शनिवार, 12 सितंबर 2015

आज यह लिख कर ही हिंदी दिवस मना लूं!!

कल हिंदी की खूब बातें होंगी...मैंने सोचा दो चार बातें मैं भी हिंदी की कर लूं आज।

सन २००० में मैं बंबई से पंजाब आया...मुझे याद है तब मुझे हिंदी लिखने का भी इतना अभ्यास नहीं था..और बस गुज़ारे लायक ही इसे बोल पाता था। 

कहा जाता है कि हिंदी फिल्मों ने देश को जोड़ कर रखा ..यह बात भी सही होगी लेकिन मैं सोचता हूं कि हिंदी भाषा को बढ़ावा देने में खबरिया हिंदी चैनलों ने भी बड़ा योगदान दिया। याद आता है २००० के आसपास आजतक चैनल शुरू हुआ था...उसे रोज़ाना सुनना हमारी दिनचर्या में शुमार था...इसी तरह से फिर और भी हिंदी के खबरिया चैनल आ गए...निःसंदेह मानना पड़ेगा कि इन हिंदी चैनलों में जो लोग काम करते थे उन की हिंदी पर बड़ी ही अच्छी पकड़ थी..उच्चारण आदि एकदम परफेक्ट...इन्हें सुन सुन कर लोगों को हिंदी समझने-बोलने में बड़ी मदद मिली। 

उन्हीं दिनों की बात है सन् २००० के बाद पंजाब जैसे प्रदेशों में भी हिंदी के बड़े अखबारों के स्थानीय संस्करण आने लगे ..दैनिक जागरण, अमर उजाला, दैनिक भास्कर ...ये सब अखबार धीरे धीरे अहिंदी भाषी प्रांतों में लोकप्रिय होने लगे...इन की भी बड़ी अहम् भूमिका रही..धीरे धीरे हिन्दुस्तान और नवभारत टाइम्स जैसे समाचार पत्र भी छोटे शहरों कस्बों में भी मिलने लगे...लोगों को इस का भी भरपूर लाभ हुआ। 

मैंने भी उन दिनों हिंदी में लिखने लगा..अखबारों में छपने भी लगा...असम में जोरहाट में पहले हिंदी लेखक शिविर में जाने का अवसर मिला...वहां पर लिखने की थोड़ी बहुत बारीकियां पता चलीं और यह भी पता चला कि हमें हिंदी की डिक्शनरी रखनी कितनी ज़रूरी है। वहां से लौटने के बाद ये सब शब्दकोष जो रिक्मैंड किये गये थे, खरीद लिए। 



लेकिन मुझे डिक्शनरी के बारे में एक बात कहनी है कि अकसर मैं देखता हूं जिन घरों में एक पुरानी खस्ता हालत डिक्शनरी होती है, जगह जगह से फटेहाल, सब से बेहतर वे ही उसे इस्तेमाल करते हैं...अब जैसे जैसे घरों में डिक्शनरीयों की संख्या बढ़ गई है, जब ज़रूरत पड़ती है तो हमें पता ही नहीं चलता कि ये कहां पड़ी हैं। किसी शब्द का अर्थ देखने, समझने के लिए बस वे १-२ मिनट ही बड़े क्रूशियल होते हैं....अगर डिक्शनरी नहीं दिखती तो बस वह शब्द भी कम से कम उस दिन के लिए तो हाथ से निकल जाता है। आप में से बहुत से पाठक ऐसे होंगे जो कहेंगे कि अब तो स्मार्टफोन पर तुरंत कुछ भी पता कर सकते हैं......लेकिन पता नहीं मुझे क्यों लगता है कि किसी शब्द से तारूफ डिक्शनरी के चंद पन्नों के साथ जद्दोजहद किए बिना हो जाए तो शायद उस में उतना लुत्फ नहीं हो सकता....जब कोई शब्द एक पुरानी पुश्तैनी फटी पुरानी डिक्शनरी में मिलता है तो उस के रोमांच को कौन ब्यां करे, दोस्तो.. यह मेरा पर्सनल ओपिनियन हो सकता है क्योंकि मैं इस तरह की बातों का गवाह रहा हूं। 



