शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

मैला ढोने की सुथरी यादें....

Courtesy: Google Images
मेरे जैसे पढ़े लिखों की शायद यह समस्या है कि हम लोग मीडिया में दिखने वाली किसी भी बात पर आसानी से विश्वास कर लेते हैं। जैसा कि मैं भी पिछले कुछ सालों से समझने लगा था कि अब मैला ढोने का काम बंद हो चुका होगा क्योंकि इतनी बार सरकारी विज्ञापन देखे कि अगर कोई किसी को इस तरह का काम करने के लिए मजबूर करेगा तो उस पर कानूनी कार्रवाई की जाएगी। शायद यह कहीं लिखा देख भी लिया होगा मैंने कि यह काम अब नहीं होता।

कल बीबीसी की एक रिपोर्ट दिख गई.....जिसे देख कर बहुत दुःख हुआ कि आज भी यह काम भारत में बहुत सी जगह चल रहा है। एक बार तो यकीन नहीं आया लेकिन जब पूरी रिपोर्ट पढ़ी तो दिल दहल गया कि किन किन मजबूरियों में लोगों को यह काम करने को विवश किया जाता है। --- बीबीसी की रिपोर्ट....भारत का मैला ढोने वाले --तस्वीरों में.

मुझे भी अपनी परसिन्नी की याद आ गई .. अधेड़ उम्र की महिला....१९६७ से १९८४ तक की मेरी यादें --पंजाब..जिस सरकारी क्वार्टर में हम लोग रहते थे उस में ड्राई-लैटरिन ही थी।

और यह परसिन्नी बेचारी रोज़ मैला ढोने आ जाती थी, सभी लोग चाहते थे कि परसिन्नी सुबह सुबह सब से पहले उन के यहां ही पहुंच जाए। हाथ में एक तसला और एक लोहे का एक पतरा सा उठाये रहती थी परसिन्नी।

दर्जनों या फिर पता नहीं कितने घरों वह परसिन्नी मैला ढोने का काम करने जाती होगी......मुझे अच्छे से याद है हर घर से तीन-चार या फिर पांच रूपया महीना उसे मिला करता था। हां, त्योहार के वक्त कुछ ऐसा थोड़ा बहुत ज़्यादा।
कभी कभी किसी घर से चाय या कल की बची रोटी सब्जी भी खाने को मिल जाती थी, और कभी कभी फटे-पुराने कपड़े।

पानी वानी भी वह घर से नहीं मांगा करती थीं....क्योंकि मैंने देखा कि कुछ घरों में जब उसे किसी बर्तन से पानी भी पिलाया जाता था तो उस से बराबर दूरी बना कर रखी जाती थी।

मुझे यह भी याद है कि मुझे उस परसिन्नी पर हमेशा ही तरस आाता था......हर एक (जी हां, हर एक घर में) उस के चाय पीने के लिए एक प्याली जिस का हैंडल टूटा हुआ होता था और जो सब से पुरानी प्याली या गिलास हुआ करता था....वह उस मैला ढोने वाली के लिए रख दी जाती थी। और इस कप को उस टॉयलेट की किसी बन्नी पर टिका दिया करती थी वह चाय वाय पीने के बाद........ जब भी उसे चाय दी जाती तो इस का सीधा सीधा यही मतलब हुआ करता था कि वह अपनी ही प्याली या गिलास में उसे पियेगी।

मुझे यह देख कर बहुत गुस्सा आता था.....सिर दुखता था..... क्यों, यार, परसिन्नी से ऐसा व्यवहार क्यों?.... लेकिन फिर भी जो सच्चाई है वह मैंने ब्यां कर दी है। लेकिन इस बात के लिए मैं अपने मां-बाप की हमेशा प्रशंसा करता हूं कि उन्होंने कभी भी परसिन्नी से अच्छा ही व्यवहार ही किया.....मुझे अच्छे से याद है कि वह शायद दो बातें मेरी मां या मेरे पिता जी से किया करती थीं...... जैसे कोई सलाह आदि लेना। मैंने कईं बार उसे घर में पांच मिनट के लिए किसी पेड़ वेड़ आदि के नीचे सुस्ताते भी देखा। मुझे नहीं याद कि मैंने कभी भी उसे नाम से बुलाया हो......शायद ही कभी आप शब्द का भी इस्तेमाल किया हो.......लेकिन ऐसा लगता है कि किसी आदमी की हम कितनी इज्जत करते हैं यह हमारी आंखों से पता चल ही जाता है, और यह मूक भाषा वह भी जानती थीं।

अब सोचता भी हूं तो कितना मुश्किल लगता है कि यार, पहले एक तसले में मैला डालो, फिर उसे थोड़ा बाहर जाकर किसी बड़े से कचरेदान में पलट कर आओ......फिर वापिस दूसरे घरों से मैला ढो कर फिर से उस कचरेदान में खाली कर के आओ........कितना अमानवीय काम लगता है ना।

मैं इस समय उस परसिन्नी को याद कर रहा हूं तो मेरी आंखें बार बार भर आ रही हैं.......

एक बात और बताऊं आप को.....जिन घरों से तो परसिन्नी सारा मैला अपने तसले में डाल कर ढो कर दूर किसी कचरेदान में डाल आती थी..वे तो खुश.......लेकिन जिन घरों का मैला कभी कभी वह पानी डाल कर बहा देती, बस वही लोग उसे कोसना शुरू कर देते कि यह क्या हुआ.. यह तो सारी गंदगी बाहर खुली नालियों में पहुंच जायेगी। मुझे इस बात पर भी बहुत ही गुस्सा आता कि यार, और क्या इस बेचारी की चार रूपये महीने में जान लोगे?

परसिन्नी जब नहीं आती थी तो क्या होता था.......पता है उस का एक १५-२० साल का लड़का भी था, उस की छुट्टी के दिन कभी कभी वह भी आ जाया करता था......लेकिन मुझे अब लगता है कि उस के लड़के के मन में इस काम के प्रति विद्रोह था........वैसे देखा जाए तो हो भी क्यों नहीं ?

वैसे एक बात बताऊं जिस दिन अपनी परसिन्नी नहीं आती थी..... सारे घर की हालत खराब हो जाया करती थी। उस टायलेट के आसपास बदबू और मक्खियों का बोलबाला हुआ करता था.....फिर लोग अखबार हाथ में लेकर जाया करते थे कि पहली मैल के ऊपर अखबार फैंक कर फिर से उसे मैला करने के लिए तैयार कर सकें।

एक बार जब मैं अपने बेटों को ये सब बातें सुना रहा था तो वे बहुत ठहाका लगा कर हंसने लगे। लेकिन मेरे लिए यह कभी भी ठहाका लगाने का विषय नहीं रहा......ड्राई टॉयलेट को मेरे लिए इस्तेमाल करना तो कुछ भी कष्टदायक नहीं था उस कष्ट की तुलना में जो परसिन्नी रोज़ सहती थी......मुंह पर कपड़ा बांध कर जब वह उस टॉयलेट के अंदर घुसती और पसीना पसीना होकर बाहर निकला करती।

अब मुझे कोई वर्कर कहता है ना कि गुटखा वुटखा खाना इसलिए शुरू किया कि साहब, हमारा काम थोड़ा गंदगी में ही होता है, गुटखा आदि खाने से मन ठीक रहता है, उस समय मेरा ध्यान उस महान् परसिन्नी की तरफ़ चला जाता है क्योंिक उस ने तो कभी तंबाकू न चबाया, न ही कुछ और नशा ही किया।

मैंने बीबीसी की रिपोर्ट देखी तो मुझे अहसास हुआ कि यह काम तो अभी भी देश में कईं जगह चल रहा है। मैंने सोचा कि मेरे दिन बदल गये तो सारे संसार के ही बदल गये। इस परिप्रेक्ष्य में यही कहना है कि लाल किले से जब इस बार घर घर में टॉयलेट बनवाने का वायदा किया गया तो मुझे बहुत अच्छा लगा।

धन्यवाद, डियर परसिन्नी, आप ने जो हमारे लिए इतने वर्ष किया.......हम उस का कर्ज़ कभी चुका ही नहीं सकते। लेकिन एक बात तो है कि मैंने जिस हालात में आप को काम करते देखा, जो आप की हालत देखी......उसने मुझे सफाईकर्मियों की भूमिका के प्रति अति संवेदनशील बना दिया........और मेरा यह विश्वास पक्का हो चुका है कि किसी भी संस्था के लिए सब से अहम् कर्मचारियों की श्रेणी सफ़ाई सेवकों की ही है......ये एक दिन भी नहीं आते तो क्या हालत हो जाती है, संस्था बंद होने के कगार पर आ जाती है। क्या हम ने इन्हें इन का हक लेने दिया........आरक्षण-वक्षण तो मिला तो सोचने वाली बात यह है कि यह परसिन्नी जैसे कितने परिवारों को मिला।

वैसे जब परसिन्नी थक कर बैठ जाती और कोई उदास सी बात करती तो मेरी मां उसे कहती ....परसिन्नी, तू वेखीं, अगले जन्म विच तूं राज करेंगी............... (तुम देखना, अगले जन्म में तुम राज ही करोगी)........और यह सुनकर हल्की हल्की मुस्कान लिए वह अपनी टोकरी उठाती और अगले घर की तरफ़ बढ़ जाती।

यह लेख देखने के बाद शायद आप इसे भी पढ़ना चाहेंगे........
Cleaning Human Waste...... "Manual Scavenging', caste and discrimination in India

शनिवार, 23 अगस्त 2014

शीघ्र पतन वतन सब मन ही में होता है..

मुझे अच्छे से याद है कि लगभग छः-सात वर्ष पहले ऐसे ही आक्रोश में आकर शीघ्र-पतन के मुद्दे पर अपने विचार लिख दिये थे....शीघ्र पतन का फैसला भी होगा अब घड़ी की टिक टिक से।  आक्रोश का कारण... बस केवल इतना ही था कि किस तरह से आज के युवकों को इस मुद्दे पर गुमराह कर के ये नीम हकीम करोड़ों रूपये लूट रहे हैं।

मैं जब भी अपने ब्लॉग के स्टैटेस्टिक्स देखता हूं तो सब से ज़्यादा सर्च किए गये यही लेख हैं... तो मैंने सोचा कि इस संबंध में बिल्कुल परफैक्ट जानकारी पाठकों तक पहुंचनी चाहिए।

जिस वेबपेज का लिंक मैं नीचे दे रहा हूं उस से ज़्यादा विश्वसनीय जानकारी इस मुद्दे पर आप को कहीं भी नहीं मिल सकती।

इस पेज पर देखिए कि कितना साफ साफ लिखा है कि यह एक आम समस्या है लेकिन इस के पीछे किसी शारीरिक कारण का होना बहुत ही कम होता है। और कितनी सफाई से लिखें ये लोग कि यह शीघ्रपतन की समस्या मन की उपज है और किस तरह से आज के तनाव की वजह से इस तरह की समस्याएं सामने आने लगी हैं।

यह वेबपेज इंगलिश में है, आशा है सभी पाठक पढ़ ही लेंगे और समझ भी लेंगे.......... इस शीघ्रपतन की समस्या से जूझने के लिए (चाहे वह मानसिक ही क्यों न हो).....कुछ फार्मूले भी इस में बताए गये हैं........पहले मैंने सोचा उन्हें हिंदी में लिख दूं.....लेकिन फिर पता नहीं ऐसा करते करते रूक गया....थोड़ा अजीब सा लगा....... जो कि एक मैडीकल लेखन करने वाले को लगना नहीं चाहिए। मुझे लगता है कि मेरे ब्लॉग की रीडरशिप अलग तरह की है.. शायद इसलिए मैं इतने खुलेपन से खुलासा करने से झिझक गया।

लेकिन फिर भी अगर आप मुझे इस तरह की फीडबैक देंगे कि इस तरह की जानकारी को भी मुझे हिंदी में सरल भाषा में भी उपलब्ध करवाना चाहिए तो मैं तैयार हूं यह सब करने के लिए। निष्कर्ष यही है कि बस रिलैक्स होना सीखो, मस्त रहना सीखो...

यह रहा लिंक ..  http://www.nlm.nih.gov/medlineplus/ency/article/001524.htm      ...वैसे आप इस लिंक ..शीघ्र पतन पर भी क्लिक कर के इस वेबपेज पर पहुंच सकते हैं। इसे पढ़ कर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि ईमानदारी से किसी जानकारी को कैसे पाठकों तक पहुंचाने का काम मैडलाईन जैसे अमेरिकी संस्थाएं कर रही हैं। इसे अच्छे से पढ़ें और इस ज्ञान का आगे भी ज़रूरतमंदों के साथ बांटने में संकोच न करें ... you lose nothing, isn't it?



रेलवे पुल के नीचे से गुज़रते वक्त क्या आपने कभी यह सोचा?

