गुरुवार, 14 जनवरी 2016

मधुबन खुशबू देता है ...

बड़े शहरों में जब मैंने पहली बार देखा कि वहां पर मेन रास्तों पर लगी ऊंची ऊंची स्ट्रीट लाइटों की साफ़ सफ़ाई या मुरम्मत के लिए एक ट्रक के ऊपर बड़ी सी सीड़ी लगाई जाती है, मुझे हैरानगी हुई थी...अब तो लखनऊ की मुख्य सड़कों पर भी यह सब दिखता रहता है ..बंबई में अकसर देखा करता कि सड़क किनारे या बीच में डिवाईडर पर लगे पेड़ों की छंटाई भी इस तरह से ही की जाती थी...वहां तो यह सब नियमित चलता ही है क्योंकि डबल-डेकर बसों की मूवमेंट के लिए ऐसा नियमित करना ही पड़ता है...

कटाई-छंटाई तो देख ली, समझ में आ गया लेकिन मैंने कभी इस के बारे में ज़्यादा नहीं सोचा कि इन को नियमित कौन पानी देता होगा!

इस के बारे में मेरी यही बचकानी सोच हमेशा से रही कि हो जाते होंगे, एक बार पौधे रोप दिए जाएं, जानवरों से बचाने के लिए ट्री-गार्ड्स् लगा दिए जाएं तो पौधे अपने आप पल्लवित-पुष्पित हो ही जाते होंगे... बिल्कुल होंगे वाली ही बात थी.. मैं यही सोचा करता था कि जब पानी बरसता है तभी इन की भी प्यास बुझ जाती होगी और ये धुल भी जाते होंगे ...उन दिनों पानी से धुल कर इन के चमकते-दमकते पत्ते मन को बहुत भाते हैं।

अकसर हम देखते हैं कि शहर के कुछ मेन चौराहे या तिराहे आदि होते हैं उन्हें किसी न किसी सरकारी या गैर-सरकारी संगठन ने गोद लिया होता है ... वे वहां पर अपने विज्ञापन लगा देते हैं...और उस जगह पर लगे सभी पेड़-पौधों और बेल-बूटियों का रख-रखाव का पूरा जिम्मा उन पर ही होता है ... बढ़िया सी लाल-हरी रोशनी भी वहां पर लगी होती है...it's fine ... Win-Win situation for both for the local civil authorities and the advertisers!

यह जो रास्तों पर पेड़ लगे होते हैं ..जिन पर किसी बैंक या किसी संस्था आदि के नाम की पट्टी लगी होती है, इन के बारे में बस इतना ही अनुमान जानता हूं कि वह संस्था इन जगहों पर विज्ञापन लगाने के लिए कुछ सरकारी शुल्क तो देती होगी ... क्या पता बस पेड़ ही लगा देती है...मुझे इस के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है...लेकिन कुछ तो शासकीय नियंत्रण होगा अवश्य।




कल शाम के समय मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी को जाने वाली रोड़ पर जा रहा था... बड़ी व्यस्त रोड है यह (कौन सी नहीं है!!) ...अचानक मेरा ध्यान गया इस लारी पर रखी इन बड़ी बड़ी टैंकियों पर .. वैसे तो मैं जल्दी में था, मुझे साईंस फिक्शन की एक वार्ता के लिए जाना था, लेकिन मैं वहां रुक गया... तभी मैंने देखा कि एक आदमी पाइप से सड़क किनारे लगे पौधों को बारी बारी से पानी दे रहा था ...


देख कर बहुत अच्छा लगा .. मैं यह मंज़र पहली बार देख रहा था ... इसलिए आप से शेयर करने का मन हुआ और ये तस्वीरें ले लीं....मुझे यही लगा कि देना बैंक के विज्ञापन इन ट्री-गार्ड्स पर लगे हैं तो यह सब रख-रखाव भी देना बैंक के जिम्मे ही होगा...

बस वह लारी ही नहीं चल रही थी, उस के साथ पाईप से हर पौधे को सींचने वाले वर्कर के साथ साथ तीन लोग और चल रहे थे ...एक तो साईकिल पर चलने वाले उन का कोई सुपरवाईज़र टाइप का बंदा था, दूसरा लाल झँड़ी लिए हुए था, पीछे से आने वाले ट्रैफिक को सावधान करने के लिए और एक तीसरा बंदा जो ड्राइवर से आवाज़ लगा कर संपर्क करता था कि अभी ठहरो और अभी आगे चलो...


अच्छा लगा यह देख कर कि कम से कम हम लोग बंदों की नहीं भी तो पेड़ों की तो परवाह करते हैं अभी भी .. बार बार कहा जाता है जितना पेड़ लगाना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी उन की देखभाल भी करना है.. लालफीताशाही के चक्कर में बहुत कुछ हो ही रहा है फाइलों में और होता भी रहेगा, लेकिन जो लोग निष्काम भाव से दिल से ये काम कर रहे हैं, उन को नमन करता हूं।

अभी मैं इस पोस्ट में ये फोटो लगाने के लिए इन्हें एडिट कर रहा था तो मेरा ध्यान गया कि यह काम सरकारी विभाग नहीं कर रहा, इस कोई गैर-सरकारी संस्था कर रही है... इस का नाम और फोन नंबर आप देख सकते हैं, अगर इन से संपर्क करना चाहें तो कर सकते हैं।


पेड़ों की बातें करना ...उन के बीचों-बीच रहना किसे अच्छा नहीं लगता, मुझे कुछ ज़्यादा ही पसंद है, लेकिन मैं इन के लिए बस कलम चलाने के अलावा कुछ करता नहीं हूं...मुझे बस इन भीमकाय छायादार पेड़ों के नीचे खड़े होकर फोटो खिंचवाना बहुत अच्छा लगता है .. इससे मुझे अपनी औकात और तुच्छता का अहसास रहता है!  लोग इन पेड़ों के प्यार में बहुत कुछ कर रहे हैं जैसे मैंने कुछ अरसा पहले फेसबुक पर भी इस वीडियो को शेयर किया था...


