शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

तुम भी चलो...हम भी चलें...

दरअसल हम हिंदोस्तानियों की ज़िंदगी इतनी फिल्मी हो चुकी है कि हमें अधिकतर मौकों पर या तो कोई हिंदी फिल्म का डॉयलाग या फिर कोई गाना याद आता है...मेरे साथ तो यह बहुत बार होता है।


आज शाम मैं लखनऊ की रायबरेली रोड पर जा रहा था तो मुझे ये तीन बुज़ुर्ग मिल गये..बड़ी मस्ती से, बातें करते, हंसी-मज़ाक करते बड़ी मस्ती से टहल रहे थे। देख कर बहुत अच्छा लगा।

एक बात जो झट से स्ट्राईक की वह यह थी कि तीनों के हाथ में एक छड़ी थी...

पता नहीं मुझे क्या सूझी कि मैंने स्कूटर रोका और इस सुंदर लम्हे को अपने मोबाइल में कैद कर लिया।

उसी समय मुझे यह गीत भी याद आ गया...मुझे यह पता नहीं कि इन्हें देख कर मेरे मन ने यह गीत गुनगुनाया....या इन बुज़ुर्गों की इस समय की मनोस्थिति यह गीत ब्यां कर रहा है...


कितना सुंदर गीत है ना.......घर आकर यू-ट्यूब पर सुना और सोचा आप से साझा भी करूं, इस के बोलों पर भी ध्यान दीजिएगा।

दोस्तो, जब मैं लोगों को टहलते देखता हूं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है.....क्योंकि मैं जो समझ पाया हूं कि यह लक्षण है...जीवन है, जीवंत होने का....सेहतमंद होने का ...सेहतमंद होने के एक सतत प्रयास का.

ठीक है टहलना सब के ज़रूरी है..लेिकन अधिकतर मेरे जैसे लोग केवल नसीहत बांटनें में ज़्यादा ध्यान देते हैं लेिकन अपनी सेहत के बारे में उतने जागरूक नहीं होते जितना होना चाहिए....मैं नियमित टहलने तक नहीं जाता।

लेिकन जब बुज़ुर्गों को देखता हूं ..सुबह शाम इक्ट्ठा होकर हंसी मज़ाक करते और अपनी क्षमता अनुसार घूमते तो मजा आ जाता है....मेरे दिन बन जाता है।




मैं अपनी ड्यूटी के दौरान भी लोगों को विशेषकर पुरानी बीमारियों से ग्रस्त सभी मरीज़ों को टहलने के लिए खूब प्रेरित करता रहता हूं.....कोई कहता है कि नहीं हो पाता..मैं कहता हूं घर से बाहर तो निकलो, पांच दस मिनट ..जितना समय मस्ती से टहल पाएं ...टहला करो भाई.....अधेड़ उम्र की महिलाओं को भी मैं थोड़ा सा "भड़का"(उकसा?) देता हूं कि दिन में कुछ समय तो अपने लिए भी रखा करिए। उस समय तो मान जाती हैं...और नियमित टहलने की बात कह कर जाती हैं।

सच में दोस्तो टहलना भी एक अद्भुत व्यायाम है........सब से पहले तो आप टहल पा रहे हैं, यही अपने आप में एक कुदरत का बेशकीमती उपहार है.....इसलिए हर समय अपने भाग्य या सरकारों को कोसने से और हर समय खबरिया चैनलों के सामने बैठे रहने से कहीं अच्छा है कि एक बढ़िया से शूज़ लें और बिना वजह घर से बाहर कुछ समय के लिए निकल जाया करिए....देखिए कितना मज़ा आता है.......कोई बहानेबाजी नहीं, बिल्कुल नहीं...

बस, एक बात और कर के, इस पोस्ट को विराम दूंगा....मेरी फिरोज़ुपर में पोस्टिंग थी ..दस-पंद्रह साल पहले की बात है...एक दिन बाज़ार में मुझे एक ८०-८५ साल के बुजु्र्ग मिले...बातचीत हुई पता चला ..कि रोज़ दोपहर ४ बजे घर से निकलते हैं और १५-२० किलोमीटर टहल कर घर लौटते हैं ... कह रहे थे कि जेब में मिश्री रख लेता हूं.....मैं आप को बता नहीं सकता कि जो चमक मैंने उन के चेहरे पर देखी... उस के बाद भी अकसर आते जाते मिल जाया करते थे... सफेद निक्कर और टी-शर्ट पहने हुए और सफेद स्पोर्ट्स शूज़ डाले हुए ..हाथ में छोटा सा सफेद तौलिया लिए हुए... उन्हें देखते ही तबीयत खुश हो जाया करती थी .....क्या नाम था उन का सिक्का साहब, वे सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त हो चुके थे.......बड़े हंसमुख..

मैं नहीं कहता कि हम सभी इतना ही टहलें लेकिन दोस्तो, जितनी जितनी भी हमारी क्षमता है, हम उतना तो टहलना शुरू करें.........एक पहल तो करें......क्या कहा? कल से.......आज से क्यों नहीं!!

अभी पोस्ट खत्म करते करते यह गीत याद आ गया है.........दादा जी का छड़ी हूं मैं...(फिल्म-उधार की ज़िंदगी)