सोमवार, 29 सितंबर 2025

चूरन, सलेटी, ईमली और खट्टी-मीठी गोली पर मौज करता बचपन ...

 मैं स्वभाव से एक आलसी प्राणी हूं…मुझे रेडियो पर फिल्मी गीत, गज़लें सुनना और लेटे लेटे कुछ भी पढ़ते पढ़ते, बार बार चाय पीने में और ख्याली पुलाव बनाने में जो सुख मिलता है, वह कहीं और नहीं…..लेकिन कभी कभी लिखने के लिए उठना पड़ता है …क्योंकि कुछ दिन इसे न करिए तो फिर बहुत भारी भरकम काम लगता है …


कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें हम लिखते नहीं, वे कुछ अपने आप को लिखवा लेती हैं….कुछ बात ही ऐसी होती है…अब देखिए, यह जो मैं आज लिख रहा हूं, इस का ख्याल मुझे कल बाद दोपहर अपने एक सहपाठी की रील देख कर आया ….


स्कूल के दिनों से मेरे सहपाठी डा नवराज सिंह पंजाब में एक नामचीन सर्जन हैं….वे अकसर बड़े ज़रूरी मुद्दों पर रीलें बना कर डालते रहते हैं जैसे सांप का काटना, प्रोस्टेट ग्रंथी की समस्या, पित्ते की पत्थरी………और कल उन्होंने पीका नामक एक मेडीकल अवस्था पर रील डाली …कोशिश करूंगा, अगर वह रील आप से साझा कर सकूं ….


उन्होंने लिखा कि उन के अस्पताल में जो नर्सेस काम करती हैं, उन में से एक के बारे में उन को पता चला कि वह सलेटियां खाती हैं….(सलेटी को आज कल चॉक भी कहने लगे हैं, लेकिन पंजाब में तो इसे अभी भी सलेटी ही कहा जाता है …) ..


सलेटी यानि वह पतली सी सफेद रंग की एक पेंसिल नुमा पत्थर की शक्ल में मिलने वाली चॉक जिस से हम लोग स्लेट में लिखा करते थे ….अभी भी लिखने वाले लिखते होंगे….


2008 में मैंने मेरी स्लेट नाम से एक ब्लॉग शुरु किया था, पर्सनल ब्लॉग, अभी भी है ..लेकिन प्राईव्हेट, एक डॉयरी जैसा....

हां, तो जब इन को पता चला कि फलां फलां बच्ची सलेटी खाती है, तो इन्होंने उन सब बच्चियों का ब्लड-चैक करवाया, सब को पेट के कीड़े मारने वाली दवा दी और बाद में ऑयरन की गोली शुरू करवाई….खाने-पीने में ज़रूरी एहतियात बरतने की सलाह देते हुए ताकि शरीर में ऑयरन की कमी न हो….


जो लोग भी स्लेटी खाएं या मिट्टी खाएं, यह अकसर शरीर में रक्त की कमी की वजह से खाने लगते हैं…इसे मेडीकल भाषा में पीका (Pica) कहते हैं…ऐसा वह शौक से नहीं करता, वह मजबूर हो जाता है यह सब खाने के लिए….इस का उपचार यही है कि उस की रक्त की कमी को दूर किया जाए, खाने पीने का सही मशविरा दिया जाए और अकसर सरकारी संस्थानों में मुफ्त मिलने वाली ऑयरन की गोली लेने की सलाह दी जाए….



जैसा मैंने अनुभव किया है यह समस्या अधिकतर युवतियों और महिलाओं में पाई जाती है क्योंकि उन में खून की कमी पैदा हो जाने के बहुत से कारण हैं, जिन का समय रहते समाधान तो दूर, निदान तक नहीं हो पाता …..और वे ये सब खाने लगती हैं….


