मंगलवार, 3 मार्च 2015

सुबह अखबार न देखना भी सेहतमंद रहने का एक जुगाड़

कल रात से ही मेरा थोड़ा थोड़ा सिर दुःख रहा था..होता है जब कभी खा-पीकर बस लेटा ही रहता हूं तो यह होता ही है...वैसे भी पिछले दो दिन से मौसम बरसात और ठंडी हवाओं का था और ऊनी कपड़े पहने नहीं थे, इसलिए भी थोड़ा सिर भारी सा ही था।

मैं सुबह उठा तो ...ऐसे ही लेटा हुआ था तो मुझे बॉलकनी में अखबार के आने आवाज़ सुनाई दी।

लेकिन मैं हर रोज़ की तरह आज अखबार उठाने को लपका नहीं....इच्छा ही नहीं हुई....कहीं न कहीं मन में ऐसा ध्यान था कि यह जो सिर थोड़ा थोड़ा सा भारी हो रहा है, अगर अखबार के पन्ने उलटने-पलटने के चक्कर में पड़ गया तो यह फिर से फटने लगेगा। यही सोच कर चुपचाप बैठा रहा।

दोस्तों, आज से बीस वर्ष पहले मैंने बंबई में रहते हुए सिद्ध समाधि योग के कुछ प्रोग्राम किए थे...बहुत अच्छे लगे थे....अच्छे से सिखाया था...ये प्रोग्राम गुरू जी रिशी प्रभाकर जी द्वारा शुरू किए गये थे....हां, तो दोस्तो वहां पर हमें इस बात के लिए विशेष प्रेरणा दी जाती थी कि अखबार मत देखा करो...सुबह सुबह अखबार देखते ही सारी निगेटिविटी हम लोग अपने मन में ठूंस लेते हैं।

जैसा कि अकसर होता है कि हम लोग सुन सब की लेते हैं और करते मन की हैं, मैंने भी कुछ दिन --बिल्कुल थोड़े ही दिन--- गुरू जी की यह बात मानी और बाद में वहीं सुबह एक दो घंटे अखबारों के साथ बिताने शुरू कर दिए।

सोचने वाली बात तो है कि आज की अखबार में ऐसा है क्या कि हम लोग सुबह सुबह उन के लिए इतने तड़फने लगते हैं।

यू.पी कि कानून व्यवस्था से तो सब वाकिफ ही हैं, लखनऊ के अलावा यू.पी के किसी शहर में नहीं रहा, और यहां इतना क्राइम है कि सुबह सवेरे अखबार देखने पर ही सिर भारी होने लगता है...कईं बार तो रोने की इच्छा ही नहीं, रो ही पड़ते हैं। हमारे साथी अकसर कहते हैं कि आप लोग यूपी के अन्य शहरों में नहीं रहे हैं न, इसलिए आप को पता नहीं है कि यूपी के अन्य शहरों में क्या चल रहा है। वे कहते हैं कि हमें तो लखनऊ में इतना सुरक्षित महसूस होता है।

हम अकसर सोचते हैं कि क्या सुरक्षा की परिभाषा यही है ..हर रोज नित नये हथकंडे अपना कर मार-काट, देसी कट्टों को खुला इस्तेमाल, एटीएम की लूट, गार्डों की हत्या.....बलात्कार की ऐसी ऐसी वहशी घटनाएं....वैसे तो आप को लगता होगा कि यह अब देश के लगभग हर शहरों में होने लगा है, फिर भी यहां तो जुर्म बहुत ज़्यादा है, ऐसा लगता है कि लोगों में कानून का भय नहीं है।

हां तो दोस्तो इस तरह की खबरें रोज़ रोज़ सुबह सवेरे पढ़ने से क्या हमारा दिन अच्छा बीत सकता है...नहीं ना, तो फिर सुबह का समय हमें अपने लिए ...अपने चैन-सुकून के लिए रखना चाहिए। कितना अच्छा हो अगर सुबह हम लोग टहल लिया करें, और अपनी अपनी आस्था अनुसार ईश्वर से प्रार्थना-याचना-अरदास कर लिया करें...अखबार पढ़ने से कहीं अच्छा है कि हम चाहें तो रेडियो ही सुन लिया करें....रेडियो में भी मुझे लगता है कि सुबह सुबह तो अपना आकाशवाणी विविध भारती ही सुनना ठीक है, प्राईवेट एफएम चैनल भी सुबह सुबह जो कुछ अकसर परोसने लगते हैं वह सुकून देने वाला नहीं होता।

दोस्तो, मैं बीस सालों में अपने मन को इतना ही तैयार कर पाया कि सुबह सवेरे अखबार देखना सेहत के लिए बिल्कुल भी ठीक नहीं है, लेकिन मैं इसे दोपहर या शाम को देखना तो अभी बंद नहीं कर पाऊंगा....शायद यह अकल भी कुछ बरसों बाद आ जाए...लेकिन अभी तो नहीं!

