बुधवार, 20 जनवरी 2016

परीक्षक भी फर्जी होते हैं..

मुझे अच्छे से याद है कि बचपन में हमें लगता था कि सब से बड़े फ्रॉड वही लोग होते हैं जो लोगों की कमेटियां लेकर कहीं गायब हो जाते हैं ..कमेटियां यानि चिट-फंड चलाने वाले लोग .. फिर थोड़े बड़े हुए तो पता चला कि नटवर लाल ने भी बहुत से कारनामे किए हैं। फिल्मों में तो चोरी, डकैती, धोखाधड़ी देखते ही रहते थे.

अब तो लगने लगा है जैसे कि धुरंधर नटवरलाल हमारे आस पास ही फैले हुए हैं...हर तरह की जालसाजी, फर्जीवाड़ा, धोखाधड़ी नये नये रूप में सुबह आंख खुलते ही अखबार में देखने को मिल जाती है।

मुन्ना भाई एमबीबीएस ने एक रास्ता दिखा दिया हो जैसे देश को कि अगर नकल करने का हुनर है तो बड़ी से बड़ी परीक्षा को क्लियर करना भी बाएं हाथ का खेल है...मध्यप्रदेश के व्यापम् घोटाले ने देश को हिला कर रखा हुआ है...आए दिन उस से संबंधित या उस की बात करने वाले की मौत की खबर देख-सुन लेते हैं...अभी भी निरंतर परीक्षाओं में परीक्षार्थी की जगह किसी दूसरे के द्वारा परीक्षा में बैठे जाने की खबरें आती ही रहती हैं..दो दिन पहले पढ़ा कि रेल के आर पी एफ की एक आई जी की पत्नी के पर्स से ट्रेन के फर्स्ट क्लास ए.सी कोच से एक लाख से ज़्यादा रकम निकल गई...

अब तो बस वह कहावत ही सच होनी रह गई है जिस में कहते हैं कि किसी की आंखों से काजल चुराना...फिर यह भी लगता है कि ये तो लेखक के मन की उड़ान है, अगर काजल में भी चुराने जैसा कुछ होता तो यह भी ज़रूर चुरा ही लिया जाता। वैसे हाल ही की फिल्मों की बात करें तो अनुपम खेर की सुपर २६ ने अच्छे से समझा दिया कि फर्जी सी बी आई या फर्जी इंकम टैक्स की टीम कैसे छापा मारती है!

अच्छा, भूमिका तो ठीक ठाक हो गई िदखे है...अब असली बात कर ली जाए। कल मैंने अखबार उठाया तो देखा कि कोई फर्जी परीक्षक जा कर कहीं पर स्कूली छात्रों का कैमिस्ट्री का प्रेक्टीकल ले आया....मैंने इसे इतनी गंभीरता से लिया नहीं ...सोचा पहले दूसरी खबरें देख ली जाए।

इस फर्जी परीक्षक के बारे में फिर से पढ़ा .... पढ़ते पढ़ते यही लगा कि ऐसे ही कोई मजाक-वाक कर दिया होगा किसी ने .. मसखरा होगा कोई ...वरना कोई ठीक ठाक आदमी क्यों इस तरह के चक्कर में पड़ेगा ...बस, अच्छी मेहमान नवाज़ी के चक्कर में ... आप को भी याद होगा कि जो परीक्षक हमारी भी परीक्षाएं लेने आया करते थे हमारे स्कूल कालेज वाले उन की भी सेवा-सुश्रुषा जमाई राजा की तरह किया करते थे... हमें झल्लाहट हुआ करती थी कि हमें सॉल्ट का पता नहीं चल रहा और इस बंदे का ध्यान बस बर्फी की प्लेट खाली करने पर ही है।

इस मेहमान-नवाजी के लिए बस एक बार स्कूल में हम से हमारे पी टी मास्टर ने सब से पैसे ऐंठे थे .. यही पांच दस बीस ही होंगे .. सच में अभी याद नहीं है...साफ साफ मॉनीटर ने कहा था कि फिजिकल एजेकेशन के प्रैक्टीकल में पूरे अंक मिल जाएंगे, इन पैसों से एक्सटर्नल परीक्षक की सेवा होनी है... पढ़ाई के मैदान में शायद वह पहली और आखिरी सौदीबाजी थी।

अच्छा तो मैं कल की अखबार की बात कर रहा था फर्जी परीक्षक की ... सारा दिन मेरे दिमाग में बात घूमती रही .. यह भी पता चला कि वह तो पहले भी चार पांच स्कूलों में प्रैक्टीकल की परीक्षाएं ले चुका है ...और इस के साथ ही एक दूसरे फर्जी परीक्षक के बारे में भी पढ़ा...मन में बात घूमती रही ... यह भी और एक और भी ...एक तो मैंने आप से शेयर कर दी, दूसरी मैंने केवल अपने सहयोगी (असिस्टेंट) से शेयर की ...उस ने भी खूब ठहाके लगाये...वह बात यहां शेयर नहीं कर सकता... अपने कुलीग्ज़ से भी मैं अकसर जो बातें शेयर नहीं करता, वह मैं अपने असिस्टैंट से कर लिया करता हूं...पूरे भरोसे के साथ।

