रविवार, 18 सितंबर 2016

शायद आज पहली बार रेडियो पर स्वपनदोष शब्द सुना ...

रेडियो-ट्रांजिस्टरों के संग्रह में हमारे यहां नेशनल पैनॉसॉनिक का एक टू-इन-वन भी है ...कभी भी इसे लगा लेते हैं...इस की साउंड-क्वालिटी बहुत बढ़िया है .. लेकिन इस में अब कैसेट चलती नहीं..जो कैसेट्स दो चार रखी हुई हैं शायद इतनी पुरानी हो चली हैं कि लगाते ही अंदर फंस जाती है ...जैसा कि आज सुबह यह कांड हुआ जिस की फोटू मैंने अपने मित्रों से शेयर भी करी
 आज सुबह के इस कांड ने तो ३६ साल पुराने ज़ख्म हरे कर दिए...
चलिए यह भी बता देते हैं कि मैंने काफी समय तक रेडियो धमाल नाम से एक ब्लाग भी बनाया ..उस पर रेडियो के जमाने की अपनी यादों को सहेजने की कोशिश भी करी ..अभी भी कायम-दायम है वह भी ...लेकिन यहां यह भी बताना ज़रूरी होगा आज के जेनरेशन के लिए कि एफएम के अलावा भी रेडियो की दुनिया है .. एफएम तो शायद १९९४ में आया...इस से पहले केवल मीडियम वेव फ्रिक्वेंसी पर आल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस और विविध भारती जैसे प्रोग्राम ही हम लोग अकसर सुना करते थे ..विविध भारती भी तो बहुत बाद में ही आया था..कुछ कुछ शहरों में ही कैच हुआ करता था..

शार्ट वेव की बात करें तो मुझे अपने पड़ोस के नानक सिंह अंकल जी की याद आती है कि किस तरह से वह १९७१ के हिंदु-पाक युद्ध और शायद १९७२ में बंगला देश बनने की खबरें सुनने के लिेए अपने बरामदे में अपना ट्रांजिस्टर पकड़ कर उसे इधर उधर घुमा कर बीबीसी की खबरें या रेडियो सिलोन कैच करने की कोशिश करते ..और अगर पांच दस मिनट बीबीसी कैच हो जाता तो हम भी उन के साथ वे खबरें सुन लेते ..इस के अलावा शॉट वेव से अपना कोई नाता दरअसल रहा नहीं..

भूमिका कुछ ज़्यादा होती दिख रही है ... मेरे में यही बुरी बात है कि मैं बात को खींचता बहुत ज़्यादा हूं ..कोई बात नहीं, सुधर जाऊंगा धीरे धीरे...

हां, तो मैं अपने नेशनल पैनासानिक वाले सेट की बात कर रहा था ...एक टेप कटवाने के बाद मुझे लगा कि चलिए आज इस पर रेडियो ही सुनते है ं...खुशी हुई कि उस समय आकाशवाणी लखनऊ के कार्यक्रम चल रहे थे ...

पाठकों की सुविधा के लिए बताना चाहूंगा कि ये जो एफएम की सुविधा है यह हर जगह नहीं है ..अभी भी अधिकतर हिंदोस्तान अपनी रेडियो की ज़रूरतें मीडियम वेव के द्वारा ही पूरी करता है ..और सरकार के अब इस सर्विस को चलाए रखना ज़्यादा से ज्यादा खर्चीला होता जा रहा है ..लेकिन चिंता न करिए...प्रधानमंत्री की मन की बातें भी अधिकतर इस मीडियम वेव से ही देश के जनमानस तक पहुंचती है ...

हां, तो जैसे ही मैंने रेडियो लगाया तो स्वपनदोष पर कुछ प्रोग्राम चल रहा था ...मेरे लिए यह एक सुखद आश्चर्य था ...आल इंडिया रेडियो पर स्वपनदोष के बारे में बातें हो रही हैं....

मैंने भी कुछ नौ-दस साल पहले इस विषय पर एक लेख लिखा था अपने एक दूसरे ब्लॉग हैल्थ-टिप्स पर ....जिस का शीर्षक था...स्वपनदोष जब कोई दोष है ही नहीं तो!  बस, ऐसे ही एक दिन मन किया कि आज इस विषय पर लिखते हैं ...तरूण एवं युवा बड़े परेशान रहते हैं ...लिख दिया...इस के बाद तो मेरे पास थैंक्स की ईमेल्स का तांता लगने लगा .. मुझे भी अच्छा लगा..शुक्रिये की ईमेल आती हैं...अभी भी। मैंने क्या किया, जो मेरी परेशानी रही मेरे स्कूल-कालेज के दिनों में उसे ईमानदारी से यंगस्टर्ज़ के सामने रख दिया और उस से जुड़ी भ्रांतियों का ध्वस्त करने का प्रयास किया ...जिस की वजह से मैं लगभग सात आठ साल परेशान रहा ...बस, मैंने इतना ही किया . अभी मेरी इस लेख के आंकड़ों पर नज़र पड़ी तो मैंने पाया कि इसे साठ हजा़र लोग पढ़ चुके हैं...

हां, तो आज जो आकाशवाणी लखनऊ पर कार्यक्रम चल रहा था जिस में स्वपनदोष पर चर्चा हो रही थी ...मुझे वे बातें मेरे लेख से बिल्कुल मेल खाती दिखीं... कुछ प्रश्न किये जा रहे थे ..एक प्रश्न आया कि क्या स्वपनदोष उन लड़कों में ही होता है जो लड़कियों के बारे में गलत सोचते हैं ....उस का जवाब उस प्रोग्राम में यह दिया गया कि नहीं, यह हर युवक में होता है ...यह कोई बीमारी नहीं है, बात केवल इतनी सी है कि जब आप के शुक्राणु परिपक्व हो जाते हैं तो वे स्वपनदोष के जरिये आप के शरीर से बाहर निकल जाते हैं...

मुझे उस प्रोग्राम को सुनते यही लग रहा था कि जितनी जानकारी तरूणावस्था एवं नवयुवकों एक आकाशवाणी जैसे मीडियम के द्वारा उपलब्ध करवाई जानी मुनासिब है, वे उसे बढ़िया से पहुंचा ही रहे थे ..हां, कार्यक्रम का नाम था..."मैं कुछ भी कर सकती हूं!"

प्रोग्राम में यह भी बताया गया कि इस से कमजोरी नहीं होती ...यह भी समझाया गया कि इस स्वपनदोष की वजह से बहुत से बच्चों का अपनी पढ़ाई में मन नहीं लगता ...वे समझते हैं कि यह एक बीमारी हो गई है उन्हें .. जी हां, यही होता है ..मेरे साथ भी तो ऐसा ही हुआ ...नवीं कक्षा से लेकर १९७७ से अगले लगभग पांच साल तक मैं भी इसी काल्पनिक परेशानी से ग्रस्त रहा ..पढ़ाई में मन नहीं लगता था...यही सोच कर कि पता नहीं यह कौन सा लफड़ा है... किताब सामने होती लेकिन अकसर ध्यान इस तरफ ही रहता कि क्या यह मेरे साथ ही हो रहा है...यहां तक कि क्लास में दोस्तों के साथ भी इस तरह की तकलीफ़ के बारे में कभी चर्चा नहीं की ...वे मेरे पढ़ाई लिखाई के सब से महत्वपूर्ण दिन थे..लेेकिन मैं अपने पोटेंशियल से बहुत कम पढ़ाई-लिखाई करता .. मन ही नही ंलगता थी, क्या करता! 

