट...मैंने कहा ..हां, हां, बोलिए.....उसने कहा कि आप पंजाबी हैं न, मैंने कहा ..हां,   फिर उसने कहा ...."डाक्टर साहब, मैं पंजाबियों से बेहद नफ़रत करता था लेकिन आप के यहां इतनी बार आने से मेरा यह इंप्रेशन हमेशा के लिए ध्वस्त हो गया है..."

मैं हैरान हुआ और पूछा कि ऐसा क्यों?.....कहने लगा कि मेरा किसी पंजाबी लड़की से प्यार हो गया था...आगे मैंने कुछ नहीं पूछा....वैसे वह ब्राह्मण परिवार से संबंध रखता है ...

मैं इसलिए खुश हो गया कि चलो, इसी बहाने पंजाबियों और पंजाबियत की सेवा ही कर दी मैंने कि उन के प्रति घृणा को मिटा दिया किसी इंसान के मन से ...हा हा हा हा हा हा ...

एक मरीज़ आता था, मुंह के छाले से ....पहले तो औरों से दवाई लेता रहा ..फिर मेरे पास आने लगा ...मुझे लगा कि इस की बायोप्सी होनी चाहिए.... मैंने उसे कहा कि बायोप्सी करते हैं.. नहीं माना, हर बार बहस...आप को मुझे दवाई देने में दिक्कत ही क्या है, आप दवाई ही नहीं देना चाहते....तीन चार पांच बार मैं उस का कहना मानता रहा....उस के बाद मैंने दवाई देने से मना कर दिया....तब उसे लगा कि बायोप्सी करवा ही लेनी चाहिए...बायोप्सी में कैंसर होने की बात पुष्ट हो गई..कैंसर रोग विशेषज्ञ के पास भेजा गया ....उसने कहा कि बहुत ही सही समय पर आ गये हो, दो तीन साल पहले की बात है ...उस की सर्जरी हो गई और वह ठीक ठाक है ...अब कहता है कि आपने बहुत अच्छा किया कि मुझे दवाई देने से जब मना किया....लेकिन उसे भी देखते ही मेरा सिर भारी हो जाता था.....बहुत बहस किया करता था...अब दो तीन महीने में आता है चैक अप के लिए और मैडीकल कालेज के डाक्टर की बात कहता है कि तुम तो अपने डाक्टर को ही दिखा लिया करो जिसने तुम्हें वक्त रहते हमारे यहां भेज दिया...

हर मरीज़...हर इंसान अलग है ... पंजाबी खराब नहीं होते....बहुत बार हम लोग ऐसे ही अपने मन में एक ओपिनियन बना लेते हैं....बेवकूफी होती है बिल्कुल ......लेकिन हम बाज कहां आते हैं! ..हर शख्स अपने आप में विलक्षण है....यह शिक्षा मुझे टाटा इंस्टीच्यूट आफ सोशल साईंसेस, बंबई  में पढ़ते हुए मिली...