शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

सूंघने वाली इंसुलिन

कुछ साल पहले की बात है कि हमारी एक आंटी जी हमारे पास कुछ दिनों के लिए आईं थीं.. वह मधुमेह से पीड़ित थीं, स्वभाव की बहुत अच्छी, हंसमुख तबीयत की. अपनी बीमारी के बारे में कुछ ज़्यादा सोचती नहीं थीं। मस्त रहती थीं, उन के गुज़रे भी बहुत वर्ष बीत गये हैं।

मुझे याद है जब उन्हें दिन में कईं कईं बार इंसुलिन के टीके अपनी जांघ के पट्ठों पर लगाने पड़ते थे, सुन कर ही बहुत कठिनाई होती थी। जांघ पर ही नहीं, शरीर की अन्य जगहों पर भी बाजु, पेट (एबडॉमन)आदि पर वह टीके लगा लेती थीं इंसुलिन के। वैसे तो वह स्वयं भी लगा लिया करती थीं लेकिन बहुत बार उन की बहू उन की इस काम में मदद किया करती थीं।

मुझे अभी भी याद है वह २०-२५ वर्ष पुरानी बात जब एक बार वह टीका लगा रही थीं तो किस बेबसी के भाव से उन्होंने कहा कि क्या करूं, जिधर चमड़ी थोड़ी ठीक लगती है, उधर ही लगा लेती हूं इंजैक्शन....सारे शरीर को तो टीके लगा लगा छील दिया है !!

आज जब इस खबर पर ध्यान गया कि अब सूंघने वाली इंसुलिन को भी अमेरिकी एफडीआई की एप्रूवल मिल गई है .. तो यह जान कर प्रसन्नता हुई। चाहे बाद में लिखा गया है कि यह सूंघने वाली इंसुलिन लॉंग-एक्टिंग इंसुलिन का विकल्प नहीं है। इसे तो उस लॉंग-एक्टिंग इंसुलिन के साथ (ज़ाहिर सी बात है टीके से लगने वाली इंसुलिन).. ही लेना पड़ेगा।

इतना पढ़ कर भी ठीक ही लगा कि चलो, बीमारी से पहले से ही परेशान मधुमेह रोगी कम से कम कुछ टीकों से तो बच ही जाएंगे।

जाते जाते एक बात लिखने को मन हो रहा है ..जितनी बुरी मैनेजमैंट मैंने मधुमेह के रोगियों की देखी है, शायद ही कोई ऐसी बीमारी हो जिस का यह हाल हो। मरीज़ नियमति ब्लड-शुगर की जांच करवाते नहीं या करवा नहीं पाते, और भी आंख की या अन्य रक्त की जांच न होने की वजह से अन्य अंगों में जटिलताएं उत्पन्न तो होती ही हैं, साथ ही साथ, मधुमेह में ली जाने वाली दवाईयों को भी ठीक से एडजस्ट नहीं करवा पाते..... सही तरह से फॉलो-अप का अभाव, विशेषज्ञ चिकित्सकों तक न पहुंच पाना, नीम हकीमों के झांसे, देसी दवाईयां, पुडियां....एक ही समय में कईं कईं इलाज एक ही तकलीफ़ के करने की कोशिश.............. देश में हर बंदे  -- ९९ प्रतिशत लोगों की बड़ी जटिल समस्याएं हैं। इन के सब्र से डर लगता है--- रात को बत्ती नहीं, पानी की समस्या, सूखा, महंगाई और ऊपर से बीमारी।

ईश्वर सब को सेहतमंद रखे। खुश रखे। काश, सब के अच्छे दिन एक नारा ही न जाए, सब के दिन पलट जाएं।

Authority.. Inhaled insulin approved by FDA 

जापानी बुखार के बारे में लिखने की ज़रूरत ही क्या है!

जैसे हम लोग हर वर्ष कुछ दिन मनाते हैं ना, मुझे बेहद अफ़सोस से कहना पड़ रहा है कि यह जापानी बुखार के प्रकोप के दिनों में भी कुछ ऐसा माहौल सा बनता दिखता है बस कुछ दिन।

मीडिया विशेषकर इलैक्ट्रोनिक मीडिया कुछेक बार इस समस्या को दिखाते हैं। यू.पी, बिहार या पश्चिमी बंगाल के बच्चों के दिमागी बुखार या जापानी बुखार के ग्रस्त होने की खबरें आती हैं। हम सब के लिए वे खबरें ही होती हैं, है कि नहीं ? अब तो जापानी बुखार के केस देश के अन्य भागों से भी नियमित होने लगे हैं। 

लेिकन जिस घर से ये सैंकड़ों बच्चों के जनाजे उठते हैं उन पर जो बीतती है वे वही जानते हैं। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि सब लोग तंदरूस्त रहें और बड़े बड़े अस्पताल खूब घाटे में चलने लगें। आमीन...
दो चार दिन पहले मैंने रिटर्ज़ पर यह खबर देखी..... India battles to contain 'brain fever' as deaths reach almost 570
 It is most often caused by eating or drinking contaminated food or water, from mosquito or other insect bites, or through breathing in respiratory droplets from an infected person.
इस खबर में यह लिखा पाया कि यह बीमारी आम तौर पर दूषित खाना या पानी खाने-पीने से, मच्छरों एवं अन्य कीड़ों के काटने से या फिर संक्रमित व्यक्ति के पास बैठे इंसान को उस की सांस से बाहर निकले ड्रापलैट्स के द्वारा होती है।
मुझे पढ़ कर अजीब सा इसलिए लगा कि जहां तक मेरी जानकारी है, यह जापानी बुखार मच्छरों के काटने से ही होता है।