जब मैंने वह रेडियो लगाया उस के बाद वह प्रोग्राम बस पांच दस मिनट ही चला ..लेेकिन मुझे यह कल्पना ही इतनी सुखद लगी कि बहुत बढ़िया, इस तरह की सटीक जानकारी यंगस्टर्ज़ तक इतने बड़े मीडिया के द्वारा पहुंचाई गई ....आकाशवाणी लखनऊ को बहुत बहुत साधुवाद...कल निदेशक को या तो चिट्ठी लिखूंगा, वरना उन से मुलाकात ही करने चला जाऊंगा..

अच्छा लगता है जब लोग इस तरह के मुद्दों के बारे में बोलने लगते हैं...गंदी बात, गंदी बात वाले घिसे पिटे दिन नहीं रहे...अगर युवाओं में मन में कोई उलझन है तो उसे दूर करना ही होगा....मैंने अपने २००८ में लिखे लेख में भी यह गुज़ारिश की थी कि सभी पिता अपने तरूण बेटों को इस तरह के मुद्दों के बारे में समय तरह बताते रहा करें.. यह निहायत ज़रूरी है।

कुछ सप्ताह पहले यहां लखनऊ में यूनीसेफ की तरफ़ से एक बहुत बड़ा कार्यक्रम था स्कूली छात्राओं के लिए जिस में उन्हें सैनिटरी नैप्किन के महत्व आदि के बारे में बताया गया था ... मीडिया में इस मुद्दे को प्रमुखता से कवर किया गया था कि लड़कियों की पर्सनल हाइजिन (menstrual hygiene) ठीक न होने की वजह से उन में आगे चल कर महिलाओं से संबंधित कुछ रोग होने की संभावना ज्यादा होती है ...यूनिसेफ को बहुत बहुत बधाई ..अगर एक बार इस तरह की अलख जगी है तो इस की रोशनी देश के हर स्कूल की उस उम्र की बच्चियों तक भी पहुंचनी चाहिए..

ये सब ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें पुराने दिनों की तरह चटाई के नीचे नहीं सरकाया जा सकता .... हर छात्र-छात्रा को उऩ के मन में उथल-पुथल पैदा करने वाली बातों का उचित समाधान तलाशने का पूरा अधिकार है!

आप इस मुद्दे के बारे में क्या सोचते हैं? ...लिखिएगा...

मेरा नौ-दस साल पुराना लेख... मैंने इसमें कभी भी कुछ बदलाव नहीं किया .. यह रहा उस का लिंक .. स्वपनदोष जब कोई दोष है ही नहीं तो!

शनिवार, 17 सितंबर 2016

बच्चों के दांतों का क्या झमेला- बच्चे ही तो हैं!

आज मुझे लगभग २५० के करीब स्कूली बच्चों के मुंह का निरीक्षण करने का मौका मिला .. यहां लखनऊ में है स्कूल पॉश एरिया है बिल्कुल..मुख्यमंत्री आवास से बस १००-२०० मीटर की दूरी पर.. इस स्कूल को एक सरकारी विभाग का महिला संगठन चलाता है ...मेरे विचार में एक आदर्श स्कूल है ..बिल्डिंग के लिहाज से, खुली जगह के नज़रिये और हरियाली तो उस एरिया में भरपूर है ही ... जैसा कि मुझे लगता है इस स्कूल में बच्चे अधिकतर उस एरिया के वर्कर्ज़ के ही आते हैं ...तो क्या मैं वर्कर नहीं हूं?...मैं तो अनेकों बार कह चुका हूं कि हम लोग जितनी मरजी कल्पना की उड़ानें भर लें, फेंटसी वर्ल्ड में घूमते रहें, हैं तो ऊपर से नीचे तक सब के सब वर्कर ही ...बस, वर्क ही अलग है, मेरा वर्क दांतों की सलामती देखना और उस बच्चे के पापा का वर्क है ..खाना बनाने का.. जिससे मैंने पता नहीं कैसे पूछ लिया कि आप के पापा क्या करते हैं?..मैं अकसर इस तरह के प्रश्नों को पूछना पसंद नहीं करता, विशेषकर बच्चों से....चलिए, फिलासफी तो हर दिन झाड़ते ही रहते हैं, उसका क्या है, आज कुछ पते की बातें करते हैं...

आज स्कूल के हेल्थ-चैक अप कैंप से लौटते ही मुझे लग रहा था कि इतने बच्चों के दांतों को एक साथ देखने के अपने अनुभव बांटने चाहिए...मुझे नहीं पता यह लेख कितना लंबा हो जायेगा या नहीं, लेकिन कुछ बातें या कुछ अनुभव दूसरों के फायदे के लिए सहेजने लायक होते हैं ...इसलिए शब्दों की सीमा में इन अनुभवों को नहीं बाँधा जा सकता। 

इस हेल्थ-चैक-अप कैंप में एक नेत्र रोग विशेषज्ञ, एक ईएनटी विशेषज्ञ और एक शिशु रोग विशेषज्ञ, हमारी सीएमएस और मैंने स्कूली बच्चों का निरीक्षण किया...एक बार ध्यान आया कि कुछ तस्वीरें खींच लेते हैं इस कैंप की ..लेेकिन पता नहीं इच्छा ही नहीं हुई..यही लगा कि आज का दिन इन बच्चों के नाम पूरे का पूरे...इसलिए पूरे मन से यह काम किया...

कुछ बातें जो मैंने नोटिस करी ...

चार पांच साल तक के बच्चों के दांत बहुत अच्छे थे ..चार पांच साल तक के जितने बच्चे देखे उन के दांत बहुत अच्छे थे...साफ-सुथरे ..दांतों की सड़न से रहित...मुंह का अंदरूनी भाग भी बिल्कुल ठीक ठाक .. कुछ बच्चे थे जिन में दांतों की सड़न की वजह से दंत-छिद्र बन चुके थे .. जिनका इलाज करवाने के लिए अभिभावकों को बताया जायेगा..

सब से महत्वपूर्ण बात यह है कि लोगों में दांतों के बारे में इतनी अवेयरनेस है ही नहीं ...इसलिए हर छःमहीने के बाद दांतों के निरीक्षण का कंसेप्ट है ही नहीं...जब दर्द होता है, मुंह सूज जाता है ...तब कहीं जा कर दंत चिकित्सक का ध्यान आता है 

कुछ कुछ बच्चों के दांतों की तस्वीरें मैंने जल्दी जल्दी में खींचीं ताकि उन तस्वीरों के द्वारा उन्हें और अन्य लोगों को जागरूक किया जा सके ..

चलिए, पहले तस्वीरें लगाता हूं, फिर उन के बारे में बताता रहूंगा...आज तो बस इतना ही संभव हो पायेगा...कुछ बातें रह भी गईं तो फिर कभी किसी अन्य पोस्ट में देख लेंगे.. 


वहां पहुंचते ही मेरा सहायक सुरेश तो सारे स्कूल के बच्चों को अपने मुंह की सफाई के गुर सिखाने में व्यस्त हो गया..सारा दिन मेरे मरीज़ों के साथ डॉयलाग सुुन सुन कर वह आधे से भी थोड़ा ज़्यादा डाक्टर तो हो ही चुका है, जब मेैं उस के साथ यह मजाक करता हूं तो खिलखिला कर हंसता है .. उसने बड़े अच्छे से स्कूली बच्चों के छोटे छोटे ग्रुप बना कर बिल्कुल बच्चों के स्तर पर पहुंच कर उन से दांतों की, जुबान की सफाई की बातें करी...मुझे यह देख कर बहुत अच्छा लगा..