ये तो हो गये बड़े बड़े काम ...लेकिन आस पास अकसर हम देखते हैं कि लोगों को प्रकृति से बहुत प्रेम है...अपने अड़ोसी-पड़ोसियों के बाग बगीचों के बारे में तो लिखता ही रहता हूं ...अच्छे से लैंड-स्केपिंग करवाते हैं, फिर उन में छोटे छोटे फव्वारे और मन-लुभावन हरी-लाल लाइटें लगवाते हैं....शाम के वक्त टहलते हुए यह सब देख कर मन प्रफुल्लित होता है।


मुझे अभी ध्यान आया अपने सामने वाले घर में रहने वाले रिटायर्ड बुज़ुर्ग दंपति का ...ध्यान आया तो मैंने अभी यह तस्वीर ली ... ये दोनों विशेषकर महिला एक एक पौधे को रोज़ाना निहारती हैं, उन की देखभाल करती हैं जैसे उन से बतिया रही हों, मुझे देख कर बहुत अच्छा लगता है......आजकल ये लोग बाहर गये हुए हैं लेकिन इन के यहां काम करने वाली बाई इन पौधों को नियमित पानी देती दिख जाती है .. कहने का मतलब यही कि सब लोग अपनी अपनी साधना में जुटे हुए तो हैं..

हमेशा की तरह मुझे यह सुंदर गीत का ध्यान आ गया, इतना बढ़िया गीत ...बार बार याद आता है ...यसुदास की आवाज़ वजह से तो यह बेहद लोकप्रिय है है,  इस फिल्म की स्टोरी, इन महान कलाकारों ने, इस के संगीत ने....सब ने मिल जुल कर इस गीत को अमर बना दिया है ....अगर इसे सुनते हुए हम आंखें बंद कर लें तो यकीनन मेडीटेशन हो जाए ....मैं इस तरह के फिल्मी गीतों को भी एक भक्ति गीत या भजन से कहीं ज़्यादा ऊपर मानता हूं ... जीवन का उद्देश्य बता दिया हो जैसे गीतकार इंदिवर ने हम सब को ..इस तरह के गीत भी तो वही सभी बातें करते हैं जो हम सत्संग में सुनते हैं...सुनिएगा?....वैसे इस फिल्म साजन बिना सुहागिन की स्टोरी भी बड़ी टचिंग हैं...उद्वेलित करती है...उम्मीद है आपने ज़रूर देखी होगी! नहीं तो अभी देख लीजिए....a masterpiece indeed!

बुधवार, 13 जनवरी 2016

कल्लू मामा को सुनना एक्टिंग ग्रंथ पढ़ने जैसा

जब भी मौका मिलता है मुझे राज्य सभा के यू-ट्यूब चैनल पर गुफ्तगू जैसे कार्यक्रम देखना अच्छा लगता है ... दर्जनों एपिसोड देख चुका हूं।

सुबह की शुरूआत आज भी ऐसा ही एक एपिसोड देख कर की। राज्यसभा के चैनल पर दो दिन पहले सौरभ शुक्ला का इंटरव्यू अपलोड किया गया था। लगभग एक घंटे का एपिसोड था, लेिकन इसे देखते समय का पता ही नहीं चला।

इस गुफ्तगू को यहां एम्बेड किए दे रहा हूं, देखिएगा....इसे देखते हुए मैं यही सोच रहा था कि इन शख्शियतों की बातें सुन कर ऐसे लगता है कि जैसे आदमी एक्टिंग का कोई ग्रंथ पढ़ रहा है...इतनी सादगी और सब से बड़ी बात अपने मन की बात कहने में बरती गई इतनी ईमानदारी।


मैं हमेशा से ही सौरभ शुक्ला का बहुत बड़ा प्रशंसक रहा हूं..कभी भी किसी भी फिल्म में इन्हें देख कर लगा ही नहीं कि यह एक्टिंग कर रहे हैं, उस भूमिका में पूरी तरह ढल जाते हैं...कितनी ही फिल्में हैं जिन का ध्यान इस समय आ रहा है। सत्या में कल्लू मामा को हम कैसे भूल सकते हैं!

अभी पिछले साल ही मैंने एक फिल्म देखी थी ..जोली एल एल बी ....इस फिल्म में सौरभ शुक्ला ने एक जज की भूमिका निभाई थी....बेहतरीन काम किया था... बहुत अच्छा लगा था।



इन फ़नकारों की बात सुनने पर यही पता चलता है कि ये लोग भी जिस मुकाम पर पहुंचे हैं बड़े संघर्ष के बाद ही वहां तक जा पाए हैं...

मैं इन एपिसोड्स को देखना इसलिए पसंद करता हूं क्योंकि इन में ईमानदारी झलकती है...किसी बात पर भी ये लोग लीपापोती नहीं करते .. इसलिए यहां मन लग जाता है।



पता नहीं आज मैंने नोटिस किया और आज राज्यसभी चैनल को लिखूंगा भी कि कईं बार इस तरह के कार्यक्रम कुछ नीरस लगने लगते हैं...कंटैंट की बात नहीं कर रहा हूं..वह तो बेहतरीन है ही ...लेकिन राज्यसभी चैनल को लगता है अब प्रस्तुति के अंदाज़ में थोड़ा परिवर्तन करने की बहुत ज़रूरत है .....वर्तमान और भविष्य यू-ट्यूब का है और आज की पीढ़ी का भी ध्यान रखते हुए .. अन्यू विजुएल एलीमेंट्स ..जैसे कि इन महान फ़नकारों की फिल्मों के कुछ दुश्य अगर इस तरह के प्रोग्रामों में डाल दिए जाएं तो चार चांद लग जाते हैं.......वरना एक घंटे के लिए इस तरह के प्रोग्रामों को झेल पाना मुश्किल हो जाता है ऐसा तो नहीं कहूंगा.....शायद मेरी उम्र के लोग यह कर लेते हैं लेकिन फिर भी बिना किसी विजुएल के ये बोझिल से लगने लगते हैं ...१०-१५ मिनट बाद .....और यह बोझ इसलिए भी ज़्यादा लगने लगता है क्योंकि कोई एड-ब्रेक तो होती नहीं जो कि एक अच्छी बात है ...



कुछ फिल्में ऐसी हैं जो मैं केवल इसलिए देखता हूं क्योंकि उन में सौरभ शुक्ला ने काम किया है या संजय मिश्रा का काम देखने को मिलेगा....कल रात मुझे मसान फिल्म का यू-ट्यूब लिंक का मैसेज मिला... लगभग दो घंटे की फिल्म थी...बेहतरीन फिल्म लगी...सब के लिए कुछ न कुछ संदेश....सार्थक प्रस्तुति...संजय मिश्रा ने भी इस फिल्म में बहुत उमदा काम किया है....देखिएगा अगर कहीं से मिले तो ....वरना तो यू-ट्यूब का प्रिंट भी परफेक्ट है....