प्रश्न ही कितना अटपटा सा लगता है कि क्या रेलवे पुल के नीचे से गुज़रते वक्त आपने कभी कुछ सोचा?... इस में सोचने लायक बात ही क्या है, आप यही सोच रहे हैं...मैं भी आप की तरह ही सोचा करता था... लेिकन पिछले रविवार के दिन से मैं भी सोचने लगा हूं।

चारबाग स्टेशन के पास वाला पुल 
हुआ यूं कि पिछले रविवार के दिन मैं एक कार्यक्रम में जा रहा था, जिस जगह पर कार्यक्रम होना था --लखनऊ के हज़रतगंज-- यहां पर चारबाग एरिया से होकर जाना होता है। रास्ते में यह पुल पड़ता है जिस की तस्वीर आप यहां देख रहे हैं... इस पुल के नीचे से मैं सैंकड़ों बार गुजर चुका हूं, लेकिन उस दिन मैंने क्या देखा कि कुछ साईकिल, स्कूटर, मोटरसाईकिल सवार इस पुल के दोनों किनारों पर चुपचाप खड़े थे। ज़ाहिर सी बात है कि मैंने भी अपने स्कूटर को ब्रेक लगा दी। 

इस तरह से लखनऊ शहर के लोगों को रूकते देखना मुझे हैरान कर गया क्योंकि ये तो रूकते ही नहीं हैं....बस जब व्हीआईपी मूवमैंट होती है तो ट्रैफिक पुलिस वाले १०-१५ मिनट सारा यातायात रोके रखते हैं, और तो कहीं मैंने इतना सिरियसली ट्रैफिक रूकता देखा नहीं। 

हां, जिस समय इस पुल के दोनों तरफ़ दो पहिया वाहनों वाले रूके हुए थे, उस समय इस पुल के ऊपर से एक ट्रेन सरक रही थी। मुझे यही अंदेशा हुआ कि यह पुल बहुत पुराना लगता है ......ये लोग भी शहर के पुराने जानकार है, शायद कोई चेतावनी होगी कि जब पुल से गाड़ी निकलने तो रूक जाना ज़रूरी है, क्योंकि पुल पुराना है। 

अभी मैं यह सोच ही रहा था कि गाड़ी पूरी आगे निकल गई और झट से सारे दुपहिया वाहन चल पड़े......मैं भी चल पड़ा......सस्पैंस मेरे मन में ही रह गया कि ये बीस के करीब लोग रूके क्यों रहे............मेरे से रहा नहीं गया तो मैंने अपनी बाईं तरफ़ जा रहे एक साईकिल सवार स्कूली छात्र से पूछ ही लिया.......यार, ये लोग रूक क्यों गये थे?

अंकल, गाड़ी से हृमन वेस्ट मेटीरियल (human waste material) नीचे गिरता है ना, बस उसी से बचने के लिए रूकना पड़ता है, उस ने कितनी सहजता से मेरी जिज्ञासा को शांत कर दिया।

रेल की पटड़ियों के बीच वाली खाली जगह 
तभी मेरा ध्यान इस पुल के ऊपर गया......धत तेरे की.......वह स्कूल का बच्चा सच कह गया........ऊपर से यह इस तरह से खुला था जिस तरह के आप इस तस्वीर में देख रहे हैं। 

यह पुल लखनऊ के चारबाग मेन स्टेशन से लगभग कुछ दो-तीन सौ मीटर की दूरी पर ही है और यात्रियों को वैसे ही कहा जाता है कि स्टेशन पर आप लोग ट्रेन की टॉयलेट का इस्तेमाल न करें....ताकि स्टेशनों को साफ़ सुथरा रखने में मदद मिल सके........लेकिन जैसे ही ट्रेन छूटती होगी और फिर इस तरह के पुल से सब तरह के वेस्ट मेटिरियल की बरसात होती होगी.........इसीलिए लोगों ने इस से बचने का जुगाड़ भी ढूंढ लिया कि चंद मिनट रूकने में ही बेहतरी है...

काश, लखनऊ के कुछ लोग जो हर जगह पान-पानमसाला-तंबाकू-गुटखा थूकते रहते हैं वे जब सड़कों पर वाहनों पर चलते हुए थूकते हैं तो दूसरे के साफ़-सुथरे कपड़ों के बारे में भी थोड़ा संवेदनशील रहा करें, यहां तो यह बहुत ही आम समस्या है.......पहली बार यही देखा कि महंगी कारें चलाने वाले भी कईं बार रोड़ के किनारे गाड़ी रोकते हैं, झटके से दरवाजा खोलते हैं और पाव-भर थूक-पीक-पान से व्हीआईपी रोड़ को रक्त रंजित कर के आगे सरक जाते हैं........

आप को लग रहा होगा कि वे इतने संवेदनशील हैं कि सड़क पर दूसरे लोगों पर पीक न पड़े, इस का ध्यान रखते हुए यह करते होंगे, लेिकन मुझे लगता है अपनी महंगी कार को पीक के रंग से बचाने के लिए वे यह ईनायत करते होंगे हैं..

हां, तो अपने शहर में भी इस तरह के पुलों के नीचे से गुज़रते वक्त ध्यान रखिएगा......फिर मत कहिएगा कि किसी ने पहले सावधान नहीं किया। 

पिछली सवारी के लिए हैल्मेट क्यों नहीं भाई?

ऐसी तस्वीरें उद्वेलित करती हैं लेकिन हम भी यही कुछ करते हैं...
मुझे यह बात बहुत परेशान करती है कि टू-व्हीलर पर पिछली सवारी के लिए हैल्मेट क्यों अनिवार्य नहीं कर दिया जाता. 

यही एक उपाय है कि पिछली सीट पर बैठी इस देश का महिलाएं भी हैल्मेट पहनने लगेंगी। दूसरा कोई उपाय मेरी समझ में तो नहीं आ नहीं रहा। और इस की पालना न करने पर चालक का तुरंत चालान होना चाहिए। 

तेज़ रफ़तार से चल रहे दो पहिया वाहनों को देख कर और पीछे बैठी महिलाओं को देख कर डर जाता हूं.... मैं क्या मेरा १७ वर्ष का बेटा भी डर जाता है और मुझे अकसर कहता है कि पापा, पिछली सवारी के लिए भी हैल्मेट कंपलसरी होना चाहिए. मैं उस से बिल्कुल इत्तेफाक रखता हूं। 

लेकिन शुरूआत घर से ही होनी चाहिए......मेरे स्कूटर के पीछे बहुत बार बीवी भी बैठती है और मां भी बैठती हैं, लेकिन मुझे उन्हें बिना हैल्मेट के बिठाना बहुत अजीब सा लगता है, डर लगता है ... अपने सिर पर हैल्मेट डालना उस समय एक अपराध सा लगता है कि यार, हमारी जान क्या ज़्यादा महंगी है या फिर पीछे बैठा इंसान हाड़-मांस का नहीं बना है। 

उस दिन भी मैं और मेरा बेटा कार से स्टेशन से आ रहे थे तो बेटे को एक स्कूटर के पीछे एक बुज़ुर्ग मां बैठी दिख गई....हो गया शुरू ..बड़ा संवेदनशील किस्म का बंदा है ..झट से उस मां-बेटे की फोटू खींच ली और कहने लगा कि पापा, यह तो गलत बात है कि पीछे बैठे बंदे के लिए हैल्मेट ज़रूरी नहीं है। 

कईं बार मैं सोचता हूं कि यार यह देश भी कैसा है, कुछ जगहों पर तो हैल्मेट पहनने की तरफ़ कोई ध्यान नहीं देता, कुछ में केवल चालक ही हैल्मेट पहनेगा क्योंकि यह कानून है उन राज्यों में ...लेिकन उन राज्यों की प्रशंसा करनी चाहिए जिन्होंने दोनों सवारों के लिए चालक और पीछे बैठी सवारी के लिए भी हैल्मेट अनिवार्य किया हुआ है। मुझे बहुत अच्छा लगता है यह देखना --शायद चंडीगढ़ में यही व्यवस्था है...

मुझे ऐसा लगता है कि देश में हर जगह यह कानून लागू हो जाना चाहिए कि पीछे बैठी सवारी और बापू के साथ स्कूटर पर आगे खड़े बच्चे भी हैड-प्रोटैक्शन तो पहनेंगे ही। 

सच में कहूं कईं बार बहुत अपराधबोध होता है .......लेकिन क्या हम ने कभी अपनी तरफ़ से पहल की .......कभी मां या बीवी को पीछे बैठाने से पहले कहा कि आप भी हैल्मेट पहन लें, .......नहीं ना, क्योंकि रिवाज ही नहीं है, हमें यह भी तो डर सताने लगता है कि कहीं हम लोग सड़क पर जाते हुए कार्टून ही न लगें........अब सोचने की बात है कि यह मेरे जैसे ठीक ठाक पढ़े लिखे बंदे की मानसिकता है, तो फिर वह आदमी जिसे हम लोग कम पढ़ा लिखा लेबल करते हैं, अगर वह ऐसी सोच रखे तो वह गंवार........

ठीक है, बात हो तो हो गई, लेकिन एक राष्ट्र स्तर पर एक अभियान चलना चाहिए कि सारे देश में पिछली सवारी के लिए भी हैल्मेट ज़रूरी होना चाहिए वरना चालक से मोटी रकम ज़ुर्माना के रूप में वसूली जानी चाहिए। हम इतने लंबे समय से गुलाम रहे हैं, शायद हम सब यही भाषा समझते हैं। आप का क्या ख्याल है..... 

नेट से प्राप्त जानकारी और सेहत संबंधी निर्णय

मुझे बड़ी हैरानी हुई थी कल ओपीडी में जब उस २५-३० उम्र की महिला ने यह कहा कि उसने अपनी टुथपेस्ट इसलिए बदल दी क्योंकि नेट पर उसने एक बार देखा था कि उस में मौजूद घटकों से कैंसर हो जाता है।

समस्या यह थी कि उस पेस्ट को छोड़ कर जिस मंजन को उस ने थाम लिया था उसी मंजन की वजह से ही उसे दांतों में तकलीफ़ हो रही थी। हैरानी मुझे यह सुन कर हुई जब मैंने उसे नेट पर इन मंजनों आदि के बारे में भी कुछ पढ़ने को कहा तो वह तुरंत कहने लगी....कि इंटरनेट कहां है हमारे यहां, बस तब एक बार देखा था।

यह छोटी सी बात इसलिए आपके समक्ष रखी कि किस तरह से नेट पर उपलब्ध जानकारी आज लोगों को अपने फ़ैसले स्वयं करने के लिए एक आज़ादी सी दे रही है, देखते हैं कि यह आज़ादी ठीक भी है कि नहीं।

मेरा व्यक्तिगत विचार है कि नेट पर किसी भी शारीरिक समस्या के बारे में छोटी-मोटी जानकारी पा लेना तो एक बात है, लेकिन उसी के आधार पर जाकर अपने आप दवाई खरीद लेना या कोई ब्लड-टैस्ट करवाने या अल्ट्रासाउंड या सी टी स्कैन करवाने पहुंच जाना बिल्कुल गलत बात है। इससे कोई भी फायदा होने वाला नहीं है।

सब से पहले तो यह जान लें कि इंगलिश में भी सेहत संबंधी मामलों में अच्छी और सही जानकारी के साथ साथ इतनी गलत और भ्रामक जानकारी नेट पर पड़ी है कि सर्च करने वाले के लिए यही तय करना कईं बार मुश्किल हो जाता है कि कौन सही कह रहा होगा, कौन गलत।

इतनी इतनी कठोर और निर्दयी मार्कीट शक्तियां हैं कि आप को पता लगे बिना ही आप कहीं न कहीं बुरे फंस सकते हैं, किसी ने कोई टैस्ट बेचना है, किसी ने कोई सप्लीमैंट, कोई सेहत ही बेचने का ठेका लिए हुए है........सब कुछ बहुत ही ज़्यादा कंफ्यूज़िंग सा कर रखा है इन सब ने मिल कर --- यह जानने के लिए कि बेटा होगा या बेटी जैसे टैस्टों की किटें तो नेट पर बिकने लगी हैं।

लेकिन अंग्रेजी में फिर भी हाल इतना बुरा नहीं है, भ्रामक सामग्री की भरमार के साथ साथ विश्वसनीय सामग्री भी भरी पड़ी है, बस हमें छांटना आना चाहिए। इसी विषय पर मैंने एक पोस्ट कुछ दिन पहले लिखी थी...(बिल्कुल विश्वसनीय हैल्थ जानकारी हिंदी में मैडलाइन प्लस पर)  और एक कुछ वर्ष पहले लिखी थी (इंटरनेट पर स्वास्थ्य संबंधित जानकारी के लिए वेबसाइटें), और मैं आज भी उन में लिखी सभी बातों पर कायम हूं।

जितनी दुर्दशा हिंदी में उपलब्ध सेहत संबंधी जानकारी की है, उतनी तो शायद..।

कल सुनील दीपक  के ब्लॉग पर एक अच्छी पोस्ट देखने को मिली.......आप भी पढ़िए..  भाषा, स्वास्थ्य अनुसंधान और वैज्ञानिक पत्रिकाएं । हिंदी में सेहत संबधी विषयों पर जानकारी का टोटा है।

नेट पर सेहत से संबंधित विषयों पर बहुत ही खराब किस्म की जानकारी --भ्रामक तरह की-- भरी पड़ी है। ऊपर मैंने मैडलाइन प्लस का लिंक बताया है जहां पर सब कुछ विश्वसनीय ही मिलेगा और काफ़ी कुछ हिंदी में भी।

मुझे लगता है कि नेट पर सेहत की बारे में जुड़ी बातें केवल एक आधार के तौर पर पढ़ ली जाएं ....और आज की पीड़ी जैसे अभ्यस्त हो चुकी है कि फोन करने पर पिज़ा, अगले ही दिन फ्लिप-कार्ट से मंगवाई किताब की डिलिवरी.........ऐसा सेहत के साथ नहीं होना चाहिए......आज कर घर पर ही रक्त की जांच के लिए ब्लड-सैंपल लेने आ जाते हैं, ठीक है, अगर किसी चिकित्सक ने कहा है तो बिल्कुल ठीक है, आप घर पर ही सैंपल दें, लेकिन अपने आप कुछ पढ़ कर नहीं... और न ही अनाप-शनाप दवाईयां नेट से खरीदें।

सी टी स्कैन सैंटरों पर किस तरह से धड़ाधड़ सी टी स्कैन हो रहे हैं, आपको क्या लगता है कि अगर आप किसी सी टी स्कैन सैंटर या एमआरआई सैंटर पर जा कर कहेंगे कि कुछ समय से सिरदर्द जा नहीं रहा, तो क्या आप को लगता है कि वहां पर मौजूद स्टाफ आप को पहले अपने फैमिली फ़िज़िशियन से मिलने का सलाह देगा............बस, आप तो वहां से सी टी या एमआरआई करवा के ही लौटेंगे। करोड़ों रूपयों की मशीनें हैं, सफ़ेद हाथी तो हैं नहीं वे सब। काम करेंगी तो ही बैंकों की भारी किश्तें निकल पाएंगी।