दोपहर होते होते जब एक दूसरी अखबार हाथ में लगी तो जाकर पता चला कि ये फर्जी परीक्षक बन कर जाना भी केवल कचौड़ी-जलेबी या मक्खन मलाई के लिए ही नहीं होता... यह तो पूरा मामला ही मलाईदार है...जिस स्कूल में ये फर्जी परीक्षक जाते हैं वहां से हर छात्र के लिए १०० रूपये के हिसाब से वसूली करते हैं ताकि उन्हें अच्छे अंक दिला सकें.....अगर किसी स्कूल में २०० छात्र हैं तो हो गई २०००० की वसूली.....अगर प्रैक्टीकल परीक्षाओं के सीजन में आठ-दस स्कूल कवर कर लिए तो हो गया कुछ महीनों के गुजारे का जुगाड़।

थोड़ा यह भी लगता है कि १०-२० हज़ार के लिए इतना बड़ा जोखिम कैसे उठा लेते हैं ये युवक... फिर यह भी लगा कि क्या इस फर्जीवाड़े का सारा दोष बस इन के सिर पर ही मढ़ देने से काम चल जाएगा... नहीं ना, व्यवस्था में कहीं न कहीं तो ढीलापन होगा ही वरना डाकखाने में देखते हैं कि लोगों को अपने ही पैसे पर मासिक ब्याज के १३३० रूपये लेने में पसीने छूट जाते हैं कईं बार कि हस्ताक्षर नहीं मिल रहे, आई.डी लाओ, फोटो कापी लाओ, कोई साक्ष्य लाओ.....ऐसे में यू पी बोर्ड की शिक्षा प्रणाली कब से इतनी ढीली हो गई कि कोई भी जब चाहे जा कर किसी स्कूल में फर्जी परीक्षक बन कर टोपी पहना कर आ जाए।

उम्मीद है कि इन प्रकरणों की पूरी जांच होगी ताकि सच सामने आ जाए...बहुत बार सच सामने आ नहीं पाता.....हां, लीपापोती अच्छी हो जाती है बस।


ये तो हो गई बातें फर्जी परीक्षकों की ... लेकिन आदर्श अध्यापकों की बात भी आज करनी होगी... कुछ दिन पहले कैफ़ी आज़मी साहब की ९७ वीं जन्म जयंती के अवसर पर आल इंडिया कैफ़ी आज़मी एकेडमी द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में शिरकत करने का मौका मिला...शबाना आज़मी भी थीं...अच्छा लगा शबाना को सुनना .. जिसे फिल्मों में देखते देखते ही हम लोग बड़े हुए.. बेहतरीन अदाकारा... शबाना आज़मी ने बताया कि उन की फिल्म चाक एंड डस्टर रिलीज़ होने वाली है.. जो टीचर्ज़ के बारे में है....अखिलेश यादव ने भी जब अपनी बात रखी तो यह भी कहा कि अभी अभी इस फिल्म की यूपी में टैक्स मुआफ़ी की फाइल पर हस्ताक्षर करने के बाद इस कार्यक्रम में आया हूं......हां, एक बात तो बहुत बढ़िया मैं शेयर करना भूल ही गया कि उस प्रोग्राम में अखिलेश यादव और चीफ सैक्रेटरी जैसी शख्शियतों का पुष्प-गुच्छों से नहीं, गमलों में रोपे हुए तुलसी के पौधों से स्वागत किया गया... अच्छा लगा ....बहुत ही अच्छा....काश, हम लोग कम से कम इस एक बात को ही अपना लें।

जी हां, पहले ही दिन चॉक एंड डस्टर फिल्म देखने का अवसर मिला.....मुझे बहुत पसंद आई....मैंने भी अपने स्कूल के टीचर्ज़ को इसी बहाने फिर से याद कर लिया...बेहतरीन फिल्म......आप भी देखिए ज़रूर और बच्चों को भी ज़रूर दिखाइएगा....इस तरह की सार्थक फिल्में वैसे भी आज कल कम ही दिखती हैं...

चलिए, चॉक एंड ड्स्टर फिल्म का एक छोटा सा ट्रेलर ही देख लेते हैं..


शबाना आज़मी का बातें हुई और जावेद अख्तर का नाम नहीं आए, हो नहीं सकता....उन की कही एक बात को यहां शेयर कर रहा हूं... मन को छू गई...

गुरुवार, 14 जनवरी 2016

मधुबन खुशबू देता है ...

