सोमवार, 30 सितंबर 2024

सपने भी लिख लेने चाहिए....

आज कल सुबह नींद बहुत जल्दी खुल जाती है…यही कोई चार बजे के आसपास …अब न तो वह वक्त फिर से सोने का होता है और न ही जागे रहने का….कोई किताब, अखबार या कोई फिल्म देखने लगो तो कुछ ही समय के बाद…यही कोई एक डेढ़ घंटे के बाद…फिर से नींद घेर लेती है …सोने पर फिर आठ बजे के आस पास ही उठ पाता हूं…


आज भी यही हुआ…लेकिन आज दूसरी बात जब सोया तो एक सपना आया…अकसर मैं उसी दिन ही सपना भूल जाता हूं। लेकेिन आज तो मैंने चंद अल्फ़ाज़ में उसे लिख लिया एक नोट-पैड पर…। 


हां, तो सपना सुनिए…..मेरे एक साथी हैं डा जय कुमार ..दिल्ली के रहने वाले हैं, कभी कभी जाते हैं, जाने से पहले और वहां से लौटने के बाद खुशी उन के चेहरे पर टपकती है. मैं यह बात कहता हूं तो कहते हैं कि सारी यादें, दोस्त, सारा बचपन-जवानी वहां बीता है…बहुत खुशी होती है वहां जा कर …अपनों के साथ वक्त बिता कर ….


दिल्ली तो मैं भी कुछ समय रहा …और मुझे भी दिल्ली के खान-पान और बेवजह घूमने में बहुत मज़ा आता था। 


हां, आज का सपना ऐसे था कि मैं और डा जय कुमार दिल्ली के किसी मेेले में घूम रहे हैं…हां, आगे लिखने से पहले यह तो लिख दूं कि डा जय हर वक्त बहुत जल्दी में रहते हैं, हमेशा…..मैंने बहुत बार समझाने की कोशिश तो की है, लेकिन यह तो संसार की समस्या है कि हम लोग कहां किसी की सुनते हैं….मैं भी कहां सुनता हूं…


हां, हम दोनों उस मेले में घूम रहे हैं जो दिल्ली की सर्दी में ओपन-ग्राउंड में धूप में लगते हैं ….खाना, पीना, नाच, गाना, शॉपिंग …हर किसी के लिए कुछ….हम लोग बस अभी ऐसे ही टहल रहे हैं तो डा जय ने अचानक कहा कि मैं अभी आता हूं…। इतना कहते ही वह वहां से निकल लिए। उन के जाने के बाद मेरी नज़र पास ही के टेबल पर पड़ी …एक मोबाइल वहां पड़ा हुआ था….मैंंने मन ही मन सोचा कि यह बंदा हमेशा जल्दबाजी में रहता है, अभी यह अपना मोबाइल छोड़ कर निकल गया है…खैर, मोबाइल मैंने उठा लिया….अभी मुझे मोबाइल उठाए चंद लम्हे ही हुए होंगे कि मेरा हाथ मेरी पेैंट की जेब पर गया तो मेरा मोबाईल वहां था ही नहीं।  और मेेज पर पडे़ इस मोबाइल को  उठाते ही मुझे लगा कि यह तो हल्का सा है, यह नहीं है मेरा, इस की पैमाइश और स्क्रीन-कवर भी मेरे फोन जैसा नहीं है। और फिर मुझे लगा कि इस को चार्ज ही कर के देख लूं..बंद पड़ा है…मैंने देखा उस का चार्जिंग पिन तो बीसियो साल पुराना नोकिया के फोन जैसा था…


खैर, मुझे इतना तो लगता रहा कि चलो, डा जय कुमार अपना फोन भूल गया है और मेरा ले गया है…लेकिन यह सिर्फ अपने दिल को समझाने वाली बात थी …क्योंकि ऐसा हुआ ही नहीं था…हां, यह फोन डा जय का था, लेकिन मेरा कहां चला गया था, मुझे नहीं पता था। 

ये सब बातें दोस्तो सपने में ही चल रही हैं, जमा-घटा सब कुछ सोते सोते चल रहा है….


हां, अभी मैं इसी इस परेशानी से जूझते हुए डा जय के लौटने का इंतज़ार कर ही रहा था कि थोड़ी दूरी पर एक कुर्सी पर जब नज़र पड़ी तो वहां एक और मोबाईल पडा़ दिखा….और मैंने उसे भी उठा लिया….कि क्या पता किसी दूसरे के हाथ में पड़ जाए, जो इसे उठा कर नौ-दो-ग्यारह हो जाए….हां, यह दूसरा फोन तो तुरंत खुल गया ….और उस पर एक भोजपुरी स्टॉर की तस्वीर लगी हुई थी ….चलिए, यह भी मेरा फोन न था….