इसलिए मेरी तो यही सलाह है कि नेट पर किसी भी सेहत से जुड़ी जानकारी को ध्यान से पढ़ें, इतना भी ध्यान से नहीं कि उस में लिखी सभी अशुभ एवं अप्रिय बातों को अपने ही शरीर में देखने लगें...... बस, पढ़ना तो ठीक है, लेकिन उस के आधार पर न तो मन में कोई उलझन या भ्रांति ही पैदा होने दें और न ही कोई निर्णय केवल उस पढ़ाई के आधार पर लें।

आप के पास अभी भी कुछ कुछ शहरों में आपका अपना फैमली डाक्टर उपलब्ध है......जो आपके शरीर के बारे में ही नहीं आप के मन के बारे में भी लगभग सब कुछ जानता है, उस पर भरोसा रखें, वह आगे किसी विशेषज्ञ के पास भेजे या कोई टैस्ट-वैस्ट करवाने को कहे तो ही अपना मन बनाएं, वरना सैकेंड ओपिनियन लेने में भी आखिर दिक्कत क्या है। बस, नेट पर दुकानें सजा कर बैठे जालसाज़ों से बच कर रहें, वे बैठे ही बस आप की व्लनेरेबिल्टी का फायदा उठाने के लिए।

एक उदाहरण क्या ध्यान आ गया...... आप ने किसी शारीरिक तकलीफ़ के किसी लक्षण को सर्च किया........आप को उस के पच्चीस कारण पता चल गये, पहली तो बात यह है कि आप कल्पना करेंगे कि जो सब से भयानक कारण है वही आप के केस में होगा, आप बेकार मन ही मन चिंता पाले रहेंगे लेकिन किसी फैमली डाक्टर के जब बात करने पहुंचेंगे तो उस के पके बालों के आधार पर, बीस तीस वर्ष प्रोफैशन में घिसने के आधार पर, और आप की चाल-ढाल देख कर वह दो मिनट में ही शायद आप की चिंता शांत कर दे और कुछ ज़रूरी किस्म के टेस्ट करवा के आप को भरोसा भी दिला दे।

I am reminded of a funny saying ......... Hypochondriacs...beware while reading medical literature. You may die of a misspelling! (हाईपोकांडर्रिक्स उन्हें कहते हैं जो हर समय अपने शरीर में विभिन्न रोगों की कल्पना करते रहते हैं).......

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

नकली दांत कईं बार सैट नहीं बैठते...

महोदय नमस्कार ,अपनी माता जी ,को मैंने एक अच्छे डॉक्टर से डेन्चर लगवाया था जो आज 8 महीने बाद भी सेट नहीं हो पाया है ,वो जब भी उसे लगाकर कुछ खा ले..  तो कई दिन तक मसूड़ों में जख्म हो जाते है ,डॉक्टर कहते है ऐसे ही मसूड़े पकेंगे ,अब तंग आकर वो उसका इस्तेमाल ही नहीं करती ,क्या वही डेन्चर सेट हो सकता है ?

उस डॉक्टर की काबिलियत पर मुझे शक है ...


यह प्रश्न एक जेंटलमेन ने इस ब्लॉग पर लिखी एक पोस्ट पर टिप्पणी के रूप में लिखा। जब मैं उन्हें इस का जवाब लिखने लगा तो मुझे लगा कि यह तो एक पोस्ट ही बन गई है जिस से दूसरों का भी फॉयदा हो सकता है, तो जनाब आप भी पढ़िए....

मैंने आप की माता जी की समस्या पढ़ी। कईं बार ऐसा होता है विशेषकर महिलाओं में कि वे या तो खराब-हिलते हुए दांत उखड़वाने में देर करती रहती हैं या फिर निकलवाने के बाद नकली दांत लगवाने में देर कर देती हैं. इस कारण से और वैसे भी  बहुत सी भारतीय महिलाओं में जबड़े की हड्‍डी इतनी अच्छी हालत में बचती नहीं, कहने का मतलब कि वह इतनी अच्छी नहीं रह पातीं कि उस पर नकली दांत टिक पाएं...... 

बहरहाल, यह समस्या महिलाओं में अधिकतर नीचे वाले नकली दांतों के सैट के साथ ज़्यादा आती है.... लिखिएगा कि क्या उन्हें भी नीचे वाले सैट से ही समस्या है। 

एक बात और अगर आप चाहें या मुनासिब समझें तो उन के नकली दांतों की एक फोटू और अगर अपने खींच सकें तो उन के मुंह के अंदरूनी हिस्से की एक फोटो ---बिना दांतों के ..... ऊपर और नीचे वाले मसूड़ों की अलग अलग, मुझे भेज दें। 
वे तस्वीरें देखने से ही काफ़ी अंदाज़ा हो जाएगा। 

चिंता न करें......हर बात का समाधान हो जाता है। मैं उस अनजान दंत चिकित्सक का पक्ष नहीं ले रहा हूं लेकिन अगर हड्डी ही कमजोर होगी तो नकली दांतों को टिकने में दिक्कत तो होती ही है. शायद उस ने पहले बता ही दिया होगा। 

मेरे विचार में बिना मरीज़ को देखे, बिना कोई तस्वीर देखे, इतना ही पढ़ने से आप को काफ़ी अंदाज़ा लग गया होगा। 

और एक बात कि अगर आप की मां जी ने उस सैट को निकाल कर बाहर रख दिया है, तो ठीक ही किया है, इस तरह के सैट से जो बार बार जख्म मुंह में हो जाते हैं ये असहनीय दर्द देते हैं......वैसे उन के मुंह के जख्मों के लिए तीन चार दवाईयां लिख रहा हूं..Dentogel/Dologel/Zytee/Emergel..इन में से कोई भी एक ले कर उन्हें कहें कि हाथ धोने के बाद उस जख्म में लगा दें और पांच मिनट बाद थूक दें। 

ध्यान दें कि हाथ धोने के बाद वे उसे टावल आदि से पोंछें नहीं, बल्कि एक-दो मिनट में अपने आप हाथ सूखने के बाद ही उस दवाई की दो बूंदे उस जख्म पर लगाएं। 

शुभकामनाएं..........और भी कुछ पूछना चाहें तो बेझिझक पूछिए। 

बुधवार, 20 अगस्त 2014

खुरदरे मंजन बिगाड़ देते हैं दांतों का हुलिया

जब हम लोग कालेज में पढ़ते थे और हमें खुरदरे मंजनों के बारे में चंद पंक्तियां पढ़ाई जाती थीं कि इस से दांत नष्ट हो जाते हैं तो हम तरफ़ इतना ज़्यादा ध्यान भी नहीं देते थे क्योंकि उस उम्र में हमें लगता था कि सारा संसार तो बढ़िया पेस्टें ही इस्तेमाल कर रहा है।

लेकिन प्रोफैशन में तीस वर्ष बिताने के बाद अब यह लगने लगा है कि जितना नुकसान तंबाकू-गुटखा-पानमसाला मुंह के अंदर वाले हिस्सों (दांतों का भी)  का कर रहा है, उतना ही नुकसान ये खुरदरे मंजन दांतों का किए जा रहे हैं।

अब प्रोफैशन है, नौकरी है तो बार बार वही बातें महीने में सैंकड़ों मरीज़ों के साथ दोहरानी पड़ती हैं लेकिन अब तो जैसे ऊब सी होने लगी है।

यार इतना भी इन खुरदरे खराब किस्म के मंजनों का क्या प्रेम कि पब्लिक इन्हें छोड़ ही नहीं पाती?......बहुत से मरीज़ तो ऐसे आते हैं जिन के दांतों का हुलिया देख कर मैं उन से दो-तीन मंजनों-पेस्टों के नाम लेता हूं कि क्या आप ये इस्तेमाल कर रहे हैं। अधिकांश केसों में मेरा शक सही निकलता है।

जब हम ने नईं नईं डैंटिस्ट्री पढ़ी तो हमें यह लगता था कि यार ये जो लोग बसों, फुटपाथों में खुली शीशियों में मंजन-वंजन बेचते हैं, केवल यही गड़बड़ हैं, लेकिन जितने भी ये देशी किस्म के मंजन वंजन बेच कर आप को फंसाया जा रहा है, इन में से अधिकांश बेकार ही हैं......until unless proven otherwise!

मुद्दा एक और भी तो है कि अब अगर ये मंजन घर में आते हैं तो छोटे छोटे बच्चे भी इन्हीं मंजनों से दांत कूचने लगते हैं।

खुरदरापन इन मंजनों का ऐसा कि आप अगर अपनी अंगुली से इसे मसलें तो आप को बिल्कुल महीन और बारीक ही लगेगा। लेकिन इन अधिकांश मंजनों में बहुत मात्रा में गेरू-मिट्टी (लाल मिट्टी)  पड़ी रहती है और कुछ में तो तंबाकू भी मिला रहता है और शीशी के ऊपर नहीं लिखा रहता कि इस में तंबाकू भी है।

पब्लिक को गिरफ्त में लेने के लिए इन मंजनों के नाम बड़े भारतीय किस्म के रखे जाते हैं लेकिन ये सब के सब बेकार हैं, यह बात अपने अनुभव के आधार पर लिख रहा हूं। कितने ही मरीज़ रोज़ाना दिखते हैं जिन में इन मंजनों की वजह से दांत घिस जाते हैं और फिर वे दर दर की ठोकरें खाते फिरते हैं उन को रिपेयर करवाने के चक्कर में, नसीब वाले हैं जो यह काम करवा पाते हैं, वरना तो उखड़वाने को ही अधिकतर दांतों का इलाज समझा जाता है।

मुझे अकसर लोग पूछते हैं कि ये मंजन जो किसी बाबा ने या किसी संत ने बनाये हैं, वे कैसे हैं, मैं जब खुरदरे मंजनों की बात कर रहा हूं तो इन सब मंजनों को भी साथ ही में शामिल कर रहा हूं। मेरी माता जी के दांत ठीक ठाक ही थे, लेकिन जब से उन्होंने एक ऐसे ही मंजन और उसी नाम की पेस्ट का इस्तेमाल किया तो लगभग एक-डेढ़ वर्ष के बाद उन के आगे से दांत बुरी तरह से घिस गये और अजीब किस्म के काले-भूरे से दिखने लगे (Dental Staining)....पहले तो मैंने इस तरफ़ ध्यान नहीं दिया, वैसे भी होता है ना......घर का जोगी जोगड़ा.........फिर मुझे उन का यह मंजन और पेस्ट बंद करवाना पड़ा।

देश में बहुत से संत लोग हैं, बाबा हैं, सभी अच्छे  हैं, अच्छा काम कर रहे हैं, इन के बाकी उत्पाद भी ठीक हैं, मैं भी सेवन करता हूं लेकिन टुथपेस्ट या मंजन में इन का क्वालिटी कंट्रोल शून्य के समान है........ऐसा मैं उन लोगों के दांतों की हालत देख कर कह सकता हूं जो इन्हें कुछ ही महीने इस्तेमाल करने पर दांतों की ठंड़ा गर्म  और रंग बिगड़ने आदि जैसी शिकायतों के साथ दंत चिकित्सकों के पास पंक्तियां लगाने लग जाते हैं। दरअसल विभिन्न कारणों की वजह से इन मंजनों-वंजनों की गुणवत्ता पर कोई कंट्रोल रहा ही नहीं है।

तो फिर मेरी सलाह है कि आप किसी भी इंटरनेशनल ब्रांड की बढ़िया किस्म की पेस्ट इस्तेमाल करें......और अपने दांतों की सेहत को सुरक्षित रखें।

अब कोई अगर यह तर्क देना चाहे कि मैं गलत कह रहा हूं.....देशी मंजन ही बढिया हैं, इन से उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई बल्कि उन के दांत बच गए, उन से मैं क्षमा मांगता हूं, मेरे पास इस तर्क का कोई जवाब नहीं है, वैसे भी मैं बहस में कम ही पड़ता हूं। जो मेरा अनुभव रहा हज़ारों दांतों के मरीज़ों के साथ मैंने आप से साझा कर लिया, अगर आप का अनुभव इन मंजनों वंजनों आदि के बारे में कोई अलग है, कोई बढ़िया किस्म का रिजल्ट आपने पाया है तो कमैंट्स में शेयर करिए......... वैसे विशेषज्ञ की बात मान लेनी चाहिए, पते की बात कह रहा हूं।

देश में यह पेस्टों मंजनों का धंधा करोड़ो-अरबों का है, मेरी किसी विशेष पेस्ट के लिए सिफारिश नहीं है।

इन पेस्टों मंजनों के बारे में कुछ साल पहले भी कुछ लिखा था, अभी सर्च करता हूं... अब पता नहीं उस समय क्या लिख दिया था, लेकिन जो भी लिखा होगा---सच ही लिखा होगा, इस की पूरी गारंटी है....... Check this out at the following links......

यह रहा टुथपेस्ट का कोरा सच --भाग एक
यह रहा टुथपेस्ट का कोरा सच - भाग दो 




सोमवार, 18 अगस्त 2014

मुन्ना भाई फसाई..

