गुरुवार, 29 जनवरी 2015

कॉस्मेटिक सर्जरी का कम होता क्रेज़

जी हां, सुंदर और आकर्षक बनने के लिए करवाई जाने वाली प्लास्टिक सर्जरी का देश में ..विशेषकर बड़े शहरों में कितना क्रेज़ है..इस का अनुमान लगाने के लिए हमें किसी अखबार के पन्नों को उलटना-पलटना होगा।

इतने इतने बड़े विज्ञापन अखबारों में छपते हैं......मरीज हैं तो ही तो छपते हैं, वरना कौन इतना खर्च करेगा।

लेकिन एक बात जो मुझे अकसर लगता है कि जो प्रैक्टिस अमीर देशों में रिजेक्ट होने लगती है वह हमारे यहां पर तूल पकड़ने लगती है।

आज भी सुबह देखा टाइम्स ऑफ इंडिया में कि किस तरह से प्लास्टिक सर्जरी की वजह से एक टीवी स्टार की ज़िंदगी बरबाद हो गई...मैंने उस का आनलाइन लिंक पेपर की साइट पर ढूंढना चाहा.. लेकिन नहीं मिला....गूगल से उस खबर का एक अन्य लिंक मिला जिसे यहां लगा रहा हूं... Botched plastic surgery sends TV star into septic shock. 

यह इस एक स्टार की बात नहीं है, हम क्या रोज़ाना टीवी पर नहीं देखते कि अच्छी भली दिखने वाली सिने-तारिकाएं कैसे प्लास्टिक सर्जरी करवाने के बाद अपने अच्छे भले थोबड़े को खराब करवा बैठती हैं...नाम लेने ठीक नहीं लगते, लेिकन आप ने ज़रूर नोटिस किया होगा.....अच्छे भले नाक थे कुछेक के, वे अजीब से हो गए, होंठ ठीक ठाक थे, वे अंदर की तरफ़ धंस गए...आदि आदि।

मैं जिस न्यूज़-रिपोर्ट की बात कर रहा हूं जब मैं उसे पढ़ रहा था तो मुझे यही लग रहा था कि शायद ही शरीर का कोई हिस्सा हो जिस पर प्लास्टिक सर्जरी का जादू चलना रह गया हो।

इस लिंक को भी ज़रूर देखिए...

प्लास्टिक सर्जरी की घटती लोकप्रियता की चर्चा एक ही जगह नहीं, कईं कईं जगह इस की खुल कर चर्चा हो रही है..कल ही बीबीसी न्यूज़ की साइट पर भी पढ़ने को मिला कि किस तरह से यू.के में प्लास्टिक सर्जरी का क्रेज़ कम होता जा रहा है....आप इस खबर को इस लिंक पर देख सकते हैं...Cosmetic Surgery 'Popularity Declines' 

यह पोस्ट केवल आप तक यह पहुंचानी के लिए थी कि अमीर देशों में कॉस्मेटिक सर्जरी की लोकप्रियता कितनी तेज़ी से कम हो रही है क्योंकि इस से कईं तरह की जटिलताएं उत्पन्न हो रही हैं। 

लेकिन प्लास्टिक सर्जरी केवल कॉस्मेटिक सर्जरी ही नहीं है या यूं कहें कि फिजूल की कॉस्मेटिक सर्जरी (on demand) जिसे एक उपभोक्ता डिमांड करता है और वह कर दी जाती है, अब प्लास्टिक सर्जन क्या सोचता है कि उसे उस सर्जरी की ज़रूरत है या नहीं या उसे वह प्रोसिज़र करवाने पर कुछ स्थायी या अस्थायी प्रभाव पड़ेगा, इन बातों में उलझने से कुछ हासिल नहीं होगा। 

लेकिन प्लास्टिक सर्जरी एक बहुत महत्वपूर्ण स्पेशलिटी है जिस में किसी मरीज़ के शरीर के फंक्शन को भी रिस्टोर किया जाता है... आग से झुलसे मरीजों मे चमड़ी सिकुड़ जाती है.. उन से निजात दिलाने वाले कौन ..प्लास्टिक सर्जन, नन्हे मुन्नों के तालू में सुराख, जन्म से कटे-फटे होंठ को ठीक करने वाला भी प्लास्टिक सर्जन.. कैंसर सर्जरी के बाद चेहरे की भयानक कांट-छांट को दुरूस्त कर के चेहरे को ठीक ठाक करने वाला भी प्लास्टिक सर्जन ही होता है...ऐसे अनेकों महान् काम भी प्लास्टिक सर्जन ही करता है.

जाते जाते पते की बात यह है कि जो भी काम आकर्षक बनने के नाम पर उम्र को कम दिखाने के चक्कर में करवाए जाते हैं... इन की भी गिनती बहुत है..वे सेहत से कैसे खिलवाड़ कर सकते हैं, हम ने देख लिया,  इसलिए सोच समझ कर इन चक्करों में पड़िए....

वैसे सुंदर और जवान दिखने वालों के लिए एक खुशखबरी है ...बिल्कुल ताज़ा-ताज़ा--- कल की ही खबर है कि डबल-चिन को खत्म करने के लिए भी एक इंजेक्शन आ गया है ... बस हम तक पहुंचने ही वाला है..




बुधवार, 28 जनवरी 2015

तंबाकू के बारे में गलतफहमियां...

कल मैं लखनऊ के अलीगंज के एक शो रूम में जाने लगा तो देखा कि उस से सटे एक एटीएम के बाहर उस का सिक्योरिटी गार्ड ऊपर के होठों के बीच कुछ रख रहा था...लेकिन उसे रखने में थोड़ी दिक्कत हो रही थी..मेरे से ऐसे में रहा नहीं जाता, मैं अपनी डाक्टरी झाड़े बिना रह नहीं सकता....जब उसने मुंह के अंदर उसे टिका लिया तो मैं उस के पास गया.....और उसे बड़े आराम से कहा कि यार, क्यों यह सब करते हो, बहुत नुकसान करती हैं ये चीज़ें। उसे बिल्कुल ब्रीफ सी अपनी पहचान भी बताई.....ताकि उसे पता रहे कि मेरे पास इस तरह की बक-बक करने का लाईसेंस है।
उस ने बताया कि क्या करें, यह सब छूटने का नाम नहीं लेता। मैंने फिर कहा कि छोटी छोटी उम्र में अब हम लोग बहुत से मुंह के कैंसर के रोगी देखने लगे हैं।

फिर उसने बताया कि दरअसल पहले वह मसाला (पानमसाला) चबाया करता था ...उस से उस का मुंह जकड़ा गया....अब उस का मुंह पूरा नहीं खुलता, उस ने झट से अपने मुंह में दो अंगुली डाल कर मेरे को दिखाना चाहा...लेकिन वे भी अंदर नहीं जा रही थीं। वह कहता है कि इसी चक्कर में मैंने पानमसाला तो छोड़ दिया है, अब मैं इसे रख लेता हूं।

मैंने पूछा कि यह क्या है, गुटखा?.....उसने बताया कि यह तंबाकू है।

मैंने फिर उसे समझाया ...हमेशा की तरह उम्मीद लगी कि मान जायेगा। मैंने यह भी कहा कि यह जो मुंह नहीं खुल रहा, इस का भी इलाज करवाओ... बताने लगा ... करवा रहा है। उस की बातचीत से पता चला कि दंत-रोग विशेषज्ञ या किसी डैंटल कालेज से यह इलाज करवाने की बजाए किसी ऐसे ही नीम हकीम के चक्कर में पड़ा हुआ है या कभी कभी कैमिस्ट के पास जा खड़ा होता है, जो उस से चालीस-पचास रूपये ऐंठ लेता है।

मैंने बताया कि अच्छे से इस का इलाज करवाओ......लेकिन बाद में मैंने सोचा कि क्या मेरे कहने से ही वह इलाज करवा पाएगा। गैर-संगठित काम करने वाले लोगों को मिलता ही क्या है?... चार पांच हज़ार रूपये महीना...इतने में अपने परिवार की रोटी चलाए या अपनी दवा। बहुत दुःख होता है जब कभी यह सब देखने को मिलता है।

हमारे अस्पताल में सब सरकारी मरीज़ आते हैं...सरकारी कर्मचारी और उन के आश्रित... इस तरह की तकलीफ़ के लिए हज़ार-डेढ़ हज़ार रूपये महीने का खर्च आता है ...और खाने पीने का विशेष ध्यान... और ये दवाईयां हम लोग इन्हें बाज़ार से खरीद कर देते हैं... और वे भी तीन चार महीने बाद दवाईयां खाने से और लगाने से परेशान हो जाते हैं...मुंह में टीके भी लगाए जाते हैं। लेिकन शर्त पहली यही होती है कि पानमसाला-गुटखा को हमेशा के लिए लात मारनी होगी।

एक बार इस तरह की तकलीफ लग जाती है तो सब के लिए इस का इलाज करवाना भी संभव नहीं होता, मुझे ई-मेल से भी इतने युवा इस के बारे में पूछते हैं ...लेकिन कोई क्विक-फिक्स तरीका भी तो नहीं है इसे दुरूस्त करने का।

कभी कभी बीड़ी...

मैं जब किसी मरीज़ के मुंह में झांक कर यह पूछता हूं कि क्या आप गुटखा-पानमसाला खाते हैं तो वे तुरंत उत्तर देते हैं ...ना जी, ना......बस बीड़ी की लत है। वे बीड़ी को बुरा नहीं समझते ...और पानमसाला, गुटखा वाले उसे बुरा नहीं समझते।

एक भ्रांति बहुत बड़ी यह भी है कि चबाने वाला तंबाकू-गुटखा इतना खराब नहीं है.....लेिकन ध्यान रहे कि यह मुंह के कैंसर का सब से अहम् कारण तो है ही ...और इस से जो निकोटीन और अन्य हानिकारक तत्व रिलीज़ होते हैं वे भी हमारे शरीर के अंदर जा कर बिल्कुल वैसे ही कहर बरपाते हैं जिस तरह से बीडी-सिगरेट-हुक्का-चिलम।

तंबाकू की लत से जुड़े कुछ मिथक  (इस लेख को पढ़ने के िलए इस पर क्लिक करिए)

रोज रोज तंबाकू के बारे में लिख लिख कर ऊबने लगा हूं लेकिन क्या करें, लोग कहां हमारी सुनते हैं.....सुनें तो हम भी विषय बदल लें। अभी तो मेरे विचार में यही सब से बड़ा मुद्दा है ...कि कैसे कोई तंबाकू के सभी रूपों से बचा रह सके। मुंह के कैंसर से ही नहीं, शरीर के लगभग हर अंग को तबाह कर के यह रोज़ाना हज़ारों-लाखों ज़िंदगीयां लील रहा है।
जिस दिन किसी परिवार को पता चले कि उस का कोई सदस्य तंबाकू का किसी भी रूप में सेवन कर रहा है ...या तो उस परिवार को उसी दिन उस बंदे को उस से छुटकारा दिलाने का उपाय कर लेना चाहिए, नहीं तो सारे परिवारजनों को उस दिन अपनी सिर पीट लेना चाहिए.......मातम मना लेना चाहिए।

एक दो महीने पहले एक प्राईव्हेट सफाई कर्मी मिला.....मुंह में एडवांस कैंसर बना हुआ...वही गुटखा-पानमसाला की आदत थी....अब छोड़ दिया है..एक तो मुझे हर ऐसे मरीज़ से यह सुन कर बहुत ही ज़्यादा बुरा लगता है कि अब कुछ िदनों से छोड़ दिया है, भई अब छोड़ने का क्या फायदा....बात बात पे कह रहा था कि बहुत डर लगता है, अभी उस की छोटी सी उम्र थी...अभी कुंवारी बेटियां हैं...मैंने इलाज का कहा तो कहने लगा कि सरकारी अस्पताल में पता किया था ..दस हज़ार का खर्च आता है...और वैसे भी मैं जिस दिन इलाज के लिए जाऊंगा ... उस दिन छुट्टी हो जायेगी..प्राईव्हेट नौकरी है ...दूसरा उसे यह भी डर था कि एक बार अगर इस को छेड़ दिया तो यह बहुत तेज़ी से फैल जायेगा...ऐसा मैंने सुना है... और एक बात और भी वह जाते जाते कह गया कि अब अगर मैंने इस का इलाज करवा लिया ...उन्होंने मुंह के साथ कांट-छांट कर दी तो मुझे लोग कहां नौकरी पर रखेंगे.......मेरे से घृणा करने लगेंगे.....दरअसल यह एक साल पहले भी इलाज के लिए गया था, लेकिन जब उन्होंने आप्रेशन करने की कही तो फिर वापिस गया नहीं।

आप भी देख रहे हैं कि इस तरह की तकलीफ़ों का इलाज कितना मुश्किल है, महंगा है और ......और भी बहुत कुछ ...क्या क्या लिखें........बस, इतना तो करना ही होगा कि जहां भी किसी बीड़ी-सिगरेट-गटुखा-तंबाकू का सेवन होता देखें उसे थोड़ा समझाने की कोशिश तो करिए.......देखिए अगर हो सके...