मैंने बस ऐसे ही इस फिल्म के बारे में कहीं से सुना था ...यही लखनऊ टाइम्स में या कहीं किसी चैनल पर ...लेकिन अफसोस यही है कि इन फिल्मों की इतनी पब्लिसिटी होती नहीं है ... फिल्म देखने पर अहसास हुआ कि इस तरह की फिल्में हमारे समाज के लिए कितनी ज़रूरी हैं, पुरानी रूढ़ियों पर चोट की गई है, नवयुवक किस तरह से गल्तियों की वजह से ज़िंदगी खराब कर लेते हैं, किस तरह से छोटे छोटे बच्चों का शोषण किया जाता है चंद सिक्कों के लिए...यह वाराणसी शहर की कहानी है...बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है यह कहानी और बहुत से प्रश्न छोड़ जाती है ...इस की कहानी मैं आप से शेयर नहीं करना चाहता क्योंकि इसे आप को स्वयं देखना चाहिए... यह आज की जेनरेशन की भी कहानी है .. something about their strengths and weaknesses!

सारी फिल्म देख ली, लेकिन मुझे मसान का अर्थ नहीं पता था... फिल्म के बाद डिक्शनरी में इस का मतलब देखा तो पता चला इस का शब्दार्थ है ...श्मसान घाट...फिर मुझे याद आया कि पंजाबी में भी कुछ इसी तरह की शब्द कहते तो सुना तो था कईं बार ...मसानां ...जिस का अर्थ तो पता था लेकिन मसान का सही अर्थ तो यह फिल्म देखने के बाद ही जाना .... देखिएगा यह फिल्म अपनी पहली फ़ुर्सत में...

मंगलवार, 12 जनवरी 2016

सुबह सवेरे कुछ टहलने की ही बात कर लें आज..

  इस पोस्ट की शुरूआत कश्मीर की फिज़ाओं के नाम... मुझे अकसर बहुत याद आती है इस ज़न्नत की। 


जब भी मैं किसी शहर में भव्य बाग बगीचे और खुले मैदान देखता हूं तो अचानक मेरा ध्यान बंबई की तरफ चला जाता है कि वहां इस तरह की खुली जगहों की कितनी कमी है..

दो दिन पहले की बात है कि मैं और बेटा रोहतक में थे.. सुबह हम ने सोचा कि ऐसे ही स्कूटर पर घूम कर आते हैं.. हम लोग निकल पड़े... दिल्ली रोड़ पर हम महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी की तरफ़ मुड़ गये... एक पार्क को देखा तो सोचा कि चलो यहीं पर रुक जाते हैं।

                     यह पार्क बहुत ही बढ़िया है ...प्रकृति की गोद में.. किसी तरह का प्रदूषण नहीं और खुशगवार फिज़ाएं...

उस पार्क के गेट के बाहर वायु गुणवत्ता की चेकिंग के लिए यह यंत्र सा लगा था... मुझे नहीं समझ में आया कि इस को यहां लगाने का क्या उद्देश्य है..लेकिन अब मैंने छोटी-बड़ी बहुत सी बातों का load लेना बंद कर दिया है.. होगा, यार, कुछ कारण होगा...अब, हर बात को जानने की क्या पड़ी है!

पार्क में आप देख सकते हैं कितने बढ़िया रास्ते बने हुए हैं.. लेिकन जो बात मुझे बहुत खली उस दिन ...रविवार का दिन सुबह ८.३० के करीब का समय .. गुलाबी धूप निकली हुई थी...लेकिन इस पार्क में इतना सन्नाटा देख कर मन दुःखी हुआ। सरकारें कितने लाखों-करोड़ों रूपये इन जगहों के रख-रखाव पर खर्च कर देती हैं...लेिकन जनता इन का शायद उतना लाभ उठा नहीं पाती....

जैसा कि मैंने ऊपर लिखा कि जिस शहर में इन सब स्थानों की कमी रहती है, वहां के लोग इन का महत्व समझ सकते हैं। मुझे ध्यान में आ रहा है कि बंबई प्रवास के दौरान उन दस सालों में अगर सुबह भ्रमण का विचार भी आता था तो बंबई सेंट्रल से पहले चर्नी रोड़ पर हम चार पांच लोग चले जाया करते थे लोकल ट्रेन से ..फिर चौपाटी से नरीमन प्वाईंट तक पैदल टहलते पहुंचते थे.. वहां से चर्चगेट स्टेशन से लोकल ट्रेन पकड़ कर बंबई सेंट्रल स्टेशन लौट आते थे...स्टेशन पर ही घर था। मैं कहना चाह रहा हूं कि इस तरह से टहलने जाना एक बोझिल काम लगता था बहुत बार..


और बहुत बार बंबई सेंट्रल से स्कूटर पर या लोकल गाड़ी में पास ही महालक्ष्मी रेसकोर्स चले जाया करते थे.. वह भी बड़ा सुखद अनुभव था... कुछ फिल्म स्टार जैसे कि बिंदु, नादिरा, सतीश शाह तो रोज़ाना वहां टहलने आया करते थे.. बंबई में टहलने के लिए वह अच्छी जगह है.. एक जॉगर्स पार्क भी है..लेकिन वह खासा दूर होने की वजह से कुछ महीनों में ही वहां का टूर लग पाता था.. बात मैं बस यही कहना चाह रहा हूं कि बंबई जैसे महानगरों के रहने वाले इन जगहों की कद्र जानते हैं...

शायद हम इन जगहों की कद्र नहीं करते .. वरना इतनी खुशगवार रविवार की गुलाबी धूप में इतना सन्नाटा क्यों!..दरअसल मुझे नहीं पता कि लोग उस दिन पहले ही टहल कर लौट गये हों...कुछ कह नहीं सकता, लेकिन ऐसा लगा नहीं...मैं भी जब इस पार्क के बाहर लगा बोर्ड देख रहा था तो मुझे पता चला कि इसे शुरू हुए १६ साल हो गये हैं और इस दौरान मैं भी तो बीसियों बार रोहतक हो कर आ चुका हूं ....लेिकन अकसर कहां हम इन जगहों की परवाह करते हैं! याद आ रहा कुछ महीने पहले भी इस पार्क के आगे से गुज़र रहा था तो बस बाहर खुदे हुए सुंदर दोहे पढ़ के ही मैंने अपने आप को धन्य महसूस कर लिया था....पार्क में घुसने तक की ज़हमत नही थी उठाई।

                               यह जो आप रास्ता देख रहे हैं यह हैल्थ ट्रैक है जो पार्क की बाउंडरी के बाहर बना हुआ है..










