रविवार, 16 अप्रैल 2017

क्या कोलेस्ट्रोल का कुछ लफड़ा है ही नहीं ?

हमारी सोसायटी में दो माली आते हैं ..जुडवां भाई हैं दोनों...साठ-पैंसठ साल के ऊपर के होंगे ...पतली-कद-काठी ...सारा दिन किसी न किसी घर के बेल-बूटों की मिट्टी के साथ मिट्टी हुए देखता हूं...आज शाम मैं बुक फेयर से लौट रहा था तो मैंने इन में से एक को देखा ...मैंने स्कूटर रोक लिया ...इन्हें मैं आते जाते माली जी, राम राम ज़रूर कहता हूं...मुस्कुरा कर जवाब देते हैं.. मैं रूका तो ये भी रूक गये...मैंने कहा ...यार, आप मेहनत बहुत करते हो...बताने लगे कि सुबह नौ बजे आते हैं और शाम पांच छःबजे लौटते हैं ...सारा दिन मैं इन दोनों भाईयों को अपने काम में मस्त देखता हूं...और शाम को ये ज़्यादा चुस्त-दुरूस्त दिखते हैं....लेकिन हम पढ़े-लिखे लोगों ने भी अपनी बेवकूफ़ी का परिचय तो देना ही होता है ..क्योंकि मैंने इन से यह पूछा...यार, आप थकते नहीं?....एक दो मिनट बातें हुई, हाथ मिला कर उन से छुट्टी ली .. (रोटी ये लोग साथ लेकर आते हैं, दोपहर में इन्हें कभी कभी खाते हुए देखता हूं..) 

बचपन में हमारे घर के पीछे एक बहुत बड़ा बागीचा था.. जिसमें तरह की सब्जियां, फल-फूल बीजने और उन की देखभाल करने के लिए (कभी सुबह, कभी शाम) जो नेकपुरूष आते थे उन्हें हम बाबा जी कहते थे....सारे घर के लिए ही वे बाबा जी थे...बड़ी सब्जियां उन्होंने खिलाईं,  उन के पास जाकर बैठ जाता मैं बहुत बार....इसी वजह से फूल-पौधों के प्रति प्यार भी पैदा होता चला गया...  एक तरह से घर के सदस्य जैसे थे ...सुबह जब नाश्ता बनता तो सब से पहले दो परांठे, आम का आचार और चाय का गिलास उन के पास लेकर जाने की ड्यूटी मेरी ही थी...हम लोग भी यही सब कुछ खाते थे .. 

कभी परांठे-वरांठे खाने में सोचना नहीं पड़ना था... कुछ लाइफ-स्टाईल ही ऐसा था, अब बाबा जैसे लोग या हमारी सोसायटी के माली जैसे लोग घी के परांठे खा भी लेंगे तो इन का क्या कर लेगा घी...इतनी मेहनत- मशक्कत...और हम लोग भी तब पैदल टहलते थे, उछल-कूद करते थे, साईकिल भी चलाते थे ..जंक बिल्कुल खाते ही नहीं थे, होता भी कहां था इतना सब कुछ उन दिनों.. बिल्कुल नाक की सीध पर चलने वाली सीधी सादी ज़िंदगी थी .. 

अभी अभी मेरी एक सहपाठिन का वाट्सएप पर मैसेज आया ...वाशिंगटन पोस्ट की एक न्यूज़ स्टोरी का लिंक था ...जिसमें लिखा गया था कि अब अमेरिकी संस्थाएं कोलेस्ट्रोल वाली चेतावनी हटाने के बारे में फैसला लेने ही वाली है ..

पंजाबी की एक कहावत है ... कि फलां फलां को तो जैेसे किसे ने उल्लू की रत पिला दी हुई है ....उल्लू की रत पिए हुए बंदे की हरकत यह होती है कि वह हर किसी की हां में हां मिलाते फिरता है .. (वैसे मुझे यह नहीं पता कि यह रत होती क्या है, बस कहावत है!!) 


मुझे यह सोचना बड़ा अजीब लगता है कि अमेरिका जो कहेगा हमें वही मानना होता है ...वह कहता है कि यह खराब है तो हम उसे मान लेते हैं, फिर वह कहता है कि इसे कम करो ये दवाईयां खा के तो हम दनादन दवाईयां गटकने लगते हैं... फिर यही कहता कि इन कोलेस्ट्रोल कम करने वाली दवाईयों के कुछ दुष्परिणाम भी हैं तो हम उन दवाईयों को हिचकिचाते हुए बंद कर देते हैं....फिर अचानक एक दिन ऐसी खबर मिलती है ... कि ये कोलेस्ट्रोल तो खराब है ही नहीं..

तब कभी आंवले की तासीर की तरह अपने बड़े-बुज़ुर्गों की बरसों से मिल रही नसीहत याद आती है कि सब कुछ खाओ करो ...और परिश्रम किया करो .. लेकिन हम उन की बात को लगभग हमेशा यह सोच कर नकार देते हैं कि नहीं, यार, इन्हें क्या पता साईंस का ...इन की मानेंगे तो थुलथुले हो जाएंगे.....(जो कि हम वैसे भी हो चुके हैं!!) 

इस में कोई संदेह नहीं है कि सेहत के जुड़ा कोई भी मुद्दा हो .. मार्कीट शक्तियां इतनी पॉवरफुल हैं कि हम बात की तह तक पहुंच ही नहीं पाते .. 

हां, तो जो वाशिंगटन पोस्ट का लिंक मेरी सहपाठी ने भेजा ..वह दो साल पुराना है ... लिखते लिखते मेरे जैसे लोगों को लाइनों के बीच भी पढ़ने की आदत हो जाती है .. (reading in between lines!) ...वैसे वह लेख बहुत बढ़िया है ... उस में ज्ञानवर्धक जानकारी भी है ..

सहपाठी ने यह ताकीद भी की थी कि इस विषय पर रिसर्च कर के ब्लॉग पर लिखना ...सब से पहले ..warning about cholesterol... को लिख कर ही गूगल सर्च किया तो ये रिजल्ट सामने आए.. 

American thinker का जनवरी २०१७ का यह ब्लॉग भी दिख गया .. आप इसे भी देख सकते हैं..Feds preparing to drop warning on Cholesterol 

यह खबर पढ़ने के बाद मुझे इच्छा हुई कि पिछले साल जो मैंने अपनी लिपिड प्रोफाईल करवाई थी, उसे ही देख लूं...कोलेस्ट्रोल तो 201mg% है और ट्राईग्लेसराईड का स्तर 274 है..जो कि सामान्य से लगभग दोगुना है

यह जो कोलेस्ट्रोल वाली चेतावनी को हटाने वाली बात है ...इस में कोई बात अलग नहीं लगती .....आज भी जो लोग मेहनतकश हैं (उदाहरण ऊपर आपने पढ़ीं) , उन्हें जब मक्खन-मलाई मिल जाती है तो उन्हें सोचना नहीं पड़ता ....और मेरे जैसों को आज भी सचेत रहने की ज़रूरत है ...Moderation is the key ...Balance is the keyword! ...हम लोग मेहनत करते नहीं, शरीर से काम लेते नहीं...खाने की इस तरह की खबरें ढूंढ-ढूंढ कर निकाल लेते हैं....सेलीब्रेट करते हैं कि चलिए, अब तो पाव-भाजी में मक्खन उंडेलने का लाईसेंस मिल गया .. और मैंने भी अपनी सहपाठिन को यही जवाब दिया कि ब्लॉग तो करूंगा ही .....लेकिन आज से ही दाल में एक चम्मच देशी घी उंडेलना शुरू कर रहा हूं....

मैंने यह बात कह तो दी .....लेकिन दिल है कि मानता नहीं.....मुझे नहीं लगता कि मैं अब फिर से बिना रोक टोक के मक्खन-देशी घी खाने लगूंगा ......अब आदत ही नहीं रही ...अंडा़ वैसे बचपन से ही नहीं खाया..जब मैंने अंडा खाना शुरु किया तो मुझे दो चार बार उल्टी हो गई ....बस, तब से अंडा कभी खाया ही नहीं... कोई और कारण नहीं, बस उस की smell नहीं सही जाती..

अच्छा फिर, यही विराम लगाते हैं.. ..एक गीत सुन लेते हैं..कल मैंने लखनऊ में एक कार्यक्रम में सुना था, बहुत दिनों बाद ....अच्छा लगता है बहुत यह गीत .......


अद्यतन किया ..9.45pm (१६.४.१७)....

 इस लेख पर एक टिप्पणी मित्र सतीश सक्सेना जी की आई है ...जिसमें इन्होंने एक लिंक दिया है ...अमेरिकी  नेशनल लाईब्रेरी ऑफ मैडीसन का जिस में इस तरह की एक रिपोर्ट का पोस्टमार्टम किया गया है जिसने कहा है कि दिल की बीमारी और कोलेस्ट्रोल का कोई संबंध नहीं ..

अमेरिकी नेशनल लाईब्रेरी ऑफ मैडीसन की रिपोर्ट का लिंक यह रहा ..जिसे पढ़ना भी ज़रूरी है ताकि हमारे आंखे अच्छे से खुली रहें .. Study says there is no link between cholesterol and heart disease. 

सतीश सक्सेना जी के बारे में बताते चलें कि इन का जीवन भी बडा़ प्रेरणामयी है ..इन्होंने ६१ साल की उम्र में जॉगिंग करना शुरू किया और अब ये दो तीन साल में ही मेराथान रनर हैं...

शनिवार, 15 अप्रैल 2017

गन्ने का रस - जब अज्ञानता भी अच्छी थी!

एक इंगिलश की कहावत है ...Ignorance is bliss! ... अनुवाद इस का शायद यही होगा ... अनाडी़पन भी अच्छा होता है! गन्ने के रस के बारे में बात बाद में करते हैं, पहले मेडलाइन प्लस पर उपलब्ध मैडीकल खबरों की खबर ले ली जाए...शायद सैंकड़ों लेखों के आइडिया मुझे इन खबरों से आया करते थे ...फिर एक दिन विचार आया..कि नहीं, क्या करना इतना मैडीकल ज्ञान लोगों की सीधी सादी ज़िंदगी में ठूंस कर ...अपने अपने हिस्से का ज्ञान सब जुटा ही लेते हैं कैसे भी...इसलिए मुझे इस तरह के भारी भरकम ज्ञान से एक तरह से चिढ़ ही हो गई...

