बुधवार, 9 अप्रैल 2008

एक सौ आठ हैं चैनल, पर दिल बहलते क्यों नहीं !





लिखने वाले ने भी क्या जबरदस्त लिख दिया है !...लेकिन इस बात का ध्यान मुझे बहुत समय बाद कल तब आया जब मेरी पहली कलम चिट्ठाकारी पोस्ट के बारे में एक मित्र ने कहा कि दोस्त, दुनिया तो बहुत आगे निकली जा रही है.....आज कल तो कंप्यूटर, इंटरनेट, ब्लागिंग का दौर है......तब अचानक मुझे मुन्नाभाई लगे रहो से यह मेरा बेहद पसंदीदा डायलाग याद आ गया और सोचा कि इसे कलम के द्वारा ही आप के सामने प्रस्तुत करूंगा.......प्रस्तुत तो ज़रूर कर रहा हूं...लेकिन यह सब मेरे लिये ही है, किसी और की तो मैं जानता नहीं, लेकिन अपने आप से ही इतने सारे सवाल ज़रूर पूछ रहा हूं.........इसलिये फिर से कलम उठाने पर मज़बूर हो गया।

कितने हिस्सों में बंटेगी हमारी सेहत ?



मुझे शुरू से ही सेहत के विषय को छिन्न-छिन्न कर के देखने से बड़ी आपत्ति रही है। एक मजाक सा भी तो आपने सुना ही होगा कि एक आंख के लिये एक चिकित्सक और दूसरी के लिये दूसरा।
बात शुरू करते हैं इस हैल्थ-कैप्सूल में जिस में छपा है कि कोलेस्ट्रोल के स्तर को दवाईयों से कम करने की बजाय बहुत से प्राकृतिक विकल्प हैं –इन में से एक बहुत ही उत्तम है नायॉसिन। साथ में यह भी लिखा है कि यह नायॉसिन हानिकारक कोलेस्ट्रोल को घटाता है और फायदेमंद कोलेस्ट्रोल को बढ़ाता है।
यह पढ़ कर मेरे मन में यही विचार आया कि यह नायॉसिन किस बला का नाम है यह इस अंग्रेज़ी अखबार के कितने पाठक जानते होंगे। यह सोच कर कि अकसर स्वास्थ्य से संबंधित इतनी अहम् जानकारी पढ़ कर कोई भी इंसान डिक्शनरी की तरफ़ लपकेगा.....मैंने भी अपनी टेबल पर पड़ी Longman Dictionary of Contemporary English को खोल कर इस का अर्थ आप के लिये ढूंढना चाहा (क्योंकि मुझे तो मालूम था ही !)..an important chemical ( a type of Vitamin B) found in foods like milk and eggs)……तो शब्दकोष में इसके बारे में यह लिखा हुया है कि यह एक महत्त्वपूर्ण रसायन है जो कि विटामिन बी की एक किस्म है जो दूध एवं अंड़ों जैसे खाद्य पदार्थों में पाया जाता है।
अब किसी पाठक का यह सोच कर थोड़ा दुविधा में पड़ जाना कि यार, मेरे डाक्टर ने तो मुझे मेरे बड़े हुये कोलेस्ट्रोल के कारण अंडे के सेवन से मना किया हुया है लेकिन यहां तो बात ही कुछ और है। तो, इस आधा-अधूरी जानकारी से पाठक को सिर दुःखना स्वाभाविक है कि नहीं !!
तो, क्या स्वास्थ्य की तरफ़ इस तरह की फ्रैग्मैंटिड अप्रोच के लिये क्या हम सारा दोष मीडिया के ऊपर ही मढ़ कर बेपरवाही की चादर ओढ़ लें......अफसोस ऐसा संभव न होगा। क्योंकि स्वास्थ्य को ज़्यादा ही छिन्न-छिन्न कर देखने की प्रवृत्ति मैडीकल प्रोफैशल की भी बनती जा रही है....इस के कारणों के पीछे न ही जायें तो बेहतर होगा। कल मिसिज़ भी कह रही थीं कि इस स्पैशलाइज़ेशन, सुपर स्पैशलाइज़ेशन ने बहुत कुछ आसान कर दिया है लेकिन यह भी मानना पड़ेगा कि हर विशेषज्ञ ने अपना ध्यान अपने ही एरिया में इतना ज़्यादा केंद्रित कर दिया है कि इन हालात में कुछ बीमारियों के कई बार मिस हो जाने के किस्से नोटिस में आते रहते हैं। तो, ऐसे में मेरा केवल एक प्रश्न है कि हम किसी भी मरीज़ को टोटैलिटी में---होलिस्टिक अप्रोच से— देखना कब शुरू करेंगे !! ..लेकिन यह ब्यूटी हमें अपनी पुरातन चिकित्सा पद्धतियों में खूब देखने को मिलती है.....अकसर सोच कर अचंभित होता हूं कि वे पुराने वैद्य भी इस शरीर विज्ञान के कितने मंजे खिलाड़ी रहे होंगे जिन का काम ही केवल नाड़ी टटोल कर और मुंह के अंदर झांक कर बीमारी का निदान करना होता था !!