मुन्ना भाई फसाई...... मुझे भी आज की टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादकीय पन्ने पर यह शीर्षक देख कर थोड़ी हैरानी तो हुई। साथ में ही यह भी लिखा था........मुन्ना भाई फसाई-- जिसे बिरयानी में पंक्षियों की बीट तो पसंद है लेकिन स्विस चाकलेट नापसंद है।
Munna Bhai FaSSAI (Times of India, 18Aug 2014)

दो मिनट उस कॉलम को पढ़ने के बाद बात समझ में आने लगी कि यहां तो भारतीय खाध्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (Food Safety and Standards Authority of India) ...FSSAI....नामक संस्था की बात की जा रही है।
पढ़ते पढ़ते मुझे ध्यान आया कि पंद्रह दिन पहले मैंने भी तो इस संस्था के बारे में कुछ लिखा था......खाद्य पदार्थों में मिलावट की जांच के लिए। 

लिखा तो था मैंने कईं बार इस के बारे में लेकिन मुझे यह बिल्कुल ध्यान नहीं रहता कि लिखा क्या था, अच्छा लिखा था, कहने का मतलब उस के बारे में अच्छा अच्छा लिखा था कि नहीं, यह नहीं याद अब। इसीलिए लिंक ऊपर दे दिया है। वैसे भी जैसे हलवाई अपनी तैयार की हुई मिठाई खाने से परहेज करता है, मैं भी वैसा ही हूं अपने लेख पढ़ने से कतराता ही हूं। कारण आप को बताने की ज़रूरत नहीं।

बहरहाल, जिस तरह से हिंदोस्तान के हर बाज़ार में रेहड़ी, छाबों, फुटपाथों पर खाने पीने की चीज़ें बिकती हैं, कईं बार यही लगता है कि यार इन को आखिर कौन कंट्रोल कर रहा है। बस, इतना ज़रूर सुनते हैं कि जब ज़्यााद गर्मी पड़ती है तो गन्ने का रस बेचने वालों की ऐसी की तैसी हो जाती है, दीवाली या अन्य बड़े त्योहारों के आसपास हलवाईयों की ......या कभी कभी पके फल बेचने वालों पर सेहत विभाग का नजला गिर जाता है। इस के अलावा कभी कभी इधर उधर से घी, मावा, तेल, बेसन आदि के सैंपल तो भरे जाते हैं लेकिन उन में से कितनों को कैद हुई, यह मेरे बताने की ज़रूरत नहीं, आप सभी आंकड़ों से परिचित हैं।

कईं बार होता है मैं बाज़ार में किसी समोसा-कचौड़ी-जलेबी की दुकान पर रूकता हूं........फिर जब हर पीस पर बीसियों मक्खियां भिनभिनाते देखता हूं तो बिना कुछ खरीदे ही वहां से निकल लेता हूं। यह पिछले कुछ महीनों में कईं बार हो चुका है।

यह क्या यह तो मैं अपनी ही रिपोर्ट तैयार करने लग गया। नहीं, नहीं, ऐसी बात नहीं है ...टाइम्स आफ इंडिया के इस कॉलम में भी यही बताया गया है कि देश में हर जगह स्ट्रीट फूड बिक रहा है, हम जितनी मरजी ढींगे मार लें, लेकिन इन विक्रेताओं की क्वालिटी कंट्रोल पर कितना नियंत्रण है, यह भी जगजाहिर है। फिर भी यह सब धड़ल्ले से बिकता रहता है, लोग बार बार बीमार, बहुत बीमार होते रहते है।

टाइम्स आफ इंडिया का यह कॉलम मैंने पढ़ा तो है, लेकिन मेरी इंगलिश इतनी अच्छी नहीं है कि मैं सब कुछ अच्छे से समझ लूं। पर जो मैं बात अच्छे से समझ गया हूं यह जो संस्था है फसाई इसे देश की इस तरह के खुले में, धूल मिट्टी में तर-बतर खाद्य पदार्थों की तरफ़ तो देखने की इतनी फुर्सत नहीं है लेकिन बाहर से जो आयात की गई खाने-पीने की वस्तुएं आती हैं .... करोड़ों-अरबों का माल विभिन्न बंदरगाहों पर रूका रहता है क्योंकि इस फसाई संस्था द्वारा कोई न कोई आपत्ति लगी होती है।

"FSSAI was given the mandate to make eating safer. But it is for a reason that trade calls it FaSSAI, HIndi for 'trapped'! "... (from the column) 
और फसाई के साथ मुन्ना भाई लगने का अभिप्राय तो आप जानते ही हैं।

कॉलम में लिखा है किस तरह से इस कार्यालय के अंदर आयात किये जाने वाले खाद्य पदार्थों पर नियंत्रण पर मंथन होता है और उसी दफ्तर के बाहर कुलचे-छोले बेचने वाले से उसी दफ्तर में काम करने वाला बाबू लंच के समय वहीं पर यह सब खाता है और बार बार साथ में हरी मिर्च की फरमाईश करता है।

अच्छा लगा यह कॉलम देख कर, बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता दिखता है।

लगता है आप का ज़ायका तो खराब हो गया यह पढ़ कर......यह बात तो ठीक नहीं है, आज कृष्ण जन्माष्टमी है......शुभ दिन है, ज़ायका अभी ठीक किए देते हैं...... अभी अभी अनूप जलोटा जी के एक कार्यक्रम से लौटा हूं.....एक घंटे से भी ज़्यादा उन्हें लाइव सुनने का सौभाग्य मिला आज .......एक बहुत ही अच्छा अनुभव रहा.....उन के सभी सुप्रसिद्ध भजन सुन कर मज़ा आ गया..........कभी कभी भगवन को भी भक्तों से काम पड़े......

कछुओं की तस्करी......लखनऊ टू मुंबई

लखनऊ में सब्जियां अच्छी मिलती हैं, आम भी अच्छे मिलते हैं, जून-जुलाई के महीने में तो भरमार होती है आमों की..... हर तरफ़ ये आम ही आम दिखते हैं बाज़ारों में।

मैं अकसर कईं बार सोचा करता हूं जिस तरह की सब्जियां या आम यहां दिखते हैं अगर ये बंबई जैसे शहरों में भेजे जाएं तो किसानों या व्यापारियों को काफ़ी मुनाफ़ा हो सकता है।

पता नहीं लखनऊ के कितने आम बंबई पहुंचते हैं या नहीं, लेकिन आज दैनिक जागरण से यह पता तो चल ही गया कि किस तरह से लखनऊ से बंबई दिल्ली जाने वाली पुष्पक एक्सप्रेस में कछुओं की तस्करी रूकने का नाम ही नहीं ले रही।

दो साल में एक हज़ार से ज्यादा कछुए लखनऊ जंक्शन पर पकड़े जा चुके हैं। सोचने वाली बात यह है कि अगर हज़ार पकड़े गये हैं तो कितने हज़ार (या फिर लाख..) तो मुंबई पहुंच चुके होंगे।

परसों इसी गाड़ी के जनरल कोच में २८६ कछुए लावारिस हालत में एक बोरे में बरामद किये गये। इन्हें बाद में चिड़ियाघर में छोड़ दिया गया।

लावारिस तो कहने को हुआ......जिस का होगा, अब वह कैसे कहे कि यह उस का है। वह पट्ठा भाग खड़ा हुआ होगा। सूत्रों का कहना है कि छोटे कछुओं को होटलों में सप्लाई करने के लिए मुंबई ले जाया जाता है।

पता नहीं ये तस्कर क्या करते होंगे इन कछुओं का, लेकिन यह इतना आसान सा षड़यंत्र भी नहीं लगता कि यहां से गये और वहां होटलों में बिक गये। ज़रूर कुछ न कुछ काला रहस्य तो होगा इस कारोबार के पीछे।

मुझे अच्छे से ध्यान में नहीं आ रहा....याद भी बिल्कुल नहीं आ रहा ...लेकिन धुंधला सा याद है कि कहीं पढ़ा था कि ये कछुए विदेशों में बहुत ज़्यादा दामों में बिकते हैं........इन्हें कुछ अनाप-शनाप दवाईयां भी बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है,  मुझे ऐसा ध्यान आ रहा है।

इन जीवों का बंबई जाने पर क्या हश्र होता है ..क्या नहीं होता, लेकिन एक बात तो बहुत अहम् है कि इतने सारे कछुओं को जब उन को प्राकृतिक आवास (natural habitat) से उठा लिया जाता है तो यह पर्यावरण के संतुलन (ecological balance)  को गड़बड़ाने का एक अन्य साधन ही है।

इस तरह से चुराये गये कछुओं का क्या होता है, कुछ आप ने भी कहीं पढ़ा-सुना हो तो कमैंट में लिखियेगा। 

नकली पान मसाले का गोरखधंधा ज़ोरों पर

आज की दैनिक जागरण के लखनऊ संस्करण में एक मुख्य खबर दिखी..... जिस का शीर्षक था... बिक गया तो असली पकड़ा गया तो नकली। और यह खबर नकली पान मसाले के बारे में थी।

पान मसाला कारोबारियों के लिए असली-नकली का खेल मुनाफा कमाने का धंधा बन गया है। जब तक बाजारों में बिना किसी रोक टोक पान मसाला बिकता रहता है, किसी कंपनी को इसकी फिक्र नहीं रहती है लेकिन जैसे ही माल पकड़ा जाता है, उसे नकली करार देने की होड़ शुरू हो जाती है।

इस खबर में इस तरह के अन्य केसों का भी उल्लेख किया गया है, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की जाती।

आप को यह खबर पढ़ कर कैसा लगा। मुझे तो कुछ ज़्यादा अजीब नहीं लगा। जब कारोबारी किसी भी अन्य चीज़ को नहीं बख्शते.......ऐसे में वे पान मसाले जैसी धड़ा-धड़ बिकने वाली वस्तु को कैसे अपने लालच से अछूता रख सकते हैं।
इस तरह की खबरें मैं पहले भी कईं बार देख चुका हूं।

सोच कर भी लगता है कि जो हानिकारक पदार्थ पहले ही से खाने-चबाने वाले की सेहत को बुरी तरह से खराब कर देने की क्षमता रखती हो, उस में भी मिलावट।

इस मिलावट से तो बस वह ध्यान आ गया कि किसी ने नकली ज़हर खा लिया और उस की जान बच गई।

पान मसाला जैसे पदार्थ इसे इस्तेमाल करने वाली की सेहत को जितना बिगाड़ देते हैं ..अब सोचिए कि अगर उस में भी मिलावट हो तो फिर इसे खाने वाले का क्या होगा।

बहरहाल, यह खबर मैंने आप तक ऐसे ही पहुंचा दी --मन किया.....लेकिन यह मेरे को कोई विशेष खबर लगती नहीं है क्योंकि हर पान मसाला खाने-चबाने वाला अच्छे से जानता है कि वह आग से खेल रहा है, फिर भी खेलता है ...और उस आग में मिलावट है या नहीं, इस तरफ़ देखने की फुर्सत ही किसे है। बस गुटखे-पान मसाले की एक हवस है, वह पूरी होनी चाहिए। 

शनिवार, 16 अगस्त 2014

पानमसाला जिन की जान नहीं भी ले पाता....

कुछ दिन पहले मेरे पास एक आदमी आया --कहने लगा कि उस की बीवी को मुंह में कुछ शिकायत है। मैंने कहा- ठीक है, ले आओ कभी भी। झिझकते हुए कहने लगा कि उसे पानमसाला खाने की लत है और आप उसे मत झिड़कियेगा, आप ने जो कहना होगा बाद में मुझे कह लीजिएगा। वह कमजोर दिल वाली है। मैंने इस तरह की रिक्वेस्ट पहली बार सुन रहा था। मैंने कहा --नहीं, नहीं, तुम चिंता न करो.....मैं तो उसे क्या तुम्हें भी कुछ नहीं कहूंगा। अब कोई क्या खा-पी रहा है, उस पर मेरा कोई कानूनी नियंत्रण थोड़े ही ना है।

बहरहाल, दो तीन दिन पहले वह मेरे पास अपनी बीवी को ले आया--- ३३-३४ साल की उम्र.. मुंह खुल नहीं रहा था, बिल्कुल भी नहीं, बस इतना कि दूध-चाय में बिस्कुट डुबो कर अंदर डाल ले। दुःख होता है इस तरह के मरीज देख कर......वैसे सेहत बिल्कुल ठीक ठाक और इतनी छोटी उम्र में ऐसा लफड़ा।

फिर उसने मेरे सामने अपने पुराने पेपर कर दिए.....जिस से मुझे पता चला कि २००७ में भी उसने कुछ इलाज तो लिया था। वह बताने लगी कि उस समय मेरे मुंह में तीन अंगुली चली जाती थी और अब एक अंगुली भी नहीं जा पाती। मुंह के लगभग ना के बराबर खुलने की बात तो मैं पहले ही कर चुका हूं।

इलाज के नाम पर वही मुंह में घाव के ऊपर लगाने वाली कुछ दवाईयां, गुब्बारे फुलाने वाली एक्सरसाईज़........कुछ नहीं होता वोता इन सब से.......अगर ना तो पानमसाला ही छोड़ा जाए और न ही अगर किसी ढंग की जगह से --मेरे कहने का मतलब है ओरल सर्जन से इस का उपचार न करवाया जाए....कुछ नहीं होता इस तरह के घरेलू उपायों से।

मुझे अफसोस इस बात का हुआ कि सात वर्ष थे इस के पास --- कितना समय नष्ट हो गया, न तो इसने पानमसाला ही छोड़ा और न ही इस ही यह किसी विशेषज्ञ से इलाज करवा पाई। अब तीन दिन पहले उसने पानमसाला छोड़ दिया है।
उस के बाद वह फिर २००९ में भी किसी डाक्टर के पास गई जिसने उसे एक डैंटल कालेज में रेफर किया , लेकिन किसी कारण वश वह वहां पर भी न गई।

ऐसे केस मैं देखता हूं कि मुझे लगता है कि मरीज की गलती तो है ही कि वह यह मसाला-वाला छोड़ नहीं रहा, डाक्टर का भी क्या हुनर कि वह एक इंसान का इतना ब्रेन-वॉश न कर पाए कि उसे मसाले से नफ़रत हो जाए। यहां चिकित्सक भी फेल हुआ..।

मैंने जब पूछा कि कब से खा रही हैं मसाला......तो उसने जो बताया वह संदेश आप सब को भी जानने की ज़रूरत है कि औरतों को किस किस हालात में यह लत लग जाती है ताकि आप औरों को भी सचेत कर सकें।

उसने बताया कि शादी से पहले उसने कभी कुछ इस तरह का नहीं खाया.......२१ वर्ष की उम्र में जब वह पेट से थी और गांव में रहती थी तो उसे थोड़ी बेचैनी होने लगती तो बस उसे पानमसाले की आदत पड़ गई। लेकिन कुछ महीनों के बाद जब उस का पहला बेटा हुआ तो उसने फिर यह खाना बंद कर दिया।

