शुक्रवार, 21 दिसंबर 2007

जब रेड़ियो मन बहलाने के बावजूद थप्पड़ खाता था ....


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

जी हां, बात उस समय की है शायद 70 का दशक शुरू हो चुका था ....घर में केवल मन बहलाने का एक मात्र साधन बस एक मर्फी का रेडियो ही तो था। उस पर गाने-वाने सुन लिए जाते थे। मुझे याद है उन दिनों मेरे बड़े भाई को ,जो उन दिनों मैट्रिक कक्षा में था, सिबाका गीतमाला जो दिसंबर के महीने के आखिर दिनों में प्रसारित किया जाता था---उसे वह प्रोग्राम सुनना बड़ा अच्छा लगता था। लेकिन एक दिन जब वह जैसे ही उस रेडियो के बटनों को घुमा-फिरा कर अपने पसंदीदा प्रोग्राम के लगने की इंतजार कर रहा था तो उसे मेरे पिता जी ने किसी कारण वश खूब डांटा था। इस बात का कम्पैरीज़न मैं आज की नव-पीढ़ी के साथ करता हूं तो सोचने पर सचमुच विवश होना ही पड़ता है कि ज़माना काफी नहीं, बिल्कुल ही बदल गया है। ओह, मैं उस रेडियो की एक खासियत तो बताना भूल ही गया कि वह आन करते ही शुरू नहीं हो जाया करता था--उसे गर्म होने के लिेए टाइम चाहिेए होता था। फिर उस पर किसी प्रोग्राम सुनने का संघर्ष शुरू हो जाया करता था--- कभी कभी कुछ भी जब नहीं सुना जा रहा होता था तो मेरा भाई उस की बाडी पर आकर दो-चार बार हाथ थपथपा देता था तो वह चल पड़ता था। लेकिन जब कभी सौभाग्य से रेडियो सिलोन या बीबीसी लग जाता था, तो ऐसे लगता था कि लाटरी लग गई है। सचमुच पहले खुशियां भी कितनी छोटी छोटी हुया करतीं थीं। हां, याद आ रहा है कि कुछ कुछ एंटीने की तार का भी चक्कर जरूर था। खैर, जैसे तैसे टाइम तो पास हो रहा था।
शायद 1974 के आस पास हमें बम्बई जाने का मौका मिला - वहां हमारे एक निकट संबंधी बुश कंपनी में लगे हुये थे। उन्होंने शायद कुछ रियायती मोल पर एक ट्रांसिस्टर दिलवा दिया - वाह, क्या बात थी....हमारे तो रेडियो सफरनामे का अध्याय ही बदल गया- और उस मर्फी वाले सेट ने बैक-सीट ले ली। उस नये वाले ट्रांसिस्टर का यह फीचर कि जब चाहो बिजली से चला लो, और जब चाहो सैल से चला लो, हमारे अड़ोस-पड़ोस वालों को भी बहुत भाता था। उस का चमड़े का एक बस्ता भी था और साथ में कंधे अथवा खूंटी पर टांगने के लिए एक स्ट्रेप भी। हम सब उस को बड़ी हिफ़ाज़त से रखते थे। खास कर मैं गर्मी की रातों में आंगन में चारपाई पर जब लेकर लेटता था तो उस के साथ को बड़ा एंज्वाय करता था। मुझे अच्छी तरह से याद है कि उन दिनों उस पर एक गाना बहुत ज्यादा बजा करता था ......बम्बई से आया मेरा दोस्त , दोस्त को सलाम करो।.........
कभी कभी सर्दी की सुनसान रातों में रजाई में दुबके हुए जब विविध भारती लग जाता था तो बेहद खुशी होती थी---- खासकर हवा महल प्रोग्राम सुन कर या कुछ ऐसे ही चटपटे गीत सुन कर। बस,ऐसे ही जैसे ही हवा का रूख बदलता था तो वह प्रोग्राम भी बजना बंद हो जाता था.....और फिर पता नहीं कितने समय तक प्रोग्राम को वापिस सुनने का अनथक संघर्ष करते करते कब नींद की गोद में पहुंच जाते थे पता ही न चलता था-----शायद कुछ कुछ वैसे जैसे आज कल हमारे बच्चे देर रात तक इंटरनेट पर कुछ ढूंढते 2 सो जाते हैं। खैर , यह सब मैं 1977-78 -79 की ही बात कर रहा हूं , उन दिनों मेरे बड़े भैया बम्बई में रहते थे, इसलिए जब विविध भारती पर कुछ सुनता था , तो लगता था कि मैं उस के पास ही बैठा हूं।