मंगलवार, 27 जनवरी 2015

टेबलेट के साइज का उस के प्रभाव से क्या संबंध है?

आज मुझे सुबह अचानक ध्यान आ गया...एक आम भ्रांति जो लोगों में मौजूद है ..टेबलेट के साइज से उस के प्रभाव का और उस की "गर्मी" का अनुमान लगाया जाता है।

अकसर अनुभव किया है जब लोग कहते हैं कि बड़े बड़े कैप्सूल आप ने तो पूरे दिन में तीन बार खाने को कहे थे...लेकिन वे तो बड़े ही इतने थे कि हम ने तो दो ही लिये।

कईं बार ऐसा भी सुनने को आया कि टेबलेट इतना बड़ी थी कि हम ने आधी ही खाई...

यह अलग अलग तरह की भ्रांतियां हैं....जो दवाई जिस ढंग से इस्तेमाल करने के लिए बनी है, जिस समय खाने के लिए कहा गया है, खाली पेट, या खाने के बाद, इन सब के पीछे एक साईंस है, शुद्ध साईंस है..


आज मुझे इस विषय का ध्यान सुबह आया जब मेरे सामने तीन शीशियां आईं....एक दवा की..... आप देखिए कि इन तीनों शीशियों में एक ही दवाई की अलग अलग पावर की गोलियां हैं....मैंने जब २५ माईक्रोग्राम और पचास माईक्रोग्राम की गोलियां देखीं तो मुझे भी एक बार लगा कि २५ माईक्रोग्राम वाली टेबलेट ५० माईक्रोग्राम वाली टेबलेट से बडी कैसे......तुरंत ही ध्यान आ गया कि क्या मैं भी अपने मरीज़ों की तरह ही सोचने लगा हूं?

यह कोई इश्यू होता ही नहीं कि जिस टेबलेट में दवाई ज़्यादा होगी वह बड़ी होगी और जिस में दवाई की मात्रा कम रहेगा वह छोटे आकार की होगी।

सब से पहले तो आप टेबलेट में उपलब्ध दवाई की मात्रा की तरफ़ ध्यान करिए... २५ माइक्रोग्राम...मेरा तो हिसाब किताब ऐसा ही है, मैंने बेटे से पूछा कि यह कितना हुआ तो उसने केलकुलेट कर के बताया कि २५ माईक्रोग्राम का मतलब एक ग्राम का ४००००वां हिस्सा, ५० माइक्रोग्राम होता है एक ग्राम का २००००वां हिस्सा, और १०० माइक्रोग्राम होता है एक ग्राम का १०००० वां हिस्सा.......जब वह मेरे को यह आंकड़े बता रहा था तो हैरान भी हो रहा था कि कंपनियां क्या यह सब काम इतनी प्रिसिज़न से कर पाती होंगी!

आप को ध्यान होगा कि एक विज्ञापन आता है ...आयोडीन युक्त नमक का...जिस में बताया जाता है कि सारे जीवन भर में किसी व्यक्ति को एक चुटकी भर आयोडीन की मात्रा चाहिए होती है और इस की दैनिक ज़रूरत सूईं की नोक के समान होती है। आशा है आप को यह पोस्ट पढ़ने के बाद यह चुटकी और सूईं की नोक जैसी बातें सहज लगेंगी।

आप स्वयं नोटिस करिए कि कितनी कम मात्रा में यह दवाई इन टेबलेट्स में होती है......अब अच्छी बड़ी कंपनियां जिन के यहां परफैक्ट गुणवत्ता नियंत्रण होता है ... वे तो यह सब करती ही हैं...लेिकन लोकल कंपनियां जिन का कुछ अता पता नहीं होता, जिन की दवाईयां झोलाछाप डाक्टर और बस स्टैंड पर दवाईयां बेचने वाले लड़के ही बेचते हैं... वे किस हद तक आम जनता की सेहत से खिलवाड़ करते होंगे।

एक बात का अभी ध्यान आया कि जितना हो सके जितनी पावर की दवाई चाहिए वही टेबलेट लेना चाहिए.. आप देखिए कि एक दवाई में अगर है ही एक ग्राम का २००००वां हिस्सा, तो ऐसे में इस के दो टुकड़े करने में कैसे कोई आश्वस्त हो सकता है कि दोनों टुकड़ों में एक जैसी मात्रा में ही दवाई का सक्रिय घटक भी होगा।

एक प्रश्न आना स्वभाविक है आप के मन में कि अगर घटकों की मात्रा इतनी कम है तो फिर ये टेबलेट्स इतनी बड़ी कैसे बन गईं?....इस का जवाब यही है कि इन गोलियों में दवाई की मात्रा उतनी ही हैं जितनी इनके ऊपर लिखी है...बाकी तो टेबलेट तैयार करने के लिए इस्तेमाल करने वाले कोई अन्य हानिरहित पावडर होते हैं जिन्हें शायद adjuvants (एड्जुवेन्ट्स) कह दिया जाता है.....इन का अपना न तो कोई प्रभाव होता है, न ही कोई नुकसान होता है लेकिन इतनी कम मात्रा में दवाई को टेबलेट या कैप्सूल का रूप देने के लिए इन्हें टेबलेट्स बनाते समय इस्तेमाल करना होता है।

आशा है आप इस बात को अच्छे से समझ गये होंगे। टेबलेट्स का आकार कंपनियों पर भी निर्भर करता है....ये सब ट्रेड-सीक्रेट्स होते हैं।

आप देखिए कि क्यों कहा जाता है कि अच्छी कंपनियों की ही दवाईयां खरीदनी चाहिए.....लेकिन इस में भी आज कल इतनी सांठ-गांठ चलने लगी है विभिन्न लेवल पर कि दवाई खरीदने वाले का सब से ज़्यादा शोषण हो रहा है......कोई विदेश का टूर लगा आता है, कोई महंगे होटले में ठहर कर कांफ्रेंस कर आता है, किसी को नईं कार मिलती है तो किसी को कुछ...........बस बेचारा मरीज लुट (या XX) जाता है.....और कईं कईं बार तो थर्ड क्लास, गंदे वातावरण में तैयार, निम्न स्तर के गुणवत्ता मापदंडों वाली कंपनियों की दवाईयां जान ले लेती हैं......क्या हुआ छत्तीसगढ़ में.......अब कोई नाम भी लेता है उस कांड का?.....कितना हो-हल्ला हुआ कुछ िदन कि दवाई में चूहे मारने वाली दवाई मिली हुई थी......जिस तरह से अनपढ़ युवक तक इस काम के लिए लगा लिये जाते हैं, कोई हैरानगी नहीं कि यह सब हादसे नियमित होते रहते हैं.......और अनेकों जानलेवा हादसे तो अखबारों की सुर्खियों बन ही नहीं पाते!


मुझे ध्यान आया कुछ दिन पहले मैं जब मैं हरियाणा में गया था तो वहां पर दीवार पर यह विज्ञापन दिख गया था कि दवाईयों की पैकिंग के लिए अनपढ़ से लेकर बी ए तक पढ़े लड़के चाहिए....यह मेरे मोबाइल में है..पहली बार देखा कि अनपढ़ लड़के भी इस काम पर लगाये जा सकते हैं..... हम हिंदोस्तानियों की ज़िंदगी सच में बड़ी सस्ती है...

आज सुबह भी मुझे हम लोगों की जान सस्ती होने की याद एक मित्र --अनूप शुक्ल की फेसबुक पोस्ट ने दिलाई थी ...जिसे मैं कॉपी कर के यहां पेस्ट कर रहा हूं....
अमेरिका में न्यूक्लियर पावर प्लांट की स्थिति:
1. अमेरिका में 100 न्यूक्लियर रिएक्टर हैं जो कि वहां की 19.40 % ऊर्जा की कमी पूरा करते हैं।
2. वहां 1974 से कोई नया प्लांट नहीं लगा।
3. न्यूक्लियर पावर प्लांट लगाना और उसका रखरखाव मंहगा है।
4. बचे हुये ईंधन का सुरक्षित रखरखाव कठिन काम है।
5. जापान में हुई नाभिकीय दुर्घटना के कारण।
6. 2013 में चार पुराने रिएक्टर लाइसेंस अवधि के पहले ही स्थायी रूप से बंद कर दिये गये। ऐसा करने के पीछे ऊंची रिपेयर और रखरखाव की कीमत और गैस के दाम कम होने के कारण किया गया।
7. बढ़ती आतंकवादी गतिविधियों के चलते न्यूक्लियर पावर प्लॉंट सुरक्षा की दृष्टि से बहुत संवेदनशील हैं।
जो देश मंहगे होने और सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक होने के चलते खुद अपने यहां नाभिकीय पावर प्लॉंट नहीं लगा रहा उसके साथ न्यूक्लियर पावर समझौता उल्लास का विषय है तो क्या सिर्फ़ इसलिये कि हमारे यहां लोगों की जान सस्ती है?

विविध भारती पर मोटापा कम करने की तरकीब सुनिए

पहले जो झोलाछाप डाक्टर होते थे वे लोग ही ज़्यादातर लच्छेदार भाषा वाले विज्ञापन अखबारों में या तो छपवा लिया करते थे, नहीं तो अखबार खोलते ही उन के दो तीन पेम्फलेट सब से पहले हाथ लगा करते थे।

लेकिन आज कल आप ने देखा होगा कि जैसे सारी अखबार में विशेषकर हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं की अखबारों में जैसे सारे विशेषज्ञों की एक प्रदर्शनी लगी होती है। हर विज्ञापन में बीमारी की बात ही की जाती है, सेहत की बात कोई नहीं करता।

कुछ प्लास्टिक सर्जनों के विज्ञापन इस तरह के होते हैं कि उन्हें देख पढ़ कर लगता है कि क्या प्लास्टिक सर्जरी केवल इसलिए ही है कि किसी के वक्ष सुढौल बना दें, किसी के ऊपर उठा दें, किसी की योनि मार्ग टाइट कर दें, पुरूषों की छाती का फैट कम कर दें, उन के लिंग का आकार बड़ा कर दें........दो दिन पहले तो एक विज्ञापन में बड़ी सी फोटो के साथ यह भी बताया गया था कि महिलाएं प्लास्टिक सर्जरी के द्वारा अपनी ब्रेस्ट में कैसे परफैक्ट क्लिवेज प्राप्त कर सकती हैं!

इसी तरह के दर्जनों विज्ञापन देख कर जो मन में विचार आते हैं वे मैं यहां लिख नहीं सकता..एक प्लास्टिक सर्जरी की ही बात नहीं कर रहा हूं, एक तरह से बाज़ार सजा होता है कि किसी तरह कोई बीमार तो पड़े...फिर हमारा जलवा देखिए।

सोचने की बात है कि फिर आम आदमी को सेहत से संबंधित सटीक जानकारी मिले तो कैसे मिले... मैं पहले भी बहुत बार लिख चुका हूं कि वह जानकारी केवल और केवल आप को आल इंडिया रेडियो -विविध भारती या विभिन्न सरकारी टीवी चैनलों पर ही मिल सकती है......because there is no conflict of interest....ये विशेषज्ञों का चुनाव बड़ा सोच समझ कर करते हैं। लेिकन अफसोस इस बात का है कि ये सब बहुत कम लोग सुनते हैं ...खबरियां चैनलों की चटपटी चाट जैसी खबरों की लत जो लग चुकी है जनता को!...बहरहाल, अपनी अपनी पसंद है।

बचपन की रेडियों की सभी यादें इस तरह के रेडियो से जुड़ी हैं.
कल सोमवार था...विविध भारती पर मोटापा से संबंधित सेहतनामा कार्यक्रम में शाम चार से पांच बजे तक एक प्रोग्राम आया था....मैंने उसे रिकार्ड किया आप तक पहुंचाने के लिए....इस पोस्ट के नीचे उसे एम्बेड कर रहा हूं, आप सुन सकते हैं।

इस तरह के प्रोग्राम के बारे में मैं बस इतना जानता हूं कि जिस तरह से एक विशेषज्ञ अपने विषय से संबंधित जानकारी आप तक पहुंचा रहा है, वह प्रशंसनीय है।

एक बात और, जो महिला या पुरूष उस विशेषज्ञ का इंटरव्यू ले रहे होते हैं, आप को लगता है कि वे भी आप के मन की ही बातें उस से पूछ रहे हैं......इस प्रोग्राम में आप देखेंगे कि जब डाक्टर से मोटापा कम करने वाली सर्जरी में होने वाले खर्च के बारे में पूछा गया तो उस ने प्रश्न को थोड़ा इधर उधर घुमाने की कोशिश की, लेकिन इंटरव्यू लेने वाली ने भी उस का जवाब ले कर ही छोड़ा।