मुझे अभी याद नहीं आ रहा कि मैंने कुछ महीने पहले बंबई में, औरंगाबाद में या अहमदाबाद में कहीं पर सख्त सी मिट्टी की ढलियां रेहडी पर बिकती देखी थीं….फोटो भी खींची थी..लेकिन अब फोटो गैलरी में 35500 के करीब फोटो हैंं, आधा घंटा मशक्कत करता रहा, नहीं मिली, मैंने सोचा दफा करो….फोटो लगा कर मुझे कौन सा पदम-श्री मिल जाना है …लिख रहा हूं, लिख कर अपनी बात रख दूंगा…


हां, तो उस रेहडी पर दूसरा सामान जो बिक रहा था, वह तो अकसर हम लोग देखते ही हैं …ईमली सी, कैरी थी (छोटे छोटे कच्चे आम), छोटे छोटे खट्टे बेर, और भी कुछ कुछ जिन का मुझे नाम नहीं आता…लेकिन एक तरफ़ काली मिट्टी के सख्त से ढेर भी थे, दूर से पत्थर लग रहे थे ….लेकिन नर्म थे. मेरे मुंह से इतना तो निकल ही गया कि क्या यहां यह सब भी बिकता है ….


बिकता है तभी तो रेहडी़ पर सजा हुआ है ….यह भी कोई पूछने वाली बात हुई….

जो महिलाएं उम्मीद से होती हैं, उन को ईमली या खट्टी चीज़ें खाना अच्छा लगता है ..इस से उन को मार्निंग-सिकनेस (सुबह सुबह उल्टी होने जैसी फीलिंग) से निजात मिलती है…..हिंदी फिल्मों में नहीं देखा कि जब किसी का पांव भारी दिखाना होता है तो उस बहुरिया से एक उल्टी करवा देते हैं या फिर उस को थोड़ी सी ईमली खाते दिखा देते हैं …….बस, इतनी सी बात जब दादी सास तक पहुंचती है तो यह जंगल की आग की तरह फैल जाती है ….


जो महिलाएं उम्मीद से हैं उन में से भी कुछ चाक, स्लेटी, मिट्टी खाने लगती हैं या वैसे भी जिन में खून की  कमी होती है, वे ये सब खाती हैं और यहां तक की कोयला भी खा लेती हैं….लकड़ी वाला कोयला….और मैंने तो एक दो महिलाएं ऐसी भी देखी हैं जो मटके का या किसी मिट्टी के बर्तन को तोड़ कर उसे भी खा जाती हैं….


बार बार एक ही बात दोहराए जा रहा हूं ….यह एक रोग है …पीका और इस का समाधान है कि उस महिला में खून की कमी को दूर किया जाए जिस की वजह से उसे यह सब खाने की चाहत होती है….


अभी मैं इस टापिक पर लिखने लगा तो मुझे तो बहुत सी यादें आ गईं, इन सब चीज़ों की, चलिेए, इन को ब्लॉग में सहेज लेता हूं आज …


सलेटी, चॉक खाने वाले दिन …..


कोई माने या न माने हम लोगों में से अधिकतर ने कभी न कभी सलेटी तो खाई ही होगी….मैंने भी एक दो बार इस का लुत्फ़ उठाया है ….लेकिन हमारी क्लास में कुछ लड़के-लड़कियां अकसर स्लेटी खा जाते थे ….और कुछ नाक या कान में फंसा लेते थे ….दोस्तो, यह वह दौर जब यह सलेट-सलेटी स्कूल के बस्ते में लेकर जाने की दौर था या मजबूरी थी, यह भी कह लें…आज कल तो हम बहुत ऊपर उठ चुके हैं…..अकसर मैं भूल जाता हूं कि शायद अभी भी दूर-सुदूर इलाकों में ऐसे स्कूल होंगे जहां पर यह अभी भी चालू होगा ….शायद।


जहां तक मुझे याद है एक बार मैं भी यह स्लेटी नाक में फंसा बैठा था, और डाक्टर के पास जाना पड़ा था ….सब खुराफाती किस्म के बच्चों के कारनामे, और क्या। मां-बाप बेचारे डर-सहम जाते थे ….