                             
                                       यह दोहे उस पार्क के बाहर दिख गये... थोड़े थोड़े समय में आए ...थोड़े थोड़े नहीं।











आप शायद सोच रहे होंगे कि बाग में इतना सन्नाटा कि लोग दिख ही नहीं रहे.......ऐसी बात नहीं है, आठ दस लोग दिखे तो थे... जिन पार्कों में एंट्री करने के लिए टिकट लेनी पड़ती है, वहां पर लोग जाते हैं... लेकिन इतने बेहतरीन पार्कों की लोग परवाह नहीं करते... मुझे कईं बार लगता है कि हम लोग बस सरकारों की आलोचना ही करने में रूचि रखते हैं....लेिकन इस चक्कर में बहुत बार अच्छी सुविधाओं का लाभ ही नहीं उठा पाते।

वैसे भी मैंने नोटिस किया है कि पंजाब हरियाणा में लोगों की टहलने वहलने में ज़्यादा रूचि है नहीं... यह बिल्कुल मेरी व्यक्तिगत राय है .. शायद बिल्कुल सुपरफिशियल सी ... लेकिन मैंने ऐसा ही महसूस किया....लखनऊ में देखता हूं लोगों की टहलने में अच्छी रूचि है...सुबह सुबह पार्क टहलने वालों से शोभायामान हो रहे होते हैं......यहां लखनऊ में पार्क हैं भी बहुत से .. और इन का रख-रखाव भी बढ़िया है

......कुछ पार्क तो हैं जिन में आप सुबह आठ नौ बजे तक ही हो कर आ सकते हैं ...उन के बाद ये स्कूल-कालेज के छात्र-छात्राओं के मीटिंग प्वाईंट बन जाते हैं.. जी हां, स्कूली बच्चों को भी स्कूल के समय इन से बाहर आते देखा है.. दुःख तो होता है लेकिन किसे कहें ! बस, इस के बारे में आगे क्या लिखूं, समझदार को ईशारा ही काफ़ी है!


हां, लिखते लिखते एक बात का ध्यान आ गया.....उस दिन मुझे ध्यान आ रहा था कि हम लोग सुबह न टहलने जाना पड़े इस के लिए जितने बहाने हम इजाद कर सकते हैं, कर लेते हैं.....और ये कभी खत्म नहीं होते ... लेकिन जब मैं इन बहाने के बारे में सोच रहा था तो मेरे बेटे ने व्हाट्सएप पर मुझे एक मैसेज भेजा था, जिसे मैं यहां शेयर कर रहा हूं कि जो दिव्यांग जन हैं, वे बहाने नहीं करते .....ईश्वर ने हमें अच्छी भली टांगे, पैर दिये हैं...लेिकन फिर भी .....

उस दिन टहलने के बाद शायद हमें लगा होगा कि हम ने बहुत महान काम कर लिया है ...इसलिए हम लोग वहीं से रोहतक की आलू-पूरी की मशहूर दुकान की तरफ़ निकल गए....तभी समझ में आया कि पार्कों में इतना सन्नाटा क्यों था, शायद उस समय जिन लोगों को पार्कों में होना चाहिए था, वे सभी आलू-पूरी-लस्सी का जश्न मनाते दिखे......सेहत हमारी, निर्णय भी ज़ाहिर है हमारे ही होंगे ...जैसे आज मेरे एक मरीज़ को जब मैंने कहा कि भाई, अब तो यह पान छोड़ दो..तो उस ने भी भरपूर बेतकल्लुफ़ी से ठहाका लगा कर  यह कहते हुए मेरा मुंह बंद कर दिया ...डाक्टर साहब, अब तो यह आदत मेरे साथ ही जायेगी। मैं भी चुप हो गया, उस का फैसला पक्का था, आगे कहना को बचा ही क्या था!

ऐ शहरे लखनऊ तुझ को मेरा सलाम है..

आज आप को एक महान शख्शियत से मिलाते हैं...जमील अहमद साहब..यह गजब के टेलर मास्टर हैं...तीन साल से मैं इन के पास जा रहा हूं..मेरे मित्र तिवारी जी ने मुझे इन का पता बताया था..बड़े खुशमिजाज हैं...और मैंने यह देखा है जो भी शख्स अपने काम के बखूबी जानता है वह अधिकतर खुशमिजाज ही होता है...मैंने कभी इन्हें किसी से उलझते नहीं देखा...लगभग हर महीने किसी न किसी काम की वजह से इन से मुलाकात हो ही जाती है।

कल रात मैं इन के पास अपना कुर्ता-पायजामा लेने गया तो यह फुर्सत में दिखे थोड़ा...कहने लगे बच्चों को शाम में ही फ़ारिग कर देता हूं.. तफरीह भी करनी चाहिए इस उम्र में ...सारी उम्र काम ही करना है। 

जमील साहब के पास सब्र-शुकराने का बहुत बड़ा खजाना है...पता चल जाता है.. किसी से कोई शिकायत नहीं...बस अपने काम को ईबादत की तरह करने का फन है इनमें। मैं इन के काम से बहुत मुतासिर हूं।

चूंकि यह थोड़ा फुर्सत में दिखे मैंने इन से ऐसे ही पूछ लिया कि क्या आप ने यह काम अपने अब्बा हुज़ूर से सीखा है तो इन्होंने कहा ..बिल्कुल, उन्हीं के पास बचपन से ही लगे रहते थे...मैं ही नहीं, हम पांच भाई सभी यह काम करते हैं..