यह तस्वीर और नीचे वाली तस्वीर जिस बच्चे के दांतों की है वह शायद यही पांच वर्ष का ही था...दांतों के इतने घिसने से मुझे पहले तो लगा कि यह तो किसी खुरदरे मंजन के इस्तेमाल से हुआ होगा ..वह कोई चालू किस्म का मंजन करता भी है. लेकिन फिर ध्यान आया कि यह Bruxism/Bruxomania की वजह से हो सकता है ....उस के लिए उस के अभिभावकों से बात करने की ज़रूरत थी कि यह सुबह या रात में सोते समय दांत तो नहीं किटकिटाता .. बहरहाल, जो भी हो अगर यह ब्रक्सिज्म की वजह से भी है तो उस का भी इलाज पूर्णतया संभव है ..लेेकिन पहले अच्छे से इस तरह के दांतों के घिसने की वजह जान लेने के बाद...पांच साल की उम्र में इस तरह के दांतों का घिसना बहुत ही ज्यादा कम नज़र आता है ..



यह जो दांतों की व्यवस्था इस बच्चे में दिखी यह नार्मल नहीं है ...ऊपर के किसी भी एक या एक से ज़्यादा दांतों को नीचे वाले दांतों के पीछे छिप जाना दांतों को बंद करते समय ...यह दांतों की सेहत के लिए भी ठीक नहीं है, और भविष्य में पक्के दांतों के समय भी इस से कुछ जटिलताएं उत्पन्न हो सकती है ं.. इस तरह के केस अकसर बहुत ही कम दिखते हैं ..अब इस में क्या होना चाहिए ...कोई दूध का दांत निकलवाना चाहिए या नहीं...यह तो बच्चों के दांतों के विशेषज्ञ (जिन्हें हम लोग पीडीडोंटिस्ट कहते हैं) .. ही बता पायेंगे...


यह जो इस दूध के दांत में कट है, इस का भी एक्सरे होना चाहिए ताकि कारण का पता चल सके...और अगर कुछ करना हो तो किया जा सके...वरना तो यह दांत सात आठ की उम्र के आसपास गिर ही जाता है और ऩया पक्का दांत इस की जगह ले लेता है ..अमूमन!

इस बच्चे के नीचे के दो आगे के दूध वाले दांत जुड़े हुए हैं...इसे हम लोग फ्यूजड दांत कहते हैं ..बहुत ही कम केस दिखते हैं इस तरह के भी ...जहां तक मुझे ध्यान है , जब दूध के दांत इस तरह से जुड़े होते हैं तो अकसर कुछ करना नहीं होता, बस इन का अपने समय पर गिरने का और इन की जगह लेने वाले पक्के दांत के निकलने का इंतज़ार ही करना होता है ...


यह ६-७ साल के बच्चे की तस्वीर है ..यह मैंने इसलिए खींची कि पाठकों को याद दिलाया जा सके को लोग समझते हैं कि ६ साल की उम्र है तो सभी दांत दूध के ही होंगे ..लेकिन ऩहीं इस बच्चे में भी सब से पीछे जो दो दांत (दोनों तरफ़ एक एक) जाड़ आप देख रहे हैं वे पक्की जाड़ें हैं...अब छः सात की उम्र तक भी दांतों की देखभाल ठीक से न होने की वजह से यह पक्का दांत भी बहुत बार दंत-क्षय का शिकार हो जाता है ...लेकिन तब भी लोग डैंटिस्ट के पास नहीं जाते और फिर यह दांत कईं बार बिल्कुल ही नष्ट हो जाता है ..


यह तस्वीर मैंने इसलिए ली है ताकि पाठकों को यह बताया जा सके कि यह चार पांच साल के बच्चे के दूध के दांतों में इतना गैप है लेकिन यह फिर भी बिल्कुल नार्मल है ..क्योंकि जब यह दांत दूध वाले गिरेंगे तो इन की जगह पर पक्के आने वाले दांत इन से बड़े होते हैं ..इसलिए पक्के दांतों को अच्छे से तरतीब में जमने के लिए ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ता.. 


इस बच्चे के आगे वाले दो दांत इस तरह से क्षतिग्रस्त हुए देख कर पहले तो मुझे लगा कि यह भी किसी खुरदरे मंजन की वजह से हुआ लगता है ..लेकिन उस से केवल दो ही दांत इस तरह से खराब हों, ऐसा होता नहीं है अकसर.। मुझे लगता है कि इस के इन दोनों दांतों की बनावट में ही कुछ खराबी होगी जिस की वजह से वहां दंत-क्षय पैदा हो गया और इस तरह से कैविटी बन गई...इन दोनों दांतों की अच्छे से फिलिंग करवानी चाहिए...


यह भी छ- साल के करीब का ही बच्चा है ...इसे भी कोई तकलीफ नहीं थी, इस तस्वीर में आप देख सकते हैं कि इस के मुंह में बिल्कुल पीछे  छः साल की अवस्था में आने वाली पहली पक्की जाड़ आ रही है ..उस को अभी थोड़े से मूसड़े ने कवर कर रखा है ..यह बिल्कुल नार्मल है ..कुछ दिनों में यह मसूड़ा पीछे हट जायेगा और पूरी जाड़ मुंह में नज़र आने लगेगी... बहुत कम केसों में इस तरह के मसूड़े में कभी कभी थोड़ा दर्द होने लगता है ..उस के लिए कुछ खास नही ंकरना होता, बस कोई भी दर्द-निवारक मुंह में लगाने वाली जेल (gel) लगा देते हैं एक दो दिन ...और गर्म पानी से थोड़े कुल्ले करने से सब ठीक हो जाता है ...


यह तस्वीर और इस के नीचे वाली तस्वीर इस बात को रेखांकित करती है कि दांतों का नियमित निरीक्षण कितना ज़रूरी है ..वरना दूध के दांत अपनी जगह से गिर नहीं रहे, पक्के दांतों को जबड़े की हड्डी से बाहर निकलने की जगह नही ंमिल रही ... कहीं कुछ समस्या, कहीं कुछ.... इस बच्चे में भी यह जो बाईं और दांत दिख रहा है, उसे भी निकलवाना ज़रूरी है और जो दाईं तरफ़ ऊपर का आगे वाला दांत नहीं आ रहा, उस का एक्स-रे होना चाहिए ताकि पता चले कि उस पक्के दांत के बाहर निकलने में क्या रूकावट है ताकि फिर उसी मुताबिक इलाज किया जा सके...



यह जो आप तस्वीर देख रहे हैं...इस में सात आठ के बच्चे के ऊपर वाले अगले दो दांतों के बीच एक एक्स्ट्रा दांत जम रहा है .. इस के वहां जमने से जबड़े में दूसरे पक्के दांतों के लिए जगह कम पड़ रही है, इसलिए अकसर ऐसे हालात में वे दबे ही रहते हैं..अगर किसी तरह से बाहर निकल भी आते हैं तो इधर उधर ऊबड-खाबड़ जिसे हम आम जन की भाषा में क्रूक्ड दांत कहते हैं और चिकित्सीय भाषा में जिसे Malocclusion कहा जाता है ..

इतना लिखने के बाद रात में मुझे नींद आ गई ...अभी उठा हूं तो सोच रहा हूं कि पहले इसे मुकम्मल कर लूं..यह पोस्ट नहीं, एक दस्तावेज सा तैयार हो रहा है...जिस काम को इतने वर्षों से कर रहे हैं उस के बारे में सहजता से लिखना काफी सुलभ होता है ..वरना मैं जब साहित्यिक विषयों में टांग फंसा लेता हूं ..तो व्याकरण और बर्तनी में ही उलझा रहता हूं...