दो तरह के आप्रेशन होते हैं ...एक आसान सा है, दूसरा थोड़ा जटिल सा है, आसान वाले का आप्रेशन सवा लाख के करीब बताया गया है....आप को ध्यान होगा कुछ राजनीतिक बड़ी हस्तियों ने भी इस तरह के आप्रेशन कुछ अरसा पहले करवाए थे।

आप इस कार्यक्रम के दौरान सुनेंगे कि कुछ विज्ञापन भी आएंगे.....पहले इस कार्यक्रम में विज्ञापन नहीं आते थे, लेिकन उन से आप को कोई गिला-शिकवा भी नहीं होना चाहिए, सरकारी पॉलिसी है, राजस्व सरकार के पास भी तो जाना चाहिए, हमें तो इसी से इत्मीनान कर लेना चाहिए कि इतने बेहतरीन कार्यक्रम हमारे तक पहुंचाए जा रहे हैं।

एक बात वह सर्जन थोड़ी हल्की कर गया...जब उस से पूछा गया कि लोग वजन कम करने के लिए तरह तरह की दवाईयां, हर्बल चाय या अन्य कईं तरह के जुगाड़ प्रयोग करते हैं तो उसने कितनी आसानी से कह दिया कि मैं मरीज़ों को कहता हूं कि पहले आप वे सब इस्तेमाल कर के देख लें, फिर मेरे पास आइए।

यह भाषा किसी सरकारी डाक्टर की नहीं थी, क्योंकि सरकारी डाक्टर तो यह चाहेगा कि चाहे मरीज़ मोटापा कम करने वाला आप्रेशन करवाए या न करवाए, लेकिन वह किसी तरह की हर्बल जुगाड़बाजी से कहीं अपनी सेहत खराब न कर ले.......ये जुगाड़ क्या तबाही मचाते हैं, इसके लिए इस लिकं को देखिए....पतला करने वाले हर्बल जुगाड़..सावधान

आज के लिए बस इतना ही.....उस विशेषज्ञ ने सारी बातें तो बहुत काम की बताई हैं....खाने पीने की, शारीरिक श्रम की... चलिए हम पहले इन्हें ही मान लेने का संकल्प करते हैं।

रविवार, 25 जनवरी 2015

पानमसाला और तंबाकू के मिश्रण वाला एक्सपेरीमेंट

मुझे अकसर युवकों को पनवाड़ी की दुकान पर मोटरसाईकिल पर खड़े खड़े दो पाउच मुंह में उंडेलते देख कर बड़ी हैरानगी हुआ करती थी कि ये ऐसा क्यों करते हैं, बड़ा पैकेट ही क्यों नहीं ले लेते!

यह दो पाउच वाली मिस्ट्री एक बार हल हो गई थी..एक ट्रेन में यात्रा करने के दौरान मैंने देखा कि आदमी ने दो पाउच लिए, खोले, और एक पाउच का सामान दूसरे में उंडला ...पाउच को चंद सैकेंडों के लिए हिलाया..मैंने देखा कि उस मिश्रण का रंग ही बिल्कुल बदल गया था..और उसने तुरंत उसे गाल के सुपुर्द कर दिया।

जिज्ञासा तो मुझे बहुत थी इस का राज़ जानने के लिए, अगले दिन मैंने अपने सहायक से पूछा कि यह दो पाउच एक साथ मिला कर चबाने वाला क्या लफड़ा है। उसने बताया कि एक में पानमसाला या गुटखा होता है और दूसरे में तंबाकू....दोनों को मिला कर लेने का नया फेशन है !

मैंने उत्तर प्रदेश के लखनऊ के अलावा किसी और शहर को ज़्यादा नहीं जानता। लेकिन यहां दो बातें मैंने नोटिस की हैं..एक तो यहां गुटखा-पान मसाला, बीड़ी सिगरेट की दुकानें औरतें भी चलाती हैं और दूसरा यह कि यहां पर कुछ औरतें भी ये सब शौक फरमाती हैं।

आज मैंने ऐसी ही एक दुकान पर एक युवा महिला को देखा कि उसने दो पाउच खरीदे और उन दोनों को मिलाकर मिश्रण तैयार कर के मुंह में दबा कर आगे निकल गई....मैं पास ही खड़ा यह देख रहा था।

यह किसी प्रदेश के लोगों के बारे में टिप्पणी नहीं है, एक आब्ज़र्वेशन सी है ...जहां मैं पहले रहता था वहां पर बैठकों में...मेहमानों के लिए एक प्लेट में बीड़ियां डाल कर मेहमानों में घुमाई जाती थीं......और हरियाणा में महिलाएं बीड़ी की बहुत शौकीन हैं, यह तो आप जानते ही हैं! देश के कईं हिस्सों में महिलाएं तंबाकू वाले मंजनों की किस कद्र आदि हैं, यह भी हम जानते हैं......आंध्र प्रदेश के समुद्री तट वाले इलाकों में औरतें बीड़ी या छुट्टे का सुलगता हिस्सा मुंह में रखती हैं, इस कारण उन में तालू के कैंसर बहुत होते हैं.....अलग अलग जगहों की अपनी रवायतें हैं.

आज मेरे से रहा नहीं गया.....मैंने दुकानदार से वे पाउच खरीद ही लिए....पानमसाले का पाउच दो रूपये में और तंबाकू का पाउच एक रूपये में। दुकानदार ने बताया कि अब हर कंपनी का तंबाकू अलग से आने लगा है।

दोस्तो, घर आकर जो मैंने इन दो पाउचों को मिला कर प्रयोग किया उस की वीडियो आप स्वयं देखिए....आप देखिए कि किस तरह से कुछ ही लम्हों में उस मिश्रण में तंबाकू का रंग ही बदल गया......अब यह कौन सा कैमीकल रिएक्शन होता होगा मुझे इस का तो ज्ञान नहीं है ..लेकिन मुझे इतना पता है कि यह मिश्रण किसी की भी हंसती-खेलती ज़िंदगी में ज़हर घोलने के लिए काफी है।



इस तरह का मिश्रण मुहं के अंदर की मुलायम झिल्ली पर क्या असर करता है, उस का प्रमाण हमें अकसर हमारी ओपीडी में मुंह के कैंसर के रोगियों की बढ़ती संख्या में देखने को मिल जाता है। बेहद दुःखद, दुर्भाग्यपूर्ण। एक बात और है कि मैंने क्या कहना है, उस पाउच पर ही कंपनी को ही कितनी भयानक मुंह के कैंसर की तसवीर टिकानी पड़ी है। कंपनियों को इस तरह की तसवीरें कितने सरकारी दबाव में पाउच पर छपवानी पड़ती हैं, इस का आप अनुमान नहीं लगा सकते।

इस एक्सपेरीमेंट के चक्कर में मेरी तीन रूपये खराब हो गये...कोई बात नहीं, अगर यह वीडियो देख कर चंद लोगों ने भी इस खतरनाक शौक से तौबा कर ली तो मैं समझूंगा मैंने तीन रूपये खर्च कर तीन लाख वसूल लिए.......मैं इस मिश्रण को डस्टबिन में फैंकने लगा तो बेटा हंसते हुए कहने लगा कि नीचे जा कर किसी को दे ही दो...

मुझे ऐसा लग रहा है कि ये जो दो पैकेट वाला नया क्रेज है ..इस के पीछे वही गुटखे वुटखे वाला प्रतिबंध है... सुनते हैं कि मिलता तो अभी भी है ..लेकिन डबल रेट पर.....इसलिए कंपनियों ने बड़ी समझ-बूझ से पानमसाला और तंबाकू के अलग पाउच बेचना शुरू कर के इस प्रतिबंध को भी ठेंगा दिखा दिया है.....

और ऊपर से इन प्रोडक्टस के नये नये स्टाइल के विज्ञापन लोगों को भ्रमित करने में कोई कसर थोड़े ही ना छोड़ते हैं...
लेकिन एक िवज्ञापन का मुझे ध्यान आ गया...बड़ा क्रिएटिव लगा... बेटे ने मुझे सुबह वाट्सएप पर भेजा था......उस प्रोड्कट के बारे में तो मेरी कोई टिप्पणी नहीं है, लेकिन विज्ञापन बढ़िया है ... बिल्कुल अपील करने वाला, जिसे कब्ज हो, उसे तो देखते ही लगे कि उस की तकलीफ़ों को अंत करने वाला जुगाड़ आ गया!!

संबंधित लेख...
कहरा बरपा रहे हैं तंबाकू के रेडीमेड पाउच
कागज के पाउच में भी आ रहा है गुटखा
तंबाकू चूसना--पार्टी इस्टाइल 

शनिवार, 24 जनवरी 2015

दवाईयों पर नाम तो कम से कम हिंदी में लिखा होना ही चाहिए....

इस देश में हिंदी के बिना गुज़ारा नहीं हो सकता...
जब मैंने हिंदी में ब्लॉग लिखना शुरू किया तो मुझे पहले दो तीन साल तो लोगों से ये सब बातें सुननी पड़ीं कि क्या करोगे हिंदी में लिख कर, कौन पढ़ेगा...लेिकन मुझे यही लगता था कि हिंदी में सेहत संबंधी विषयों पर विश्वसनीय सामग्री नेट पर नहीं है ..जिस तरह से कोई भी इंगलिश भाषा का जानने वाला गूगल कर के तुरंत जानकारी हासिल कर लेता है

लेकिन हिंदी भाषा के जानकार के लिए यह सब आसान नहीं है, आज से सात-आठ साल पहले तो हालात और भी खराब थे...समस्या यही है कि बहुत ही कम चिकित्सक नेट पर अपने अनुभव शेयर करते हैं, और हिंदी की तो बात ही क्या करें!...विश्वस्नीय कुछ खास मिलता ही नहीं है नेट पर।

फिर मैं दो तीन साल बीच में हिंदी के साथ साथ इंगलिश में भी एक हेल्थ ब्लॉग लिखता रहा.....शायद चार सौ के करीब लेख भी हो गये.....लेकिन पता नहीं इंगलिश ब्लॉग में मन बिल्कुल भी नहीं लगा।

दरअसल हमें कईं साल यही पता लगाने में लग जाते हैं कि हम करना क्या चाहते हैं, हमारा वह काम करने का मकसद है क्या, तो मुझे पिछले कुछ सालों से अच्छे से समझ आ गया कि मैं बस हिंदी भाषा का सहारा लेकर मैडीकल साईंस से संबंधित कंटेंट नेट पर क्रिएट करना चाहता हूं......बस.......बहुत साल लग गये इस बात का पता लगने में।

कोई महान् कारण नहीं मेरा हिंदी में लिखने का...कोइ फलफसा नहीं है बिल्कुल....बस, जो कारण था और है वह आपसे मैंने ऊपर शेयर किया है।

इस देश की यह बदकिस्मती है कि यहां पर हिंदी लागू करवाने के लिए कानून बनाने पड़ते हैं और हिंदी में काम करने वालों को अभी भी आज़ादी के ६५ साल बाद भी इनाम देकर पुचकारना पड़ता है।

जैसा पहले भी बहुत बार होता है आज भी मुझे गुस्सा आ गया......जब एक ८० साल के ग्रामीण बुज़ुर्ग ने मेरे सामने एक प्लास्टिक की पन्नी से इन दवाईयों का ढेर लगा दिया कि ज़रा यह बताएं तो कौन कौन सी कितनी बार खानी है। मुझे गुस्सा बुज़ुर्ग पर तो क्या आना था, न ही किसी और पर आया.....लेकिन व्यवस्था पर ही खीझ हुई कि क्या यार, इस आदमी के लिए अंग्रेजी में नाम लिखे इन दवाई के पत्तों का क्या मतलब होगा?....काला अक्षर भैंस बराबर।

अब कोई इन्हें क्या बताए कि कौन सी कब खानी है, कितनी बार खानी है ....आप इन दवा के पत्तों को देखें तो सब कुछ एक जैसा ही नहीं लगता क्या!...... इन की पैकिंग देखिए, इन टेबलेट्स का कलर देखिए.....इन में इन की उच्च रक्त चाप की दवाईयां भी थीं, दर्द और इंफेक्शन की दवाईयां हैं.......ये अलग अलग डाक्टरों ने लिखी हैं।

इस बुजुर्ग को ही यह दिक्कत नहीं है, अधिकतर लोगों को इस तरह की दिक्कत होती है और कुछ हद तक इन सब दवाईयों का नाम केवल इंगलिश में लिखा होना इस का कारण है।

मैं नहीं कहता कि इंगलिश में नाम लिखा होने से वे आधे डाक्टर बन जाएंगे.....नहीं, कुछ नहीं, लेकिन तो कम से कम हो जाएगा कि एक हिंदी पढ़ने वाला जोड़-तोड़ कर यह तो पढ़ने की कोशिश कर लेगा कि वह जिस दवाई को खा रहा है उस का नाम क्या है।

वैसे तो मरीज़ों की समस्याएं इस देश में यहीं पर ही खत्म नहीं होती.....मानते हैं कि अनपढ़ता और सेमी-लिटरेसी भी इस के लिए जिम्मेदार हैं......लेिकन फिर भी जो काम जिस स्तर पर हो सकता है, वह तो होना ही चाहिए...पिछले वर्षों में हम ने कितना सुना कि अब दवाईयों की स्ट्रिप पर दवाई का नाम इंगलिश में भी लिखा होगा........लेकिन असल में क्या हो रहा है, क्या हम लोग जानते नहीं हैं?

