रविवार, 26 मार्च 2023

टीनोपाल, नील, स्टार्च .....और आगे इस्त्री की सिरदर्दी


कल मुझे ४७ बरस पहले की फैमिना का एक अंक मिला ...उस के ऊपर उस का दाम ५५ पैसे लिखा हुआ है। इस तरह के मैगज़ीन एक तरह से प्राप्स हैं जो मुझे लिखने में मदद करते हैं...इन में जो विज्ञापन होते हैं उन पर एक ब्लॉग तो क्या पूरी एक किताब लिखी जा सकती है। कोई कोई विज्ञापन आप को उठा कर गुज़रे दौर के दिनों की यादों की बारात में ले जाता है....अच्छा, इस बात का ज़िक्र करना भी ज़रूरी है कि फैमिना के इस अंक में ८०-९० विज्ञापन होंगे और हर विज्ञापन में महिला माडल ही दिखीं....एक दो विज्ञापनों में ही पुरूष माडल दिखे ..खैर, मैं तो टीनोपाल के इश्तिहार को देख कर रुक गया....

कईं दिनों से राइटर ब्लॉक से जूझ रहे को जैसे एक बहाना मिल गया ....फिर से लिखने का ...मेरे साथ ऐसा ही है, मुझे ये सब बहुत कुछ याद दिलाते हैं और लिखने के तैयार करते हैं। टीनोपाल ....वाह .....मुझे अच्छे से याद है उस छोटी सी एल्यूमीनियम की टीनोपाल की डिब्बी का हमारे गुसलखाने की शेल्फ पर क्या स्थान था। टीनोपाल हो या नील (इंडिगो) ...इंडिगो तो कार्डबोर्ड की डिब्बी में ही पड़ा होता ...लेेकिन इन दोनों चीज़ों को बड़ी एहतियात से रखा जाता। 

टीनोपाल की यादें यह हैं कि इस को मेरे पिताजी की सूती पतलून और शर्ट और मां की सूती साडि़यों और ब्लाउज़ में अच्छी चमक पैदा करने के लिए इस्तेमाल किया जाता था....कपडे़ धुलने के बाद उन को फिर से एक बाल्टी में डाला जाता था जिसमें थोड़ा से टीनोपाल का घोल पहले से रहता था। कईं बार अगर घर में टीनोपाल या नील खत्म होता और मां को कपड़े धोते हुए याद आ जाता तो मैं हमें एक-दो रूपये थमा कर पास ही के एक खोखे से उसे लाने का फ़रमान जारी कर देतीं..और हम पांच मिनट में ये सब चीज़ें लेकर हाज़िर हो जाते....हां, कईं बार ५० या १०० ग्राम की रेड-लेबल चाय, एक पाव किलो चीनी और दो सेरीडॉन की गोलियां भी उस लिस्ट में शामिल हो जाती थीं...टीनोपाल की डिब्बी तो एक रूपये से कम ही में आती थी...मुझे कल रात में याद आ रहा था कि ये घर में बार बार सेरीडॉन की गोलियां क्यों आती थीं...फिर यही ख्याल आया कि महीने के आखिरी दिनों में जब वैसे ही कड़की के बादल छाने लगें और ऊपर से यह सब टीनोपाल, नील, मांड और इस्त्री की सिरदर्दी और ऊपर से हम जैसे खुराफाती बच्चे हों तो सेरीडॉन के बिना उन का काम कैसे चलता...मां तो इन सब से फ़ारिग हो कर सिर पर दुपट्टा कस के लेट जाती ..चाय की एक प्याली पी कर। 

अच्छा, टीनोपाल तो लग गया....एक नील लगाने की प्रोसैस भी होती थी.....अब भी वह होती है पसीने से खराब हो रहे कपड़ों को सफेद करने के लिए....लेकिन यह भी एक फ़न होता है दोस्तो, नील लगाना भी ....कईं बार नील के धब्बे इतने पड़ जाते हैं कि फिर उन को छुड़ाने के लिए भी एक सेरीडॉन की गोली की ज़रूरत पड़ सकती है। और, अब आती है बारी माया की ...जिसे स्टार्च कहते हैं....मुझे अभी यह लिखते हुए याद आ रहा है कि पहले यह स्टार्च-वार्च कोई खरीदता नहीं था (शायद हम ही न खरीदते होंगे ...या टीनोपाल नील तक ही बजट जवाब दे देता होगा...) ...धुंधली धुंधली याद तो है कि कभी एक पैकेट में स्टार्च आती तो थी घर में ...लेकिन कईं बार देखा कि जब स्टार्च चाहिए होती तो उस दिन साथ में अंगीठी पर चावल भी पक रहे होते....उस में से मांड (पंजाबी हमें उसे कहते हैं चावल की पिच्छ) निकाल कर धुले हुए लेकिन गीले सूती कपड़ों को उस में चंद मिनटों के लिए भिगो दिया जाता ..बस स्टार्च लग गई और बस अब सुखाने का काम रह जाता। 