अब्बा हुज़ूर का नाम लेते ही उन की बहुत सी खुशगवार यादें ताज़ा हो आईं... मैं यह महसूस कर रहा था कि वे अपने काम के कितने बड़े खिलाड़ी होंगे। 

मेरे महबूब फिल्म ..मेरे महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की कसम
नौशाद जी महान संगीतकार से कौन वाकिफ़ नहीं है?.. उन्होंने बताया कि नौशाद साहब बाराबंकी में रहते थे पहले और देवा शरीफ़ में कव्वाली गाया करते थे..फिर बंबई चले गये, वहां संघर्ष किया खूब और एक बार काम मिलना शुरू हुआ तो बस हर तरफ़ नौशाद-नौशाद होना शुरू हो गया। लेकिन नौशाद साहब की शेरवानी हमेशा जमील साहब के वालिद के हाथों से ही तैयार हुआ करती थी। 


साठ के दशक में जमील साहब के वालिद लखनऊ की जिस टेलरिंग शाप में काम किया करते थे उस दुकान का नाम है ..हाफिज़ मोहम्मद इशाक और इन के वालिद का नाम था... अब्दुल वहाब.. इन की कोई तस्वीर नहीं है, पहले कहां लोग तस्वीरें खिंचवाया करते थे..अब तो हम लोग शेल्फी लेने के चक्कर में लम्हों की जी ही नहीं पाते, बस उन्हें कैमरे में कैद करने की फ़िराक में रहते हैं। 

अपने अब्बा हुज़ूर की बातें करते समय जमील अहमद भावुक हो गये और उन्होंने बताया कि पहले ये सब शेरवानियां हाथ से तैयार हुआ करती थीं और एक कारीगर चार दिन एक शेरवानी पर काम किया करता था... फिर हम लोग आज के शादी ब्याह में पहनी जानी वाली शेरवानी की बात करने लगे। 

जमील साहब ने एक बात और बताई कि मेरे महबूब, मेरे हुज़ूर और पालकी जैसी फिल्मों में राजेन्द्र कुमार और अन्य फ़नकारों ने जो शेरवानियां पहनी हैं, वे सब उन के अब्बा हुज़ूर के हाथों की तैयार की गई हैं....मैं जब उन की बात सुन रहा था तो यही सोच रहा था कि किसी बेटे के लिए अपने पिता के फ़न का  तारुफ़ करवाने का इस से बढ़िया भी क्या कोई ढंग हो सकता है..ये सब फिल्में तो अमर हो चुकी हैं...यू-ट्यूब पर भी हैं...कहने लगे कि जब भी इन फिल्मों को देखते हैं, वालिद बहुत याद आते हैं।


इन तीन फिल्मों का जमील साहब ने खास नाम लिया... मैंने नेट पर देखा कि ये सब फिल्में १९६३ से १९६८ के दरमियान बनी हैं.. ये तो बहुत ही छोटे से उस दौर में ...बता रहे थे कि वालिद हमें सब बातें सुनाया करते थे ..पालकी फिल्म की आधी शूटिंग तो लखनऊ के पास काकोरी में ही हुई थी ... नौशाद साहब जैसे लोग रात के समय टेलर मास्टर के पास जाया करते थे... बड़े बड़े होटलों में रुकते थे ये सब फ़नकार लोग और अपनी गाड़ी से रात के वक्त जाकर शेरवानी का ट्रायल और फिटिंग आदि करवा आया करते थे.....





महान लोग... महान फ़नकार... शेरवानी बनाने वाले भी और पहनने वाले भी .. इन के फन का जादू आज के यू-ट्यूब के दौर में भी सिर चढ़ कर बोल रहा है.. मुझे यह गीत दिख गया पालकी फिल्म का ... ऐ शहरे लखनऊ तुझ को मेरा सलाम है...आप भी सुनिए और नौशाद साहब के फ़न का नमूना भी स्वयं देख लीजिए.. 


आज की यह पोस्ट जमील साहब के अब्बा हुज़ूर के फन और उन की याद को समर्पित ...हम बड़े बड़े लोगों की बरसीयां मनाने की कोरी रस्म अदायगीयां करना कभी नहीं भूलते लेकिन इन गुमनाम फ़नकारों के फ़न को भी कभी कभी याद कर लेने का बहाना ढूंढ लिया करें तो अच्छा होगा, इसी बहाने हम अपनी उमदा विरासत से ही रु-ब-रू होते रहेंगे और अगली पीढ़ी को भी इस का अहसास करवाते रहेंगे...


गुरुवार, 7 जनवरी 2016

गुड़ नालों इश्क मिट्ठा..

बचपन में हमारे पड़ोस की एक दादी आसपास की औरतों को दोपहर में इक्ट्ठा कर के सुख सागर, गरूड़-पुराण सुनाया करती थीं... मुझे भी इसी से ध्यान आ गया... गुड़ पुराण !

आज लिखते समय बार बार गुड़ का ध्यान आ रहा है ...मैं बिल्कुल वैसी ही बात कर रहा हूं जैसे वह बाबा करता है जिसके टीवी शो में लोग पांच-छः हज़ार का टिकट खर्च कर आते हैं...पैसे एडवांस में देते हैं ..इस टिकट की राशि में लगभग एक हज़ार रूपया तो मनोरंजन टैक्स होता है (मैंने उस बाबा की वेबसाइट से चेक किया है)..आप ने देखा होगा ज़रूर इस शो को टीवी पर...अकसर रिमोट से खेलते हुए मुझे भी कईं बार यह दिख जाता है ...इस बाबा के श्रद्धालु जिस तरह से अपनी व्यथा ब्यां करते हैं, उन की बात सुन कर आंखें नम हो जाती हैं बहुत बार...कैसे बच्चों की तरह गिड़गिड़ा कर सुबकते हुए वे अपनी फरियाद बाबे तक पहुंचाते हैं....लेिकन तभी बाबा को कहीं से गुलाब जुमान दिखने लगते हैं या मीठे चावल आ जाते हैं उस के ध्यान में और श्रद्धालु से पूछताछ शुरू हो जाती है कि पिछले बार गुलाब-जुमान कब खाये थे?...बाबा, हां, दो दिन पहले ही खाए थे, जवाब मिलता है। 

तभी कृपा के सागर बाबा कहते हैं अकसर... ठीक है, लेकिन जाओ जा कर आधो किलो बांट भी दो, रुकी हुई कृपा फिर से शुरु हो जायेगी...सच में मैं उस कार्यक्रम को एक मनोरंजन के तौर पर ही कभी दस पांच मिनट देख लिया करता हूं...लेकिन जनता जनार्दन की परेशानियां और जिस तरह से उन का समाधान सुझाया जाता है, उससे मुझे बहुत परेशानी होती है। और क्या कहें, कोई किसी को किसी जगह जाने पर विवश तो कर नहीं रहा। अपनी अपनी (अंध)श्रद्धा की बात है!