चलिए मान भी लें कि किसी बुज़ुर्ग ने कैसे भी कोई जुगाड़ से दवाईयों की पहचान कर ली, और वह ठीक तरह से दवाई ले रहे हैं, लेकिन अगले महीने जब वह किसी सरकारी दवाखाने में जाते हैं तो दवाईयों के रैपर बदले हुए मिलते हैं..दवाई वही लेकिन कंपनी कोई दूसरी......अब इस में तो सरकारी ढंाचा कुछ नहीं कर सकता, लेकिन कम पढ़े लिखे बंदे की इतनी सिरदर्दी हो जाती है ...मैं ये सब बातें अकसर अनुभव की हैं।

दवाईयों का हिसाब किताब रखने के लिए कुछ लोग जुगाड़ भी कर लेते हैं......पहले हमारे पास कईं ऐसे मरीज आती थीं जो बताया करती थीं कि वे एक दिन में ली जाने वाली दवाईयों की सभी खुराकों (doses) को अपने दुपट्टे के तीन-चार कोनों में अलग अलग बांध कर गांठ बांध लेती हैं।

जितनी भी बातें लपेटता रहूं .........जितनी भी लछ्छेदार बातें कोई भी कर ले, लेकिन बदकिस्मती है कि इस दिशा में बहुत कम काम हुआ है.....बहुत काम ध्यान दिया जा रहा है......we are literally taking the things for granted --   कि हम ने इंगलिश में लिख दिया, फार्मासिस्ट ने इंगलिश में नाम लिखे पत्ते थमा दिए..........बाकी तो मरीज़ कर ही लेगा, हमारी छुट्टी और उस की जिम्मेदारी शुरू। नहीं, ऐसा नहीं है बिल्कुल, इस काम में मरीज़ द्वारा खूब गल्तियां होती रही हैं, हो रही हैं और बिल्कुल होती रहेंगी.. लेकिन ये गल्तियां अकसर सामने आती ही नहीं है..

जमा हुई दवाईयों की भूल-भुलैया...(इस लिंक पर क्लिक करिए)

अब आप सोच रहेंगे कि जब ये गल्तियां होती ही रहनी हैं तो मैंने इतना लंबा यह सब क्यों लिख दिया...........सुनिए, मैंने यह सब केवल इसलिए लिखा है ताकि कम से कम पॉलिसी बनाने वालों तक यह बात तो पहुंचे की दवाईयों पर िहंदी में तो नाम लिखा ही होना चाहिए.....इंगलिश में हो और अन्य भारतीय भाषाओं में भी हो, स्वागत है, लेकिन हिंदी को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।





अच्छा, जाते जाते आज बसंत पंचमी की आप को बहुत बहुत बधाईयां......आज के दिन भी दवाईयों की इतनी उबाऊ और पकाऊ बातें तो कर लीं, दाल-रोटी के बारे में भी दो बातें सुन लेते हैं....

शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

मज़ा तो पहले आता था फिल्म देखने का ..


आज दोपहर मैं लंच के लिए घर आया तो कॉलोनी के नोटिस बोर्ड पर इस फिल्म का पोस्टर लगा देखा...मुझे एक दम से लगा कि आज कल तो पता ही नहीं चलता कि नईं फिल्में कब आईं और कब उतर गईं।

फिल्में देखने का जो मज़ा हम लोगों ने बचपन और युवावस्था में ले लिया... वह सोच कर ही मजा आ जाता है।
पहले फिल्में देखने के लिए कितने कितने दिन पहले मंसूबे बनते थे....फिर कहीं जा कर प्रोग्राम बनता था..अधिकतर यह छुट्टी का दिन ही हुआ करता था।

कौन सी फिल्म देखनी है यह दोस्तो, पड़ोसियों और रिश्तेदारों की फीडबैक पर निर्भर किया करता था अकसर।

मुझे अच्छे से याद है मेरी मौसी जब भी कोई फिल्म देखती थी तो अपने पोस्टकार्ड में उस का छोटा मोटा रिव्यू ज़रूर लिखा करती थी..उन के रिव्यू के आधार पर हमने घरौंदा, गोलमाल और मासूम जैसी फिल्में देखीं......और फिर जब हम लोग मिला करते तो उस पर चर्चा हुआ करती।

याद आ रहा है कि मेरी बड़ी बहन मेरे चाचा के यहां छुट्टियों के दिनों में रहने गई थी..वहां से जो उनका अंतर्देशीय पत्र आया उस में लिखा था कि हम सब लोगों ने अमिताभ बच्चन की ज़मीर फिल्म देखी है, बहुत अच्छी है, आप भी देख लेना।

एक बात और...जब कोई रिश्तेदार किसी के यहां आता था तो उसे फिल्म दिखाने लेकर जाना उस की इटिनरी में शामिल हुआ करता था। इसी चक्कर में मैंने बहुत फिल्में देखीं...मेरी मौसी शादी के बाद जब हमारे यहां आई तो हम उन्हें जुगनू फिल्म दिखाने ले गये थे...आज भी अच्छे से याद है....मैं उन दिनों सात-आठ साल का था...लेकिन यही इतंज़ार रहता था कि कब कोई रिश्तेदार रहने आए और हम लोग फिल्मों के मजे लें।

बड़ी बहन शादी के बाद जब भी आती मैं भी लपक कर रिक्शे में उन के बीच बैठ जाता और इसी सिलसिले में फकीरा, मां, नूरी देख डालीं। बहुत मज़ा आता था दोस्तो। वह रोमांच ही अलग हुआ करता था।

हम देखते थे कि कोई पारिवारिक फिल्म होती थी तो मोहल्ले की पांच सात औरतें एक साथ चल पड़ती थीं...और हम बच्चों के फिर से मजे....नानक नाम जहाज है, दो कलियां आदि फिल्मे इसी क्रम में देखने को मिल गईं।

ये दीवारी पोस्टर मुझे लखनऊ में चार दिन पहले दिखे थे...
यह कैसे मैं भूल सकता हूं कि स्कूल-कालेज आते जाते शहर के मुख्य चौराहों पर फिल्मों के इश्तिहार अच्छे से देखना-पढ़ना...और समझना भी हमारे शगल में शुमार हुआ करता था..अपनी स्कूली पाठ की तरह कितने शो और किस किस समय हैं, यह सब ठीक से पढ़ लिया करते थे...और अकसर सहपाठियों से भी इस के बारे में चर्चा तो हो ही जाती थी...और अगर कोई सहपाठी फिल्म देख कर आता तो आधी छुट्टी के समय सारी स्टोरी वह हम से शेयर किया करता।

एक बात तो पक्की है कि कोई भी फिल्म देख कर उस का नशा कम से कम एक हफ्ता तो रहा ही करता था। बिल्कुल सच कह रहा हूं। और फिर जब कभी रेडियो पर देखी हुई फिल्म का गीत बज जाता तो सारी स्टोरी फ्लैशबैक की तरह मन ही मन घूम जाती।

अब क्या क्या लिखें दोस्तो.....फिल्मों की दुनिया से जुड़ी यादों पर तो किताब लिखी जा सकती है।

वह फिल्म शुरू होने से कम से कम आधा घंटा पहले पहुंच जाने का क्रेज़-- कहीं न्यूज़-रील ही न मिस हो जाए, और इंटरवल के समय भाग कर सब से पहले वाशरूम से फारिग होने की जल्दी ...ताकि बाहर से ब्रेड-पकौड़ा, तली हुई मूंगफली या फिर समोसा और फैंटा- गोल्ड-स्पाट पहले ले लिया जाए.....यार, एक भी सीन मिस नहीं होना चाहिए....और अगली कोई दो मिनट का टाइम बच गया तो हाल के बाहर लगे ट्रेलर देख देख कर ही खुश हो जाना कि अच्छा, यह सीन हो गया, यह अभी आएगा.......सच में बहुत मजे के दिन थे।

जब हम सब कज़िन इक्ट्ठे हुआ करते तो फिल्म ज़रूर देखने जाते ....एक बार तो हमारे पास पैसे सिर्फ इतने ही थे कि हम लोग दो की बजाए एक ही रिक्शा पर लद गये....वह दिन याद आता है तो हम सब बड़े हंसते हैं, उस दिन अगर उस रिक्शा वाले की जान न भी जाती तो उस का रिक्शा तो टूट ही जाता...यह अंबाला छावनी की बात है जिस दिनों अर्पण फिल्म लगी हुई थी। पता नहीं कैसे हम में से कुछ को रहम आ गया और उस टोली के दो तीन सदस्य रिक्शा के साथ हंसी ठिठोली करते पैदल ही हो लिए और साथ में रिक्शा को पीछे से धक्का लगाते रहे....और थियेटर भी झटपट आ गया था।

अब सब कुछ है, क्रेडिट कार्ड है, जेब में भी पैसे रहते हैं, लेिकन पता नहीं इन पीवीआर आदि में फिल्म देखने का मजा नहीं आता... पुराने थियेटर अलग ही माहौल बना दिया करते थे...हर कोई अंदर ही खा पी रहा है... बेचने वाले अंदर ही घूमते रहते थे.......लेकिन अब तो पीवीआर में फिल्म देखना एक आमजन के बस की बात रही भी नहीं, पहले महंगी महंगी टिकटें ...फिर तीन चार सौ रूपये के पापकार्न और कोल्ड-ड्रिंक्स.......ऐसा लगता है कि पैसा फैंक रहे हैं ।

इस के आगे क्या लिखूं...पुराने और नये की याद में हमेशा पुराने दिन ही अच्छे लगते हैं, मैं ऐसा सोचता हूं..कुछ विचार मन में आए थे आज...आप सब से शेयर कर के अच्छा लगा।

अमेरिकी राष्ट्रपति का भारत दौरा....खुशामदीद...

मुझे अभी अभी याद आया कि १९७७-७८ की बात है... मोरार जी देसाई को प्रधानमंत्री बने अभी चंद ही दिन ही हुए थे...उन्हीं दिनों हमारे सैकेंड टर्म एग्ज़ाम चल रहे थे... मोरारजी देसाई के ऊपर निबंध आ गया। हमारे हिंदी के मास्साब ने हमें यह लिखवाया नहीं था...जिसे हम लोग रट कर एग्जाम में उलट कर चैन की सांस ले लेते। मुझे पांचवी छठी कक्षा से अखबार देखने की लत लग चुकी थी.. इसलिए जो कुछ पिछले दिनों में पढ़ा था, चेप दिया उन कागज़ के पन्नों पर..बहुत खुशी हुई थी उस दिन की अखबार पढ़ने से आज पांच दस नंबर का फायदा हो गया।

आज कल भी परीक्षा के दिन हैं...बोर्ड की परीक्षा की तैयारियों ज़ोरों पर हैं। मेरा बेटा भी बोर्ड की परीक्षा देने वाला है..कुछ दिन से वह अपना काफ़ी समय राष्ट्रपति ओबामा के बारे में हर छोटी बड़ी खबर पढ़ने में बिता देता है।

दो तीन दिन पहले उसने राष्ट्रपति की स्पेशल गाड़ी और मोबाइल फोन के फीचर पढ़ने समझने में इतना समय लगाया जैसे वह किसी फिजिक्स-केमिस्ट्री के अध्याय को तैयार कर रहा था। लेकिन मैंने उसे नहीं कहा कि समय बहुत बदल गया है, अब इस तरह के गैजेट्स के अद्भुत फीचरों पर तो कोई प्रश्न-पत्र फिजिक्स-परीक्षा में आने से रहा।

सभी पेपरों की भी दाद देनी पड़ेगी कि इतनी मिन्यूट डिटेलज़ उन्होंने अखबार में दे डाली। पूरे पूरे पन्ने पर ये सब खबरें।

आज भी हिन्दुस्तान देखी तो इतनी मिन्यूट डिटेल्स......मैंने सोचा चलो यार इस के नोट्स बनाए जाएं। मैं अपने स्कूल-कॉलेज में नोट्स तैयार करने के लिए बहुत मशहूर था....सोचा कि चलो आज इस विषय पर ही नोट्स तैयार कर लिए जाएं... ताकि मुझे भी लंबे अरसे तक आभास तो रहे कि इस विज़िट की तैयारियां किस स्तर तक थी!!