दो साल बाद जब वह फिर से उम्मीद से हुई तो फिर उसे पानमसाले की आदत पड़ गई......लेकिन फिर दूसरा बच्चे होने पर इसे छोड़ दिया। लेकिन तीसरा बच्चा होने पर फिर उस के बाद वह इस आदत को छोड़ न पाई और निरंतर ५-६ पाउच पानमसाले के चबाती रही । ऐसे ही तीन चार साल चबाने के बाद जब मुंह खुलना कम होने लगा तो फिर दंत चिकित्सक के पास पहुंच गई। बाकी की बात तो मैंने पहले आप को सुना ही दी है। अब इस का पूरा इलाज होगा किसी ओरल सर्जन की देख रेख में।

अब पढ़ने वाले यह मत सोच लें कि यह तो ६ पैकेट खाती रही, हम तो चार ही खाते हैं, इस ने तो इतने वर्ष खाए, हम ने तो ३-४ वर्ष ही खाए हैं, इसलिए हम तो सुरक्षित हैं, नहीं ऐसा नहीं है,  आज ही कहीं नोट कर लें कि गुटखा-पानमसाला खाने वाला कोई भी सुरक्षित नहीं है। हां, अगर आप अपनी किस्मत अजमाने के चक्कर में हैं, तो फिर आप को कौन रोक सकता है।

इस पोस्ट से मैं एक बात और रेखांकित करना चाहता हूं कि इस तरह की तकलीफ जैसी की इस औरत में पाई गई (सब-म्यूक्स फाईब्रोसिस) --यह कैंसर की पूर्व-अवस्था है....और ऐसे हर केस में कैंसर बनेगा, यह नहीं है, लेकिन किस में बनेगा, यह पहले से कोई नहीं बता सकता। वैसे भी अगर कैंसर डिवेल्प होने से ऐसे मरीज बच भी जाएं तो क्या इतना लंबा और महंगा इलाज, मुंह में बार बार तरह तरह के टीके लगवाने, मुंह के अंदर चमड़े की तरह जुड़ चुकी मांसपेशियों को खोलने के लिए किए जाने वाले आप्रेशन........क्या हर कोई करवा सकता है, क्या हर एक के पास इतना पैसा है या विशेषज्ञ इतनी आसानी से मिल जाते हैं ? और तौ और खाने पीने की बेइंतहा तकलीफ़, दांत साफ़ न करने का दुःख, आप बस एक क्लपना सी करिए की मुंह न खुलने पर किसी को कैसा लगता होगा, और कौन कौन से काम वह बंदा करने में असमर्थ होगा, आप सोच कर ही कांप उठेंगे। है कि नहीं?

लिखता रहता हूं इस तरह के ज़हर के बारे में क्योंकि रोज़ इस ज़हर से होने वाली तकलीफ़ों से लोगों को तड़फते देखता हूं.........इतना तो आप मेरा ब्लॉग देख पढ़ कर समझ ही चुके होंगे कि इस में आप किसी भी पेज को खोल लें, केवल सच और सच के सिवा कुछ भी नहीं लिखा, मुझे क्या करना है किसी भी बात को बढ़ा चढ़ा कर लिखने से, मैं कौन सा आप से परामर्श फीस ले रहा हूं.  केवल जो सच्चाई है, जो सीखा है उसे आप के साथ साझा करने आ जाता हूं, मानो या ना मानो, जैसी आप की खुशी।

एक बात और ......पिछले सप्ताह एक आदमी आया........पानमसाला उसने १९९५ में छोड़ दिया था जब उस का मुंह खुलना कम हुआ....... ऐसा उसने मेरे को बताया, अब उस के मुंह में गाल के अंदर एक घाव था, मुझे वह घाव अजीब सा लगा, मैंने कहा कि इस का टुकड़ा लेकर टेस्ट करना होगा। कहने लगा कि वह तो उसने करवा लिया है सरकारी कालेज से ...रिपोर्ट लेकर आया तो मुझे बहुत दुःख हुआ.......वह घाव मुंह के कैंसर में बदल चुका था. मैंने उसी दिन उसे मुंबई के टाटा अस्पताल में जाने की सलाह दी, लेकिन वह आज तक लौट कर नहीं आया।

मुझे कईं बार लगता है कि ये तंबाकू, गुटखा, पानमसाला भी एक बहुत बड़े आतंकवाद का हिस्सा है, लगभग हर कोई खाए जा रहा है, इस उम्मीद के साथ कि इस के दुष्परिणाम तो दूसरों में होंगे, उसे तो कुछ नहीं होगा........अगर ऐसा कोई विचार भी मन में आ रहा है या कभी भी आया हो मैं अपने इस विषय पर लिखे अन्य लेखों के लिंक्स यहां लगा रहा हूं........हो सके तो नज़र मार लीजिएगा।

और एक बात...ऐसे केस इक्का-दुक्का नहीं हैं दोस्तो, आते ही रहते हैं, रोज़ ही आते हैं, इसलिए अगर पान-पानमसाला, गुटखा, तंबाकू-- खाने,पीने,चूसने,चबाने,दबाने के बावजूद भी अभी तक बचे हुए हैं तो तुंरत इसे थूक डालिए और किसी अनुभवी दंत चिकित्सक से अपने मुंह की जांच करवाईए........फायदे में रहेंगे। लाख टके की बात बिल्कुल मुफ्त में बता रहा हूं।

चमड़ी को चमड़ा बनने से पहले --- पानमसाले को ...
मुंह न खोल पाना एक गंभीर समस्या 
दो वर्षों में भी अपना काम कर लेता है गुटखा..
मीडिया डाक्टर: गुटखा छोड़ने का एक जानलेवा ...
काश, किसी तरह भी इस लत को लात पड़ जाये
मीडिया डाक्टर: तंबाकू --- एक-दो किस्से ये भी ...

सी टी स्कैन का दिन प्रतिदिन बढ़ता धंधा

बीबीसी की यह न्यूज़-रिपोर्ट पढ़ कर कुछ ज़्यादा अचंभा नहीं हुआ कि वहां पर २०१२ में बच्चों में किए जाने वाले सी टी स्कैनों की संख्या दोगुनी हो कर एक लाख तक पहुंच गई।

रिपोर्ट पढ़ कर और तो कुछ ज़्यादा आम बंदे को समझ नहीं आयेगा लेकिन वह इतना तो ज़रूर समझ ही जायेगा कि कुछ न कुछ तो लफड़ा है ही।

Sharp rise in CT scans in children and adults

समझ न आने का कारण है कि रिपोर्ट में कुछ कह रहे हैं कि यह ठीक नहीं है, कुछ कह रहे हैं कि नहीं जिन बच्चों को ज़रूरत थी उन्हीं का ही सी टी स्कैन करवाया गया है, खिचड़ी सी बनी हुई है।

लेिकन एक बात जो सब को अच्छे से समझने की ज़रूरत है कि बिना वजह से करवाए गये सी टी स्कैन का वैसे तो हर एक को ही नुकसान होता है, लेकिन बच्चों को इस से होने वाले नुकसान का सब से ज़्यादा अंदेशा रहता है क्योंकि उन का जीवन काल अभी बहुत लंबा पड़ा होता है।

इस रिपोर्ट में एक २०१२ की स्टडी का भी उल्लेख है जिसमें यह पाया गया कि अगर बच्चों के सी टी स्कैन बार बार किए जाएं (१० या उस से अधिक) तो उन में रक्त  एवं  दिमाग का कैंसर होने का रिस्क तिगुना हो जाता है।

अब सोचने वाली बात यह है कि यह पढ़ कर सभी मां बाप कहेंगे कि हमें पता कैसे चले कि डाक्टर जो सी टी स्कैन के लिए लिख रहा है, उस जांच की मांग उचित है या नहीं। वैसे भी बच्चा बीमार होने पर मां-बाप अपनी सुध बुध सी खोए रहते हैं और ऐसे में यह कहां से पता चले कि सीटी स्कैन करवाना उचित है कि नहीं, इस की ज़रूरत है भी कि नहीं।

बिल्कुल सही बात है यह निर्णय मां-बाप के लिए लेना मुमकिन बिल्कुल भी नहीं है।

लेकिन एक बात तो मां-बाप कर ही सकते हैं कि छोटी मोटी तकलीफ़ों के लिए बच्चे को बड़े से बड़े विशेषज्ञ के पास या बड़े कार्पोरेट अस्पतालों में लेकर ही न जाएं, सब से पहले अपने पड़ोस के क्वालीफाइड फैमली डाक्टर पर ही भरोसा रखें, यकीनन वह अधिकतर बीमारियों को ठीक करने में सक्षम है। अगर किसी बड़े टेस्ट की ज़रूरत होगी तो वह बता ही देगा।

और मुझे ऐसा लगता है कि यह मंहगे महंगे टेस्ट अगर किसी ने लिखे भी हैं, तो भी अगर समय की कोई दिक्कत नहीं है तो भी किसी दूसरे डाक्टर से परामर्श कर ही लेना चाहिए।

वैसे यह सब कुछ कर पाना क्या उतना ही आसान है जितनी आसानी से मैं लिख पा रहा हूं। बहुत मुश्किल है मां -बाप के लिए डाक्टर के कहे पर प्रश्नचिंह लगाना.......बहुत ही कठिन काम है।

यू के की बात तो हमने कर ली, लेकिन अपने यहां क्या हो रहा है, रोज़ हम लोग अखबारों में देखते हैं, टीवी पर सुनते हैं। कुछ कुछ गोरखधंधे तो चल ही रहे हैं।

एक बात जो मैंने नोटिस की है कि भारत में लोग पहले किसी गांव के नीम-हकीम झोला छाप के पास जाते हैं जिसने सीटी स्कैन या एमआरआई का बस नाम सुना हुआ है, बस वह हर सिरदर्द के मरीज़ को सीटी स्कैन और हर पीठ दर्द के मरीज़ को एमआरआई करवाने की सलाह दे देता है। इन नीम हकीमों तक ने भी सैटिंग कर रखी होती है...... और यह सैटिंग ज़्यादा पुख्ता किस्म की होती है। समझ गये ना आप?

अब अगर तो यह मरीज़ किसी सही डाक्टर के हाथ पड़ जाता है तो वह उसे समझा-बुझा कर उस की सेहत और पैसा बरबाद होने से बचा लेता है, वरना तो......।

बीबीसी की इसी रिपोर्ट में आप पाएंगे कि यह मांग की जा रही है वहां यूके में किस सीटीस्कैन सैंटर ने वर्ष में कितने सीटीस्कैन किए और मरीज़ों की एक्सरे किरणों की कितनी डोज़ दे कर ये सीटीस्कैन किए जा रहे हैं, इस की पूर्ण जानकारी सरकार को उपलब्ध करवाई जाए। इस तरह के उपाय क्या भारत में भी शुरू नहीं किये जा सकते है या अगर शुरू हो भी गये तो इन का बेवजह किए जाने वाले सीटी स्कैनों की निरंतर बढ़ रही संख्या पर क्या प्रभाव पड़ेगा, यह भी एक प्रश्न ही है।

अंत में बस यही बात समझ में आ रही है कि अपने फैमिली फ़िज़िशियन पर भी हम लोग भरोसा करें......... और महंगे टैस्ट करवाने के लिए कहे जाने पर.....जिन के बार बार करवाने से नुकसान भी हो सकता है----ऐसे केस में हमें दूसरे चिकित्सक से ओपिनियन लेने में नहीं झिझकना चाहिए। यह नहीं कि दूसरे डाक्टर की फीस २०० रूपये है और यह टैस्ट तो ८०० रूपये में हो जायेगा, बात पैसे की नहीं है, बात सेहत की सुरक्षा की है कि बिना वजह एक्सरे किरणें शरीर में जा कर इक्ट्ठी न हो पाएं, किसी तरह की जटिलता न पैदा कर दें।

कुछ अरसा पहले भी मैंने इस विषय पर कुछ लिखा था, ये पड़े हैं वे लिंक्स........

सी.टी स्कैन से भी होता है ओवर-एक्सपोज़र
मीडिया डाक्टर: ओव्हर-डॉयग्नोसिस से ओव्हर ...

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

पायरिया का इलाज

आज मैं नेट पर घूमते हुए एक सेहत से संबंधित साइट पर पहुंच गया....वहां एक लिंक दिखा कि पायरिया का इलाज कैसे करें.....मैंने सोचा देखते हैं क्या लिखा है, उत्सुकता हुई।

मैं उस साइट पर पायरिया के बारे में अजीब अजीब बातें पढ़ कर हैरान-परेशान हो गया। सब कुछ गलत लिखा हुआ था। पहले तो लिखा था कि आप नमक, तेल और हल्दी बस एक दिन के इस्तेमाल कर लें, पायरिया खत्म हो जायेगा। और साफ साफ लिखा था कि अगर यह काम तीन दिन कर लिया तो समझो पायरिया सारी ज़िंदगी के लिए भाग जाएगा।
और भी अजीब अजीब सी बातें....... कि पायरिया ठीक करने के लिए तंबाकू लेकर उसे जलाया जाए, फिर उसे मसूड़ों पर लगाया जाए।

मैं जानबूझ कर उस वेबसाइट का लिंक यहां नहीं दे रहा..... ठीक नहीं लगेगा.......पर केवल यह संदेश देना चाहता हूं कि िजस का काम उसी को साजे।

हिंदी ऑनलाइन लेखन बड़ी संवेदनशील सा विषय है। इसलिए अनुरोध है कि हम जिस क्षेत्र से जुड़ें हैं, जो काम करते करते हमारे बाल पक गये, अगर हम उन्हीं विषयों के बारे में लिखेंगे तो पढ़ने वाले को तो लाभ होगा ही, हमारी विश्वसनीयता भी बढ़ेगी।

यह भी ज़रूरी नहीं कि हम अपने विषय में बिल्कुल परफैक्ट ही हों तभी लिखें, नहीं.......... जो कुछ भी ठीक तरह से जानते हैं, बस उसे ही लिख कर अगली पीढ़ियों के लिए नेट पर सहेज कर रख दें तो बढ़िया है। वैसे तो हम किसी भी विषय पर लिखने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन अगर हम अपने विषय तक ही सीमित रहेंगे तो बेहतर होगा....वैसे नेट से कुछ भी ढूंढ-ढांढ कर कापी-पेस्ट करना कौन सा मुश्किल काम है ...लेकिन ना ही तो यह चलता है और वैसे भी ऐसा करने की क्या मारा-मारी पड़ी है।

कहानीकार हैं तो कहानियों से ही पाठकों को गुदगुदाएं, व्यंग्यकार हमें अपनी रचनाओं से लोटपोट करते हैं, कवि बंधु कविताए, तकनीकी विशेषज्ञ अपने तकनीकी विषयों पर लिखें.........ऐसे ही जो भी लोग जो काम कर रहे हैं या जिस क्षेत्र से जुड़े हैं, जब वे उस विषय के बारे में लिखते हैं तो सहजता से यह काम कर पाते हैं।

वैसे ये मेरे विचार हैं, बिल्कुल फिजूल भी हो सकते हैं, हर बंदा अपनी कलम का राजा है, जो चाहे लिखे........कौन किसे रोक सकता है लेकिन कईं बार गुमराह करने वाली सामग्री दिख जाती है तो बहुत दुःख होता है जैसा कि मैंने पायरिया के इलाज के बारे में आज नेट पर जो देखा। जिस के बारे में अच्छे से पता हो, जिस का पूरा ज्ञान हो, उसी के बारे में लिखा जाए और विशेषकर जब यह मामला लोगों की सेहत का हो तो और भी सचेत रहने की ज़रूरत है.....क्योंकि जिस तरह से मैंने उस पोस्ट पर कमैंट देखे, आठ दस, मुझे और भी दुःख हुआ ...सबने लिखा था...बड़ी उपयोगा पोस्ट.. बड़ी अच्छी जानकारी।

चलिए, इस टापिक को इधर ही विराम दें, और पायरिया के बारे में आप सब को हिंदी के कुछ अच्छे लेखों का लिंक देकर आप से विदा लूं........

