रविवार, 2 मई 2010

हां, तो कैसी रही लोकसभा टीवी द्वारा परोसी गई एक कप चाय ?

देखो, भाई, मैंने तो आज सुबह ही आप सब तक यह सूचना पहुंचा दी थी कि आज बाद दोपहर लोकसभा टीवी की तरफ़ से एक कप चाय का निमंत्रण है। जैसा कि मैं बता ही चुका हूं कि मैंने तो इस दावत में कल ही शिरकत कर ली थी, लेकिन आज भी रहा नहीं गया--इसलिये दोपहर 2 से 4 बजे तक यह फिल्म देखने में मशगूल रहा। क्या फिल्म है!! ----आप को कैसी लगी? ---क्या कहा, देख नहीं पाये, भूल गये ? ----चलिये, परवाह नहीं।

तो फिर इस फिल्म की कहानी तो थोड़ी सुनानी ही पडे़गी। इतनी जबरदस्त फिल्म---ऐसी फिल्म जिसे दो दिन में दो बार देख लिया। क्योंकि यह फिल्म है ही ऐसी---- इस फिल्म में जो कुछ भी घट रहा है लगता है कि आप के आसपास ही , आप ही के गांव में ही यह सब हो रहा है। वैसे तो यह मराठी फिल्म है लेकिन इस के सब-टाइटल्स अंग्रेज़ी भाषा में हैं। चूंकि मैं मुंबई में दस साल तक रहा हूं इसलिये मुझे भाषा समझने में कुछ दिक्तत नहीं हुई। वैसे किसी ने कहा भी है कि मानवता की बस एक ही भाषा होती है। लेकिन क्या ही अच्छा  होता अगर इस के सब-टाइटल्स हिंदी में होते ---पता नहीं गैर-मराठी इलाकों में ऐसे लोग इसे कैसे समझेंगे जिन्हें अंग्रेज़ी का ज्ञान नहीं है।

मजे की बात देखिये इस फिल्म में एक डॉयलाग तो है ----" क्या अंग्रेज़ी न आना कोई अपराध है ? संतों-पीरों ने क्या अपनी बात अंग्रेज़ी में कही"..................तो, यार, तुम लोगों को सब-टाइट्लस तैयार करते समय फिल्म के इस डॉयलाग का ध्यान नहीं आया। लेकिन शायद किसी अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में भेजने हेतु कोई मजबूरी रही होगी। होता है , होता है -----बस इतना ध्यान तो रहना चाहिये कि इस तरफ की प्रशंसनीय फिल्म अगर देश के गांव गांव में पहुंचती है तो यह भी किसी ऑस्कर से कम नहीं।

इधर उधऱ की बहुत हो गई --सीधा कहानी पर आते हैं। काशी नाथ एस.टी में एक कंडक्टर है। बड़ा गॉड-फेयरिंग सा किरदार है ---- किसी के दुःख में दुःखी हो जाता है और किसी की सहायता के लिये बिना स्टॉप के बस को रूकवाने में भी रती भर संकोच नहीं करता। और इस के लिये जब उसी कोई सवारी टोक देती हैं तो कह देता है ----नियम किसी आदमी की ज़रूरत से बड़े नहीं हैं।

उस की बस के ड्राइवर से उस की बहुत बनती है---बिल्कुल भाई की तरह रहते हैं। काशी नाथ के घर में मां, पत्नी, दो बेटे ---एक मैट्रिक में और दूसरा किसी ड्रामे की तैयारी में लगा हआ है, दो बेटियां --एक पास ही एक अस्पताल में नर्स का काम देखती है और दूसरी घर पर घर का काम देखती है। बहुत साधारण सा परिवार है।
आराम से उन की ज़िंदगी कट रही थी --- तभी एक बिजली का बिल आता है जो उन की नींद उड़ा देता है। इन का बिजली का बिल वैसे तो 125 से 150 रूपये मासिक आता था लेकिन इस बार 73000 रूपये का बिल इन की नींद उड़ा देता है। बिजली के दफ्तर के चक्कर तो काटता है काशीनाथ लेकिन बस यूं ही सब उसे इधर से उधर भगाते रहते हैं ---कोई उस की सुनता नहीं। बस, जगह जगह उसे यह सलाह दी जाती है कि छोड़, कहां इस झंझट में पड़ रहा है, चुपचाप एक कप चाय पिला कर सारा मामला सैट कर ले। खैर, काशी को यह सब मंज़ूर नहीं -------इसी बार बार चक्कर काटने के चक्कर में बिजली की बिल भरने की तारीख निकल जाती है और विभाग की तरफ़ से उस के घर का बिजली का कनैक्शन काट दिया जाता है।