अब तो इतने इतने महंगे महंगे टैस्ट करवा लेने के बाद भी कईं बार किसी निष्कर्ष पर पहुंचना दुर्गम सा हो जाता है। और अकसर ये टैस्ट आम आदमी की पहुंच से दूर ही नहीं – बहुत दूर होते हैं। ऐसे में यह विचार आना स्वाभाविक ही है कि पुरानी चिकित्सा प्रणाली ज्यादा विकसित थी ( या है?????.....अब इस पर भी मार्केट शक्तियां हावी होती दिख रही हैं!!)…..या हमारी यह आधुनिक चिकित्सा प्रणाली। लेकिन लगता है कि यह बहस तो लंबी चल पड़ेगी, इसलिये फिर कभी !!
अकसर मीडिया में ही देखने, पढ़ने और सुनने को मिलता है कि बालों की सेहत के लिये यह सप्लीमेंट्स लें, प्रोस्ट्रेट के कैंसर से बचने के लिये यह खाया करें, स्वस्थ बच्चे को जन्म देने के लिये गर्भवती महिलायें ये खायें...वो खायें, दिल के दौरे से बचने के लिये यह लिया करें..वो ना लिया करें....इस समय तो मेरे ध्यान में ही नहीं आ रहे ये सब.....लेकिन उन की भाषा कुछ इस तरह की रहती है कि गर्भाशय के कैंसर से बचने के लिये फलां फलां वस्तु का प्रयोग करें और एक अध्ययन में पाया गया कि इस का सेवन इतने वर्षों तक करने से इस कैंसर के रोगियों की संख्या में इतने फीसदी की कमी हो गई।
मुझे तो भई यह किसी मज़ाक से ज़्यादा नहीं लगता....कारण ??......विशेषकर इस देश में जहां अधिकांश लोगों की खाने पीने की असलियत केवल उस मिट्टी के चूल्हे पर पक रही खिचड़ी तक ही सीमित है .....और कुछ नहीं....ऐसे में उसे तरह तरह के संप्लीमैंट्स की सलाह देना भी क्या किसी मजाक से कम है। वैसे तो जिसे खिचड़ी/ दाल-भात भी नसीब हो रहा है वह खुशकिस्मत है.....उसे इस तरह की फ्रैग्मैंटिड अप्रोच के क्या लेना देना.......पता नहीं हम लोग कब होलिस्टिक हैल्थ के बारे में सोचेंगे.....खुद नहीं सोच सकते तो बाबा रामदेव जी की बातों का अनुसरण करने में ही आखिर दिक्कत क्या है ?....समझ में नहीं आता।
हमें लोगों को एक संतुलित आहार लेने के लिये( सस्ते ढंग से) प्रेरित करना ही होगा.......यह देखना होगा कि कैसे कोई परिवार खिचड़ी के साथ थोड़ी साग-सब्जी-फल का सेवन कर सकता है.................ना कि उसे बीसियों तरह के सप्लीमेंट्स गिना गिना कर परेशान करने के साथ साथ हीन-भावना का शिकार करते रहें।
सीधी सी बात है जब हम लोग मौसम के अनुसार संतुलित आहार लेते हैं तो हमें वह सब कुछ मिल जाता है जिस की हमारे शरीर को ज़रूरत होती है.......चाहे हमें उन तत्त्वों के भारी-भरकम अंग्रेज़ी नाम पता हों या नहीं, इन से कोई फर्क नहीं पड़ेगा !!!..............और हां, साथ ही साथ एक बहुत ही ज़रूरी शर्त है कि हमें हर तरह के व्यसनों के दूर तो रहना ही होगा....इस के इलावा कोई चारा है ही नहीं !!!.....No excuses, please!!