रविवार, 16 मई 2010

हार्ट चैक-अप के लिये पीटा जा रहा है ढिंढोरा

आज जब मैं सुबह कहीं जा रहा था तो मैंने सुना कि एक रिक्शे पर एक सज्जन यह घोषणा कर रहा था कि फलां फलां दिन उस बड़े हस्पताल (कारपोरेट हस्पताल) से एक बहुत बड़ा हार्ट का स्पैशलिस्ट आ रहा है जो मरीज़ों के हार्ट की फ्री जांच करेगा।
इस तरह के इश्तिहार/ पैम्फलेट कईं बार अखबारों के अंदर से तो गिरते देखे हैं लेकिन शायद आज मैं इस काम के लिये इस तरह का ढिंढोरा पिटता पहली बार देख रहा था। ढिंढोरा ही हुआ --- क्या हुआ अगर ढोलकची गायब था।
कुछ समय बाद ध्यान आया कि कुछ वर्ष पहले जिन छात्रों का दाखिला मैडीकल कॉलेजों में नहीं होता था उन के शुभचिंतक उन्हें यह कह कर अकसर दिलासा देने आया करते थे ----हो न हो, ज़रूर इस में कोई भलाई ही है -- डाक्टरों की तो हालत ऐसी हो रही है कि तुम देखना आने वाले समय में डाक्टर गली-मोहल्लों में स्वयं मरीज ढूंढा करेंगे--------मैं आज यह अनाउंसमैंट सुन कर यही सोचने लग गया कि आने वाला समय पता नहीं कैसा होगा?
मुझे यह बहुत अजीब सा लगता है कि हार्ट के रोगियों से हार्ट के विशेषज्ञों का सीधा संपर्क --केबल में विज्ञापन के माध्यम से, अखबार में पैम्फलेट डलवा कर और अब एक किस्म से ढिंढोरा पिटवा कर। आप को क्या लगता है कि इस तरह का मुफ्त चैक-अप क्या मरीज़ों के हित में है ? सतही तौर पर देखने से यही लगता है कि इस में क्या है, कोई दिल का मुफ्त चैक-अप कर रहा है तो इस में हर्ज़ क्या है?
चलिये, कुछ समय के लिये इस बात को यही विराम देते हैं। एक दूसरी बात शुरू करते हैं --- बात ऐसी है कि अगर किसी को ब्लड-प्रैशर है या इस तरह का कोई और क्रॉनिक रोग है तो सब से पहले तो उसे चाहिये कि वह इन बातों का ध्यान करे ---
सभी तरह के व्यसनों को एक ही बार में छोड़ दे या चिकित्सीय सहायता से छोड़ दे। तंबाकू का किसी भी रूप में इस्तेमाल आत्महत्या करने के बराबर है---अगर ये शब्द थोड़े कठोर लग रहे हों, तो ये कह लेते हैं कि स्लो-प्वाईज़निंग तो है ही।
शारिरिक व्यायाम एवं परिश्रम करना शुरू करे।
खाने-पीने में वे सभी सावधानियां बरतें जिन का आज लगभग सब को पता तो है लेकिन मानने के लिये प्रेरणा की बेहद कमी है।
किसी भी तरह से नमक का कम से कम इस्तेमाल करे।
तनाव से मुक्त रहे --- तनाव को दूर रखने के लिये हमारी प्राचीन पद्धतियों का सहारा ले जैसे कि योग, प्राणायाम्, ध्यान (meditation).
कल एक स्टडी देख रहा था कि जो लोग रोज़ाना 10-12 घंटे काम करते हैं उन में दिल के रोग होने की संभावना बढ़ जाती है।
इन सब के साथ साथ खुश रहने की आदत डालें (क्या यह मेरे कहने मात्र से हो जायेगा..!.)
अब आप यह कल्पना कीजिये कि अगर कोई बंदा इन ऊपर लिखी बातों की तरफ़ ध्यान दे नहीं रहा बल्कि ब्लड-प्रैशर के लिये सीधा हृदय रोग विशेषज्ञ से संपर्क करता है तो उस से हो क्या जायेगा ? --- कहने का भाव है कि थोड़ी बहुत भी तकलीफ़ होने पर सब से पहले ऊपर लिखी बातों पर ध्यान केंद्रित किया जाए --- और अपने फैमिली डाक्टर से ज़रूर संपर्क बनाये रखा जाए----- he knows your body inside out hopefully. और अगर उसे लगेगा कि किसी एम डी फ़िज़िशियन से परामर्श लेने की ज़रूरत है, वह कह देगा। यह तो हुआ एक आदर्श सा सिस्टम जिस में सारा काम कायदे से चले।
और फिर फ़िज़िशियन को भी लगेगा कि किसी दिल के विशेषज्ञ से चैकअप करवाना ज़रूरी है तो वह मरीज़ को रैफर कर देगा। लेकिन समस्या यह है कि आज कल इधर उधर से मिलनी वाली अध-कचरी नॉलेज ने मरीज़ों को और भी परेशान कर दिया है कि उन्हें लगता है अगर थोड़ी बहुत टेंशन की वजह से थोड़ा बहुत ब्लड-प्रैशर भी बढ़ गया है तो भी किसी हार्ट के विशेषज्ञ को ही दिखाना ठीक रहेगा।