सूखने के बाद उस इस्त्रीकरने वाले भैय्ये की सिरदर्दी शुरु हो जाती ..यह भी याद है कि स्टार्च लगे कपड़ों को इस्त्री करने का रेट डबल होता ...क्या करे...मुझे तो उस कोयले वाली प्रैस से कपड़े प्रैस होते देखना ही इतना अच्छा लगता कि मैं कईं बार और कुछ करने को न होता तो यही देखने लग जाता ...और फिर कुछ कुछ वक्त के बाद उस का उस बड़ी लोहे की प्रैस से राख को निकालना, इधर उधर देख कर मुंह में रखने पान को बदलना, उस से पहले एक दो हंसी मज़ाक की बात करना, मुझे उस की भाषा अच्छी लगती, क्योंकि उस के और हमारे हिंदी के मास्टर के अलावा अमृतसर शहर में हमारा हिंदी से कोई दूर-दराज़ का नाता न था ....यह सब भी कितना रोमांचक लगता था उम्र के उस दौर में ..

खैर, मैं देखता कि उन स्टार्च लगे कपड़ों को इस्त्री करने में उस के पसीने छूट जाते ...वे कपड़े --जैसे कि साड़ी ही हो, वह आपस में स्टार्च की वजह से इतनी ज्यादा चिपकी होती ...उलझी होती कि पहले तो वह इत्मीनान से उस उलझन को सुलझाता ...फिर उस के ऊपर पानी छिड़क कर दो मिनट के लिए छोड़ देता...फिर इस्त्री करने की बारी आती ....मुझे यह बड़ी सिरदर्दी लगती। 

लेकिन साठ सत्तर बरस पुरानी मां और पिता जी की जो तस्वीरें देखता हूं तो मज़ा आ जाता है ...मैं बड़े फ़ख्र से बताया करती कि तुम्हारे पापा को उन दिनों इसी तरह से कपड़ों को पहनने का शौक था...साथ में कभी कभी कह देती हल्के से कि फिर आगे जैसे जैसे जिम्मेदारियां बढ़ती गईं ......(कुछ बातें बिना कहे ही समझने वाली होती हैं...ज़रूरी नहीं हर बार को पूरा कहा जाए) ...

बीस पच्चीस साल पहले हमें भी यह स्टार्च लगवा कर कपड़े पहनने का शौक सवार हो गया...तब तक एक रिवाईव नाम का पावडर आ गया था ...उस में भिगोने से धुले हुए सूती कपड़े एक दम कड़क हो जाते थे ....कड़क ही तो चाहिए थे तो न कपड़े, कड़क चाय की तरह ...लेकिन कुछ ही अरसे के बाद हमें अपने लिए तो यह ज्ञान हो गया कि यार, इतनी सिरदर्दी क्यों ....क्या हो जाएगा कड़क दिखने से, कड़क कपड़े पहनने से ....(हां, कडक चाय से मूड सही हो जाता है, वह पक्का है) ..इसलिए हमने तो मना कर दिया कि हमारे कपड़ों को कड़क मत किया जाए.....(लिखते लिखते याद आ रहा है कि गुज़रे हुए कड़की के दौर में लोगों ने कपड़े कड़क पहनने का शौक जारी रखा, हिम्मत की बात है ..) 

अब मैं लोकल स्टेशनों पर युवा वर्ग के लोगों को - युवकों को, महिलाओं को बिना इस्त्री किए हुए कपडे़ पहने देखता हूं तो मुझे अच्छा लगता है ...क्योंकि मैं भी यही करना चाहता हूं ...अभी नौकरी कर रहा हूं, एक ढंग से कपडे़ पहनना मजबूरी है ...उस से फ़ारिग होते ही अपने मोबाइल से और इस्त्री किए हुए कपड़ों से परहेज़ रखूंगा ...मिल गए तो ठीक नहीं, न मिले तो भी ठीक..वैसे भी जिस तरह के कपड़े पहनना मेरे दिल के बहुत करीब है ..केज़ुएल वियर ...उन में इस्त्री चाहिए नहीं होती..