इस तरह के एक्स्ट्रा दांत को जिस के बारे में मैं कल रात बात कर रहा था, इन्हें जितनी जल्दी उखड़वा दिया जाए उतना ही बढ़िया होता है ..बिल्कुल आसानी से उखड़ जाता है ...वरना इस तरह के दांत उस बच्चे या नवयुवक के लिएे परेशानियां लिए खड़े रहते हैं...एक बार दांत टेढ़े मेढ़े हो जाएँ तो कम से कम बीस तीस हज़ार रूपये खर्च करने पड़ते हैं ...और एक से दो वर्ष तक ब्रेसेज़ लगवाए रखने से दांत दुरुस्त हो पाते हैं....यह भी थ्यूरेटिकल बात ही है ...क्योंकि जो मैंने देखा है कि विभिन्न कारणों की वजह से इस तरह का इलाज शायद एक प्रतिशत ..जी हां १% लोग ही करवा पाते हैं ...शेष तो इन बेतरतीब दांतों से पैदा हुई हीन भावना का बोझा कईं साल तक ढोते रहते हैं!

 अभी ध्यान आया कि इस तरह की समस्या के बारे में मैंने कईं वर्ष पूर्व भी लिखा था ...इंगलिश ब्लॉग पर भी और इस पर भी ...लिंक मिल गये ...देखिए, अगर आप इस समस्या के बारे में विस्तार से पढ़ना चाहें तो इधर भी हो आईए...




यह जो सारे बच्चे इस आयुवर्ग के होते हैं ६ से बारह वर्ष वाले ...ये सब मिक्सिड डैंटिशिन की श्रेणी में आते हैं...यह इंगलिश शब्द इतना भारी भरकम है, लेेकिन बात केवल यह है कि इस आयुवर्ग में दूध के दांत गिर रहे होते हैं...पक्के दांत जम रहे होते हैं ....इसलिए बच्चे को हर छःमहीने के बाद बिना किसी तरह की तकलीफ़ के भी दंत चिकित्सक के पास चैक-अप के लिए ले जाना चाहिए... क्योंकि हमें दांतों की सड़न के प्रारंभिक लक्षणों के साथ साथ यह भी देखना होता है कि कौन सा दूध का दांत अपना झड़ने का समय आने के बाद भी टिका हुआ है ...और साथ ही में उग रहे पक्के दांत के आने में कोई रूकावट तो नहीं आ रही ...

इस बच्चे को ब्रुश करते समय मसूड़ों से खून आता है ..
यह जो तस्वीर आप ऊपर देख रहे हैं यह पायरिया की तस्वीर है ...ग्यारह बारह साल की उम्र में पायरिया के मरीज अब आने लगे हैं..आज से तीस साल पहले जब हम लोग डैंटिस्ट्री की एबीसी लिख पढ़ रहे थे तो बीस की अवस्था में बहुत कम मरीज़ आते थे इस रोग से ग्रस्त...शायद तीस पैंतीस के लोग ही हमारे पास अधिकतर आते थे ...फिर पंद्रह बीस साल पहले २०-२२ साल के युवा लोग इस तकलीफ़ की वजह से आना शुरू हो गये ...अब १०-१२ साल के बच्चे इस तकलीफ़ की वजह से आ जाते हैं कि ब्रुश करते हुए दांतों से खून बहने लगता है ...जो कि पायरिया रोग का (जिसे हम लोग जिंजिवाईटिस भी कहते हैं) शुरुआती लक्षण है...इस के बारे में मैंने कुछ वर्ष पहले विस्तार से लिखा था, अगर आप को ज़रूरत महसूस हो तो इन लिंक्स को देखिएगा....


इस ६ साल के बच्चे में ऊपर के एक दांत में दंत-छिद्र तो है ही ...लेकिन मैंने यह फोटो इसलिए शेयर की है क्योंकि इस बच्चे की पहली जाड़ आ रही है ..आप देख रहे हैं उस के ऊपर का मसूड़ा थोड़ा सूजा हुआ है .. इसे डेंटल भाषा में Eruption Gingivitis कहते हैं ..इसे भी इस से कोई तकलीफ नहीं है, अकसर होती भी नहीं है, अगर किसी को दर्द-वर्द या खाने में दिक्कत हो इस की वजह से लगाने के लिए कुछ दवा या खाने के लिए दे देते हैं ...कुछ दिनों की ही बात होती है ..यह मसूड़ा अपने आप ठीक हो जाता है ..पीछे हट जाता है ...लेेकिन अकसर मां-बाप बच्चों के इस अवस्था में हमारे पास ले आते हैं कि यह बच्चे में मुंह में क्या हो रहा है! उन्हें केवल सांत्वना चाहिए होती है कि यह कुछ खास नहीं है!


मैंंने इस दस्तावेज में यह जिक्र किया कि इस आयुवर्ग में दूध के दांत गिर रहे होते हैं पक्के जम रहे होते हैं इसलिए दंत चिकित्सक के पास जा कर नियमित जांच करवानी ज़रूरी होती है ..इस बच्चे में भी एक पक्का दांत (स्थायी) दांत तो निकल आया है लेकिन दूध का दांत गिरा नहीं है ..उस के टुकड़े अभी भी जबड़े के अंदर फंसे हुए हैं... जिन की वजह से पक्का दांत भी थोड़ा अपनी जगह से हट के जम रहा है ...दूध के दांत के बचे खुचे इन टुकड़ों को तुरंत निकलवा दिया जाना चाहिए...


इस तरह के बच्चे के बारे में तो मैंने ऊपर ही बता दिया था कि दूध के दांतों में इस तरह का खुलापन एक शुभ संकेत है ..ऐसा क्या है, इस की वजह क्या है, इस के बारे में तो ऊपर चर्चा की ही जा चुकी है ..अगर आपने पढ़ी हो तो!


और हां, इस तरह के मरीज़ मेरे पास हर सप्ताह दो तीन आ ही जाते हैं... इस में क्या दिक्कत है कि दूध के दांत गिरे नहीं अभी और उन के पीछे पक्के दांतों ने अपना आसन जमाना शुरू कर दिया है ... पेरेन्ट्स बहुत चिंतित होते हैं ..लेकिन बात सिर्फ इतनी सी होती है कि हम इन दूध के दांतों को निकाल बाहर करते हैं और कुछ ही हफ्तों में अंदर की तरफ़ जमे हुए पर्मानेंट दांत बिना किसी दिक्कत के, जीभ के दबाव से ही अपनी जगह ले लेते हैं...यह तो बहुत ही आम समस्या हो चली है ...मुझे कईं बार लगता है कि बच्चे आज कल सब कुछ नर्मानर्म ही खाने लगे हैं...उसी की वजह से हो रहा होगा यह सब...लेकिन शायद यह मेरा कयास ही होगा! 


इस छात्र के ऊबड-खाबड़ दांत के लिए भी ब्रेसेस का इलाज होना चाहिए...लेकिन अकसर लोग करवा ही नहीं पाते..बहुत से कारण हैं...सब से बड़ा कारण वहीं पैसा ही है ...लेेकिन इस बच्चे को इस के बारे में अवेयर कर दिया है ..


जिन एक्स्ट्रा दांतों का किस्सा मैं आप को ऊपर सुना रहा था, किसी दूसरे बच्चे में भी उस तरह का एक्स्ट्रा दांत दिख गया ...इस तरह के दांत को जितना जल्दी हो सके, उखड़वा देना चाहिए...


यह जो दांत इस बच्चे के आप देख रहे हैं इस ने मुंह खोला नहीं है, जब इसे दांत भींचने के लिेए कहा है तो इस के दांत आगे से इतने खुले रहते हैं... इसे डेंटल भाषा में Anterior Open bite कहते हैं ...इस का इलाज ज़रूर करवा लेना चाहिए....पहले तो बात यह है कि इस तरह से मुंह आगे से खुला रहना एक दांतों की बीमारी है, इस के बारे में अवेयरनेस चाहिए... वरना मैंने तो ४०-४५ साल के पुरूष-स्त्रियां देखे हैं जो इस तरह की तकलीफ़ से ग्रस्त हैं लेकिन उन्हें पता नहीं है ...देखने में तो बुरा लगता ही है ...इन आगे वाले दांतों के फंक्शन पर भी तो इस का असर पड़ता ही है ...और बहुत बार तो बोलचाल (शब्दों के उच्चारण) पर भी इस का असर देखने को मिलता है ..