मैं फिर सोचने लगा कि ये दोनों फोन तो उस मेले के आर्गेनाईज़र को थमा के आ जाऊं …ताकि जिस के भी हों, उस तक पहुंच जाएं….लेकिन मेरे मन में अपने फोन के बारे में बहुत उलझन हो रही थी…और मैं सपने में ही यही सोच रहा था कि बहुत हो गया इन महंगे फोनों को खरीदने, संभालने का फितूर….बेकार में इन की टेंशन लगी रहती है, अब हो गया न मेरे साथ भी बैठे बिठाए यह कांड…..एक बात विचार आया कि अनांउसमैंट करवा दूं…….लेकिन अगले ही पल दिल से आवाज़ आई क्यों भाई तू रूई में सूईं ढूंढ़ने की कोशिश कर रहा है….खैर, अभी सोए सोए सपना देखता देखते इतना मन बनाया ही था कि अब तो एक दो हज़ार वाला बेसिक फोन ले कर काम चला लूंगा…….और मैं फोन में मेरे डैटा के बारे में बड़ा परेशान था….खैर, वह परेशानी तुरंत खुशी में बदल गई …जब अखबार वाले की घंटी से नींद खुल गई …….और यह देख कर राहत मिली की मेरा फोन तो मेरे पास ही पड़ा चुपचाप चार्ज हो रहा था …..


दोस्तो, जब नींद से उठ गया तो अचानक ध्यान आ गया कि यह क्या,अभी तक किसी फोन की पहचान नहीं …लोग देखते ही ताड़ लेते हैं कि यह आई-फोन है, यह सैमसंग गलैक्सी है …यह फलां है, यह ढिमका है …लेेकिन अपने पास ऐसा कोई हुनर नहीं …बिल्कुल इस बारे में ज्ञान शून्य है….

फिर ख्याल आया कि फोन ही क्यों, तेरा तो भाई हाल हर तरफ ही बुरा है …मोटरकारें मुझे सब एक तरह की ही लगती हैं, किसी का भी ब्रांड नहीं पता…..बस, एक तो मुझे मारूती 800 का पक्का पता है ….और एक मेरी सब से फेवरिट कार …फिएट …। दरअसल मुझे कोई रूचि भी तो नहीं, अगर इतना वक्त लगाऊं और पूरा सचेत रहूं तो यह भी पता कर ही लूं…..लेकिन फिर वही लगता है कि जिस गांव जाना ही नहीं उस का पता पूछ के क्या करना। मोटरसाईकिल का भी यही हाल है…जवानी में येज़्दी खूब चलाई….जेब में पचास रूपए होते थे पैट्रोल के अलावा लेकिन फिर भी येज़्दी खूब चलाई …कईं बार डर भी लगता था कि बंद हो गई तो क्या करूंगा…लेकिन उन दिनों काला और ब्राउन चश्मा लगा के जो सुख मिलता था येज़्दी को चला कर …वह ब्यां नहीं किया जा सकता….


बहुत सी बातों में ज्ञान शून्य है ….यह कांटीनेंटल, इटालियन, मैक्सिकन…ये अलग अलग तरह के व्यंजन क्या होते हैं, क्या नहीं, बिल्कुल भी ज्ञान नहीं मुझे ….वही बात है कि दाल रोटी खाने से फुर्सत मिले तो बंदा इन चीज़ों की तरफ़ ध्यान दे, कुछ खोजबीन करे….बात अपनी अपनी रूचि की है, अपनी पसंद-नापसंद की है…..


आज सपने में एक फोन गुम हो जाने पर इतनी बातों का अहसास हो गया…वैसे तो अहसास तो हमेशा ही से है, बस इस अहसास को कलमबद्ध करने का एक मौका मिल गया ….सपने की वजह से …



वैसे मैं तो ऐसा सोचता हूं कि सपने लिख लेने चाहिए ….और नींद से उठते ही जैसे ही सपने के बारे में पता चले, उसे दो चार पंक्तियों में लिख लेना चाहिए। वो भी बात ठीक है, उम्र के एक दौर में सपनों में लिखने लायक कुछ नहीं होता, बस उन का मधुर अहसास ही काफी होता है…लेकिन पकी उम्र के सपने भी पक्के ही होते हैं, कभी मां आ जाती है सपने में, कभी नानी-दादी, कभी पिता जी ….बस, सब कुछ सच सा लगता है ….आज तो जो सपना देखा, जब नींद टुूटने पर वह बिखर गया तो खुशी हुई क्योंकि मोबाइल वहीं पास ही पड़ा था…लेकिन मां के साथ जब सपने में बाज़ार घूम रहे होते हैं, उस की रसोई में उस के हाथ की बनी कड़क रोटियां खा रहे होते हैं और अचानक वह सपना बिखर जाता है तो बहुत अफसोस होता है कि काश, यह सब सच होता है …..


घिसे पिटे घुटने दादू के दुखते हैं, परेशान यह है ...