शनिवार, 28 मार्च 2015

कितना प्लास्टिक अंदर लेंगे और कितना फैलाऐंगे !

हर जगह पर खाने पीने के अपने तौर तरीके होते हैं...इन पर वैसे तो कोई टिप्पणी करते नहीं बनती और न ही करनी चाहिए शायद। आम आदमी की बिल्कुल मासूम सी छोटी छोटी खुशियां हैं, जैसे वह लूटना चाहे....लूट ले।

लेकिन अगर कुछ दिख जाए जो सेहत के लिए या पर्यावरण के लिए खराब हो तो बात कहने में हिचकिचाहट कैसी!

चाय से बात शुरू करते हैं...मैंने बात दरअसल करनी है लखनऊ की चाय की...लेकिन मुझे पहले थोड़ा इधर उधर की हांकनी पड़ेगी। सीधा ही लखनऊ की चाय का तवा लगाने लगूंगा तो पक्षपात लगेगा। 

शुरू से अमृतसर रहे, वहीं पढ़े-लिखे....वहां पर चाय पीने का अंदाज़ अपना अलग ही था, होता है हर जगह की अपनी खाने पीने की आदते हैं...मुझे अच्छे से याद है कि वहां पर दो तीन जुमले चाय वालों को ज़रूर सुनने पड़ते हैं....यार, पत्ती रोक के ते मिट्ठा ठोक के (यानि पत्ती कम और चीनी दिल खोल के डालना)...जी हां, उस दौर में लोग शर्बत जैसी चाय पीना पसंद किया करते थे... और एक बात.... एक जुमला यह भी...मलाई मार के ... मुझे अच्छे से याद है, चाय वाला चाय की प्याली या गिलास से ऊपर एक चम्मच मलाई का छोड़ दिया करता था...हां, उस दौर में चॉकलेट पावडर भी फ्लेवर के लिए चाय तैयार करते समय डाला जाने लगा था...शायद हम लोग घरों में भी इसे इस्तेमाल करने लगे थे। ओह माई गॉड... काम की बात मैं फिर भूल गया... बेसन के लड्डू...गर्मागर्म चाय के साथ दो एक बेसन के लड्डू होने पर रूह खुश हो जाया करती थी। 


बंगलोर में चाय-काफी परोसने का अंदाज़
मुझे याद है मैं पहली बार १९८७ जनवरी में बंगलौर गया....वह पर हर जगह चाय काफी (अधिकतर काफी) पीने का बेहद साफ़ सुथरा एवं सुंदर अंदाज़ देखा जो मुझे बहुत अच्छा लगा....मैंने वहां से आकर बहुत से लोगों के साथ वह एक्सपिरिएंस शेयर किया..

दिल्ली में तो सारा खाना-पीना पंजाब जैसा ही है...उसे रहने देते हैं.....कुछ साल हरियाणा में मास्टरी की, वहां भी सब कुछ ऐसे ही चलता है.. लेिकन अकसर तीन चार दोस्तों को एक साथ चाय पीते जब देखते थे तो एक स्टील की प्लेट में एक किलो जलेबी या एक किलो लड्डू पड़े देख कर कुछ लगता तो था.... क्या, वह नहीं बताऊंगा!

अब आते हैं लखनऊ शहर में ... मुझे यहां आए दो साल हो गये हैं...मैंने क्या देखा अपने अस्पताल में कि कॉरोडोर में लोग पतली सी प्लास्टिक की पन्नियों में से चाय उंडेल उंडेल कर प्लास्टिक के छोटे छोटे ग्लासों में डाल कर पिया करते।

पहले पहले मुझे लगा कि शायद आज ही यह हो रहा होगा क्योंकि गिलास-प्याली नहीं मिले होंगे..लेकिन नहीं, मैं गलत था, अस्पताल में ही क्या, लखनऊ में अकसर मैंने बहुत जगहों पर यही सिलसिला देखा। बेशक इस से लखनऊ की नफ़ासत और नज़ाकत पे कोई आंच नहीं आती..


मुझे भी यह लोग चाय पीने के िलेए कहते ..लेकिन मुझे कभी नाश्ते और लंच के दरमियान चाय पीने की तलब होती ही नहीं.... लेिकन मैं अपने अटेंडेंट को भी अकसर देखता, जब देखो आधे घंटे के बाद प्लास्टिक का छोटा सा कप मुंह पे लगाए दिखता.....फिर मैंने इन्हें समझाना शुरू किया .. धीरे धीरे अब ये लोग अपनी चाय एक थर्मस में लाते हैं और फिर कांच के गिलास में पीने की आदत डाल रहे हैं। 

दोस्तो, यह जो प्लास्टिक की पन्नियों में चाय पीने-पिलाने का सिलसिला है, यह सेहत के लिए बहुत खराब है...मुझे याद है जब आज से बीस तीस साल पहले इन प्लास्टिक की थैलियों में दही मिलने लगा तो हम नाक-मुंह सिकोड़ लिया करते थे..लेिकन फिर हमें इस की आदत पड़ गई...फिर हम ने देखा ..बंबई में जिस भी डेयरी से दूध लेते थे...वह भी इन्हीं पन्नियों में ही डाल कर दिया करता .... इस की भी लत लग गई...