इस तरह से आगे टूटे हुए दांत वाले भी पांच सात केस इस स्कूल में दिख गये...लोग इस का अकसर इलाज करवाते नहीं हैं या करवा नहीं पाते यह सोच कर कि पता नहीं कुछ हो भी पायेगा कि नहीं, अगर होगा, तो पता नहीं कितना पैसा लग जायेगा...इस तरह के दांतों का हम लोग पहले एक्स-रे करवा लेते हैं ...और अगर दांत की जड़ सब कुछ ठीक ठाक है तो हम लोग इसे कंपोज़िट नामक एक मैटीरियल से रिपेयर कर देते हैं ...उस में कलर भी मैंच करने की सुविधा रहती है..सामने वाले को बिल्कुल भी पता नहीं चलता कि टूटे हुए दांत को बनवाया हुआ है ...यह सब आज की आधुनिक डैंटिस्ट्री का कमाल है ..और ये सुविधाएं आज की नहीं है...कुछ बच्चों का बीस साल पहले इस तरह का इलाज किया था, अब वे बड़े हो गये हैं ...और इस तरह की फिलिंग बढ़िया चल रही है...कुछ केसों में बहुत सालों के बाद इस तरह की टुथ-कलर फिलिंग का रंग बदलने लगता है, तो उसे हटा के फिर से दोबारा कर दिया जाता है ..its so simple!


 इस बच्चे को भी मसूड़ों से खून आता है, ब्रुश करने से ...इस के बारे मेैं पहले ही विस्तार से लिख चुका हूं..एक बात बस यहां फिर से लिखना चाहता हूं कि कईं बार तो इस तरह के मरीज़ इसे कोई तकलीफ़ ही नहीं समझते ...और हमारे पूछने पर ही बताते हैं कि मसूड़ों से खून आता है ब्रुश करते समय... अकसर इस तरह की तकलीफ़ होने पर लोग ब्रुश करना ही बंद कर देते हैं और किसी तिलस्मी बाबा का मंजन घिसना शुरू कर देते हैं...जिस से तकलीफ़ को बढ़ावा मिलता है ..इस के बारे में जागरूकता बहुत कम है! 


इस तरह के केसों के बारे में भी मैंने पहले जिक्र किया है कि किस तरह से दूध के दांतों के टुकड़े अगर नहीं गिरें तो पक्के दांतों के जमने में रूकावट किये रहते हैं ...इस छात्र में भी यही तकलीफ है जैसा कि आप इस तस्वीर की बाईं तरफ़ देख सकते हैं...

कल लखनऊ हज़रतगंज चौराहे पर लाल बत्ती पर रूका तो बाहर यह बोर्ड दिख गया ..बात तो सही बता रहे हैं!!
आज सुबह बशीर बद्र साहब कि यह बात याद आ गई...तो लिख ली एक पेपर पर ..




 बच्चों की इतनी सारी बातें चलती हैं तो इस जंगल में खिले फूल की भी याद आ ही जाती है

बस, अब कुछ ज्यादा कहने को रह नहीं गया....चंद बातें यहां दर्ज कर के छुट्टी करूंगा.. लिखते लिखते थक गया हूं मैं भी।

कल वाले केंप के बारे में नहीं ..लेेकिन वैसे ही कैंपों के बारे में कुछ सामान्य बातें शेयर करना चाहता हूं..

कैंप औपचारिकता निभाने के लिेए नहीं होते
मुझे ऐसा लगता है ..जैसा मैं मीडिया में तस्वीरें देखता रहता हूं कि कुछ सेहत कैंप बिल्कुल नौटंकी से लगते हैं...हर एक को लगता है कल के अखबार में उस की भी फोटो दिखनी ही चाहिए...ऐसा संभव नहीं है, एक समय में एक ही काम हो सकता है, नौटंकी कर लीजिए या काम कर लीजिए..दोनों काम एक साथ संभव नहीं होते कभी भी ...

नियमित होते रहने चाहिए ये स्कूल हैल्थ कैंप
इस तरह के कैंप स्कूल में हर साल की बजाए अधिक संख्या में होने चाहिए...और यह भी होना चाहिए कि सारा स्कूल को चंद घंटों में ही देख डालने की बाध्यता न हो....पचास सौ बच्चों को ही एक दिन में देखा जाना चाहिए..इस तरह से प्रक्रिया कुछ दिन चल भी जायेगी तो बच्चों की सेहत के लिए यह कोई बहुत भारी कीमत नहीं है...

मैं अकसर नोटिस किया करता हूं कि हम लोग बहुत सी बातें बस एक रिवायत की तौर पर करने लगते हैं...अच्छा, यह महीना है...यह टारगेट है...चलिए, जल्दी जल्दी से दो चार कैंप निपटा लें, नेट पर फोटो डाल दें ...वाहवाही लूट लें ....असल में इस तरह की ड्रामेबाजी से कुछ खास हासिल होता नहीं है .. कुछ लोग अपने नंबर बना लेते होंगे शायद, लेकिन उस का कुछ भी फायदा नहीं होता...हर काम पूरी लग्न से मन लगा कर ही किया जाए तो ठीक रहता है .. वरना तो.....!!

पेरेन्ट्स को भी इन्वॉल्व किया जाना चाहिए
विशेषज्ञ लोग अपनी रिपोर्ट लिख आते हैं एक कार्ड पर ..लेेकिन वे बेहद अहम् बातें उन बच्चों के अभिभावकों तक कैसे पहुंचें...यह बहुत ही ज़रूरी है ..छोटे बच्चे तो अपनी बात मां-बाप को कह ही नहीं पाते ... इसलिए मुझे ऐसे लगता है कि पीटीए की मीटिंग के दिन या किसी दूसरे दिन पेरेन्ट्स को जब बुलाया जाता है तो डाक्टर लोग भी वहां अगर हो सके तो कुछ समय के लिए उपस्थित रहें ताकि उन के बच्चों की सेहत से संबंधित कुछ अहम् बातों के बारे में उन से भी चर्चा की जा सके...यह बेहद अहम् बात है..

अगर चिकित्सकों को पीटीए के दिन पहुंचने में दिक्कत हो तो एक आइडिया यह भी है कि पेरेन्टस को भी वह कार्ड दिया जा सकता है कि वे हम लोगों के पास बच्चों के साथ अपनी शंकाओं का समाधान कर लें...

आज कर संवाद का ज़माना है...लोग संवाद से बड़ी से बड़ी पहाड़ जैसी मुश्किलें पल में हल कर लेते हैं (उदाहरण यादव परिवार मतभेद) तो यह तो कोई बात ही नहीं है!

औज़ार पूरी तरह से कीटाणुमुक्त होने चाहिेए
मैं कुछ साल पहले देखा करता था कि मुंह का निरीक्षण हो रहा होता है ..अखबारों में ही देखा करते थे ...बहुत से लोग इक्ट्ठा हुए हैं...एक गिलास में चार औज़ार किसी ऐंटीसेप्टिक में रखे हुए हैं, वे ही सभी के मुंह में डाले जा रहे हैं....यह बिल्कुल गलत है ...इस तरह के हैल्थ-चैक अप कैंपों में मैं हमेशा इस बात को तरजीह देता हूं कि बच्चों के मुंह में कोई औज़ार डाला ही नहीं जाए... अगर ज़रूरत हो भी तो वही डाला जाए तो हम अपने साथ कीटाणुरहित कर के ले गये हैं ..इसलिए हम लोग पर्याप्त संख्या में इंस्ट्रयूमेंट्स साथ ले कर चलते हैं ...किसी भी औज़ार को फिर से इस्तेमाल करने का प्रश्न ही नहीं उठता ! 

