रविवार, 15 जनवरी 2023

बदल गई अब वो नसीहत...."थोड़ी थोड़ी पिया करो"


बाज़ारवाद बहुत ताकतवर है....हमारे तसव्वुर से भी कहीं ज़्यादा ...इसलिए भी होठों पर चु्प्पी का ताला लोगों को लगाना पड़ता है ... हां, यह जो दारू के बारे में नसीहत बदलने वाली बात है यह मीडिया में ज़्यादा दिखाई नहीं देगी...लेकिन फिर भी जो चोटी के मीडिया हाउस हैं वे अपनी परंपरा पर खरे उतरते हुए पब्लिक को इशारा तो कर ही  देते हैं...और कुछ वाट्सएप पर इस तरह के स्टेट्स डाल कर अपना फ़र्ज़ निभा देते हैं...

कुछ दिन पहले हमारे एक सीनियर डाक्टर हैं उन्होंने लेंसेट मैगजीन के हवाले से यह बात लिखी थी वाट्सएप पर कि अल्कोहल की कोई भी मात्रा सुरक्षित नहीं है ....हर मात्रा में दारू तबाही मचाने में सक्षम है। अभी कुछ बरसों पहले की बात है यह है कि कहा जाता था कि जो लोग थोड़ी थोड़ी पी लेते हैं, वे तनाव से दूर रहते हैं, मस्त रहते हैं, दिल की बीमारियों की चपेट में आने से थोड़ा बच जाते हैं....यही कह कर लोगों ने अपने दिल को समझा के रखा ....यह थोड़ी थोड़ी कब बहुत ज़्यादा होने लगी किसी को पता ही न चला...और जब आसपास के लोगों ने रोकना चाहा तो वही दलील दी जाती कि यह तो डाक्टर लोग भी कहते हैं कि थोड़ी बहुत तो लेते रहना चाहिए...

खैर, अभी कुछ अरसा पहले यह चर्चा होने लगी ...जनमानस में नहीं, बल्कि चिकित्सकों ने यह सलाह देनी शुरु कर दी कि थोड़ी बहुत दारू जो रोज़ लेने की बात है यह उन लोगों के लिए जो रोज़ाना पीते हैं और बहुत पीते हैं, टल्ली हो जाते हैं...वे अगर बिल्कुल थोड़ी मात्रा में लेने लगेंगे तो तनाव-वाव से दूर रहेंगे और हार्ट-वार्ट की तकलीफ़ों से दूर रहेंगे ..मुझे लगता है कि डाक्टरों की इस दलील ने लोगों को अगर दारू पीने के लिए उकसाया न भी हो तो भी उस से होने वाली बीमारियों का डर तो कुछ खत्म कर ही दिया....

खैर, यह वाली सलाह इस तरह से दी जाती थी कि अगर कोई दारू नहीं पीता है तो उसे थोड़ी दारू पीने के लिए नहीं कहना है ...यह बहुत ज़रुरी बात थी ...लेकिन इतनी सी बात भी सुनता कौन है...जिस तरह से दारू को पिछले कुछ सालों से समाज ने स्वीकार किया है, पिछले दस-बीस सालों में यह भी हम सब देख ही रहे हैं....वैसे लिखने वाली बात है नहीं, मेरा काम कोई मोरल-पुलिसिंग का न है, न मैं करना चाहता हूं ...आदमी क्या और औरत क्या, लेकिन अकसर बंबई में इंगलिश दारू की दुकानों के बाहर दारू खरीदने वाली की भीड़ में महिलाओं एवं युवतियों को देखता हूं ....और आते जाते रेस्टरां के बाहर अपने दोस्तों के साथ युवतियों को सिगरेट के छल्ले उड़ाते देखना भी एक आम बात लगती है ...

जैसा मैंने ऊपर लिखा कि मार्केट शक्तियां बड़ी पावरफुल हैं....अपने रास्ते में आने वाले किसी को भी कब हटा दें, किसी को पता भी न चले, एक बात ...और किस तरह से विज्ञापनों का सहारा लेकर दारू, सिगरेट जैसी चीज़ों को कहां से कहां पहुंचा दें ...कोई कल्पना चाहे न भी कर पाए, लेकिन देख तो हम सब रहे ही हैं...

हां, अब मुद्दे पर आते हैं...लेंसेट एक बहुत ही सम्मानीय एवं प्रतिष्ठित मैगज़ीन है....मैंने इसे १९८६ में पहली बार देखा था...हमारे कालेज की लाइब्रेरी में आता था ...जिन प्रोफैसर साहब के पास मैं एमडीएस कर रहा था वह इसे पढ़ने के बहुत शौकीन थे, दोपहर में खाने के बाद अकसर उन्हें इसे पढ़ता देखते थे हम ...और मैं भी लाईब्रेरी में ऐसे ही कभी कभी इस के पन्ने उलट-पलट लेता था...बिल्कुल पतला कागज़ और बिलकुल पतली सी मैगज़ीन ..छपाई अति उत्तम...और कंटेंट अति विश्वसनीय..

