शुक्रवार, 21 दिसंबर 2007

वो रेडियो की लाइसैंस-फीस जमा करवाने वाले दिन.........

साथियो, रेडियो मेरी जिंदगी का एक ऐसा अभिन्न अंग है कि मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं अपनी बात कहां से कहनी शुरू करूं। बस ,अपनीज ज़िंदगी में पीछे पलट कर जिधर भी देखता हूं, मुझे रेडियो हर तरफ नज़र आता है। बस, सब से पुरानी और थोड़ी धुंधली सी याद उस समय की है जब मैं आठ-नौ बरस का रहा हूंगा और मेरी मां ने हिदायत दी कि बेटा, अब कुछ ही दिन बचे हैं, डाकखाने में जाकर रेडियो की लाइसेंस फीस जमा करवा कर दो। शायद दस रूपये के आस पास की यह फीस हुया करती थी । उस फीस को लेकर डाक बाबू एक किताब में इस के बाबत एंट्री कर के हमें वह रेडियो लाइसेंस बुक हमे वापिस कर देते थे। कुछ पाठक जो छोटे हैं ,उन का इस बात पर हंसना स्वाभाविक है---यार, यह रेडियो के लाइसैंस की बात कर रहा है या किसी स्टेनगन लेने की। लेकिन, दोस्तो यह उस जमाने की सच्चाई थी, यह मैं शायद सत्तर के दशक के शुरू शुरू की बात कर रहा हूं। और हां, कुछ इस तरह के इंस्पैक्टर भी घरों में आते थे जो पूछते कि घर में कितने ट्रांजिस्टर,रेडियो हैं और इस लिए किताने बताने हैं, कितने छिपाने हैं, घर के बाहर कंचे खेल रहे बच्चों को इस के बारे मे कड़ाई से हिदायतें जारी की गई होती थीं। लेकिन हमारे यहां तो मरफी का एक ही सैट था, जिस का डिब्बा मैंने आज भी संभाल कर रखा हुया है। दो महीने पहले जब हमारे पैत्तृक घर में चोरी हुई, काफी कुछ ले गए....लेकिन जब मैंने उस मरफी के डिब्बे को एक मेज़ के नीचे पड़ा देखा तो मेरा दुःख काफी कम हो गया---क्योंकि वह मेरे लिए एक डिब्बा नहीं है, मुझे मेरे अतीत से , मेरे बचपन से जोड़ने वाला मेरे लिए एक बेशकीमती यंत्र है, जिसे आज भी मेरी मां एक कपड़े से ढंक कर रखती है। उस डिब्बे से जुड़ी मैंने अपने 16 साल के बेटे को जब किस्से सुनाए तो उस को भी उस डिब्बे से प्यार सा हो गया लगता है...................
बस, अब मैं थोड़ा पुरानी यादों में खोना चाहता हूं..........Please excuse me!!