लेकिन मुझे लगता है इस तरह से अपनी मरजी से ही डाक्टरों के पास पहुंच जाना ज़्यादा लोगों के लिये हितकर नहीं है। कारण ? --- जो लोग अफोर्ड कर सकते हैं उन्हें शायद मेरी बात में इतना तर्क नज़र न भी आता है। शायद उन्हें लगा कि मैं तो उन्हें समय से पीछे ले कर जा रहा हूं ---जब स्पैशलिस्ट उपलब्ध हैं तो फिर उन्हें दिखाया क्यों न जाए  ?
लेकिन अधिकतर लोगों के बस में नहीं होता कि वे इन सुपर स्पैशलिस्ट के पास जा कर इन की फीसें भरे और महंगे महंगे टैस्ट करवायें। वे चाहते हुये भी इन टैस्टों को कराने में असमर्थ होने के कारण अपनी परेशानियों को बढ़ा लेते हैं।
अब वापिस अपनी बात पर आते हैं ----इन हार्ट चैक्अप के लिये लगने वाले फ्री कैंपों की तरफ़। एक आधा टैस्ट जैसे कि ईसीजी वहां फ्री ज़रूर कर दी जाती है ---- और शायद एक आध और टैस्ट। और इस के बाद कुछ मरीज़ों को उन की ज़रूरत के अनुसार ऐंजियोग्राफी करवाने के लिये कहा जाता है और फिर उस में गड़बड़ होने की हालत में बाई-पास सर्जरी।
अब देखने की बात है कि अधिकतर लोग इस देश में आम ही है ----अब सिचुएशन देखिये कि वह अपनी इस तरह की तकलीप़ के लिये सीधा पहुंच गया हार्ट-चैक करवाने --- और उसे कह दिया गया कि तेरे तो दिल में गड़बड़ है। अब न तो यह हज़ारों रूपयों से होने वाले टैस्ट ही करवा पाये और न ही लाखों रूपये में होने वाले आप्रेशन ही करवा पाए -----वह कुछ करेगा नहीं, सोच सोच कर मरेगा -- इतने पैसों का जुगाड़ कर पाता नही, और पता नहीं अगले कईं साल तक वैसे तो निकाल लेता लेकिन एक बार डाक्टर ने कह दिया कि तेरा तो भाई फलां फलां टैस्ट या आप्रेशन होना है तो समझो कि यह तो गया काम से।
मुझे इस तरह से ढिंढोरा पीटने वालों से यही आपत्ति है कि क्यों हम किसी भूखे को बढ़िया बढ़िया बेकरी के बिस्कुट दिखा कर परेशान करें ----अगर वह हमें पैसे देगा तो हम उसे वे बिस्कुट देंगे, ऐसे में क्यों हम उसे सताने का काम करें।
तो बात खत्म यहीं होती है कि कोई भी तकलीफ़ होने पर अपने खान-पान को, अपनी जीनव शैली को पटड़ी पर वापिस लाया जाए और ज़रूरत होने पर अपने फैमिली फ़िज़िशियन से मिलें ----सीधा ही सुपर स्पैशलिस्ट को दिखाना मेरे विचार में आम आदमी के हित में होता नहीं है। साधारण तकलीफ़ों के उपचार भी साधारण होते हैं।
एक बात और भी है कि मान लीजिये लाखों रूपये के बोझ तले दब कर आप्रेशन भी करवा लिया लेकिन बीड़ी-तंबाकू का साथ छूटा नहीं, सारा दिन एक जगह पर पड़े रहना और खाना-पीना भी खूब गरिष्ट, नमक एवं मसालों से लैस -----क्या आप को लगता है कि ऐसे केस में आप्रेशन से होने वाले फायदे लंबे अरसे तक चल पाएंगे ?
हां, एक बात हो सकती है कि बाबा रामदेव की खाने-पीने एवं व्यायाम करने की सारी बातें मानने से क्या पता आप को उतनी ही फायदा हो जाए ------लेकिन यह विश्वास की बात है ---आस्था की बात है ---- यह प्रभु कृपा की बात है ---इस में कब दो गुणा दो दस हो जाएं और कब शून्य हो जाए--- यह सब हम सब जीवों की समझ से परे की बात है।
आप को भी लग रहा है ना कि यार, यह तो प्रवचन शूरू हो गये ----मुझे भी कुछ ऐसा ही लग रहा है इसलिये बस एक आखिरी बात आपसे शेयर करके विराम लूंगा।
कुछ दिन पहले मैं सहारनपुर में एक सत्संग में गया हुआ था --मेरे सामने दो-तीन दोस्त बैठे हुये थे। दोस्तो, वे लोग बीच बीच में आपस में हंसी मज़ाक कर रहे थे और जिस तरह से वे खुल कर ठहाके मार रहे थे, उन्हें देख कर मै भी बहुत खुश हुआ। मैं उस समय यही समझने की कोशिश कर रहा था कि दिल से निकलनी वाली हंसी इतनी संक्रामक क्यों होती है।
कमबख्त हम लोगों की बात यह है कि हम लोग हंसना भूलते जा रहे है ---किसी से साथ दिल कर बात इसलिये नही करते कि कहीं कोई इस का अन-ड्यू फायदा न ले ले ---बस इसी फायदे नुकसान की कैलकुलेशन में ही पता ही कब बीमारियों मोल ले लेते हैं। टीवी पर एक बार एक हार्ट-स्पैशलिस्ट कह रहा था ----
दिल खोल लै यारा नाल,
नहीं तां डाक्टर खोलनगे औज़ारा नाल।
( बेपरवाही से अपने दोस्तों से दिल खोल कर बाते किया कर, वरना डाक्टरों को आप्रेशन करके दिल को खोलना पड़ सकता है) .....