इस विषय पर अगर आप मेरे नोट्स देखना चाहें तो इन तस्वीरों पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं........बेटा भी कह रहा है कि अगले तीन चार दिन तो अखबार में बस ओबामा के भारत के दौरे की ही खबरें होंगी.....इसलिए इस तरह के नोट्स सोच रहा हूं अगले तीन चार दिन भी तैयार करता रहूं... काम आएंगे!!





कल नुक्कड़ पर दिखी फिर एक मशाल...

कल शाम...लखनऊ अम्बेडकर चौराहा..कानपुर रोड़
कल लखनऊ के अंबेडर चौराहे के पास एक मशाल फिर दिखी...अच्छा लगा. मशाल यह थी आम आदमी को सूचना देने वाली... बहुत सी सूचना...इस तरह की मशालें चाहे वे नुक्कड़ नाटक के रूप में हों,  इप्टा के सरोकारों के रूप में या फिर इस तरह के उद्यम से ...इन का स्वागत होना चाहिए।

शायद एक डेढ़ साल पहले की बात है ...मैंने एक दिन लखनऊ के जीपीओ के बाहर एक रिक्शे पर बैठे आदमी को देखा जो कुछ किताबें बीस बीस रूपये में बांट रहा था...साथ में कुछ लिख रहा था....और ऐसे ही लाउड-स्पीकर पर उस किताब के फायदे बता रहा था। यह रिक्शा लखनऊ में मुझे अकसर कुछ दिनों बाद कहीं न कहीं दिख ही जाता है। 

कल जब मैंने उसी तरह की प्रचार-प्रसार देखा तो मैंने जो वीडियो बनाई उसे यहां नीचे शेयर कर रहा हूं....इस में सरकारी की विभिन्न कल्याण योजनाओं, सूचना का अधिकार, प्रताड़ित महिलाओं के लिए सूचना, ड्राईविंग लाईसेंस के लिए जानकारी, राशन कार्ड---क्या क्या लिखूं जितनी सरकारी किस्म की जानकारी एक नागरिक को चाहिए होती है, वह सब उस पतली सी बुकलेट में सरल हिंदी भाषा में उपलब्ध थी। 

बेचते वक्त यह रिक्शा में बैठा शख्स इस पर कोई हेल्पलाइन नंबर भी लिख रहा था...और यह मैंने नोटिस किया...आते जाते राहगीर रूक कर पूरी तन्मयता से सब बातें सुनते हैं...कुछ किताब को खरीद भी लेते हैं। 

मैंने भी पिछले साल खरीदी थी....लेकिन वही ओव्हर-कांफिडेंस का चक्र...मेरे जैसे को लगता है कि हमें तो सब पता ही है, हम तो सब पहले ही से जानते हैं...इसलिए इस तरह की किताब खरीद तो लेते हैं, लेिकन अगले दिन उस का अता पता नहीं होता, बस घर लाकर जिज्ञासा वश किताब के पन्ने एक बार पलट ज़रूर लेते हैं लेकिन फिर कुछ पता नहीं रहता.....मैंने भी जब कल घर आकर इस किताब को ढूंढना चाहा तो कहीं ना मिली..

पढ़े लिखे लोग सोचते हैं कि नेट पर सब कुछ पड़ा है, वहीं से देख लेंगे लेकिन कम पढ़े लिखे और उन लोगों के लिए जिस को इंटरनेट उपलब्ध नहीं है,  इस तरह की सूचना रूपी मशाल उन के जीवन तो प्रकाशमय करती ही है, निःसंदेह...

इसे लिखते लिखते मुझे हिंदी फिल्म वेलडन अब्बा का ध्यान आ गया....किस तरह से सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर के गांव वाले अपने गांव में कुआं खुदवा के ही दम लेते हैं......आम जन तक सूचना पहुंचने का ही सारा चक्कर है...अब वे दिन लद गये कि गुप-चुप कुछ भी किया जाए और उसे चटाई के नीचे सरका दिए जाए......अब सब कुछ हम जान सकते हैं ...बस आम जन को सवाल उठाने भर की ज़रूरत है.......

आग मेरे सीने में ना सही, 
तेरी सीने में ही सही, 
हो जहां भी आग 
लेकिन जलनी चाहिए...

गुरुवार, 22 जनवरी 2015

मुंह के कैंसर के इलाज के बाद...

पिछले कुछ िदनों में मेरा कुछ ऐसे मरीज़ों से मिलना हुआ जिन के मुंह के कैंसर का इलाज हो चुका था...उन की बातें सुन कर बार बार मन में यही प्रार्थना ही करते बनी कि ईश्वर हरेक को इस तंबाकू-गुटखे-सुपारी के व्यसन से बचा कर रखना।

जिस का आप्रेशन कुछ महीने पहले हुआ है अब वह इस चिंता में डूबा हुआ था कि डाक्टर साहब, कहीं फिर से तो नहीं हो जाएगा.. मैंने कहा ...आप का इलाज देश के सब से कैंसर संस्थान से हुआ है..आप हर तीन महीने में एक बार चैक अप के लिए जा रहे हैं, चिंता मत करिए....अगर विशेषज्ञों को कुछ भी, कहीं भी गड़बड़ी लगती है तो वे तुरंत उसे संभाल लेते हैं।

इस मरीज का आप्रेशन हुआ है और साथ में इन के मुंह के कैंसर को नियंत्रण करने के लिए सिकाई (रेडियोथेरिपी) भी की गई थी। रेडियोथेरिपी जहां पर कैंसर की कोशिकाओं का विनाश करती है, वहीं पर आस पास की स्वस्थ कोशिकाओं को भी प्रभावित करती हैं...बहुत से प्रभाव होते हैं...एक की बात करते हैं... चूंकि रेडियोथेरिपी से लार की ग्रंथियां भी प्रभावित हो जाती हैं, इन में लार बनना बंद हो चुका है... जिस की वजह से इन्हें खाना खाने में बड़ी कठिनाई होती है... पहले कुछ महीने तो मीठे-नमकीन का स्वाद तक पता नहीं चलता था, अब वह स्वाद तो थोड़ा पता चलने लगा है, लेकिन लार बननी फिर से कब चालू होगी, विशेषज्ञ कहते हैं कि कुछ कह नहीं सकते ... पांच छः वर्ष भी लग सकते हैं और हो सकता है कि यह कभी फिर से संभव ही न हो पाए।

बहरहाल, हम भोजन कर पाते हैं क्योंकि हमारे मुंह में लार बनती है जिस के साथ मिक्स हो कर भोजन आगे सरकता है... लार में भोजन चबाने के भी कईं तत्व मौजूद होते हैं... इन्हें खाने में दिक्कत यह है कि ये कुछ भी सूखा तो ले ही नहीं सकते, सूखी सब्जी को भी दाल के पानी में भिगो कर..मसल कर ही लेना होता है....दाल रोटी को भी मसल कर अच्छे से दाल के पानी में भिगो कर ही लेते हैं। कोई मिर्च नहीं कोई मसाला नहीं.. बिल्कुल सादा भोजन ही लिया जा सकता है।

मुंह बार बार सूखता रहता है..जिस की वजह से बार बार पानी से मुंह गीला करना पड़ता है। मैंने कहा कि इस बार जब विशेषज्ञों के पास जाएँ तो कृत्तिम लार (Artificial saliva) के बारे में पूछ लेना कि क्या आप उसे यूज़ कर सकते हैं।
एक दूसरा मरीज़ है, उस का आप्रेशन भी हो गया है, अभी वह सिकाई करवाएगा......बोल पाने में अभी असमर्थ है, मुंह से तो वह कुछ भी नहीं ले पाता, नाक में लगी ट्यूब से लिक्विड फूड सिरिंज के द्वारा अंदर पहुंचाया जाता है....
इस मरीज के बेटे के हाथ में डाइट शीट थी ...उस में आप देखिए कि कितनी एहतियात बताई गई है...


उस शीट के नीचे... ब्लेंडराईज्‍ड सूप बनाने का तरीका भी बताया गया था..... २ मुट्ठी चावल, १ मुट्ठी मूंग, या सोयाबिन पावडर, और ५० से ६० ग्राम सब्जीयां ये सब चीजें एक बर्तन या कुक्कर में डालकर ज्यादा पकाएं। ज़रूरत हो तो पानी डालिए, फिर मिक्सर में डाल कर बारीक पीसिए, उसमें थोड़ा नमक, नींबू रस, और २ चम्मच तेल डालिए, उसे अच्छी तरह मिला कर २ या ३ बार छानकर नली से दे सकते हैं। (पाल, गाजर, लौकी मिला कर १०० ग्राम) ...

ईश्वर सब को स्वस्थ रखे और इन तंबाकू जैसे उत्पादों से दूर रखे...मरीज को तो तकलीफ है ही , साथ साथ उस के तिमारदारों की भी बड़ी परीक्षा होती है।

जो भी इस पोस्ट को पढ़ रहे हैं, कृपया तंबाकू, गुटखा, बीडी सिगेरट, डली, खैनी, पान, पानमसाला ..सब तक की चीज़ों से दूर रहें और अगर इन्हें इस्तेमाल करते हैं तो अभी से थूक दीजिए। 

बुधवार, 21 जनवरी 2015

किशोर एवं किशोरियों को हर सप्ताह मिलेगी आयरन एवं फोलिक एसिड की टेबलेट


आज सुबह अखबार खोली तो यह विज्ञापन देख कर अच्छा लगा...इंगलिश और हिंदी दोनों पेपरों में इसे देखा.
उत्तर प्रदेश सरकार का विज्ञापन था जिस में उन्होंने साप्ताहिक आयरन एवं फोलिक एसिड सम्पूरण कार्यक्रम (   WIFS) के बारे में जनता को जागरूक किया था।

 WIFS का फुल फार्म तो नहीं लिखा था..लेकिन वही होगा Weekly Iron Folic Acid Supplementation Programme ....वीकली आयरन एवं फोलिक एसिड सम्पूरण कार्यक्रम।

इस में लिखा है ....

किशोर एवं किशोरियों (१०-१९ वर्ष) में एनीमिया (खून की कमी) से बचाव एवं गंभीरता में कमी लाने हेतु साप्ताहिक आयरन एवं फोलिक एसिड सम्पूरण कार्यक्रम पूरे देश में संचालित।

  • उत्तर प्रदेश में अनुमानित हर दूसरा किशोर/किशोरी एनीमिया यानि खून की कमी से पीड़ित है। 
  • किशोरावस्था में समुचित शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए संतुलित एवं पौष्टिक भोजन अत्यन्त आवश्यक होता है। 
  • एनीमिया होने से एकाग्रता में कमी, काम करने में थकान और सुस्ती रहती है और इसका प्रभाव उनकी पढ़ाई पर भी पड़ता है। 
  • बचाव के लिए साप्ताहिक एवं आयरन-फोलिक की गोली तथा हर छह महीने में कीड़े की गोली WIFS कार्यक्रम के तहत विद्यालयों तथा आंगनबाड़ी केन्द्रों पर निःशुल्क दी जा रही है। 
  • माता-पिता अपनी जिम्मेदारी समझें और अपने बच्चों को यह गोली अवश्य खिलायें। 

नोट... खट्टे रसदार फल जैसे--आंवला, संतरा, मौसम्बी, नीम्बू आदि का सेवन आयरन के अवशोषण में सहायक होते हैं साथ ही ये ध्यान दें कि आयरन-फोलिक एसिड की टेबलेट का सेवन खाली पेट न करें और टेबलेट लेने के एक घंटे तक कॉफी अथवा चाय का सेवन न करें।

सप्ताह मेें एक बार भोजन के एक घंटे बाद आयरन एवं फोलिक एसिड की नीली टेबलेट का सेवन करना है। 
साल में दो बार कृमिनाशक एल्बेन्डाज़ोल की गोली का सेवन करना है। 

मुझे ध्यान में आ रहा है विभिन्न राज्यों में इस तरह की योजनाएं चल रही हैं...हरियाणा के सेहत विभाग की भी इसी तरह की एक स्कीम के बारे में मैंने एक बार पेपर में देखा था....लेकिन उसमें कुछ कहा गया था कि यह टेबलेट देने से पहले कुछ कर्मचारी बच्चों के रक्त की जांच कर के एनीमिया का पता लगाएंगे। इस के बारे में मेरे मन में कुछ शंका थी कि इतने व्यापक स्तर पर कौन करेगा यह सब टेस्टिंग.... और वैसे भी कईं बार बिना टेस्ट के क्लिनिकल निदान के आधार पर ही इस तरह के बचाव के लिए दवाईयां दे दी जाती हैं। 

अब यूपी में क्या करेंगे इस तरह की जांच के लिए... इस में कुछ वर्णन नहीं है। वैसे मुझे ध्यान आ रहा मैंने एक बार आईसीएमआर की एक रिपोर्ट के आधार पर एक लेख लिखा था...उस में भी यही बताया गया था कि क्लीनिकल जांच के आधार पर ही छोटे बच्चों को ऑयरन-फोलिक एसिड की गोलियां देनी कर देनी चाहिए...इस के बारे विस्तृत विवरण आप इस लिंक पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं.... बच्चों में खून की कमी की तरफ ध्यान देना होगा..