मीडिया डाक्टर: मसूड़ों से खून निकलना.....कुछ 
बहुत ही ज़्यादा आम है मसूड़ों से खून आना
मीडिया डाक्टर: पान से भी होता है पायरिया
यह रहा टुथपेस्ट/टुथपावडर का कोरा सच......भाग II

मोटापे से बढ़ जाता है दस तरह के कैंसर होने का रिस्क

यह तो अब लोग जान ही गये हैं कि मोटापे से अन्य तकलीफ़ों --जैसे कि मधुमेह (शक्कर रोग, शूगर), हाई-बल्ड प्रैशर (उचित रक्त चाप), जोड़ों की तकलीफ़ और कैंसर जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है।

एक वैज्ञानिक स्टडी जो कि ५० लाख लोगों पर की गईं, अब उस से भी यही निष्कर्ष निकला है कि मोटापे का मतलब कि कैंसर होने का ज़्यादा रिस्क.......इस की विस्तृत जानकारी आप इस लिंक से पा सकते हैं...... Being overweight or obese linked to 10 common cancers.

चलिए, थोड़ी सी बात करते हैं मोटापे को कंट्रोल करने की। वैसे तो मैं इस के लिए बात करने के लिए कोई ज़्यादा बढ़िया रोल-माडल नहीं हूं ..क्योंकि मेरा अपना वज़न भी मेरे आदर्श वजन से १०-१५ किलो ज्यादा ही है......कल ही करवाया है यह ९२ किलो आया है।

लेकिन फिर भी जब मैं अपने खाने पीने पर कंट्रोल करता हूं तो एक-दो महीने में ही दो एक किलो वजन कम हो जाता है, लेकिन बहुत बार मैं उस रूटीन पर टिक नहीं पाता......

चलिए जिन बातों को मैंने वजन को कंट्रोल करने के लिए बहुत लाभदायक पाया है, उन की चर्चा ही कर लेते हैं....

  • चाय, दूध, लस्सी को बिना चीनी के फीका पीना........ इस से चीनी की मात्रा काफ़ी कम हो जाती है। कोल्ड ड्रिक्स बिल्कुल नहीं और बाज़ार से मिलने वाले बोतलबंद ज्यूस भी बहुत कम.....सारे साल में एक-दो बार।
  • नाश्ते में तले परांठे बिल्कुल बंद.......नहीं तो कभी १५ दिन या एक महीने में एक बार ले लिए तो ले लिये। 
  • जंक फूड पर टोटल नियंत्रण -- मैं यह काम आराम से कर लेता हूं। 
  • बिस्कुट -- भी ब्रिटानिया के मैरी जैसे ---हल्के मीठे वाले ज़्यादा ठीक रहते हैं। 
  • और रोज़ाना शारीरिक परिश्रम...... पैदल टहलना, साईकिल चलाना या जो भी आप अपनी पसंद का करना चाहें। 
ये छोटी छोटी बातें दिखती हैं, लेकिन वजन कम करने में बहुत सहायक हैं। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है।

मोटापे पर मेरी कुछ पोस्टें ये भी हैं.....
 सेब जैसा मोटापा पहुंचाता है ज़्यादा नुकसान

ज़्यादा नमक का सेवन कितना खतरनाक है....

इस का जवाब आज की टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले पन्ने पर मिलेगा कि ज़्यादा नमक के सेवन से हर वर्ष कितने लाखों लोग अपनी जान गंवा रहे हैं.....ज़्यादा नमक खाने का मतलब सीधा सीधा -- उच्च रक्त चाप (हाई ब्लड-प्रेशर) और साथ में होने वाले हृदय रोग। आप इस लिंक पर उस न्यूज़-रिपोर्ट को देख सकते हैं......बड़ी विश्वसनीय रिपोर्ट जान पड़ रही है.....अब इस रिपोर्ट के पीछे तो किसी का कोई वेस्टेड इंट्रस्ट नज़र नहीं ना आ रहा, लेकिन हम मानें तो....
 1.7 million deaths due to too much salt in diet

 भारत में तो लोग और भी ज़्यादा ज़्यादा नमक खाने के शौकीन हैं.... आप इस रिपोर्ट में भी देख सकते हैं। यह कोई हैरान करने वाली बात नहीं है..क्योंकि जिस तरह से सुबह सवेरे पारंपरिक जंक फूड--समोसे, कचोरियां, भजिया.... यह सब कुछ सुबह से ही बिकने लगता है..... और जिस तरह से वेस्टर्न जंक फूड--बर्गर, पिज्जा, नूड्लस.... और भी पता नहीं क्या क्या.......आज का युवा इन सब का आदि होता जा रहा है, इस में कोई शक नहीं कि २० वर्ष की उम्र में भी युवा  मोटापे और हाई-ब्लड-प्रैशर का शिकार हुए जा रहे हैं.

दरअसल हम लोग कभी इस तरफ़ ध्यान ही नहीं देते कि इस तरह का सारा खाना किस तरह से नमक से लैस होता है, जी हां, खराब तरह के फैट्स (वसा) आदि के साथ साथ नमक की भरमार होती है इन सब से। और किस तरह से बिस्कुट, तरह तरह की नमकीन आदि में भी सोडियम इतनी अधिक मात्रा में पाया जाता है और हम लोग कितने शौकीन हैं इन सब के.....यह चौंकाने वाली बात है। आचार, चटनियां भी नमक से लैस होती हैं। और कितने दर्ज़जों तरह के आचार हम खाते रहते हैं। ज़रूरत है कि हम अभी भी संभल लें.......वरना बहुत देर हो जाएगी।

और एक बात यह जो आज के युवा बड़े बड़े मालों से प्रोसैसड फूड उठा कर ले आते हैं....रेडीमेड दालें, रेडीमेड सब्जियां, पनीर ...और भी बहुत कुछ मिलता है ऐसा ही, मुझे तो नाम भी नहीं आते.....ये सब पदार्थ नमक से लबालब लैस होते हैं।

मैं अकसर अपने मरीज़ों को कहता हूं कि घर में जो टेबल पर नमकदानी होती है वह तो होनी ही नहीं चाहिए...अगर रखी होती है तो कोई दही में डालने लगता है, कोई सब्जी में, कोई ज्यूस में....... नमक जितना बस दाल-साग-सब्जी में पढ़ कर आता है, वही हमारे लिए पर्याप्त है। और अगर किसी को हाई ब्लड-प्रैशर है तो उसे तो उस दाल-साग-सब्जी वाली नमक को भी कम करने की सलाह दी जाती है।

मुझे अभी अभी लगा कि यह नमक वाला पाठ तो मैं इस मीडिया डाक्टर वाली क्लास में आप सब के साथ मिल बैठ कर पहले भी डिस्कस कर चुका हूं.......कहीं वही बातें तो दोहरा नहीं रहा, इसलिए मैंने मीडिया डाक्टर ब्लाग पर दाईं तरफ़ के सर्च आप्शन में देवनागरी में नमक लिखा तो मेरे लिए ये लेख प्रकट हो गये......यकीन मानिए, इन में लिखी एक एक बात पर आप यकीन कर सकतें......बिना किसी संदेह के.......

मीडिया डाक्टर: केवल नमक ही तो नहीं है नमकीन ! (जनवरी १५ २००८)
मीडिया डाक्टर: एक ग्राम कम नमक से हो सकती है ... सितंबर २६ २००९
मीडिया डाक्टर: नमक के बारे में सोचने का समय ...(मार्च २९ २००९)
आखिर हम लोग नमक क्यों कम नहीं कर पाते (जून १६ २०१०)
श्रृंखला ---कैसे रहेंगे गुर्दे एक दम फिट (अक्टूबर ४ , २००८)
आज एक पुराने पाठ को ही दोहरा लेते हैं (जनवरी २९ २००९)
मीडिया डाक्टर: श्रृंखला ---कैसे रहेंगे ... (अक्टूबर १ २००८)

सर्च रिजल्ट में तो बहुत से और भी परिणाम आए हैं ..जिन में भी नमक शब्द का इस्तेमाल किया गया था।  मेरे विचार में आज के लिए इतने ही काफ़ी हैं।

आज इस विषय पर लिख कर यह लगा कि इस तरह के पाठ बार बार मीडिया डाक्टर चौपाल पर बैठ कर दोहराते रहना चाहिए......अगर किसी ने भी आज से नमक कम खाना शुरू कर दिया तो जो थोड़ी सी मैंने मेहनत की, वह सफल हो गई। मेरे ऊपर भी इस लिखे का असर हुआ.....मैं अभी अभी जब दाल वाली रोटी (बिना तली हुई).. खाने लगा तो मेरे हाथ आम के आचार की शीशी की तरफ़ बढ़ते बढ़ते रूक गये। ऐसे ही छोटे से छोटे प्रयास करते रहना चाहिए।

यह पाठ तो हम ने दोहरा लिया, आप अपनी कापियां-किताबें बंद कर सकते हैं .....और आज स्वतंत्रता दिवस के मौके पर एक दूसरा पाठ भी दोहराने की ज़रूरत है......मैं तो इसे अकसर दोहरा लेता हूं.....आप भी सुनिए यह लाजवाब संदेश...

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

बिना काटे आम खाना बीमारी मोल लेने जैसा

फिर चाहे वह लखनऊवा हो, सफ़ेदा हो या दशहरी ....किसी भी आम को बिना काटे खाने का मतलब है बीमार होना। अभी आप को इस का प्रमाण दे रहा हूं।

मुझे वैसे तो आमों की विभिन्न किस्मों का विशेष ज्ञान है नहीं लेकिन यहां लखनऊ में रहते रहते अब थोड़ा होने लगा है। वैसे तो मैं भी कईं बार लिख चुका हूं कि आम को काट कर खाना चाहिए, उस के छिलके को मुंह से लगाना भी उचित नहीं लगता ---हमें पता ही नहीं कि ये लोग कौन कौन से कैमीकल इस्तेमाल कर के, किन किन घोलों में इन्हें भिगो कर रखने के बाद पकाये जाने पर हम तक पहुंचाते हैं......तभी तो बाहर से आम बिल्कुल सही और अंदर से बिल्कुल गला सड़ा निकल आता है।

मेरी श्रीमति जी मुझे हमेशा आम को बिना काट कर खाने से मना करती रहती हैं। और मैं बहुत बार तो बात मान लेता हूं लेकिन कभी कभी बिना वजह की जल्दबाजी में आम को चूसने लगता हूं। लेकिन बहुत बार ऐसा मूड खराब होता है कि क्या कहें.....यह दशहरी, चौसा, सफ़ेदा या लखनऊवा किसी भी किस्म का हो सकता है। सभी के साथ कुछ न कुछ भयानक अनुभव होते रहते हैं।

आज भी अभी रात्रि भोज के बाद मैं लखनऊवा आम चूसने लगा.......अब उस जैसे आम को लगता है कि क्या काटो, छोटा सा तो रहता है, लेकिन जैसे ही मैंने उस की गुठली बाहर निकाली, मैं दंग रह गया......वैसे इतना दंग होने की बात तो थी नहीं, कईं बार हो चुका है, हम ही ढीठ प्राणी हैं, वह अंदर से बिल्कुल सड़ा-गला था....अजीब सी दुर्गंध आ रही थी, तुरंत उसे फैंका।

काटे हुए लखनऊवे आम का अंदरूनी रूप 
अभी मुझे इडिएट-बॉक्स के सामने बैठे पांच मिनट ही हुए थे कि श्रीमति ने यह प्लेट मेरे सामने रखते हुए कहा...विशाल के बापू, आप को कितनी बार कहा है कि आम काट के खाया करो, यह देखो। मैं तो यार यह प्लेट देख कर ही डर गया। आप के लिए भी यह तस्वीर इधर टिका रहा हूं।

मेरी इच्छा हुई कि उसे उलट पलट कर देखूं तो कि बाहर से कैसा है, तो आप भी देखिए कि बाहर से यही आम कितना साफ़-सुथरा और आकर्षक लग रहा है। ऐसे में कोई भी धोखा खा कर इसे काटने की बजाए चूसने को उठा ले।

बाहर से ठीक ठाक दिखता ऊपर वाला लखनऊवा आम 
लेकिन पता नहीं आज कर चीज़ों को क्या हो गया है, कितनी बार इस तरह के सड़न-गलन सामने आने लगी है।

अब दाल में कंकड़  आ जाए, तो उसे हम थूक भी दें, अगर ऐसे आम को चूस लिया और गुठली निकालने पर पर्दाफाश हुआ तो उस का क्या फायदा, कमबख्त उल्टी भी न हो पाए.......अंदर गया सो गया। अब राम जी भला करेंगे।

पहले भी मैं कितनी बार सुझाव दे चुका हूं कि आम की फांकें काट कर चमच से खा लेना ठीक है।

वैसे श्रीमति जो को आम इस तरह से खाना पसंद है.........अब मुझे भी लगने लगा है कि यही तरीका या फिर काट कर चम्मच से खाना ही ठीक है, कम से कम पता तो लगता है कि खा क्या रहे हैं, वरना तो पता ही नहीं चलता कि पेट में क्या चला गया। फिर अब पछताए क्या होत.......वाली बात।

आम खाने का एक साफ़-सुथरा तरीका 
दो दिन पहले ही मैं पढ़ रहा था कि किसी दूर देश में किस तरह से भुट्टे (मक्के) में किसी तरह की बीमारी को मानव जाति में किसी बीमारी से लिंक किया जा रहा है और वहां पर हड़कंप मचा हुआ है। उस जगह का ध्यान नहीं आ रहा, कभी ढूंढ कर लिंक लगाऊंगा।

यह पहली बार नहीं हुआ .....बहुत बार ऐसा हो चुका है, और बहुत से फलों के साथ ऐसा हो चुका है। मेरी श्रीमति जी मुझे हर एक फल को काट कर खाने की ही सलाह देती रहती हैं....... अमरूदों, सेबों के साथ भी ऐसे अनुभव हो चुके हैं.