हां, उस दिन हमारे एक वरिष्ठ साथी ने हमारे ग्रुप में यह बात शेयर की कि दारू की कोई भी मात्रा सेफ नहीं है....तो पढ़ कर यही लगा कि बड़ी ज़रूरी बात है ...इस के बारे में मुझे भी लिखना चाहिए ...यह कुछ दिन पहले की बात है ...मसरूफ़ रहने से बात आई गई हो गई ....

Health and Cancer risks associated with low levels of alcohol consumption  (इस पूरे लेख को आप यहां पढ़ सकते हैं..) 

लेकिन दो दिन पहले जब टाइम्स ऑफ इंडिया देख रहा था ..सच में अब देखने की ही नौबत आ गई है....रोज़ सोचता हूं फलां फलां लेख तो ज़रूर शाम को पढूंगा ...लेकिन शाम को इतना थक-टूट जाते हैं कि अखबार देखने की इच्छा ही नहीं होती...सुबह वक्त नहीं होता ..खैर, उस दिन भी यही खबर दिखी कि विश्व स्वास्थय संगठन ने भी यही कहा है कि दारू की थोड़ी से थोड़ी मात्रा भी सेहत के लिए हानिकारक है, कईं तरह के कैंसर के जोखिम को बढ़ाती है ...लीजिए आप भी पढ़िए...

टाइम्स ऑफ इंडिया, मुंबई .१२ जनवरी २३


मेरी नज़र में हिंदोस्तान के सब से बेहतरीन अखबार को बाज़ारवाद के उमड़ते बवंडर में भी इस तरह की खबर को जगह देने के लिए शुक्रिया...👍🙏

यह खबर पढ़ने के बाद फिर एक बार लगा कि इस तरह की जानकारी तो हिंदी में भी मुहैया करवानी चाहिए अपने ब्लॉग के ज़रिए मुझे ...चाहे है वो भी एक खुशफ़हमी कि पता नहीं ब्लॉग में जनमानस की ज़बान में लिखने से पता नहीं मै कौन सा पहा़ड़ उखाड़ लूंगा ..चलिए..अपना काम तो कर देना चाहिए...जंगल मे आग लगी तो चिडिया अपनी चोंच में पानी भर भर के उस आग में फैंकनी जाती..किसी ने कहा, अरी पागल, तेरे चोंच भरे पानी से क्या होगा...तो वह बोली, मेरा नाम तो आग बुझाने वालों में लिखा जाएगा....वही बात है इस ब्लॉग में इस दारू न पीने वाली बात को लिखना भी...

दो दिन सोचता ही रह गया लेकिन इस वक्त सोच रहा हूं कि अच्छा ही हुआ...लोगों ने लोहड़ी तो अच्छे से दारू-शारू के साथ मना ली...वरना यह सब पढ़ कर मज़ा किरकिरा हो जाता ....क्योंकि वैसे तो सभी जगह लेकिन पंजाब के तो गीत सुन कर ऐसा लगता है जैसा कि वह दारू पर ही जी रहा है, जीप पर चढ़े हुए कंधे पर दुनाली को टांगे दारू पी कर बड़कां मारने की बातें ...लेकिन यह सब इतना रोमांटिक है नहीं जितना दिखता है ..आस पास के सब लोग जिन को दारू, सिगरेट, बीड़ी पीते देखता था, सब के सब इन्हीं चीज़ों से होने वाली बीमारियों का शिकार हो के चले गए....और कुछ ऐसे भी जिन्होंने कभी इन का सेवन नहीं किया चले तो वह भी गए ....ऐसा नहीं है कि मैं अमर हूं या जो कुछ ऐसा खाते पीते नहीं, वे १५० साल जी लेंगे....ऐसा नहीं है, लेकिन बात इतनी सी है कि मक्खी देख कर तो नहीं निगली जाती ...क्या ख्याल है आपका?