बड़े शहरों में जब मैंने पहली बार देखा कि वहां पर मेन रास्तों पर लगी ऊंची ऊंची स्ट्रीट लाइटों की साफ़ सफ़ाई या मुरम्मत के लिए एक ट्रक के ऊपर बड़ी सी सीड़ी लगाई जाती है, मुझे हैरानगी हुई थी...अब तो लखनऊ की मुख्य सड़कों पर भी यह सब दिखता रहता है ..बंबई में अकसर देखा करता कि सड़क किनारे या बीच में डिवाईडर पर लगे पेड़ों की छंटाई भी इस तरह से ही की जाती थी...वहां तो यह सब नियमित चलता ही है क्योंकि डबल-डेकर बसों की मूवमेंट के लिए ऐसा नियमित करना ही पड़ता है...

कटाई-छंटाई तो देख ली, समझ में आ गया लेकिन मैंने कभी इस के बारे में ज़्यादा नहीं सोचा कि इन को नियमित कौन पानी देता होगा!

इस के बारे में मेरी यही बचकानी सोच हमेशा से रही कि हो जाते होंगे, एक बार पौधे रोप दिए जाएं, जानवरों से बचाने के लिए ट्री-गार्ड्स् लगा दिए जाएं तो पौधे अपने आप पल्लवित-पुष्पित हो ही जाते होंगे... बिल्कुल होंगे वाली ही बात थी.. मैं यही सोचा करता था कि जब पानी बरसता है तभी इन की भी प्यास बुझ जाती होगी और ये धुल भी जाते होंगे ...उन दिनों पानी से धुल कर इन के चमकते-दमकते पत्ते मन को बहुत भाते हैं।

अकसर हम देखते हैं कि शहर के कुछ मेन चौराहे या तिराहे आदि होते हैं उन्हें किसी न किसी सरकारी या गैर-सरकारी संगठन ने गोद लिया होता है ... वे वहां पर अपने विज्ञापन लगा देते हैं...और उस जगह पर लगे सभी पेड़-पौधों और बेल-बूटियों का रख-रखाव का पूरा जिम्मा उन पर ही होता है ... बढ़िया सी लाल-हरी रोशनी भी वहां पर लगी होती है...it's fine ... Win-Win situation for both for the local civil authorities and the advertisers!

यह जो रास्तों पर पेड़ लगे होते हैं ..जिन पर किसी बैंक या किसी संस्था आदि के नाम की पट्टी लगी होती है, इन के बारे में बस इतना ही अनुमान जानता हूं कि वह संस्था इन जगहों पर विज्ञापन लगाने के लिए कुछ सरकारी शुल्क तो देती होगी ... क्या पता बस पेड़ ही लगा देती है...मुझे इस के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है...लेकिन कुछ तो शासकीय नियंत्रण होगा अवश्य।




कल शाम के समय मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी को जाने वाली रोड़ पर जा रहा था... बड़ी व्यस्त रोड है यह (कौन सी नहीं है!!) ...अचानक मेरा ध्यान गया इस लारी पर रखी इन बड़ी बड़ी टैंकियों पर .. वैसे तो मैं जल्दी में था, मुझे साईंस फिक्शन की एक वार्ता के लिए जाना था, लेकिन मैं वहां रुक गया... तभी मैंने देखा कि एक आदमी पाइप से सड़क किनारे लगे पौधों को बारी बारी से पानी दे रहा था ...


देख कर बहुत अच्छा लगा .. मैं यह मंज़र पहली बार देख रहा था ... इसलिए आप से शेयर करने का मन हुआ और ये तस्वीरें ले लीं....मुझे यही लगा कि देना बैंक के विज्ञापन इन ट्री-गार्ड्स पर लगे हैं तो यह सब रख-रखाव भी देना बैंक के जिम्मे ही होगा...

बस वह लारी ही नहीं चल रही थी, उस के साथ पाईप से हर पौधे को सींचने वाले वर्कर के साथ साथ तीन लोग और चल रहे थे ...एक तो साईकिल पर चलने वाले उन का कोई सुपरवाईज़र टाइप का बंदा था, दूसरा लाल झँड़ी लिए हुए था, पीछे से आने वाले ट्रैफिक को सावधान करने के लिए और एक तीसरा बंदा जो ड्राइवर से आवाज़ लगा कर संपर्क करता था कि अभी ठहरो और अभी आगे चलो...