मुझे बिल्कुल पके हुए पीले अमरूद बहुत पसंद हैं.......मैं उन्हें ऐसे ही बिना काटे खा जाया करता था, लेकिन मिसिज़ की आदत चाकू से काटने के बाद भी उस का गहन निरीक्षण करने के बाद ही कुछ खाती हैं या खाने को देती हैं।

ऐसी ही एक घटना पिछले साल की है .....उन्होंने मेरे सामने एक अमरूद काट कर रखा कि आप देखो इस में कितने छोटे छोटे कीड़े हैं, मैंने तुरंत कहा कि यह तो बिल्कुल साफ सुथरा है, इस में तो कीड़े हैं ही नहीं, लेकिन जब उन्होंने मुझे वह कीड़े दिखाए तो मैं स्तब्ध रह गया........मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ कि मैं कितनी गलती करता रहा। वैसे मैंने अमरूद में मौजूद कीड़ों के खाए जाने पर होने वाले नुकसान के बारे में नेट पर बहुत ढूंढा लेकिन मुझे कुछ खास मिला नहीं, लेिकन बात फिर भी वही है कि मक्खी देख कर तो निगली नहीं जाती।

हां, मैंने उस अमरूद में मौजूद कीड़ों के चलने -फिरने की एक वीडियो ज़रूर बना ली और अपने यू-ट्यूब चैनल पर अपलोड कर दी, आप भी देखिए.........(और गल्ती से इसे पब्लिक करना भूल गया..)

लगता है आज से एक बार फिर संकल्प करना होगा कि बिना काटे केवल आम ही नहीं, कोई भी फल खाना ही नहीं,  यह बहुत बड़ी हिमाकत है.............आप भी सावधान रहियेगा।

मछली खाने का सलीका

अगर किसी रिपोर्ट का शीर्षक यह है ... Relearning how to eat Fish...... तो मेरी तरह आप को भी यही लगेगा कि शायद यहां मछली के खाने का कुछ विशेष सलीका बताया जा रहा होगा।

मैं झट से उस लिंक पर क्लिक कर के उधर पहुंच गया इस उम्मीद के साथ कि शायद इस में लिखा हो कि मछली खाते समय इस के कांटों से कैसे अपना बचाव करना है क्योंकि बचपन में जाड़े के दिनों में चंद बार जो भी मछली खाई उस का कभी भी मज़ा इसलिए नहीं आया कि ध्यान तो हर पल उधर ही अटका रहा कि कहीं हलक में कांटा-वांटा अटक न जाए...हर बार खाते समय बंगाली बंधुओं का ध्यान कि कैसे वे लोग मछली इतनी सहजता से खा लेते हैं और वह भी चावल के साथ........और हैरानी की बात सारे कांटे मुंह के अंदर ही अलग करते हैं और इक्ट्ठे होने पर बाहर फैंक देते हैं. मेरे को यह बात हमेशा अचंभित करती है।

हां, तो मैंने उस लिंक पर जाकर देखा कि वहां तो बातें ही बहुत ज़्यादा हाई-फाई हो रही हैं, न तो मेरी समझ में कुछ आया न ही मैंने कोशिश की...क्योंकि जितने नियंत्रण की, जिस तरह से मछली की श्रेणियों की बातें और जितनी एहतियात मछली खरीदने वक्त करने को कहा गया, मुझे वह सब बेमानी सा लगा.........क्योंकि यहां पर ऐसा कुछ भी कंट्रोल तो है नहीं, जो बिक रहा है, लेना हो तो लो, वरना चलते बनो।

अगर खाने का सलीका नहीं सिखाया जा रहा इस लिंक में तो मैंने लिंक क्यों टिका दिया........केवल इस कारण से कि अपने मछली खाने वाले बंधु न्यूयार्क टाइम्स की इस रिपोर्ट से कुछ तो जान लें, शायद कुछ काम ही आ जाए। 

पहले ९० दिनों में विकसित हो जाता है बच्चों का आधा दिमाग

बच्चों का मस्तिष्क बहुत तेज़ी से विकसित होता है लेकिन इसके विकास का स्तर ऐसा है कि यह जन्म के बाद पहले ९० दिनों में व्यस्क स्तर के आधे स्तर तक विकसित हो जाता है, यह पता चला है एक बहुत ही महत्वपूर्ण रिसर्च के द्वारा।

वैज्ञानिकों को इस अध्ययन से मस्तिष्क से जुड़ी कुछ बीमारियों की जड़ तक भी पहुंचने में मदद मिलेगी।

मस्तिष्क के इतने तेज़ी से विकास का समाचार सुनने के बाद मेरा ध्यान दो-तीन मुद्दों की तरफ़ जा रहा है। 

स्तनपान...... दुनिया के सारे चिकित्सक माताओं को जन्म के तीन महीने तक केवल अपना स्तनपान करवाने की ही सलाह देते हैं। यह दूध न हो कर एक अमृत है.....जो बढ़ते हुए बच्चे के लिए एक आदर्श खुराक तो है , यह उस बच्चे को कईं तरह की बीमारियों से भी बचा कर रखता है। 

जब बच्चा पहले तीन माह तक मां के दूध पर ही निर्भर रहता है तो वह बाहर से दिये जाने वाले दूध-पानी की वजह से होने वाली विभिन्न तकलीफ़ों से बचा रहता है। यह तो आप जानते ही हैं कि पहले तीन महीने तक तो चिकित्सक बच्चे को केवल मां के दूध के अलावा कुछ भी नहीं----यहां तक कि पानी भी न देने की सलाह देते हैं। 

अब विचार करने वाली बात यह है कि जिस मां के दूध पर बच्चा पहले तीन महीने आश्रित है और जिस के दौरान पहले तीन महीनों में ही उस का मस्तिष्क आधा विकसित होने वाला है, उस मां की खुराक का भी हर तरह से ध्यान रखा जाना चाहिए....यह बहुत ही, बहुत ही ज़्यादा ज़रूरी बात है। 

चूमा-चाटी से परहेज..   और मुझे ध्यान आ रहा था कि पहले हम देखा करते थे कि बच्चे जब पैदा होते थे तो कुछ दिन तक अड़ोसी-पड़ोसी, रिश्तेदार आदि उस के ज़्यादा खुले दर्शन नहीं कर पाते थे.....हां, झलक वलक तो देख लेते थे, लेकिन यह चूमने-चाटने पर लगभग एक प्रतिबंध सा ही था......कोई कुछ नहीं कहता था, लेकिन हर एक को पता था कि नवजात शिशु पर पप्पियां वप्पियां बरसा कर उसे बीमार नहीं करना है। अब लगने लगा है कि लोग इस तरफ़ ज़्यादा ध्यान नहीं देते......

लेिकन अब यह रिसर्च ध्यान में आने के बाद लगता है हम सब को और भी सजग रहने की ज़रूरत है.....

और एक बात, डाक्टर लोग जैसे बताते हैं कि जन्म के बाद बच्चे को चिकित्सक के पास डेढ़ माह, अढ़ाई माह और साढ़े तीन माह के होने पर लेकर जाना चाहिए, यह सब भी करना नितांत आवश्यक है क्योंकि इस के दौरान शिशुरोग विशेषज्ञ उस के विकास के मील पत्थर (Development mile-stones) चैक करता है, स्तनपान के बारे में चंद बातें करता है, उस के सिर के घेरे को टेप से माप कर उस के विकास का अंदाज़ा लगाता है। 

यह पोस्ट केवल यही याद दिलाने  के लिए कि पहले तीन माह तक बच्चे का विशेष ध्यान रखा जाना क्यों इतना ज़रूरी है, क्यों उसे केवल मां ही दूध ही दिया जाना इतना लाजमी है, इस का उद्देश्य केवल उसे दस्त रोग से ही बचाना नहीं है......

सोमवार, 11 अगस्त 2014

यह भी पर्सनल हाइजिन का ही हिस्सा है..


सैक्स ऐजुकेशन, किशोरावस्था के मुद्दे, स्वपनदोष, शिश्न की रोज़ाना सफ़ाई......शायद आप को लगे कि यह मैंने किन विषयों पर लिखना शुरू कर दिया है। लेकिन यही मुद्दे आज के बच्चों, किशोरों एवं युवाओं के लिए सब से अहम् हैं।

मुझे कईं बार लगता है कि मैं पिछले इतने वर्षों से सेहत के विषयों पर लिख रहा हूं और मैं इन विषयों पर लिखने से क्यों टालता रहा। याद है कि २००८ में एक लेख लिखा था......स्वपनदोष जब कोई दोष है ही नहीं तो.... लिखा क्या था, बस दिल से निकली चंद बातें थीं जो मैं युवाओं के साथ शेयर करना चाहता था.....बस हो गया।

मैंने वह लेख किसी तरह की वाहावाही के लिए नहीं लिखा था.....लेकिन वह लेख हज़ारों युवाओं ने पढ़ा है......मैंने अपने बेटों को भी उसे पढ़ने को कहा......और वह लेख पढ़ने के बाद मुझे बहुत सारी ई-मेल युवाओं से आती हैं कि हमें यह लेख पढ़ कर बड़ी राहत मिली।

मैं जानता हूं कि मैं कोई सैक्स रोग विशेषज्ञ तो हूं नहीं, लेकिन फिर भी जो हमारे पास किसी विषय का ज्ञान है, चाहे वह व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित हो और जो कुछ चिकित्सा क्षेत्र में रहने के कारण उस में जुड़ता गया, अब अगर वह ज्ञान हम जैसी उम्र के लोग शेयर नहीं करेंगे तो कौन आयेगा इस काम के लिए आगे। अच्छा एक बात और भी है कि इंगलिश में तो यह सब जानकारी उपलब्ध है नेट पर लेकिन हिंदी में इस तरह के कंटैंट का बहुत अभाव है।

मैं जानता हूं कि कितना मुश्किल होता है अपने लेख में यह लिखना कि मुझे भी किशोरावस्था के उस दौर में स्वपनदोष (night fall)  होता था....लेकिन क्या करें युवा वर्ग की भलाई के लिए सब कुछ सच सच शेयर करना पड़ता है. वरना मैं हर समय यह लिखता रहूं कि यह एक नार्मल सी बात है उस उम्र के लिए.....तो भी कहीं न कहीं पाठक के मन में यह तो रहेगा कि लगता है कि इसे तो नहीं हुआ कभी स्वपनदोष........ वरना यह लिख देता। यही कारण है कि सब कुछ दिल खोल कर खुलेपन से लिखना पड़ता है। उद्देश्य सिर्फ़ इतना सा ही है कि जिस अज्ञानता में हमारी उम्र के लोग जिए--इस तरह की सामान्य सी बातों को भी बीमारी समझते रहे..... आज के युवा को इस तरह के विषयों के बारे में सटीक जानकारी होनी चाहिए।

आज ध्यान आ रहा था...... शिश्न की रोज़ाना सफ़ाई के मुद्दे का। यह एक ऐसा मुद्दा है कि जिस पर कभी बात की ही नहीं जाती क्योंकि वैसे ही बालावस्था में शिश्न को हाथ लगाने तक को पाप लगेगा कहा जाता है, ऐसे में इस की सफ़ाई की बात कौन करेगा।

अगर इस लेख के पाठक ऐसे हैं जिन के छोटे बच्चे हैं तो वे अपने बच्चे के शिशु रोग विशेषज्ञ से इस मुद्दे पर बात करें। यह एक बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है...मैं इस के ऊपर जान बूझ कर कोई सिफारिश नहीं करूंगा....लेकिन बस इतना कह कर अपने अनुभव शेयर करने लगा हूं कि इस की रोज़ाना सफाई शिश्न की आगे की चमड़ी आराम से पीछे कर के (जितनी हो उतनी ही, बिना ज़ोर लगाए... यह बहुत ज़रूरी है)...... उस पर थोड़ा साबुन लगा कर रोज़ाना धोना ज़रूरी है।