मैडीकल न्यूज़ - आप के लिये

कुछ मीठा हो जाए ---टीका लगवाने से पहले

टीका लगवाने से पहले मीठा खा लेने से दर्द कम होता है और एक महीने से एक वर्ष तक की उम्र के बच्चों के लिये डाक्टरों एवं नर्सों को सिफारिश की गई है कि इन्हें टीका लगाने से पहले ग्लूकोज़ अथवा शुकरोज़ के पानी के घोल की कुछ बूंदे ---ज़्यादा से ज़्यादा आधा चम्मच ----दे देनी चाहिये। इस से इन शिशुओं को टीका लगवाने में कम दर्द होता है।

एक और रिपोर्ट में पढ़ रहा था कि इस तरह से अगर छोटे बच्चों को कम पीड़ा होगी तो उस से टीकाकरण के कार्यक्रम को भी एक प्रोत्साहन मिलेगा क्योंकि ऐसा देखा गया है कि अगर बच्चा ज़्यादा ही रोने लगता है या उस की परेशानी देख कर कुछ मां-बाप अगली बार टीका लगवाने से पीछे हट जाते हैं।

इस खबर में बताई बात को मानने के लिये एक तरह से देखा जाए तो किसी कानून की कोई आवश्यकता नहीं है लेकिन कुछ फिजूल के प्रश्न ये हो सकते हैं ---कितना ग्लूकोज़ अथवा शुकरोज़ खरीदा जाए, कहां से खरीदा जाए कि सस्ता मिले, इस का घोल कौन बनायेगा, .........और भी तरह तरह के सवाल।

कहने का भाव है कि बात बढ़िया लगी हो तो मां-बाप स्वयं इस तरह की पहल कर लें कि बच्चों को टीका लगवाने के लिये ले जाते वक्त इस तरह का थोडा़ घोल स्वयं तैयार कर के ले जाएं ताकि उस टीकाकरण कक्ष में घुसते वक्त शिशु को उसे पिला दें। आप का क्या ख्याल है ? और ध्यान आया कि हमारी मातायें चोट लगने पर हमें एक चम्मच चीनी क्यों खिला दिया करती थीं और हम लोग झट से दर्द भूल जाया करते थे।

पांच साल के कम उ्म्र के शिशुओं की आधी से ज़्यादा मौतें पांच देशों में

विश्व भर में पांच साल से कम आयु के शिशुओं की जितनी मौतें होती हैं उन की लगभग आधी संख्या चीन, नाईज़ीरिया, भारत, कॉंगो और पाकिस्तान में होती हैं।

और जो 88 लाख के करीब मौतें एक साल में पांच वर्ष से कम बच्चों की होती हैं उन में से दो-तिहाई तो निमोनिया, दस्त रोग, मलेरिया, संक्रमण की वजह से रक्त में विष बन जाने से (blood poisoning) हो जाती हैं।

कुछ अन्य कारण हैं बच्चे के जन्म के दौरान होने वाले जटिल परिस्थितियां, जन्म के दौरान बच्चे को ऑक्सीजन की कमी और जन्म से ही होने वाले शरीर की कुछ खामियां --- complications during child birth, lack of oxygen to the newly born during birth and congenital defects.

