शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

फूल तोड़ना मना है!

"शर्मा जी, आप की फिटनेस का राज़ अब समझ में आया.."- पिछले हफ्ते मैंने बैंक के एक अधिकारी को यह कहा तो उन की तो बांछें खिल गईं...उन्हें समझ ही में नहीं आ रहा था कि चुप रहें, बात को आगे बढ़ाएं या खुशी को पान की पीक के साथ ही निगल जाएं....

मुझे नहीं पता कि उन्होंने अपने मुंह के अंदर भरी पीक को कैसे मैनेज किया ....लेकिन तुरंत बोल उठे---"डाक्टर साब, कहां देखा आपने मुझे?"

"वहीं पराग डेयरी वाली रोड़ पर ...आपको बड़ी मस्ती से टहलते देखता हूं..."

शर्मा जी हंसने लगे ...और बोले  - "3-4 किलोमीटर टहलना भी हो जाता है, और साथ में फूल भी ले आता हूं..."

टहलने वाली बात तो मुझे भा गई ..लेकिन फूल वाली बात पर मैं अटक गया..."शर्मा जी, फूल!"

हंसते हंसते कहने लगे- "इसी बहाने पूजा के लिए फूल भी तोड़ लाता हूं.."

एक बात तो तबीयत हुई कि कह दूं शर्मा जी क्या ही अच्छा हो, अगर आप थोड़ा वक्त और सो लिया करें ...कम से कम फूलों की आफत तो न आएगी। सुबह सवेरे टहलने के बहाने डेयरी से दूध लाने वाली बात तो हम लोग बचपन से सुनते-देखते रहे हैं लेकिन सुबह टहलने के बहाने फूलों को इक्ट्ठा करने वाली बात अजीब सी लगी ....


जिन पेड़ों को हम ने रोपा नहीं, पानी दिया नहीं , परवरिश की नहीं, परवाह की नहीं ....उन के फूलों पर हमारा हक कैसे हुआ !! 

फिर मुझे ध्यान आया कि यहां लखनऊ में अकसर देखता हूं  कि जो लोग सुबह टहलने निकलते हैं उन में से कुछ के हाथ में एक पन्नी होती है जिस में वे लोग यहां-वहां से फूल तोड़ तोड़ कर ठूंसते रहते हैं....मुझे यह देख कर बहुत अफसोस होता है ...मैं मन ही मन सोचता हूं कि ईश्वर, इन्हें इस समय इन खूबसूरत फ़िज़ाओं में भेजा ही क्यों, प्रभु, आप तो सर्वशक्तिमान हो, इन्हें एक-दो घंटे सोए ही रहने दिया करो...

जी हां, मुझे फूल तोड़ने वालों से बहुत बड़ी शिकायत है ....और वह भी सड़क पर लगे और पार्कों में खुशियां लुटाते, मुस्कुराहटें बिखेरते खूबसूरत फूल लोग ऐसे तोड़ तोड़ कर इक्ट्ठा करने लगते हैं...

सुबह सुबह पता नहीं कितने उदास चेहरों पर इन फूलों को देखते ही खुशी लौट आती है ...फूलों की फितरत ही ऐसी है ...जोश मलीहाबादी याद आ गए ...वे फरमाते हैं ....

गुंचे, तेरी ज़िंदगी पे जी हिलता है....
बस, एक तबस्सुम के लिए खिलता है ...
गुंचे ने कहा ...
इस चमन में बाबा,
एक तबस्सुम भी किसे मिलता है...

जहां तक मुझे याद है बचपन में कभी कभी चोरी-चुपके फूल तोड़ते थे ...लेकिन जैसी ही थोड़ी बहुत समझ आई तो आस पास की सार्वजनिक जगहों पर बोर्ड लगा देखते थे ...फूल तोड़ना मना है। बस, हमारे मन में बैठ गया कि फूल तोड़ेंगे तो माली पकड़ लेगा और पिटाई भी करेगा ..इसलिए इस आदत से बच गए.

मुझे यह भी याद है घर में सैंकड़ों गुलाब के फूल लगे रहते थे ..बड़े बड़े गुच्छे... लेकिन वे अपने आप ही नीचे गिरते थे ...इतने ज़्यादा फूल देख कर हमारे आस पास की महिलाएं मेरी मां को कहा करती थीं कि आप तो गुलकंद तैयार कर लिया करो....मां को भी फूल तोड़ने में कोई खास रूचि न थी, कभी एक दो बार गुलकंद तैयार भी हुआ ...और हां, मेरी बड़ी बहन 31 मार्च के दिन सुबह 40-50 गुलाब के फूल तोड़ कर मुझे चारपाई पर साथ बैठा कर सूईं-धागा लेकर बडे़ चाव से एक फूलों की माला ज़रूर तैयार कर के मुझे अखबार में लपेट कर दे देती कि जैसे ही स्कूल के मास्टर साब तुम्हारा रिज़ल्ट बोलेंगे ....तुम ने उन के पास जाकर उन्हें फूलों का हार पहनाना है ..यह सिलसिला पांचवी कक्षा तक चलता रहा ....और वे लम्हे मेरी यादों का खज़ाना है ...