हम लोग देखते हैं आज कल बुक फेयर्ज़ में जा कर लोग महंगी से महंगी लेटेस्ट डिक्शनरीयां खरीदते हैं लेकिन शायद इस की इतनी ज़रूरत होती नहीं ....कोई भी ठीक ठाक डिक्शनरी से काम चल जाता है...मेरे पास इंगलिश की डिक्शनरी ३७ साल पुरानी है और दो तीन और भी हैं, लेकिन मैं हमेशा कालेज के दिनों से ही इस पुरानी वाली डिक्शनरी को ही देखता हूं ...लेिकन शर्त यही है कि डिक्शनरी बिल्कुल सामने होनी चाहिए ...शायद हमें फिक्र होती है हम शो-पीस या एन्टीक या महंगे फूलदान तो सामने रख लें ...लेकिन डिक्शनरी किसी ऐसी जगह पर छिपी रहती है कि उसे निकालने का आलस ही रहता है। 

दूसरी बात मैं यह शेयर करना चाह रहा हूं कि हमारे पास हिंदी का भरपूर लिटरेचर है ...हम हिंदी साहित्य तो क्या, किसी भी साहित्य को पढ़ने के इतने उत्सुक नहीं दिखते....लेकिन मैं सब के लिए ऐसा क्यों कह रहा हूं, मैं अपने बारे में कह सकता हूं कि मैं साहित्य अध्ययन नहीं कर पाता....दो तीन पन्ने भी नहीं पढ़ पाता कि झपकी आ जाती है। लेिकन अब सोच रहा हूं कि फिजूल की बातों में समय बर्बाद करने की बजाए दिन में एक दो घंटे तो साहित्य के लिए रख दिए जाने चाहिए। आज भी मैंने जावेद अख्तर साहब की किताब तरकश के शुरूआती २०-२२ पन्ने पढ़े....यह किताब मैंने १० साल पहले खरीदी थी, उन दिनों इसे थोड़ा देखा था, कल बुक-शेल्फ में इस पर नज़र पड़ गई तो सोचा कि इसे फिर से पढ़ा जाए....मुझे गद्य तो समझ में आ जाता है ..लेकिन ये कविताएं और भारी भरकम भाषा मेरे पल्ले नहीं पड़ती ...नहीं तो न सही, उस का कोई मलाल नहीं, जो पल्ले पड़ता उसे ही पढ़ लूं तो अपने आज को बीते हुए कल से बेहतर बना लूं..अख्तर साहब की तरकश के कुछ अंश दो दिन में आप के समक्ष रखूंगा। 

थोड़ा किताबों की उपलब्धता की बात भी कर लेते हैं...मुझे याद है कुछ महीने पहले किसी मीटिंग में बैठा हुआ था ...एक अधिकारी ने कहा कि उस का मुंशी प्रेमचंद का फलां फलां नावल पढ़ने की बड़ी तमन्ना है ..लेकिन लाइब्रेरी में नहीं है...मैंने बताया कि हिंदी भाषा का बहुत सा साहित्य ऑनलाइन अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा की वेबसाइट पर मुफ्त में हम लोग पढ़ सकते हैं......किसी भी लेखक को, किसी भी विधा को, कहानी, निबंध, कविता, नावल......कुछ भी हमें इस साइट पर मिल जाता है...

www.hindivishwa.org >>>>>इस साइट के होमपेज पर जा कर ...हिंदी समय लिंक पर क्लिक करिए....
 >>>>> www.hindisamay.com भरपूर हिंदी साहित्य आप के समक्ष खुल जाएगा....अपनी पसंद अनुसार कुछ भी पढ़िए..कुछ भी सहेज कर रखिए या प्रिंट करना चाहें तो प्रिंट भी कर लें। यह रहा इस का लिंक ... हिंदी समय 