अब ख्याल आ रहा है कि पढ़ने वालों को लग रहा होगा कि तुम भी तो बताओ अपने बारे में ....तो उस का जवाब यह है कि सारे अपने सारे खानदान में मैं एक अकेला ही ऐसा हूं जो पता नहीं कैसे बच गया इस से ...अच्छा ही हुआ, वरना जिस तरह का मैं ही मैं तो ठेके पर ही बैठा रहता...ऐसा क्या हुआ कि मैं इसे चखने से भी महरूम रह गया ..क्योंकि मुझे इस से पहले ही से बड़ी नफ़रत थी ...खास कर किसी भी दारू पिए हुए बंदे से बात करने की बात से ही ...फिर १८-१९ बरस की उम्र थी...मेडीकल कालेज अमृतसर की पैथोलॉजी की प्रोफैसर डा प्रेम लता वडेरा हमें एक दिन अल्कोहल के लिवर पर होने वाले बुरे प्रभावों - फैटी लिवर, सिरहोसिस- के बारे में इतने अच्छे से पढ़ा रही थीं कि ऐसे लगा जैसे एक मां अपने बच्चों को सचेत कर रही हो ....वह एक बहुत नामचीन पैथोलॉजिस्ट थी ....हमारी मां की उम्र की ही थीं ...पढ़ाने का तरीका भी ऐसा उम्दा ....(वैसे वो मेरी आंसरशीट को क्लास में दिखाया करती थीं कि ऐसे लिखते हैं पेपर में , यह होती है प्रिज़ेंटेशन....😎) ... देखिए, उन के पढ़ाने का असर कि उस दिन क्लास में मन ही मन यह निश्चय कर लिया कि दारू को तो हाथ नहीं लगाना ....और पापा जो शाम को एक-दो छोटे छोटे पैग लेते थे, उन्हें भी मैंने यह कह कर बोर करना शुरू कर दिया कि पापा, यह खराब है, यह नुकसान करती है ...लेकिन ...लेकिन, वेकिन, छोड़ो, यार ...जितना लिख दिया बस काफ़ी है। 

एक वक्त वह भी आता है कि जब किसी चीज़ को छोड़ने से भी कुछ खास फर्क पड़ता नहीं, समझ गए न आप.....जैसे गुटखा खाने वाले लोग मुंह के एडवांस कैंसर का इलाज करवाने आते हैं तो कहते हैं कि एक महीने से गुटखा छुआ तक नहीं..बीड़ी पंद्रह दिन से बंद है ....मन तो होता है कहने को कि पी लो, अब और जितनी पीनी हो ....लेकिन मरीज़ से ऐसी बात कहां हम लोग कर पाते हैं....हम भी यही कह कर उस का मनोबल बढ़ाते हैं ...अच्छा किया, बहुत अच्छी बात है ...वैसे ऊपर जो मैंने विश्व स्वास्थ्य संगठन की फेक्ट-शीट लगाई है उसमें यह भी कितना स्पष्ट लिखा है कि जो लोग तंबाकू और दारू दोनों चीज़ों का इस्तेमाल करते हैं उन में कैंसर होने का खतरा कितना बढ़ जाता है ..

चलिए, अब इस बात को यहीं विराम देते हैं...ज़्यादा कागज़ काले करने से भी कुछ होता वोता नहीं है...समझदार को इशारा काफी होता है ...अब तो लगता है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की यह बात अस्पतालों में जगह जगह लगी होनी चाहिए कि दारू की कम से कम मात्रा भी सेहत के लिए सुरक्षित नहीं है ... हां, मैं पंजाब की बातें कर रहा था ..दुनाली, जीपों, दारू और दारू पी कर बड़कें मारने की ....मुझे आज यह लिखते लिखते अचानक याद आया कि हम लोग बचपन में देखा-सुना करते थे कि पंजाब में विवाह शादी से पहले लेडीज़-संगीत (पंजाबी में उसे गौन या गावन कहते थे ...घर घर जा कर उस का सद्दा दिया जाता था...) शादी के कईं कईं दिन पहले यह शुरू हो जाता था ...चार पांच दिन पहले तो हमने देखा है, सुना है ...उसमें भी इस तरह के गीत ढोलक के साथ बजते थे ....नशे दीए बंद बोतले, तैनूं पीन गे ..हाय, तैनूं पीन गे नसीबां वाले ...(नशे को बंद बोतले, तुझे नसीबों वाले पिएंगे).. 😂


एक बात तो मैं दर्ज करनी भूल ही गया कि अभी मेरी जितनी उम्र है उस का आधा हिस्सा जिसने अमृतसर जैसे शाही शहर में बिताया हो ..जहां खाने पीने की पूरी ऐश थी...लज़ीज़ शाही खाना....आलू के परांठे और उस के बाद पेढ़े वाली मलाईदार लस्सी दा कड़े वाला गिलास....कमबख्त उस से ही इतना नशा हो जाता था कि दूसरे नशे के बारे में सोचने की होश ही किसे रहती....एक आम कहावत भी है न ..नशा तो रोटी में भी है ... सच बात है बिल्कुल...। लिखते लिखते याद आया हमारी एक कज़िन हम से १० साल बड़ी होंगी ...जब बंबई से अमृतसर आईं हमारे यहां तो एक दिन पानी का गिलास पकड़ कर इस गाने पर एक्टिंग करने लगीं ..हम सब बच्चों को अपने आस पास बिठा के ....हमें बड़ा अच्छा लगा, वह पानी का गिलास पकड़ कर १-२ मिनट के लिए ही यह गीत गाते झूम रही थीं.... हमने तब फिल्म भी न देखी थी ...बहुत बरसों बाद देखी... हां जी हां, मैंने शराब पी है ... 


अगर आप इस पोस्ट की भूमिका भी देखना चाहें तो यहां पधारिए....