बड़ी आफत हो जाती है घर में सब के लिये ----बुज़ुर्ग मां घर में ही अंधेरे की वजह से ठोकर खा कर गिरने से टांग टुड़वा बैठती है। बड़ा लड़का बिजली न होने की वजह से किसी दोस्त के घर सोने चला जाता है, और यह काशी को पसंद नहीं है। छोटा बेटा पढ़ाई में बहुत तेज़ है ---उस के बारे में उस के स्कूल की राय है कि वह तो स्टेट मेरिट में ज़रूर आ जायेगा। लेकिन, अब वह पढ़े तो पढ़े कैसे ? ---खैर, किसी तरह से कैरोसीन यहां वहां से लेकर रात में उस की पढ़ाई का जुगाड़ किया जाता है।

काशीनाथ अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश करता है ---एक आवेदन भी करता है संबंधित अधिकारी को कि उस का कनैक्शन तुरंत जोड़ने की कृपा करें और बिल ठीक कर दें। लेकिन उस का आवेदन डस्ट-बिन में ही जा मिलता है। इस दौरान जब भी वह बिजली के दफ्तर में जाता है तो उसे कारीडोर में बस चाय पिलाने वाले ज़रूर दिखाई देते  हैं जो कि एक चाय के कप के एवज़ में सब कुछ सैट कर देने का आश्वासन देते हैं ----लेकिन काशीनाथ बेहद इमानदार, असूलों का पक्का बंदा, उसे उन से चाय पीना गवारा नहीं----चाय तो बस बहाना है, ग्राहक फांसने का एक "साफ़-सुथरा" [छीः   ......थू...थू़] तरीका है जिस के लिये परेशान लोगों से सैंकड़ों रूपये ऐंठ लिये जाते हैं।

उन्हीं दिनों काशीनाथ जब एक ट्रिप पर निकलता है तो देखता है कि एक गांव में बहुत से लोग जमा हैं। वह ड्राइवर को कह के बस रूकवाता है--- जब भीड़ बस की तरफ़ लपकती है तो काशीनाथ कहता है ---जैसे किसान को गाय प्यारी होती है, वैसे ही मुझे यह बस प्यारी है , इस के साथ वह किसी तरह की छेड़छाड़ सहन नहीं करेगा। खैर, इतने में उस भीड़ में उपस्थित एक समाज सेविका (डाक्टर साहिबा) आगे आ कर स्प्ष्ट करती है कि किसी तरह की उपद्रव करना उन की मंशा नहीं है, उस एरिया का एक मुद्दा है जिस के लिये पब्लिक सहमति जुटा रही है ---वह एक आरटीआई कार्यकर्ता थी ---और वह चाहती थी कि बस में यात्रा कर रहे जितने लोग भी उस की बातों से सहमत हों, वे एक याचिका पर हस्ताक्षर कर दें। और ऐसा ही हुआ। काशीनाथ को इस नये कानून का पता चला।

अगले दिन अखबार में भी उस समाज सेविका के इस अभियान को कवर किया गया था ----बताया भी गया था कि उसे मिलने के लिये आप फलां फलां मंदिर में उन से मिल सकते हैं।

अब, काशीनाथ को उस के ड्राइवर साथी ने भी समझाया कि यह नया कानून तो उस के लिये ही है, यह उस की ज़रूर मदद करेगी। इसलिये उस ने ही यह भी पेशकश की वह पूणे जाकर पता करेगा कि इस तरह की सूचना लेने के लिये कौन सा फार्म होता है। वह वापिस आकर बताता है कि आर टी आई में कोई सूचना पाने के लिये किसी फार्म की ज़रूरत नहीं, प्लेन पेपर पर ही लिख कर आवेदन किया जा सकता है।

काशी घर आ कर आवेदन लिखने में जुट जाता है ----बड़ी मेहनत मशक्कत से आवेदन करता है। पहले तो कोशिश करता रहता है इंगिलश में अपनी बात लिखने की ---लेकिन उसे कुछ खास सफलता नहीं मिलती ----लेकिन बीवी जब कहती है कि अंग्रेजी का ज्ञान न होना क्या कोई अपराध है, और मां जब यह चुटकी लगाती है ----संतो,गुरूओं, पीरों नें क्या अपना संदेश अंग्रेज़ी में दिया-----यह सुन कर बात काशी की समझ में आ जाती है और वह आवेदन लिख कर पहुंच जाता है बिजली दफ्तर के जन सूचना अधिकारी के पास।