लेकिन उन दिनों एक बात याद है कि जिस किसी का भी पता चलता कि वह स्लेटी या मिट्टी खाता है या खाती है, तो अकसर मेरी माता जी कहती कि उस के पेट में कीड़े होंगे …लेकिन यह बात अकसर कोई नहीं कहता कि उस में खून की कमी है, इसलिए वह यह सब खाता है …ठीक है जितनी उन दिनों अवेयरनैस थी, उस हिसाब से सब ठीक है। 


अब लगता है इस चाक मिट्टी सलेटी वाली बात को यहीं छोड़ना होगा …सीधी सीधी बात यह है कि अगर कोई इस तरह से कुछ भी ऐसा वैसा खा रहा है तो यह एक मेडीकल अवस्था है …पीका …जिस में खून की कमी होने की वजह से उसे इस तरह का अनाप-शनाप खाने की तलब होती है …उस का कसूर नहीं है, उस में खून की कमी पूरी की जानी चाहिए…। और इस के इलाज के लिए सब से पहले तो डाक्टर पेट के कीड़े मारने की दवा देते हैं और फिर उस की खून की कमी दूर करने के लिेए ऑयरन की दवाई शुरू होती है….


एक होता था जबरदस्त खट्टा चूरन ….


यह हमारे स्कूल में पुडिया में मिलता था….उन दिनों मिलने वाला सारा माल होता यही पांच दस पैसे का ही था…पांच पैसे में चूरन ले लिया…और फिर उसे खा लिया …इतना खट्टा, इतना जबरदस्त खट्टा कि मैं उस की खट्टास को ब्यां नहीं कर सकता….खाते वक्त तो मज़ा आ जाता था …लेकिन उसी वक्त दांत खट्टे हो जाते थे …और अकसर शाम होते होते गले में दर्द और रात तक बुखार हो जाता था और गले में दर्द इतना बढ़ जाता था कि थूक निगलना भी मुश्किल हो जाता था ….अकसर यह चूरऩ मैं कभी कभी ही खाता है लेकिन अकसर उस की वजह से बीमार पड़ जाता था….


मेरे पिता जी को यह पता था कि जब यह चूरन खाता है, तो इसकी तबीयत बिगड़ जाती है, इसलिए मुझे यही कहते थे कि तुमने चूरऩ खाया होगा। थोड़ी सी भी तबीयत ढीली होती तो परेशान हो जाते …साथ ही में रेलवे अस्पताल था, वहां कभी न ले कर जाते, क्योंकि उन के पास दवाईयां नहीं होती थीं…बस, दो चार दवाईयां होती थीं वहां….


पिता जी कैमिस्ट की दुकान से टैरामाईसिन कैप्सूल लेकर आते …और एक कैप्सूल लेते ही मेरी तो जान में जान आ जाती ….हां, साथ में मैं नमक वाले गर्म पानी से गरारे वरारे भी कर लेता, उन दिनों बच्चे बात मान लेते थे, मां मुलैठी चूसने को देती तो वह भी अनमने से दिल के साथ चबा जाता, लेकिन उस से बहुत राहत मिलती…और आज भी वह आदत बनी हुई है,….बेसन का पतला शीरा भी, बादाम-वाम डाल कर मां बना दिया करती थी….उसे लसबी कहते थे ….पता नहीं अपने घर के अलावा तो मैंने यह नाम कहीं सुना नहीं…..


लेकिन जब मैं बड़ा हुआ तो पता चला कि वह चूरन कितना खतरनाक किस्म का होता था, उस में टारटेरिक एसिड मिला रहता था, (घर में कहते तो थे कि इस में टारटी मिली होती है, लेकिन बचपन में कौन सुनता है ये बातें)…..ऐसे चूरन को खाना कितना जोखिम का काम था, बड़े होने पर जाना….


हम ईमली, आमपापड़ भी खूब खाते थे ….


आज से 50-60 साल पहले ईमली की टॉफी मिला करती थी ….एक प्लास्टिक की पन्नी में मिलती थी ..रेट वही …सब चीज़ों का फिक्स रेट …पांच पैसे ..अब तो यह भी याद नहीं कि ये तो शायद पांच पैसे में 1-2 या ज़्यादा भी मिल जाती होंगी….लेकिन उसे खा कर मज़ा बहुत आता था ….एक दम खट्टा-मीठा स्वाद, मुंह का ज़ायका इतना बढ़िया हो जाता था….


