रविवार, 4 सितंबर 2016

मीडिया डीटॉक्सिफिकेशन भी कभी कभी होनी ही चाहिए...


कुछ दिन पहले यह मैसेज कहीं से घूमता-फिरता मेरे तक पहुंचा और मुझे मीडिया डीटॉक्सीफिकेशन का ध्यान आया...बच्चे जब छोटे थे और टीवी के सामने से उठने का नाम नहीं लेते थे तो हम ने इन्हें टीवी से दूर रखने के लिए मीडिया के इस विष को कम करने के लिए एक लकड़ी की छोटी सी डिब्बी ली...जिस में एक छोटा सा ताला लग जाता था....और उस में एक इस तरह की झिर्री रखवा ली जिस से टीवी के प्लग को अंदर उस में रख दें तो वह अपने आप बिना ताला खोले बाहर नहीं निकल पाता था...

कितनी खतरनाक जुगाड़बाजी है न....हमें भी हर रोज टीवी के प्लग को उस के अंदर डाल कर ताला लगाते हुए बहुत हंसी आती थी...और बच्चों को हम से ज़्यादा हम की बेवकूफी पर आती थी...कुछ ज़्यादा चल नहीं पाया यह जुगाड़...बड़ा बोरिंग काम था पहले ताला लगाओ, फिर उसे खोलो ....कभी चाभी न मिले तो और आफ़त..

लेकिन उस दौर में यह डीटॉक्सीफिकेेशन ज़रूरी जान पड़ती थी जैसे कि आज कल अखबार न आने पर हो रहा है ...
कल मैंने लिखा था कि पिछले तीन दिन से अखबार नहीं आ रही ... आज चौथा दिन है...आज तो मैं बाज़ार भी घूम आया कि पता करूं कहीं से तो मिल जाए यह अखबार....लेेकिन कहीं नहीं मिली...लखनऊ भी विचित्र शहर है इस मामले में कि पिछले चार दिन से शहर में अखबार ही नहीं आ रहे...

शायद यंगस्टर्ज़ को इस से कुछ खास फ़र्क नहीं पड़ता...हम जैसे अधकचरे बड़ऊ लोगों को अधिक फर्क पड़ता है क्योंकि तकनीक होते हुए भी हमें ट्रेडीशन में ज़्यादा लुत्फ मिलता है ....कल ई-पेपर खोला भी ...लेकिन मन ही नहीं करता ..अगले ही पल उसे बंद कर दिया...वही अखबार के पन्नों को तोड़-मरोड़ना, उन पर कलम घिसना, उन से कुछ काट-छांट लेना, किसी खबर की फोटू खींचना...ये सब खेल तो हम अखबार से ही कर सकते हैं...

बहरहाल, उन अखबार वाले हाकर्ज़ के साथ पूरी सहानुभूति और समर्थन जताते हुए मैं यह कहना चाहूंगा कि अखबार न आने से अच्छा भी लग रहा है ...सुबह इतना खाली समय होता है ...कुछ भी आलतू-फालतू पढ़ने का झंझट नहीं ...पहले एक दो दिन तो ऐसे लगा कि पता नहीं कहां गई सारी खबरें लेकिन अब महसूस भी नहीं होता...चाहे अगले दस पंद्रह दिन न आएं अखबारें...
अखबारों की कमाई के बारे में मैं जानता हूं कि इन्हें विज्ञापनों आदि से इतनी कमाई होती है कि ये चाहें तो अखबारें मुफ्त भी लोगों को बांटी जा सकती हैं...लेकिन वही बात है जो चीज़ मुफ्त मिलती है, उसे लोग गंभीरता से नहीं लेते ...रास्ते में मिलने वाले पेम्फलेट को लोग चंद कदमों पर गिरा देते हैं और दो तीन रूपये में लोकल बस में खरीदे अकबर-बीरबल के चुटकुले सहेज कर रखते हैं... 