लेिकन मुझे तो गुड़ का ध्यान आ रहा था... कल शाम से ही आ रहा है...दरअसल मैंने यहां लखनऊ में दो तीन दिन पहले एक बिज़ी रोड़ पर देखा कि एक बैल गाड़ी पर एक गुड़ का जैसे कोई पहाड़ सा लदा हुआ था और वह खूब बिक रहा था ..कल भी लखनऊ की एक बहुत विशेष रोड़ जेल रोड पर यह मंजर दिखा...मैं शाम के समय ड्यूटी से लौट रहा था।

अकसर इस जेल रोड पर कभी भी जाम  नहीं लगता...यह सड़क वैसे ही इतनी खुली है..फिर भी लोग गलत साइड से अब इस पर निकल पड़ते हैं, यू-टर्न से बचने के लिए... किसी अनहोनी के होने पर ही लोग इस पर इक्टठा हुआ दिखते हैं...मैंने भी दूर से देखा कि बहुत से लोग जमा हैं तो मुझे लगा कि शायद सब कुछ ठीक नहीं है....खैर, थोड़ा दूर जाने पर दो बैल गाड़ियां दिख गईं ...गुड़ और शक्कर से लदी हुईं, और लोग उसे खरीदने में पूरी तन्मयता से जुटे हुए थे। 

एक दो मोटरसाईकिल सवारों पर को मैंने जब गुड़ खाते देखा ..जैसे ही उन का ध्यान मेरी तरफ़ गया तो हम सब एक साथ हंसने लगे...मुझे लगा कि उस वक्त बड़े-छोटे सभी छोटे बच्चे से बने हुए थे...गुड़ को देख कर! गुड़ का ऐसा जादू!




मैं भी रूक गया....इस मेले को देखने के लिए...इंट्रस्टिंग बात सब से यह थी कि पैदल और साईकिल चलने वाले, दो पहिया और चार पहिया पर चलने वाले सभी इस खरीददारी में मशगूल थे...मैंने भी सुना कि गुड़ पचास रूपये किलो बिक रहा है... जहां तक मुझे ध्यान है बाज़ार में भी यह इसी दाम पर बिकता है...लेिकन लोगों का क्रेज़ देखते बन रहा था ...बिल्कुल वैसे जैसे आम या तरबूज के मौसम में जब बैल गाड़ी पर ये सब बिक रहे होते हैं तो भी अचानक बहुत से लोग वहीं से खरीदने के लिए रुक जाते हैं।

कल मैंने देखा कि उस बैलगाड़ी वाले दुकानदार का एक साथी सभी खरीददारों को पहले थोड़ा सा गुड़ चखने के लिए दे रहा था...मैंने भी खाया?....नहीं, मैंने नहीं लिया... कारण?...मैं सुबह से लेकर रात सोने तक विभिन्न रूपों में वैसे ही इतना गुड़ खा लेता हूं कि उस समय ज़रूरत महसूस नहीं हुई... न चखने की न ही खरीदने की... बस, मैं इतना सोचते हुए आगे बढ़ गया कि यहां पर भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (fssai) के सामने कितनी चुनौतियां हैं...इस देश में तो हर गली-नुक्कड़ पर सब कुछ ऐसे ही संरक्षा एवं मानकों से  बेपरवाह ही तो बिक रहा है...


ध्यान यह भी आ रहा था कि हम लोग किसी पर भी कितनी जल्दी भरोसा कर लेते हैं..पता नहीं कहां से हमारे खाद्य पदार्थ आते हैं, कहां तैयार हुए किन परिस्थितियों में ....हम कुछ नहीं जानते, हम बस यह जानते हैं कि यह देखने में अच्छा है, और यह बात हमारे मन में बैठ चुकी है कि जो चीज़ सीधा गांव से आ रही है, वह बिल्कुल ठीक है, सेहतमंद है, इस में कोई मिलावट नहीं है, बस, जो भी है, सब कुछ ठीक ठाक है।

सोचने वाली बात है  कि क्या हमारी यह सोच ठीक है?....क्यों fssai एवं उपभोक्ता मामलों से संबंधित विभाग आए दिन पैकेजिंग एवं मिलावट जैसे विषयों पर एक अभियान छेड़े रहते हैं! रेलवे स्टेशनों पर भी तो हम सब को कितना चेताया जाता है कि कहां से खाने-पीने की चीज़ लेनी है, कहां से नहीं लेनी है!...आप को क्या ठीक लगता है कि हम ऐसे ही बीच रास्ते से कुछ भी खरीदने लगें ...और एक स्थायी ठेले से भी नहीं, किसी खोमचे से नहीं जिन का एक पक्का ठिकाना होता है, लेिकन यहां तो पता ही नहीं, बैलगाड़ीयां कहां से आईं,  कहां जाएंगी...फिर से ये घुमंतू "व्यापारी" कभी दिखेंगे भी या नहीं। 

बहरहाल, कुछ समय के लिए इन सब सिर दुःखाने वाली बातें यही छोड़ देते हैं...मुझे गुड़ की अच्छी अच्छी पुरातन यादें गुदगुदाने लगी हैं...सब से पहली याद गुड़ की यही है कि उस दिन मेरा स्कूल का पहला दिन था..१९६७ के आस पास की बात है ....मेरे दोस्त देवकांत ने और मैंने स्कूल जाना था..दोपहर के बारह साढ़े बारह बजे का समय .. ईवनिंग शिफ्ट में .. देवकांत मेरे से बस कुछ दिन सीनियर था, हमारे पड़ोस में रहता था..इसलिए मेरी कमान मेरी मां ने उस के हाथ में सौंप दी थी कि इसे भी अपने साथ ले जा (उस दौर के सभी मां-बाप के विश्वास, भरोसे और सकारात्मक सोच की भी दाद देनी पड़ेगी) ...दरअसल अभी स्कूल देखने ही जाना था, मुझे धुंधली याद है कि आज जा कर स्कूल देख कर आ, बैठना सीख ले ...फिर टोपी वाले हैड-मास्टर (उस स्कूल के हैडमास्टर को हम सब ऐसे ही बुलाते थे) से कह देंगे दाखिले के लिए...हां, उस अमृतसर के डैमगंज स्कूल का वह टोपी वाला हैड-मास्टर हमारी कालोनी में साईकिल पर घूम घूम कर बच्चे उस के स्कूल में दाखिल करने को कहा करता था। 