आज मुझे ध्यान आया कि चलिए देखते हैं क्या खबरें कह रही हैं सेहत के बारे में ....पूरी लिस्ट देख ली, कुछ भी तो नहीं लगा जिसे आप से शेयर किया जा सके या जिस पर कोई टिप्पणी की जा सके ... यह रहा वैसे इस का लिंक ...मैडलाइन प्लस ... इस के बारे में इतना बताते चलें कि यह अमेरिकी नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मैडीसन की साइट है जहां पर विश्वसनीय जानकारी उपलब्ध रहती है .....

लेकिन वही बात है इतना भारी भरकम ज्ञान ढोने से क्या हासिल ....हमारे तो मुद्दे हैं, दूषित पानी से कब राहत मिलेगी, मच्छरों का आतंक कब कम होगा, और गन्ने का रस पिएं या ना पिएं !!

कल सुबह मैंने एक लेख ठेला था फलों के रस का सच हम जानते तो हैं, लेकिन ...

उस लेख पर एक कमैंट मुझे आया वाट्सएप पर जिस में मित्र ने लिखा कि ये फलों का जूस बेचने वाले भी कईं तरह के शोषण का शिकार होते हैं...इन्हें भी कुछ पुलिसवालों को मुफ़्त में जूस पिलाना पड़ता है और चूंकि ये लोग अपना धंधा खुले में तो कर नहीं सकते, ऐसे में इन्हें फंसाने का डर दिखा कर भी कुछ लोग इन से पैसे ऐंठ लेते हैं.. इसलिए ये लोग मुनाफ़ाखोरी के चक्कर में फिर जूस में मिलावट करना शुरू कर देते हैं...

लेकिन बात वही है कि अगर जूस वालों का शोषण हो रहा है तो वे कैसे पब्लिक की सेहत के साथ खिलवाड़ करना शुरू कर सकते हैं! बीमार लोग अगर ऐसे जूस को पिएंगे तो वे और बीमार तो होंगे ही ..जब कि सेहतमंद लोग ही इसे पीकर बीमार हो जाते हैं .. इतने भयंकर कलर्ज़-़़कैमीकल्ज़ एक बार शरीर में गये तो ये लिवर और गुर्दे के सुपुर्द हो गए...अब ये इन अंगों में तबाही मचा के रख देते हैं....इन अंगों की कार्यप्रणाली को तो नुकसान पहुंचाते ही हैं, कैंसर जैसे रोगों का कारण भी बनते हैं...

एक मित्र ने इलाहाबाद की एक जगह का नाम लिखा ...कि वहां पर १० रूपये का मौसम्मी का जूस मिलता है लेकिन उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि  यह कैसे इतने में बेच लेते हैं...लेकिन मौसम्मियों में इस तरह के मीठे पानी आदि के टीके लगाने वाली बात से कुछ समझ में आया तो है ...लेकिन उन को यह संशय अभी भी है कि इतनी सारी मौसम्मियों को टीका लगाना भी तो बड़ा मुश्किल काम है! ......अखिलेश जी एक बैंकर हैं जिन्होंने यह लिखा है .. अखिलेश जी, यह कोई मुश्किल काम नहीं है...कौन सा डाक्टरी ताम-झाम के साथ टीके लगने हैं...जो पानी हाथ में आया, जो सूईं मिली....ठेल दिया टीका...आप ने पिछली पोस्ट की वीडियो में देखा ही यह सब कुछ कैसे हो रहा था।

वैसे मैं भी इस तरह के संशय से गुज़र चुका हूं...आज से २५-२६ साल पहले हम लोग जब बंबई रहने के लिए गये तो मैं देखा करता कि लोकल स्टेशनों के बाहर बड़े बडे़ टबों में संतरे का जूस ३-३, ५-५ रूपये में बिक रहा होता .. देखने में वह जूस ओरिजनल जूस जैसा ही दिखता ... लेकिन पिया कभी नहीं मैंने ...ग्राहकों को भ्रमित करने के लिए उन्होंने उसी टब पर रखी लकड़ी पर बीस तीस निचोड़े हुए संतरे भी रखे होते थे ... लेकिन जितना जूस उस टब में होता...वह एक संतरों से भरे हुए एक टैंपो का ही लगता!

बहरहाल, गड़बड़झाला तो है सब जगह ... यह आप के ऊपर है कि आप किसे चुन रहे हैं... हां, गन्ने के रस की बात हो रही थी कि वह ही सब से बढ़िया है....बेशक, बढ़िया तो है ...लेेकिन डाक्टर लोग जैसे ही गर्मी आती है, गन्ने का रस बिकने लगता है तो सचेत करने लग जाते हैं कि अब पीलिया के केस भी बहुत आने लगे हैं...बच के रहिए...

गन्ने का रस मुझे बेहद पसंद है ....जब गन्ने के रस के गिलास में उस रस के अलावा कुछ नहीं दिखता था, तब इस रस का खूब लुत्फ़ उठाया... तीन चार गिलास एक साथ पीना आम बात थी ... अदरक, नींबू, बर्फ़ डाल कर ... रस निकालने वाली मशीन में गन्ने के रस साथ उस के पतीले में जाने वाले मशीन के तेल को भी देख कर भी नज़रअंदाज़ कर देते थे ...कि छोड़ यार, सब पी रहे हैं ना, कुछ नहीं होगा..। बर्फ़ के बारे में सोचते थे ही नहीं....गन्नों की साफ़ सफ़ाई का कुछ पता नहीं था..

४० साल पहले की बात करें तो एक जगह से स्कूल से लौटते समय गन्ने का रस पीते थे .. जहां पर एक बैल को (कोल्हू वाले बैल की तरह) जूस निकालने के लिए गोलाकार में घुमाया जाता था .. दूर से दिखता था कि गन्ने के रस के साथ कितना मशीन का तेल उस बाल्टी में जा रहा है .....लेकिन वही बात है ... अनाडी़पन में सब कुछ चलता है..आगे पीछे कुछ नहीं दिखता..

१९८० में पीलिया हो गया, किसी डाक्टर से परामर्श नहीं, कोई टेस्ट नहीं, कोई उपचार नहीं ...बस, पड़ोसियों के कहने पर रोटी छुड़वा दी गई और रोज़ाना पांच सात गिलास गन्ने के रस के पीने को मिलने गये .....

फिर लोगों में जागरूकता आने लगी .. गर्मी के दिनों में गन्ने का रस बेचने पर प्रतिबंध लगने लगा ...सरकारी फरमान जारी होने लगे ... लोग खूब धूप बत्ती लगा के मक्खियो ंको दूर रखने लगे .. लेकिन मुझे बंबई में गन्ने का रस पीने में कभी भी झिझक नहीं होती ...वे लोग गन्ने को धोते हैं ...पोंछते , साफ़ करते हैं .. और ध्यान करते हैं कि मक्खियां आसपास बिल्कुल नहीं हों...अधिकतर बंबई में ऐसे ही बिकता है गन्ने का रस ... कुछ साल पहले मैंने हैदराबाद में भी इतनी साफ सफाई से ही गन्ने का रस तैयार होता और बिकता देखा...कईं जगहों पर तो गन्नों का छिलका भी पहले उतार लिया जाता है और इन को रखा भी सलीके से जाता है ...बहुत अच्छा लगता है यह सब देख कर ...

जैसे ही गर्मियां आती हैं और गन्ने का रस बिकता दिखता है तो मैं डाक्टरी के अधकचरे ज्ञान को बड़ा कोसता हूं...सच में यह अधकचरे से भी कम ही है ...बस इतना है कि इन छोटी छोटी खुशियों से दूर रखता है ... मुझे अपने स्कूल-कालेज के दिनों की तरह तीन चार गिलास गन्ने का रस पीने की तमन्ना तो बहुत होती है .....लेकिन मैं पी नहीं पाता .... डर लगता है जिन खराब हालात में यह सब काम हो रहा होता है ...

यह एक ऐसा मुद्दा है जिस में कोई किसी को सलाह नहीं दे सकता ...और जहां तक सलाह की बात है ..लोग गुटखे-पान मसाले को थूकने की सलाह तो मानते नहीं है, फिर गन्ने का रस पीना किसी के कहने पर भला क्यों छोड़ने लगे!

गन्ने के रस में कोई बुराई नहीं है ज़ाहिर सी बात है ... लेकिन मशीन की साफ़ सफ़ाई, बर्फ़ की क्वालिटी, आस पास की साफ़ सफ़ाई ... ये सब बातें देख कर आप को स्वयं ही यह निर्णय लेना होता है कि आप यहां से रस पिएंगे या नहीं, मैं तो ऐसा ही करता हूं ....किसी दुकान पर रूक कर बिना जूस पिए आगे बढ़ने से मैं झिझकता नहीं (चाहे मैं वैसे परले दर्जे का संकोची प्रवृत्ति का हूं) .....आखिर यह हमारी सेहत का मामला है !

फैसला आप के भी अपने हाथ में ही है ... कि गन्ने का रस पिएंगे और कहां से पिएंगे? लेकिन पता नहीं मुझे कैसे बैठे बैठे यह गीत ध्यान में आ गया ... हा हा ह हा हा हा हा ...आप भी सुनिए...गोरों की न कालों की, दुनिया है दिलदारों की ...


शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

खतो- किताब़त - तब और अब

मुझे याद है कि हमारे घर के आस पास तीन चार घरों में मेरा स्कूल से लौटने का इंतज़ार हुआ करता था...उन घरों में रहने वाले अपने हमउम्र साथियों के साथ खेलने-कूदने के लिए भी और उन के यहां आई चिट्ठी को पढ़ने के लिए भी .. दो बार चिट्ठी पढ़वाई जाती थी ..

और  फिर शाम को मेरे को उस का जवाब लिखने के लिए बुक कर लिया जाता था...

ये सब छठी-सातवीं-आठवीं कक्षा की बातें हैं...मेरे लिए इतनी ही गुदगुगी काफी थी शायद कि इतनी लाइमलाईट मिल रही है ..जब मैं उन का खत लिखने जाता हूं तो मेरे को आराम से बैठने के लिए कुर्सी दी जाती है ...और बाकी सब चारपाईयों पर बैठ कर अपनी अपनी बात मेरे तक पहुंचाने लगते...

अच्छा, मोहल्ले में चिट्ठे लिखने में डिमांड मेरी ही ज़्यादा थी .. इस का कारण था कि मैं कभी भी इस काम में जल्दबाजी नहीं करता था, कभी नहीं...कि किसी ने बुलाया है और इस का जैसा तैसा खत लिख कर पीछा छुडा़ना है..कभी ऐसा करना तो क्या, ध्यान भी नहीं आया, इत्मीनान से बैठ कर लिखता था...