आज शाम लुधियाना से मित्र का मैसेज आया था कि हम लोग लुधियाना में हिंदी दिवस मना रहे हैं, लखनऊ में क्या प्रोग्राम है ....लखनऊ के बारे में तो क्या बताएं दोस्त, लखनऊ में तो हर दिवस ही हिंदी दिवस है...यहां बहुत अच्छा साहित्यिक वातावरण है.....और जहां तक मेरी बात है नाचीज़ ने अपने चंद अनुभव शेयर कर के हिंदी दिवस मना लिया...जाते जाते एक मशविरा और देता चलूं.......रोज़ कुछ न कुछ हिंदी में लिखने की आदत डालिए....शुरूआती झिझक चंद दिनों से आगे टिक नहीं पायेगी..यकीनन। 

जाते जाते यह ध्यान भी आ गया कि किस तरह के हिंदी फिल्म के गीतकारों ने भी बेहतरीन से बेहतरीन गीत हमें तोहफे में दिये हैं....ये हमें गुदगुदातें हैं, हंसाते हैं, सोचने पर मजबूर करते हैं और बहुत बार आंखें भी भिगो देते हैं...वैसे इस समय मुझे दोपहर में रेडियो पर बज रहा यह गीत याद आ गया....


शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

स्मार्ट फोन,स्मार्ट मरीज लेकिन जेब में गुल मंजन की डिब्बी ...

उस दिन मेरे पास एक ७० वर्ष के करीब बुज़ुर्ग आए...बातें हो रही थीं कि कहने लगे कि मुझे प्लान्टर फेश्आईटिस् है...मुझे उत्सुकता हुई कि एड़ी में दर्द की बात कर रहे हैं और बार बार इतना भारी भरकम मेडीकल शब्द बोल रहे हैं...मैंने ऐसे ही पूछा कि क्या आपने किसी हड्डी के डाक्टर या सर्जन को दिखाया है तो कहने लगे ..नहीं, मुझे पता है यह वही है प्लान्टर फेश्आईटिस...उन्होंने इस का राज़ खोला कि मैंने अपने लक्षण गूगल सर्च पर डाल दिए और मुझे पता चल गया कि मेरी बीमारी का नाम क्या है और मैंने इस के इलाज के बारे में जान लिया।

मैं सोच रहा था कि गूगल सर्च ईंजन वरदान तो है ही ...लेकिन कभी कभी यह बिना वजह किसी को परेशान भी कर सकता है। लेकिन इस में गूगल का कोई दोष नहीं है। मैं इस बात में बिल्कुल भी विश्वास नहीं रखता कि हम चिकित्सकों को बाई-पास कर इसी तरह से अपने लक्षणों के आधार पर अपनी बीमारी को स्वयं ही लेबल करें और फिर उस के इलाज को जानने का दावा करें...

डाक्टर लोग १५-२० साल पढ़ते लिखते हैं.. जब घिसने लगते हैं जब उन्हें यह सब समझ आने लगता है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि हम लोग खुद ही इस तरह की डाक्टरी करने लगें ...इस में मरीज़ का ही नुकसान है।

हां, थोड़ी बहुत सेहतमंद रहने की जानकारी गूगल बाबा से ले लेना...शरीर विज्ञान के बारे में कुछ हल्की फुल्की जानकारी (बिना दिमाग पर बोझ डाले हुए) आसानी से हासिल कर सकते हैं तो कर लेनी चाहिए...वरना, सेहतमंद रहने के जितने फंडे हम पहले ही से जानते हैं उन्हें ही मान लें तो पर्याप्त है। 

