डालडा---यह नाम सुनते ही जैसे मेरे कान खड़े हो जाते हैं यह सुनने के लिए आतुर के डालडे के बारे में क्या कहा जा रहा है ...मैंने हिंदी और पंजाबी के अपने ब्लॉग में डालडे के बारे में बहुत कुछ लिखा है ...जितनी भी खुशनुमा यादें हैं मां की रसोई और उस में हमेशा दिखने वाले डालडे के डिब्बे के बारे में.....किस तरह से रोज़ाना डालडे में तैर रहे नमक-अजवायान वाले परांठे और आम के आचार के साथ, साथ साथ शरबत जैसी मीठी चाय की चुस्कियों से भरा अपना बचपन और जवानी का नाश्ता हुआ करता था ...
आज एक बार फिर में कोई किताब ढूंढ रहा था ....लेकिन नज़र में यह किताब पड़ गई ....डालडा-कुक बुक ... बस, वही बात हुई, डालडा नाम पढ़ते ही मैं जिस किताब को ढूंढ रहा था, उसे तो भूल गया और इस के पन्ने उलटने लगा....इस में ८३ पन्ने हैं और इस पर कीमत एक रुपया लिखी हुई है...मेेरी समझ मुताबिक यह कम से कम ६०-७० साल पुरानी लिखी हुई किताब है...नेट पर चेक कर रहा था तो अब इस की कीमत ६५०० रुपए है ....खैर, मैंने तो इतनी महंगी नहीं खरीदी थी....खऱीदा तो किसी ऐंटीक-शाप ही से था...
कुछ अरसे से मेरे पास यह किताब है ...लेकिन मैंने इसे न तो पढ़ा है न ही कभी पढ़ने की इच्छा है। मैं होती तो इसे शायद पढ़ती लेकिन हिंदोस्तानी माताओं को इतनी प्रैक्टीकल नॉलेज होती है कि वे इस तरह की गाइड-बुक्स को पढ़ने-वढ़ने के चक्करों में पड़ती कभी देखी नहीं.... हां, पहले प्रेस्टीज़ का कुकर लेते थे तो उस के साथ भी कुकिंग गाइड आती तो थी लेकिन कभी किसी को इसे पढ़ते देखा नहीं...
मैं कईं बार यह सोचता हूं कि डालडा, रथ.....ये सब हाईड्रोजिनेटेड वेजीटेबल ऑयल्स ही थे और हमें पता तो था कि खा क्या रहे हैं, अब तो मिलावट का बाज़ार ऐसा गर्म है कि पता ही नहीं चलता कि हम लोग खा क्या रहे हैं....२० साल पहले की बात है एक हॉकर हमारी कॉलोनी में आता था....बेकरी के बिस्कुट, खारी, भुजिया....आदि चीज़ें बेचने आता था ....कईं बरसों बाद पता चला कि इस तरह की चीज़ों में बहुत बार एनीमल-फैट्स इस्तेमाल किए जाते हैं....एनीमल-फैट्स यानी के जिन जानवरों का मीट बिकता है उन की चर्बी से तैयार हुआ घी......तब से यह बात मन में बैठ गई है, इसलिए कुछ भी खरीदते वक्त इस बात का थोड़ा बहुत ध्यान रहता ही है ....समझदार को इशारा काफ़ी है...
उस दिन मैं एक वीडियो में डा त्रेहन हृदय रोग विशेषज्ञ को सुन रहा था ...घी के बारे में कुछ बता रहे थे ..लेकिन अकसर ऐसी बातें सुन कर हम भूल जाते हैं.....वैसे भी जिन को याद रहता भी होगा वे भी कहां सब कुछ मान ही लेते हैं, जितनी किसी की जेब इजाज़त देती है, वह वैसा ही खरीदता है ....ऐसा मैं समझता हूं....जो दो जून रोटी के लिए मशक्क्त कर रहा है, उसे कहां इन सब के बारे में सोचने की फ़ुर्सत है ....वैसे भी वह मेहनत ही इतनी कर लेता है कि सब कुछ हज़्म हो जाता है .....ये सब बारें ज़्यादा पढ़े-लिखे बुद्धिजीवि लोगों के लिए हैं....जो गिन गिन कर सब कुछ करते हैं , हिसाब लगा लगा कर ....गाना याद आ गया.....कतरा कतरा जीने दो ......
मैं कल यह गाना सुन रहा था ...अच्छा लगता है ....लेकिन यू-ट्यूब पर सर्च करते वक्ते मैं कतरा कतरा भूल गया...मुझे तुबका-तुबका याद रह गया....तुबका तुबका पंजाबी का लफ्ज़ है....जिस का मतलब है...बूंद बूंद .....उस पर क्लिक किया तो किसी दूसरी दुनिया में पहुंच गया....जिस में पीने-पिलाने की बात हो रही थी ....बब्बू मान का एक सुपर-हिट पंजाबी गीत .....
अच्छा, अब मैं वह किताब ढूंढने में लगता हूं जिसे सुबह से ढूंढ रहा था ....यह डालड़े वाली पोस्ट तो बीच में एक डिस्ट्रेक्शन बन कर आ गई.....😎
डालडा कुक बुक के जैसे ही हमारे बचपन में बूमर या बिग बबल च्यूइंग गम में से एक के साथ कॉमिक बुक्स आती थी। उन्हें पाने का क्रेज रहता था। वो भी अब रेयर होने के चलते महंगी ही बिकती होंगी।
जवाब देंहटाएंये रेसीपी बुक वाली बात आपने सही कही। घर में कम ही लोग इसका प्रयोग करते हैं। अंदाजे से थोड़ा बहुत प्रयोग करके चीजें तैयार होती रहती हैं।