अच्छा लगा यह देख कर कि कम से कम हम लोग बंदों की नहीं भी तो पेड़ों की तो परवाह करते हैं अभी भी .. बार बार कहा जाता है जितना पेड़ लगाना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी उन की देखभाल भी करना है.. लालफीताशाही के चक्कर में बहुत कुछ हो ही रहा है फाइलों में और होता भी रहेगा, लेकिन जो लोग निष्काम भाव से दिल से ये काम कर रहे हैं, उन को नमन करता हूं।

अभी मैं इस पोस्ट में ये फोटो लगाने के लिए इन्हें एडिट कर रहा था तो मेरा ध्यान गया कि यह काम सरकारी विभाग नहीं कर रहा, इस कोई गैर-सरकारी संस्था कर रही है... इस का नाम और फोन नंबर आप देख सकते हैं, अगर इन से संपर्क करना चाहें तो कर सकते हैं।


पेड़ों की बातें करना ...उन के बीचों-बीच रहना किसे अच्छा नहीं लगता, मुझे कुछ ज़्यादा ही पसंद है, लेकिन मैं इन के लिए बस कलम चलाने के अलावा कुछ करता नहीं हूं...मुझे बस इन भीमकाय छायादार पेड़ों के नीचे खड़े होकर फोटो खिंचवाना बहुत अच्छा लगता है .. इससे मुझे अपनी औकात और तुच्छता का अहसास रहता है!  लोग इन पेड़ों के प्यार में बहुत कुछ कर रहे हैं जैसे मैंने कुछ अरसा पहले फेसबुक पर भी इस वीडियो को शेयर किया था...


ये तो हो गये बड़े बड़े काम ...लेकिन आस पास अकसर हम देखते हैं कि लोगों को प्रकृति से बहुत प्रेम है...अपने अड़ोसी-पड़ोसियों के बाग बगीचों के बारे में तो लिखता ही रहता हूं ...अच्छे से लैंड-स्केपिंग करवाते हैं, फिर उन में छोटे छोटे फव्वारे और मन-लुभावन हरी-लाल लाइटें लगवाते हैं....शाम के वक्त टहलते हुए यह सब देख कर मन प्रफुल्लित होता है।


मुझे अभी ध्यान आया अपने सामने वाले घर में रहने वाले रिटायर्ड बुज़ुर्ग दंपति का ...ध्यान आया तो मैंने अभी यह तस्वीर ली ... ये दोनों विशेषकर महिला एक एक पौधे को रोज़ाना निहारती हैं, उन की देखभाल करती हैं जैसे उन से बतिया रही हों, मुझे देख कर बहुत अच्छा लगता है......आजकल ये लोग बाहर गये हुए हैं लेकिन इन के यहां काम करने वाली बाई इन पौधों को नियमित पानी देती दिख जाती है .. कहने का मतलब यही कि सब लोग अपनी अपनी साधना में जुटे हुए तो हैं..

हमेशा की तरह मुझे यह सुंदर गीत का ध्यान आ गया, इतना बढ़िया गीत ...बार बार याद आता है ...यसुदास की आवाज़ वजह से तो यह बेहद लोकप्रिय है है,  इस फिल्म की स्टोरी, इन महान कलाकारों ने, इस के संगीत ने....सब ने मिल जुल कर इस गीत को अमर बना दिया है ....अगर इसे सुनते हुए हम आंखें बंद कर लें तो यकीनन मेडीटेशन हो जाए ....मैं इस तरह के फिल्मी गीतों को भी एक भक्ति गीत या भजन से कहीं ज़्यादा ऊपर मानता हूं ... जीवन का उद्देश्य बता दिया हो जैसे गीतकार इंदिवर ने हम सब को ..इस तरह के गीत भी तो वही सभी बातें करते हैं जो हम सत्संग में सुनते हैं...सुनिएगा?....वैसे इस फिल्म साजन बिना सुहागिन की स्टोरी भी बड़ी टचिंग हैं...उद्वेलित करती है...उम्मीद है आपने ज़रूर देखी होगी! नहीं तो अभी देख लीजिए....a masterpiece indeed!

बुधवार, 13 जनवरी 2016

कल्लू मामा को सुनना एक्टिंग ग्रंथ पढ़ने जैसा

जब भी मौका मिलता है मुझे राज्य सभा के यू-ट्यूब चैनल पर गुफ्तगू जैसे कार्यक्रम देखना अच्छा लगता है ... दर्जनों एपिसोड देख चुका हूं।

सुबह की शुरूआत आज भी ऐसा ही एक एपिसोड देख कर की। राज्यसभा के चैनल पर दो दिन पहले सौरभ शुक्ला का इंटरव्यू अपलोड किया गया था। लगभग एक घंटे का एपिसोड था, लेिकन इसे देखते समय का पता ही नहीं चला।

इस गुफ्तगू को यहां एम्बेड किए दे रहा हूं, देखिएगा....इसे देखते हुए मैं यही सोच रहा था कि इन शख्शियतों की बातें सुन कर ऐसे लगता है कि जैसे आदमी एक्टिंग का कोई ग्रंथ पढ़ रहा है...इतनी सादगी और सब से बड़ी बात अपने मन की बात कहने में बरती गई इतनी ईमानदारी।


मैं हमेशा से ही सौरभ शुक्ला का बहुत बड़ा प्रशंसक रहा हूं..कभी भी किसी भी फिल्म में इन्हें देख कर लगा ही नहीं कि यह एक्टिंग कर रहे हैं, उस भूमिका में पूरी तरह ढल जाते हैं...कितनी ही फिल्में हैं जिन का ध्यान इस समय आ रहा है। सत्या में कल्लू मामा को हम कैसे भूल सकते हैं!