चाहे अपने बारे में लिखना कितना ही एम्बेरेसिंग लगे ... तो लगे, लेकिन लिखूंगा। हमें पता ही नहीं था कि शिश्न के अगल हिस्से की इस तरह से सफ़ाई करनी होती है, कभी किसी से भी चर्चा हुई नहीं, किसी ने बताया नहीं। इस के कारण १४-१५ वर्ष की उम्र में बड़ा लफड़ा सा होने लगा। जब भी पेशाब जाएं तो जलन होने लगे...... कुछ समय के बाद ठीक हो जाए...ठीक से याद नहीं कि पेशाब करने से पहले हुआ करती थी या बाद में, लेकिन होती तो थी, बीच बीच में अपने आप ही ठीक भी हो जाया करती थी। अपने आप ही थोड़ा पानी ज़्यादा पीने लगता था कि आराम मिलेगा, किसी से बात क्या करें, इसलिए झिझक की वजह से यह सब पांच-छः वर्ष ऐसे ही चलता रहा।

१९-२० की उम्र में एक दिन हिम्मत कर के मैं अपने आप पहुंच ही गया मैडीकल कालेज के मैडीसन विभाग की ओपीडी में .....उस डाक्टर ने अच्छे से बात की, और मेरे से पूछा कि क्या तुम रोज़ाना इस की सफ़ाई नहीं करते.....मैंने तो उस तरह की सफ़ाई के बारे में पहली बार सुना था। आगे की चमड़ी (prepuce) बिल्कुल अगले हिस्से के साथ (glans penis)  चिपकी पड़ी थी।

बहरहाल, सब टैस्ट वेस्ट करवाए गये, उस डाक्टर के समझाए मुताबिक आगे की चमड़ी पीछे करने के पश्चात मैंने उस दिन से ही साफ़ सफाई का ख्याल रखना शुरू किया..... और मैं अब यह लिखने के लिए बिल्कुल असमर्थ हूं कि मुझे वैसा करने से कितना सुकून मिला....होता यूं है कि शिश्न की आगे से सफ़ाई न करने से.....शिश्न के अगले हिस्से के आस पास वाली चमड़ी से निकलने वाला एक सिक्रेशन.... स्मैग्मा--- इक्ट्ठा होने से ---शिश्न की अगले हिस्से वाली चमड़ी अगले हिस्से से ( glans penis) से चिपक जाती है, उस से उस जगह पर इरीटेशन होने लगती है .. और फिर यूटीआई (यूरिनरी ट्रेक्ट इंफैक्शन) भी हो जाती है..... यही हुआ मेरे साथ भी....... यूरिन की टैस्टिंग करवाई-- और उस के अनुसार सात दिन के लिए मुझे दवाई खाने के लिए दी गई........और बस मैं ठीक हो गया बिल्कुल।

पाठकों को यह भी बताना ज़रूरी समझता हूं कि उस अगले हिस्से में चमड़ी पीछे करने के पश्चात ज़्यादा साबुन भी रोज़ रोज़ लगाना ठीक नहीं है, बस केवल यही ध्यान रखना ज़रूरी है कि शरीर के हर हिस्से की सफ़ाई के साथ उस हिस्से की सफ़ाई भी रोज़ाना करनी नितांत आवश्यक है, वरना दिक्कतें हो ही जाती हैं।

 मेरे यह पोस्ट लिखने का उद्देश्य केवल आज के युवावर्ग तक यह संदेश पहुंचाना है, अब यह कैसे पहुंचेगा, मुझे पता नहीं। वैसे भी मैं यह कहना चाहता हूं कि मेरे इस तरह के लेखों को आप मेरी डायरी के पन्नों की तरह पढ़ कर भूल जाएं या किसी विशेषज्ञ के साथ इस में लिखी बातों की चर्चा कर के ही कोई निर्णय लें, यह आप का अपना निर्णय है। मैं जो संदेश देना चाहता था, मैं आप तक पहुंचा कर हल्का हो जाता हूं। आप अपने चिकित्सक से परामर्श कर के ही कोई भी निर्णय लें, प्लीज़।
Parenting literacy -- Cleanliness. 

किशोर युवतियों में कॉपर-टी लगा देना क्या सही है?

अमेरिका के कोलोरेडो की खबर अभी दिखी कि वहां पर किशोर युवतियों को गर्भ धारण करने से बचाने के लिए इंट्रा-यूटरीन डिवाईस फिट कर दिया जाता है। इसे संक्षेप में आईयूडी कहते हैं। मैंने पाठकों की सुविधा के लिए कॉपर-टी लिख दिया है।

रिपोर्ट में आप देख सकते हैं कि पांच साल से यह प्रोग्राम चल रहा है --किसी व्यक्ति ने इस महान काम के लिए २३ मिलियन डालर का गुप्तदान दिया है कि किशोर युवतियों को इस अवस्था में गर्भावस्था से बचाया जाए। और इस से कहा जाता है कि इस उम्र की किशोरियों में प्रेगनेंसी की दर ४०प्रतिशत कम हो गई है।

अमेरिका जैसे संभ्रांत एवं विकसित देशों में स्कूल जाने वाली किशोरियों में प्रेगनेंसी होना कोई छुपी बात नहीं है। और कहा जा रहा है कि कोलोरेडो में इस तरह की सुविधा मिलने से टीन्ज़ को बड़ी राहत मिल गई है। वैसे तो वहां पर कॉपर-टी जैसे उपकरण फिट करवाने में ५०० डालर के करीब का खर्च आता जो कि ये लड़कियां करने में असमर्थ होती हैं और अपने मां-बाप से इस तरह के खर्च के लिए मांगने से झिझकती हैं।

ऐसा नहीं है कि इस तरह की दान-दक्षिणा वाले काम का कोई विरोध नहीं हो रहा.......वहां पर कुछ संगठन इस तरह की विरोध तो कर ही रहे हैं कि इस तरह से तो आप किशोरियों को एक तरह से फ्री-सैक्स करने का परमिट दे रहे हैं कि बिना किसी झँझट के, बिना किसी फिक्र के वे अब इस अवस्था में ही सैक्स में लिप्त हो सकती हैं। और यह भी चेतावनी दी गई है कि १३-१५ वर्ष की बच्चियों के यौन संबंध बनाने में वैसे ही कितने नुकसान हैं। और इन सब के अलावा यह यौन जनित बीमारियों (STDs--Sexually transmitted diseases) को बढ़ावा देने जैसा है।

दुनिया आगे तो बढ़ रही है, बड़ी एडवांस होती दिख रही है .....भारत ही में देख लें कि अभी तो हम असुरक्षित संभोग के तुंरत बाद या फिर चंद घंटों के बाद उस एक गर्भनिरोधक टेबलेट के लिए जाने के बारे में ही चर्चा कर रहे हैं कि किस तरह से उस टेबलेट का दुरूपयोग हो रहा है।

मैं कोई नैतिक पुलिस के मामू की तरह बात नहीं कर रहा हूं.... लेकिन जो है वही लिख रहा हूं कि कितनी अजीब सी समस्या दिखती है कि स्कूल जाने वाली १३-१५ की बच्चियों में इस तरह के कॉपर-टी जैसे उपकरण फिट कर दिए जाएं ताकि वे गर्भावस्था के झंझट से बच पाएं।

विकसित देशों की अपनी सोच है....हमारी अपनी है.......क्या किशोरावस्था में इस तरह के डिवाईस लगवा कर प्रेगनेंसी से बचना ही सब कुछ है, सोचने वाली बात है, कोई भावनात्मक स्तर पर जुड़ाव, कोई पढ़ाई-लिखाई में रूकावट, यौन-संक्रमित बीमारीयां जैसे मुद्दे भी तो कोई मुद्दे हैं।

टीनएज प्रेगनेंसी विकसित देशों में (यहां का पता नहंीं, कोई आंकड़े नहीं...)एक विषम समस्या तो है ही, लेिकन उस से झूझने का यह तरीका मेरी समझ में तो आया नहीं। ठीक भी नहीं लगता कि कोई और ढंग का तरीका --उन की सोच बदलने का प्रयास- आजमाने की बजाए यह कॉपर-टी या इंप्लांट ही फिट कर दिए जाएं........न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी.. .......नहीं, नहीं, इस तरह की स्कीमों में दम नहीं है।

भारत में तो विमेन-एक्टिविस्ट एवं महिलारोग विशेषज्ञ अभी उस असुरक्षित संभोग के बाद ली जाने वाले टेबलेट के कुछ युवतियों-महिलाओं के द्वारा किए जाने वाले दुरूपयोग के बारे में ही जन-जागरूकता बढ़ा रही हैं कि इस गोली को नियमित बार बार लेना सुरक्षित नहीं है, हर पक्ष से......... हर पक्ष का मतलब तो आप जानते ही हैं।

Colorado birth control scheme casues drop in teen pregnancy  (BBC Report) 

रविवार, 10 अगस्त 2014

किशोरावस्था के अहम् मुद्दे...

अभी कुछ सर्च कर रहा था तो यह पन्ना दिख गया...अमेरिकन एकेडमी ऑफ पिडिएट्रिक्स का तैयार किया हुआ.. इस की विश्वसनीयता के बारे में आप पूरी तरह से आशवस्त हो सकते हैं। बिल्कुल विश्वसनीय जानकारी है ...इस पेज पर यह बताया गया है कि किशोरावस्था में कौन से मुद्दे किशोरों को परेशान किए रहते हैं.......

मोटी आवाज़ --- लड़के जब किशोरावस्था में प्रवेश करते हैं तो उन की आवाज़ भारी भरकम हो जाती है। इस से उन्हें बड़ी परेशानी सी होती है.....एम्बेरेसमैंट महसूस करते हैं, यह इस लेख में लिखा गया है तो मैं लिख रहा हूं लेकिन मेरे को नहीं लगता कि इस देश में यह कोई मुद्दा भी है। मैंने नहीं नोटिस किया कि आवाज़ के इस बदलाव से बच्चे परेशान होते हैं, पता नहीं मेरे अनुभव में यह बात आई ऩहीं।

गीले सपने (वेट ड्रीम्ज़).....यह अकसर होता है कि बच्चा सुबह उठता है तो उस का पायजामा और चद्दर भीगे हुए हों। यह पेशाब की वजह से नहीं बल्कि गीले सपने या रात में वीर्य के स्खलन की वजह से होता है, जो रात में सोते सोते ही हो जाता है। इस का मतलब यह नहीं कि लड़के को कोई कामुक सपना आ रहा था। लेकिन ऐसा हो भी सकता है (यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है)

लड़के के बापू को अपने बेटे को इस बार के बारे में बता चाहिए, उस के साथ इस विषय पर बात करनी चाहिए और उसी इस बात के लिए पूरी तरह से आश्वस्त करें कि आप को पता है कि इस के ऊपर उस (लड़के) का कोई नियंत्रण नही है..और वह इसे रोक नहीं पायेगा। बड़े होने की प्रक्रिया का यह वेट-ड्रीम्ज़ भी एक हिस्सा ही है।

अपने आप ही शिश्न का खड़ा हो जाना (involuntary erection)-- किशोरावस्था में प्रवेश करने पर लड़कों का पिनिस बिना उसे टच किए या बिना किसी प्रकार के कामुक विचारों के.. अपने आप ही खड़ा हो जाता है..अगर ऐसा कभी किसी पब्लिक जगह पर जैसे कि स्कूल आदि में हो जाता है तो लड़के को एम्बेरेसिंग लग सकता है। अगर आप का लड़का उम्र की इस अवस्था में है तो उसे बता कर रखें कि इस तरह से पिनिस का अपने आप उस की उम्र में उठ जाना भी एक बिल्कुल सामान्य सी बात है और यह केवल इस बात का संकेत है कि उस का शरीर मैच्यओर हो रहा है। यह सभी लड़कों में इस उम्र में हो सकता है......और जैसे जैसे समय बीतेगा इन की फ्रिक्वेंसी कम हो जायेगी। जी हां, मेरे साथ भी उस उम्र के दौरान ऐसा कईं बार हुआ था।

बस इतना सा कहना ही उस किशोर के मन पर जादू सा काम करेगा, भारी भरकम बोझ उतर जाएगा उस के सिर से कि पता नहीं यह सब क्यों होता है।

स्तन बड़े होना -- इन वर्षों में कईं बार किशोरों के स्तन थोड़े बढ़ जाते हैं और वे इस के बारे में चिंतित रहने लगते हैं लेकिन इस के लिए कुछ करना नहीं होता, अपने आप ही यह सब कुछ ठीक हो जाता है। इस और पता नहीं कभी मैंने तो ध्यान दिया ही नहीं।

एक अंडकोष दूसरे से बड़ा होना......एक अंडकोष का दूसरे से बड़े होना सामान्य भी है और एक आम सी बात भी है।

आप ने देखा कि किस तरह के कुछ छोटी छोटी दिखने वाली बातें किशोरों के मन का चैन छीन लेती हैं उस समय के दौरान जब उन का पढ़ाई लिखाई में मन लगा होना चाहिए। लेकिन अफसोस अभी तक हम लोग यही निर्णय नहीं कर पा रहे कि किशोरों को सैक्स ऐजुकेशन दी जानी कि नहीं, कितनी दी जानी चाहिए........आप भी ज़रा यह सोचिए कि अगर किशोरावस्था में बच्चों को ये सब बातें बता दी जाएंगी तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा।

मुझे मेरे मित्र बार बार कहते रहते हैं कि यार तुम इंगलिश में लिखा करो.........लेकिन अकसर इंगलिश में लिखने की इच्छा इसलिए नहीं होती क्योंकि इतनी सुंदर जानकारी हर विषय पर नेट पर इंगलिश में उपलब्ध है लेकिन हिंदी पढ़ने वालों की ज़रूरत कैसे पूरी हो, उन्हें क्यों विश्वसनीय जानकारी से वंचित रखा जाए, बस यही जज्बा है जो मेरे से हिंदी में कुछ भी लिखवाता रहता है।

प्रमाण --->>   Concerns boys have about puberty   और साथ में मेरे व्यक्तिगत अनुभव का आधार. अगर अभी भी किशोरों तक यह सब जानकारी न पहुंचे तो मैं क्या कहूं ?

Generally we take for granted that our adolescent boys know all this. No, they don't know the truth explained above. They just know distorted facts dished out to them by vested interests and peer-groups. Take care--- Stay informed, stay care-free!!