और भी तो कितनी ऑप्शन्ज़ हुआ करती थीं….लेकिन अब तो उस ज़माने जैसा आम-पापड़ भी नहीं मिलता ....जब वह दुकानदार एक बड़े से टुकडे़ से उसे खींच कर देता और साथ में नमक छिड़क देता .... बल्ले बल्ले हो जाती....


पांच दस पैसे में ईमली भी मिल जाया करती थी, उस के ऊपर नमक छिड़क कर …..खाते रहो आधी छुट्टी के वक्त आराम से …और अगर एक आधा बीज खाते वक्त अंदर निकल गया और घर में आ कर कभी ऐसे ही बता दो कि आज ईमली की गिटक अंदर चली गई  तो कोई न कोई यह कह देता कि अब तो भई तुम्हारे अंदर एक ईमली का पेड़ उग जाएगा…जहां तक याद आता है यह शरारत मेरे साथ मेेरे पिता जी ही करते थे …लेकिन मैं तो सच में भई डर-सहम सा जाता था कि कितना बड़ा पेड़ होगा …कहां से निकलेगा ….कहां तक फैल जाएगा….


मैं एक जगह अपने ब्लॉग में कहीं लिखा है कि हम लोगों के वक्त ज़्यादा स्नैक्स-वैक्स नहीं होते थे, होते होंगे बाज़ार में, लेकिन हमारे लिए नहीं थे, इसलिए हम लोग बीच बीच में भूख लगने पर कुछ भी खा लेते थे …जैसे एक मुट्ठी में कच्चे चावल भरे, दूसरी में चीनी भरी और हो गए शुरु चबाने…..मुझे यह खाना बहुत पसंद था …और जब कभी ईमली दिख जाती तो उसे उठा लेते और एक हाथ में नमक रख लेते और मज़े से खाने लगते ….लेकिन ईमली की लफड़ा यही है कि दांत खट्टे हो जाते थे एक-आधे दिन के लिए…लेकिन उस उम्र में कौन परवाह करता है न अपने दांत खट्टे होने की और न ही दूसरों के दांत खट्टे करने की ….बस, छोटी छोटी चीज़ों पर मौज करने के दिन थे….।


पिपरमिंट की चकरी ….


पहले पिपरमिंट की गोलियां भी बहुत बढ़िया मिलती थीं, मुझे बहुत पसंद थीं….बॉय-गॉड एक गोली चूस लेने पर आत्मा तक ठंडक पहुंच जाती थी जैसे बनारस वाला पान खाने पर डॉन की अकल का ताला खुल जाता था…बेहद पसंद थी मुझे ये पिपरमिंट की गोलियां ….मुझे लगता है कि यह इसलिए था कि पहले उन गोलियों में पिपरमिंट की मात्रा अच्छी खासी होती होगी, अब तो पता भी नहीं चलता…..दाम वही सब के पांच या दस पैसे …सारी दुनिया जैसे हमारे लिए उन दिनों पांच दस पैसे के इर्द-गिर्द घूमा करती थी….और हां, पिपरमिंट की सफेद गोली गोल आकार की हुआ करती थीं….


मेरी सब से पहली याद है कि एक ऐसी पिपरमिंट की गोली जिस में एक धागा पिरोया होता था …चकरी कहते थे उसे….वही पांच पैसे में दो चार मिलती थीं….हथेली भर जाती थी पूरी ..स्कूल के पहले दिन पहली बार यह खरीद करना याद है अच्छे से मुझे ….हां, पहले तो उस चकरी को अपने हाथों में घुमा कर खेलते, थक जाने पर, धागा तोड़ कर खा लेेते….

वाह, मज़ा था पूरा उन दिनों में भी ….न कोई फ़िक्र, न फाका….


अब भी जब कभी ऐसे ही गले में ठंडक करने की तलब होती है तो इस विक्स से काम चला लेते हैं ….लेकिन इस 50 रुपए वाले पैकेट में वह पांच पैसे वाली गोली जैसी बात कहां….दूर दूर तक इन की कोई तुलना नहीं….न ही हो सकती है… चलिए, छोड़ते हैं उन हसीं यादों को ….


संतरे वाली गोली ….