फिर मैंने हिंदोस्तान की सेहत से संबंधित सरकारी साइटों की मदद लेनी चाहिए.......लेिकन वे भी मुझे किसी बाबू की टेबल की तरह वैसे तो खूब भारी भरकम लगीं लेकिन आम जन के लिए किसी भी तरह की जनोपयोगी सेहत संबंधी सामग्री नहीं मिली.......हिंदी को तो भूल ही जाइए, अंग्रेजी में भी नहीं मिलीं। जिन साइटों को मैंने खंगाला वे केन्द्रीय सेहत मंत्रालय की साइट, एम्स दिल्ली की साइट और इंडियन काउंसिल ऑफ मैडीकल रिसर्च जैसी साइटों की पूरी तलाशी ले ली, कुछ भी नहीं मिला। इस जापानी बुखार के बारे में ही नहीं, बल्कि किसी भी आम शारीरिक समस्या के बारे में भी कुछ भी नहीं। शायद मेरे ढूंढने में कोई कमी रह गई होगी, इसलिए आप भी चैक कर लीजिएगा और अगर कुछ मिले तो बतलाईए, मैं अपनी गलती को सुधार लूंगा।

जिस संस्था के लिए काम करता हूं , उस के ७००-८०० डाक्टरों ने फेसबुक पर एक ग्रुप बना रखा है, एक्टिव उस में १०-२० ही रहते हैं, बाकी तो बस स्वाद लेने वाले हैं, चुपचाप सब कुछ पढ़ कर बिना कुछ कहे, दबे पांव खिसक लेते हैं। मैंने उस फोरम में भी यह समस्या रखी कि क्या यह जो रिटर्ज़ की साइट पर लिखा है, यह सही है ?  लेकिन हैरानी की बात उन में से किसी ने भी इस बात का जवाब नहीं दिया।

बहरहाल, फिर वही ढूंढते ढांढते विश्व स्वास्थ्य संगठन की साइट पर इस से संबंधित सटीक जानकारी मिल गई ....वहां पर भी यही लिखा हुआ था कि यह जापानी बुखार मच्छरों के काटने से ही होता है...और कुछ खाने पीने से यह बीमारी होने की बात नहीं कही गई। इस बीमारी से प्रभावित क्षेत्रों में लोगों को मच्छरदानी लगा कर सोने की सलाह दी गई है और सूअर पालने के लिए मना किया गया है।
 इस बीमारी के बारे में ठीक से जानने के लिए मेरे कहने पर WHO के इस पेज को अवश्य देखिएगा....... Japanese Encephalitis 

बस सोच रहा था कि मुझे इस तरह की जानकारी तक पहुंचाने में इतनी मशक्कत करनी पड़ी, ऐसे में कहां हर कोई इतनी मगजमारी करना चाहेगा। दावे चाहे कितने भी हों, लेकिन सच्चाई यह है कि नेट पर हिंदी की तो छोड़िए, अंग्रेज़ी में भी भारत में पाई जाने वाली बीमारियों के बारे में सरकारी साइटों पर कुछ खास नहीं है ("कुछ भी" लिखते डर सा लगता है, बस इसलिए "कुछ खास" लिख दिया....) ...हर कोई बड़ी बड़ी हस्तियों के साथ फोटू वोटू निकलवा कर साइटों में डालने में ज़्यादा रूचि लेता दिखता है।

हां, तो जापानी बुखार की बात कुछ तो कर लें......यह होता उन क्षेत्रों में ही है जहां धान के खेतों में बाढ़ का पानी इक्ट्ठआ होता है, मच्छऱ पनपते हैं, फिर सूअर के शरीर में यह वॉयरस इक्ट्ठा होती है, फिर ये मच्छर तक पहुंच जाती है और आगे फिर मच्छर जब लोगों को काटता है तो यह बीमारी पैदा हो जाती है। छोटे बच्चों में यह बीमारी बहुत बार तो उन की जान ही ले लेती है। इस के टीके भी उपलब्ध हैं, और सुना है कि कोशिश की जा रही है कि कम से कम इस रोग से प्रभावित क्षेत्रों के लोगों का टीकाकरण ही कर दिया जाए। महंगा तो काफ़ी है टीका, लेकिन किसी भी बच्चे की जान की कीमत से तो उस के दाम की तुलना नहीं की जा सकती।

जब टीके के दाम का ध्यान आ गया तो यही विचार आया कि उन लोगों को चुल्लू भर पानी में डूब मरने की ज़रूरत है जिन्होंने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में करोड़ों रूपयों से घर भर लिए और फिर वे सब किस तरह से निकले, यह सारा संसार जानता है। जो भी पैसा किसी भी कर्मचारी या अधिकारी के घर में पड़ा पड़ा सडने लगा वह किसी न किसी स्कीम के लिए ही तो आवंटित होगा, शायद इन्हीं बच्चों को जापानी बुखार से बचाने वाले टीकों के लिए भी सुरक्षित पैसा इन के पलंगों के बक्सों के अंदर पहुंच गया। लेकिन क्या फायदा?..  कुछ भी तो नहीं, लेकिन फिर भी कुछ लोगों ने ना समझने की कसम खा रखी होती है।