हां, तो मैं कहना यही चाहता हूं कि इस भौतिकवाद की अंधाधुंध दौड़ में हम हर जगह अच्छे से हज़ामत करवा लेते हैं...हाटेल, रेस्टरां, सर्विस स्टेशन....शापिंग माल ....३९० की दाल मक्खनी की प्लेट लेना भी मंजूर है ...लेकिन इन छोटे छोटे काम धंधे वालों की कोई खोज-खबर नहीं करता....उन्हें फिर अपने हक के लिए इस तरह के हथकंडे अपनाने पड़ते हैं तो इसमें बुराई ही क्या है! 

अखबार इतने दिनों से नहीं आ रहे ....इतने दबावों के बावजूद भी ये मेहतनकश लोग डटे हुए हैं....मुझे भी लगता है कि इन की जो भी वाजिब मांगें हैं वे मान ही लेनी चाहिए...पता नहीं फिर कभी यह हड़ताल इतनी लंबी चल पाए या नहीं...देखिएगा... 

वैसे मैं थोड़ा अपनी अखबार पढ़ने की आदत के बारे में भी बता दूं....बहुत पढ़ी अखबारें...पहले हम लोग पांच छः अखबारें लेते थे...हिंदी-पंजाबी-इंगलिश....कुछ पढ़ते थे कुछ बिना खोले रद्दी में रख देते थे ...उन दिनों मैं मॉस-कम्यूनिकेशन भी पढ़ रहा था ...मेरा प्रोजेक्ट भी कुछ ऐसा ही था ...कंटेंट एनेलेसिस के ऊपर ... बहरहाल, अब कुछ वर्षों से थोड़ी शांति है ...लेेकिन अभी भी मैं अखबार तो सुबह ही ३०-४० मिनट मेें जितनी देख पाऊं, उतनी ही पढ़ पाता हूं....कुछ कॉलम मुझे पढ़ने होते हैं, कुछ लेखों की कटिंग रखनी होती है ...लेकिन कुछ नहीं कर पाता सारा दिन ....जैसे ही अखबार लेकर दोपहर में या देर रात में लेटता हूं, तुरंत नींद आ जाती है...
हां, तो इस तरह से मुझे थोड़ा ध्यान तो रहता है कि मैंने अभी ये ये लेख देखने हैं, इन की कटिंग रखनी है...लेकिन इतने में बाहर देखते हैं कि अखबारों का अंबार लग जाता है ....जैसे कि आज भी लगा हुआ था...लेकिन तभी हमारे रद्दीवाले कबाड़ी महाशय पूतन जी प्रकट हुए कुछ समय पहले....सब कुछ उन के सुपुर्द हो गया......जब भी रद्दीवाला सब कुछ समेट कर ले जाता है तो मुझे इतनी खुशी होती है कि मैं ब्यां नहीं कर पाता ...इसलिए... कि अब कुछ भी पिछली अखबारों में से ढूंढने-पढ़ने-कांटने-छांटने की कोई फिक्र नहीं .... it means everything has been read and understood well! 

तो सच में आज कल हम लोगों का मीडिया डीटॉक्सीफिकेशन दौर चल रहा है ....न तो हम लोग टीवी पर खबरें देखते हैं, न ही नेट पर और अखबारों का हाल तो मैंने ऊपर बता ही दिया है ..बस, अब तो रेडियो का ही एक सहारा है ....कल वह भी कुछ खबरें सुनाने लगा ...पहले ही खबर कि मोदी जी  फिलिंपिन्स गये हुए हैं...बस, उसी समय बत्ती गुल हो गई ....और मैं लंबी तान कर सो गया...उठा तो फौजी भाईयों का प्रोग्राम चल रहा था ... संयोगवश गीत भी यही बज रहा था... 

शनिवार, 3 सितंबर 2016

संदेशे तो तब भी आते ही थे...

अकसर मुझे ध्यान आता है हम लोग जब ननिहाल जाया करते थे तो वहां दीवार में बनी एक कांच की अलमारी के दो हैंडलों पर दो लोहे की तारें टंगी दिखी करती थीं..एक में पुराने से पुराने ख़त और दूसरी तार में पुराने से पुराने बिजली पानी के बिल पिरोये रहते थे..

