रविवार, 25 मई 2008

मिलावटी खाद्य -पदार्थों की जांच कैसे हो पायेगी सुगम !!

आप किसी भी क्षेत्र की तरफ़ नज़र दौड़ा कर देख लीजिये....तरक्की तो खूब हुई है। डेयरी इंडस्ट्री को ही देख लें.....बड़े बड़े संस्थान खुल गये, बहुत से लोग पीएचडी कर के आस्ट्रेलिया में डालरों से खेल रहे हैं, लेकिन जितनी भी रिसर्च हुई है क्या आप को लगता है कि उस का लाभ एक आम भारतीय को भी हुया है। पहले तो वह गवाले की दूध में पानी मिलाने की आदत से ही परेशान था....अब तो उसे पता ही नहीं है कि दूध के रूप में उसे क्या क्या पिलाया जा रहा है।

अभी अभी मैं सिंथैटिक दूध के बारे में नेट पर ही कुछ पढ़ रहा था, तो यकीन मानिये इस का वर्णन पढ़ कर कोई भी कांप उठे। इसीलिये मैं सोच रहा था कि देश में विभिन्न क्षेत्रों में तरक्की तो खूब हुई लेकिन आम आदमी की तो पतली हालत की तरफ ध्यान कीजिये कि उसे यह भी नहीं पता कि वह जिस खाद्य पदार्थ का सेवन कर रहा है वह असली है या नकली ....अगर नकली भी है या मिलावटी भी है तो इस के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले ऐसे पदार्थ तो नहीं हैं जिन से उस की जान पर ही बन आये।

अभी मैं जब सिंथैटिक दूध का विवरण पढ़ रहा था तो मुझे उस का वर्णन पढ़ कर यही लगा कि यार हम लोग भी बंबई में ज्यादातर सिंथेटिक दूध ही पीते रहे होंगे...क्योंकि जिस तरह के बड़े बड़े टैंकरों में हमारे दूध वाले के यहां दूध आया करता था और 24घटे दूध उपलब्ध होता था, उस से यही शक पैदा होता है कि इतना खालिस दूध बंबई में अकसर आता कहां से था। लेकिन क्या करें......हम लोगों की बदकिस्मती देखिये कि हम लोग इतना पढ़ लिख कर भी असली और नकली में पहचान ही नहीं कर पाते।

मेरा तो यहां डेयरी वैज्ञानिकों से एवं अन्य विशेषज्ञों से केवल एक ही प्रश्न है कि आप क्यों कुछ ऐसे टैस्ट पब्लिक में पापुलर नहीं करते जिस से वे झट से घर पर ही पता कर सकें कि दूध असली है या सिंथेटिक है....क्योंकि सिंथेटिक दूध पीना तो अपने पैर पर अपने आप कुल्हाडी मारने के बराबर है।

ऐसे ही और भी तरह तरह की वस्तुओं के लिये टैस्ट होने चाहियें जो कि आम पब्लिक को पता होने चाहिये....इस से मिलावट करने वालों के दिमाग में डर बैठेगा.......मैंने कुछ साल पहले इस पर बहुत कुछ पढ़ा लेकिन जो मुझे याद है वह इतना विषम कि उपभोक्ता यही सोच ले कि कौन ये सब टैस्ट करने का झंझट करे....सारी दुनिया खा रही है ना ये सब कुछ....चलो, हम भी खा लें...जो दुनिया के साथ होगा , हमारे साथ भी हो जायेगा। बस, यही कुछ हो रहा है आज हमारे यहां भी।

लोगों में जागरूकता की कमी तो है ही, लेकिन उसे सीधे सादे ढंग से जागरूक करने वाले बुद्धिजीवी तो चले जाते हैं अमेरिका में ......यकीनन बहुत विषम स्थिति है।

छोटे छोटे सवाल हैं जो हमें परेशान करते हैं लेकिन उन का जवाब कभी मिलता नहीं......यह जो आज कल सॉफ्टी पांच-सात रूपये में बिकने लग गई है...इस में कौन सी आइस-क्रीम डाल दी गई है जो इतनी सस्ती बिकने लग गई, इसी तरह से मिलावटी मिठाईयों, नकली मावे का बाज़ार गर्म है। यकीन मानिये दोस्तो पिछले कुछ वर्षों में इतना कुछ देख लिया है, इतना कुछ पढ़ लिया है कि बाज़ार की किसी भी दूध से बनी चीज़ को मुंह लगाने तक की हिम्मत नहीं होती।

अभी यमुनानगर के पास ही एक कसबे में यहां के अधिकारियों ने हलवाईयों की कईं दुकानों पर छापे मारे हैं जो बहुत से शहरों में मिल्क-केक सप्लाई किया करते थे.....लेकिन उन को वहां पर बहुत मात्रा में एक्पायरी डेट का मिल्क-पावडर मिला और साथ ही कंचों की बोरियां भी मिलीं.......पेपर में ऐसा लिखा गया था कि शायद इन कंचों को पीस कर मिल्क केक में डाल कर उस में चमक पैदा की जाती थी। मिल्क में चमक तो पैदा हो गई लेकिन उसे खाने वाले के गुर्दे फेल नहीं होंगे तो क्या होगा, दोस्तो।