कुछ िदन पहले मैंने एक रक्त रोग विशेषज्ञ द्वारा एनीमिया पर लिखी एक पुस्तक का भी वर्णन किया था... उस के कुछ अंश भी अभी आप तक पहुंचाने हैं... बस कभी कभी भूल जाता हूं, आलस्य कर देता हूं. लेकिन इस मुद्दे में सुस्ती करनी ठीक नहीं... एनीमिया की पुस्तक 

हर तसवीर एक दास्तां ब्यां करती है लेकिन ....

लेकिन यही कि हमने इन्हें संजो कर रखना बंद कर दिया है, शायद तस्वीरें खींचना इतना सस्ता सा हो गया है कि हमें लगता ही नहीं कि ये भी कोई संभाल कर रखने की चीज़ है, शायद मसरूफ़ ही इतने हो गये हैं कि इस की सुध किसे है, बस वह जो एक इंस्टैंट थ्रिल है, वही काफी है, है ना यही बात!

कहने को तो हम बहुत सी जगहों पर इन तस्वीरों को हिफ़ाज़त से रखने की बात करते हैं, पड़ी भी होती हैं किसी न किसी लैपटाप, डेस्कटाप, पेनड्राइव, पोर्टेबल हार्ड डिस्क या सी डी में .......बहुत सी होंगी पड़ी हुई...अगर इन उपकरणों को फार्मेट करते समय धुल न गईं हों तो ....वाशिंग मशीन के सुपुर्द होने वाली पैंट में रखे नोट की तरह!
एक बात तो तय है कि हम अब शायद ज़रूरत से ज़्यादा प्रेक्टीकल होने लगे ..इतनी तो ज़रूरत भी न थी, इसी चक्कर में हमें पुरानी तसवीरों को वेलापंथी और दकियानूसा सा काम लगता है.....शायद।

जब हम लोग छोटे थे तो हमें तस्वीरें खिंचवाने का मौका बस केवल शादी ब्याह में ही मिलता था....पता नहीं वह भी फ्लेश मार कर ही हमें खुश कर देता होगा!

वही बात है जितनी जिस चीज की कमी रहेगी उतना ही हम उस की कद्र करना जान जाते हैं...यह हर चीज़ पर लागू होता है....अभी दो तीन महीने पहले मुझे एक बात लगा था कि मेरी जेब में कुछ पैसे कम हो गये हैं...पांच मिनट इधर उधर देखे ...नहीं मिले, मैंने भी सोचा खर्च हो गये होंगे...भूल गया....दो दिन पहले मैं एक डॉयरी ढूंढ रहा था .. तो एक नोटबुक में छः हज़ार रूपये मिले.....ध्यान आया कि उस दिन मैंने ही रखे थे सोते समय।

हम लोग आज हर चीज़ की वेल्यू इस तरह से ही करते हैं, मैं ऐसा सोचता हूं।

 मैं क्यों इस बात की खाल खींचने सुबह सुबह बैठ गया हूं इस के पीछे की बात सुनाता हूं.......एक सप्ताह पहले मुझे लगा कि पुरानी तस्वीरों को पिन्ट्रस्ट पर बोर्ड बनाने के लिए यूज़ करते हैं......पुरानी तस्वीरों को ढूंढा...बड़ी मशक्कत के बाद यह पॉलीथीन में लिपटीं हमें हमारी यादें मिल गईं......एक बार लगा कि यह कुछ कम लग रही हूं. ..फिर लगा कि सारी जगह देख तो लिया है, इतनी ही होंगी। मिसिज़ ने भी कहा कि जितनी हैं बस इसी पॉलीथीन में ही हैं। यही लगा कि शायद एल्बम में से निकाल कर बच्चों ने पॉलीथीन में डाल दी होंगी।

कल रात की बात है कि बेटा अपने सिलेबस का एक नावल ढूंढ रहा था...उसे ढूंढने की बड़ी जल्दी थी क्योंकि आज उस का इंगलिश का पेपर है...वह तेज़ी तेज़ी से बुक शेल्फ देख रहा था, नावल तो उसे नहीं मिला...वह तो बाद में उसने ऑनलाइन पढ़ने की रस्म पूरी कर ली ......लेकिन अचानक उसने आवाज़ दी.....पापा, कुछ एल्बम तो यहां भी पड़ी हैं, किताबों की शेल्फ़ों में किताबों के पीछे छुपी हुई ये २०-२२ एल्बम दिख गईं।

बीस बाईस एल्बम का बरामद हुआ ज़खीरा 
हम लोग यही देख कर हैरान हो गये कि हम अपनी पुरानी यादों को इस तरह से संजो कर रखते हैं ! पता ही नहीं था कि ये २२ एल्बम हैं भी या नहीं!

आज कल जितना फोटो खींचना या खिंचवाना एज़ी है, आज से तीस चालीस साल पहले यह सब इतना आसान नहीं था।

छठी कक्षा ... डी ए वी स्कूल अमृतसर 
चलिए आप से एक बात शेयर करता हूं कि मेरी छठी कक्षा से पहले कोई तस्वीर ही नहीं है...शायद किसी शादी ब्याह की एल्बम में होगी....लेिकन एक तस्वीर जो मेरे पास है वह यही है ....१९७० के दशक में पांचवी कक्षा की स्कालरशिप परीक्षा हुआ करती थी....हर स्कूल से कुछ छात्रों को उस में भेजा जाता था....उस में मेरा स्कालरशिप आया.......स्कूल के मेगजीन में छपनी थी.....हमें बताया गया कि आप अमृतसर के हाल बाज़ार के बांबे फोटो स्टूडियो पर पहुंच कर फोटो खिंचवाओ......सच में यार जो रोमांच उस िदन था, वह फिर कभी न तो आया और शायद ही कभी आयेगा.....अपनी सब से बढ़िया कमीज (जो पहन रखी है...हा हा हा हा) पहने मैं जब उस स्टूडियो को ढूंढ रहा था तो ऐसी फिलिंग आ रही थी कि जैसे दुनिया को ही मुट्ठी में कर लिया हो। नतीजा यह है कि आज चालीस वर्ष बाद भी यह मैगजीन मेरे पास सुरक्षित है।

आठवीं कक्षा की एक शादी की फोटो (स्वेटर में) 
उस के बाद लगभग दो साल बाद हमारे यहां बंबई से एक मेहमान आए...मेरे अकंल के दोस्त थे, उन्हें अमृतसर में कुछ काम था, कुछ दिन रहे, उन के पास कैमरा था, उन्होंने हमारे परिवार की कुछ तस्वीरें खींची और बंबई पहुंच कर हमें वे चार कलर्ड फोटो भेजीं..जो खुशी हमें उन्हें देख कर हुई ब्यां नहीं की सकती.....वे चारों फोटो भी आज तक संभाल कर रखी हुई हैं।

मुझे ऐसा लगने लगा है कि आज कल हम इंस्टेंट थ्रिल के आदि हो चुके हैं... जर्नलिज़्म के दो नियम याद रखने योग्य हैं......A picture is worth one thousand words!  और The best camera is the camera in your hand! (वह कोई भी दो चार पांच दस पिक्सिल का ..कुछ भी हो, लेकिन मजा तो सारा एक लम्हे को कैद करने का है..)...याद नहीं हम लोग भी कभी कभी अर्जेंट फोटो के लिए सड़क किनारे बैठे किसी फोटोग्राफर के बेंच पर बैठ कर भी फोटो खिंचवा लिया करते थे....वह दो मिनट में हमें पानी की बाल्टी में धोकर हमें तस्वीरें थमा दिया करता था......जैसे वह शटर में घुस कर काले से कपड़े से सिर को ढांप कर हमें सावधान किया करता था, वह कोई कम रोमांचक लम्हा हुआ करता था....हा हा हा ...

दो दिन पहले अखबार में खबर थी कि यू पी सरकार लखनऊ में दो चार ऐतिहासिक जगहों पर शेल्फी स्पॉट बनाने जा रही है ताकि आज की शेल्फी-सेवी युवा पीढ़ी के जरिए लखनऊ की भव्यता के चर्चे दूर दूर तक पहुंचे और पर्यटन को बढ़ावा मिले......उस खबर में यह भी लिखा था ..बिल्कुल ताज महल के आगे बनाए गये उस बेंच की तरह..जहां पर बैठ कर फोटो खिंचवाने के लिए लोग कतार बना कर खड़े रहते हैं...उसी तरह से लखनऊ के भी पुरातन एवं आधुनिक जगहों पर ऐसी सर्वश्रेष्ठ जगहों का चयन मंजे हुए फोटोग्राफर करेंगे ....फिर उन जगहों को शेल्फी स्पॉट के तौर पर इस्तेमाल किया जायेगा। अच्छा लगा था यह पढ़ कर।

पुरानी तस्वीरें केवल तस्वीरें नहीं हैं यकीनन, अतीत में झांकने के और बीते ज़माने से कुछ न कुछ सबक सीखने के कुछ झरोखे हैं........एक तीस साल पुरानी तस्वीर देख कर अचानक एक दास्तां फिल्मों की फ्लेशबेक की तरह घूम जाती हैं...हंसा जाती हैं, सारियस भी कर जाती हैं, सोचने पर मजबूर भी करती हैं और गुदगुदाती भी तो हैं।

एक छोटी सी दास्तां ब्यां कर के बंद करता हूं इस पोस्ट को......यह मेरी छठी कक्षा की तस्वीर आप देख रहे हैं ना, जब मैं इसे खिंचवाने गया मैं तो एक तरह से अपनी बेस्ट कमीज़ डाल कर पहुंच गया...शायद दो एक साल पहले मौसी की शादी में पहनने के लिए सिलवाई थी.....लेकिन फोटोग्राफर लोगों की नज़रें अपने हिसाब से देखती हैं... उसने मुझे कहा कि तुम्हारी कमीज़ तो टाइट है, उस ने एक सुझाव दिया कि बाहर किसी दूसरे लड़के की पहन लो।

न चाहते हुए भी, मजबूरन मुझे एक लड़का को, जिस की तस्वीर तो मेगजीन मे छपनी न थी, लेकिन वह किसी दूसरे लड़के के साथ आया हुआ था...मुझे उस को कहना पड़ा... मैं दो मिनट के लिए तुम्हारी शर्ट पहन लूं.........उस लड़के ने तपाक से मुझे मना कर दिया.....दोस्तो, मैंने जितना अपमानित उस दिन फील किया, कभी नहीं किया.......शायद फोटोग्राफर भी समझ गया, उस ने इत्मीनान से उसी तंग सी बुशर्ट में ही मेरा फोटोसेशन कर लिया.........शायद वह दिन था जब मेरी खुद्दारी ने मुझे इतना झकझोर दिया कि मैंने उस दिन पहली और अंतिम बार (कल का मुझे पता नहीं, किस्मत में क्या लिखा है) किसी कोई चीज़ या इस तरह की फेवर मांगी थी। यह जो तस्वीर मैंने ऊपर टिकाई है, मुझे यह देखते ही अपनी शैक्षिक उपलब्धि पर तो गर्व होता ही है, लेिकन उस दिन वाला वह कठोर सबक भी याद आ जाता है......मैं अपने बच्चों को भी यह किस्सा ज़रूर सुनाता हूं...it is very important to remember such hard and cold lessons of life to stay grounded!

एक बात तो कहनी भूल ही गया.....अभी भी शादी की एल्बमें बरामद नहीं हो पाई हैं.....क्या करूं, अभी उन के बारे में नहीं सोचता .......ये गीत सुन लेते हैं.......बातें भूल जाती हैं....यादें.....याद आती हैं.....