अभी एक बात का और ध्यान आ गया....दो दिन पहले मेरे पास एक अच्छा पढ़ा लिखा मरीज आया....मैंने उस के दांत देखे...उसे बताया कि नीचे वाले दांत में तकलीफ है...टूटा हुआ है....लेकिन वह बार बार कहे जा रहा था कि नीचे तो है ही ऊपर वाले में भी यही तकलीफ है। मैंने देखा, मुझे ऊपर वाले जबड़े में कुछ गड़बड़ी लगी नहीं....लेकिन वह कहने लगा कि नहीं, ऊपर भी है। मैं हैरान कि यह इतने विश्वास से कैसे कह रहा है, तभी उसने अपना सैम्संग ग्लैक्सी २ निकाल कर मुझे फोटू दिखाई अपने दांतों की ....मैं हैरान था कि इतनी क्लियर फोटू तो मैं नहीं खींच पाता किसी मरीज़ के मुंह के अंदर की......हां, तो वे तस्वीरें देखने पर पता चला कि वह जिस फोटो को ऊपर वाले दांतों की समझ के परेशान था, वह तो थी ही उस के नीचे वाले दांतों की। मैंने उसे समझाया तो बात उस की समझ में आई। आप समझ ही सकते हैं कि इस तरह से अपनी बीमारी के बारे में निर्णय करने के क्या परिणाम हो सकते हैं!

स्मार्ट फोन आ गये, मरीज भी स्मार्ट हो गये, गूगल बाबा की कृपादृष्टि भी बरसने लगी लेकिन एक परेशानी ने हमारा साथ नहीं छोड़ा....तंबाकू, जर्दा, पानमसाला, सुरती, खैनी...दो दिन पहले वाला एक मरीज़ याद आ गया...मुंह की हालत तंबाकू की वजह से बहुत खराब थी, बहुत ही ज़्यादा। मैंने पूछा कि तंबाकू-गुटखा कितना और कब से?...जवाब मिला एक हफ्ते से सब कुछ बंद है, बस एक पान की लत है वह नहीं छूटती......लेकिन एक पान मात्र....मैंने समझाया कि उसमें भी तो सुपारी है, तंबाकू है, उस से कुछ भी भयंकर रोग हो सकता है। मान गये कि उसे भी छोड़ देंगे....मैंने कहा ...निडर हो कर छोड़िए दो चार दिक्कत होगी, सिर विर थोड़ा भारी लगेगा, शायद थोड़ा दुःख भी सकता है लेकिन बाद में सुख ही सुख है, अगर तलब लगे तो मुंह में छोटी इलायची या सौंफ रख लिया करिए। झट से उन्होंने अपनी जेब से तीन चार इलायचियां निकालीं ...मेरे समेत सब को एक एक थमा दी....मुझे अच्छा लगा कि चलो, यह तो समझ गये लगते हैं ..लेिकन जाते जाते जैसे ही पेस्ट मंजन की बात हुई तो उन्होंने जेब से यह वाली डिबिया निकाल मेरी मेज पर रख दी ...इस में गुल मंजन है ...इस मंजन को यह बंदा कईं बरसों से दिन में कईं बार मुंह में रगड़ लेता है....गुल मंजन के बारे में तो आप जानते ही होंगे कि इस में तंबाकू होता है और यह मुंह का कैंसर का एक बहुत बड़ा कारण है। 
चांदी की डिब्बी में गुल मंजन ....नफ़ासत और नज़ाकत का नमूना!
आप देख ही रहे हैं कि यह डिब्बी भी चांदी की है जिस में इन्होंने इतनी हिफ़ाज़त से गुल मंजन संभाल कर रखा हुआ है...उन के साथ आए हुए शख्स ने इतना ज़रूर कहा कि आप देखिए...किस नफ़ासत और नज़ाकत के साथ....

मैंने इस  नफ़ासत नज़ाकत पर कोई टिप्पणी नहीं की, लेकिन मुझे गुल मंजन के बारे में बात करनी पड़ी ....कह कर तो गये हैं कि इसे भी छोड़ देंगे....देखते हैं...