स्थिति इतनी विषम है कि बाज़ार में बिक रही किसी भी चीज़ की क्वालिटि के बारे में आप आश्वस्त हो ही नहीं सकते। ऐसे में मेरा अनुरोध सभी विशेषज्ञों से केवल इतना ही है कि अपनी सामाजिक, नैतिक जिम्मेदारी समझते हुये कुछ इस तरह से जनता को सचेत करें कि उन्हे नकली और असली में पता लग जाये, उन्हें पता लग जाये कि यह खाद्य़ पदार्थ खाने योग्य है या नाली में फैंकने योग्य ।

यह सब बहुत ही ज़रूरी है.....हर तरफ़ मिलावट का बोलबाला है, कुछ साधारण से टैस्ट तो होंगे ही हर चीज़ के लिये जिन से यह पता चले कि हम लोग आखिर खा क्या रहे हैं। मेरे विचार में इस तरह की जागरूकता हमारे समाज को मिलावटी वस्तुओं से निजात दिलाने के लिये पहला कदम होगी....क्योंकि जब पब्लिक सवाल पूछने लगती है तो बड़ों बड़ों की छुट्टी हो जाती है।

बाज़ारी दही का भी कोई भरोसा नहीं है, पनीर पता नहीं किस तरह के दूध का बन रहा है.....सीधी सी बात है कि दूध एवं दूध से बने खाध्य पदार्थों की गुणवत्ता की तरफ़ खास ध्यान दिया जाना ज़रूरी है। वैसे तो अब मिलावट से कौन सी चीज़ें बची हैं !!

मैंने एक डेयरी संस्थान के प्रोफैसरों को बहुत पत्र लिखे हैं कि कुछ छोटे छोटे साधारण से टैस्ट जनमानस में लोकप्रिय करिये जिस से उन्हें पता तो लगे कि आखिर वे क्या खा रहे हैं, क्या पी रहे हैं। मुझे याद आ रहा है कि बंबई के वर्ल्ड-ट्रेड सेंट्रल में अकसर कईं तरह की प्रदर्शनियां लगा करती थीं ...वहां पर अकसर एक-दो स्टाल इस तरह के उपभोक्ता जागरूकता मंच की तरफ से भी हुया करते थे......लेकिन अब तो उस तरह के स्टाल भी कहीं दिखते नहीं।

ऐसे में क्या सुबह सुबह घर की चौखट पर जो दूध आता है क्या वही पीते रहें ?....यही सवाल तो मैं आप से पूछ रहा हूं .....तो, अगली बार जब अपने घर में आये हुये दूध को देखें तो उस के बारे में कम से कम यह ज़रूर सोचें कि आखिर इस की क्वालिटी की जांच के लिये आप क्या कर सकते हैं.....नहीं, नहीं, मैं फैट-वैट कंटैंट की बात नहीं कर रहा हूं.....मैं तो बात कर रहा हूं सिंथैटिक दूध में इस्तेमाल की जाने वाले खतरनाक कैमिकल्ज़ की ....जो किसी भी आदमी को बीमार बना कर ही दम लें।

वैसे हम लोग भी कितनी खुशफहमी पाले रखते हैं कि हो न हो, मेरा दूध वाला तो ऐसा वैसा नहीं है.......पिछले बीस सालों से आ रहा है.......लेकिन फिर भी ...प्लीज़ ..एक बार टैस्टिंग वैस्टिंग के बारे में तो सोचियेगा। बहुत ज़रूरी है......मैं नहीं कह रहा है, आये दिन मीडिया की रिपोर्टें ये सब बताती रहती हैं।

वो फुल मस्ती वाले दिन !!

अभी अभी बारिश थमी है...मई के महीने के इन दिनों में बारिश.....सुहाना मौसम....हां,हां, मौसम ने करवट ली है...आज से नहीं पिछले तीन हफ्तों से यह मौसम बेहद हसीन सा बना हुया है। आज अखबार में तो आया है कि इस तरह की करवट के परिणाम कितने भयानक हो सकते हैं, लेकिन इस समय तो बस यूं ही लग रहा है कि चलो, यारो, कल जो होगा, देखा जायेगा, अभी तो इस मौसम का लुत्फ उठा लो। बस, इस समय बगीचे में झूले पर बैठे बैठे अपने बचपन की बरसातों वालों दिन याद आ गये.....