आप किसी के घर की दो चार चिट्ठीयां पढ़ लो और इतनी ही चिट्ठीयों का जवाब लिख दो तो आप को उस घर की थोड़ी बहुत जन्मपत्री समझ आने लगती है ...लेकिन उस समय में बालमन को इन सब से क्या लेना देना, बस इतना हो जाता था कि मुझे उन के सगे संबंधियों के नाम-पते और किस को नमस्कार और किस को प्यार-दुलार भेजना है ...यब सब याद हो जाता था...क्योंकि हिंदोस्तानी चिट्ठीयाें में भूमिका और उपसंहार में तो यह सब ही ठूंसना होता है ...

हां, एक बात और ...मुझे कैसे पता चलता था कि मैं यह चिट्ठाकारी का काम अच्छे से कर रहा हूं कि नहीं...यह भी एक राज़ की बात है ..

मेरी नानी जो अंबाला रहती थीं..वह भी हमें पोस्टकार्ड भिजवाती थीं लेकिन पड़ोस के बच्चों के लिखवा कर ... उन खत़ों को पढ़ कर मुझे झट से समझ आ जाता था कि इन्हें पढ़ कर कुछ मज़ा आया नहीं...ख़त को थोड़ा चटपटा भी हो बनाना चाहिए...पहली तो बात है जैसी भी आप की लिखावट है, उसी से ही अगर हम इत्मीनान से लिखें तो खुशख़त तो बन ही जाएगा..लेकिन अगर घसीटे मारने की ही ठान ली है तो कोई किसी का क्या कर लेगा!

और हां, इन खतों को पढ़ कर मेरी मां भी अकसर कहती उस लड़की का नाम लेकर कि यह पता नहीं कैसे लिखती है... और जब नानी से मिलना होता तो पता चलता कि उन्हें उन चंद लाइनें लिखवाने के लिए भी कितनी खुशामद करनी पड़ती ..

तो ये सब बातें मेरी समझ में छठी सातवीं कक्षा से ही आने लगी कि कोई अगर यह काम कहे तो अपने सब काम छोड़ कर पहले उस का यह काम निपटा आना चाहिए...क्योंकि यह भी एक तरह की एमरजैंसी ही हुआ करती थी ... और जिन के खत़ मेैं लिखा करता उन के रिश्तेदारों की भी मिलने-जुलने पर उन से यही फरमाईश हुआ करती कि जिस ने वह वाला ख़त भेजा था, उसी से ही लिखवाया करो ...


अभी मुझे कुछ ध्यान आया ...मैंने अपने इसी ब्लॉग पर कुछ ढूंढना था...गूगल सर्च किया ...वह कुछ तो नहीं मिला जो मैं ढूंढ रहा था लेकिन दादी की याद मिल गई एक पोस्ट कार्ड पर लिखी हुई ..अभी आप से साझा किए दे रहे हैं.. और अपनी एक फोटू भी दिख गई ...गूगल पर पड़ी हुई...ऐसे ही नहीं कहते कि इंटरनेट पर जो कुछ भी करते हैं, सब जमा हो रहा है ....net footprints के बारे में सचेत रहने की ज़रूरत है .. आज कल तो कईं जॉब्स के लिए वे ये सब भी पहले देखते हैं..



खत कैसे इत्मीनान से लिखा जाता है इस की ट्रेनिंग मुझे अपने माता पिता से भी मिली ..विशेषकर पिता जी से ...वह सच में बहुत ही बढ़िया इंगिलश और उर्दू में ख़त लिखा करते थे...और किसी का भी खत आए, उस का जवाब उन्होंने अच्छे से देना ही होता था ... और बहुत साफ़ लिखते थे ...

मैं अकसर यही सोचता हूं कि चिट्ठी वह होती है जो दिल को दिल से जोड़ने का काम करती है ...यह छोटा मोटा काम तब नहीं होता जब यह काम आप किसी के लिए यह कर रहे होते हो, यह आप पर है कि आप उसे नीरस बना दें और आप चाहें तो उस में ऐसे रंग भर दें कि ठिकाने पर पहुंच कर वह कागज़ का टुकड़ा सारे माहौल को खुशगवार बना दे.....दुनिया में सब जादू शब्दों का ही है, बोले हुए, लिखे हुए और जो कभी न कहते हुए भी आंखें कह गई ....उन शब्दों का भी ... ये जो तीसरी क्षेणी वाला संप्रेष्ण है इस की अहमियत को हम कम आंक लेते हैं ...लेकिन ऐसा है नहीं...

कौन सी चिट्ठी ऐसी होती है जो अपना प्रभाव छोड़ देती है ...उस को कैसे लिखना चाहिए...इस का एक नमूना मुझे छठी सातवीं कक्षा में लिखने का मौका मिला....मेरेे पिता जी का एक अफसर लोगों को बहुत तंग किया करता था ..मुझे एक दिन पिता जी ने कहा कि हिंदी में एक चिट्ठी लिखो....मुझे याद है मैं वही छठी-सातवीं कक्षा में था, वे बोलते गये, मैं लिखता गया...तीन चारे बडे़ पन्ने भर गये ....बीच बीच में पिता जी कुछ संशोधन करने को कह देते ...ऐसे में मैंने वह चिट्ठी फिर से साफ़-साफ़ लिख कर तैयार कर दी ...अब फोटोस्टैट वैट तो होती नहीं थी उन दिनों... मैंने दो तीन कापियां भी बना दीं उन के कहने पर, जहां तक मुझे अब याद है ...और उस चिट्ठी का असर भी हुआ.....मुझे यह भी पता चला...

उस चिट्ठी के बहाने मुझे कईं नईं शब्द सीखने का मौका भी मिला....एक शब्द जिसे मैं आज भी याद करता हूं तो हंसने लगता हूं ...उस चिट्ठी में पिता जी ने उस अधिकारी द्वारा गुलछर्रे उड़ाने की बातें भी लिखवाई थीं...अब मुझे लग रहा है कि मैंने ज़रूर गुलछर्रे को गुलछरे ही लिखा होगा ...

बस, बात को बंद करता हूं यहीं ...खत लिखते रहना चाहिए...आदत बनी रहती है ...यह बहुत जरूरी है ...पहले हमें साधारण डाक पर भरोसा होता था ....अब धीरे धीरे वह खत्म होता जा रहा है ...बड़ी बहन ने जयपुर से एक साधारण चिट्ठी भेजी है कुछ कागज़ भेजे हैं...तीन चार बार पूछ चुकी हैं पिछले पांच सात दिनों में ...लेकिन अभी तक यहां लखनऊ में नहीं पहुंची ....कल तो कहने ही लगीं...साधारण डाक का यही पचड़ा होता है! ..... लेकिन हम सब लोग उसी साधारण पोस्ट-कार्ड- अंतर्देेशीय ख़त को लिखते-पढ़ते मानवीय संवेदनाओं को समझने की कोशिश करते करते ही बड़े हुए हैं.....

वैसे अब हम लोग अपने नाते-रिश्तेदारों को खत लिखते ही कहां है, ये सोशल मीडिया पर ही दो चार शब्द लिख कर हॉय-हैलो हो जाता है, मिठाई भी वाट्सएप पर आ जाती है, शगुन भी, और होली के रंग और दीवाली के पटाखे भी सब कुछ इसी पर आ जाता है ...परिभाषाएं बदल गई हैं बहुत सी ......काश, हम पुरानी परिभाषाओं को भी कभी कभी याद रखा करें... उन में ज़मीन की सौंधी खुशबू है ....आज के नये मीडिया से यह सब गायब है .. यकीन नहीं होता? ...चलिए, फिर राजेश खन्ना साहब को सुनते हैं.....


निदा फाज़ली साब के वे अल्फ़ाज याद आ गये ... 
सीधा सादा डाकिया जादू करे महान् 
एक ही थैले में भरे आंसू और मुस्कान 

मनाली में खींची यह फोटो भी आज गूगल सर्च से ही मिली ... 



इस ब्लॉगिंग को चिट्ठाकारी भी कहते हैं....ब्लॉगिंग तो फिरंगी शब्द है .. और मैं तो बहुत बार मज़ाक में कहता हूं कि मुझे इस तरह का ही काम पसंद है जहां पर मुझे लोगों के लिए सभी तरह की चिट्ठीयां लिखने का काम मिले ... फ्री में ....पास एक दान-पत्र रख दिया जाए....जिस की जो श्रद्धा हो उस में डाल जाए, नहीं तो कोई बात नहीं.. (जो दे उस का भी भला, जो न दे उस का भी भला...) इस दान-पात्र वाली बात पर मेरे दोस्त बड़े ठहाके लगाते हैं ....मुझे लगता है कि ज़िंदगी के किसी न किसी पढ़ाव पर यह काम भी कर के ही रहूंगा ... आमीन!

गुरुवार, 13 अप्रैल 2017

वैसाखी मुबारक

आज कल त्यौहारों का पता भी टीवी या अखबार से ही पता चलता है कईं बार .. हमें छुट्टी भी नहीं है आज...

वैसाखी की मुबारक....आज वैसाखी वाले दिन सुबह सुबह बस कुछ पंजाबी गीत जो ध्यान में आए ... वे देखे और यहां शेयर कर रहा हूं...लिख कुछ नहीं रहा ..








बस जी हमारी वैसाखी तो मन गई....बस, शाम को जलेबियां खाने की कसर है.....

यह भी आराम है, पंजाब से बाहर लखनऊ में बैठ कर वैसाखी का जश्न भी यू-ट्यूब पर ही हो जाता है ... 




फलों के रस का सच हम जानते तो हैं, लेकिन ...

मैंने १० साल पहले जब एक साथ अपने तीन चार ब्लॉग शुरु किये तो उन में से एक का नाम था ...हैल्थ टिप्स...

मुझे लिखने के लिए विषय ही ध्यान में नहीं आते थे...ऐसे ही एक दिन मैंने बाज़ार मेें बिकने वाले जूस पर कुछ लिखा था जिस का लिंक नीचे दिया है ...


पिछले कुछ वर्षों में भी लिखता रहा हूं कभी कभी इस विषय पर ...लेकिन कल एक मित्र ने फेसबुक पर एक वीडियो शेयर करी थी...यही जूस बनाने-पिलाने वाले गोरखधंधे के बारे में ..