दोस्तो, ठीक है अखबार में कुछ प्रेरणात्मक प्रसंग भी आते हैं...कुछ विकास से संबंधित मुद्दे भी छपते हैं ...लेकिन वे सब उस में ही रहेंगे ...दोपहर-शाम तक इंतज़ार कर सकते हैं ....किसी को भी एक विचार आ सकता है कि सुबह सवेरे हम लोग वही प्रेरणात्मक बातें ही पढ़ लें तो ...लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि यह संभव हो नहीं पाएगा, जिस तरह से निगेटिव खबरों की सुर्खियां सारी अखबार में बिछी पड़ी रहती हैं, ऐसे में बिना इन तरह की खबरों के कांटों में उलझे उन अच्छे लेखों पर पहुंचना खासा दुर्गम काम है। ऐसा मुझे लगता है, हो सकता है यह मेरी व्यक्तिगत समस्या हो।

तो दोस्तो, मैंने तो आज से अपने आप से ही यह प्रण किया है कि सुबह सवेरे अपने मन में कचरा और निगेटिविटि ठूंसनी बंद कर देनी है। कुछ कुछ खबरें, तस्वीरें बहुत ज़्यादा विचलित कर देती हैं.....दोस्तो, हम सब लोगों का मन ही ऐसा है कि अगर सुबह छः बजे मोबाईल की घंटी बजती है तो सब से पहला ध्यान यही जाता है कि सब ठीक तो है ना, कहीं कोई अनहोनी तो नहीं हो गई!!....फोन चाहे कोई आम हो हो, लेकिन हम लोग दस-पंद्रह मिनट के लिए सामान्य नहीं हो पाते, होता है ना ऐसे ही?...ऐसे में क्यों सुबह सुबह अखबारों में छपी सारी वारदातें मन में बसा ली जाएं!!.... आखिर ऐसी भी क्या मजबूरी है!!

लेकिन दोस्तो काम की बात तो आप से शेयर नहीं की.... मैंने बताया ना कि सुबह सिर भारी था, अजीब सा लग रहा था, जानबूझ कर मैंने अखबार देखना तो दूर, बॉलकनी से उठाई तक नहीं......और हम लोग सुबह एक घंटे के लिए सत्संग करने के लिए चले गये.........वहां पहुंचते ही ऐसा खुशनुमा माहौल मिला कि पता ही नहीं सिर का भारीपन कहां गया, नहीं तो सारा दिन यह भारीपन पीछे पड़ा रहता, एक नया उत्साह...नईं स्फूर्ति का संचार हो गया।

बस दोस्तो यह आशीर्वाद दीजिए कि सुबह सुबह अखबार को छूने वाली अपनी बात पर टिका रह सकूं।

देखिए, मुझे यहां टिकाने के लिए पोस्ट के कंटेंट से मेल खाता एक सुदंर गीत भी मिल गया....सांचा तेरा नाम, तेरा नाम...तू ही बनाए बिगड़े काम....



रविवार, 1 मार्च 2015

क्या आपने भगत पूरन सिंह का नाम सुना है?

भगत पूरन सिंह जी ....कोटि कोटि नमन 
कोई बात नहीं, अगर नहीं भी सुना, तो इन के बारे में अभी बात कर लेते हैं...वैसे तो अगर आप स्वयं भी भगत पूरन सिंह लिख कर गूगल करेंगे तो इस महान् शख्शियत के बारे में सब कुछ जान सकते हैं...और अगर पिंगलवाड़ा अमृतसर लिख कर गूगल सर्च करेंगे तो भी सब कुछ आप आसानी से जान जाएंगे।

दोस्तो, हम लोगों ने बचपन से इस महान शख्शियत के बारे में सुना और इन के महान कामों को देखा।

आज अचानक इन का ध्यान आ गया क्योंकि दो दिन पहले मेरे एक मित्र नवराज ने फेसबुक पर इन के बारे में लिखा ...नवराज गांव राजासांसी (अमृतसर हवाई अड्डे का नाम राजासांसी एयरपोर्ट है....उस के साथ लगते गांव को राजासांसी कहते हैं)...का रहने वाला है...वह याद कर रहा था कि जब वह चौथी या पांचवी कक्षा में था तो एक दिन जब वह हाकी उठा कर सड़क पर मस्ती से चला जा रहा था तो उस की निगाह एक बुज़ुर्ग पर पड़ी जो सड़क से पत्थर उठा कर अपने रिक्शे में भरता जा रहा था... नवराज कहता है कि वह उस से बहुत प्रभावित हुआ..उसे फिर पता चला कि यह तो भगत पूरन सिंह है ... और वह इस तरह के राह पर गिरे पत्थर उठा रहा था ताकि कोई राहगीर चोटिल न हो जाए..