मंगलवार, 20 जनवरी 2015

कुछ मंजन मुंह में कैंसर कर देते हैं

यह तस्वीर जिस महिला की आप देख रहे हैं यह ४० वर्ष की हैं...पिछले बहुत से वर्षों से गुटखा-पानमसाला खाती रही हैं लेिकन पिछले दस वर्ष से बंद किया हुआ है जो इसने मुझे बताया।

इन के मुंह के हालात इन की बात की पुष्टि नहीं करते ...अगर दस साल से सब कुछ छोड़ रखा है तो सामान्यतयः मुंह के अंदर की चमड़ी इतनी खराब हालत में नहीं होती, मुझे ऐसा लगता था...तीन चार बार पहले भी यह अपने इलाज के लिए यह मेरे पास आ चुकी हैं, आज फिर जब मैंने अचानक पूछ लिया कि मुंह के अंदर मसूडों एवं गालों के अंदरूनी हिस्से में कुछ लगाती तो नहीं।

अचानक कहने लगी कि मैं तो बस फलां फलां मंजन करती हूं....उस मंजन का नाम ही सुन कर मेरा दिगाम एक बार तो चकरा गया। यह वही मंजन है जिसने सारे देश में कहर बरपा रखा है...इस में बहुत ज़्यादा मात्रा में तंबाकू मिला हुआ होता है। इस नाम से मंजन भी आता है और पेस्ट भी।

मुझे अच्छे से याद है आज से पच्चीस वर्ष पहले की १९८९ के आस पास की बात है....अखबारों में बड़ी बड़ी खबरें आया करती थीं कि गुजरात में कुछ महिलाओं को इस तरह के तंबाकू वाले मंजन-पेस्ट दांतों पर घिसने की लत लग चुकी है......दांत साफ़ करने का तो एक बहाना है, लेकिन जब भी तंबाकू की तलब होती है तो वे इस पावडर या पेस्ट को लेकर बैठ जाती हैं, और दिन मंें कईं कईं बार यह सिलसिला चलता रहता है.......हालात इतने खराब हो गये कि कुछ महिलाएं एक ही दिन में उस पावडर की एक डिब्बी या पेस्ट ही घिस दिया करती थीं.....नतीजा यह हुआ कि वहां की महिलाओं में मुंह के कैंसर हो गया....फिर कंपनी पर मुकदमेबाजी हुई.....लेकिन आप भी जानते हैं कि इस तरह की मुकदमेबाजी का क्या होता है!...उस के बारे में क्या लिखूं, लेकिन वास्तविकता यही है कि उस तरह के सभी तंबाकू वाले मंजन-पेस्ट धड़ल्ले से िबक रहे हैं।

मुंह के कैंसर के मरीज़ों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है।

जिस महिला के गाल की तसवीर आपने ऊपर देखी जो कि सफेद हो रहे हैं, कुछ कुछ मसूडे भी सफेद हो गये थे... जो कि केवल तंबाकू वाले घिसने का ही प्रभाव था। इस की जुबान की तस्वीर यहां पर देख रहे हैं, यह संभवतः तंबाकू की वजह से नहीं है, लेकिन फिर भी यह सामान्य नहीं है, यह सेहतमंद जुबान की तस्वीर नहीं है, मैंने भी ऐसी जुबान पहली बार देखी होगी, इसलिए उसे किसी ओरल-मेडीसन के विशेषज्ञ के पास भेजेंगे...ताकि उस का भी समुचित इलाज हो सके, जुबान वाली तकलीफ़ कोई गंभीर समस्या नहीं है, जुबान को देखने से ही पता चल रहा है कि शरीर में ज़रूरी तत्वों की कमी तो है ही ..लेिकन फिर भी एक बार विशेषज्ञ को िदखाना जरूरी है, ताकि समुचित इलाज शुरू करवाया जा सके।

तंबाकू वाला मंजन यह औरत अपने गालों एवं मसूडों पर दिन में दो बार घिसती हैं, कहती हैं कि पेस्ट तो मैं अलग से करती ही हूं.....यह अलग से है....मैंने इसे गुजरात की औरतों वाली बात सुनाईं...कहने लगी उस की पड़ोसिन को तो बहुत ज़्यादा लत है इस की .....वह तो खूब बड़ा सा डिब्बा मंगवा लेती है और दिन में दस-बारह बार जब तक ये मंजना दांतों पर न घिस ले उस को चैन नहीं पड़ता। आगे बताने लगी कि उस के मुंह में घाव से हैं, और वह नमक, मिर्च, मसाला कुछ भी नहीं खा पाती.....मुझे उस औरत के मुंह की भी चिंता हुई. मैंने इसे कहा कि उसे भी लेकर आए।

यह औरत कहती हैं कि उसे लत नहीं है क्योंकि जब वह घर से बाहर किसी रिश्तेदार आदि के यहां रहने के लिए जाती है तो वहां पर यह इस तरह के मंजन-वंजन नहीं घिसती, इसे इस की तलब नहीं होती। पांच वर्ष से यह इसे घिस रही हैं और इन्हें इस की तलब न होती हो, मेरे को यह बात पूरी हजम तो नहीं हुई।

मेरे यह पूछने पर कि क्या घर में और भी कोई इस तंबाकू वाले मंजन को इस्तेमाल करता है .बताने लगीं कि नहीं...इस का बेटा तो इसे हर बार टोकता है कि यह मंजन करती हो, आप के मुंह से बास आती है, थोड़ा दूर से बात किया करो।

रोज़ रोज़ वही बातें, हर रोज़ वही बातें दोहरा दोहरा के, वही बातें समझा समझा के कभी कभी अजीब सा लगता है, फिर अगले ही पल ध्यान आता है कि यही तो अपना कर्म है!

 इस औरत को समझा िदया है कि आज ही जा कर उस मंजन को कचरे में फैंक दे, और अपनी पड़ोसन को भी यह सब बताए और उसे साथ लेकर आए..........पता नहीं बात मानेगी भी नहीं! .....Tobacco is playing havoc with health of masses!

बेशक पहले खुलापन था और दिमाग पे दबाव कम था...

हमारे ज़माने के खुलेपन के कुछ साक्ष्य ...(मेरे संग्रह से) 
कभी कभी लेटे लेटे पुराने दिनों की बातें याद आती हैं तो यकीन नहीं होता कि हम लोग उस युग में भी रहते थे ...जहां इतना खुलापन था कि एक पोस्टकार्ड आने पर गली-मोहल्ले के दस घरों को पता चला था कि उस घर में आज चिट्ठी दे गया है, हां, यह भी सब को पता ही होता था कि उस पोस्टकार्ड में लिखा क्या है...लेकिन किसी से कोई भी बात छिपी न थी, सब कुछ खुला ही रहता था, घर के किवाड़ों की तरह।

किस के घर कितने रूपये का मनीआर्डर आया है, किस ने भेजा है और उस मनीआर्डर के साथ आने वाले कागज के पुर्जे पर क्या लिखा है, यह भी किसी से छुपा न होता था।

चिट्ठी से याद आया कि मुझे बंबई से इधर आए १५ वर्ष होने को हैं, तो एक बार मैंने केंद्रीय हिंदी संस्थान का विज्ञापन देखा...नवलेखक शिविर के लिए...उस में उन्होंने रचनाएं मांगी थी. इस से पहले मैं पत्रिकाओं में मेडीकल विषयों पर ही लिखता था..लेकिन उस समय पहली बार मैंने एक गैर-मेडीकल लेख लिखा था...यह एक संस्मरणात्मक लेख ही था...डाकिया डाक लाया....जिस में मैंने चिट्ठियों के बारे में अपनी यादें साझा की थी, किस तरह से हमें नानी, दादी और अन्य रिश्तेदारों की चिट्ठीयां आया करती थीं और हम कैसे उन्हें संभाल कर रखा करते और कैसे बार बार पढ़ कर खुश हो लिया करते। वैसे मेरे पिता जी भी एक बहुत बढ़िया चिट्ठाकार थे... इंगलिश और उर्दू में इत्मीनान से चिट्ठीयों का जवाब देना उन की आदत में शुमार था...सभी रिश्तेदार कहा करते थे कि सुदर्शन चिट्ठी बहुत बढ़िया लिखता है, ऐसे लगता है जैसे पास ही बैठ कर बातें कर रहा है।

हां, तो मैं नवलेखक शिविर की बात पर वापिस लौटता हूं...उस डाकिया डाक लाया वाले लेख के आधार पर मेरा भी शिविर के लिए चुनाव कर लिया गया......और मैं बहुत दूर आसाम के जोरहाट में नवलेखक शिविर के लिए दो हफ्ते के लिए पहुंच भी गया....सारे देश से २०-२५ लेखक आये हुए थे, सभी विधाओं से संबंधित। उन १५ दिनों ने मुझे यह समझा दिया कि लेखन है क्या, कितनी सहज प्रक्रिया है, दबाव वाली तो बात है नहीं कोई।

पोस्टकार्ड की बात हो रही थी इस से पहले.. पोस्टकार्ड हम लोग अपने पड़ोसियों के लिए लिखा भी करते थे और उन के जवाब आने पर उन्हें पढ़ कर भी सुनाया करते थे।



आज कोई सोच सकता है कि खत का जब ज़िक्र हो तो पोस्टकार्ड भेजे जाएं.....नहीं ना, यहां तक कि अंतरर्देशीय चिट्ठी भी कम ही लोग भेजते देखे हैं, सब को लिफाफा ही भेजना होता है, अगर कभी राखी-टीके के लिए भेजना ही हो तो, वरना हर कोई रजिस्टरी, स्पीड-पोस्ट या फिर कूरियर पर ही भरोसा करते हैं।

हर एक डर है कि कहीं कोई और हमारा लिखा पढ़ न ले......पहले चिट्ठीयां पूरे घर परिवार के लिए हुआ करती थीं, अब चिट्ठीयां लगभग घर के एक शख्स के पढ़ने के लिए ही हुआ करती हैं......यही आज की पीढ़ी के दिमाग पर दबाव का कारण है। है कि नहीं?

 यार, ऐसा कुछ हम आखिर लिख ही क्या रहे हैं कि जिस के बारे में हमें चिंता है कि कोई और पढ़ लेगा तो फजीहत हो जाएगी, पोल खुल जाएगी....वैसे तो मोबाइल ने यह भी समस्या दूर कर दी है, आप घर या बाहर किसी भी कोने में खड़े होकर किसी से कुछ भी बात कर लें, दूसरे बंदे को कानों कान खबर न होगी। और आज की युवा पीढ़ी....माशाल्लाह, ये एक िसरा आगे......घर में हर बशिंदे के अलग अलग मोबाइल फोन तो हैं हीं, लेिकन जेनरेशन-एक्स ने तो अपने मोबाइल पर तो स्क्रीन लॉक भी लगा रखा है.....वैसे हर कोई इतना व्यस्त है कि किसे दूसरे के मोबाईल में झांकने की फ़ुर्सत है!

 फोन से ध्यान आया... आज से पच्चीस-तीस साल पहले गली-मोहल्ले में दो तीन लैंड-लाइन फोन हुआ करते थे....वही पी.पी नंबर सारे मोहल्ले के काम कर दिया करता था। लोग संवेदनशील थे, सामने वाले का ध्यान रखते थे कि किस समय फोन करना है, किस समय नहीं।

फोन पर बातें करते समय सारी बातें खुले में हुआ करती थीं, किसी से कोई परदा नहीं...मुझे याद है मैं हनीमून पर गया था....जब मैंने घर बात करने के लिए पड़ोस की शर्मा आंटी को फोन किया तो मेरे पेरेन्ट्स से बात करने से पहले उस ने मसूरी के मौसम का पहले तो अच्छे से हाल जाना...उस दिन उन में कितना कुछ एक सांस में जान लेने की जिज्ञासा कितनी तीव्र थी....हा हा हा हा ...सीधे सादे पुराने दिनों की इनोसेंट यादें!!

लैंडलाइन के  बाद वह भी आ गया ...क्या कहते हैं उसे पोर्टेबल हैंडसेट.....आप किसी भी जगह उस हैंडसेट को उठा कर बात सकते थे...कोई बाथरुम में साथ ले जाता और कोई छत पर ले जाता.....इसने भी खुलेपन में खलल डाला.....लेकिन मोबाइल ने तो सभी सीमाएं ही लांघ लीं........ऐसा नहीं है कि कोई किसी की बातें सुनना चाहता है, इस से क्या हो जाएगा, लेकिन जो कोई भी शख्स किसी से भी छुप छुप कर बातें कर रहा है उस के अपने दिमाग पर ही प्रेशर पड़ता है, है कि नहीं! कितना कष्टदायी होता है ना कि किस से क्या बात करनी है, क्या छिपा कर रखनी है और किस के सामने फोन करना है ...यहां तक कि जिसे फोन करना है, उसे भी कभी कभी पूछ लेना कि क्या आप इस समय अकेले हैं! क्या है यार, हम किस युग में जी रहे हैं!!