आज कौन सा गाना लगाऊं.....सोच रहा हूं ...आज पंजाबी की एक सुपरहिट गायिका जसविंदर बराड़ का गीत बजा दिया जाए.....किसी ज़माने में मैं इन्हें बहुत सुना करता था....ग्रेट आर्टिस्ट ...ग्रेट गीत....इस गीत में यह अपने भाईयों को यह हिदायत दे रही है कि घर का सामान चाहे तो सारा कुछ बांट लेना, लेकिन मां-बापू को इक्ट्ठे रहने देना, उन को भी न कहीं बांट लेना कि बेबे एक के पास और बापू दूसरे के पास...निःशब्द........

डेढ़ महीने बाद ब्लॉग पर वापिसी ...

पूरे डेढ़ महीने के बाद आज ब्लॉग पर वापिस लौटा हूं...बस ऐसे ही कुछ लिखने की इच्छा ही नहीं हुई...जब भी लिखने लगूं यही लगे कि आखिर मैं लिखना चाहता ही क्यों हूं...बस, इसी तरह के विचार आते रहे और इतना समय निकल गया..लेकिन मैंने इन डेढ़ महीनों को व्यर्थ नही गंवाया।

पिछले दिनों मैंने शेयरो-शायरी खूब पढ़ी ...और फिर जो कुछ मुझे पसंद आया उसे फेसबुक, ट्विटर और गूगल-प्लस पर शेयर भी किया। और रेडियो भी खूब सुना...खूब। 

शायरों को पढ़ना सुनना बहुत अच्छा लगता है...खास कर के जो बातें इंस्पायर करें उन बातों को। मैं अकसर सोचता हूं कि हमारे पास इतना भरपूर लिचरेचर है लेकिन शायद हम लोग उस का उतना फायदा उठा ही नहीं पाते। पढ़ते पढ़ते कोई शब्द समझ नहीं आए तो मैं उसे डिक्शनरी में देखने की ज़हमत तक नहीं उठाता...इसीलिए मेरे जैसे लोगों की वोकेबलरी का स्तर २० साल पहले जैसा ही रहता है। 

पढ़ने का इतना आलस्य कि पिछले दो तीन वर्षों से फणीश्वरनाथ रेणु जी द्वारा रचित मैला आंचल और श्री लाल शुक्ल जी का राग दरबारी पढ़ने की तमन्ना है...कुछ महीनों बाद उठाता हूं ...दो चार पन्ने पढ़ता हूं ...बस। 

लिखने का मन इसलिए भी नहीं किया कि कभी कभी ऐसा भी लगता है कि अपने प्रोफैशन से संबंधित जितना लिखना था, वह हो चुका है...अगर कोई इसे पढ़ कर के फायदा उठाना चाहे तो उस के लिए सामग्री पर्याप्त है...और इन लेखों में एक एक शब्द को मैंने पूरी इमानदारी से लिखा है। 

जहां तक अन्य विषयों पर लिखने की बात है ..मैं ऐसा सोचने लगा हूं कि पढ़ने वाले को तो लगता होगा कि अच्छा लिखा है ..बात सही भी लिखी गई होती होगी, सच भी होती होगी ...लेकिन यही लगने लगा है कि अगर कोई भी बात दिल की गहराई से शेयर न की जाए तो फिर लिखने का क्या फायदा....लेखन में पैसा-वैसा तो है नहीं, अगर सतह पर रह कर ही अपनी बात शेयर करनी है जिसे पढ़ कर चार लोग कमैंट कर दें, दो टिप्पणी कर दें ...तो फिर इस तरह से लिखने का फायदा क्या, कुछ भी तो नहीं।

जब तक अपने लेखन में पूरी ईमानदारी न होगी तब तक लिखना किसी के लिए भी हितकारी न होगा...न लिखने वाले के लिए न ही पढ़ने वाले के लिए....इसलिए जो लोग पूरी ईमानदारी से लिखते हैं उन्हें पढ़ना, सुनना, बार बार पढ़ना बहुत भाता है....पता झट से लग जाता है कि लिखने वाला मेरी तरह का सुपरफिशियल लेखक है या फिर दिल से गहराईयों से लिखता है। 