और एक बात जो आंखे खोलने वाली है वह यह है कि इन मौतों में से 40फीसदी के लगभग मौतें शिशु के जन्म के 27 दिनों के अंदर ही हो जाती हैं।

यह तो हुई खबर, और इसी बहाने में अपने तंत्र को टटोलना चाहिये। बच्चे के जन्म के दौरान उत्पन्न होने वाली जटिलताओं का सब से प्रमुख कारण है बिना-प्रशिक्षण ग्रहण की हुई किसी दाई का डिलीवरी करवाना। और जो यह छोटे छोटे बच्चों में सैप्टीसीमिया (septicemia)---- "blood poisoning" हो जाता है इस का भी एक प्रमुख कारण है कि इस तरह की जो डिलीवरी घर में ही किसी भी "सयानी औरत" द्वारा की जाती हैं उन में नाडू (cord) को गंदे ब्लेड आदि से काटे जाने के कारण इंफैक्शन हो जाती है जो बहुत बार जानलेवा सिद्ध होती है।

और यह जो निमोनिया की बात हुई ---यह भी छोटे बच्चों के लिये जानलेवा सिद्ध हो जाता है। और इस की रोकथाम के लिये यह बहुत ज़रूरी है कि बच्चों को मातायें स्तन-पान करवायें जो कि रोग-प्रतिरोधक एंटीबाडीज़ से लैस होता है। और नियमित टीकाकरण भी इस से बचाव के लिये बहुत महत्वपूर्ण है -----ठीक उसी तरह से जिस तरह से यह सिफारिश की जाती है कि शिशुओं को पहले तीन माह में स्तन-पान के अलावा बाहर से पानी भी न दिया जाए ताकि उसे दस्त-रोग से बचाये रखा जा सके। और ध्यान तो यह भी आ रहा है कि नवजात शिशुओं को पहले 40 दिन तक जो घर के अंदर ही रखने की प्रथा थी -- हो न हो उस का भी कोई वैज्ञानिक औचित्य अवश्य होगा-------और अब अगले ही दिन से बच्चे के गाल थपथपाने, उस की पप्पियां लेनी और देनी शुरु हो जाती हैं -----इन सब से नवजात शिशुओं को संक्रमण होने का खतरा बढ़ जाता है।

अमेरिका में सलाद के पत्तों को भी मार्कीट से वापिस उठा लिया गया ....
अमेरिका में सलाद के पत्तों (lettuce leaves) को मार्कीट से इस लिये वापिस उठा लिया गया क्योंकि उन में ई-कोलाई (E.coli) नामक जावीणु के होने की पुष्टि हो गई थी। इस जीवाणुओं की वजह से इस तरह के पदार्थ खाने वाले को इंफैक्शन हो सकती है --- जिस में मामूली दस्त रोग से मल के साथ रक्त का बहना शामिल है और कईं बार तो इस की वजह से गुर्दे का स्वास्थ्य भी इतनी बुरी तरह से प्रभावित हो जाता है कि यह जान तक ले सकता है।

अब सोचने के बात है कि क्या हमारे यहां सब कुछ एकदम फिट मिल रहा है--- इस प्रश्न का जवाब हम सब लोग जानते हैं लेकिन शायद हम इस तरह की तकलीफ़ें-बीमारियां सहने के इतने अभयस्त से हो चुके हैं कि हमें हर वक्त यही लगता है कि यह सब्जियों में मौजूद किसी जीवाणुओं की वजह से नहीं है, बल्कि हमारे खाने-पीने में कोई बदपरहेज़ी हो गई होगी----- कितनी बार सब्जियों को अच्छी तरह से धोने की बात होती रहती है, ऐसे ही बिना धोये कच्ची न खाने के लिये मना किया जाता है।

जाते जाते ध्यान आ रहा है कि वैसे हम लोग इतने भी बुरे नहीं हैं ---- कल सुबह बेटे ने कहा कि स्कूल के लिये पर्यावरण पर कोई नारा बताइये ---मैं नेट पर कुछ काम कर रहा था ---मैंने environment quotes लिख कर सर्च की ---जो परिणआम आये उन में से एक यह भी था ----

" कम विकसित देशों में कभी पानी मत पियो और बहुत ज़्यादा विकसित देशों की हवा में कभी सांस न लो "...................
और हम यूं ही ईर्ष्या करते रहते हैं कि वो हम से बेहतर हैं ------लेकिन कैसे, यह सोचने की बात है -----Today's Food for Thought !!