हां, तो उस स्कूल के पहले दिन की बात है .... मुझे मां ने एक पीतल की गोल सी डिब्बी में एक परांठे के साथ एक गुड़ की डली दी और मैं और देवकांत स्कूल के लिए चलने ही लगे थे कि मेरे पिता जी आ गये ...उन्होंने मुझे दस पैसे का सिक्का थमा दिया...पीतल का हुआ करता था...मेरी तो जैसे लाटरी निकल गई। अभी यहां पोस्ट में चिपकाने के लिए नेट पर ढूंढा तो पता चला कि अब यह भी OLX पर बिक रहा है। 

हम दोनों स्कूल की तरफ़ चल पड़े .... शायद एक किलोमीटर की दूरी होगी घर से स्कूल की या इस से भी कम... लेकिन बीच में एक मैदान आता था...हम ने सोचा कि पहले रोटी खा ली जाए..इस भार को साथ उठाने से क्या हासिल, हम ने पहले तो खाना खाया... फिर, स्कूल के बाहर दस पैसे से पिपरमिंट की चरखियों की खरीददारी कीं ...दस पैसे में खूब मिल गईं... दस बारह के करीब... हम दोनों के लिए काफ़ी थीं...पहले उन के साथ खेले...फिर उन्हें खा लिया... बस, इतना ही याद है पहले दिन के बारे में.. पढ़ाई वढ़ाई का कुछ याद नहीं कि क्या हुआ क्या नही हुआ! 

आज जब गुड़ की यादें चल ही निकली हैं तो मुझे भी आइना देखने का एक मौका तो मिल गया कि मैं कितना मीठा, कितना गुड़ और शक्कर खाता हूं.. शूगर की जांच करवाई थी, कुछ महीने पहले, ठीक है... लेकिन मैं अकसर सोचता हूं कि क्या इस का मतलब यह है कि मैं इस का गलत फायदा लेता रहूं....बहुत सोचता हूं लेकिन मजबूर हूं...शायद आज इस पोस्ट लिखने के बाद मुझे कुछ प्रेरणा मिले.... बचपन से ही चीनी, शक्कर, गुड़ खाने का बहुत शौक था... हर जगह के खान पान के अपने कायदे हैं, ठीक है, यहां लखनऊ में देखता हूं कि मूंगफली लेते हैं तो साथ में नमक की पुड़िया देते हैं, कहीं कहीं हरी, तीखी चटनी की थैली भी दे देते हैं साथ में....और देखता हूं यहां जब लोग मूंगफली खाते हैं और साथ में थोड़ा नमक चाट लेते हैं....कोई खास मसाले वाला नमक होता है... ठीक है, अपना अपना खान पान है, लेकिन सेहत की नज़र से देखा जाए तो यह ठीक नहीं है, जितना नमक हम लोग कम लेंगे उतना ही हमारी सेहत के लिए ठीक है ......हां, नमक ठीक नहीं है तो गुड़ भी ठीक नहीं है इतना खाना....हम लोगों को बचपन से ही मूंगफली के साथ गुड़ खाने की आदत पक्की पड़ी हुई है ...बचपन से देखते हैं कि हम लोग अगर पचास पैसे की मूंगफली लेते थे तो लिफाफे में वह थोड़ी सी गुड़ की गोलकार रेवड़ियां भी डाल दिया करता था... बचपन के बाद से फिर वे कभी दिखी नहीं... फिर वे सफेद रंग की गुड़ और चीनी से बनने वाली चपटी सी रेवडियां मिलनी शुरू हो गईं। मैं आज भी उन बचपन वाली रेवडियों को मिस करता हूं। 

गुड़ का भरपूर इस्तेमाल होता रहा .. हो रहा है.. गुड़ की पट्टी, रेवड़ी, गज्जक, सौंठ गुड़....पता नहीं यार क्या क्या...दही में गुड़ की शक्कर ....बचपन से ही निरंतर सर्दी के मौसम में मक्की की रोटी को रोज़ाना एक बार गुड़ के साथ खाना, कभी कभी गुड़ वाले चावल ... और कभी कभी गुड़ वाला दलिया.....अपने आप से पूछ रहा हूं कि कितना गुड़ खा लेते हैं हम लोग! गर्मी के मौसम में इस आदत पर थोड़ा लगाम ज़रूर लग जाती है...थैंक गॉड..लेिकन फिर भी गुड़ या शक्कर में तैयार सत्तू, गुड़ वाले चावल और दलिया तो बहुत बार खाते ही रहते हैं गर्मी के दिनों में भी!

किसी भी आदत को छोड़ना बहुत मुश्किल है... मेरे लिए किसी को कहना कितना आसान है कि आप आज ही से गुटखा, पान मसाला छोड़ दीजिए, बीड़ी फैंक दीजिए.....जब कि मैं अपने मीठे पर ही कंट्रोल नहीं कर पा रहा हूं....चाय भी ऐसी पीता हूं जिस में काफ़ी चीनी होती है .. यह आदत मुझे लगता है मुझे अपनी नानी से पड़ी होगी.....उन की चाय का कोई जवाब नहीं होता था, मां भी ऐसी ही चाय पसंद करती हैं। 

मीठे पर कुछ कंट्रोल तो इस चक्कर में हो गया कि लगभग १०-१५ साल से मिठाईयां लगभग बंद ही हैं ...शायद साल में एक दो बार ही हम लोग खाते होंगे .. दरअसल दस पंद्रह साल पहले तक पंजाब में रहते हुए हम लोग बर्फी, गुलाब जामुन, जलेबियां खूब खाते थे...फिर मिलावटी, सिंथेटिक, कैमीकल दूध, मिलावटी खोआ, और ट्रांस्फैट्स के बारे में लोग जागरूक होने लगे और हम भी .. और मैंने भी समाचार पत्रों में इन विषयों के बारे में लिखना शुरू कर दिया... बस, इसी चक्कर में इन सब चीज़ों से नफ़रत सी होने लगी ...इसलिए इन का सेवन न के बराबर ही है...बेसन के लड़्डू अभी भी एक कमज़ोरी है लेिकन।

बहुत बार मन को समझाना पड़ता है ...कल बाद दोपहर मैं यहां लखनऊ के केसरबाग चौराहे से गुजर रहा था... वहां पर एक खस्ता-कचौड़ी की दुकान है ..उस की महक इतनी बढ़िया थी कि मैंने अपनी पत्नी को कहा कि मेरी इच्छा हो रही है कि मैं दो चार खस्ता कचौडी खा लूं.....लेकिन मजबूरी है मेरी ... बाहर का कुछ भी खाने से मेरी तबीयत खराब हो जाती है, विशेषकर अगर वह सब मैदा (refined flour) से बना हुआ हो तो ....बस, मन ममोस कर रह जाना पड़ा....लेिकन मीठे पर पता नहीं काबू नहीं हो पाता!