वह अधिकारी उसे हत्तोत्साहित ही करता है ---- किसी भी तरह से उस का मार्ग-दर्शन करना तो दूर उसे तरह तरह से  डराने लगता है कि देश इतना बड़ा है, तू किन चक्करों में पड़ रहा है, महीनों लग जाएंगे तेरे को यह सब सूचना मिलने में। और काशी की यह सलाह भी दे देता है कि चुपचाप जितना भी बिल आया है, भर दे और अगले बिलों में एडजस्ट कर दिया जायेगा। और आवेदन पड़ने पर उसे यह भी कह देता है ----तुम मेरे से सूचना लेने आये हो या मुझे आदेश देने आये हो ? सीधी सी बात है कि काशी ने अपना आवेदन ढंग से तैयार नहीं किया था ----उस ने लिखा था कि मेरा कनैक्शन चालू किया जाए और बिल ठीक किया जाए।

जब काशी को लगा कि यार, इस आवेदन से तो कुछ होने वाला नहीं, उस समाज सेविका को मिलना ही होगा। वह उस के पास जाता है जो उसे समझाती है कि आरटीआई में सूचना किस तरह से लेनी है, यह बहुत महत्वपूर्ण है। वह उसे बताती है कि वह ये प्रश्न पूछे ---

उस के घर में बिजली की रीडिंग लेने वाले कर्मचारी का नाम .
रीडिंग वाले रजिस्टर की फोटोकापी।
कंप्यूटर से निकलने वाली मास्टर-शीट की कापी।
पिछले तीन महीने में बिजली का बिल न भरने वाले कितने डिफाल्टर हैं
उन डिफाल्टरों से कितना का कनैक्शन काटा गया है

अब जब इस तरह का आवेदन बिजली विभाग के जन सूचना अधिकारी के पास पहुंचता है तो उसे तो इन बातों का जवाब देने में आफ़त महसूस होती है। विभाग को पता तो है कि उन के कंप्यूटर में किसी लफड़े की वजह ही से यह गल्त-बिलिंग हो गई है। उस जन सूचना अधिकारी का बास उसे कहता है कि संबंधित ग्राहक से ऐवरेज बिल ले कर छुट्टी करो ---- तो, वह उसे जवाब देता  है कि अब यह करना इतना आसान नहीं है, क्योंकि हम लोग तो पहले ही उस का कनैक्शन काट चुके हैं।

उस  जन सूचना  अधिकारी का एक साथी है ---कहता है, छोड़ जवाब ही न थे, यह बेकार के प्रश्न पूछने वाले हमारा समय खराब करते हैं, अगर एक बार जवाब देगा तो ये और कुछ पूछ लेंगे, अगर जवाब नहीं देगा, तो चुपचाप कर के बैठ जाएंगे।

बहरहाल 30 दिन बीतने के बाद वह उस डाक्टर दीदी की सलाह से अपीलीय अधिकारी को अपील कर देता है जिस की सुनवाई के लिये उसे बंबई भी बुलाया जा सकता है। लेकिन दीदी उसे बताती है कि उस का वहां जाना ज़रूरी नहीं है। कुछ दिनों बाद उस को अपीलीय अधिकारी की चिट्ठी आ जाती है कि फलां फलां दिन केस की हेयरिंग है।

काशीनाथ को बंबई भेजने की पूरी तैयारी की जाती है.....लेकिन उस की एक दिन की छुट्टी का पंगा जब पड़ता है तो काशी अपने बास से अपने दफ्तर के सभी कर्मचारियों की छुट्टियों का विवरण आरटीआई एक्ट के अंतर्गत देने के कहता है, .......फिर क्या था, ट्रिक काम कर जाती है, और उसे मुंबई जाने की छुट्टी मिल जाती है।
लेकिन पता नहीं वहां अपीलीय अधिकारी के दफ्तर में पहुंचते पहुंचते शाम हो जाती है, और केस का निपटारा उस की गैर-मौजूदगी में ही कर दिया जाता है। वह बहुत निराश होता है क्योंकि उस वक्त सभी ऑफिस बंद हो चुके थे।