इस्त्री करने से एक बात याद आ गई और ...चलिए, लिखते हैं उसे भी ...मेरी बड़ी बहन को भी अच्छे कपडे़, प्रैस किए ही पहनने अच्छे लगते थे...अच्छा, होते सब के पास यही चार पांच जोड़े ही थे, जोडे़ का मतलब सलवार-कमीज़, पतलून-कमीज़ या निक्कर-बुशर्ट ...किसी शादी-ब्याह में जाने से पहले एक जोड़ा सिलवा लेते थे ...हां, तो जब छुट्टियों में या वैसे किसी पारिवारिक समारोह में बाहर कहीं जाना होता तो बहन तो अपने तीन चार जोड़े अच्छे से इस्त्री कर के उन्हें अपने लोहे के ट्रंक में करीने से रख लेती ....और हम भी जैसे जैसे .....हां, हमारे पास भी लोहे की एक छोटी सी प्रैस थी और बहन को कपड़े इस्त्री करने का आलस कभी न था....मैं बहन को ये सब बातें याद दिलाता हूं तो हम बहुत हंसते हैं...

अभी यह पोस्ट लिख ही रहा था कि एक मित्र का वाट्सएप मैसेज आया कि क्या हुआ, तुम्हारे ब्लॉग सूख गये हैं....और ऐसे तो मेरी पढ़ने की आदत भी छूट जाएगी...😂😎...अच्छा लगता है जब ऐसे संदेश आते हैं....मैंने लिखा कि लिख रहा हूं, अभी भिजवाता हूं ...मुझे पता है कि मेरे अनुभवों से मिलते जुलते और बहुत मुमकिन हैं इन से भी कभी लज़ीज़ अनुभव आप के पास हैं...लेकिन बहुत से लोग लिखते हुए झिझकते हैंं, पता नहीं क्या हो जाएगा....कुछ नहीं होगा, दोस्तो, इत्मीनान रखिए...बस लिखते लिखते लिखने वाला हल्का जरूर हो जाएगा....और कुछ हो न हो....इसलिए जो भी मन में हो, लिखने की आदत डालिए....ब्लॉग लिखते हुए अभी झिझक रहे हैं तो कोई बात नहीं, कुछ दिन डॉयरी लिखिए...उसे पढ़िए, मज़ा आएगा....वह झिझक भी दूर हो जाएगी...

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर सर। कड़क कपड़े पहनने का शौक तो सभी को था। जिसके पास स्तरी नहीं होती थी वह लोटे में गरम पानी भरकर काम चला लिया करते। मेरे गांव में चावल कम खाते थे। बेझर (गेहूं चना) की रोटी ही खाते थे। गेहूं की रोटी त्यौहार पर या मेहमान के आने पर बनती। इसी प्रकार चावल पकाया जाता था लेकिन खाया जाता था मांड़ निकाल कर और उस मांड़ का उपयोग कपड़ों में कलफ लगाने के लिए किया जाता था। अरारोट भी कलफ लगाने के काम आता था। आपका ब्लॉग पढकर बहुत कुछ याद आया। इतनी छोटी सी बात पर इतना लिख पाना आपकी बहुत बड़ी विशेषता है। बहुत बहुत धन्यवाद।

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया आप का सिंह साहब ...आप की टिप्पणी मेरे लिए हमेशा इतनी मूल्यवान होती है कि मुझे यह अहसास होता है कि यह मेरे ब्लॉग का ही हिस्सा है, और मेरी बात को और भी सलीके से आगे ले कर जा रही है... मांड़ के सही स्पेलिंग का पता चला, कलफ़ भूल गया था लिखना....वह याद आ गया....और लोटे में गर्म पानी भर कर इस्त्री करने वाली बात सुनी, अच्छा लगा...लोग पहले भी हम से कहीं ज़्यादा सर्जनात्मक थे ...

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  2. एक सुधि पाठक ने यह टिप्पणी भेजी है वाट्सएप पर ….मुझे लगता है वहां तो गुम हो जाएगी…चलिए, इसे यहीं पर सहेज कर रख लेते हैं…

    बचपन की याद और उस के इर्द गिर्द ही यादों की फिल्म जैसी तस्वीरें कितनी गहरी होती हैं, यह आप का ब्लॉग बताता है ..। टीनोपाल, नीली डिब्बी का नील, स्टार्च…सेरीडॉन का विज्ञापन रेडियो में भी आती था….एक सेरीडोन लो, सर दर्द को भगाओ….

