रविवार, 10 नवंबर 2024

लघुकथा..........दादी के कंगन

दादी के कंगन 


प्रवीण चोपड़ा 


मुन्नी बहुत बेचैन थी...दादी को घर लौटने में इतनी देर तो कभी लगती न थी- बुज़ुर्ग पड़ोसिनों से गपशप के बाद अंधेरा होने से पहले लौट आती…फिर धूप-बत्ती करने के बाद मुन्नी के साथ बैठ कर उसे पुराने कहानी किस्से सुनाने बैठ जाती…उस के अपनी मां के, मुन्नी के बापू के और दादू के भी। 


आज कल तो शाम 6 बजे वैसे ही अंधेरा हो जाता है, अब तो रात के साढ़े आठ बज रहे थे। मुन्नी के साथ साथ उस का छोटा भाई सोनू भी बेचैन था…दादी लौटते वक्त उस के लिए जो टॉफी-गोली, एक लड्डू-बूंदी ले लाती थी, उसे वह इंतज़ार भारी लग रहा था। 


मुन्नी ने डरते डरते मां से कुछ कहा तो उसने चूल्हे पर कड़ाही रखते हुए कहा … “तुझे कितनी बार कहा है मुन्नी बेकार में छोटी छोटी बातों के लिए परेशान न हुआ कर। अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे... पांचवी कक्षा की पढ़ाई है तेरी, आ जाएगी तेरी लाडली दादी, जिन टांगों से गई है, उन्हीं से लौट आएगी…”


मुन्नी किताब हाथ में खोल कर बैठ गई ..लेेकिन उस का मन टिक ही न रहा था। 

साढ़े नौ बज गए…उस का बापू रामदीन भी घऱ लौट आया। उस का ध्यान मईया की खाली पड़ी खटिया पर गया तो मुन्नी झट से उस की तरफ भागी …”बापू, दादी अभी तक टहल कर लौटी नहीं।मुझे बहुत डर लग रहा है।” 


रामदीन का भी सिर घूम गया…वह बाहर भागा, मुन्नी भी उस से साथ हो ली। अड़़ोस-पड़ोस में देखा पूछा- लेकिन कुछ पता नहीं… दुखते घुटने, आंखों में मोतिया बिंद, थोड़ा सा चलने पर ही सांस फूलने के चलते वह कभी दूर तो जा ही न पाती थी….


बदहवास से वे दोनों यूं ही चलते चलते नाले के पास पहुंच गए…अंधेरा घुप था…तभी मुन्नी किसी चीज़ से टकरा कर गिर गई …और उस तेज़ आवाज़ के कारण जब रामदीन पीछे मुड़ा तो उस ने देखा कि कोई कटा हुआ पैर पडा़ था…उन्होंने ने समझा कि किसी जानवर का पैर होगा….


इतने में दूर से आता एक युवक रुक गया….उस ने जब फोन की टॉर्च चलाई तो वहां पर दो कटे हुए पैर पड़े थे…..साथ में एक चप्पल भी पड़ी हुई थी….रामदीन और मुन्नी तो मूर्छित होते होते बचे…..उन्होंने मां के पैर और उस की चप्पल पहचान ली थी…


दोनों का बुरा हाल था…वे दोनों कटे हुए पांव उठा कर वे पुलिस स्टेशन पहुंच गए….लेकिन वहां पर वही कठोर पुलिसिया रुआब, कठोर रवैया, बिना सिर पैर के सवाल…..”माई को घऱ से बाहर निकलने ही क्यों दिया?” “बुज़ु्र्गों के ऐसे खुला छोड़ देते हैं क्या?”.... बार बार यही सवाल। खैर, सुबह होते ही दादी की लाश भी उसी नाले में पड़ी मिल गई….अभागिन की कटी टांगों से रात में खून रिसता रहा ….और उस के प्राण निकल गए। 


घर में मातम छाया हुआ था….दादी के टखने के कंगनों ने उस की जान ले ली थी …आधा आधा किलो चांदी के दोनों कंगन थे …। रामदीन अकसर मां को कहता भी था ….”अम्मा, ज़माना बडा़ खराब है। ज़िंदगी की कीमत अठन्नी जितनी भी नहीं बची। इन कंगनों को निकलवा कर अपने ट्रंक में रख दो न।” 


हर बार दादी खिलखिला कर हंसती - “पगला तो नहीं गया तू बचुवा, उम्र हो गई इन को पहने अब तक …मेरे साथ ही जाएंगे ये तो ….ऐसी बेकार की बातें न सोचा कर।”  


राम दीन का रो रो कर बुरा हाल था। आस-पड़ोस वाले भी बैठे हुए थे। इतने में उसे अपने कंधे पर किसी का हाथ महसूस हुआ। मुन्नी ने अपने कानों में पहनी हुई चांदी की बालीयां उतार कर अपने हाथ में दबा रखी थीं….उन को बापू के हाथ में रखते हुए धीरे से कहा …..”बाबा, मुझे बहुत डर लगता है.” 


रामदीन ने बच्ची को अपनी गोद में ले लिया, उस का माथा चूमा और दोनों फड़फड़ा कर रोने लग पड़े।   


(वास्तविक घटना से प्रेरित






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