वापिस आने पर पता चलता है कि उस के घर में बिजली वापिस आ गई है ----और बेटे का रिजल्ट आ गया है ---वह स्टेट में ग्रामीण विद्यार्थियों में से प्रथम एवं ओवरऑल द्वितीय स्थान पर आता है और टीवी वाले उस का एवं काशी का इंटरव्यू लेने पहुंच जाते हैं. काशी को इतना बुरा लगता है कि वह अपनी परेशानियों में ही इतना उलझा रहा कि उसे यह पता करने की भी होश न थी कि उस  का बेटा किस तरह से पढ़ेगा  ?  वह अपने बेटे से पूछता है कि  तेरे को अपने बापू से शिकायत तो ज़रूर होगी ........बेटा कहता है , बि्ल्कुल नहीं--------- काशी पूछता है -----क्यों, ऐसा क्यों?   बेटा कहता है ----------क्योंकि मैं सब समझता हूं। इतना कह कर दोनों गले मिलते हैं ............................और एसटी डिपो के सारे कर्मचारी उस के बेटे को गोदी में उठा लेते हैं।

फिल्म बहुत ज़्यादा संदेश लेकर आई है। आर टी आई इस्तेमाल करने से जुडे़ तरह तरह के भ्रम, भ्रांतियों का निवारण करती है, लोगों को सचेत करती है, जागरूक करती है , और आखिर क्या चाहिये , एक साफ-सुथरी फिल्म से। एक दम पैसा-वसूल। जहां से भी इस की की सीडी-डीवीडी मिले, इसे दो-तीन बार तो देख ही लें--------और इस जनजागरण की मशाल को जलाए रखिये।

                               

लोकसभी टीवी की तरफ़ से एक कप चाय का निमंत्रण

जी हां, लोकसभा टीवी की तरफ़ से आज सभी लोग दोपहर दो बजे एक कप चाय पर आमंत्रित हैं। आप को भी यही लग रहा होगा कि अब एक प्याली चाय के लिये इस चिलचिलाती गर्मी में दिल्ली कौन जाए? इस का इंतजाम भी लोकसभा टीवी ने कर दिया है और गर्मागर्म चाय की प्याली हम सब के यहां पार्सल हो कर आ रही है।

चलिये, इतना सुस्पैंस भी ठीक नहीं ----सीधे सीधे खुल कर बात करते हैं। ऐसा है कि आज दोपहर 2 बजे लोकसभा टीवी पर एक क्लॉसिक फिल्म आ रही है ---एक कप चाय। अगर हो सके तो आज दोपहर सारे काम-धंधे छोड़ कर इसे देखना न भूलें।

इस के बारे में इतना तो बता ही दें कि इस फिल्म में एक बस कंडक्टर की कहानी है जो किस तरह से सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर के अपनी एवं समस्त परिवार की परेशानियां खत्म कर देता है। जबरदस्त फिल्म !! मैं फिल्म समीक्षक नहीं हूं लेकिन फिर भी इसे पांच सितारे देता हूं।

दरअसल इस फिल्म के बारे में मैंने दो-तीन महीने एक पेपर में पढ़ा था --- इस तरह की फिल्मों की सी.डी तो कहां मिलनी थी, मैंने नेट पर भी खूब ढूंढा। लेकिन तब मिली थी ---फिर मैं थोड़ा भूल सा गया। लेकिन जब कल की अखबार में पढ़ा कि एक कप चाय आज रात (1मई 2010- रात 9 बजे और 2 मई को बाद दोपहर 2 बजे) को दिखाई जायेगी तो मेरी तो जैसे लाटरी लग गई।

कल शाम मैं और बेटे किसी बहुत सुंदर उत्सव में बैठे हुये थे लेकिन मुझे 9 बजे वापिस लौटने की धुन सवार थी। मुझे फिल्म इतनी पसंद आई है कि मैं सोच रहा था कि इस तरह की फिल्में राष्ट्रीय चेनल पर भी दिखाई जानी चाहिये। इतनी बेहतरीन फिल्में इस देश के जन मानस तो पहुंचे तो बात बने -----मेरे जैसों का क्या है, वे तो सूचना का अधिकार ज़रूरत पड़ने पर जैसे भी कर ही लेंगे, बात तो तब है जब काशीनाथ कंडक्टर जैसे लोग इस कानून को अच्छी तरह से जान सकें, इस्तेमाल कर के अपना एवं आसपास के लोगों का जीवन बेहतर कर सकें।

आप सभी पाठकों से भी अनुग्रह है कि इस फिल्म को आज बाद दोपहर लोकसभा टीवी पर ज़रूर देखें ---इस की अवधि है 120 मिनट और सब से बढ़िया बात ----इस दौरान कोई भी विज्ञापन आप को परेशान नहीं करेगा, शाम को बताईयेगा कि कैसी लगी ?