इस में कुछ ऐसा देखा मौसंबी जूस के बारे में जिस की वजह से मुझे लगा कि यह तुरंत शेयर करने योग्य है ...

दरअसल बाकी सब बातों से मैं परिचित था ...लेकिन मौसंबी को भी इस तरह से टीके लगा कर भारी किया जाता है, यह शायद पहली बार मेरी नज़रों के सामने आया...

कल तक मैं बाज़ार में मिलने मौसंबी जूस को सब से ज़्यादा सेफ़ समझा करता था कि इसमें कोई मिलावट वाली हरकत नहीं होती होगी...लेकिन खुराफ़ाती लोग तो ठहरे नटवरलाल....

अब कोई यह तर्क दे कि बड़े बडे़ ठेकेदार करोड़ों रूपये के बिल्डिंगों के घोटाले कर जाते हैं...उन्हें कोई नहीं छूता... और ये छोटे मोटे व्यापारी ही सब लोगों को दिखते हैं....

ऐसा नहीं है, देर सवेर सभी घोटालेबाज काबू में आ ही जाते हैं...लेकिन छोटे धंधे के बहाने ऐसा नहीं है कि इन को छोड़ दिया जाए....कोई बीमार है, कितनी उम्मीद के साथ वह जूस पीता है कि वह अब ठीक हो जाएगा.....लेकिन ठीक क्या खाक होगा, ऐसा जूस पीने से वह....

मैं भी बाज़ार में केवल मौसंबी का जूस ही पीता हूं ..लेकिन अब यह वीडियो देखने के बाद तो यह भी नहीं पिया जायेगा...

हमेशा से ही यह प्रश्न तो रहा ही है कि ये जूस वाले ऊंची जगह में ग्राहकों की नज़रों से बच कर ही क्यों जूस बनाते हैं...पुराने दिनों में सब को लगता था कि थोड़े खराब फल भी ठेल देते होंगे, लेेकिन फिर भी लोग चुप थे....और यह भी लगता था कि पानी या बर्फ़ खूब मिला देते होंगे, यह भी सच तो था ही लेकिन कोई चारा था भी तो नहीं ...अगर जूस पीने गये ही हैं...

आपने भी नोटिस किया होगा कि फलों का रस बेचने वाला आपके सामने कुछ नहीं करता...

वैसे भी जूस की बजाए आप फल ही खा सकें तो और भी अच्छा... तीन चार संतरे खा लेंगे, दो तीन कीनू खा लेंगे तो हो गया ना जूस, और जो फाईबर वाला तत्व है वह भी आप तक पहुंच गया....लेकिन हां, कईं बार शारीरिक रूप से अशक्त लोगों के लिए, बड़े बुज़ुर्गों के लिए जो अधिक चबा नहीं पाते ... थक जाते हैं....या छोटे बच्चे हैं, इन सब के लिए जूस हो सके तो घर पर ही तैयार करिए...

एक बात ....अगर आप को लगता है कि आप जहां से जूस पीते हैं वह बंदा यह सब नहीं करता तो भी यह एक खुशफहमी हो सकती है, मुझे तो यही लगता है ... कहां तक धक्के खा खाकर यह पता करने की कोशिश करते रहेंगे कि कौन असली है, कौन मिलावटी, कैसे ढूंढ पाएंगे...
असली नकली चेहरा तो फिर भी पता करना आसान है, लेकिन इन मिलावटी चीज़ों का पता लगाना एक दम मुश्किल ...

मुझे अभी ध्यान आया कि बाकी फलों के रस तो अकसर लोग घर में निकाल ही लेते हैं...लेकिन मौसंबी से जूस निकालने को ही बड़ी सिरदर्दी समझा जाता है ...मैंने सोचा कि आप को मौसंबी जूस निकालने वाली मशीन के इस्तेमाल का तरीका ही बता दिया जाए...बहुत सारे बंधु तो जानते होंगे, कुछ के लिेए नया होगा....




सब कुछ तो दिख ही रहा है इस मशीन के इस्तेमाल के बारे में, अब मैं किस चित्र को लेबल करूं!

हां, एक बात जाते जाते जोड़ना चाहता हूं कि आज कल डिब्बेबंद फलों के रस का चलन बहुत होने लगा है ...मैंने शायद १० साल पहले भी इन सब के बारे में कुछ लिखा था...लिंक नीचे दिया है ...


लिंक तो लगा दिये हैं मैंने अपने १० साल पुराने लेखों के ..लेकिन मुझे सच में पता नहीं कि मैंने इतने साल पहले इन में क्या लिखा था, लेकिन मैं इन लेखों को बाद में कभी पढ़ता नहीं हूं....क्योंकि मुझे फिर से याद आ जाता है कि मैं कितना बकवास लिखता हूं ......इसलिए मैं इन से हमेशा बचता हूं, जैसे हलवाई अपनी दुकान की मिठाईयों से बचता फिरता है..उसे उन मिठाईयों के अंदर की खबर होती है .....इसलिए मैं भी इस खुशफ़हमी में ही जीना चाहता हूं कि मैं रद्दी नहीं लिखता...

मैं सोच रहा था कि यह मशीन देखने में थोड़ी हार्ड-कोर दिख रही है लेकिन इस्तेमाल करने में बहुत आसान है ...

अचानक  पंजाबी सिंगर Hard Kaur का ध्यान आ गया है, इसलिए यह गीत लगा रहा हूं..

बुधवार, 12 अप्रैल 2017

मैं हवा हूं, कहां वतन मेरा ...

कल दोपहर के समय मैं अपनी बिल्डिंग की पार्किंग से निकल रहा था तो मेरी नज़र अचानक इस फूल पर पड़ी....मैं देख कर दंग रह गया..पता नहीं इतना खूबसूरत फूल पहले कब देखा था, याद नहीं!

यह फूल लहरा रहा था उस लू में भी ...फुल मस्ती में...मुझे पौधे का भी नाम भी नहीं पता और ज़रुरत भी क्या है!...मुझे इस की बिल्कुल पतली सी टहनी को आराम से थामना पड़ा इस का यह फोटो खींचने के लिए...

हर बार जब भी इस तरह के फूल देखता हूं कि विचार ज़रूर आता है कि इसे तोड़ लेता हूं....लेकिन तोड़ता कभी नहीं, इस उम्मीद के साथ कि इस शाख पर लगे हुए पता नहीं ये कितनी उथल-पुथल हो चुकी रुहों को दुरुस्त करेंगे! कितने लोग इन्हें देखने भर ही राजी हो जाएंगे, मेरी तरह!

मैं ऐसा सोचता हूं कि आदमी अपने आप को जितना भी तुर्रमखां समझता हो, खुदा से बस थोड़ा ही कम समझता हो, लेकिन जब कभी इस तरह के बेनज़ीर कुदरती करिश्मे से रू-ब-रू होने का मौका मिलता है तो उसी पल ज़मीन पर लौट आता है ...

आगे चलें...

अभी अखबार उठाई तो हर तरफ़ ज्ञान बांटने की बातें...हंसी भी आई...सुबह आंख खुलने से रात नींद आने पर कमबख्त इतना ज्ञान बंट रहा है फोकट में कि उलझन होने लगती है कि यार, इतने ज्ञान का करेंगे क्या... इस का एक प्रतिशत भी इस्तेमाल तो हम करते नहीं, हो पाता नहीं या हो पायेगा नहीं, ये अलग बातें हैं!

मुझे ऐसे लगता है कि कुछ बातें हमारे मन में अब ठूंस दी गई हैं...मेरे पास अपने स्कूल के ज़माने के ४० साल पुराने एक दो स्कूल के मैगज़ीन हैं...कभी कभी देख लेता हूं और दोस्तों के साथ फोटो शेयर भी कर लेता हूं... मैंने कल ध्यान दिया ...४० साल तक कभी नहीं दिया...कि स्कूल के हाल में हवन हो रहा है और हमारे दो तीन टीचर जो सरदार जी थे, वे भी पूरी श्रद्धा के साथ आहूति दे रहे हैं...मैं अभी भी अपने आप से यही पूछ रहा हूं कि यह विचार मेरे मन में आज ४० साल बाद आया तो आया कैसे! ....शायद इसलिए ही आया कि अब हमें अपने धर्म को अपनी बाजू पर ओढ़ने की बातें होने लगी हैं ...हर बात में तर्क-वितर्क के बहाने ढूंढने की बात हो गई है ... योग करने को भी हम किसी धर्म के साथ जोड़ने की हिमाकत करने लगे हैं...और भी बहुत कुछ हो रहा है ..बस आंखे खुली रखिए और देखते रहिए ..लेकिन कभी भी इस भीड़ का हिस्सा न बनिए......बस अब आप से ही उम्मीद बची हुई है कि सब से बढ़िया आपसी सौहार्द का प्रतीक आप लोग ही हैं और आप ही रहेंगे, इतिहास गवाह है!

शायर लोग कभी कभी गीत नहीं लिखते, वे हमें हमारे दिलों को टटोलने के टोटके लिख जाते हैं या ईश्वर इन के घट में बस कर ऐसे रचनाओं का सृजन करवा देता है ......जैसे वह रिफ्यूज़ी फिल्म का वह गाना .....पंछी ..नदिया.. पवन के झोंके, कोई सरहद न इन्हें रोके....सरहद इंसानों के लिए है, सोचो...तुमने और मैंने क्या पाया इंसा हो के!

मुझे आज सुबह सुबह कुछ दिन पहले की एक दोपहर याद आ रही थी ...मैं दोपहर में सोया हुआ था...मेरा रेडियो अकसर मेरे सोने पर भी बजता ही रहता है ...इसे अडिक्शन कहते होंगे ...लेकिन जैसे ही मैं उठा तो उस्ताद अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन का इंटरव्यू चल रहा था, मुझे तो इन का नाम भी नहीं पता था, लेकिन इन की यह गज़ल मेरे मन में उतर गई....बेहतरीन! ..यू-ट्यूब पर इन के वीडियो की आवाज़ बहुत कम थी ...इसलिए किसी दूसरे कलाकार की वीडियो लगा रहा हूं..


सभी बातें कितनी सही कही गई हैं! 

रेडियो की वजह से मुझे इन महान शख्शियतों के बारे में पता चला ... पसंद अपनी अपनी होती है, मुझे रेडियो सुनना टीवी देखने से कहीं ज़्यादा सुकून देता है ...टीवी में अगर हम उन उछल कूद कर खबरें पढ़ने, दिखाने और सनसनी पैदा करने वाले कुछ कलाकारों की ताल के साथ ताल नहीं मिला पाते तो मेरा तो झट से सिर भारी हो जाता है ...इसलिेए मैं तो अकसर बचता हूं ..और नहीं तो पुरानी फिल्मी गीत वाला चैनल ही लगा रहने देता हूं... 