अभी पिछले साल ही मैंने एक फिल्म देखी थी ..जोली एल एल बी ....इस फिल्म में सौरभ शुक्ला ने एक जज की भूमिका निभाई थी....बेहतरीन काम किया था... बहुत अच्छा लगा था।



इन फ़नकारों की बात सुनने पर यही पता चलता है कि ये लोग भी जिस मुकाम पर पहुंचे हैं बड़े संघर्ष के बाद ही वहां तक जा पाए हैं...

मैं इन एपिसोड्स को देखना इसलिए पसंद करता हूं क्योंकि इन में ईमानदारी झलकती है...किसी बात पर भी ये लोग लीपापोती नहीं करते .. इसलिए यहां मन लग जाता है।



पता नहीं आज मैंने नोटिस किया और आज राज्यसभी चैनल को लिखूंगा भी कि कईं बार इस तरह के कार्यक्रम कुछ नीरस लगने लगते हैं...कंटैंट की बात नहीं कर रहा हूं..वह तो बेहतरीन है ही ...लेकिन राज्यसभी चैनल को लगता है अब प्रस्तुति के अंदाज़ में थोड़ा परिवर्तन करने की बहुत ज़रूरत है .....वर्तमान और भविष्य यू-ट्यूब का है और आज की पीढ़ी का भी ध्यान रखते हुए .. अन्यू विजुएल एलीमेंट्स ..जैसे कि इन महान फ़नकारों की फिल्मों के कुछ दुश्य अगर इस तरह के प्रोग्रामों में डाल दिए जाएं तो चार चांद लग जाते हैं.......वरना एक घंटे के लिए इस तरह के प्रोग्रामों को झेल पाना मुश्किल हो जाता है ऐसा तो नहीं कहूंगा.....शायद मेरी उम्र के लोग यह कर लेते हैं लेकिन फिर भी बिना किसी विजुएल के ये बोझिल से लगने लगते हैं ...१०-१५ मिनट बाद .....और यह बोझ इसलिए भी ज़्यादा लगने लगता है क्योंकि कोई एड-ब्रेक तो होती नहीं जो कि एक अच्छी बात है ...



कुछ फिल्में ऐसी हैं जो मैं केवल इसलिए देखता हूं क्योंकि उन में सौरभ शुक्ला ने काम किया है या संजय मिश्रा का काम देखने को मिलेगा....कल रात मुझे मसान फिल्म का यू-ट्यूब लिंक का मैसेज मिला... लगभग दो घंटे की फिल्म थी...बेहतरीन फिल्म लगी...सब के लिए कुछ न कुछ संदेश....सार्थक प्रस्तुति...संजय मिश्रा ने भी इस फिल्म में बहुत उमदा काम किया है....देखिएगा अगर कहीं से मिले तो ....वरना तो यू-ट्यूब का प्रिंट भी परफेक्ट है....

मैंने बस ऐसे ही इस फिल्म के बारे में कहीं से सुना था ...यही लखनऊ टाइम्स में या कहीं किसी चैनल पर ...लेकिन अफसोस यही है कि इन फिल्मों की इतनी पब्लिसिटी होती नहीं है ... फिल्म देखने पर अहसास हुआ कि इस तरह की फिल्में हमारे समाज के लिए कितनी ज़रूरी हैं, पुरानी रूढ़ियों पर चोट की गई है, नवयुवक किस तरह से गल्तियों की वजह से ज़िंदगी खराब कर लेते हैं, किस तरह से छोटे छोटे बच्चों का शोषण किया जाता है चंद सिक्कों के लिए...यह वाराणसी शहर की कहानी है...बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है यह कहानी और बहुत से प्रश्न छोड़ जाती है ...इस की कहानी मैं आप से शेयर नहीं करना चाहता क्योंकि इसे आप को स्वयं देखना चाहिए... यह आज की जेनरेशन की भी कहानी है .. something about their strengths and weaknesses!

सारी फिल्म देख ली, लेकिन मुझे मसान का अर्थ नहीं पता था... फिल्म के बाद डिक्शनरी में इस का मतलब देखा तो पता चला इस का शब्दार्थ है ...श्मसान घाट...फिर मुझे याद आया कि पंजाबी में भी कुछ इसी तरह की शब्द कहते तो सुना तो था कईं बार ...मसानां ...जिस का अर्थ तो पता था लेकिन मसान का सही अर्थ तो यह फिल्म देखने के बाद ही जाना .... देखिएगा यह फिल्म अपनी पहली फ़ुर्सत में...

मंगलवार, 12 जनवरी 2016

सुबह सवेरे कुछ टहलने की ही बात कर लें आज..