कालेज पहुंचे ...एक दिन बॉटनी का पीरियड चल रहा था ...प्रोफैसर कंवल साहब ने एक छात्र को क्लास के बाहर लगे एक पेड़ की तरफ इशारा किया और कहा कि उस का एक पत्ता लेकर आओ....वह झट से गया....उसने एक झटके से पूरी की पूरी टहनी ही खींच लाया....उसे नहीं पता था कि प्रोफैसर साहब उसे देख रहे हैं....जैसे ही लौटा ....उन्होंने उसे ऐसे घूरा और कहा ....अगर तुम्हें कोई ऐसे खींचे.....मैंने तो एक पत्ता लाने के लिेए कहा था....

बस, वह घटना भी 16-17 साल की उम्र में दिमाग में ऐसे दर्ज हुई कि कभी भूली नहीं ....जैसे फूलों पर फिल्माए गए वे सब हिंदी फिल्मी गीत जिन्हें कईं दशकों से सैंकड़ों बार देख-सुन चुके हैं लेकिन मन ही नहीं भरता....दिलो-दिमाग की हार्ड-ड्राईव में ऐसे स्टोर हो चुके हैं कि क्या कहें....जब भी उन्हें सुनते हैं, कहीं खो जाते हैं...



हां, तो बात हो रही थी सुबह सवेरे फूल तोड़ने वाले गिरोह की ...अच्छा एक बात और भी है, उन सब को यह आभास होता है कि वे कुछ गलत कर रहे हैं....लेकिन फिर भी आदत से मजबूर ....चार महिलाएं टहल रही होती हैं कईं बार तो हरेक के साथ में अलग से एक फूलों से भरी पन्नी होती है ...


घर में बहुत बढ़िया फूलदान हैं....बहुत ही खूबसूरत- मैटल के, सिरामिक के, पीतल के ....बहुत से एंटीक पीस भी ...लेकिन उन को ऐसे ही कभी कभी देख लेते हैं...फूल तोड़ कर उन में ठूंसने का कोई शौक नहीं है ...लेकिन कभी कभी जो फूल नीचे ज़मीन पर गिरे होते हैं मैं उन्हें ज़रूर उठा लेता हूं...क्योंकि मुझे लगता है कि हम उन्हें ही उठाने के हकदार है ...हंसते-खेलते, खिलखिलाते फूलों को तोड़ कर घर या ऑफिस की साज-सज्जा के लिए या उस प्रभु को अर्पण करना भी कहां तक जायज़ है जो स्वयं इस सारी रचना का कर्त्ता-धर्ता है ....और घर-दफ्तर में आए चार लोग झूठी तारीफ़ कर भी दें कि क्या फूल हैं...लाजवाब, उस के भी क्या हासिल!

फूल तो भई अपने पते पर - अपनी डाल पर ही लगे --खिलखिलाते, खुशियां बिखरते ही अच्छे लगते हैं....अगर फूलदानों का शौक है तो उस में प्लास्टिक के फूल आज कल बहुत बढ़िया मिलने लगे हैं, उन्हें ठूंस दीजिए गुलदानों में ...

इतना लिखने के बाद यह ख्याल आ रहा है कि यह भी कोई टापिक हुआ ...फूल तोड़ना मना है ....फिर ध्यान आया बचपन में घर में आनी वाली हिंदी मैगज़ीन सरिता का ....मेरी मां को पढ़ने का बहुत शौक था ...वे उसे ज़रूर पढ़ा करती थीं....और हम भी तीसरी-चौथी कक्षा में उस मैगज़ीन को हाथ में पकड़ते ही चुटकुलों, कार्टून के अलावा उस पन्ने को ढूंढने लगते जिस का शीर्षक होता था....मुझे शिकायत है....इस में साथ में लिखा होता था कि आप सार्वजनिक स्थानों पर इस की कतरन ज़रूर चिपका दीजिए......ये मैं 45-50 साल की बातें कह रहा हूं...जैसे किसी पाठक ने अपनी शिकायत में यह लिखा होता कि उसे शिकायत है उन लोगों से जो ट्रेन में टायलेट इस्तेमाल करने के बाद फ्लश नहीं चलाते, गंदगी फैलाते हैं.....और मैगजीन की तरफ से यह लिखा होता कि इस कतरन को संबंधित जगह पर चिपका दीजिए....हमारी भी इच्छा तो होती तो हम भी यह काम करें ....लेकिन कभी किया नहीं ...बस, पढ़ कर ही मज़ा ले लिया करते थे...


आज सुविधाएं हैं, नेट है, थोड़ा बहुत अपने मन की बात कहना भी जानने लगेे हैं...इसलिए इस तरह की हम सब से जुड़ी शिकायतें अपने ब्लॉग पर ही डाल दें....इसे देख कर अगर किसी ने भी सुबह टहलते रास्तों पर सजे हुए बेइंतहा खूबसूरत फूलों को तोड़ने से गुरेज कर लिया तो मेरी मेहनत सफल हो गई ....और मैं आप से कुछ मांग थोड़े ही न रहा हूं..!!