लेकिन टीवी देखने का भी एक सुनहरा दौर था ...अभी हम लोग सीरियल का ध्यान आया तो यू-ट्यूब पर ये बातें सुन लीं कि ये लोग कैसे तपस्या किया करते थे...तपस्या के बिना कुछ भी संभव नहीं है ...देखने में लग सकता है कोई जुगाड़बाजी कर के ऊपर पहुंच गया ....लेकिन स्थिरता बिना तपस्या के नहीं आ सकती! ... आप भी इस वीडियो को ज़रूर देखिए... 


तब यह भी नहीं था कि यह सीरियल पाकिस्तानी है, यह हिंदोस्तानी है....पाकिस्तान के बार्डर के साथ लगते पंजाब के ज़िलों में पाकिस्तान टीवी के बेहतरीन प्रोग्राम भी हम रोज़ देखा करते थे....एक तरह से समझ लीजिए....५० प्रतिशत समय तो वहां के बेहतरीन टीवी सीरियल देखते हुए बीत जाया करता था...गुरूवार को रात में एक दो तीन घंटे का पाकिस्तानी नाटक भी देखा करते थे ....अभी ध्यान आ रहा है ..पाकिस्तानी सीरियल का ...सोना चांदी का ...इन ड्रामों का एक एक किरदार याद है ...आज भी तीस साल बाद ... पता नहीं, आज कल ये प्रोग्राम आते हैं कि नहीं, मैंने पूछा नहीं किसी दोस्त से भी, शायर अब इन सूक्ष्म तरंगों पर भी प्रतिबंध लग चुका है ...


इन सब कलाकारों का भी कैनवेस बहुत बड़ा होता है...कोई भी इन्हें सरहदों में कैसे बांट सकता है....मैं हवा हूं, कहां वतन मेरा! .....अब इंटरनेट लोगों के पास है ..कुछ भी देख-सुन सकते हैं जैसे मैं सैंकड़ों बार राहत अली खां के इस गीत को सुन चुका हूं...


Universal brotherhood विश्व-बंधुत्व के अलावा कोई रास्ता है ही नहीं और हो भी नहीं सकता ... इसे समझ ले सारी दुनिया और इस रास्ते पर ही चलते जाएं....

देखिए, मैं भी ज्ञान की भारी भरकम बातें करने लग गया.....अब समय है इस पोस्ट को बंद करने का ... खुश रहिए, मस्त रहिए, सुबह सुबह ऐसा रूहानी गीत-संगीत सुनते रहिए...फूल-पत्ते, पंक्षी देखते, निहारते रहिए......सुप्रभात...आप का आज कल से बेहतर हो!

मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

आज फिर दिखा सेहतमंद नाश्ता....

अभी मैं टहलने गया हुआ था.. जहां पर जाते हैं वहां एक बाबा जी का सत्संग चल रहा था ..

सुबह का समय है, बहुत से लोग बाहर से अपना नाश्ता ले कर अंदर आ रहे थे....

मुझे पता है ऐसे मौकों पर नाश्ते का ध्यान आते ही पूड़ी-छोले, भटूरे छोले, जलेबी, समोसे, कचौड़ी का ध्यान आता है ...लेकिन प्रशंसा करनी पड़ेगी कि मैंने यह कहीं भी आसपास बिकता नहीं देखा...

बहुत से लोग बाहर से भुने हुए चने और पेठा लेकर आ रहे थे, लिफ़ाफों में ...अच्छा लगा मुझे यह देख कर ..

मैंने बाहर आ कर भी देखा ...इन सब चीज़ों की ही रेहड़ीयां लगी हुई थीं...भुने चने, केले, पेठा, लईया (चिवड़ा, फुलियां), खीरे-ककड़ी ...


कईं बार ऐसा लगता है कि हम लोग पैसे से अपनी आफ़त ही खरीदते हैं...जितने विकल्प किसी के पास कम होते हैं, मैंने देखा है वे उतना ही पौष्टिक नाश्ता कर लेते हैं...पर्यावरण के साथ साथ जेब, सेहत और साफ़-सफ़ाई के लिए भी उत्तम।

आप सफ़र के दौरान भी देखते होंगे कि बहुत से लोग अपना खाना साथ ही लेकर चलते हैं...वे लंबे समय पर चलने वाला खाना बनाने और रखने के सभी जुगाड़ अच्छे से जानते-समझते हैं... लईया-चना, चिवड़ा, सत्तू ....इतने सारे बेहतर विकल्प इन के पास उपलब्ध रहते हैं..

और मेरे जैसे वे लोग जो यह समझते हैं कि पैसा खर्च कर कुछ भी खरीद लेंगे, बेवकूफ़ी ही तो है ...जब भी मैंने सफर में ये पूड़ी-छोले, भटूरे छोले खाए, पकौड़े खरीदे, मेरी तबीयत तब तब खराब ही हुई...मैं अधमोया जैसा हो गया....और जैसे तैसे अपने गनतव्य पर पहुंच कर दवाईयां खाकर उस बिगड़ी तबीयत को दुरुस्त करने में लगा रहा..

अकसर हम लोग जो बाहर खाते हैं हमें पता ही नहीं होता किस तरह के बेसन है, कैसा तेल, कैसा दूध ....हां, सब जांच वांच होती रहती हैं, यह हमें अच्छे से ज्ञान है .. लेकिन अगर आप उन जांचों के भरोसे ही रहना चाहें...

ज्ञान नहीं बांट रहा हूं...बस इतना कह कर बात को विराम दूंगा कि बाहर से खरीदे जाने वाले खाने की तरफ़ सजग रहना होगा.. ऐसे ही तो वह कहावत नहीं बन गई...हमारी सेहत हमारे हाथ में!


दरअसल मुझे कहने में कोई हिचक नहीं है कि जिन लोगों के पास धन ज़्यादा है, उन के पास चोंचलेबाजी भी ज़्यादा हैं...ध्यान आ रहा है कुछ दिन पहले बंबई में एक जगह पर कोई रोटी जैसी चीज़ खा रहा था ...(मुझे उस का नाम नहीं पता)...रोटी जैसी ही थी दिखने में तो ...उस के ऊपर गुड़ की शक्कर का लेप लगा हुआ था....बिल्कुल थोड़ा, लेकिन उस का दाम १५० रूपये के करीब था..बताया गया मुझे कि यह रोटी अलग अलग तरह के अनाज को मिला कर तैयार की जाती है .. शाबाश! ..न तो मेरी भूख मिटी न ही प्यास...


अभी ध्यान आ रहा है अमृतसर के नाश्ते का ..हम लोग भी पहले यही सब कुछ रोज़ ही खाया करते थे....


कभी कभी खाने के लिए तो ठीक है यह सब कुछ..

मैं तो बहुत बार मज़ाक में कहता हूं कि अमृतसर के लोग तो भई खाते-पीते ऐसे हैं जैसे कि वे रब की जंज पर आये हुए हों...(रब की शादी पर बाराती बन कर आए हुए हों)...पंजाब में ऐसा खाना ही पसंद किया जाता है .. इसलिए यह फिक्र करने वाली बात है!



सोमवार, 10 अप्रैल 2017

कभी खुश ही हो जाया करो...

सब से पहले एक गाना लगा देता हूं...सोमवार की अल्साई हुई सुबह को चमकाने का एक छोटा सा उपाय..

हर दिल जो प्यार करेगा, वह गाना गायेगा..

कल ज़ुकाम-खांसी की वजह से सारा दिन घर पर ही था...ज़ाहिर है बस रेडियो ही सुनना था और ४-५ अखबारें ही पढ़नी थीं...
कल के हिन्दुस्तान समाचार-पत्र के संपादकीय पन्ने पर एक लेख यह भी था...


इस का शीर्षक तो आप देख पा ही रहे हैं...अगर इस लेख को भी अच्छे से पढ़ना चाहें तो आप इस पिक्चर पर क्लिक कर के ऐसा कर सकते हैं....संक्षेप में मैं ही बता देता हूं इस लिलि सिंह के बारे में जो मूल रूप से हिंदोस्तान से है, पेरेन्ट्स बाहर बस गये थे ...वहां पर यह डिप्रेशन से ग्रस्त हो गई..किसी से बोलचाल नहीं, घर से बाहर निकलना नहीं, हर समय बेहद उदासी छायी रहती..वगैरह वगैरह....घर वाले अलग परेशान ...


लिलि सिंह को आइडिया आया कि अपनी बात मजाकिया तरीके से मोबाईल पर रिकार्ड कर के सुनी जाए...इसने ऐसा ही किया, इसे खूब हंसी आई...हल्कापन महसूस हुआ ...फिर इसने वही वीडियो अपने दोस्तों के साथ शेयर करने शुरू कर दिये...और फिर यू-ट्यूब पर अपलोड़ करने शुरू कर दिये....इस के यू-ट्यूब चैनल का नाम है सुपरविमेन  (इस पर क्लिक कर के आप वहां पहुंच सकते हैं) .. एक करोड़ से ज़्यादा फालोवर हैं और लाखों लोग इस के वीडियो देखते हैं...और ज़ाहिर सी बात है कमाई भी करोड़ों में है ...

मैंने भी एक वीडियो खोला लेकिन मेरे से एक दो मिनट से ज़्यादा नहीं देखा गया....पता नहीं जुकाम की वजह से या फिर लेंग्वेज प्रॉब्लम ...शायद दोनों ही ....लेकिन मेरे देखने या ना देखने से लिलि सिंह के सेलिब्रिटि स्टेट्स पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता ...लेेकिन जिस बात पर मैं दरअसल ज़ोर देना चाहता हूं वह यह है कि इस लड़की ने कैसे डिप्रेशन को भगाने का बेहतरीन तरीका ढूंढ लिया...


वैसे तो यहां भी अलग अलग क्षेत्रों में कामेडियन लोगों ने धूम मचा रखी थी ...हम अपने ज़माने को याद करें तो काका हाथरसी, हुल्लड़ मुरादाबादी, फिर कालेज के दिनों में सुरेन्द्र शर्मा, पंजाबी में घुग्घी और भगवंत मान, भल्ला...और आज कल ज़ाकिर खान ने यंगस्टर्ज़ में धूम मचा रखी है ... कुछ दिन पहले मैं उस का एक वीडियो देख रहा था...बहुत से हैं आज की तारीख में हंसने-हंसाने वाले वैसे तो ...क्योंकि आज यह भी एक धंधा अच्छा चल निकला है ...बुराई भी नहीं है कुछ , अगर किसी में टेलेंट है और वह उस को भुना रहा है तो बढ़िया है, किसी को क्या आपत्ति हो सकती है ...बहुत बढ़िया है ...