  इस पोस्ट की शुरूआत कश्मीर की फिज़ाओं के नाम... मुझे अकसर बहुत याद आती है इस ज़न्नत की। 


जब भी मैं किसी शहर में भव्य बाग बगीचे और खुले मैदान देखता हूं तो अचानक मेरा ध्यान बंबई की तरफ चला जाता है कि वहां इस तरह की खुली जगहों की कितनी कमी है..

दो दिन पहले की बात है कि मैं और बेटा रोहतक में थे.. सुबह हम ने सोचा कि ऐसे ही स्कूटर पर घूम कर आते हैं.. हम लोग निकल पड़े... दिल्ली रोड़ पर हम महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी की तरफ़ मुड़ गये... एक पार्क को देखा तो सोचा कि चलो यहीं पर रुक जाते हैं।

                     यह पार्क बहुत ही बढ़िया है ...प्रकृति की गोद में.. किसी तरह का प्रदूषण नहीं और खुशगवार फिज़ाएं...

उस पार्क के गेट के बाहर वायु गुणवत्ता की चेकिंग के लिए यह यंत्र सा लगा था... मुझे नहीं समझ में आया कि इस को यहां लगाने का क्या उद्देश्य है..लेकिन अब मैंने छोटी-बड़ी बहुत सी बातों का load लेना बंद कर दिया है.. होगा, यार, कुछ कारण होगा...अब, हर बात को जानने की क्या पड़ी है!

पार्क में आप देख सकते हैं कितने बढ़िया रास्ते बने हुए हैं.. लेिकन जो बात मुझे बहुत खली उस दिन ...रविवार का दिन सुबह ८.३० के करीब का समय .. गुलाबी धूप निकली हुई थी...लेकिन इस पार्क में इतना सन्नाटा देख कर मन दुःखी हुआ। सरकारें कितने लाखों-करोड़ों रूपये इन जगहों के रख-रखाव पर खर्च कर देती हैं...लेिकन जनता इन का शायद उतना लाभ उठा नहीं पाती....

जैसा कि मैंने ऊपर लिखा कि जिस शहर में इन सब स्थानों की कमी रहती है, वहां के लोग इन का महत्व समझ सकते हैं। मुझे ध्यान में आ रहा है कि बंबई प्रवास के दौरान उन दस सालों में अगर सुबह भ्रमण का विचार भी आता था तो बंबई सेंट्रल से पहले चर्नी रोड़ पर हम चार पांच लोग चले जाया करते थे लोकल ट्रेन से ..फिर चौपाटी से नरीमन प्वाईंट तक पैदल टहलते पहुंचते थे.. वहां से चर्चगेट स्टेशन से लोकल ट्रेन पकड़ कर बंबई सेंट्रल स्टेशन लौट आते थे...स्टेशन पर ही घर था। मैं कहना चाह रहा हूं कि इस तरह से टहलने जाना एक बोझिल काम लगता था बहुत बार..


और बहुत बार बंबई सेंट्रल से स्कूटर पर या लोकल गाड़ी में पास ही महालक्ष्मी रेसकोर्स चले जाया करते थे.. वह भी बड़ा सुखद अनुभव था... कुछ फिल्म स्टार जैसे कि बिंदु, नादिरा, सतीश शाह तो रोज़ाना वहां टहलने आया करते थे.. बंबई में टहलने के लिए वह अच्छी जगह है.. एक जॉगर्स पार्क भी है..लेकिन वह खासा दूर होने की वजह से कुछ महीनों में ही वहां का टूर लग पाता था.. बात मैं बस यही कहना चाह रहा हूं कि बंबई जैसे महानगरों के रहने वाले इन जगहों की कद्र जानते हैं...

शायद हम इन जगहों की कद्र नहीं करते .. वरना इतनी खुशगवार रविवार की गुलाबी धूप में इतना सन्नाटा क्यों!..दरअसल मुझे नहीं पता कि लोग उस दिन पहले ही टहल कर लौट गये हों...कुछ कह नहीं सकता, लेकिन ऐसा लगा नहीं...मैं भी जब इस पार्क के बाहर लगा बोर्ड देख रहा था तो मुझे पता चला कि इसे शुरू हुए १६ साल हो गये हैं और इस दौरान मैं भी तो बीसियों बार रोहतक हो कर आ चुका हूं ....लेिकन अकसर कहां हम इन जगहों की परवाह करते हैं! याद आ रहा कुछ महीने पहले भी इस पार्क के आगे से गुज़र रहा था तो बस बाहर खुदे हुए सुंदर दोहे पढ़ के ही मैंने अपने आप को धन्य महसूस कर लिया था....पार्क में घुसने तक की ज़हमत नही थी उठाई।

                               यह जो आप रास्ता देख रहे हैं यह हैल्थ ट्रैक है जो पार्क की बाउंडरी के बाहर बना हुआ है..










