सोमवार, 13 अप्रैल 2015

जिस का कोई नहीं उस का तो खुदा है यारो..



अभी खाना खाते हुए मिसिज़ एक बात शेयर कर रही थीं...कातर एक अमीर देश है...वहां एक हाटेल में एक दिन एक आदमी ने खाना खा लिया लेकिन वेटर जब बिल लेकर पहुंचा तो उस के पास देने के लिए कुछ भी नहीं था।

वेटर ने बात काउंटर पर जाकर मालिक को बताई। दो भाई मालिक थे...खुदा के बंदे होंगे.....उन्होंने सोचा कि बात है तो सोचने लायक कि आदमी को भूख है लेकिन पैसे देने के लिए नहीं हैं तो वह आखिर क्या करे!

उन्हें उस दिन कुछ ऐसी प्रेरणा मिली कि उन्होंने उस दिन से यह निर्णय लिया कि उन के हाटेल में ऐसे लोग भी आ सकते हैं जिन्हें भूख लगी है लेकिन पैसे नहीं हैं। पहले तो उन्होंने सोचा कि हम लोग इस तरह के नेक काम के लिए वेजिटेरियन मेन्यू रखेंगे ..लेकिन खुदा ने पता नहीं फिर उन्हें क्या प्रेरणा दी कि उन्हें लगा कि यह ठीक नहीं है, उन्हें फ्री में खाने वालों के लिए भी अपना मेन्यू पूरा खुला रखा...वे भी कुछ भी मंगवा सकते थे।

मुझे यह सब सुन कर बहुत अच्छा लगा। बाद में क्या हुआ कि कुछ सामाजिक संस्थाओं ने इस हाटेल को दान भिजवाना शुरू कर दिया...और यह भला काम चल रहा है। दूसरे देशों से आए ऐसे लोग जिन के पास खाने का कोई जुगाड़ नहीं होता, कोई काम धंधा नहीं है...ऐसे लोग भी वहां आ कर अपना पेट भर लेते हैं। इन हाटेल मालिकों के ज़ज्बे को सलाम्। अब तो वह यह काम करने वाले हैं कि खाने के पैकेट बना कर बाहर फ्रिज में ही रख दिया करेंगे ताकि किसी ज़रूरतमंद को मांगने की भी ज़हमत न उठानी पड़े। वाह...वाह ...वाह!!

किसी दूर देश की एक बार मैं बात पढ़ रहा था..सुस्पेन्डेड कॉफी की ....वहां एक रवायत है कि जो कोई भी किसी रेस्टरां ने कॉफी पी कर जा रहा है ...उस का मन चाहे तो एक दो कॉफी के पैसे छोड़ जाता है और रेस्टरां के मालिक को कह जाता...."keep two suspended coffees".....और वह दुकानदार अपने पास ठीक से लिख लेता कि कितनी सुस्पेंडेड कॉफी अभी उस के पास जमा हैं। अब कुछ समय बाद कोई थका मांदा, बेरोज़गार, बीमार या कोई बुज़ुर्ग आता ...दुकानदार से पूछता ...."Is there any suspended coffe?" ... उस पूछने वाले को उसी सम्मान और खुलूस से वहां बिठाया जाता और कॉफी पिलाई जाती है.....कैसी लगी आप को यह सुस्पेन्डेड कॉफी वाली बात!....यह प्रथा वहां पर अभी भी चल रही है। जब मैंने यह बात पहली बार सुनी तो मेरी आंखें भर आई थीं....न देने वाले का पता, न लेने वाले का पता...कोई बड़ा न हो पाया, किसी को किसी के सामने छोटा न होना पड़ा........वाह भई वाह।

हम अपने आस पास भी कितनी उदाहरणें देखते हैं जहां पर ज़रूरतमंदों को खिलाने का काम सेवाभाव से किया जाता है...वैसे देखा भी जाए तो इस से बढ़ कर क्या सेवा हो सकती है! हम अकसर सुनते हैं कि अस्पतालों में लोग मरीज के रिश्तेदारों के लिए निःशुल्क खाना पहुंचाते हैं।