दूसरी एक अखबार में ..कौन सी अमर उजाला में यह लेख दिख गया...


यह भी किसी लाफ्टर गुरू ने लिखा है ..इस में कुछ बातें हैं जिन्हें मैं आप से शेयर करना चाहता था, इतना सब कुछ लिखने का मन नहीं था, इसलिए कागज़ पर लिख लिया था ..क्योंकि एक दो बातों से मैं सहमत नहीं हूं इस लाफ्टर गुरू से ..




मैं इस बात को पचा नहीं पा रहा हूं...
एक बात शेयर करूं आप से ...मेरे से कभी भी इन लाफ्टर क्लबों-वबों में कभी नकली तरह से हंसा ही नहीं गया...इस से आदमी एक तरह का अजीब सा प्रेशर अनुभव करता है ...

मुझे यह नकली हंसी और असली हंसी बात पल्ले भी नहीं पड़ी, मैंने इसे समझने के लिए दिमाग पर ज़ोर दिया भी नहीं....क्योंकि मेरे विचार में यह भी एक भ्रम ही हो सकता है ...

चार्ली चैप्लिन ...हंसी के इस जादूगर को कोटि कोटि नमन
असली हंसी असली होती है, दोस्तो...बच्चों को कभी हंसते देखिए....यारों-दोस्तों को आपस में बैठ कर हंसी ठट्ठा करते देखिए....वह है असली हंसी ... मेरी चिंता यही है कि कम से कम इसे तो हम लोग असली ही रहने दें....नकली हंसी हम लोगों को कुछ भी फायदा नहीं कर सकती....

अब ये कौन सा लाफ्टर योग कर रहे हैं...इन की हंसी में देखिए कितना असलीपन है !

एक विचार कल से कौंध यह भी रहा है कि नकली हंसी हंसने के लिए बंदा अलग तरह की मिट्टी का बना होना चाहिए....क्योंकि उन्मुक्त "असली" हंसी के लिए बस हमाारा अपने सगे-संबंधियों, दोस्तों, बच्चों के साथ बैठना ही काफ़ी है, बाकी सब कुछ अपने आप ही हो जाता है क्योंकि हमें केवल और केवल अपनी बेवकूफ़ियों पर ही हंसी आती है ....अकसर हम लोग सुनते भी हैं कि बंदे को अपने आप पर हंसना चाहिए....

मुझे पूरा विश्वास है कि नकली हंसने के लिए आप को शायद कुछ हद तक  नकचढ़ा सा होना भी ज़रूरी होता है ....यार, सीधी सी बात है दूसरों पर हंसी तभी आयेगी जब हम उन का उपहास करेंगे ..अपने आप से उन्हें कमतर समझेंगे....यह किसी विरले से ही हो पाता है (और होना भी नहीं चाहिए).....मुझे भी किसी का मज़ाक बनाना बिल्कुल पसंद नहीं ....पहले अपनी हिमाकतों से तो निपट लें...दूसरे की ज़िंदगी है, उसे जीने दें... 


लैपटाप लेकर मैं लिखने तो बैठ जाता हूं ..लेेकिन चंद मिनट लिखने के बाद ध्यान आता है कि इस में लिखने वाली बात तो कुछ थी ही नहीं....सब लोग ज्ञानी हैं आजकल, सब बातों का ज्ञान रखते हैं....

बस, मुझे यह नकली असली हंसी बात ने उद्वेलित किया तो यह सब लिख दिया....दरअसल मुझे लगता है कि यह हंसना-हंसाना. .और लाफ्टर थैरैपी भी करोड़ों -अऱबों का धंधा होता होगा ...लोग परेशान हैं, उन की बात सुनने वाला कोई नहीं है ...कुछ दिन पहले एक जगह पर पढ़ रहा था कि लोगों की ज़िंदगी की टच ही खत्म होता जा रहा है ...किसी को छूने के भी बड़े सकारात्मक परिणाम होते हैं ...वृह्द विषय है फिर कभी ...लेकिन उस में लिखा था कि लोगों को जादू की झप्पी देने के लिए भी एँगेज किया जाता है ...पेमेन्ट पर ......सच में यह कहां आ गये हम ! 

यह पोस्ट लिखते लिखते जो बालीवुड गीत मेरे ज़ेहन में आ रहे थे, उन्हें लगा दूं यहां पर ?......बस, हंसते रहिए, मुस्कुराते रहिए....हो सके तो अपने आप पर, बीसियों कारण मिल जायेंगे....ढूंढना नहीं पड़ेगा...


रविवार, 9 अप्रैल 2017

रेल बर्थ वाली नई खबर पता चली?

जितना सब्र मैंने जनरल डिब्बे में सफ़र करने वाले लोगों में देखा है ...कहीं नहीं देखा ..बंदे के ऊपर बंदे चढ़े हुए, बाहर तक लटके हुए लोग कंधे से भारी भरकम झोला लटकाए हुए....अकसर ऐसे मंजर देख कर इन सब की सलामती की दुआ ज़रूरत मांग लिया करता हूं ...मुझे तो यही सोच कर डर लगता है कि यार, ये लोग एन नंबर या दो नंबर के लिए कैसे रास्ता बनाते होंगे ...लेकिन यकीनन कुछ तो करते ही होंगे...क्योंकि कभी की पतलून गीली होती भी नहीं और इन डिब्बों की आबो-हवा भी बदलती नहीं दिखी...

मैं कैसे कह सकता हूं इतने यकीन से?...ज़िंदगी में कभी न कभी कुछ बार तो ऐसे हालात में सफ़र किया ही हुआ है ....

जन साधारण में इतना सब्र कि जनरल डिब्बे में ऊपर वाली बर्थ पर चार छः लोग बैठे हुए किसी की पसीने से लथपथ कमीज़, अत्याचार करने जैसे बदबूदार जुराबों, बिना रुमाल रखे की गई खांसी, छींके, डकारें, गैसी गुब्बारे, जुकाम, बीड़ी-सिगरेट का निरंतर निकलता धुआं....ये सब बिना किसी चूं-चां के सहते चले जाते हैं...

पता नही मैं यह लिख कर कहीं आम आदमी की हर जगह बस सब कुछ सहने की इस मजबूरी को ग्लोरीफॉई तो नहीं कर रहा हूं..लेकिन यह सच भी तो है ...

असल में हिंदोस्तान के जनमानस की कभी हमें तो समझ आई ही नहीं... समझदार ये इतने हैं कि जब चाहें किसी भी सरकार को बदल देते हैं या आगे पांच साल के लिए बढ़ा देते हैं ...और नासमझ ऐसे कि हर किसी की बातों में आ जाते हैं....उस दिन मैं एक जगह टहल रहा था तो मैं एक सत्संग के स्टाल्स की तरफ़ निकल गया ...पास में ही था....मुझे देख कर इतनी हैरानी हुई कि साधारण महिलाएं जो अपनी सेहत के लिए बीस रूपये भी खर्च करना एक बहुत बड़ी फिज़ूलखर्ची समझती हैं, वहां कुछ यंंत्रों-तंत्रों, मंत्रो, चोलों, आसन आदि के लिए ६०० रूपये ..१२०० रूपये खुशी खुशी अपने छोटे पर्स से तुंरत निकाल कर अपने परिवार के लिए सुनहरे सपने खरीद रही थीं....

मैं तो वहां दस मिनट भी रूक नहीं सका....मेरा दिमाग बगावत करने लगता है ऐसे मंजर देख कर ..

हां, खबर पर आते हैं... रेल बर्थ वाली नईं खबर पर ....तो जनाब, खबर यह है कि अब ट्रेन छूटने से चार घंटे पहले ही यात्रियों को उन के डिब्बे और बर्थ का नंबर पता चलेगा....रेलवे यह शुरूआत राजधानी गाडियों से कर रही है और फिर धीरे धीरे इन्हें अन्य गाड़ियों पर भी लागू कर दिया जायेगा ...

खबर पढ़ने से एक बार तो ऐसे लगा कि यह क्या हुआ, चार घंटे पहले तक इतना सुस्पैंस क्यों?

लेकिन जब खबर पूरी पढ़ी तो पता चला कि यह कितना सराहनीय प्रयास है ....दरअसल होता क्या है कि गाड़ियों में नीचे वाली बर्थ के चाहवान अधिकतर होते हैं ...ऐसे में जो लोग बहुत पहले से टिकट बुक करवा लेते हैं, उन्हें तो नीचे वाली बर्थें मिल जाती हैं...चाहे वे नौजवान ही होते हों.....और बाद में जैसे जैसे सीटें बची खुची रह जाती हैं...वे सब की सब ऊपर वाली रह जाती हैं... और ऐसे में बुज़ुर्ग और महिलाओं को खासी दिक्कत हो जाती है....

इस खबर को आप पूरा यहां पढ़ सकते हैं... रेलवे का बड़ा फैसला

महिलाओं और बुज़ुर्गों को इस से कितनी ज़्यादा तकलीफ़ होती है, इस के हम सब साक्षी हैं और भुक्तभोगी भी रहे हैं..जब हमारे साथ बुज़ुर्ग चल रहे होते हैं ..

दरअसल रेलवे ने कोई बढ़िया सा साफ्टवेयर इस्तेमाल कर के यह व्यवस्था शुरू करने की सोची होगी ...इस की जितनी प्रशंसा की जाए कम है ...

बात खत्म करने से पहले ...मैं एसी डिब्बों में सफर करने वाले कुछ लोगों के कम सब्र की भी तो बात कर लें.....पहले होता था कि पहले दर्जे या एसी दर्जे में सुबह कुछ सात से रात नौ दस बजे तक उस की बैकरेस्ट को ऊपर ही रखना होता था...और लोग अकसर ऐसा ही करते थे .. ताकि ऊपर की सीट वाले को नीचे बैठने में दिक्कत न हो ...जब वह ऊपर चढ़ जाता तो नीचे की बर्थ वाला भी अपनी बेकरेस्ट नीचे कर लेता .. और बिछौना बिछा लेता ...