दोस्तो, मेरा भी इस शख्स से तारूफ़ १९७० के आस पास के दिनों का है.....मुझे बहुत अच्छे से याद है कि हर महीने हमारे घर लोहे की छोटी सी काली ट्रंकी रूपी दान-पात्र उठाए एक शख्स आया करता था और उस ट्रंकी पर लिखा होता था...दानपात्र...पिंगलवाड़ा, अमृतसर......और मेरे पिता जी उसे हर महीने बड़े सत्कार से दो रूपये देते और वह उसी समय रसीद काट कर दे जाता। मैंने यह रूटीन बरसों तक देखा....कईं बार जब वह शख्स किसी महीने नहीं आता तो मेरे पिता जी उसे अगले महीने दोगुनी रकम दे देते।


वह शख्स हमारी कॉलोनी में बहुत से घरों में जाया करता था... वह पिंगलवाड़े के लिए दान इक्ट्ठा किया करता था। उस की सभी बहुत ईज्जत किया करते थे।

लेकिन दोस्तो मेरे को यह बिल्कुल भी ध्यान नहीं है कि वह आने वाला शख्स स्वयं भगत पूरन सिंह ही था या उस के पिंगलवाडे का कोई सेवादार था....मुझे बड़ा अफसोस है कि मुझे याद नहीं है, लेिकन मैं जब भी भगत जी की फोटो देखता हूं तो उसी शख्स की तस्वीर मेरी आंखों के आगे घूम जाती है।

हां, तो बात आगे भी तो बढाऊं........हां, तो दोस्तो मैं नवराज की फेसबुक पोस्ट की बात कर रहा था...उसने उसमें लिखा था कि उसने एक पंजाबी फिल्म देखी है ...एह जन्म तुम्हारे लेखे...जो कि भगत पूरन सिंह के जीवन पर आधारित है। मैंने भी ट्रेलर तो उसी समय देख लिया और आज वह फिल्म भी देख ली... बहुत अच्छा लगा...मेरी मां भी भगत पूरऩ सिंह की बहुत बड़ी प्रशंसक हैं......अकसर उन का साहित्य पढ़ती रहती हैं...उन्होंने भी देखी है आज यह फिल्म। इस संत ने सामाजिक विषयों एवं नशेबंदी पर बहुत सुंदर लिखा है....अगली बार जब आप स्वर्ण मंदिर जाएं तो किसी से पूछ लेना भगत पूरन सिंह जी कि किताबें किस स्टाल पर मिलेंगी.....सारा साहित्य मुफ्त बांटा जाता है।

अच्छा आप भी ट्रेलर तो देखिए.... फिल्म भी देखने का जुगाड़ ज़रूर कर लेना....यकीन मानिए पवन मल्होत्रा ने भगत पूरन सिंह के रोल के साथ पूरा न्याय किया है!



दोस्तो, इस महान शख्स ने जितनी सेवा की है ...उसे शब्दों में ब्यां कर पाना मुश्किल है...घर घर जा कर भिक्षा लाना, पिंगलवाडे के लिए...जहां पर लूले, लंगड़े, अपाहिज, टीबी, कुष्ठ रोगी, मानसिक तौर पर अस्वस्थ रोगी...बेघर, बेबस महिलाएं....जो भी बिना आसरे के होता, उसे वहां पक्की पनाह मिल जाती ...अभी भी पिंगलवाड़ा चल रहा है।

दोस्तो, इस महान् शख्स के बारे में ज़रूर जानिए....फिल्म भी ज़रूर देखिएगा.... पंजाबी में है तो भी फिक्र नॉट, आप देखिएगा, आप को समझ आ जाएगी..........इंसानियत की भी क्या कोई भाषा होती है!

मुझे याद है मैं १९८७ में एक बार इस पिंगलवाड़े में गया था...एक साथी को वहां रहने वाले अपाहिज बच्चों पर कुछ स्टडी करनी थी...लेकिन अपने काम के प्रति उस में बिल्कुल संजीदगी नहीं थी....अफसोस!

Wikipedia Link... Bhagat Puran Singh ji
Wikipedia Link... Pingalwada, Amritsar