एक बात तो यह याद आई कि हम लोग बरसात के मौसम में इन झूलों के साथ कितनी मस्ती किया करते थे। सोच कर के इतनी हंसी आती है कि क्या कहूं। हमारे घर के बाहर एक बहुत बड़ा पेड़ हुया करता था जिस पर एक मोटी सी रस्सी के साथ पींघ ( झूला ) बनाया जाता था। मजबूत पेड़ और बहुत ही मजबूत रस्सी की वजह से कोई टेंशन नहीं होती थी......बस, जितनी हिम्मत हो, जितना ज़ोर हो, खींच लो उतनी ही ऊंचाईंयों तक..............कितना मज़ा आता था जब हमारे साथ कोई झूलने वाला डर रहा होता था। झूला झूलने वालों के साथ साथ आस पास खड़े बीसियों लोगों का भी अच्छा खासा मनोरंजन हो जाया करता था। फट्टा हम उस झूले को झूलते समय एक लकड़ी का मजबूत सा भी अकसर उस पर टिका लिया करते थे। सचमुच वो दिन बेहद मज़े वाले थे......लेकिन इतने सालों के बाद भी पता नहीं ऐसा लग रहा है कि ये सब बातें कल की ही हैं। पता नहीं इस समय को भी कौन से पंख लगे हुये हैं......ऐसा फुर्र से उड़ जाता है।

दूसरी याद जो आज सता रही है ...वह है सूआ खेलना। अब सूआ मैं आप को कैसे समझाऊं.....अच्छा तो सुनिए कि हम किसी बोरे वगैरा को सिलने के लिये सूईं की जगह एक बड़ी सी सूईं इस्तेमाल करते हैं ना ...जिसे सूआ कहते हैं। लेकिन जिस सूये के खेल की मैं बात कर रहा हूं यह लगभग डेढ़-दो फुट का नुकीला सा हुया करता था।

यह सूये वाली गेम केवल तब ही खेली जा सकती थी जब ताजी ताजी बरसात बंद हुई होती थी। हम लोग सीधे पास ही एक ग्राउंड की तरफ़ लपक पड़ते थे ...अभी बरसात पूरी तरह से रुकी भी नहीं होती थी। वहां जाकर उस सूये से ही गीली जमीन पर एक गोल सा आकार बनाया जाता था। टॉस करने के बाद, हमारा खेल शुरू हुया करता था.....जो टॉस जीत जाया करता था( टॉस भी तो सिक्के विक्के से थोड़े ही किया जाता था...अगर इतने सिक्के ही होते तो वहां हम सूया खेलने की बजाये कहीं बाज़ार ना भाग गये होते......सो टॉस के लिये भी पास ही पड़ी कोई ठीकरी वीकरी से काम चला लिया जाता था। ).....

तो टॉस जीतने वाला उस गोलाकार में खड़ा होकर ज़ोर से जमीन पर सूआ मारता था, अच्छा, वाह, यह सूआ तो धंस गया ज़मीन में........फिर उसे वहां से निकाल कर आगे मारता और फिर आगे से आगे चला जाता .....इस सारी यात्रा में दूसरा लड़का भी साथ ही होता । यह सिलसिला बहुत रोचक होता था....अभी याद आ रहा है कि किसी जगह पर एक-आध मिनट के लिये रूक भी जाते थे कि सूआ कहां मारें कि ज़मीन में धंस जाये.....ऐसा ना हो कि यह बिना धंसे ही ज़मीन पर गिर जाये.......वैसे तो यह खेल में अकसर चार-पांच सौ मीटर तक निकल जाना कोई बड़ी बात नहीं हुया करती थी.....लेकिन जैसे ही सूया ज़मीन में धंसने की बजाये गिर जाता, वहां से लेकर उस गोलाकार आकृति तक ( जो हमनें गेम के शुरू में बनाई होती थी).....दूसरे लड़के को हमें अपनी पीठ पर लाद कर लाना होता था. अगर तो वह सही सलामत बिना गिराये हमें उस गोलकार आकृति तक ले आता तो हमारी पारी खत्म और फिर उस की पारी शुरु.....वरना जहां पर वह हमें गिरा देता था या उस का सांस इतना फूल जाता था कि वह हमें उतरने को कह देता था, वहीं से फिर हमारा सूया जमीन में धंसना शुरू हो जाया करता था....( भगवान का शुक्र है तब इतना वज़न नहीं हुया करता था...हमारा ही नहीं, सभी बच्चों का ....वरना सभी की रीढ़ की हड्डियां हिल विल जाया करतीं। आज सोच रहा हूं कि पता नहीं हम यह सूया भी बरसात होते ही हम कहां से झटपट निकाल लिया करते थे......तुरंत हाजिर हो जाया करता था। तो, आप को भी हमारी इस बचपन की गेम में शामिल हो कर मज़ा आया कि नहीं !!

आप भी क्यों अपने बचपन के दिनों की कुछ गेम्स हम सब के साथ शेयर क्यों नहीं कर रहे ?......हम सब इंतज़ार कर रहे हैं.......कुछ समय तक तो इन राष्ट्रीय-अंतरर्राष्ट्रीय मुद्दों के बारे में सोचना बंद करिये और लौट चलिये अपने बचपन की ओर !!