    स्टार्च का चलन हमारे वहां कम था पर स्टार्च से युक्त कपडे़ बडे़ अजीब से लगते थे…

    चाय की ब्रुक बांड १०० से २०० ग्राम की पतली सी डिबिया अब नज़र भी नहीं आती…अब चाय की पत्ती किलोग्राम में बिकती है…

    वो दिन भी क्या दिन थे…

    ऑयरनमैन तो होता ही नहीं था…कारण शायद गर्म कपड़े पहनने से रहा होगा क्योंकि आम तौर पर उन दिनों दिन का अधिकतम तापमान ३० डिग्री तक ही होता था और शाम को ठंड पड़ जाती थी …

    जब शहर में आए तो इस्त्री करने वाला का दुकान दिखा था…जब कपड़े इस्त्री करने लायक ही नहीं थे तो किस चीज़ का इस्त्री करते …

    आप का ब्लॉग मुझे मेरे बचपन की तरफ़ ले गया। पुरानी चीज़ें व यादों का टन-टन कभी खत्म नहीं होता। इसी बहाने मेरे भी दिमाग की बत्ती जल गई। सोचता हूं कहां से कहां आ गए…शायद वो ज़िंदगी के अनुभव खट्टे मीठे ज़रूर थे लेकिन वो अपने थे …दोहरी ज़िंदगी जीने से कहीं अच्छे थे…

    धन्यवाद, डा साहब…

    (यह पाठक मित्र पहाड़ी क्षेत्र से हैं, इन का स्कूल-कालेज उसी जगह हुआ।..ऐसी टिप्पणी जब पढ़ता हूं तो लगता है कि यह किस तरह से ब्लॉग से कम है…इतने अच्छे अल्फ़ाज़ में अपने दिल की बातें पिरो दी उस मित्र ने …इस से पहले वाली टिप्पणी भी देखिए आप जो सिहं साहब की है…ऐसा लगता है कि जैसे ये सब टिप्पणीयां भी मेरे ब्लॉग का ही हिस्सा हैं…और यही ब्लॉग वाग लिखने का मक़सद है कि हम लोग आपस में एक गुफ्तगू शुुरु करें….कुछ अपनी कहें, कुछ दूसरों की सुनें….और क्या !!)

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  3. डॉ साहब , सादर प्रणाम
    मेरे परम मित्र सिंह साहब के माध्यम से आपका ब्लॉग पढ़ने का सौभाग्य मिला, आपकी लेखनी में "टिनोपल" की जो चमक देखने को मिली अद्वितीय ही है,साधुवाद सर, मुझे भी बचपन की वो तस्वीरें घूमती दिखीं जो शेयर कर रहा हूँ
    मेरे पिताजी रेलवे में स्टेशन मास्टर थे और ड्यूटी के दौरान सफेद गणवेश में ही ड्यूटी निभाते थे मेरी माँ जैसा कि आपने लिखा है टिनोपल, कलफ़ और सनलाइट साबुन से धोती थीं अंत मे मेरी ड्यूटी प्रेस कराने की होती थी।वास्तव में एक छोटी सी वस्तु को इतने सुंदफ़ तरीके से कलमबद्ध करना आपकी लेखनी को नए आयाम तक पहुंचाती है।पुनः साधुवाद सर आशा करता हूँ आगे भी इसी प्रकार अवसर मिलता रहेगा।
    हरीश श्रीवास्तव
    से नि राजभाषा अधिकारी प म रे जबलपुर



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  4. सुंदर और बहुत सुन्दर, सामने यादों के दरिया हों तो भला डूबकी कौन न लगाना चाहेंगा, बस मैं और मेरा मन, अतीत और अतीत के वो तमाम तमाम वाकिये और वो मीठी मीठी प्यारी प्यारी यादों की हवायें, और फिर वो भी हवाऐं ऐसी कि मुझे ही उड़ाये लिए जा रही है ्््ब्््बा्््ब्््ब्््ब्््बा्््ब्््ब्््बा्््ब्््ब्््ब्््बा्््ब्््ब्््बा्््ब्््ब्््ब्््बा्््ब्््ब्््बा्््ब्््ब्््ब्््बा्््ब्््ब्््बा्््ब्््ब्््ब्््बा्््ब्््ब्््बा्््ब्््ब्््ब्््बा्््

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