कुछ दिन पहले ही मैं नेट पर ही देख रहा था ... बंबई के टाटा अस्पताल के सामने भी एक ऐसी ही सुविधा है...उस बंदे को भी ऐसे ही एक दिन प्रेरणा मिली कि मरीज़ के तीमारदार उस का इलाज करवाएं कि खाना ढूंढते फिरें। उस लेख में लिखा था कि अब उस दुकान में खिचड़ी भोज आदि खाना सैंकड़ों ज़रूरतमंदों के लिए बनता है और यह सेवा निःशुल्क है।



उदाहरणें मिल जाती हैं....लखनऊ में ही मैं देखता हूं नाका हिंडोला पर ...कुछ हाटेल हैं जहां पर मटन-बिरयानी आदि खूब बिकती है....और उन के सामने बीसियों ज़रूरतमंद एक लाइन में बैठ कर किसी दाता की बाट जोहते दिख जाते हैं...मुझे यह सब देख कर बहुत सुकून मिलता है..

अमृतसर में देखा करते थे बचपन से लंगर की ऐसी सुंदर प्रथा...हज़ारों लोग खा रहे हैं...फिर भी भंडारे भरपूर हैं..हर एक का तहेदिल से स्वागत है ...खुशी खुशी सेवादार लोग वहां पर सेवा करते रहते हैं निरंतर.....सच बताऊं उस लंगर बिल्डिंग में घुसते ही इन सेवादारों की सेवा और गुरू की कृपा को महसूस करते हुए झनझनाहट होने लगती है...(पंजाबी च कहंदे ने लू-कंडे खड़ जाने!!)

मेरी भी कईं बार इच्छा होती है कि इस तरह की किसी संस्था का हिस्सा बन कर तन-मन-धन से भरपूर सेवा की जाए...जिस में पाखंडबाजी ..ड्रामेबाजी बिल्कुल न हो कि हम खिलाने वाले हैं तुम खाने वाले हो......किस ने खिलाया किस ने खाया ...यह भी कोई हिसाब रखने की बात है!.....ऊपर कातर के रेस्टरां की बात सुन रहा था तो मुझे लगा कि ऐसे हाटेल में तो वेटर लगना भी सबब का काम होगा! मेरी मिसिज़ ने बताया है कि आज की टाइम्स ऑफ इंडिया में यह लेख आया है। मैं ठीक तरह से पढ़ता नहीं हूं ना अखबार...मेरी एक यह भी समस्या है।

जाते जाते एक घटिया सी सस्ती बात ......लिखनी पड़ रही है क्योंकि हम अकसर एक दूसरे से ही सीखते हैं.... वैसे तो िलखते हुए भी बड़े छोटेपन का अहसास हो रहा है ... पिछले कईं वर्षों से हम और कुछ नहीं कर सके लेकिन पूरे परिवार ने एक संकल्प लिया हुआ है कि किसी भी जगह कुछ खाते हुए या किसी खाने की दुकान में या कहीं भी--
ट्रेन में, बस में....कहीं भी ...अगर कोई कुछ खाने को मांगेगा तो उसे वही खिलाया जाएगा जो हम खा रहे हैं...देखो यार, मैं तो इस का लगभग शत-प्रतिशत पालन कर रहा हूं....मुझ से किसी की भूख नहीं देखी जाती...मैं फिर उस चक्कर में नहीं पड़ सकता हूं कि क्या ठीक है, क्या गलत है,  कुछ लोग कहते हैं कि अगर इन को इस तरह से लोग देते रहेंगे तो ये निकम्मे हो जाएंगे...मैं तो हमेशा यही सोचता हूं कि पढ़े लिखे ....ऊंची पदवियों वाले लोगों के पेट करोड़ों रूपये के घोटाले कर भी नहीं भरते तो हमारे बीस-पचास से इन भूखे लोगों का क्या हो जाएगा..

 काश! हम अपने से कम नसीब वालों पर रहम करना सीख जाएं..और ऐसी किसी संस्था की तलाश मेरी भी जल्द खत्म हो.....जहां पर इसी तरह के काम होते हों...परदे के पीछे रह कर! क्या आप ऐसी किसी संस्था को जानते हैं?...तो लिख दो यार टिप्पणी में।