उस समय तो हमें कहां इन सब के बारे में सोचने की फुर्सत ही हुआ करती थी...अब मैं सोचता हूं तो बहुत हंसी आती है कि कोई खतों वाली एक तार उठा ले तो सारे खानदान की हिस्ट्री-ज्योग्राफी समझ में आ जाए..चाहे तो नोट्स तैयार कर ले... एक बात और भी है न, तब छुपाने के लिए कुछ होता भी नहीं था, सब को सब कुछ पता रहता था...यह छुपने-छुपाने की बीमारियां इस नये दौर की देन है।

लोग अभी भी उन पोस्टकार्ड के दिनों को याद करते थे...मुझे याद है जब हम लोग पोस्ट-कार्ड या लिफाफा डाक-पेटी के सुपुर्द करने जाया करते तो हमारे मन में एक बात घर चुकी थी कि खत अंदर गिरने की आवाज़ आनी चाहिए...आवाज़ आ जाती थी तो हमें इत्मीनान हो जाता था, वरना यही लगता था कहीं उस डिब्बे में ही अटक तो नहीं गया होगा....oh my God! Good old innocent days!

  अभी यह पोस्ट कार्ड लिखते मुझे जवाबी पोस्टकार्ड का ध्यान आ गया ...इन का इस्तेमाल उन हार्डकोर बंधुओं के लिए कईं बार लोग किया करते थे जो खतों का जवाब नहीं देते थे..जवाबी खत इसी तरह से डाकिया थमा देता था ..और जवाबी पोस्टकार्ड पर अकसर खत भिजवाने का पता तक भी लिखा रहता था... आज बहुत कुछ याद आया इसी बहाने...

उन दिनों में सब कुछ विश्वास पर ही चलता था...चिट्ठी डाली है तो मतलब पहुंच ही जायेगी ... डाकिये पर पूरा भरोसा, पूरा डाक विभाग पर पूरा अकीदा, चिट्ठी जिसे भेजी है उस पर भी एक दम पक्का यकीन कि चिट्ठी मिलते ही वह जवाब भिजवा ही देगा... मुझे तो कोई चुस्त-चालाकी के किस्से याद नहीं कि किसी ने किसी की चिट्ठी दबा ली हो और मिलने पर गिला किया हो कि आप की चिट्ठी नहीं मिली..हर घर में चंद लोग ऐसे होते थे जिन की आदतों से सब वाकिफ़ हुआ करते थे...बहरहाल, सब कुछ ठीक ठाक चलता रहता था....शादी ब्याह के कार्ड, रस्म-क्रिया, मुंडन, सगाई ...सब खबरें खत से ही मिलती थीं..

शादी ब्याह से याद आया कि अब तो लोग शादी ब्याह के कार्ड भी स्पीड-पोस्ट से भिजवाते हैं अकसर, वरना कूरियर से ...पहले तो शायद दो तीन रूपये का डाक-टिकट लगा कर बुक-पोस्ट कर दिया जाता था और पहुंच भी जाया करता था...कुछ अरसा पहले की बात है कि मैं एक जगह पर स्पीड पोस्ट करवाने गया ... वहां पर दो पुलिस वाले किसी शादी ब्याह के कार्ड स्पीड पोस्ट करवा रहे थे ...३०-४० तो ज़रूर होंगे ...शायद एक हज़ार से भी ज़्यादा खर्च भी आया था ... किसी पुलिस वाले के बच्चे की शादी के कार्ड थे...