                             
                                       यह दोहे उस पार्क के बाहर दिख गये... थोड़े थोड़े समय में आए ...थोड़े थोड़े नहीं।











आप शायद सोच रहे होंगे कि बाग में इतना सन्नाटा कि लोग दिख ही नहीं रहे.......ऐसी बात नहीं है, आठ दस लोग दिखे तो थे... जिन पार्कों में एंट्री करने के लिए टिकट लेनी पड़ती है, वहां पर लोग जाते हैं... लेकिन इतने बेहतरीन पार्कों की लोग परवाह नहीं करते... मुझे कईं बार लगता है कि हम लोग बस सरकारों की आलोचना ही करने में रूचि रखते हैं....लेिकन इस चक्कर में बहुत बार अच्छी सुविधाओं का लाभ ही नहीं उठा पाते।

वैसे भी मैंने नोटिस किया है कि पंजाब हरियाणा में लोगों की टहलने वहलने में ज़्यादा रूचि है नहीं... यह बिल्कुल मेरी व्यक्तिगत राय है .. शायद बिल्कुल सुपरफिशियल सी ... लेकिन मैंने ऐसा ही महसूस किया....लखनऊ में देखता हूं लोगों की टहलने में अच्छी रूचि है...सुबह सुबह पार्क टहलने वालों से शोभायामान हो रहे होते हैं......यहां लखनऊ में पार्क हैं भी बहुत से .. और इन का रख-रखाव भी बढ़िया है

......कुछ पार्क तो हैं जिन में आप सुबह आठ नौ बजे तक ही हो कर आ सकते हैं ...उन के बाद ये स्कूल-कालेज के छात्र-छात्राओं के मीटिंग प्वाईंट बन जाते हैं.. जी हां, स्कूली बच्चों को भी स्कूल के समय इन से बाहर आते देखा है.. दुःख तो होता है लेकिन किसे कहें ! बस, इस के बारे में आगे क्या लिखूं, समझदार को ईशारा ही काफ़ी है!


हां, लिखते लिखते एक बात का ध्यान आ गया.....उस दिन मुझे ध्यान आ रहा था कि हम लोग सुबह न टहलने जाना पड़े इस के लिए जितने बहाने हम इजाद कर सकते हैं, कर लेते हैं.....और ये कभी खत्म नहीं होते ... लेकिन जब मैं इन बहाने के बारे में सोच रहा था तो मेरे बेटे ने व्हाट्सएप पर मुझे एक मैसेज भेजा था, जिसे मैं यहां शेयर कर रहा हूं कि जो दिव्यांग जन हैं, वे बहाने नहीं करते .....ईश्वर ने हमें अच्छी भली टांगे, पैर दिये हैं...लेिकन फिर भी .....

उस दिन टहलने के बाद शायद हमें लगा होगा कि हम ने बहुत महान काम कर लिया है ...इसलिए हम लोग वहीं से रोहतक की आलू-पूरी की मशहूर दुकान की तरफ़ निकल गए....तभी समझ में आया कि पार्कों में इतना सन्नाटा क्यों था, शायद उस समय जिन लोगों को पार्कों में होना चाहिए था, वे सभी आलू-पूरी-लस्सी का जश्न मनाते दिखे......सेहत हमारी, निर्णय भी ज़ाहिर है हमारे ही होंगे ...जैसे आज मेरे एक मरीज़ को जब मैंने कहा कि भाई, अब तो यह पान छोड़ दो..तो उस ने भी भरपूर बेतकल्लुफ़ी से ठहाका लगा कर  यह कहते हुए मेरा मुंह बंद कर दिया ...डाक्टर साहब, अब तो यह आदत मेरे साथ ही जायेगी। मैं भी चुप हो गया, उस का फैसला पक्का था, आगे कहना को बचा ही क्या था!

ऐ शहरे लखनऊ तुझ को मेरा सलाम है..

आज आप को एक महान शख्शियत से मिलाते हैं...जमील अहमद साहब..यह गजब के टेलर मास्टर हैं...तीन साल से मैं इन के पास जा रहा हूं..मेरे मित्र तिवारी जी ने मुझे इन का पता बताया था..बड़े खुशमिजाज हैं...और मैंने यह देखा है जो भी शख्स अपने काम के बखूबी जानता है वह अधिकतर खुशमिजाज ही होता है...मैंने कभी इन्हें किसी से उलझते नहीं देखा...लगभग हर महीने किसी न किसी काम की वजह से इन से मुलाकात हो ही जाती है।

कल रात मैं इन के पास अपना कुर्ता-पायजामा लेने गया तो यह फुर्सत में दिखे थोड़ा...कहने लगे बच्चों को शाम में ही फ़ारिग कर देता हूं.. तफरीह भी करनी चाहिए इस उम्र में ...सारी उम्र काम ही करना है। 

जमील साहब के पास सब्र-शुकराने का बहुत बड़ा खजाना है...पता चल जाता है.. किसी से कोई शिकायत नहीं...बस अपने काम को ईबादत की तरह करने का फन है इनमें। मैं इन के काम से बहुत मुतासिर हूं।

चूंकि यह थोड़ा फुर्सत में दिखे मैंने इन से ऐसे ही पूछ लिया कि क्या आप ने यह काम अपने अब्बा हुज़ूर से सीखा है तो इन्होंने कहा ..बिल्कुल, उन्हीं के पास बचपन से ही लगे रहते थे...मैं ही नहीं, हम पांच भाई सभी यह काम करते हैं..