इस पोस्ट को बंद करते करते एक बात का ध्यान आ गया ..किसी महिला ने कैंप के दौरान यह प्रश्न किया कि क्या बच्चों के दांतों को भी भरवाने की ज़रूरत होती है ...वहां मैंने एक दो मिनट में इस का जवाब दे दिया...इस विषय पर मैंने कुछ साल पहले लिखा था..अभी नेट पर ढूंढा तो मिल गया लिंक... 


मुझे अपने स्कूल के दिनों का एक कैंप याद आ गया..हमें लाइन में लगा दिया जाता और चंद सैंकडो़ं में हमें देख लिया जाता ...नवीं दसवीं कक्षा में हमारे शरीर में बहुत से बदलाव आते हैं...मैं भी कुछ बात उस डाक्टर से एक दिन पूछना चाह रहा था...लेकिन लाइन में लगे हुए हिम्मत नहीं कर पाया...बाद में आया ...फिर बात नहीं कर पाया कुछ...मुझे अच्छे से याद है... शायद मैं इतना ही कह पाया कि मुझे बड़ी कमजोरी महसूस होती है ...टांगे दुखती रहती हैं...उस डाक्दार ने भी झट से पर्ची पर Waterbury's tonic लिख दिया...मैंने अपने पिता जी को दे दी वह चिट ..वे ले आये...तरूणावस्था के प्रश्न इस तरह से घुलते हैं क्या! ...मेरे मन के प्रश्न मेरी काल्पनिक समस्याओं (यह मुझे २० साल की उम्र में पता चला कि वे सब तकलीफ़ें काल्पनिक ही थीं) की तरह मेरे अंदर ही दबे रह गये....अभी भी बड़े बड़े अस्पतालों में Adolescent centers (तरूण स्वास्थ्य केन्द्र) तो खुल गये हैं ..लेकिन उस से भी कुछ हालात बदले नहीं दिख रहे ...दरअसल शायद हम लोगों के पास किसी से बात करने का वक्त ही नहीं है.....हम खानापूर्ति में एक्सपर्ट हो चुके हैं ..बस डिग्री का ही फर्क है, कुछ ज़्यादा, कुछ कम ...Another moment for introspection for all of us! 

 Oh my god! ..पिछले कुछ सालों में शायद सब से बड़ी पोस्ट लिख डाली मजाक मजाक में ...लेकिन मेरे लिए यह पोस्ट नहीं है, एक विश्वसनीय दस्तावेज है.. इतनी भारी भरकम उबाऊ पोस्ट के बाद इस हल्के फुल्के गीत को सुन कर बेलेंसिंग एक्ट कर लेते हैं....


बुधवार, 14 सितंबर 2016

बकरीद...अखबारों के झरोखों से

आज अखबार नहीं आयेगी...सुबह उठ कर कल वाली अखबारें ही उठा लीं...हर अखबार में लखनऊ में बकरीद छाई हुई थी, सोचा आज इन खबरों की तस्वीरें ही शेयर करते हैं...

मैं इस पोस्ट में बहुत सी तस्वीरें लगा रहा हूं ..किसी भी टेक्स्ट को अगर आप अच्छे से पढ़ना चाहें तो उस पर क्लिक कर दीजिए...आप उसे साफ़ साफ़ देख पढ़ सकेंगे...ब्लॉग में फोटो लगाते समय उस की रेज़ोल्यूशन की अपनी सीमाएं होती हैं, साईज़ बड़ा रहेगा तो सभी उसे खोल ही नहीं पाएंगे..






बहरहाल, कल सुबह ही पता तो चल गया था कि आज लखनऊ की फिजा़ में तहजीब की मिठाई घुलने वाली है ..फ्रंट पेज वाली उस खबर की सुर्खियां ही कुछ इस तरह की थीं...

ईसाई करेंगे इस्तकबाल
सिख-हिंदू परोसेंगे सेवईं
शिय-सुन्नी एक साथ पढ़ेंगे नमाज
शाहनजफ इमामबाड़े में गले मिलेंगे दोनों समुदाय
यंगस्टर्ज के हाथों में है कमान

किसी धार्मिक पर्व के बारे में अकसर मुझे भी इन्हीं सुर्खियों से ही पता चलता है ... लखनऊ में कुछ ज्यादा चलता है क्योंकि यहां पर धार्मिक-सांस्कृतिक माहौल कुछ अनूठा ही है ..वरना बहुत से शहरों में तो इस तरह के त्योहारों पर अखबार के आधे पन्ने पर एक संदेश छपता है कि मुबारकबाद ..और साथ में डाक्टरों, नीम-हकीम स्पेशलिस्टों के विज्ञापन और कामुकता बढ़ाने वाले जुगाड़ों के इश्तिहार ....लेेकिन यहां विभिन्न त्योहारों को अच्छे से कवर किया जाता है जैसा कि आप नीचे लगी हुई तस्वारों से देख पाएंगे...हाथ कंगन को आरसी क्या!






अरे हां, एक बात याद आ गई इस बधाई वाली बात से ...हम लोगों का दूसरे धर्मों के बारे में ज्ञान इतना कम और अधकचरा है कि हमें बहुत बार तो पता ही नहीं होता कि किसी की इस तरह की पोस्ट पर टिपियाना कैसे होता है ..कुछ महीने पहले की बात है कोई मुस्लिम बंधुओं का ही त्योहार था तो किसी ने तुरंत टिका दिया ...मुबारकबाद...उसे तुरंत हड़का दिया गया कि यह मुबारबाद और बधाई का मौका नहीं होता ....मैं तो इस तरह के मौकों पर तभी कुछ लिखता हूं जब दूसरे लोगों के कमैंट पढ़ लेता हूं कि हां, यह मौका है क्या..जश्न का या मातम का ! अनुमान अकसर गल्त साबित हुआ करते है ं...परीक्षाओं में तो चल भी जाते हैं...थकेले हुए मास्टरों के साथ लेकिन ज़िंदगी में नहीं चलते ...अब अगर आप बकरों की इतनी बड़ी संख्या में शहादत से कुछ अपना ही अनुमान लगा लें तो गड़बड़ हो जायेगी!

चक्कर सारा यह है कि हम लोग यहां वहां से थोड़ी बहुत जानकारी तो जुटा लेते हैं लेकिन कभी एक दूसरे के धर्म-स्थल पर जाते नही ं हैं..ठीक है, कुछ जगहों पर कुछ प्रतिबंध भी होते हैं लेकिन हम भी कुछ पहल करते नहीं दिखते...इसलिए अल्पज्ञता वाली खाई हमेशा जस की तस खुदी रहती है ...आप का इस के बारे में क्या ख्याल है?






मैंने कहा न कि आज तस्वीरों को ही बोलने देते हैं... दरअसल मैं इस पोस्ट में इतना कुछ भी नहीं लिखता, लेेकिन ये सब तस्वीरें मेरे मोबाइल से लेपटाप में ब्लु-टुथ से आ रही हैं...बच्चे तो कईं बार कहते हैं कि बापू, शेयर-इट से कर लिया कर इस तरह के काम...लेेकिन उस में एक दो बार अड़चन आई तो फिर से किया ही नहीं!