जितनी लंबी लाइनें आज कल स्पीड-पोस्ट के लिए होती हैं, उस से तो यही लगता है कि लोग अब चिट्ठी-पत्री पर भरोसा ही नहीं करते ....यहां तक की रजिस्टरी भी लोग कम ही करवाते हैं...बस, स्पीड-पोस्ट ही चलती है अधिकतर। ठीक है नौकरी के लिए आवेदन करने वाले स्पीड-पोस्ट करवाते हैं, बात समझ में आती है ...आजकल इतनी धांधलियां हो रही हैं भर्ती प्रक्रिया में ...ऐसे में कुछ तो सालिड प्रूफ चाहिए....हम लोग आज से २५-३० वर्ष पूर्व रजिस्टरी करवाया करते थे...हां, क्या आप को पता है कि अब रजिस्टरी लिफाफे नहीं मिलते डाकखानों से, सादे लिफाफे या ५ रूपये वाले डाक-लिफाफे में ही पत्र डाल कर रजिस्टरी करवाई जाती है ...

हमारे जमाने में बड़े-बुज़ुर्ग घर में घुसते ही यह पूछा करते थे कि कोई चिट्ठी आई?....सच में ये ५ पैसे के हाथ से लिखे पोस्टकार्ड और १५ वाले अंतर्देशीय लिफाफे घरों का माहौल खुशनुमा बना दिया करते थे..उन्हें परिवार का हर सदस्य पढ़ता...और फिर उसे संभाल कर रख दिया जाता ...अब वाला चक्कर बड़ा मुश्किल है हर पांच पांच मिनट पर वाट्सएप स्टेटस चैक करना और अपडेट करना ...

चिट्ठी-पत्री के बारे में संस्मरण का पिटारा है मेरे पास, सोच रहा हूं बाकी की बातें अगली कड़ियों में करूंगा..

बहुत लंबे अरसे के बाद आज टीवी पर म्यूजिक इंडिया चैनल पर यह गीत बज रहा है ...सुनेंगे...खुशी की वो रात आ गई...(फिल्म- धरती कहे पुकार के)...







आज फिर अखबार नहीं!

यह अच्छा लफड़ा है, आज फिर अखबार नहीं...

परसों अखबार नहीं आई..हम लोगों ने सोचा हॉकर से मिस हो गई होगी...

कल नहीं आई तो चिंता हुई कि अपना हॉकर प्रजापति ठीक तो होगा...कुछ दिन पहले उस की तबीयत खराब थी..

फोन किया कल...स्विच ऑफ मिला...दो तीन बार करने के बाद जब बात हुई और पूछा कि तबीयत ठीक है, तो पता चला कि उस की तबीयत तो ठीक है, लेकिन अखबार वालों की हड़ताल चल रही है..

मैंने कहा...अच्छा, कोई बात नहीं...

मैं ठीक से समझा नहीं था उस की बात, सोचा कि ड्यूटी पर जाते समय किसी चौराहे से पकड़ लूंगा अखबार ...लेकिन नहीं, वहीं भी अखबार नहीं पहुंची थी...

खबरों का कुछ पता ही नहीं चल रहा आजकल...अखबार का तो यह हाल है ...मुझे यह भी याद नहीं कि टीवी पर खबरिया चैनल को लगाए कितने दिन हो गये हैं...ऐसे ही पता नहीं क्या हो चला है टीवी पर खबरें क्या कुछ भी देखने की इच्छा ही नहीं होती..बस, लगता है रेडियो सारा दिन चलता रहे!

बंबई में जब मैं २०-२२ साल पहले एक सिद्ध समाधि योग का १४-१५ दिन का प्रोग्राम कर रहा था तो एक शर्त थी वहां कि आप लोगों ने अखबार नहीं देखनी जब तक यहां आना है ...हम लोगों ने बात मान ली थी...कभी ऐसा नहीं लगा कि कुछ छूट गया हो..

हमें बताया गया था कि अखबारें सुबह सुबह आप पढ़ते हैं तो सारी निगेटिविटी जबरदस्ती अपने अंदर ठूंस लेते हैं...लेकिन जैसे हम लोग हैं, कुछ दिन तक यह बात मान लीं, लेकिन फिर वापिस अखबार देखना चालू हो गया...