लेकिन अब तो ऐसा होने लगा कि आप किसी एसी डिब्बे में घुसें और अगर आप की ऊपर वाली सीट है तो नीचे वाले बंदे ने पहले ही चंदर कंबल बिछा रखा होता है ..समझ ही नहीं आता कि बूट कहां बैठ कर उतारें, खाना कहां बैठ कर खाएं....यह आप सब के साथ भी होता ही होगा... हर बंदे की अपनी अपनी संवेदनशीलता है ... क्या कहें! जगह जगह पर उलझने से भी कुछ हासिल नहीं होता !

 टॉपिक को थोड़ा खुशनुमा बनाते है ं...अभी १०४ एफ एम पर पिक्चर पांडेय नाम से एक प्रोग्राम चल रहा है ...बॉबी फिल्म के इस गाने की बातें चल रही हैं और यह लो, अब यह बज भी रहा है ....लेकिन इस गीत मेरे लिए सब से स्पेशल इसलिए है क्योंकि इस की शुरुआती ट्यून मुझे जबरदस्त पसंद है ..यह मुझे मेरे आठवीं कक्षा के दिनों को याद दिलाती है .. ४०-४२ साल हो गये ...इस की ट्यून अभी भी उतनी ही फेवरेट है... 

शनिवार, 8 अप्रैल 2017

स्कूल के साथियों ने किया कमाल...और धमाल!

 हमारा स्कूल जहां से हम सब बंदे बन कर बाहर निकले

मैंने शायद पहले कहीं इस बात का ज़िक्र किया है कि हमारे स्कूल के साथियों का एक वाट्सएप ग्रुप है ...जो हम सभी को सारे ग्रुप्स में से अधिक प्रिय है....कालेज वाले दिनों के भी, और प्रोफैशन लाइफ वाले दौर के दौरान जुड़ने वालों के साथ वाट्सएप ग्रुप भी हैं, लेकिन सब से ज़्यादा ओपननैस इसी स्कूल वाले ग्रुप में दिखती है ...

स्कूल के बारे में थोड़ा बता दें ... यह डी ए वी सीनियर सैकंडरी स्कूल अमृतसर के प्रसिद्ध हाथी गेट के पास स्थित है ...१०० साल से भी पुराना है ...१९७३ से १९७८ तक याने पांचवी कक्षा से मैट्रिक तक हम लोग इसी स्कूल में थे ...कोई हमारे साथ छठी कक्षा में जुड़ा, कोई आठवीं में आया...लेकिन जब भी कोई आया हमारे सब के रंग में रंगता चला गया...

 हमारे स्कूल में हर क्लास में लाउड-स्पीकर लगे हुए थे...हर दिन की शुरुआत गायत्री मंत्र से होती थी और उस के बाद हाल में रोज़ाना हवन होता था..जिस में हर क्लास बारी बारी से सम्मिलित हुआ करती थीं...शायद दो महीने के बाद बारी आती थी...ठीक से याद नहीं है..
स्कूल मैगजीन अरूण के ४० साल पुराने एक अंक से ...
आज से पंद्रह साल पहले मैं एक लेखक शिविर (राइटर्स वर्कशाप) के सिलसिले में अमृतसर गया था..कुछ दिन वहां रहने का मौका मिला ...मैं इन दिनों शिविर के काम से जैसे ही फारिग होता, अपने स्कूल के साथियों का अता-पता निकालने निकल पड़ता....वह सुंदर कहावत भी तो है...ढूंढने से तो परमात्मा भी मिल जाता है ...मुझे दो चार के ठिकाने पता थे...बस, वहां से दूसरों के ठिकाना का पता चलता गया....चाहे मैं किसी के पास चंद मिनट ही रुका लेकिन जो खुशी मुझे मिली वह मेरे लिए ब्यां कर पाना मुश्किल है ..

Lovely Quote ...absolute truth!

वाट्सएप की पावर का तो अंदाज़ा मुझे तब भी हुआ जब इन्हीं साथियों में से कुछ ने मशक्कत कर के 30 साथियों के साथ एक वाट्सएप ग्रुप बना लिया...बहुत अच्छा लगता है ...

इस ग्रुप में कुछ भी कहने लिखने का फायदा सब से बड़ा यह है कि कोई किसी को judge नहीं करता...और ऐसी ज़ुर्रत कोई करे भी करे कैसे...जो किसी के मन में आता है वह वही बात कहता है ...लिखता है ...

मैं ही शायद इन सब से इतना दूर बैठा हूं ..बाकी तो अमृतसर में ही बसे हुए हैं...एक साथी मोगा में, एक कैथल में ....ऐसे कुछ कुछ हैं बाहर भी ...


इन ब्वायज (इन्हें स्कूल ब्वायज़) ही कहना ठीक लगता है ....क्योंकि हम सब की हरकतें भी वैसी ही हैं...इस ग्रुप का सब से बड़ा फायदा यह है कि इस में बात करते-लिखते वक्त बंदा अपने आप को १३ साल का ही महसूस करने लगता है ...वही ठहाके, वही लड़कपन, वही बेपरवाही ...

हां, तो इन्होंने कल शाम अमृतसर की एक क्लब में एक गेट-टु-गेदर रखा ....मैं नहीं जा पाया....अमृतसर में रहने वाले बहुत से साथी भी नहीं आ पाए...कल इन दस साथियों का जमावड़ा लगा हुआ था..लेकिन हम कुछ तीन चार साथी इन को बार बार फोन पर बात कर के परेशान किये जा रहे थे ...इस पार्टी के दौरान मुझे भी सब से साथ बातचीत करने का मौका मिला ...बेइंतहा खुशी हुई...

जब ये सब लोग सही सलामत घर लौट गये और सोने की तैयारी करने लगे तो कहीं जा कर वाट्सएप पर मैसेजिंग बंद हुई....

 (बाएं से )>>>गुलशन अरोड़ा, संजीव पोपली, राज कपूर 

सब से बाएं बैठा है रमन भाटिया 

 (बाएं से ) >> मधुर बंसल, सुनील महाजन (छुपा रुस्तम), अतुल खन्ना, अनिल महाजन, मंगत राम

यह हरी टी-शर्ट में है नवल किशोर 

ये सब के सब अपने अपने फील्ड़ की धुरंधर हस्तियां हैं अमृतसर की ...  काफी तो बिजनेस में हैं...और बिजनेस भी ऐसे जिसे हम लोग कहते हैं कि ये पुराने ज़माने से रईस हैं, कोई किसी नामचीन स्कूल का वाईस-प्रिंसीपल जो लाफ्टर चैनल के कपिल और प्रभाकर का उस्ताद भी है, कोई किसी सरकारी ब्लड-बैंक का प्रभारी और कोई किसी बडे़ डॉयनोस्टिक सैंटर का मालिक और कोई किसी बड़ी ड्रग कंपनी में बड़े ओहदे पर तैनात है  ... लेकिन सब से सब बहुत ही ज़्यादा विनम्र....इन में इन का कुछ नहीं, यह अमृतसर की मिट्टी की देन है।

बस, इस पोस्ट के लिए इतना ही काफी है, बस मैं इन तस्वीरों को जल्दी से जल्दी सहेज लेना चाहता था...


अगली बार जब भी हम स्कूल के साथियों का ऐसा जमावड़ा लगेगा ...हमारा पहुंचा भी ज़रूरी होगा, वरना फालतू में पिट-विट जाएंगे..

कल बड़े बेटे ने बंबई से एक बुज़ुर्ग महिला की यह तस्वीर भेजी ...बता रहा था कि ७० के करीब की इन की उम्र थी और यह चेतक पर चली जा रही थीं.....God bless her.....गुरदास मान याद आ गया अचानक...गुरदास मान जो नसीहत दे रहे हैं, यह मेरे स्कूल के साथियों के लिए भी है ...




शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

डिप्रेशन ..आओ खुल कर बात करें..

आज विश्व स्वास्थय दिवस है ...जिस का इस बार का थीम भी यही है ..डिप्रेशन...आओ खुल कर बात करें..

लेेकिन आज मेरी तो बिल्कुल भी इच्छा नहीं है कि मैं वही घिसी पिटी बातें लिख कर आप को पका दूं...डिप्रेशन के बारे में जितनी भी काम की बातें हैं आप रेडियो, टीवी अखबार में और नेट पर देख-पढ़ लेते हैं, मुझे पता है आप सब नेट-सेवी हैं ...मैं तो बस आप से ऐसे बतियाना चाहता हूं जैसे हम लोग चौपाल पर बैठ कर हंसी-ठट्ठा कर रहे हों...ठीक है?

मुझे कभी भी निबंध की तरह अपने ब्लॉग पर कुछ भी लिखना अच्छा लगता ही नहीं...कि डिप्रेशन बीमारी है क्या, इस के लक्षण क्या हैं, बचें कैसे और इलाज कैसे और कब करवाएं?....यह मेरा विषय है ही नहीं, क्योंकि मैं कोई विद्वान मनोचिकित्सक हूं ही नहीं....इसलिए बिल्कुल मन की बातें ही कहना चाहूंगा...

पढ़ाई लिखाई पूरी होने के बाद यह शायद १९९४ के आस पास की बात है कि मेरी भी तबीयत कुछ चिंता करने वाली हो चली थी..खामखां बातों की चिंता ..काल्पनिक बातों की चिंता ...बंबई में रहते थे ...मेरे साथ किसी ने ऐसे ही ज़िक्र किया कि एक योग विद्या का प्रोग्राम चलता है ...सिद्ध समाधि योग ... संयोगवश वह उसी दिन शुरू होने वाला था ..कांदिवली में ...मैं शाम को पहुंच गया ...पहले दिन इंट्रो ही होती है ..एक पेंफलेट मिला ...उसे पढ़ा तो तो उसमें एक बात लिखी थी जिस पढ़ कर मैंने उसी समय निश्चय किया कि यह तो अवश्य करूंगा ...उस में लिखा था कि किस तरह से हर कोई तनावग्रस्त है ...और तो और डाक्टर लोग मरीज़ को तो कहते हैं कि आप तनाव मत करिए लेकिन स्वयं वे भी तनाव से ग्रस्त हैं...

मैं अब सोचता हूं कि जो डाक्टर स्वयं सिगरेट पीता हो या पानमसाला चबाता हो, वह कैसे सख्ती से अपने मरीज़ को यह सब छोड़ने के लिए कह सकता है!