इन्हीं खबरों में से एक जगह आप यह भी लिखा पाएंगे ...मंडी में देसी, बरबरे और जमुनापारी बकरों की खासी मांग रही ...देसी और जमुनापारी बकरे आमतौर पर जहां १०-१४ हज़ार रुपयों में बिके वहीं अजमेरी नस्ल के बकरे ३५ से ४५ हज़ार रुपयों में बिके...बकरीद का त्योहार नजदीक आते ही अल्लाह मोहम्मद लिखे बकरे काफी चर्चा में रहते हैं.. इस साल भी बकरा मंडी में अल्लाह और मोहम्मद लिखे कईं बकरे लाए गये। मगर इन बकरों के दाम लाखों रूपये में होने की वजह से सिर्फ लोगों की आकर्षण का केन्द्र ही बने रहे , लोगों ने इन्हें खरीदा नहीं...





जब हम छोटे होते हैं तो हम वही मान लेते हैं जो किताबों में दर्ज है, लेकिन हम उम्र के पड़ाव पार करते करते ये जानने लगते हैं कि ज़मीनी हकीकत दरअसल है क्या...देश में इतनी विभिन्नता होते हुए भी संविधान ने एक माला में पिरो कर रखा हुआ है..यह अपने आप में एक करिश्मा ही है ...

अखबारों के झरोखों से तो मैंने आप को बकरीद का पर्व दिखा दिया ..लेेकिन अब मेरी आंखो-देखी ....
मुझे यह कभी समझ में नहीं आता कि किसी भी धर्म का पर्व हो...हिंदु-मुस्लिम या कोई भी ...लेकिन उस समय कर्फ्यू जैसा माहौल क्यों दिखने लगता है ...सीरियस से बने चेहरे, पुलिसिया बंदोबस्त, पुलिस के बैरीयर, ट्रैफिक डाईवर्ज़न ... कुछ कुछ तो मैं समझता हूं, कुछ कभी भी समझ में नहीं आया....सभी पर्व-त्योहार तो जश्न मनाने के लिेेए होते हैं...तो फिर इतनी संजीदगी, इतनी एहतियात इस गंगा-यमुनी तहजीब से मेल खाती नहीं दिखती....फिर यह भी लगता है कि हम जैसे लोगों को व्यवस्था करने वाले चलाएं हमें चुपचाप नाक की सीध पर चलते रहना चाहिए....आम पब्लिक क्या जाने कि प्रशासन के लिए क्या क्या चुनौतियां हैं, हम तो बस किसी भी मुद्दे पर अपनी एक्सपर्ट राय देने में माहिर हैं...

एक बात और ...कल रात आठ बजे के करीब एक बाज़ार से निकलने का मौका मिला ..वहां पर शहादत पा चुके बकरों की खाल के ढेर लगे हुए थे...अब चूंकि लोग इस विषय पर मीडिया में भी बोलने की ज़ुर्रत करने लगे हैं कि Eco-friendly id और बाबा रामदेव का हर्बल मु्र्गा ...बहुत से मैसेज आप को भी वाट्सएप पर दिखे होंगे... हर धर्म की अपनी अपनी आस्थाएं हैं..  मैं तो बस यही सोच रहा था कि शहादत से पहले सुबह ये बकरे सुबह कितने चहक रहे होंगे और शाम होते होते इन की चमकदार, बेहद खूबसूरत खालें बाज़ार में बिकती देख कर मैंने मन ही मन सोच लिया है कि आगे से मेरी कोशिश यही रहेगी कि मैं चमड़े की कोई भी चीज़ न खरीदूं...नहीं, कभी नहीं! आज से यही प्रण किया है समझ लीजिए...मैं जब भी किसी चमड़े की चीज को खरीदने के बारे में सोचूंगा तो मैं बाज़ार में कल दिखे दृश्य को कैसे भुला पाऊंगा ...जिसे देख कर मेरे आंसू जैसे जम गये थे!...मुझे शहीदे आजम भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव और गुरूओं-पीर पैबंगरों की शहादतें याद आ रही हैं इस समय।

पता नहीं मुझे इस बाज़ार से गुज़रते हुए एक अजीब सा मातम पसरा दिखाई दे रहा था ..वैसे कहीं कहीं बकरे बिकते भी दिखे कल शाम...वह खबर भी तो आई थी कि कुछ मुस्लिम बंधू आज मंगलवार होने की वजह से कल बकरे की शहादत देंगे ताकि उन हिंदु ब्रादर को भी दावत में शामिल किया जा सके जो मंगलवार को मांस नौश नहीं फरमाते ...


अखबारों की इतनी सारी क्लिपिंग्ज़ देख कर आप सोच रहे होंगे कि मैं तो कहता हूं कि मैं दो अखबारें ही पढ़ता हूं .. उस का जवाब यही है कि पुरानी आदतें कमबख्त जाती नहीं... 

मंगलवार, 13 सितंबर 2016

हमारे ज़माने के 40 साल पुराने रिजल्ट-कार्ड

शीर्षक सूझ नहीं रहा था कि क्या लिखूं...फिर लगा, पता नहीं कोई पढ़ता भी है कि नहीं, बिना वजह ज़्यादा मगज-मारी कैसी?...पढता है तो कोई तो ठीक है, नहीं पढ़ता तो और भी ठीक, मेरे मन की बात मेरे तक ही रहती है, और वैसे भी किसी भी फन की धार पैदा करने के लिए ज़िल्लत भी तो बहुत ज़रूरी है ही ...

अच्छा भला ईद की छुट्टी मना रहा था, विविध भारती का एसएमएस के बहाने फिल्मी गीत सुन रहा था, अखबार पढ़ रहा था...कि अब स्कूली छात्रों को छठी कक्षा से फेल करना वाला कोई नियम बनने वाला है, अभी तक तो सरकार की फ़िराकदिली यह है कि आठवीं तक किसी को फेल किया ही नहीं जाता...और एक खबर दिखी कि अमिताभ ने अपनी नातिन-पोतिन को एक चिट्ठी लिखी है जिस पर सोशल मीडिया पर बड़े तंज कसे जा रहे हैं...अच्छा, मुझे नहीं पता था, मैं तो लिंकन की अपने बेटे के मास्टर को लिखी चिट्ठी और नेहरू की अपनी बेटी को लिखी चिट्ठीयों के बारे में ही जानता हूं..

मुझे भी अचानक याद आ गया अपनी पांचवी-छठी कक्षा के दिन ...और चिट्ठीयों के जरिये अपने रिजल्ट का हमारे घरों में पहुंचना...

मैंने सोचा कि आज से ४०-४२ साल पहले कैसे हम लोगों के स्कूल हमारे घरों तक हमारे रिजल्ट पहुंचाते थे, इस को अपने ब्लॉग पर सहेज लिया जाना चाहिए.. वरना, समय बीतने के साथ कुछ कुछ बातें धुंधली होने लगती हैं...

जी हां, हमारी तिमाही, छःमाही और नौमाही परीक्षाएं हुआ करती थीं, पांचवी कक्षा से लेकर आगे दसवीं-बारहवीं कक्षा तक ... एक बात और यह कि सारा काम उन दिनों विश्वास पर ही चलता था...कोई मां-बाप भी किसी तरह की पैरवी नहीं किया करता था ...बच्चा अगर स्कूल गया है तो मतलब स्कूल ही गया होगा...सभी मां-बाप को यह भरोसा होता था..और ९९ प्रतिशत केसों में इस विश्वास पर कभी आंच भी नहीं आती दिखी ..