अखबारें इतना बड़ा विलेन भी नहीं हैं, यह हमारे ऊपर है हम उस से क्या ग्रहण करना चाहते हैं...सब तरह का कंटेंट तो बिखरा पड़ा रहता है ...सच में आज के इंसान की आंखें हैं यह अखबार....हम एक तरह से घर बैठे बैठे विश्व-दर्शन कर लिया करते हैं इस के जरिये...

टीवी के खबरिया चैनलों से मुझे आपत्ति है ...जिस तरह से उचक उचक के ऊंची आवाज़ में वे लोग खबरें पढ़ते हैं, सनसनी परोसते हैं....मैं नहीं सहन कर पाता....तुरंत मेरा सिर फटने लगता है ...इसलिए आज कल मुझे टीवी पर खबरें देखना बिल्कुल नहीं भाता....शायद कभी लगी होती हैं तो पांच दस मिनट देख लेता हूं ...वरना यह नहीं कि कभी खबरें देखने के लिए टीवी लगाया हो ....

अखबारों की अलग बात है ...चाहे उन का भी स्वरुप कितना भी बदल गया है ....लेकिन फिर भी आज भी भारत जैसे प्रजातंत्र में जनता में राय तैयार कराने का वे एक जबरदस्त काम तो कर ही रही है... (opinion makers!)

दो दिन से अखबारें नहीं आ रही थीं,कल रात गूगल किया तो पता चला  .... No newspaper in Lucknow for second day


अखबारें हम लोग अपने अपने घरों में मंगवाते हैं, सारा दिन पढ़ते हैं...लेकिन मुझे वह नज़ारा बहुत अच्छा लगता है जब किसी चाय की गुमटी के आसपास, किसी नाई के ठीये के नजदीक चार पांच जीर्ण अवस्था में पड़े लकड़ी के हिलते-डुलते बेंचों और पत्थरों पर टिके आठ-दस लोग एक अखबार को एक साथ चबा रहे होते हैं....एक एक चुटकुला शेयर होता है, सिने-तारिकों की फोटो पर तंज कसे जाते हैं...कार्टून पर एक साथ सब हंसते हैं...गंभीर खबर पर चर्चा करते हैं ....लेकिन वोट किसे देंगे यह राज़ हमेशा अपने मन में छिपाए रखते हैं...इसे कहते हैं असली "चाय पे चर्चा" न कि वह वाली  फेशुनेबल चाय चर्चा जिसे आप सोच रहे हैं!! इन जगहों पर मुझे प्रजातंत्र के साक्षात् दर्शन करने को मिलते हैं!

 छठी-सातवीं कक्षा में जब मैं समाचार-पत्र पर निबंध तैयार रहा होता था तो मेरे पिता जी मुझे ये पंक्तियां कहीं भी उस में फिट करने की ताकीद किया करते थे... और मैं इसे मान लिया करता था...ये लाइनें थीं...

खींचों न कमानो को न तलवार निकालो 
जब तोप मुकाबिल हो तो अख़बार निकालो...

अभी इस पोस्ट का पब्लिश बटन दबाते हैं इन अखबारों के पेज थ्री पर छाए लोगों की असली ज़िंदगी का ध्यान आ गया....पेज-थ्री फिल्म का वह गीत यू-ट्यूब पर मिल गया...आप भी सुनिए... फिल्म ठीक थी, यू-ट्यूब पर पड़ी है, अगर नहीं देखी तो देखिएगा कभी ... फिलहाल तो यही सुनिए...कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पे !


हां, हाकर्स की हड़ताल के बारे में मेरा अोपिनियन यही है कि उन की मांगे तो मान ही ली जानी चाहिए...महंगाई बहुत है, कुछ भी हो, हर मेहनतकश को इतना तो मिले कि वह सम्मानपूर्वक अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके ..इन के पास तो कोई घोटाले कर के घर में करोड़ों रूपये छिपाने का भी कोई स्कोप नहीं है। The society should be liberal and sensitive to the aspirations of these hawkers too! What do you think?