वापिस गुड़ की कुछ बातें कर लें.... हम लोगों ने सुना है कि ताज़ा गुड़ जब गांव में बन रहा होता है तो बिल्कुल हलवे जैसा स्वाद होता है .. अभी यू ट्यूब पर इस के तैयार होते समय की एक वीडियो भी दिख गई...ऊपर इस पोस्ट में उसे एम्बेड किया है।

मुझे फल और सब्जी की तो ठीक ठीक पहचान है लेकिन मैं यह कम ही पहचान पाता हूं कि कौन सा गुड़ ठीक है, कौन सा ऐसा ही है ...ठीक का तो पता नहीं लेकिन खराब को तो पहचान ही लेता हूं ... उस दिन अमीनाबाद में घूम रहा था तो वहां पर कुछ गुड़ की दुकानें देख कर मैं रुक गया... उस दुकानदार ने इतने तरह का गुड़ गिनवा दिया ...कि मैंने भी तीन चार तरह का खरीद ही लिया...गुड़ की शक्कर भी खरीदी... लेिकन फिर कुछ दिन बाद जब उधर से गुड़ की शक्कर लेने के लिए गया तो वह लाल रंग की दिखी.......नहीं ली, नकली रंग (artificial colors)  वाली कोई भी चीज़ हमारी सेहत के लिए बहुत खराब होती है ...अकसर हम लोग कुछ रंग बिरंगा गुड़ भी देखने लगे हैं.. लाल-गहेर पीले रंग वाला ......देखते हैं न?...जितना अल्प ज्ञान मेरा है इस विषय के बारे में, उस के अनुसार तो यह ठीक नहीं होता, कुछ न कुछ तो खराबी होती ही होगी! 

Oh my God!....गुड़ की इतनी बातें... हां, लेकिन एक बात और याद आ गईं...इस गुड़-शक्कर के चक्कर में मैं अपने बहुत से दांत भी खराब करवा चुका हूं... डैंटिस्ट हूं लेकिन फिर भी ... यह इस पोस्ट में इसलिए लिख रहा हूं कि खेल के नियम सब के लिए एक जैसे होते हैं ... जो भी इस तरह के खाद्य पदार्थों से ज़्यादा लगाव रखेगा, कुछ न कुछ खराबी तो मोल ले ही लेगा...वैसे भी गुड़ आदि से बन जो पदार्थ हैं उन्हें अगर आप खाने के तुरंत बाद ले लें तो इतना नुकसान नहीं करते (दांतों की सेहत के नज़रिये से) ...और वैसे भी दिन में बार बार मीठा खाने से परहेज ही करना चाहिए..इस से दांतों की सड़न होने की संभावना ही नहीं बढ़ती, दांत सड़ भी जाते हैं....यह बिल्कुल पक्की बात है! मैं भी अपने दांतों की खराबी के लिए अपनी इस आदत को ही दोषी ठहराता हूं.....और एक बात, कुछ भी खाने के बाद, विशेषकर गुड़, गुड़ की पट्टी, रेवड़ी, गजक.....कुल्ला अवश्य कर लें, इस से दांतों के साथ चिपके ये पदार्थ उतर जाते हैं..जो दांतों की सेहत के लिए एक अच्छी बात है। 

बस कुछ ही दिनों की तो बात है .. लोहड़ी, मकर-संक्राति का त्योहार आने ही वाला है ..चार पांच दिनों में... इसलिए भी गुड़, तिल, रेवड़ी, चिवड़े की बातें करनी तो बनती हैं दोस्तो... शायद इसीलिए मुझे ध्यान आ रहा होगा तीस साल पहले आए मल्कीयत सिंह के उस सुपर-डुपर पंजाबी गीत का .. १९८६ की बात है .. तब कुछ पंजाबी गीत गुरदास मान के, मल्कीयत सिंह के धूम मचाए हुए थे.....१९८७ की कालेज की लोहड़ी वाले दिन भी इस गीत ने खूब माहौल बनाया हुआ था.... एक जूनियर था ..उस की याद आ गई.. वह बेचारा इस गीत को लिख लिख कर याद किया करता था कि उसने कालेज के एक समारोह में इसे सुना कर किसी को इंप्रेस करना है...हम से सब कुछ शेयर किया करता था, हम भी सब बातें अपने तक ही रखा करते थे... उसने बहुत मेहनत की ... लेिकन हमें बहुत बुरा लगा था जब उसे पता चला कि  आग तो बस एक तरफ़ा ही थी......सच में बहुत बुरा लगा था...बेचारा, अपनी पढ़ाई छोड़ कर इस गाने की प्रैक्टिस किया करता था.. कालेज की चहारदीवारों में कईं किस्से हमेशा के लिए दफन हो जाते होंगे! है कि नहीं?

हां, उस गीत की तो बात कर लें......उस गीत के बोल हैं......गुड़ नालों इश्क मिट्ठा, रब्बा लग न किसे नूं जावे.....(इश्क तो गुड़ से भी मीठा है, दुआ करते हैं कि किसी को यह इश्क न हो जाए..) एक पंजाबी फिल्म थी...यारी जट्ट दी, यह गीत उस में भी था। 

गुड़ नालों इश्क मिट्ठा...रब्बा लग न किसे नूं जावे..

आज सुबह सुबह इस गुड़ पुराण आप को सुनाने का फायदा यह हुआ है कि मुझे आइना देखने का मौका मिला... और कोशिश करूंगा कि अगली बार गुड़ या इस से बने पदार्थ खाते समय इन बातों को अपने आप को भी याद दिला सकूं... after all, there is an age-old advice....... An ounce of prevention is better than a pound of cure!