इसलिए मुझे अब दुःख होता है जब मैं देखता हूं कि सुबह सुबह ही स्कूल-कालेज में जाकर पढ़ने वाले बच्चे अपनी इस कैरियर बनाने की उम्र में इश्कबाजी में पड़ जाते हैं...जिन पार्कों में लोग सुबह आठ बजे टहलने के बाद लौट रहे होते हैं उन के गेटों के आसपास ये युगल मंडरा रहे होते हैं कि कब ये कमबख्त तोंदू-तोतले से बाहर निकलें और हम लोग अपनी इबादत शुरू करें...कईं बार तो छात्राओं के साथ छात्रों की बजाए उन से बीस साल ज्यादा उम्र के आदमी होते है ं..

वापिस ४० साल पुराने दिनों का रुख करते हैं...कोई पीटीएम नहीं, कोई पीटीए नहीं ...बहुत बार तो सारे स्कूली कैरियर में माता-पिता में से किसी का भी स्कूल में जाना ही नहीं होता था..मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ...पांचवी में जब उस बड़े डीएवी स्कूल में दाखिला होना था, तो पिता जी पड़ोस में रहने वाले साईंस टीचर को एक शाम कह आए कि सुबह प्रवीण को भी दाखिल करवा देना ..सुबह मास्टर साहब, मुझे साथ ही साईकिल पर बिठा कर ले गये....एंट्रेंस हुआ...बहुत बढ़िया और दाखिला हो गया..मैं खुश...सातवें आसमां पर!

अब अगर मां-बाप स्कूल ही नहीं आते थे तो सारा साल जो हमारी परीक्षाएं चलती थीं उन का परीक्षा-फल उन तक कैसे पहुंचता था...इस का इंतज़ाम स्कूल वालों ने पक्का कर रखा था.. तो ऐसा था कि जहां तक मुझे याद है १९७३ की बातें हैं...स्कूल ने कुछ इस तरह के पोस्टकार्ड छपवा रखे थे जैसा कंटैंट मैंने इन पोस्ट-कार्ड पर लिखा है....शायद उस कार्ड पर डाक-टिकट बच्चों को स्वयं अपनी लानी होती थी ...

अब परीक्षा आने के बाद दो चार पढ़ाकू छात्रों (हां, मैं भी उन में से एक तो था ही!) की ड्यूटी लग जाती थी ..इंचार्ज मास्टर वे सारे पोस्टकार्ड हमें दे देते ..हमें इन को लाइब्रेरी पीरियड में या आधी छुट्टी के समय वहां एकांत में बैठ कर भरना होता ...मास्टर जी वह रजिस्टर भी हमें दे देते जहां से हम ने यह अंक उतारने होते ... गलती का कोई स्कोप नहीं, एक पढ़ाकू चैकिंग के लिए और दूसरा काउंटर-चैकिंग के लिए ... इस के बावजूद भी अगर गल्ती हो गई तो हम लोगों की खैर नहीं!

अब इन पोस्टकार्डों पर मास्टर साहब हस्ताक्षर करने के बाद डाकपेटी में डलवा देते ...और तब कक्षा में घोषणा होती कि तुम लोगों का रिजल्ट पोस्टकार्ड डाक से चला गया है और अपने घर से उस पर हस्ताक्षर करवा के ले आना...


और एक दो दिन में वह कार्ड घर पहुंच जाता ...और फिर घर का हर बशर उसे कईं कईं बार देखता कि कहीं तो कुछ उल्टा-सीधा दिखे ...फाईनल कमैंट्स अकसर पिता जी के होते कि यार, साईंस में थोड़े कम लग रहे हैं...हां, पापा जी, पेपर ही इतना मुश्किल था कि सिर्फ १० बच्चे ही पास हुए हैं ...बाकी सब फेल हैं...आगे से और ध्यान करेंगे....बस, बात वहीं खत्म हो जाती, पापा जी के साइन होते ही उस कार्ड को बेयरर चैक से भी ज़्यााद संभाल के किसी कापी-किताब में रख कर बस्ते में बंद कर दिया जाता ...सुबह उसे मास्टर को देकर जान में जान आती ..

अब उस में भी कईं शरारतें हुआ करतीं...जिन छात्रों के नंबर बहुत ही कम होते और किसी तरह से डाकिये से वह कार्ड उन को मिल जाता तो वे उन अंकों को रबड़ से मिटा कर नये अंक लिख लेते .. बापू को इंप्रेस करते ..लेकिन मास्टर से कैसे बचते...मास्टर कार्ड देखते ही ताड़ जाता और फिर क्या हाल होता, दे दना दन दन ... पहले दायां गाल..फिर बायां गाल ..
मास्टर को तो सारे कार्ड वापिस चाहिए ही चाहिए होते थे...यह लीचड़खाना कईं कईं दिन तक चलता रहता पहले पीरियड में ...कोई छात्र कहता कि मास्टर जी, मेरे घर तो पहुंचा ही नहीं कार्ड तो उस के यहां फिर से भिजवा दिया जाता .. बकरे की मां कब तक खैर मनाती!

मुझे याद है कि कभी कभी इन परीक्षा-कार्डों में अक भरने वालों को कक्षा के दूसरे साथियों से रिक्वेस्ट भी आती कि देख लेना यार, उस सब्जैक्ट के अंकों को थोड़ा देख लेना..लेेकिन हमारे मास्टरों का इतना आतंक था कि हम इस तरह की हेराफेरी के बारे में सोच कर ही कांप जाते थे ...मुझे यह लिखते बड़ी हंसी आ रही है ..पुराने दृश्य सारे आंखों के सामने घूम रहे हैं....अभी इस पोस्ट को अपने उन दिनों के साथियों के वाट्सएप ग्रुप पर भी शेयर करूंगा ..फिर देखता हूं वे क्या कहते हैं !

DAV School Amritsar Magazine Arun (Aug.1973) --
One and only picture still with me of those days!
(Last row..middle one is this writer) 
यह जो मैंने ऊपर बातें लिखी हैं ये तो पांचवी-छठी कक्षा की थीं, फिर सातवीं आठवीं कक्षा में कुछ ऐसा हुआ ..जहां तक मुझे याद आ रहा है ..कि स्कूल ने इस तरह के पोस्टकार्ड रिजल्ट वाले प्रिंट करवाने बंद कर दिए... फिर तो हम लोगों का काम और भी बढ़ गया ...यह जो कंटैंट मैंने ऊपर लिखा है यह सारा हमें ५०-६० छात्रों के खाली पोस्टकार्डों पर स्वयं लिखना पड़ता था...खाली पोस्टकार्ड छात्रों को अपना पता लिख कर स्वयं देने होते थे ...

अभी मुझे ध्यान आ रहा कि शायद उस कार्ड में ऐसा भी कुछ लिखना होता था हमें कि छात्र ने कितने दिन स्कूल अटैंड किया और कितने दिन अनुपस्थित रहा .. और अगर किसी विषय में प्रथम, द्वितिय या तृतीय स्थान पाया हो तो वह भी उस पर लिखा जाता ..

हां, इस से याद आया कि लगभग हर साल स्कूल के वार्षिक उत्सव पर मुझे खूब इनाम मिला करते ... पुस्तकों के रूप में .. उन उत्सवों में अकसर मेरी मां अपनी किसी सखी-सहेली के साथ ज़रूर पहुंचती ..मुझे बहुत अच्छा लगता ... उस के बाद चाय-नाश्ते का इंतज़ाम होता और मेरी मां की सहेली सारे मोहल्ले में मेरी होशियारी के चर्चे करते न थका करतीं ....अच्छे थे यार वे भी पुराने सीधे-सादे दिन ...

उन दिनों हमें इस तरह की गाने बहुत अच्छे लगते थे....थे क्या, अभी भी उतने ही अच्छे लगते हैं....दुनिया जितने भी बदल जाए, बच्चे अभी भी उतने ही मन के सच्चे हैं....कोई शक?