लेिकन हम रूकने वाले नहीं....फिर धीरे धीरे देखा कि ढाबे वाबे वालों ने दाल-सब्जी भी इन्हीं घटिया किस्म की प्लास्टिक की थैलियों में ही पार्सल करनी शुरू कर दीं। 

सोचने वाले बात यह है कि अगर हम लोग फ्रिज में पानी रखने के लिए प्लास्टिक की बोतलों के बारे में इतने ज़्यादा सज है तो फिर यह कैसे हो गया कि इन सब चीज़ों की तरफ़ ध्यान ही नहीं देते। 

हां, वह पत्तों के दोनों की जगह वह चमकीले से प्लास्टिक जैसी लाइनिंग वाले दोने आ गये....एक बार आठ साल पहले जब मैं ब्लॉग लिखना सीख रहा था तो एक बार इमरती खाते हुए इस तरफ़ ध्यान गया था... यहां लिंक दे रहा हूं...

यह समस्या प्लास्टिक की छोटी छोटी ग्लासियों में चाय पीने की यह भी है कि मुझे पूरा यकीन है कि ये सब रिसाईक्लड प्लॉसिक से ही बनती हैं...बेशक, लेकिन इन का डिस्पोज़ल भी कहां ढंग से हो पाता है...सब इधर उधर फैंक कर छुट्टी कर लेते हैं..

और तो और जिस सतसंग में हम लोग जाते हैं वहां पर सुबह सुबह चाय भी सभी श्रद्धालुओं को ५०-६०प्लास्टिक के ग्लासों में ही परोसी जाती है.. अब तो प्रसाद भी वही प्लास्टिक की लाइनिंग वाले दोनों में ही मिलता है हर जगह... और लंगर भी वहीं डिस्पोज़ेबल प्लेटों में......गुज़रे जमाने की बातें याद करें तो मुझे अच्छे से याद है कि १९७० के दशक में अकसर लंगर को हाथों में ही लिया जाता था....परशादे (रोटी) के ऊपर ही दाल डाल दी जाती थी..और हम सब ऐसे ही उस का लुत्फ़ उठा िलया करते थे....और स्वर्ण मंदिर में प्रसाद की बेहद सुंदर व्यवस्था तो है ही...गर्मागर्म हलवा आप को हाथ ही में दिया जाता था... और दोने भी वही पुराने दौर वाले ... पत्तल के। 

आज सुबह सुबह ये बातें करने की इच्छा हो गई......इन सब बातों के प्रति थोड़ा सा भी हम सब सजग और सचेत रहेंगे तो अपनी सेहत के साथ साथ पर्यावरण की सेहत की भी थोड़ी संभाल कर लेंगे।

लिखते लिखते बंबई की कटिंग चाय का ध्यान आ गया....

और मेरी मां की बात भी याद आ गई कि जब वे विभाजन से पहले गाड़ी में यात्रा किया करती थीं तो स्टेशन आने पर चाय की आवाज़ें इस तरह से लगा करती थीं.....हिंदु चाय...हिंदु चाय.......मुस्लिम चाय... मुस्लिम चाय.........और मां के स्कूल में भी ...पानी के मटके भी हिंदु बच्चों के लिए अलग और मुस्लिम बच्चों के िलेए अलग!! उस दौर की कल्पना कर के तो लगता है कि हम लोग सच में बहुत सुधर गये हैं...वैसे एक बात जो मां बड़ी शिद्दत से दोहराती हैं कि बस यह पानी और चाय के अलावा, कभी उन्हें हिंदु-मुस्लिम अलग अलग होने का अहसास दिलाया ही नहीं गया, सब का आपस में घुल मिल कर रहना भी उस दौर की एक पहचान थी।

सब से बढ़िया वही दौर था जब लोग चाय मिट्टी के कुल्हड़ों में पिया करते थे... गाड़ी में भी ऐसे चाय पीने में अच्छा लगता था...तब यह नियम नहीं था, लोगों ने वैसे ही ऐसे चाय पीना स्वीकार किया हुआ था...कुछ साल पहले रेल मंत्री लालू यादव के जमाने में एक दौर वह भी आया...जब एक नियम भी बन गया कि रेलों में चाय ऐसे ही कुल्हड़ों में बिका करेगी...लेकिन अकसर देखने में आता कि स्टाल वाले अपना सारा धंधा कांच, प्लास्टिक एवं थर्मोकोल वाले गिलासों में ही किया करते ...बस, बीस तीस कुल्हड़ वे लोग अपने स्टाल पर सजाए रखते कि कहीं कोई अधिकारी अपने औचक निरीक्षण में पूछ ले तो!!

                                                वैसे मुझे चाय पीना ऐसे ही अच्छा लगता है....

आज पता नहीं सुबह से मेरे को यह गीत बार बार याद आ रहा है ....आप भी सुनिए...सत्तर अस्सी के दशक में इसे रेडियो पर बहुत सुना....मोहम्मद रफी साहब और सुलक्षणा पंडित की मधुर आवाज़ में...