अब इतने दबावों के चलते रक्तचाप सामान्य रह गया तो गनीमत है.... हम हर कुछ छुप कर करना चाहते हैं, परदे में....मोबाइल पर स्क्रीन लॉक की बात चलती है तो मैं अकसर कहता हूं . अगर घर में बच्चे यह सब करते हैं तो साफ़ सी बात है कि कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर कर रहे हैं जिसे वे छिपाना चाहते हैं और यह बात ठीक हो ही नहीं सकती.......मैं नैतिक-अनैतिक के झंझट में नहीं पड़ना चाहता, लेकिन इतना तो कह ही सकता हूं इस लुका-छुपी के खेल के परिणाम हम लोग हर रोज अखबार की सुर्खियों के रूप में देखते हैं.....कितना स्वच्छंद वातावरण हो चुका है, प्रेमी युगल एक ही छत के नीचे रहने लगे हैं बिना शादी की ज़रूरत समझे........कुछ वर्ष अच्छे से टेस्टिंग करने के बाद अगर टेस्ट में पास तो शादी की फार्मेलिटी भी कर ली जाती है.....वरना, Darling, you move on!..हम भी चले अपने रास्ते!.... पेरेन्ट्स कभी इंवॉल्व होते नहीं इस तरह के रिश्तों में या उन्हें किया ही नहीं जाता, इसलिए उन की कीमत स्कूटर की स्टपनी से भी कम हो कर रह जाती है।

जाते जाते एक बात का ध्यान आ गया.....मॉस-कम्यूनिकेशन पढ़ रहा था तो एक बार प्रोफैसर साहब ने सुंदर बात कही आज से ८-१०साल पहले कि जब से हम लोगों का टीवी ड्राईंग रूम से अपने अपने रूमों में चला गया, हम लोगों के रिश्तों पर तो इस का असर पड़ा ही...हम लोग एक साथ इसी बहाने बैठ लिया करते थे......साथ ही साथ, छोटे बच्चों और युवाओं को कौन सा कंटेंट देखना है, इस पर भी कोई कंट्रोल नहीं रहा। पहले जब लोग एक साथ बैठ कर बैठक में टीवी के सामने एक दो घंटे बिताया करते थे ...तो सब को पता था कि कब कौन सा असहज सा दृश्य आते ही चैनल बदलना है, कब घर के बुज़ुर्ग बहाने से कमरे से पांच मिनट के लिए कट लिया करते थे......लेकिन धीरे धीरे सब कुछ खुल्लम-खुल्ला सारा परिवार देखना लगा......और अब मोबाइल हर बंदे के हाथ में है, बड़ा सी टीवी कमरे में सजा कर रखने की भी कोई टेंशन ही नहीं।

इस से पहले १९७० के दशक की बात करें..जब टीवी नया नया आया ही था, तब गली-मोहल्ले में एक दो वह चार टांगों वाले स्टैंड पर टिके ब्लैक एंड व्हाइट टीवी हुआ करते थे जिस पर गली-मोहल्ले के बीस-तीस लोग इत्मीनान से हफ्ते में दो दिन आने वाली हिंदी फिल्म और दो दिन चित्रहार का आनंद लिया करते थे.......अब तो हर पल चित्रहार है, हर क्षण चलचित्र है....लेकिन वही बात है ..........एक सौ आठ हैं चैनल, फिर भी दिल बहलते क्यों नहीं!!

लगता है बस करूं.....वैसे मैं क्यों अपने दिमाग पे इतना लोड ले रहा हूं....यार, कितना तैरूंगा अतीत के भवंडर में....कहीं इन में गोते खाते खाते...!!

अभी अभी १९७०के दशक में पड़ोस की कपूर आंटी (मोहल्ले में कपूरनी के नाम से जाने जानी वाली......पंजाब में औरतों की पहचान का एक आसान तरीका...जो भी सरनम हो उसी का स्त्रीलिंग बनाकर दिमाग पे लोड थोड़ा सा कम कर लिया करते थे ...चोपड़ी, कपूरनी...नहीं तो सिपाही की जोरू सिपाहिन, मास्टर की मास्टरनी, मुंशी राम की बीवी मुंशियानी आदि..., है कि नहीं मजेदार बात).. के यहां टीवी पर देखी गोपी फिल्म का यह भजन आज सुबह सुबह याद आ रहा है.....आप भी इस में खो जाइए...



अभी अभी आज का अखबार उठाया तो देखा कि दूसरे लोग भी यादों के महासागर में डुबकियां लगा रहे हैं... ऑल इंडिया रेडियो लखनऊ से जुड़ी मीनू खरे की यादें पढ़ कर भी मज़ा आ गया....आप भी पढ़िए...यह रहा लिंक

सोमवार, 19 जनवरी 2015

बिना तकलीफ़ के भी रक्तचाप जांच ?

यह पोस्ट केवल हम सब को यही याद दिलाने के लिए कि ज़रूरी नहीं कि सिर बहुत तेज़ दुखे, चक्कर आए तो ही उच्च रक्तचाप की शिकायत हो सकती है, ऐसा हो भी सकता है, लेकिन ऐसा बहुत बार होता है कि उच्च रक्तचाप बहुत बढ़ जाने के बावजूद भी कोई ऐसा लक्षण पैदा नहीं करता जिस की वजह से कोई व्यक्ति किसी चिकित्सक से परामर्श करे।

लेकिन यह बात भी तय है कि इस तरह से बड़ा हुआ रक्तचाप अंदर ही अंदर शरीर के विभिन्न अंगों पर अपना बुरा असर तो निरंतर छोड़ता ही रहता है। इसलिए कभी कभी अपने रक्तचाप की जांच करवाते रहना चाहिए।

इस विषय पर हम सब इस बुज़ुर्ग के केस से कुछ सीख ले सकते हैं.....इंक-ब्लॉगिंग के ज़रिए..






जिन बुजुर्ग के बारे में मैंने लिखा है, इन की ईसीजी भी हुई ..सामान्य थी......अभी इन की आंखों की जांच भी होगी, क्योंिक बड़ा हुआ रक्तचाप आंखों पर भी अपना कुप्रभाव छोड़ सकता है।

कागज़ के चंद पुर्जे पढ़ कर बिल्कुल भी सीरियस होने की ज़रूरत नहीं, मैं तो ऐसे ही एक्सपेरिमेंट करता रहता हूं....आप इत्मीनान से पुराने जमाने का यह गीत सुन कर अपने रक्तचाप को काबू में रखिए........मैं शायर तो नहीं ..जब से देखा मैंने तुझको...मुझको शायरी आ गई।



रविवार, 18 जनवरी 2015

अपने शहर को हम जानते ही कितना हैं!

आज सुबह मुझे लखनऊ के राजाजीपुरम् एरिया में जाने का मौका मिला....इस के बारे में सुना तो बहुत बार था..लेकिन कभी मौका नहीं मिला था उधर जाने का।

जब भी मैं किसी शहर के किसी एरिया में पहली बार जाता हूं तो यही अहसास होता है कि हम लोग अपने अपने शहर को कितना कम जानते हैं।

मेरा बेटा अकसर कहता है कि अपनी कार में चलते हुए तो हम शहर की सारी ज़िंदगी को मिस कर देते हैं, उन से बेहतर हैं दो पहिया वाहन पर चलने वाले..जहां चाहे रोक तो पाते हैं, साईकिल चलाने वालों की हालत उन से भी बेहतर है, लेकिन पैदल चलने वालों का तो कहना ही क्या!....किसी भी एरिया को एक्सप्लोर करने का इस से बढ़िया ढंग कहां कोई और हो सकता है!

मुझे राजाजीपुरम् के सी-ब्लाक में घूमते हुए ऐसे ही लग रहा था जैसे कि मैं दिल्ली के किसी पुराने इलाके में घूम रहा हूं.....पुराने घर..अधिकतर सिंगल या डबल स्टोरी, बड़े बड़े पेढ़... हर तरफ़ फैली हरियाली......ठहरी ठहरी सी ज़िंदगी.....ठहरी नहीं भी, तो भी वह भागम-भाग वाली तो नहीं!


जाते समय रास्ते में एक जगह पर देखा कि यह बुज़ुर्ग महाशय अपनी छोटी सी दुकान सजा कर बैठे हैं, मैं रूक गया.....मैंने पूछा कि इतनी ठंड में सुबह सुबह कैसे बिना किसी छत-वत के ! इन्होंने बताया कि गुमटी थी लेकिन कमेटी वाले उठा ले गए, करता हूं दो चार दिन में कोई जुगाड़.... कहने लगे कि सर्दी का क्या है, दो चार दिन से बहुत गलन हो रही है (यू. पी में शीत लहर को गलन कहा जाता है) ...घर पर रहा तो हाथ पांव दुःखने लगे, इसलिए आज यह खोल कर बैठ गया हूं। मैंने कहा मुझे आप की एक तसवीर लेनी है, तो हंसते हुए बोले....ज़रूर लीजिए।



राजाजीपुरम् जाते हुए पहले तो इन पेढ़ों के दर्शन हुए...ध्यान आया कि इन को भी थोड़ा इत्मीनान से देखना, इन के नीचे खड़े होना जरूरी है....इस से हमें कम से कम एक बार तो अपने बौनेपन का अहसास होता है। लगता है कि इस की विशालता, इस के रहस्यमयी १०० साल या उस से भी ज़्यादा के अस्तित्व के आगे हमारी क्या बिसात है....अपने इतराने की एक भी वजह ध्यान में नहीं आती!!



एक घर के बाहर भीमकाय पेड़ देख कर बहुत अच्छा लगा...और भी बड़े बड़े पेड़ देख कर बहुत अच्छा लगता है, जैसे एक कहावत है ना कि ऐसा कोई भी मुस्कुराता चेहरा नहीं होता जो खूबसूरत न हो, मैं तो अकसर कहता हूं जिस भी जगह पर बड़े बड़े पेड़ लगे हों और उन से प्यार किया जाता हो, उस से खूबसूरत जगह हो ही नहीं सकती....पेड़ों से लोगों का प्यार भी अनुकरणीय है...

हां, एक बात यह कि हम लोग इतने इतने वर्ष एक शहर में रह लेते हैं तो बस तीन चार खाने पीने की दुकानों या एक दो माल के अलावा किसी जगह से ज़्यादा सरोकार नहीं रखते, ऐसा है कि नहीं...और ये सब चीज़ें हमारी टिप्स पर होती हैं, रायल कैफे की टोकरी चाट, जैन की पापड़ी, मोती महल की कुल्फी...फन माल, फिनिक्स माल....बस, लेकिन किसी की शहर की रूह तो उस के पुराने बाज़ारों, कूचों,  दुकानों और खंडहरों में बसती है जिनकी हम कहां  परवाह ही करते हैं, अगह परवाह है भी तो फुर्सत ही किसे है......


फुर्सत से ध्यान आया कि एक एरिया में यह पोस्टर भी दिख गये......इन पोस्टरों को देख कर लगता है कि समय थम सा गया है....इन्हें देख कर इतना इत्मीनान तो होता है कि अभी भी कोई आम आदमी थियेटर में जा कर फिल्म देखता है.....और जिन दीवारों पर ये चस्पा किए गये हैं, वे भी तो गुजरे ज़माने की एक दास्तां ब्यां कर रही हैं..

यह नीचे वाला क्लिप भी यही ख्याल ब्यां कर रहा है........

शनिवार, 17 जनवरी 2015

ऑनलाइन अक्खड़पन ...

आज बैठे बैठे विचार आ रहा था कि जितने so-called बड़े बड़े लोग सोशल मीडिया पर जुड़ने लगे हैं, उस से तो शायद यही लग रहा होगा कि बहुत बढ़िया two-way communication का एक ज़रिया मिल गया है.....लेकिन वास्तविकता इस से बहुत दूर है।

अगली बार जब कहीं ऐसे शख्स या संस्था या विभाग की साइट पर जा कर कुछ भी मन की भाव व्यक्त करें तो बस इतना देख लीजिए कि कितने लोगों की टिप्पणीयों के जवाब में उन्होंने कुछ कहा है.....कुछ कहा तो दूर, कितने लोगों के कुछ कहने पर इन्होंने हूं-हां ही कहा हो....बहुत निराशा होती है यह सब देख कर। ठीक उसी तरह जिस तरह से आप से कोई रियल लाइफ में बात करे और आप उस से संवाद स्थापित करने की जगह अपना मुंह ही दूसरी तरफ़ घुमा लें.....रिएल लाइफ में है ही, ऑनलाइन वर्ल्ड में भी यह बड़ा पीड़ादायक होता है।

आज बैठे बैठे कुछ विचार आ रहे थे तो कागज पर लिख कर सोचा कि इंक-ब्लॉगिंग का ही कर ली जाए...

इस पर क्लिक कर के ठीक से पढ़ पाएंगे

इस पर क्लिक कर के ठीक से पढ़ पाएंगे
सभी तरह की सभी क्षेत्रों से तालु्क्क रखने वाली so-called हस्तियां बस इतना ध्यान रखें कि जनता के बारे में पहले से किसी शायर ने कितना सही कह दिया है.....
यह चाहे तो सर पे बिठा ले,
चाहे फैंक दे नीचे!!
पहले यह पीछे भागे, 
फिर भागो इस के पीछे!!
.....
क्या नेता क्या अभिनेता.. दे जनता को जो धोखा
पल में शोहरत उड़ जाए ज्यों एक हवा का झोंका..

बेहतर होगा आप संवाद करने की आदत डालिए......ऑनलाइन अक्खड़पन बिल्कुल नहीं चलता....earlier we understand this , better it is! मैं तो यह गीत कभी कभी ज़रूर सुन लिया करता हूं...