बस यह बात तनाव वाली बात मेरे दिल को छू गई ...और मैंने वह कोर्स किया ...उस के बाद मैं नियमित प्राणायाम् करता ...ध्यान भी हो जाता अपने अाप ही ....खाना-पीना भी उस शिक्षा के अनुसार ही चलता रहा ..बहुत समय तक मैं जुड़ा भी रहा ...एक फर्स्ट हैंड अनुभव जो योग का बेहद उम्दा रहा ...

अब मैं आलस की वजह से प्राणायाम् नहीं करता, ध्यान भी नहीं होता ....बस टहलना हो जाता है...वह भी कईं कईं हफ्तों के अंतराल के बाद...साईक्लिंग करने की सोचता रोज़ हूं. लेकिन कभी कभी ही जाता हूं...(धूप हो गई है, साईकिल में हवा नहीं है, ट्रैफिक बहुत है ...इन बहानों के चलते ...) ब्लड-प्रेशर की एक गोली खाता हूं..वह भी महीने में बीस दिन भूल जाता हूं....तो, यह तो हुई मेरी अापबीती ...बस, खाना पीना ठीक ले लेते हैं....कोई मांस-मझली नहीं, दारू-तंबाकू नहीं कभी भी ..

एक बात याद आ गई ...लगभग दस साल पहले की बात है .... एक मनोरोग चिकित्सक ने नया नया क्लीनिक खोला था ...उस का इश्तिहार आया पेपर में ..पढ़ा.....उस ने बड़े सनसनीखेज तरीके से उस लिखवाया था....

हर दस लोगों में से चार मनोरोगी...इन में से कहीं आप भी तो नहीं! .....और उस के आगे उसने दस बीस लक्षण लिख दिए....वे लक्षण ऐसे थे कि दस में से चार तो क्या, दस में से दस लोगों में वे दो चार मिल जाएं...

उस मनोरोग चिकित्सक की विद्वता को मैें सेल्यूट करता हूं ..और मनोरोगियों को बिना विलंब इन से संपर्क भी करना ही चाहिए...और कईं बार दवाईयां लेना ज़रूरी भी होता है....वे इस तरह के रोगों के एक्सपर्ट होते हैं, उन्हें तो अंदर तक की खबर होती है ...

और हम ठहरे बक बक करने से अपने आप को रोक न सकने वाले.....

वैसे मुझे आप बताइए कि आपने अपने आस पास कितने लोगों को डिप्रेशन के लिए किसी मनोरोगचिकित्सक से नियमित परामर्श अथवा दवाई लेते देखा है....

बहुत कम, आप को भी यही लगता है ना!

मैं एक बिल्कुल लेमैन की तरह से लिख रहा हूं ... लेकिन कोई बात नहीं ...ब्लॉग है, यह आज़ादी तो है ही .... मैंने तो जितने लोगों को भी डिप्रेशन की दवाईयां लेते देखा है ...ये बहुत ज़्यादा पढ़े लिखे दिखे ....और एक बात कहते हैं हमेशा कि दवाई लेते हैं तो सारा दिन नींद घेरे रहती है और न लेते तो सारा दिन खाते ही रहते हैं...

हां, तो मेरा यह सब लिखने का आशय यही है कि मनोरोग चिकित्सक से अवश्य मिलें, बात करें, उन की सलाह भी मानें, अगर दवाई के लिए कहें तो वह भी आप को लेनी ही होगी, आप के पास कोई चारा भी तो नहीं ...

लेकिन इतना सब कुछ लिखने के बाद मैं यह भी लिखना चाहता हूं कि डिप्रेशन है, उदासी है ...तो पहले कुछ फ्री में मिलने वाले नुस्खे भी तो आजमा लिए जाएं...समस्या हमारी अब यह हो गई है कि हम होलिस्ट्क मैडिसन प्रैक्टिस नहीं कर पा रहे ...हर विशेषज्ञ अपने अपने हिस्से की बीमारी ढूंढने में पारंगत होता जा रहा है...trying perhaps up to molecular level! कोई बुराई भी नहीं है ....

लेकिन मुझे लगता है मन की उलझनें मन से ही सुलट सकती हैं....चलिए, मैं भी कुछ ऐसे ही उलट-सुलट विचार यहां लिख लूं...जो मुझे लगता है कि किसी को भी अवसाद से ऊपर उठा सकते हैं, और बचा भी सकते हैं... इन में से मैं बहुत से स्वयं भी नहीं करता हूं... I am in noway holier than you! ...लेकिन इन सब उपायों की सार्थकता को अनुभव अवश्य कर चुका हूं...

 आज सुबह मैं टहलने गया क्योंकि मुझे यह पोस्ट लिखनी थी ... 
सुबह जल्दी उठें, योग-प्राणायाम् करिए,  टहलने निकल पड़िए, शारीरिक परिश्रम करें... साईक्लिंग करें, कुछ खेलें....अपनी क्षमता के अनुसार ...अगर दौड़ नहीं सकते, तो टहलिए, जितना भी चल सकते हैं, चलिए, फिर आराम कीजिए....मेरे कुछ मरीज़ कहते हैं कि हम ज़्यादा चल ही नहीं सकते, मैं उन्हें कहता हूं पड़ोस के किसी पार्क में एक घंटा चले जाइए, सुबह की सूर्य की रोशनी में स्नान कीजिए, कहीं कोई गपशप हो जाए तो ठीक, वरना और भी ठीक, पेड़ पौधों की भव्यता से ऊर्जा मिलेगी आप को निःसंदेह ....चहचहाते पंक्षी आप की ज़िंदगी में भी चहक ले आएंगे ....शर्तिया ...आप तरोताज़ा वापिस लौटेंगे ... आप सुबह मैं भी टहल कर आया हूं... अच्छा लग रहा है, इसीलिए इतना सब कुछ लिख पा रहा हूं..


एक तो बात से बात निकल पड़ती है तो मुझे वह भी लिखनी पड़ती है ...कल एक पर्यावरण से संबंधित समारोह में था, वहां पर एक बहुत बड़े आदमी के घर की तारीफ़ के पुल बांधे जा रहे थे ..होता ही है यह सब कुछ ..करना भी पड़ता है ...हां, इन के घर में सौ तरह के तो पौधे हैं, चंदन का पेड़ भी है और १०० तरह के पंक्षी भी हैं.... उस समय तो मुझे कुछ ज़्यादा समझ में आया नहीं, लेकिन बात में ध्यान आया कि ये सभी पंक्षियों की प्रजातियां उस के यहां पिंजड़ों में कैद होंगी ......यह कोई बड़प्पन की बात नहीं, हमें तो तोते को भी पिंजड़े में रखना बहुत बुरी बात लगती है और १०० तरह की पक्षियों की प्रजातियां पिंजरों में .....पक्षी और फूल टहनियों पर भी मन को लुभाते हैं ...सब को खुशीयां देते हैं , किसी उदास के मन को खिलखिला देते हैं मुफ्त में ...गुलदस्ते और बुके वाले फूल पता नहीं क्यों असली होते हुए भी कितने बनावटी लगते हैं ....


 खाने पीने का ध्यान रखना चाहिए...विशेषकर बढती उम्र के साथ नमक, चीनी और फैट्स और जंक फूड का ध्यान रखें.. तंबाकू, शराब , ड्रग्स से बच कर रहें.... 

जहां तक हो सके खुशमिजाजी कायम रखें...इस से बड़ा कोई स्ट्रैसबस्टर है नहीं असल में ...स्कूल के दोस्तों के वाट्सएप ग्रुप पर इतने बढ़िया बढ़िया जोक्स आते हैं कि कल पता नहीं मैं कितने समय बाद इन चुटकुलों को पढ़ कर अकेला बैठा हुआ भी ठहाके लगा रहा था ....खुलापन बहुत ज़रुरी है ...इस से भी आदमी हल्का बना रहता है ....तने हुए रहने से तनाव ही बढ़ता है ... मैंने ऐसा अनुभव किया है ...मन को तने रहने से तो बढ़ता ही है, मेरे जैसे का तो टाई लगाने से ही बढ़ जाता है .....पता नहीं वह गले में प्रेशर की वजह से या फिर टाई लगा कर मुझे एक अलग तरह से बिहेव करना पड़ता है ..इस की वजह से भी शायद फ़र्क पड़ता होगा...इसलिए मैंने बीस सालों से कभी टाई लगाई ही नहीं, जी हां, किसी भी शादी-ब्याह के समारोह में भी नहीं....क्योंकि हिंदोस्तान में एक रिवाज है कि वैसे चाहे कभी टाई लगाई हो या नहीं, लेकिन किसी की शादी ब्याह में टाई किसी से ही गांठ बंधवानी पड़े, अवश्य टांग लेते हैं.....वह भी चलता है, लेेकिन जब दारू चढ़ने पर ये टाईधारी बेहूदा हरकतें करते हैं ना, उस से सब कचरा हो जाता है ... 

खुलेपन से बात याद आई...एक टीवी के प्रोग्राम में विश्वविख्यात हार्ट रोग विशेषज्ञ ने भी कहा था ..

दिल खोल लै यारां नाल, 
नहीं ते डाक्टर खोलनगे औज़ारां नाल ...

एक दो बातें और कर के आज की चौपाल खत्म करते हैं....

कल टीवी पर ग्लोबल बाबा फिल्म देखी ...आप भी ज़रुर देखिए...किस तरह से कुछ बाबा लोगों ने भोली भाली जनता को अपने चंगुल में फंसा रखा है, आप सब जानते हैं......यू-ट्यूब पर भी पड़ी हुई है यह फिल्म ... पता नहीं इतने बाबा लोग कहां से उग आते हैं और इन के इतने अनुयायी भी कैसे बन जाते हैं, यह सब और भी अच्छे से समझने के लिए इसे देखिएगा...ट्रेलर मैं यहां दिखाए दे रहा हूं.. 


कल विनोद खन्ना साब की तबीयत के बारे में पढ़ा-देखा....आज सुबह मित्र खुशदीप सहगल की फेसबुक पोस्ट दिखी ...जो को मेरी भावनाएं भी व्यक्त करती दिखी....इसलिए यहां चिपकाए दे रहा हूं उसे ....


विनोद खन्ना साब का ज़िक्र हुआ तो उन के कुछ बेहतरीन गीत जो बचपन से लेकर अब तक सुनते चले आ रहे हैं...यहां आप के लिए बजा रहा हूं....आप भी इन गीतों के बहाने अपने पुराने दिनों की यादें ढूंढिए और इसी बहाने डिप्रेशन से दूर रहिए और इस महान कलाकार के शीघ्र अति शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना करिए...