अब्बा हुज़ूर का नाम लेते ही उन की बहुत सी खुशगवार यादें ताज़ा हो आईं... मैं यह महसूस कर रहा था कि वे अपने काम के कितने बड़े खिलाड़ी होंगे। 

मेरे महबूब फिल्म ..मेरे महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की कसम
नौशाद जी महान संगीतकार से कौन वाकिफ़ नहीं है?.. उन्होंने बताया कि नौशाद साहब बाराबंकी में रहते थे पहले और देवा शरीफ़ में कव्वाली गाया करते थे..फिर बंबई चले गये, वहां संघर्ष किया खूब और एक बार काम मिलना शुरू हुआ तो बस हर तरफ़ नौशाद-नौशाद होना शुरू हो गया। लेकिन नौशाद साहब की शेरवानी हमेशा जमील साहब के वालिद के हाथों से ही तैयार हुआ करती थी। 


साठ के दशक में जमील साहब के वालिद लखनऊ की जिस टेलरिंग शाप में काम किया करते थे उस दुकान का नाम है ..हाफिज़ मोहम्मद इशाक और इन के वालिद का नाम था... अब्दुल वहाब.. इन की कोई तस्वीर नहीं है, पहले कहां लोग तस्वीरें खिंचवाया करते थे..अब तो हम लोग शेल्फी लेने के चक्कर में लम्हों की जी ही नहीं पाते, बस उन्हें कैमरे में कैद करने की फ़िराक में रहते हैं। 

अपने अब्बा हुज़ूर की बातें करते समय जमील अहमद भावुक हो गये और उन्होंने बताया कि पहले ये सब शेरवानियां हाथ से तैयार हुआ करती थीं और एक कारीगर चार दिन एक शेरवानी पर काम किया करता था... फिर हम लोग आज के शादी ब्याह में पहनी जानी वाली शेरवानी की बात करने लगे। 

जमील साहब ने एक बात और बताई कि मेरे महबूब, मेरे हुज़ूर और पालकी जैसी फिल्मों में राजेन्द्र कुमार और अन्य फ़नकारों ने जो शेरवानियां पहनी हैं, वे सब उन के अब्बा हुज़ूर के हाथों की तैयार की गई हैं....मैं जब उन की बात सुन रहा था तो यही सोच रहा था कि किसी बेटे के लिए अपने पिता के फ़न का  तारुफ़ करवाने का इस से बढ़िया भी क्या कोई ढंग हो सकता है..ये सब फिल्में तो अमर हो चुकी हैं...यू-ट्यूब पर भी हैं...कहने लगे कि जब भी इन फिल्मों को देखते हैं, वालिद बहुत याद आते हैं।


इन तीन फिल्मों का जमील साहब ने खास नाम लिया... मैंने नेट पर देखा कि ये सब फिल्में १९६३ से १९६८ के दरमियान बनी हैं.. ये तो बहुत ही छोटे से उस दौर में ...बता रहे थे कि वालिद हमें सब बातें सुनाया करते थे ..पालकी फिल्म की आधी शूटिंग तो लखनऊ के पास काकोरी में ही हुई थी ... नौशाद साहब जैसे लोग रात के समय टेलर मास्टर के पास जाया करते थे... बड़े बड़े होटलों में रुकते थे ये सब फ़नकार लोग और अपनी गाड़ी से रात के वक्त जाकर शेरवानी का ट्रायल और फिटिंग आदि करवा आया करते थे.....





महान लोग... महान फ़नकार... शेरवानी बनाने वाले भी और पहनने वाले भी .. इन के फन का जादू आज के यू-ट्यूब के दौर में भी सिर चढ़ कर बोल रहा है.. मुझे यह गीत दिख गया पालकी फिल्म का ... ऐ शहरे लखनऊ तुझ को मेरा सलाम है...आप भी सुनिए और नौशाद साहब के फ़न का नमूना भी स्वयं देख लीजिए.. 


आज की यह पोस्ट जमील साहब के अब्बा हुज़ूर के फन और उन की याद को समर्पित ...हम बड़े बड़े लोगों की बरसीयां मनाने की कोरी रस्म अदायगीयां करना कभी नहीं भूलते लेकिन इन गुमनाम फ़नकारों के फ़न को भी कभी कभी याद कर लेने का बहाना ढूंढ लिया करें तो अच्छा होगा, इसी बहाने हम अपनी उमदा विरासत से ही रु-ब-रू होते रहेंगे और अगली पीढ़ी को भी इस का अहसास करवाते रहेंगे...