मुझे कभी समझ नहीं आई कि आखिर मेरे जैसे लोग लिखते हुए डरते क्यों हैं...क्यों खुलापन नहीं आ पाता अपने लेखन में....अकसर सोचता हूं इस बारे में।

मैं अकसर सरकारी टीवी चैनलों की भरपूर तारीफ़ करता रहता हूं ....मेरी पिछली पोस्टों में आपने शायद इसे नोटिस किया होगा। 

कुछ प्राईव्हेट टी वी चैनलों पर तो जिस तरह से अकसर हम लोग जनप्रतिनिधियों को अपनी बात कहते देखते हैं, मेरा तो झट से सिर भारी हो जाता है...पांच सात मिनट के बाद ही ...जिस तरह से वे उछल उछल कर एक दूसरे की बात काट रहे होते हैं, उस से पता चल ही जाता है कि सच क्या है और झूठ क्या!

इस के विपरीत सरकारी चैनलों के कुछ प्रोग्राम हैं जिन की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। कल मुझे ध्यान आया कि अरसा हो गया मैंने राज्य सभा टीवी चैनल पर गुफ्तगू प्रोग्राम नहीं देखा....मैंने यू-ट्यूब पर उसी समय लेख टंडन जी से मुलाकात सुनी ...कल रात की ही बात है....


जब मैं इस प्रोग्राम को देख रहा था तो मैं सोच रहा था इसे देखते हुए एक प्रतिशत या एक रती भर भी कहीं नहीं लगा कि यह महान् शख्स लेख लंडन जी कहीं कुछ छिपा रहे हैं या अपने शब्दों पर कोई मुलम्मा चढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं....ऐसे लोगों के संघर्ष को हमारा नमन......सच्चाई से टपकते इस तरह के इंटरव्यू हमें केवल इन्हीं सरकारी चैनलों पर ही दिखाई पड़ते हैं।

इन्हें सुनने के बाद ...मैंने इसी यू-ट्यूब चैनल पर शख्शियत श्रृंखला में चित्रा मुदगल जी को सुना.....एक दम रूह खुश हो गई...उन्हें भी सुनते हुए लगा कि जैसे शब्द नहीं, उन के मुंह से मोती किर रहे हों, इतना सच्चाई, बेबाकी और ईमानदारी से अपनी बात रखना ....जितनी तारीफ़ की जाए उतनी कम है....


मुझे बस इतना ही कहना है कि हमें इस तरह के महान लोगों को सुनने का भी टाइम निकाल लेना चाहिए...मैं अपने बारे में तो कह सकता हूं कि कईं बार बेकार में सोशल मीडिया में उलझे रहते हैं ....न कुछ कढ़ना न कुछ पाना....बेकार में मुंड़ी गडाए सिर दुःखा लेते हैं......अगर सच में कुछ प्रेरणा चाहिए, कुछ सोचने पर मजबूर करने वाली बातें सुनने का मन हो तो इस तरह के कार्यक्रम देखने चाहिए....रोज़ाना......भरपूर खजाना है इन सरकारी टीवी चैनलों के यू-ट्यूब चैनलों पर .....बस, हमारे में इन से कुछ ग्रहण करने की इच्छा होनी चाहिए। क्या पता इन महान् शख्शियतों को सुनते सुनते हम भी अपनी बात दिल की गहराईयों से कहने लगें....

और कल क्या किया?....दोपहर में शायद ज़ी क्लासिक पर जीवन-मृत्यु फिल्म आ रही थी...एक दो घंटे उसे देखा ...शाम को आप की कसम किसी चैनल पर आ रही थी तो उसे बीच बीच में देखता रहा ...रात में लेख टंडन साहब और चित्रा मुद्गल जी को सुना.......बहुत सुकून मिला ....

जीवन-मृत्यु फिल्म का यह गीत अभी ध्यान में आ गया....