वाह, भई वाह….संतरे वाली गोली भी अपनी फेवरेट हुआ करती थी …पांच पैसे की पांच, दस पैसे की दस ….एक दम ऐसे लगता था जैसे पूरे का पूरा एक संतरा उस गोली में घुस गया है …इतना मज़ा, बहुत खाते थे ….



बडे़ होने पर भी संतरे वाली गोली तो अपनी फेवरेट रही …मैं क्या, मेरी बहन क्या, मेरी मां क्या, इन लोगों को तो सफर शुरु करने से पहले संतरे वाली गोली चाहिए ही होती थी ….वरना मेरी बहन की तो तबीयत ही खराब हो जाती थी….इसलिए मैं जब भी उन को बस में चढ़ाने जाता तो पहले वह संतरे वाली गोली का एक पैकेट ज़रुर खरीद कर उन्हें दे देता…बस, उन की आंखों में चमक आ जाती…. हा हा हा हा हा …


बहुत लंबे अरसे तक ये दस बीस गोली के पैकेट 50 पैसे या एक रुपए में बिकते मिलते थे ….अकसर खाते रहते थे ….


इस में भी नहीं वह वाली बात ....बचपन की गोली वाली 😁

लेकिन फिर बदकिस्मती से थोड़ी बहुत डाक्टरी पढ़ ली ….एक रेत के कण के बराबर डाक्टरी के बारे में पता चला तो यह लगने लगा कि पता नहीं इसमें क्या डालते होंगे, किस हालात में इन को बनाते होंगे और कैसे हैंडलिंग करते होंगे ….बस, फिर वह संतरे वाली खट्टी मीठी गोली भी गई हाथ से ….कुछ अरसा पहले एक बहुत बड़े स्टोर में मिल गई ….वही पांच पैसे वाली संतरे वाली गोली …50 रुपए वाले पैेकेट में ….लेकिन स्वाद एक दम बेकार ….अभी याद आया तो फ्रिज में देखा तो अभी भी पड़ी हुई मिली……बस, खत्म करने के लिए खा लीं….कोई मज़ा नहीं आया …..


हेल्दी स्नैक्स …..


ऐसा नहीं था कि हमें 50-60 साल पहले स्कूलों में यही कचरा-पट्टी ही मिलती थी, बहुत कुछ हेल्दी भी मिलता था ….जैसे एक बट के पत्ते पर उबली हुई लाल या सफेद चावली (लोबिया और रोंगी कहते हैं हम उसे पंजाबी में) मिलती थीं, उस पर वह मां जैसी लगने वाली प्यारी सी माई उस पर नींबू निचोड़ कर देती थी। अब देखिए, जिस पीढ़ी ने इस तरह के स्नैक्स स्कूल में खाए हों, उन को मोमोज़ कौन खिला सकता है भला …..नहीं, खाये कभी …और न ही कभी खाने की इच्छा है ….


इस अपनी पसंदीदा शकरकंदी को मैं कैसे भूल गया ....यह भी तो मिलती थी हमें स्कूल में आधी छुट्टी के वक्त .



अभी इन पुरानी यादों की संदूकची यही कर रहा हूं बंद ….बाद में कभी खोलेंगे …किन्हीं दूसरी यादों को तलाशने के लिए …तब तक यह गीत सुनिए…(लिंक) ..यह गाना अच्छा इसलिए लगता है क्योंकि इस में चूरन, गोली का ज़िक्र है ……इसलिए अपना सा लगता है यह गीत …..वैसे स्लेट-सलेटियां अब बातें हो गई बीते युग की ....ऐसे लगता है जब अपने परिवार के इस 9 महीने के बालक को एक टॉय-लैपटाप पर कुछ कोडिंग जैसा काम करते देखता हूं....


लगे रहो, भाई .....कल की तैयारी आज से ...



2 टिप्‍पणियां:

  1. सुनहरे बचपन के दिनों की याद दिला दी आप संस्मरण बहुत अच्छा लिखते हैं, शब्दों का चुनाव बेहतरीन

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    1. आप का बहुत बहुत शुक्रिया ...इस हौसलाफ़ज़ाई के लिए....यही है जो अगली पोस्ट लिखने के लिए प्रेरित करता है ....धन्यवाद...ऐसे ही आर्शीवाद देते रहिए...

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